Book Title: Tattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
View full book text
________________
vvvvvvvvvvvvvvvvvvvv
दीपिकानियुक्तिश्च अ० ३ सू० १
बन्धस्वरूपनिरूपणम् ३४७ "घटकादिभाविनो मृदवयवा आनेडिता यथा पिण्डे । तद् वद् ज्ञानावरणादिकर्मदेशा अपि ज्ञेयाः॥३॥ आमेडितमविभक्तं यद्यप्यष्टविधमिष्यते कर्म । एवमपि जिनदृष्टं नानात्वं प्रकृतितस्तस्य ॥४॥ "पुद्गलता साम्येपि द्रव्याणां ननु विपाकतो भेदः । दृष्टः पित्तकफानिलपरिणामवतां स्वगुणभेदात् ॥५॥ “यस्य गुणो यादृक् स्यात् तादृशमेव भवति तस्य फलम् । नहि जाम्बवानि निम्बः फलति न जम्बुश्च निम्बानि ॥६॥ "कर्मतरवोऽपि तद्वन्नाना स्व-स्वप्रयोगपरिषिक्ताः।।
नाना स्वस्वगुणसमान फलन्ति तांस्तान् गुणविशेषान् ॥७॥ इति । “उक्तञ्च-समवायाङ्गसूत्रे ५-समवाये-"जोगवन्धे-कसायबन्धे य-" इति योगबन्धः-कषायबन्धश्चेति । एवं-स्थानाङ्गे२-स्थाने २-उद्देशके,-"दोहिं ठाणेहिं पावकम्मा बंधंति, तंजहा
अनाभोगिक वीर्य के द्वारा रस को पचाकर वह अनाभोगिक वीर्य के द्वारा ही उसे धातु रूप में परिणत करता है ॥२॥
जैसे घट आदि में होने वाले मृत्तिका के अवयव पिण्ड में समाहित होते हैं, उसी प्रकार ज्ञानावरणीय आदि कर्मों के देश (अवयव) भी समझ लेना चाहिए ॥३॥
कर्म यद्यपि समाहित एवं अविभक्त है-कार्मण वर्गणा द्रव्य की अपेक्षा से एक रूप है, फिर भी जिनेन्द्रोंने प्रकृतिके भेद से उसे आठ प्रकार का देखा है, अर्थात् कर्म की प्रकृतियाँ आठ होने से कर्म के आठ भेद माने गए हैं ॥४॥
जैसे पुद्गलत्व की अपेक्षा से सभी पुद्गल द्रव्य समान है, फिर भी उनके विपाक में अन्तर देखा जाता है । कोई द्रव्य पित्तकारी होता है, कोई कफजनक होता है और कोई वातवर्द्धक होता है, इस प्रकार गुणों में भेद होने से उन-उन द्रव्यों में भी भेद माना जाता है, इसी प्रकार कर्मों में भी प्रकृति के भेद से भेद माना गया है ॥५॥
जिस कर्म की जैसी प्रकृति (गुण स्वभाव) है, उसका विपाक- फल भी वैसा ही होता है । जामुन में निवौली नहीं लगती और नीम के वृक्षमें जामुन नहीं लग सकते ॥६॥
इसी प्रकार नाना प्रकार के अपने प्रयोग रूपी जल से सींचे हुए कर्म रूपी वृक्ष भी अपने-अपने स्वभाव के अनुसार नाना प्रकार के फलों को उत्पन्न करते हैं ॥७॥
समवायांग सूत्र के पाँचवे समवाय में कहा है-योग से होने वाला बन्ध और कषाय से होने वाला बन्ध ।
इसी प्रकार स्थानांग सूत्र के द्वितीय स्थान के दूसरे उद्देशक में कहा है-'पापकर्मों का बन्ध दो कारणों से होता है, यथा-राग से और द्वेष से । राग दो प्रकार का कहा गया है
શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧