Book Title: Tattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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तत्त्वार्थसूत्रे
तद्यथा - पञ्च ज्ञानावरणानि - ५ नव दर्शनावरणानि - ९ एकम् - असातावेद्यम् - १ षड्विं - शतिविधं मोहनीयम्--२६ सम्यक्त्वं सम्यग्मिथ्यात्वप्रकृतिद्वयरहितं बोध्यम्, तयोर्बन्धकत्वाभावात्, मिथ्यात्वमेकैकं बद्धं मोहनीयपापकर्मतया परिणमते । एकं नरकायुष्यम् - १ एक नीचे गोत्रम् - १ पञ्चविधमन्तरायम् - ५ एका नरकगतिः - १ एका च नरकगत्यानुपूर्वी - १ चतस्रोजातयः–४ दशसंहननसंस्थानानि - १० चतुष्कम् - अप्रशस्त वर्ण - गन्ध-रस - स्पर्शरूपम् - ४ एकमुपघातनाम - १ एकादश तावद् - अप्रशस्त विहायोगतस्थावर सूक्ष्माऽपर्याप्तकसाधारणनामास्थिराऽशुभदुर्भगदुः स्वराऽनादेयाऽयशः कीर्ति नामानि चेति
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अशीति भेदानि, पूर्वोक्त सम्यक्त्व - सम्यग् मिथ्यात्वरूपमोहनीयद्वय भेद संमेलनेन यधि - काशीति प्रकाराणि पापकर्मफलभोगसाधनानि भवन्तीतिभावः ॥ २ ॥
तत्त्वार्थनिर्युक्तिः -पूर्व पापकर्मणः स्वरूपं प्रतिपादितम्, सम्प्रति–तस्य खलु पापकर्मणो दुःखफलभोगसाधनानि द्य्वधिकाऽशीति प्रकारतया प्ररूपयितुमाह-
“तब्भोगो बासी भेएणं - " इति । तद्भोगः - तस्य खल्लु पापकर्मणः फलभोगो यधिकाशीतिप्रकारतया प्रज्ञप्त इति । तथाहि पञ्च ज्ञानावरणानि -५ नव दर्शनावरणानि - ८ असातावेदनीयं --मिथ्यात्वम् १ षोडशकषायाः - १६ नव नोकषाया - ९नरकायुष्यम्- १ नरकतिर्यग्गती २ एक द्वि-त्रि चतुरिन्द्रिय जातयः प्रथमवर्जितानि - ५ पञ्च संस्थानानि - ५ पञ्चैव संहननानि प्रकार के हैं । वे इस प्रकार हैं
ज्ञानावरण ( ५ ), दर्शनावरण ( ९ ), असातावेदनीय ( ९ ), मोहनीय ( २६ --- मोहनीय की सम्यक्त्व प्रकृति और सम्यग् मिध्यात्व प्रकृति को छोड़करके क्योंकि इन दो प्रकृतियों का बन्ध नहीं होता । एक मात्र मिथ्यात्व का बन्ध होता है, वही उदय के समय तीन रूप में परिणत हो जाता है), नरकायु (१), नीचगोत्र ( १ ), अन्तराय ( ५ ), नरकगति ( १ ), नरकगत्यानुपूर्वी (१), एकेन्द्रियजाति आदि जातियाँ ( ४ ), दस संहनन और संस्थान (१०) अप्रशस्त वर्ण, गंध, रस, स्पर्श (४) उपघात (१९) अप्रशस्त विहायोगति, स्थावर सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, अस्थिर अशुभ, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय और अयशः कीर्ति नाम कर्म ये ग्यारह मिलकर अस्सी भेद हुए इनमें सम्यक्त्व मोहनीय और मिश्रमोहनीय भेदों को मिला देने से पाप कर्म के फलोपभोग के वयासी प्रकार होते हैं ॥२॥
तत्त्वार्थनियुक्ति – इससे पाप कर्म का स्वरूप बतलाया गया है अब पापकर्म के दुःख रूप फल को भोगने के वयासी (८२) प्रकार कहते हैं-
पापकर्म का फलभोग वयासी प्रकार से होता है । वे वयासी प्रकार ये हैं- पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, असातावेदनीय, मिध्यात्व, सोलह कषाय, नौनोकषाय, नरकायु नरकगति, तिर्यचगति, एकेन्द्रियजाति, द्वीन्द्रियजाति, त्रीन्द्रियजाति, चतुरिन्द्रियजाति, समचतुरस्र संस्थान
શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર : ૧