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दीपिकानिर्युक्तिश्व अ० ४ सू. १३
सवव्रतसामान्यनिरूपणम् ४७३
एवमब्रह्म से विनोऽपि
कामिनीविलासविशेषविभ्रमोद्धान्तस्वान्ताः
विप्रकीर्णेन्द्रिय वृत्त यस्तुच्छविषये
प्रवर्तितेन्द्रियाः मनोज्ञेषु शब्दरसगन्धस्पर्शेषु अनुरक्ताः सन्तो मदोन्मत्तगजेन्द्रा इव निरङ्कुशा इष्टानिष्ट प्रवृत्तिनिवृत्तिविचाररहिताः कुत्रापि न शर्म लभते, मोहाभिभूताश्च कर्त्तव्या कर्तव्य विवेकर - हितत्वात् सर्वमपि कर्म शोभनमेव मन्यमानाः कर्तुं प्रवर्तन्ते ग्रहाविष्टपुरुषवत् ।
परस्त्रीगमनप्रयुक्ताश्चेहलोके वैरानुबन्धलिङ्गच्छेदनवधबन्धम सर्वस्वापहरणादीन् अपायान् प्रतिलभते, प्रेत्यच नारकादिगतिं प्राप्नुवन्ति, तस्मान्मैथुनतो व्युपरमः श्रेयान् इति भावयन् ततो व्युपरतो भवति । एवं परिग्रहवानपि जनस्तस्करादीनामाक्रमणीयो भवति, यथा- कश्चित्पक्षी मांसपेशीकरः श्येनादिपक्षिभिः आममांसभक्षिभिरभिभवनीयो भवति ।
तथैव-परिग्रहीजनोऽपि तस्करादिभिरभिभूयते, तदपार्जनरक्षणक्षमप्रयुक्ताश्च दुःखपरिश्रमशोकादिदोषान् प्रतिलभते, परीग्रहशीलस्य शुष्केन्धनैरग्नेरिव द्रव्यादिभिस्तृप्तिर्न भवति, लोभाभिभ
जैसे प्राणातिपात, असत्य भाषण और चौर्य करने वालों को बहुत से अनर्थों का सामना करना पड़ता है, उसी प्रकार अब्रह्म का सेवन करने वालों को भी नाना प्रकार के दुःख भोगने पड़ते हैं । कामिनी के हाव भाव को देख कर जिनका चित्त उद्भ्रान्त हो जाता है, जिनकी इन्द्रियाँ काबू में नहीं रहतीं और तुच्छ विषयों में प्रवृत्त होती हैं, जो मनोज्ञ शब्द रूप गंध रस और स्पर्श में, जो राग के कारण हैं, अनुरक्त होकर मदमाते हाथी के समान निरंकुश हो जाते हैं, इष्ट प्रवृत्ति और अनिष्टनिवृत्ति के विचार से शून्य हैं, उन्हें कहीं पर भी सुख - शान्ति प्राप्त नहीं होती । वे मोह से ग्रस्त होकर कृत्य - अकृत्य के विवेक से रहित होने के कारण अपने प्रत्येक कार्य को ठीक समझते हैं । उनकी दशा ऐसी हो जाती है जैसे उन्हें भूत लगा हो ।
जो पुरुष परस्त्री लम्पट होते हैं, वे इस लोक में बहुतों से वैर बाँधते हैं और इन्द्रियछेदन, वध बन्धन, सर्वस्व हरण आदि अनर्थों को प्राप्त करते हैं । परलोक में नरक आदि गति में जाकर दुःख भोगते हैं । इस कारण मैथुन से निवृत्त हो जाना ही श्रेयस्कर है; इस प्रकार की भावना करने बाला पुरुष मैथुन से विरक्त हो जाता है ।
इसी प्रकार परीग्रहवान् जन पर चोर - लुटेरे आक्रमण करते हैं । जैसे कोई पक्षी मांस का खंड चोंच में दबा कर उड़ रहा हो तो मांस भक्षण करने वाले श्येन आदि दूसरे पक्षी उस पर झपटते हैं, उसी प्रकार परिग्रही पुरुष को तस्कर आदि सताते हैं ! उन्हें प्रथम तो धनादि परिग्रह के उपार्जन के लिए दुःख सहन करना पड़ता है, फिर उसकी रक्षा के लिए परिश्रम करना पड़ता है; इतना सब करने पर भी अन्त में जब उसका विनाश हो जाता है तो घोर-शोक का अनुभव करना पड़ता है ।
जैसे सूखे ईंधन से अग्नि की तृप्ति नहीं होती, उसी प्रकार लालची परिग्रही को धन
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શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર : ૧