Book Title: Tattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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तत्त्वार्थसूत्रे छाया-शुभनामकर्म शरीरपृच्छा ? गौतम ! कायऋजुकतया, भावऋजुकतया, भाषाऋजुकतया, अविसंवादनयोगेन शुभनाम कर्म शरीर यावत्प्रयोगबन्धः, इति,
एतच्च शुभनामकर्म देव मनुष्यगत्यादिसप्तत्रिशत्प्रकारैरुपभुज्यते, तथाहि-देवगति१मनुष्यगति२-मनुष्यदेवानुपूर्वीद्वय ४ - पञ्चेन्द्रियजात्यौ५-दारिकादिशरीरपञ्चकौ १०-दारिकवैक्रियाहारकशरीर-त्रयाङ्गोपाङ्गमध्यवर्तिशिरउरः पृष्ठबाहूदरचरणरूपाङ्गनाम-रसनघ्राणचक्षुः-श्रोत्ररूपो पाङ्गनाम१३-वज्रऋषभनाराचसंहनन१४---समचतुरस्नसंस्थान १५ -प्रशस्तवर्णगन्धरसस्पर्शचतुष्टय १९--त्रसादिदशक-त्रस-बादरपर्याप्त-प्रत्येकशरीर--स्थिर-शुभ-सुभग--सुस्वरा-ऽऽदेय-यशः कीर्त्य२९---ऽगुरुलघु३०-च्छूवासा ३१-ऽऽतपा ३२-द्योत३३-प्रशस्तविहायोगति३४-पराघात ३५-तीर्थकर३६-निर्माण३७-नामानीति ३७। इत्येतैः सप्तत्रिशत्प्रकारैः शुभनामकर्म समुपभुज्यते, इति ॥सू० ७॥
मूलसूत्रम्-“वीसईठाणाराहणेणं तित्थयरत्तं-" ॥ ८ ॥ छाया-- "विंशतिस्थानाराधनेन तीर्थकरत्वम्--" ॥ ८ ॥
प्रश्न-शुभनामकर्म के विषययमें पृच्छा-अर्थात् हे भदन्त ! शुभनाम कर्म का बन्ध किन कारणों से होता है ?"
उत्तर-हे गौतम ! कायकी ऋजुतासे १, मावकी ऋजुता से २, भाषा की ऋजुता से ३ और अविसंवादन योग से शुभनाम कर्म का बन्ध होता है।"
यह शुभनामकर्म देवगति मनुष्य गति आदि सैंतीस प्रकार से भोगा जाता है जैसे__ देवगति, मनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वी, देवानुपूर्वी, पञ्चेन्द्रियजाति, औदारिकादि पांच शरीर तीन अंगोपांग अर्थात् औदारिक अंगोपांग १, वेक्रिय अंगोपांग २, आहारक अंगोपांग३,
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वज्रऋषभनाराच संहन, समचतुरस्र संस्थान, प्रशस्त-वर्ण गन्ध रस स्पर्श त्रस आदि दश अर्थात् २० २१ २२ २३ २४ २५ २६ २७ २८ २९ ३० त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, शुभ सुभग, सुस्वर, आदेय, यशः कीर्ति, अगुरुलघु,
उच्छ्वास, आतप, उद्योत,प्रशस्तविहायोगति, पराघात, तीर्थकर और निर्माणनामकर्म ।
इन सैंतीस प्रकारसे शुभनामकर्मका भोग होता है। इनमें जो अंगोपांगनाम कर्मका निर्देश किया है वहां शिर १, वक्षस्थल-(छाती) २, पृष्ठ (पीठ) ३, दोनों बाइ (भुजाएं) ५, उदर (पट) ६, और दोनों चरण ८, यह आठ अंग कहलाते हैं । अंगुलियाँ, जीभ, आँख, कान, नाक आदि उपांग कहलाते हैं ।सूत्र ७॥
શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧