Book Title: Tattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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तत्त्वार्थसूत्रे प्ररूपयितुमाह--'भवणवइ-वाणमंतराणं आइल्लाओ चत्तारिलेस्सा, जोइसियाणं तेउलेस्सा, वेमाणियाणं उवरिमा तिण्णि लेस्सा-,,इति ।
भवनपतिवानव्यन्तराणां दशविधाऽसुरकुमारादिभवनवासिदेवानाम्, अष्टविधकिन्नरादिवानव्यन्तराणाञ्चा-ऽऽद्याः-प्रथमाश्चतस्रः स्खलु कृष्णनीलकापोत-तेजोलेश्या भवन्ति । ज्योतिष्काणां -पञ्चविधचन्द्र-सूर्यादिज्योतिष्कदेवानान्तु-केवलमेका तेजोलेश्या भवति, वैमानिकानाञ्च-कल्पोपपन्नकानां द्वादशविधसौधर्मादोनाम्, कल्पातीतानाञ्च-नवग्रैवेयकपञ्चानुत्तरौपपातिकानां देवानाम् उपरितन्योऽन्तिमाः तिस्रः खलु तेजः पद्म-शुक्ललेश्या भवन्ति एता देवानां यथायथमवगन्तव्याः॥२२॥
तत्त्वार्थनियुक्तिः-पूर्व तावद् देवाः सामान्यतश्चतुर्विधाः, भवनपति–वानव्यन्तरज्योतिप्क-वैमानिकाः, विशेषतश्चाऽसुरकुमारादिदशविधभवनपतयः, अष्टविधाश्च-किंनरादयो वानव्यन्तराः, चन्द्र-सूर्यादयः पञ्चविधा ज्योतिष्काः, सौधर्मादिद्वादशविधाः कल्पोपपन्नका वैमानिकदेवा, नवग्रैवेयकपञ्चानुत्तरौपपातिकाश्च कल्पातीता वैमानिका देवाः, प्ररूपिता सम्प्रतितेषु देवेषु केषां देवानां कियत्यो लेश्या-भवन्तीति प्रतिपादयितुमाह "भवणवइ वाणमंतराणं आदिल्लाओ चत्तारि लेस्सा. जोइसियाणं तेउलेस्सा,वेमाणियाणं उवरिमा तिण्णि लेस्सा य-"इति । भवनपति-वानव्यन्तराणाम् देवानाम् आद्याश्चतस्रः खलु लेश्या कृष्ण-नील-कापोततेजोरूपा लेश्या भवन्ति ज्योतिष्काणां देवानां केवलमेका तेजोलेश्या भवति वैमानिकानां कल्पोपपन्नकानां सौधर्मादिद्वादशविधानम् , कल्पातोतानाञ्च-नवग्रैवेयकपञ्चानुत्तरौपपातिकानां च देवानाम् , उपरितन्योऽन्तिमास्तिस्नः खलु लेश्याः- तेजःपद्मशुक्लरूपा लेश्या भवन्ति ।
___ असुरकुमार आदि दस भवनपति देवों में तथा किन्नर आदि आठ प्रकार के वानव्यन्तर देवों में प्रारम्भ की चार लेश्याएँ-कृष्ण, नील, कापोत और तेज पाई जाती है । चन्द्र सूर्य आदि ज्योतिष्क देवों में एक मात्र तेजोलेश्या होती है और बारह कल्पोपपन्न, नौ ग्रैवेयक एवं पाँच अनुत्तरौपपातिक देवों में अन्तिम तीन लेश्याएँ-तेज, पद्म और शुक्ल, पाई जाती है । ॥२२॥
तत्त्वार्थनियुक्ति--पहले देवों के सामान्य रूप से चार भेद कहे गए-भवनपति, वानव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक । तत्पश्चात् भवनपतियों के असुरकुमार आदि दस भेद, वानव्यन्तरों के किन्नर आदि आठ भेद, ज्योतिष्को के चन्द्र-सूर्य आदि पाँच भेद और, कल्पोपपन्न वैमानिकों के बारह भेद, अवेयकों के नौ भेद और अनुत्तरौपपातिकों के पाँच भेद बतलाये गये हैं। अब यह प्रतिपादन करते हैं कि उन देवो में कितनी-कितनी भावलेश्याएँ होती है ?
भवनपतियों और वानव्यन्तरों में आदि की चार लेश्याएं, ज्योतिष्कों में तेजोलेश्या और वैमानिकों में अन्त की तीन लेश्याएं पाई जाती हैं। भवनपतियों और वानव्यन्तरो में कृष्ण, नील, कापोत और तेजोलेश्या ये चार लेश्याएं हैं।
सौधर्म आदि बारह प्रकार के कल्पोपपन्नक और कल्पातीत नवग्रैवेयक एवं पाँच अनुतरौपपातिक वैमानिक देवों में अन्त की तीन अर्थात् तेज़, पद्म और शुक्ल नामक लेश्याएं होती है
શ્રી તત્વાર્થ સૂત્રઃ ૧