Book Title: Tattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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तत्त्वार्यस्त्रे गृहस्थदशानुभूतरतक्रीडाद्यनुस्मरणात् कामाग्नि संदीपनं [सन्धुक्षणं] भवति, तस्मात्-तद्वर्जनं श्रेयः इति स्वात्मनि भावयेत् । १९
एवं-प्रणीतरसभोजनवर्जनं कर्तव्यम् , प्रणीतस्य--वृष्यस्य स्निग्धमधुरादिरसस्य' दुग्ध-दधिहैयङ्गवीन-घृत-गुड-तैलादिभक्षणेन मेदो-मज्जा-शुक्राद्युपचयादपि मोहोद्भवो भवति, तस्मात्निरन्तराभ्यासेन प्रणीतरसभोजनं वर्जनीयमिति ब्रह्मचर्यरक्षार्थमात्मनि भावयेत् २०
एवं-बाह्याभ्यन्तरपरिग्रहशून्यस्य श्रमणस्य पञ्चानां रूप-१रसरगन्ध-३स्पर्श-४शब्दानांमनोज्ञानामिन्द्रियार्थानां प्राप्तौ गार्थ्यतर्जनम् अमनोज्ञानाञ्च तेषां प्राप्तौ द्वेषवर्जनं कर्तव्यमित्यास्मनि भावयेत् २५ “उक्तञ्च समवायाङ्गे पञ्चविंशतितमे २५ समवाये-"पंचजामस्स पणबीसं भावणाओ पण्णत्ताओ, तंजहा-ईरियासमिति, मणगुत्ती, आलोयभायणभोयणं आदाणभंडमत्तनिक्खेवणासमिई, अणुवीइभासणया, कोहविवेगे, लोभविवेगे, भयविवेगे, हासविवेगे, उग्गह अणुण्णयणया, उग्गहसीमजाणणया, सयमेव उग्गहं अणुगिण्हणया, साहम्मिउग्गहं अणुण्णवियपरिभुजणया, साहारणभत्तपाणं अणुण्णाविय पडिझुंजणया, इत्थी पसुपंडगसंसत्तसयणासणवज्जणया, इत्थीकहवज्जणया इत्थीणं इंदियाण मालोयणवज्जणया, पुव्वरत्तपुच्चकीलियाणंअणणुसरणया, पणीयाहारवज्जणया, सोइंदियरागोवरई, चक्खिदियरागोवरई, पाणिदिय रागोवरई, जिभिदियरागोवरई फासिंदियरागोवरई, इति ।
पञ्चयामस्य पञ्चविंशतिर्भावनाः प्रज्ञप्ताः, तद्यथा-ईर्यासमितिः-१ मनोगुप्तिः-२ वचो
(१८) स्त्रियों की मनोहर इन्द्रियों को देखने से भी बचना चाहिए । उनके मनोरम कुच आदि के अवलोकन से विरत होना ही श्रेयस्कर है, ऐसी भावना करनी चाहिए ।
(१९) पूर्वकाल में भोगे हुए भोगों का स्मरण नहीं करना चाहिए । साधु-अवस्था में गृहस्थदशा में भोगे हुए भोगों का स्मरण करने से कामाग्नेि प्रदीप्त हो जाती है । अतएव उनके स्मरण का त्याग कर देना ही कल्याणकारी है ।
(२०) प्रतिदिन विना कारण पौष्टिक भोजन भी नहीं करना चाहिए । बल-वीर्यवर्धक स्निग्धमधुर आदि रसों का सेवन करने से तथा दूध, दही, घृत, गुड़ तैल आदि का सेवन करने से मेद, मज्जा एवं शुक्र आदि धातुओं का उपचय होता है और उससे मोह की उत्पत्ति होती है। अतएव हमेशा, अभ्यास रूप में पौष्टिक रसों के सेवन का त्याग करना चाहिए । ब्रह्मचर्य की रक्षा के लिए इनका त्याग आवश्यक है ।
(२१-२५) इसी प्रकार बाह्य एवं आम्यन्तर परिग्रह से रहित श्रमण को मनोज्ञ रूप, रस, गंध, स्पर्श और शब्द की प्राप्ति होने पर राग और अमनोज्ञ रूप आदि की प्राप्ति होने पर द्वेष नहीं करना चाहिए । इन भावनाओं से अपरिग्रह महावत में दृढ़ता आती है।
શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧