Book Title: Tattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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तत्त्वार्थसूत्रे अप्रकटाः गन्धादयः सन्तीति कल्पनीयम् । परमाण्वादि पुद्गलगता रूपादयो गुणाः परमाण्वादिभ्यो भिन्नाश्चा-ऽभिन्नाश्च कथञ्चिद् भवन्ति । न त्वेकान्ततो भिन्नावाऽभिन्नावा भवन्ति ।
उक्तञ्च-व्याख्याप्रज्ञप्तौ भगवतीसूत्रे १२ शतके ५ उद्देशके-'पोग्गले पंच वण्णे पंचरसे दुगंधे अटफासे पण्णत्ते' इति पुद्गलःपञ्चवर्णः पञ्चरसो द्विगंधः अष्टस्पर्शः प्रज्ञप्त इति ।
____ अथ विज्ञानाद्वहिः स्पर्श रूप-रस-गन्धवन्तो नहि केऽपि पुद्गलाः सन्ति, अपितु-विज्ञानमेव घटपटादिनानापुद्गलाकारेण प्रत्यवभासते- बाह्यार्थनिरपेक्षस्वप्नादिवत् , नहि-स्वप्नावस्थायां प्रतीयमाना बाह्याः पदार्था भवन्ति । अपितु---बुद्धिपरिकल्पिता एव प्रत्यवभासन्ते, एवं स्वान्तः स्थितं विज्ञानमेव घटपटाद्याकारेण प्रतीयते, न तु परमार्थतो काल्पनिकघटादयो बाह्याः पदार्था सन्तीति चेत् मैवम् , अनुभवविरुद्धत्वात् तथाहि-देशविच्छेदेन स्वान्तर्वर्त्यनुभवाद् बहिरवभासमानो घटपटादिरर्थोऽवलोकयते स्वसंवेद्यो नीलपीतादिरों बुद्धिसन्निविष्टो बाह्याकारानुकारोऽपलपितुं न शकयते, यदा तावत् ज्ञानग्राह्य पदार्थस्य स्वरूपं द्योतते तदा-कथं सोऽर्थो नास्तीति वक्तुं पार्येत, स्वप्ने च विपर्ययदर्शनात्-अविपर्ययदर्शनाच्च जाग्रदवस्थायां स दृष्टान्तो न युक्तः--? प्रमाणप्रमाणाभासाविशेषापत्तेश्च । स्पर्श होने के कारण अप्रकट गन्ध आदि का सद्भाव समझ लेना चाहिए; क्यों कि ये वर्ण आदि चारों नियम से सहचर हैं। जहाँ एक होता है वहाँ चारों अवश्य होते हैं । परमाणु आदि पुद्गलों के रूप आदि गुण उनसे कथंचित् भिन्न और कथंचित् अभिन्न हैं; एकान्त भिन्न या अभिन्न नहीं हैं। भगवती सूत्र (व्याख्याप्रज्ञप्ति सूत्र) के शतक १२, उद्देशक ५ में कहा है--'पुद्गल पाँच वर्ण वाला पाँच रस वाला, दो गन्ध और आठ स्पर्श वाला कहा गया है।
शंका-विज्ञान से भिन्न स्पर्श, रूप रस और गन्ध वान् कोई किसी पुद्गलदव्य का अस्तित्व नहीं है। विज्ञान ही घट पट आदि विविध पुद्गलों के आकार में प्रतिभासित होता है जैसे स्वप्न में अनेक पदार्थोकि प्रतीति होती है, किन्तु वास्तव में उनका अस्तित्व नहीं होता, वे बुद्धिकल्पित ही होते हैं, इसी प्रकार विज्ञान ही घट पट आदि के रूप में प्रतीत होता है । उनकी कोई पारमार्थिक सत्ता नहीं है।
समाधान-ऐसा न कहिए । आपका यह कथन अनुभव से विरुद्ध है। ज्ञान अन्तःस्थित प्रतीत होता है , घट आदि पदार्थ बाह्य रूप में, पृथक्क देश में प्रतीत होते हैं। अतएव ज्ञान से पृथक् नील पीत आदि नाना आकारों में प्रतिभासित होने वाले बाह्य पदार्थों का अपलाप नहीं किया जा सकता । जो बाह्य पदार्थ प्रतीत होते हैं, उनकी सत्ता का निषेध किस प्रकार कियाजा सकता है ? आपने स्वप्न का जो दृष्टान्त दिया है, वह भी समीचीन नहीं है, क्योंकि स्वप्न में विपर्यय और जागृत अवस्था में अविपर्ययदेखा जाता है ।
आपके कथनानुसार प्रमाण और प्रमाणाभास में कोई अन्तर नहीं रह जाएगा । वस्तु
શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧