Book Title: Tattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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तत्त्वार्थसूत्रे तत्त्वार्थनियुक्ति:--पूर्वसूत्रे वेदनीयाख्यतृतीयमूलप्रकृतिकर्मणो द्वैविध्येनोत्तरप्रकृतिकर्मप्ररूपितम् सम्प्रतिहि-चतुर्थस्य मोहनीयमूलप्रकृतिकर्मणोऽष्टाविंशतिविधमुत्तरकर्मप्ररूपयितुमाह"मोहणिज्जं अट्ठावीसविहं दंसणचारित्ताइभेयओ-" इति । मोहनीयं खलु मूलप्रकृतिकर्म, उत्तरप्रकृतित्वेनाऽष्टाविंशतिविधं प्रज्ञप्तम्, दर्शनचारित्रादिभेदतः ।।
मिथ्यात्वमोहनीय-सम्यक्त्वमोहनीय-सम्यगमिथ्यात्वमोहनीयरूपत्रिविधदर्शनमोहनीयाऽनन्ता ऽनुबन्ध्यप्रत्याख्यान-प्रत्याख्यान-संज्वलनकषायरूपभेदचतुष्टयाऽवच्छिन्नप्रत्येकक्रोध-मान-मायालोभचतुष्टयभेदावच्छिन्नषोडशकषाय-हास्यरत्यरतिशोकभयजुगुप्सास्त्रीवेदनपुंसकवेदभेदावच्छिन्ननवनोकषायरूपपञ्चविंशतिभेदावच्छिन्नचारित्रमोहनीयभेदात् तत्र तत्त्वार्थश्रद्धानलक्षणं सम्यक्त्वं तद्रूपं मोहनीयम् सम्यक्त्वमोहनीयम् तद् विपरीतम् अतत्त्वार्थश्रद्धानं तत्त्वार्थाश्रद्धानं वा मिथ्यात्वम्, तद्रूपं मोहनीयं मिथ्यात्वमोहनीयम्-तदुभयं सम्यग् मिथ्यातत्वश्रद्धानलक्षणं च सम्यग् मिथ्यात्वम्, तद्रूपं मोहनीयं सम्यग मिथ्यात्वमोहनीयम् इत्येवं तावत् त्रिविधं दर्शनमोहनीयस्योत्तरप्रकृतिकर्म बोध्यम् तत्त्वार्थश्रद्धानं दर्शनं तन्मोहनाद् दर्शनमोहनीयमुच्यते प्राणातिपातादिरूपप्राणिवधादितो विरतिरूपं चारित्रम्-तन्मोहनात् मूर्छारूपात् ; चारित्रमोहनीयं कर्म व्यपदिश्यते तत्र दर्शनमोहनीयस्योक्तत्रैविध्यं वर्तते तेषां त्रयाणामपि बन्धो भवति तथा चोक्तम्-॥
तत्त्वार्थनियुक्ति- पूर्वसूत्र में वेदनीय नामक मूलकर्मप्रकृति की दो उत्तर प्रकृतियाँ बतलाई जा चुकी हैं; अब चौथी मोहनीय मूलप्रकृति की अठाईस उत्तरप्रकृतियों की प्ररूपणा करने के लिए कहते हैं-मोहनीय नामक मूलप्रकृति दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय आदि के भेद से अठाईस प्रकार की है। __ तीन प्रकार का दर्शन मोहनीय-मिथ्यात्वमोहनीय, सम्यक्त्व मोहनीय और निश्र मोहनीय, अनन्तानुबन्धी अप्रत्याख्यान प्रत्याख्यान और संज्वलन के क्रोध, मान, माया, लोभ, यों सोलह कषाय मोहनीह तथा नौ नो कषाय मोहनीय अर्थात् हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, स्त्री वेद, पुरुषवेद और नपुंसकवेद, यह सब मिलकर मोहनीय कर्म की अट्ठाईस उत्तर प्रकृतियाँ हैं।
तत्त्वार्थ के विषय में सम्यक् श्रद्धान न हो-विपरीत श्रद्धान होना मिथ्यात्व कहलाता है । जिस कर्म के उदय से मिथ्यात्व की उत्पत्ति होती है, वहमिथ्यात्वमोहनीय कर्म कहलाता है । जिसके उदय से सम्यक्त्व का घात तो न हो किन्तु वह दूषित बना रहे, वह सम्यक्त्व मोहनीय कर्म कहलाता है। जिसके उदय से सम्यक्त्व और मिथ्यात्व रूप मिला जुला परिणाम उत्पन्न हो, वह सम्यग-मिथ्यात्व या मिश्रमोहनीय कहलाता है । यह तीन दर्शनमोहनीय की उत्तर प्रकृत्तियाँ हैं।
प्राणातिपात अर्थात् प्राणिविराधना आदि की निवृत्ति को चारित्र कहते हैं । उसे जो मोहितमूर्छित करदे अर्थात् जो चारित्र परिणाम को जागृत न होने दे, वह चारित्रमोहनीय कर्म कहलाता है।
यद्यपि दर्शनमोहनीय कर्म के तीन भेद हैं, और तीनों में बन्ध होता है। कहा भी है
શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧