Book Title: Tattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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तत्त्वार्थसूत्रे तत्त्वार्थदीपिका-पूर्वसूत्रे चतुर्थस्य मोहनीयस्य कर्मणो मूलप्रकृतिबन्धस्याऽष्टाविंशतिभेदा उत्तरप्रकृतयः प्ररूपिताः, सम्प्रति क्रमप्राप्तस्य पञ्चमस्या-ऽऽयुष्यकर्मणो मूलप्रकृतिबन्धस्य चतुर्भेदा उत्तरप्रकृतीः प्ररूपयितुमाह-"आउए चउबिहे-" इत्यादि ।
आयुष्यं कर्म-उत्तरप्रकृतित्वेन चतुर्विधं प्रज्ञप्तम्, नारक-तैरश्च-मानुष्य-देवभेदतः । तथाच आयुष्यकर्मणः उत्तरप्रकृतित्त्वस्य नारकायुष्यं-तैर्यग्योनायुष्यं-मानुष्यायुष्यं–देवायुण्यम् इत्थं चातुर्विध्यं बोध्यम् ॥१०॥
तत्त्वार्थनियुक्ति:--पूर्वसूत्रे चतुर्थमोहनीयकर्ममूलप्रकृतिबन्धस्याऽष्टाविंशतिभेदा उत्तरप्रकृतीः प्ररूपयन्-सम्प्रति-पञ्चमस्याऽऽयुप्यकर्मणो मूलप्रकृतिबन्धस्य चतुर्भेदा उत्तरप्रकृती प्ररूपयितुमाह--"आउए चउबिहे नारग-तिरिक्ख-मणुस्स-देवभेयओ-" इति. । आयुष्यं कर्मउत्तरप्रकृतिरूपं चतुर्विधं प्रज्ञप्तम् ।
नारक-तैरश्च-मानुष-दैवभेदतः, नारकायुष्य-तैर्यग्योनायुष्य-मानुष्यायुष्य देवायुष्याणि भेदाः । तथाच-यस्य कर्मण उदयात् मात्मा प्रायोग्यप्रकृतिविशेषानुशायी भूतः सन् नारकतैर्यग्योनमानुषदेवगतिभावेन जीवति, यस्य च क्षयात् म्रियते , तदायुष्यं व्यपदिश्यते. तथाचोक्तम्
___ "स्वानुरूपानवोपात्तं पौद्गलं द्रव्यमात्मनः।
जीवन यत्तदायुष्कं उत्पादाद् यस्य जीवति.॥१॥ इति.॥
तथाविधस्य खलु प्रथमबद्धस्या-ऽऽयुषोऽन्नादय उपकारका भवन्ति, । तस्य चा-ऽऽयुषः कर्मणो मूलप्रकृतिबन्धस्यो-त्तरप्रकृतिचतुष्टयं वर्तते नारकायुष्कम्-तैर्यग्योनिकायुष्कम्-मानुषायुकम्-दैवायुष्कञ्चेति,
तत्त्वार्थदीपिका--पूर्व सूत्र में कर्म की चौथी मूलप्रकृति मोहनीय की अठाईस उत्तर प्रकृतियों का प्ररूपण किया गया, अब पाँचवीं मूल प्रकृति आयु की चार उत्तर प्रकृतियाँ बतलाते हैं
आयुष्यकर्म की उत्तरप्रकृतियाँ चार हैं-नरकायु, तिथंचायु, मनुष्यायु और देवायु ॥१०॥
तत्त्वार्थनियुक्ति-पिछले सूत्र में चौथी मोहनीय रूप मूल कर्मप्रकृति की अठाईस उत्तर प्रकृतियों का निरूपण किया गया, अब आयु नामक पाँचवीं मूलकर्मप्रकृति की चार उत्तरप्रकृतियाँ कहते हैं-उत्तर प्रकृतिरूप आयुष्यकर्म चार प्रकार का कहा गया है-नरकायु, तिर्यंचायु, मनुष्यायु और देवायु ।
जिस कर्म के उदय से-आत्मा नारक, तिर्यंच मनुष्य या देव के रूप में जीवित रहता है और जिस कर्म के क्षय से मर जाता है, उसे आयुष्यकर्म कहते हैं । कहा भी है
अपने अनुरूप आस्रव के द्वारा ग्रहण किये हुए अन्न आदि उस प्रथमबद्ध आयु के उपकारक होते हैं । उस आयु नामक मूलप्रकृति की चार उत्तर प्रकृतियाँ हैं-(१) नारकायुष्क (२) तैर्यग्योनिकायुष्य (३) मानुषायुष्क (४) देवायुष्क । 'आयुष्' पद की व्युत्पत्ति इस
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શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧