Book Title: Tattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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तत्त्वार्थसूत्रे रूपमानस्य, अभ्युत्थानासनाऽञ्जलिप्रग्रहादिरूपसत्कारस्य, गजाश्वरथपदातिप्रभृत्यैश्वर्यस्य चोत्कर्षनिर्वर्तकमुच्चगोत्रं भवति । नीचगोत्रं पुनश्चाण्डाल–वरुड-व्याध-धीवरजालपाशदासभावा-ऽवस्करशोधकादिनिर्वर्तकं भवति, यदुदयात् सर्वलोकसमादृते-इक्ष्वाकुवंशे, सूर्यवंशे, चन्द्रवंशे, कुरुवंशे, हरिवंशे-उग्रवंशे, इत्यादिवशेष जीवस्य जन्म भवति तदुच्चेर्गोत्रमिति ब्यपदिश्यते ।
यदुदयाच्च-निन्दिते दरिद्रे-भ्रष्टाचारे-ऽसत्यवादिके-तस्करवृत्तिकारके-व्यभिचारिणिप्राणिवधकारके चाण्डालादिनिन्दितकुले जीवस्य जन्म भवति, तद्नीचगोत्रमिति फलितम् ॥१२॥
मूलसूत्रम्-"अंतराए पंचविहे, दाण-लाभ-भोग-उपभोग-चीरियंतरायभेयओ" छाया-''अन्तरायः पञ्चविधः, दान-लाभ-भोगो-पभोग-वीर्यान्तरायभेदतः” १३
तत्त्वार्थदीपिका-पूर्वसूत्रे गोत्रकर्मणो मूलप्रकृतिबन्धस्य द्विविधिमुत्तरप्रकृतिबन्धस्वरूपं प्रतिपादितम् , सम्प्रत्यष्टमस्याऽन्तरायकर्मणः पञ्चविधमुत्तरप्रकृतिबन्धस्वरूपं प्रतिपादयितुमाह"अंतराए" इत्यादि । अन्तरायकर्म-उत्तरप्रकृतित्वेन पञ्चविधं प्रज्ञप्तम् , दानान्तराय-लाभान्तराय भोगान्तरायो-पभोगान्तराय-वीर्यान्तरायभेदात् ।
तत्र दानलाभभोगोपभोगवीर्यपरिणामव्याघातहेतुत्वाद् दानान्तरायादिव्यपदेशो भवति । रूप स्थान का, अपने हाथ से वस्त्र प्रदान आदि रूप मान का, अभ्युत्थान, आसन, अंजलिप्रग्रह आदि सत्कार का तथा हाथी घोड़ा रथ एवं पदाति आदि ऐश्वर्य पैदा करने वाला उच्चगोत्र कर्म कहलाता है।
नीचगोत्र कर्म के उदय से चाण्डाल, वरुड, व्याध, धीवर जालपाश, दासभाव, कूड़ा-कचरा बुहारने वाला आदि होता है । जिसके उदय से समस्त लोक में आहत इक्ष्वाकुवंश, सूर्यवंश, चन्द्रवंश, कुरुवंश, हरिवंश तथा उग्रवंश आदि उत्तम वंशों में से किसी में जन्म होता है, उसे उच्चगोत्र कर्म कहते है। इसके विपरीत जिस कर्म के उदय से निन्दित, दरिद्र, भ्रष्टाचारी, असत्यभाषी चौरवृत्तिकारक, व्यभिचारी, हिंसक, चाण्डाल आदि कुलों में जीव का जन्म होता है; वह नीच गोत्र कहलाता है ॥ १२॥
सूत्रार्थ-" अंतराए पंचविहे' इत्यादि । सूत्र-१३
अन्तराय कर्म पाँच प्रकार का है-दानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्तराय, उपभोगान्तराय और वीर्यान्तराय ॥ १३ ॥
तत्त्वार्थदीपिका-पूर्वसूत्र में गोत्र कर्म रूप मूल प्रकृति की दो उत्तर प्रकृतियों का प्रतिपादन किया गया है, अब आठवीं मूलप्रकृति अन्तराय कर्म की पाँच उत्तर प्रकृतियों का निरूपण करने के लिए कहते हैं- अन्तराय कर्म की उत्तर प्रकृतियां पाँच कही गई हैं, यथादानान्तराय, लाभान्तराय, भोगान्सराय, उपभोगान्तराय और वीर्यान्तराय ।
यह कर्म दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य परिणाम में विघ्न डालने का कारण होता
શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧