Book Title: Tattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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दीपिकानियुक्तिश्च अ. २. सू. २०
पुद्गलानां परिणामनिरूपणम् २६१ तालघण्टाताडनाद्यभिधातजन्योऽवसेयः सौषिरः शब्दस्तु-वंशशङ्खादिजन्यो भवति, वैस्रसिकस्तुमेघादिप्रभवो ध्वनि गर्जनात्मको भवति ।
इत्येते सर्वेऽपि शब्दाः पुद्गलपरिणामात्मकपुद्गलविकारा एव अन्धकारस्तावत्-दृष्टिप्रतिबन्धकारणम् प्रकाशविरोधी तमःपर्यायः पौद्गलिको बोध्यः । उत्द्योतः-चन्द्रसूर्याग्निमणिखद्योतादिप्रभवः प्रकाशविशेषोऽपि पौद्गलिक एव. । प्रभा खलु दीप्तिः प्रकाशविशेषरूपा पौद्गलिकी बोध्या । छाया पुन:-प्रकाशावरणहेतुका वर्णादिविकारपरिणता प्रतिबिम्बमात्रात्मिका च दर्पणादिसंस्थानरूपाऽपि पौद्गलिकी भवति. ।
___ आतपश्च --- सूर्यादिनिमित्त: उष्णप्रकाशलक्षणः पौद्गलिकोऽवगन्तव्यः । बन्धः पुनर्द्विविधो भवति, प्रायोगिकः-वैस्रसिकश्च । तत्र–प्रायोगिको बन्धः पुरुषप्रयोगनिमित्तः, अजीवविषयः जीवाऽजीवविषयश्चेति द्विविधः । तत्राऽजीवविषयो जतुकाष्ठादिलक्षणो बन्धः । जीवाऽजीवविषयश्चकर्म-नोकर्मबन्धः, वैस्रसिकश्च बन्धः पुरुषप्रयोगानपेक्षो भवति.।
तथाहि-स्निग्धत्व रूक्षत्वगुणनिमित्तो वैस्रसिको बन्धः विद्युचुल्काजलधाराऽग्नीन्द्रचापादिविषयो बोध्यः इत्येवं रूपः सर्वोऽपि बन्धः पौद्गलिकोऽवगन्तव्यः । एवम्--सूक्ष्मत्वं तावद् द्विविधं भवति. अन्त्यम्-आपेक्षिकञ्च, । तत्राऽन्त्यसूक्ष्मत्वं परमाणूनां भवति, आपेक्षिकं सूक्ष्मत्वञ्च–बिल्वाऽऽमलकबदरादीनां बोध्यम्. । द्विविधमपीदं सूक्ष्मत्वं पौद्गलिकमवगन्तव्यन्. । एवं-बादरत्वमपि स्थूलत्वात्मकं द्विविधं बोध्यम्. ।। से उत्पन्न शब्द सौषिर होता है । वैस्रसिक शब्द मेघ आदि का कहा जाता है जो गर्जनात्मक होता है।
ये सभी शब्द पुद्गल के पर्याय होने से पौद्गलिक हैं । देखने में रुकावट पैदा करने वाला प्रकाश का विरोधी तम के नाम से प्रसिद्ध अन्धकार भी पौद्गलिक है । चन्द्र सूर्य अग्नि मणि जुगनू आदि से उत्पन्न होने वाला प्रकाश उद्योत है । वह भी पौद्गलिक है। प्रभा जिसे दीप्ति या चमक कहते हैं, वह भी पौद्गलिक है छतरी आदि के निमित्त से प्रतिनियत देश में प्रकाश के रुकने से उत्पन्न होने वाली छाया भी पौद्गलिक है । वह दर्पण आदि के संस्थान रूप भी होती है।
सूर्य के निमित्त से उत्पन्न उष्ण प्रकाश को आतप कहते हैं । वह भी पुद्गलात्मक ही है । बन्ध दो प्रकार का है—प्रायोगिक और वैस्रसिक । पुरुष के प्रयत्न से उत्पन्न होने वाला प्रायोगिक बन्ध दो प्रकोर का है अजीवविषयक और जीवाजीव विषयक । लाख और लकड़ी का बन्धन अजीवविषयक है । जीवाजीवविषयक बन्ध जीव के साथ कर्म और नोकर्म का होता है। जिस बन्ध में किसी पुरुष के प्रयोग की अपेक्षा नहीं होती वह वैस्रसिक ( स्वभाविक) बन्ध कहलाता है ।
वैनसिक बन्ध स्निग्धता और रूक्षता के कारण होता है । विद्युत् उल्का, जलधारा, अग्नि और इन्द्रधनुष आदि उसके उदाहरण हैं । यह सभी प्रकार का बन्ध पौद्गलिक समझना चाहिए
सूक्ष्मत्व दो प्रकार का है—अन्त्य और आपेक्षिक । अन्त्य सूक्ष्मत्व परमाणु में होता है,
શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧