Book Title: Tattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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तत्त्वार्थसूत्रे दयात् शुभाऽशुभद्रव्यविषयकं घृणाजननं व्यलीकमुपजायते । पुरुषवेदरूपनोकषायमोहोदयात् स्त्रीस्वभिलाषो भवति, ऊद्रिक्तश्लेष्मण आम्रफलाभिलाषवत् । एवं सङ्कल्पविषयीभूतास्वपि स्त्रीषु पुरुषवेदरूपनोकषायमोहोदयात् अभिलाषो भवति ।
स्त्रीवेदलक्षणनोकषायमोहोदयात् स्त्रियाः पुरुषेषु-अभिलाषो भवति, तन्मोहोदयादेव सङ्कल्पविषयीभूतेषु च पुरुषेषु-अभिलाषो जायते । नपुंसकवेदलक्षणनोकषायमोहोदयात् कस्यचित् स्त्रीपुरुषद्वयविषयोऽपि-अभिलाष संजायते, धातुद्वयोदये सम्मार्जितादिद्रव्याभिलाषवत्, कस्यचित्पुनः पुरुषेष्वेवाभिलाषः प्रादुर्भवति सङ्कल्पजन्यविषयेषु चाऽनेकरूपोऽभिलाषो भवति ।
तत्र-पुरुषवेदादीनां नोकषायाणां तृणकाष्ठकरीषाग्नयो दृष्टान्ता भवन्ति । पुरुषवेदमोहानलस्याऽत्यन्तं ज्वलतः प्राप्तप्रतिक्रियस्य वडवेव प्रशमो भवति, समासादिततृणपूलस्येव न चिर स्थायी अनुबन्धो भवति । स्त्रीवेदमोहानलस्य चिरकालावस्थायिनः सम्भाषण-स्पर्शन-शुष्कन्धनाऽभि वर्द्धितस्य चिरकालानन्तरं प्रशमो भवति, दृढतम-खदिरादिकाष्ठप्रवृद्धज्वालामालाकलापाऽनलवत् ।
नपुंसकवेदमोहानलस्य महानगरदाहदहनस्येव करीषाग्नेरिवाऽन्तर्विजृम्भमाणदीप्ततमकणनिकहै । जुगुप्सा नो कषायमोह के उदय से शुभ और अशुभ द्रव्यों के विषय में घृणा उत्पन्न होती है। पुरुषबेद नो कषाय मोहनीय के उदय से स्त्रियों की अभिलाषा होती है, जैसे कफ के प्रकोप वाले को आम्रफल की अभिलाषा होती है । इसी प्रकार संकल्प की विषयभूत स्त्रियों में भी पुरुष वेद नो कषाय मोह के उदय से अभिलाषा होती है।
स्त्री वेद नो कषाय मोह के उदय से स्त्री को पुरुष की अभिलाषा होती है और इसी वेद के उदय से संकल्प के विषयभूत पुरुषों में भी अभिलाषा होती है । नपुंसकवेद नो कषाय मोहनीय के उदय से स्त्री और पुरुष, दोनों के साथ रमण करने की अभिलाषा उत्पन्न होती है, जैसे दो धातुओं का उदय होने पर सम्मार्जित आदि द्रव्यों की अभिलाषा होती है किसी-किसी को पुरुषों की ही अभिलाषा होती है तथा संकल्पजनित विषयों में अनेक प्रकार की अभिलाषा उत्पन्न होती है।
___पुरुष वेद आदि तीन नो कषायों के लिए घास की अग्नि, काष्ठ की अग्नि और करीष (छाणों) की अग्नि का उदाहरण प्रसिद्ध है पुरुष वेद मोहनीय रूपी अग्नि जब तीव्रता के साथ प्रज्वलित होती है तब उसका प्रतीकार होने पर वडवा की भाँति उपशम हो जाता है । जैसे घास का पूला जल्दी ही जल जाता है, वैसे पुरुषवेद का असर भी शीघ्र समाप्त हो जाता है-चिरस्थायी नहीं होता । स्त्री वेद मोह रूपी अग्नि चिरकाल में शान्त होती है वह झटपट प्रज्वलित भी नहीं होती बल्कि संभाषण, स्पर्शन आदि रूपि सूखे ईधन से शनैः शनैः वृद्धि को प्राप्त होती है । स्त्री वेद की आग अत्यन्त मजबूत खदिर की लकड़ी की खूब बढ़ी हुई ज्वालाओं के समूह के समान होती है । उसके शान्त होनेमें देर लगती है।
नपुंसक वेद मोहनीय रूपी अग्नि उक्त दोनों से अधिक उग्र होती है। वह किसी महानगर
શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧