Book Title: Tattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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दीपिकानियुक्तिश्च अ ५ सू. १३
नारकजीवस्वरूपनिरूपणम् ५९७ उत्कृष्टेन तु–शरीरावगाहना रत्नप्रभानारकाणां षडङ्गुलाधिकानि पादोनाष्टधषि (प. - अ.शर्कराप्रभानारकाणां द्वादशाङ्गुलाधिकसार्द्धपञ्चदशधनूंषि (१५॥ध. १२ अं.) २। ७॥ - ६ वालुकाप्रभानारकाणां सपादैकत्रिंशद्धनुषि (३११.) ३। एवं शेषासु चतसृषु पङ्कप्रभादि तमस्तमः प्रभापर्यन्तपृथिवीपु नारकाणामवगाहना उत्तरोत्तरं द्विगुणा द्विगुणाऽवगन्तव्या । एवं सप्तसु पृथिवीषु नारकाणामुत्तरवैक्रियावगाहना तु स्व स्व स्थानगतभवधारणीयशरीरस्योत्कृष्टावगाहनातो द्विगुणाद्विगुणा भवतीति बोध्यम् ।।
उत्तरवैक्रियन्तु-नारकाणां शरीरं रत्नप्रभायां जघन्येना-ऽगुलस्य संख्येयभागप्रमाणम् , शर्कराप्रभादि षट् पृथिवीषु चाऽपि- जघन्येनाऽगुलस्य संख्येयभागप्रमाणमेव तेषामुत्तरवैक्रियं शरीरमवसेयम् । सूत्र ॥१३॥
मूलसूत्रम् - "अण्णमण्णोदीरिय दुक्खाय-" सूत्र-१४ छाया- "अन्योऽन्योदीरित दुःखाश्च-"
तत्वार्थदीपिका- पूर्वसूत्रे नारकाणां स्वरूपाणि शीतोष्णादिजनितदुःखादिकानि च प्रहपितानि, सम्प्रति-तेषां-प्रकारान्तरेणापि दुःखादिकं संजायते इति च प्ररूपयितुमाह---"अण्णमण्णो दीरिय दक्खाय-" इति । अन्योऽन्य-परस्परम् उदीरितम् उत्पादितं दुःखं येषां-यैर्वा ते ऽन्यो भवधारणीय शरीर रत्नप्रभा पृथ्वी में जघन्य अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण होता है । शर्कराप्रभा आदि में भी भवधारणीय शरीर की जघन्य अवगाहना इतनी ही होती है। उत्कृष्ट अवगाहना रत्नप्रभा में सात धनुष, तीन हाथ और छह अंगुल को है । यह परिमाण जो बतलाया गया है सो उत्सेधांगुल की अपेक्षा से समझना चाहिए। परमाणु आदि के क्रम से आठ यवमध्य को एक अंगुल कहते हैं। चौबीस अंगुल का एक हाथ होता है और चार हाथ का एक धनुष ।
रत्नप्रभा पृथ्वी में शरीर की जितनी उत्कृष्ट अवगाहना बतलाई गई है, उससे दुगुनी शर्कराप्रभा में होती है । शर्कराप्रभा से दुगुनी वालुकाप्रभा में, इस प्रकार सातवीं पृथ्वी तक दुगुनी-दुगुनी अवगाहना होती गई है।
नारकों के उत्तर वैक्रिय शरीर इस प्रकार होता है-रत्नप्रभा पृथ्वी में जघन्य अंगुल के संख्यातवें भाग प्रमाण और शर्कराप्रभा आदि आगे की छहो पृथ्वियों में भी अंगुल के संख्यातवें भाग की जघन्य अवगाहना होती है । तात्पर्य यह है कि नारक जीव यदि छोटे से छोटे शरीर की विक्रिया करे तो वह अंगुल के संख्यातवे भाग की होती है । सूत्र-॥१३॥
सूत्रार्थ--'अण्णमण्णो' इत्यदि । सूत्र १४नारक जीव आपस आपस में एक दूसरे को दुःख उत्पन्न करते रहते हैं ॥१४॥
तत्वार्थदीपिका--पूर्वसूत्र में नारकों के स्वरूप का और उन्हें होने वाले शीत एवं उष्णता जनित दुःखों का प्ररूपण किया गया है । अब यह प्ररूपणा करते हैं कि
શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧