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दीपिकानिर्युक्तिश्च अ० २ सू. २८
स्कन्धानां बन्धत्वनिरूपणम् ३१७ णरूक्षस्य चतुर्गुणरूक्षः - एकगुणाधिको भवति, इत्येवं रीत्या यावदनन्तगुणरूक्षः - एकगुणाधिको भवति । एतेषाञ्चापि सदृशानां परस्परं बन्धो न भवति, प्रागुक्तयुक्तेस्तुल्यत्वात् ।
एवमत्रापि – “जघन्यवर्जः" इतिवचनात्, द्विगुणस्य त्रिगुणेन सह बन्धो न भवति, एवंत्रिगुणस्य चतुर्गुणेन सह बन्धो न भवति, इत्यादिरीत्या शेषविकल्पयोजनमपि स्वयमूहनीयम् । अपितु - पूर्वोक्तरीत्या द्विगुणस्निग्धस्य पुद्गलस्य चतुर्गुणस्निग्धेन पुद्गलेन सह बन्धो भवति त्रिगुण स्निग्धस्य पुद्गलस्य पञ्चगुणस्निग्धेन पुद्गलेन सह बन्धो भवतीत्यादिरीत्याऽवगन्तव्यम् । “तथाचोक्तम्- प्रज्ञापनायां २० गाथायाम् —
" णिस्स णिद्वेण दुआधिएण लुक्खस्स लुक्खेण दुआधिएण । णिद्धस्स लुक्खेण उवेइ बंधो जहण्णबज्जो विसमे समे वा ॥१॥ इति । " स्निग्धस्य स्निग्धेन द्वयाधिकेन रूक्षस्य रूक्षेण द्वयाधिकेन । स्निग्धस्य रूक्षेण उपैति बन्धो जघन्यवर्जो विषमः समो वा ॥ १ ॥ इति । अत्रैतद् गाथापूर्वार्द्धेन सदृशानां स्निग्धानां रूक्षाणाञ्च पुद्गलानां व्यधिकादि गुणवैषम्ये बन्धो भवतीति प्रतिपाद्यते ।
तथाच - स्निग्धस्य स्निग्धेन द्वयाधिकेन रूक्षस्यापि रूक्षेण द्वयाधिकेन सह बन्धो भवतीति सिद्धम् । एवमेतस्या एव गाथाया उत्तरार्द्धेन तु जघन्यगुणवर्जितयोः स्निग्धरूक्षयोः पुद्गलयोर्विषमगुणयोः - समगुणयोर्वा परस्परं बन्धो भवतीति फलितम् ।
इसी प्रकार यावत् अनन्तगुण रूक्ष एकगुणाधिक होता है । इन सब सदृश पुद्गलों का परस्पर बन्ध नहीं होता इन के बन्ध न होने के विषय में पूर्वोक्त युक्ति समान है - वही युक्ति यहां भी लागू होती है।
यहां भी जघन्यवर्ज इस कथन के अनुसार द्विगुण का त्रिगुण के साथ बन्ध नहीं होता त्रिगुण का चतुर्गुण के साथ बन्ध नहीं होता इत्यादि शेष विकल्पों की योजना स्वयं कर लेना चाहिए | किन्तु पूर्वोक्त प्रकार से द्विगुण स्निग्ध का चतुर्गुण स्निग्ध के साथ बन्ध होता है त्रिगुण स्निग्ध पुद्गल का पंचगुण स्निग्ध पुद्गल के साथ बन्ध होता है । इत्यादि रूप से आगे भी समझ लेना चाहिए । प्रज्ञापनासूत्र में कहा है-
स्निग्ध पुद्गल का दो अंश अधिक स्निग्ध पुद्गल के साथ और रूक्ष का दो अंश अधिक रूक्ष पुद्गल के साथ बन्ध होता है । स्निग्ध पुद्गल का रूक्ष पुद्गल के साथ बन्ध होता है चाहे समगुण वाले हों चाहे विषम गुण वाले हों । इसमें अपवाद यही है कि जघन्य गुण वाले का बन्ध नहीं हो सकता ।
इस गाथा के पूर्वार्ध में प्रतिपादित किया गया है कि जब स्निग्ध या रूक्ष- सदृश पुद्गल हों तो दो अंश अधिक आदि के साथ बन्ध होता है । इस प्रकार स्निग्ध का
શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર ઃ ૧