Book Title: Tattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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तत्त्वार्थसत्रे तत्र-क्रोधनं, क्रुध्यति वा येन स क्रोधः अक्षान्तिपरिणतिरूपः स्वपरात्मनोऽप्रीतिलक्षणः क्रोधमोहनीयोदयसम्पाद्यो जीवस्य परिणतिविशेषः कृत्याऽकृत्यविवेकोन्मूलकः प्रज्वलनात्मकश्चित्तधर्मः । माननम्-स्वमपेक्षयाऽन्यस्य हीनतया परिच्छेदनं मानः अहङ्काररूप आत्मपरिणतिविशेषः । मीयतेप्रतार्य ते-प्रक्षिप्यते वा नरकादौ लोकोऽनया इति माया, मात्ति वा सर्वे दुर्गुणा यस्यामिति वा-माया। पराऽभिसन्धानहेतुकोऽशुद्धप्रयोगः-छद्मप्रयोगो वा माया व्यपदिश्यते । लुभ्यते-व्याकुलीक्रियते आत्माऽनेनेति लोभः । अभिकाङ्क्षा-गर्धः, स पुनस्तृष्णापिपासाऽभिष्वङ्गास्वादो गाय॑मिति । "तत्र–प्रत्येकमपि क्रोधादिकषायोऽनन्तसंसारानुबन्धी भवति । एते चत्वारस्तावद् अत्यन्तपापिष्ठा भवहेतनो भवन्ति भवप्राप्ते मूलकारणम् जन्मजराभावरूपायाः संसारस्थितेर्निदानं प्राणिनां कष्टतमाः अनपराधवैरिणः सन्ति ।।
"तथाचोक्तं दशकालिके ८-अध्ययने २-उद्देशके ४०-गाथायाम्
"कोहो य माणो य अणिग्गहीया, माया य लोभो य पवड्ढमाणा ।
चत्तारि एए कसिणा कसाया, सिंचंति मूलाइ पुणब्भवस्स ॥ १ ॥ एवम्- जं अइदुक्ख लोए, जं च सुहं उत्तमं तिहुयणमि ।
तं जाण कसायाणं, वुडूढिक्खयहेउयं सव्वं ॥२॥
क्रोधन अर्थात् कोप होना क्रोध है अथवा जिसके कारण जीव क्रुद्ध हो जाय वह क्रोध कहलाता है । यह क्रोध अक्षमारूप अर्थात् क्षमा का विरोधी है, स्वात्मा एवं परात्मा के प्रति अप्रीति रूप है और क्रोध मोहनीय कर्म के उदय से उत्पन्न होने वाला जीव का एक प्रकार का परिणमन है वह कृत्य और अकृत्य के विवेक को नष्ट कर देता है, प्रज्वलन रूप होता है।
अपनी अपेक्षा दूसरे को हीन मानना मान है। यह अहंकाररूप आत्मा की एक परि णति है।
जिसके द्वारा ठगा जाता है अथवा जिसके द्वारा लोंग नरक आदि में डाले जाते हैं, वह माया है । अथवा जिसमें सभी दुर्गुण आ जाते हैं-समा जाते हैं, बह माया है । दूसरे को ठगने के लिए जो अशुद्ध प्रयोग या छद्म प्रयोग किया जाता है, वह सब माया है।
जिसके द्वारा आत्मा लुब्ध या व्याकुल किया जाता है, वह लोभ कहलाता है । उसके दो रूप है- आकांक्षा और गृद्धि । अप्राप्त वस्तु की कामना होना आकांक्षा है और प्राप्त वस्तु पर आसक्ति होना गृद्धि है। लोभ को तृष्णा, पिपासा, अभिष्यंग, आस्वाद, गार्थ्य आदि भी कहते हैं ।
इनमें से क्रोध आदि एक-एक कषाय भी अनन्त संसार भ्रमण का कारण होता है । यह चारों कषाय अत्यन्त पापमय हैं, संसार के कारण हैं, भव की प्राप्ति के मूल कारण हैं, जन्म-जरा रूप संसार स्थिति के निदान है, प्राणियों के लिए अत्यन्त कष्टजनक हैं और निरपराध वैरी हैं। दशवैकालिक सूत्र में ८ वे अध्ययन के दूसरे उद्देशक की ४० वीं गथा में कहा है
શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧