Book Title: Tattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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दीपिकानियुक्तिश्च अ. ३ स. ९ मोहनीयकर्मण उत्तरकर्मनिरूपणम् ३७१ नीयञ्चोच्यते । एवञ्च-आत्मनोऽभिमतविषयत्वम् सवेंदनीयत्वम् । आत्मनोऽनभिमतविषयत्वञ्चाsसद्वेदनीयत्वमवगन्तव्यम् ॥८॥
मूलसूत्रम्--"मोहणिज्ज अट्ठावीसविहं दसणचरित्तादिभेयओ--" ॥९॥ छाया--"मोहनीयम्-अष्टाविंशतिविधं दर्शनचारित्रादिभेदतः-" ॥९॥
तत्त्वार्थदीपिका--पूर्वसूत्रे वेदनीयाख्यस्य तृतीयमूलप्रकृतिकर्मणो द्वैविध्येनोत्तरप्रकृतिकर्मप्ररूपितम् , सम्प्रति--मोहनीयस्य चतुर्थमूलप्रकृतिकर्मणोऽष्टाविधमुत्तरकर्म प्ररूपयति "मोहणिज्ज-" इत्यादि । तथाच-मोहनियं कर्म द्विविधम्, दर्शनमोहनीयम्-१ चारित्रमोहनीयञ्च-२।
तत्र-दर्शनमोहनीयं त्रिविधम्, मिथ्यात्वमोहनीयम्-१ सम्यक्त्वमोहनीयम्-२ सम्यग्मि ध्यात्व मिश्रमोहनीयञ्च-३ । चारित्रमोहनीयन्तु-कषायमोहनीय-१ नोकषायमोहनीय-२ भेदेन द्विविधम् । तत्र-कषायमोहनीयं षोडशविधम् , क्रोध-मान-माया-लोभचतुष्टयस्य कषायमोहनीयस्य प्रत्येकम् अनन्तानुबन्ध्यप्रत्याख्यानकषायप्रत्याख्यानकषाय-संज्वलनकषायभेदेन चातुर्विध्यात् षोडशभेदा भवन्ति।
नोकषायमोहनीयं खलु नवविधं भवति, हास्य-रत्य-रति-शोक-भय-जुगुप्सा-पुरुषवेदस्त्रीवेद-नपुंसकवेदभेदात् इत्येवं रीत्या दर्शनमोहनीयस्य -उपर्युक्तत्रैविध्येन सह चारित्रमोहनीयस्य षोडशकषायमोहनीय, नवनोकषायमोहनीयभेदैः पञ्चविंशतिभेदानां सम्मेलनेना--ऽष्टाविंशतिविधं मोहनीयमूलप्रकृतिकर्मण उत्तरप्रकृतिकर्मसम्पद्यते -इति भावः ॥ ९ ॥ जिस कर्म के उदय से अनिष्ट सामग्री प्राप्त होने पर असाता-दुःख रूप अनुभूति हो, वह असद्वेद्य कर्म है ॥८॥
सूत्रार्थ--"मोहणिज्ज अट्ठाबीसविहं' इत्यादि ॥९॥ दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय आदि के भेद से मोहनीय कर्म अठाईस प्रकार का है॥९॥
तत्त्वार्थदीपिका-पिछले सूत्र में वेदनीय नामक मूल कर्मप्रकृति की दो उत्तर प्रकृतियों का निरूपण किया गया; अब मोहनीय नामक चौथी मूल कर्मप्रकृति की अठाईस उत्तर प्रकृतियों का निरूपण करते हैं-मोहनीय कर्म दो प्रकार का है-दर्शमोहनीय और चारित्रमोहनीय ।
इनमें से दर्शनमोहनीय कर्म तीन प्रकार का है-२ मिथ्यात्वमोहनीय २ सम्यक्त्वमोहनीय और ३ सम्यग् मिथ्यात्वमोहनीय अर्थात् मिश्रमोहनीय । चारित्रमोहनीय दो प्रकार का है-कषायमोहनीय और नोकषायमोहनीय । इनमें से कषायमोहनीय के सोलह भेद हैं क्रोध, मान, माया, और लोभ, यह चारों कषाय अनन्तानुबंधी, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान आर संज्वलन के भेद से चारचार प्रकार के होने के कारण सोलह प्रकार के हो जाते हैं।
नोकषायमोहनीय के नौ भेद हैं- १ हास्य २ रति ३ अरति ४ शोक ५ भय ६ जुगुप्सा ७ पुरुषवेद ८ स्त्रीवेद और ९ नपुंसक वेद । इस प्रकार दर्शनमोहनीय के, तीन भेदों के साथ चारित्रमोहनीय के सोलह, कषायमोहनीय ओर नौ नो कषायमोहनीय के पचीस भेदों को सम्मिलित करने से मोहनीय नामक मूल प्रकृति की अठाईस उत्तरप्रकृतियाँ हो जाती हैं ॥९॥
શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧