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दोपिकानियुक्तिश्च अ० ४ सू. १२
पञ्चविंशतिभावनानिरूपणम् ४६७ स्वीकृतं पानभोजनं सूत्रोक्तविधिना भुञ्जीत, औधिकौपग्रहिकभेदमुपधिरूपं वस्त्रादिकमपि सर्वगुरु भिरनुज्ञातं वन्दनपूर्वकं गुरुवचनविधिना परिभोक्तव्यम् , एवं रीत्या-ऽऽत्मनि भावयन् वासयंश्चाऽस्तेयब्रतं नातिकामति. । १४
एवं साधुवैयावृत्त्यकरणमपि बोध्यम् १५ एवं ब्रह्मचर्यस्य मैथुनविरतिलक्षणस्य पूर्वोक्तासुपञ्चभावनासु स्त्री-पशु-नुपुंसकसंसक्तशयनासनवर्जनं तावत् देव-मनुष्य स्त्री-तिर्यगजातिवडवागो महिष्य-जा-ऽऽविकादिभिः सह संसक्ता-ऽऽसन-शयनादिपरित्यागरूपं वोध्यम् , ताभिः सह प्रतिश्रयसंस्तारका-ऽऽसनादिबह्वपायत्वाद्वर्जनीयमित्येवं वासयन्नात्मानं भावयेदिति ।१६
एवं-स्त्रीपशुनपुंसकानामसद्भावेऽपि रागसंयुक्तस्त्रीकथावर्जनं कर्तव्यम् , मोहोद्भवकषायरूपरागाकारपरिणतियुक्ता रागजननी खलु स्त्रीकथा देश-जाति-कुल-नेपथ्य-वचना-ऽऽलापगतिविलास-विभ्रम-भ्रूभङ्ग-कटाक्ष-हास्य-लीला-प्रणयकलह-शृङ्गाररसपरिपूर्णा सती वात्येव [वंटोलियाजैसे] चित्तोदधिं नूनमेवविक्षोभयति, - तस्मात् रागानुवन्धिस्त्रीकथावर्जनं श्रेय इति भावयेत्. १७
एवं-स्त्रीणां मनोहरेन्द्रियालोकनवर्जनं कर्तव्यम् , तासां कमनीयकुचकलशाद्यवलोकनादिविरतिः खलु श्रेयसी वर्तते इत्येवं भावयेत् १८ एवं-पूर्वरतानुस्मरणवर्जनं कर्तव्यम् , साध्ववस्थायां लेकर अधिक का सेवन न करना चाहिए । जिस और जितने आहार को ग्रहण करने की गुरु की अनुमति हो, उतना ही ग्रहण करना चाहिए । गुरु की आज्ञा से ग्रहण किये हुए आहार पानी का सूत्रोक्त विधि के अनुसार उपभोग करना चाहिए । इसी प्रकार औधिक एवं औपग्रहिक उपधि-वस्त्र आदि सभी कुछ गुरु की आज्ञा से, वन्दनपूर्वक, गुरु के कथनानुसार ही काम में लाना चाहिए । इस प्रकार की भावना वाला अदत्तादान विरमणव्रत का उल्लंघन नहींकरता ।
(१५) सदा साधु का वैया वृत्य करना चाहिए।
(१६) ब्रह्मचर्यव्रत की पूर्वोक्त पाँच भावनाओं में से स्त्री-पशु-पंडक से रहित स्थान के सेवन का तात्पर्य है देव-मनुष्यस्त्री, तियेचजाति-घोड़ी, गाय, भैंस, बकरी, भेड़ आदि के सम्पर्क वाले आसन-शयन आदि का त्याग करना । जिस स्थान में यह हों उसमें निवास करने से अनेक हानियाँ होती हैं । अतएव ब्रह्मचर्यव्रत का पालन करने के लिए इस भावना से आत्मा को वासित करना चाहिए ।
(१७) स्त्री, पशु, पंडक का सद्भाव न हो तो भी रागयुक्त होकर स्त्री कथा अर्थात् स्त्रियों संबंधी वार्तालाप का त्याग करना चाहिए । मोह जनित राग रूप परिणति से युक्त स्त्री कथा, जिसमें देश, जाति, कुल, वेषभूषा बोलचाल, गति, विलास, विभ्रक, भ्रूभंग (भौहों का मटकाना), कटाक्ष, हास्य, लीला, प्रणय कलह आदि शृङ्गार रस सम्मिलित है, उससे परिपूर्ण होने के कारण ववंडर के समान चित्त रूपी समुद्र को क्षुब्ध कर देती है । अतएव राग संबंधित स्त्रीकथा का त्याग करना ही श्रेयस्कर है।
શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧