Book Title: Tattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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दीपिकनियुक्तिश्च अ ३ सू. ११
नामकर्मणो द्विचत्वारिंशभेदनिरूपणम् ३९१
ऽस्थिर-शुभा-ऽशुभ-सुभग-दुर्भग-सुस्वर-दुःस्वरा-sऽदेया-उनादेय-यशः किर्त्य यशःकीर्ति-नि
४१ ४२ र्माण तीर्थङ्कर नामानि द्वाविंशतिसंख्यकान्येकैकविधानि सन्ति २२(९३) इत्येवं रीत्या नामकर्मण एक सप्ततेविंशतेश्च संमेलने भवन्ति त्रिनवतिभेदास्तासां मूलोत्तरप्रकृीतनामिति सविस्तरं विविच्यते
तत्र-नमयति-प्रापयति जीवं नारकादिभवान्तराणीति नाम-यद्वा-नमयति-प्रह्वयति जीवप्रदेशसम्बन्धिपुद्गलद्रव्यविपाकसामर्थ्यात् नामेति यथार्थसंज्ञा यथा-शुक्लादिगुणोपेतद्रव्येषु चित्रपटादिव्यपदेशप्रवृत्तिर्नियतसंज्ञाहेतुर्भवति, तत्र-गतिनाम्नः पिण्डप्रकृतेश्चत्वारो भेदा नरकगतिनामादयो भवन्ति यदुदयात्-नारक इति व्यपदिश्यते तन्नारकगतिनाम, एवं तिर्यग गतिनामादयोऽप्यवगन्तव्याः।
__ एवं जातिनाम्नः पिण्डप्रकृतेः पञ्चभेदाः एकेन्द्रियजातिनाम-द्वीन्द्रियजातिनाम-त्रीन्द्रियजातिनाम-चतुरिन्द्रियजातिनाम-पञ्चेन्द्रियजातिनामसंज्ञकाः। तत्रैकेन्द्रियजातिनामकर्मोदयादेकेन्द्रिय इति व्यपदिश्यते, एकेन्द्रियसंज्ञाव्यपदेशहेतुरेकेन्द्रिय जातिनाम, एवं द्वीन्द्रियजातिनामादिष्वप्यवग न्तव्यम्. ।
तत्रैकेन्द्रियजातिनामा-ऽनेकविधम्, पृथिवीकायिका-ऽप्कायिक--तेजस्कायिक-वायुकायिकवनस्पतिकायिकजातिनामभेदात्, द्वि-त्रि-चतु–पञ्चेन्द्रियजातिनामान्यपि शङ्ख-शुक्तिका-युपदेसुभग, ३४ दुर्भग, ३५ सुस्वर, ३६ दुःस्वर ३७ आदेय, ३८ अनादेय, ३९ यशःकीर्ति, ४० अयशःकीर्ति, ४१ निर्माण और ४२ तीर्थकरनामकर्म का एक-एक ही भेद है । इस प्रकार (७१+२२-९३) इकहत्तर और ये बाईस सब मिलाकर पूर्वोक्त (नामकर्मकी) वयालीस प्रकृतियों के तिरानवे (९३) भेद होते हैं।
अब यहाँ नामकर्म का सविस्तर विवेचन किया जाता है
जो कर्म जीव को नरकभव आदि में ले जाता है अथवा जो कर्म जीवप्रदेशों से संबद्ध पुद्गलद्रव्य के विपाक के सामर्थ्य से जीव को नमाता है, वह नामकर्मकहलाता है । 'नाम' यह यथार्थ संज्ञा है, अर्थात् जैसा इस कर्म का नाम है, उसी प्रकार का उसका स्वभाव भी है । जैसे शुक्ल आदि गुणों से युक्त द्रब्यों में 'चित्रपट' ऐसा व्यवहार होता है, यह नियत संज्ञा का कारणहै।
गतिनामक पिण्डप्रकृति के चार भेद हैं-नरकगति आदि । जिस कर्म के उदय से जीव नारक कहलाता है, वह नरकगतिनामकर्म कहलाता है । इसी प्रकार शेष भी समझ लेना चाहिए।
जातिनामक पिण्डप्रकृति के पाँच भेद हैं-एकेन्द्रियजातिनामकर्म, द्वीन्द्रिजातिनामकर्म, त्रीन्द्रियजातिनामकर्म, चतुरिन्द्रियजातिनामकर्म और पंचेन्द्रियजातिनामकर्म । एकेन्द्रियजातिनामकर्म के उदय से जीव एकेन्द्रिय कहलाता है अर्थात् 'एकेन्द्रिय' ऐसे व्यवहार का कारण एकेन्द्रियजातिकर्म है । इसी प्रकार द्वीन्द्रियजातिनामकर्म आदि के विषय में भी जानना चाहिए ।
एकेन्द्रियजातिनामकर्म भी अनेक प्रकार का है-पृथिवीकायिक-एकेन्द्रियजातिनामकर्म, अप्कायिक–एकेन्द्रियजातिकर्म, तेजस्कायिक--एकेन्द्रियजातिनामकर्म, वायुकायिक-एकेन्द्रियजातिनाम
શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧