Book Title: Tattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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तत्त्वार्थसूत्रे
पूर्वोक्त क्रोधरीत्यैव क्रमश मेषविषाणसदृशी प्रभृतीनामपि मायानां यथायोग्यं निगमनं विधातव्यम् सा चेयं माया-निकृति-वञ्चना- दम्भ-कूटच्छलनाss-र्जवादिशब्दैरपि व्यपदिश्यते ।
एवं लोभोऽपि तावदनन्तानुबन्ध्यप्रत्याख्यान - प्रत्याख्यान – संज्वलन - कषायभेदेन चतुर्विधः क्रमशस्तीव्रो मध्यो- विमध्यो- मन्दश्चात्मपरिणतिविशेषरूपो भावः लाक्षारागसदृशः कर्दमरागसदृशः खञ्जनरागसदृशः हरिद्वारागसदृश्चावगन्तव्यः । तत्र - लाक्षारागसदृशः खलु तीव्रोऽनन्तानुबन्धी लोभकषाय आमरणान्न व्यपगच्छति जात्यन्तरानुबन्धो निरनुनयोऽप्रत्यवमर्शश्च मवति, तथाविधं लोभमनुसृताः प्राणिनो मरणान्तरं नरकेषूत्पत्ति प्राप्नुवन्ति कर्दमरागसदृशस्तावद् मध्योऽप्रत्याख्यानकषायो लोभो वर्षपर्यन्तं तिष्ठति, तथाविधं लोभमनुसृता जीवा मरणानन्तरं तिर्यग्योनिषु समुत्पत्ति प्राप्नुवन्ति
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एवं खञ्जनरागसदृशः खलु प्रत्याख्यानकषायों विमध्यो लोभश्चतुर्मासपर्यन्तं तिष्ठति, तथाविधं लोभमनुसृताः प्राणिनो मरणानन्तरं मनुष्येषूत्पत्तिं लभन्ते । एवं हरिद्रारागसदृशः पुनर्मन्दो लोभः आत्मपरिणतिविशेषो भावः प्रत्यवमर्शनोत्पत्त्यनन्तरमेव व्यपगच्छति, तथाविधं लोभमनुसृता जीवा मरणानन्तरं देवेषु समुत्पत्तिं प्राप्नुवन्ति एषाञ्च चतुर्णां क्रोध- मान-मायालोभानां कषायाणां प्रत्यनीकाः क्षमा मार्दवा ऽऽर्जव - सन्तोषाः प्रतिघातहेतवो भवन्ति ।
में उत्पन्न होते हैं इसी तरह पूर्वोक्त क्रोध की भाँती मेढे के सींग के सदृश आदि तीन प्रकार की माया को भी यथायोग्य समझ लेना चाहिए । माया के अनेक पर्यायवाचक शब्द हैं, जैसे-निकृति, वंचना, दंभ' कूट छलना, अनार्जव आदि । इन शब्दों से माया के अनेक रूपों को भी समझा जा सकता है ।
लोभ भी चार प्रकार का है - अनन्तानुबंधी लोभ, अप्रत्याख्यानी लोभ, प्रत्याख्यानी लोभ और संज्वलनलोभ । ये चारों प्रकार के लोभ क्रमशः तीव, मध्य, विमध्य और मन्द होते हैं । ये लाक्षाराग ( कृमिजरङ्ग) के समान, कर्दमराग के समान, खंजनराग के समान और हरिद्राराग के समान हैं । लाक्षाराग के समान तीव्र अनन्तानुबंधी लोभ मरणपर्यन्त दूर नहीं होता है । इस लोभ का अनुसरण करके मरने वाला प्राणी मरने के बाद नरक में उत्पन्न होते हैं । कर्दमराग समान अप्रत्याख्यानी लोभ एक वर्ष पर्यन्त ठहरता है । इस लोभ के वशीभूत होकर मरने वाले प्राणी तिर्यंच योनि में उत्पन्न होते हैं । खञ्जनराग के समान विमध्य प्रत्याख्यानी लोभ चार मास तक ठहरता है । इस लोभ का अनुसरण करके मरने वाले प्राणी मृत्यु के पश्चात् मनुष्यगति में उत्पन्न होते हैं । इसी तरह हरिद्राराग- हल्दी के रङ्ग - के समान मन्द संज्वलन लोभ उत्पत्ति के पश्चात् शीघ्र ही दूर हो जाता है । इस लोभ के वशीभूत होकर मरने वाले जीव मरण के अनन्तर देव गति में उत्पन्न होते हैं । इन क्रोध, मान, माया और लोभ कषायों के विरोधी भाव अनुक्रम से क्षमा, मृदुता, ऋजुता और सन्तोष हैं । क्षमा आदि विरोधी भावों का अवलम्बन करके क्रोध आदि कषायों का प्रतिघात किया जा सकता है ।
શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર : ૧