Book Title: Tattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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दीपिकानिर्युक्तिश्च अ ३ सू. १३
अन्तरायकर्मणः पञ्चविधत्वनिरूपणम् ४०१
तथाच-यदुदयात् दातुकामोऽपि न ददाति, लब्धुकामोऽपि न लभते, भोक्तुमिच्छन्नपि न भुङ्क्ते उपभोक्तुमभिवाञ्छन्नपि नोपभुङ्क्त, उत्सहितुकामोऽपि नोत्सहते, तद्भन्तरायकर्म दानान्तरायादिभेदात् । पञ्चविधं तावत् उत्तरप्रकृतिरूपं सम्पद्यते ॥१३॥
तत्त्वार्थनिर्युक्तिः — पूर्वसूत्रे सप्तमस्य गोत्रकर्मणो मूलप्रकृतिबन्धस्योत्तरप्रकृतिबन्धस्वरूपं प्रतिपाद्य सम्प्रति–अष्टमस्याऽन्तरायकर्मणः । पञ्चविधमुत्तर प्रकृतिबन्धस्वरूपं प्रतिपादयितुमाह“अंतराए” इति ।
अन्तरायकर्म–उत्तरप्रकृतित्वेन पञ्चविधं प्रज्ञप्तम् । दानलाभभोगोपभोग वीर्यान्तरायभेदात् तथाच–अन्तरायकर्मोत्तरप्रकृतयो दानान्तराय - लाभान्तराय - भोगान्तरायो -पभोगान्तराय - वीर्यान्तरायरूपाः पञ्च भवन्ति । तत्र - दानं देयद्रव्यस्य त्यागरूपम् तस्याऽन्तरायो दानान्तरायः ? तदुदयात्सत्यपि देयद्रव्ये, यद्धिकर्म - उदितं सत् दीयमानद्रव्यदानकर्मणोऽन्तरायं विघ्नमन्तर्धानरूपं करोति तद्दानान्तरायकर्म उच्यते तदुदयाद् - देयद्रव्ये, प्रतिग्रहीतरिच सन्निहितेऽपि "अस्मै दत्तं द्रव्यं महाफलजनकं भविष्यति" इति जानन्नपि दाता देयद्रव्यं न प्रयच्छति ।
एवं-यदुदयाद् विद्यमानं लभ्यवस्तु लब्धुकामोऽपि न लभते, तल्लाभान्तरायकर्म व्यपदिश्यते । है, इस कारण दानान्तराय आदि के नाम से कहा जाता है । तात्पर्य यह है कि जिस कर्म के उदय से जीव दान देने का इच्छुक हो कर भी दे नहीं पाता, लाभ पाने का अभिलाषी हो कर भी लाभ नहीं कर सकता, भोगने की इच्छा होने पर भी भोग नहीं सकता, उपभोग करने की वांछा करता हुआ भी उपभोग नहीं कर पाता और उत्साह प्रकट करने की कामना होने पर भी उत्साह प्रकट नहीं कर सकता, वह अन्तराय कर्म कहलाता है । दानान्तराय आदि उसकी पाँच उत्तर प्रकृतियाँ हैं ॥ १३ ॥
तत्वार्थनियुक्ति - पूर्वसूत्र में सातवीं मूलकर्म प्रकृति गोत्र की उत्तरप्रकृतियाँ बतला कर अब आठवीं मूलप्रकृति अन्तराय कर्म की पाँच उत्तर प्रकृतियाँ दिखलाते हैं -
उत्तरप्रकृतियों के रूप में अन्तराय कर्म पाँच प्रकार का है - दानान्तराय, लाभान्तराय भोगान्तराय, उपभोगान्तराय और वीर्यान्तराय, अन्तरायकर्म की ये ही पाँच उत्तरप्रकृतियाँ हैं,, । देय वस्तु का त्याग करना दान कहलाता है । उसमे होने वाला अन्तराय अर्थात् विघ्न दानान्तराय कहलाता है । तात्पर्य यह है कि जिस कर्म के उदय से देय द्रव्य के मौजूद होने पर भी दाता दान नहीं कर सकता - जो दान में विघ्न डाल देता है, वह दानान्तराय कर्म कहलाता है । देने योग्य द्रव्य विद्यमान रहता है : लेने वाला भी सामने होता है और दाता यह भी जानता है कि इसे द्रव्य दिया जायगा तो महान् फल की प्राप्ति होगी फिर भी दानान्तराय कर्म के उदय से दाता दान नहीं दे पाता ।
इसी प्रकार लभ्य वस्तु की मौजूदगी होने पर भी और लाभ की इच्छा होने पर भी जिस कर्म के उदय से लाभ न हो सके, वह लाभान्तराय कर्म कहलाता है । भोगान्तराय, उपभोगा
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શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર : ૧