Book Title: Tattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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तत्त्वार्थसूत्रे न्तिकी शुद्धिं धारयतः सिद्धस्येव बन्धाभावः प्रसज्येत । एवञ्च-यथा भाजनविशेषे स्थापितानां नानारसबीजपुष्पफलानां मदिराभावेन परिणतिर्भवति । एवं कर्मवर्गणायोग्यपुद्गलानामप्यात्मनि स्थितानां योगकषायवशात् कर्मभावेन परिणामो भवतीति भावः ॥१॥
तत्त्वार्थनियुक्तिः--आदौ प्रतिपादितेषु जीवाजीवबन्धादिनवतत्त्वेषु प्रथम-द्वितीयाध्ययनयोः क्रमतो जीवाजीवयोः प्ररूपणानन्तरं क्रमप्राप्तं बन्धतत्त्वं प्ररूपयितुमाह-“सकसायजीवस्स" इत्यादि । अनन्तानुबन्ध्यादिभेदाः षोडशविधा:-क्रोध--मान-माया लोभाः कषायाः तैः कषायैः सह वर्तते इति सकषायस्तस्य सकषायस्य जीवस्य कर्मयोग्यपुद्गलानां कर्मवर्गणाभावप्राप्तियोग्यानां पुद्गलानामादानं ग्रहणं संश्लेषण बन्ध उच्यते ।
तत्र-बन्धशब्दवाच्यार्थस्तु-बन्धनं बन्धः आत्मप्रदेशपुद्गलानां परस्पराश्लेषः, नीर-क्षीरवत्सम्बन्धः प्रकृत्यादिभेदः । यद्वा-येन बध्यते-आत्मा अस्वातन्त्र्यमापाद्यते ज्ञानाबरणादिना स पुद्गलपरिणामलक्षणो बन्धः, आत्मप्रदेशेषु रागद्वेषाद्यभ्यञ्जनेषु कर्मभावप्राप्तियोग्यपुद्गलानामाश्लेष इत्यर्थः ।
कषायशब्दार्थस्तु-कषति हिनस्ति आत्मानं दुर्गतौ पातनद्वारा-इति कषायः कषहिंसा
अगर बन्ध की आदि मानी जाय तो उससे पूर्व जीव को सिद्ध के समान अत्यन्त शुद्ध मानना पड़ेगा और ऐसी स्थिति में बन्ध के अभाव का प्रसंग उपस्थित होगा।
जैसे किसी विशेष भाजन में रक्खे हुए नाना प्रकार के रस, बीज, पुष्प एवं फलादि का मदिरा के रूप में परिणमन हो जाता है. उसी प्रकार कर्मवर्गणा के पुद्गलों का योग और कषाय के कारण कर्म रूप में परिणमन हो जाता है ॥१॥
तत्त्वार्थनियुक्ति-प्रारंभ में प्रतिपादित जीव, अजीव, बन्ध आदि नौ तत्त्वों में से प्रथम और द्वतीय अध्ययन में क्रम से जीव और अजीव तत्त्व का प्ररूपण किया गया। तदनन्तर क्रम से प्राप्त बन्ध तत्त्व की प्ररूपणा करने के लिए कहते हैं--
____ अनन्तानुबन्धी क्रोध मान माया और लोभ आदि के भेद से कषाय सोलह प्रकार के हैं । जो कषाय से युक्त होता है वह सकषाय कहलाता है। कषाययुक्त जीव कर्म के योग्य अर्थात् कार्मणवर्गणा के पुद्गलों को ग्रहण करता है। यहीं बन्ध कहलाता है।
आत्मप्रदेशों का और कार्मण जातीय पुद्गलों का परस्पर में बद्ध होना संश्लेष होना एकमेक हो जाना बन्ध शब्द का अर्थ है। बन्ध होने पर आत्मप्रदेश और कर्मपुद्गल क्षीरनीर की तरह मिल जाता है । प्रकृति बन्ध आदि के भेद से बन्ध के चार प्रकार हैं।
अथवा जिसके द्वारा आत्मा बाँधा जाय-पराधीन किया जाय, वह पुद्गल का परिणमन बन्ध कहलाता है। राग-द्वेष आदि से युक्त आत्मप्रदेशों में कार्मण-पुद्गलों का आश्लेष होना बन्ध है।
जो आत्मा को दुर्गति में गिरा कर कषता है अर्थात् उसका घात करता है, वह
શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧