Book Title: Tattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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तत्त्वार्थसूत्रे त्तिलक्षणदेशविरतिरूपपञ्चाऽणुव्रतात्मकः संयमासंयमः स्थूलप्राणातिपातादितो निवृतिः सम्पूर्णप्राणातिपातायेकदेश-स्थूलप्राणातिपातादिरूपदेशतो विरितिःसंयमासंयम इत्युच्यते
अतएव-संयमासंयमोऽणुव्रतमिति व्यपदिश्यते, अणुच तद् व्रतमित्यणुव्रतम् , अणु-अल्पंस्तोकं देशतो हिंसादिनिवृत्तिरूपं व्रतमणुव्रतमिति व्युत्पत्तिः । तस्मात्-सर्वतो हिंसादिविरतिः पञ्चमहाव्रतम्, देशतो हिंसादिविरितिः पञ्चाऽणुव्रतम् ।।
इदमेव व्रतद्वयमत्र सरागसंयम-संयमाऽसंयमरूपद्वयं क्रमशोऽवसेयम् । अकामनिर्जराचअकामयमानस्याऽनभिलषत एव कमेपुद्गलपरिशटनरूपा, तत्र-काम इच्छा, प्रेक्षा पूर्वकारित्वम् तदर्थोपयोगवतो निर्जरा-कर्मपुद्गलनिर्जरणम् कामनिर्जरा, न कामनिर्जराया भवति-सा-ऽकामनिर्जरोच्यते । सा खलु--अकामनिर्जरा परवशतयाऽनुरोधाच्चा-ऽकुशलकर्मनिवृतिरूपा चतुर्विधाहारनिरोधरूपा च ।
बालतपस्तावत्-मिथ्यादर्शनसहवर्तिरागद्वेषाभ्यां व्याप्तस्य सत्वावबोधविमुखस्याऽतत्वेतस्वाभिनिवेशप्रवृत्तस्य यथावस्थित ज्ञेयविपरीतज्ञानस्य बालस्य धर्मार्थं शीतोष्णादिसहनरूपं तपोबालतपः प्रोच्यते । इत्येतैश्चतुर्भिः-सरागसंयम-संयमासंयमा-ऽकामनिर्जराबालतपो लक्षणैपाँच महाव्रत रूप संयम कहलाता है। यह संयम जब संज्वलनकषाय रूप राग से युक्त होता है तो सरागसंयम कहलाता है।
सूत्र में प्रयुक्त 'आदि' शब्द से संयमासंयम, अझामनिर्जरा और बालतप का ग्रहण करना चाहिए । इनमें से संयमासंयम का अर्थ है-स्थूलप्राणातिपात आदि से निवृत्ति रूप देशविरति अर्थात् अणुव्रत आदि का पालन करना । देशविरति, सर्वविरति का आंशिक रूप है, अतएव उसे अनुव्रत भी कहते हैं। इस प्रकार पूर्णरूप से अर्थात् तीन करण और तीन योग से हिंसा आदि का त्याग करना महावत है, और दो करण तीन योग आदि आंशिक रूप से उन्हीं पापों का त्याग करना अणुव्रत है । इसी को देशविरति या संयमासंयम भी कहते हैं।
तीसरा कारण है अकामनिर्जरा । बिना इच्छा ही जो कर्मनिर्जरा होती है, वह अकामनिर्जरा कहलाती है। काम अर्थात् इच्छा या सोच-समझकर कोई कार्य करना । बिना कामना के ही जो निर्जरा होती है, उसे अकामनिर्जरा कहते हैं । पराधीनता के कारण या किसी के अनुरोध-आग्रह से प्रेरित होकर आहार आदि का त्याग करने से भूख सहन कर लेने आदि से होती है।
मिथ्यादर्शन के सहवर्ती राग और द्वेष से जो युक्त है, जो तत्त्वज्ञान से विमुख है, मूढ है, कुतत्त्व के आग्रह के वशीभूत होकर प्रवृत्ति करता है, जो वस्तुस्वरूप से विपरीत ज्ञान का धारक है और धर्म समझ कर शीत उष्ण आदि को सहन करता है और अज्ञान कष्ट करता है । अथवा इसी प्रकार के अन्य विपरीत कृत्य करता है, उस पुरुष की तपस्या को बाल तप अर्थात् अज्ञानतप कहते हैं।
શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧