________________
दीपिकानियुक्तिश्च अ० ३ सू० १२
गोत्रकर्मणोद्वैविध्यनिरूपणम् ३९९ मूलसूत्रम्- "गोए दुविहे, उच्चे-नीए य-" ॥१२॥ छाया- "गोत्रं द्विविधम्, उच्चैर्नीचश्च-' ॥१२॥
तत्त्वार्थदीपिका-पूर्वसूत्रे नामकर्ममूलप्रकृतिबन्धस्य द्विचत्वारिंशद्विधमुत्तरप्रकृतिकर्मप्रतिपादितम् सम्प्रति-गोत्रकर्मणो द्वैविध्यं प्रतिपादयितुमाह-"गोए दुविहे उच्चे नीए य-" इति । गोत्रं कर्म-द्विविधं प्रज्ञप्तम् । उच्चगोत्रम्-नीचगोत्रं चेति ।
तत्रोच्चगोत्रम्-देश-जाति-कुल-स्थान-मान-सत्कारै-श्वर्याद्युत्कर्षनिष्पादकं भवति, तविपरीतं-नीचगोत्रम् । चण्डाल-व्याध-मीनबन्धदास्यादिनिष्पादकं भवति ॥१२॥
तत्त्वार्थनियुक्ति:-पूर्वसूत्रे-द्विचत्वारिंशद्विधमुत्तरप्रकृतिकर्म, नामकर्ममूलप्रकृतिबन्धस्य द्विविधमुत्तरप्रकृतिकर्मप्रतिपादयितुमाह-"गोए दुविहे उच्चा-नीया य-"इति । गोत्रं कर्म द्विविधम् प्रज्ञप्तम् , उच्चगोत्रं-नीचगोत्रं चेति ।
___ तत्र-यदुदयाद् जीव उच्चैर्जाति प्राप्नोति तद्उच्चगोत्रम् । यदुदयाच्च जीवो नीचैर्जाति प्राप्नोति तन्नीचगोत्रमुच्यते । तत्रोंच्चगोत्रम्-आर्यदेशेषु मगधाऽङ्गकलिङ्गबङ्गादिषु-उत्पत्तिप्रयोजक भवति । एवम्-हरिवंशेक्ष्वाकुप्रभृतिपितृवंशरूपजातिषु, एवं मातृवंशरूपोग्रभोगादिकुलेषु चोत्पत्तिप्रयोजकं भवति । एवं-प्रभोः समीपे प्रत्यासन्नतयो-पवेशनादिरूपस्थानस्य स्वकरेण वस्त्रप्रदानादि
सूत्रार्थ-'"गोए दुविहे उच्चा नीयाय' सूत्र-१२ गोत्रकर्म की दो उत्तर प्रकृति हैं-उच्चगोत्र और नीच गोत्र ।
तत्त्वार्थदीपिका-पूर्वसूत्र में नाम कर्म नामक मूल प्रकृति की बयालीस उत्तर प्रकृतियों का प्रतिपादन किया गया; अब गोत्रकर्म की दो उत्तर प्रकृतियों का कथन करते हैंगोत्रकर्म की उत्तर प्रकृतियाँ दो हैं-उच्चगोत्र और नीचगोत्र ।
उच्चगोत्र देश-जाति-कुल-स्थान-मान-सत्कार-ऐश्वर्य आदि का उत्कर्ष उत्पन्न करता है। नीचगोत्र इससे विपरीत होता है। इसके उदय से चाण्डाल, व्याध, मच्छीमार, दास दासी आदि अवस्थाओं की प्राप्ति होती है ॥ १२ ॥
तत्त्वार्थनियुक्ति- पिछले सूत्र में नाम कर्म की बयालीस उत्तर प्रकृतियों का निरूपण किया गया है। अब गोत्र नामक जो मूलप्रकृति है, उसकी दो प्रकृतियों का कथन करते हैं
गोत्रकर्म के दो भेद हैं उच्चगोत्र और नीचगोत्र ।
जिस कर्म के उदय से जीव उच्च जाति को प्राप्त करता है, वह उच्चगोत्र और जिसके उदय से नीच जाति को प्राप्त करे वह नीचगोत्र कर्म कहलाता है । उच्चगोत्र कर्म मगध, अंग, कलिंग, वंग आदि आर्य देशों में जन्म लेने का हरिवंश, इक्ष्वाकु आदि पितृवंश रूप जातियों में तथा उग्रकुल भोगकुल आदि मातृवंश रूप उत्तम कुलों में जन्म लेने का कारण होता है। इसी प्रकार प्रभु प्रभावशाली के समीप में नज़दीकी से बैठने आदि
શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧