Book Title: Tattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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तत्त्वाथसून
एवमधर्मद्रव्यमपि-सत्त्वाऽमूर्तत्वादि धर्मापरित्यागेन सन्तिष्ठते सर्वदा, स्थित्युपकारितया चाऽधर्मद्रव्यस्याऽनित्यत्वं भवति । आकाशस्य पुनः सत्त्वाऽमूर्तत्वाऽनन्तप्रदेशत्वादिधर्मवत्त्वेन नियत्त्यवं भवति, अवगाहकानां पुद्गलादिद्रव्याणामवगाहदातृत्वेन चाऽनित्यत्वम्। यत्राऽप्यलोकाकाशेऽवगाहक जीवपुद्गलादिकं न भवति, तत्राऽपि-अगुरुलध्वादिपर्याया भिन्नाभिन्ना एव भवन्ति । __ अन्यथा--अलोकाकाशादौ न स्वतः उत्पादव्यययौ भवतः, नाऽप्यापेक्षिको स्याताम्, तथासतितत्रो-त्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं तावत् सन्मात्रलक्षणमव्यापकं भवेत्। तस्मात्-यद्वस्तु सतो भावाद् न व्यगाद्न ब्येति, न वा-व्येष्यति तन्नित्यमुच्यते । तथाच-यद्वस्तु द्रव्यं सत्वाद्यन्वयिनोंऽशाद् न व्यगाद्-न विनष्टः, न व्यनाङ्क्षीत् , न वा-व्येति न विनश्यति नापि-व्येष्यति-न विनयति तन्नित्यं व्यपदिश्यते ।
अथवा-तद्भावेन तेन सदात्मना स्थित्यंशेन, अव्ययम्-अविगतं परिणामापत्तौ सत्यामपिस्वतत्त्वाप्रच्यवाद् नित्यमुच्यते, अथ यथा तद् द्रव्यमात्मपरित्यागात् तथोत्पत्तिनाशलक्षणः पर्यायोऽपि द्रव्यस्यात्मभूत इति पर्यायनिवृत्तिवद् द्रव्यस्यापि निवृत्त्यापत्तिरिति चेदुच्यते
यदि घटादिपर्यायनिवृत्तौ सत्यां मृत्पिण्डस्या-ऽपि निवृत्तिदृश्येत, मृन्निवृत्तौ वा पुद्गलनिवृतिः तदा-स्यादेतद् एवम्, न तु-तथा दृश्यते, न हि-अन्वयिन्या मृदः पुद्गलजातेर्वा कस्यामप्यवस्थायां में निमित्त होने रूप पर्याय की अपेक्षा से उसमें नित्यता नहीं है। गमनकर्ता के भेद से गत्युपकारित्व भी भिन्न होता रहता है । अर्थात् उसके पूर्वापर पर्याों में परिवर्तन होता रहता है । इसी प्रकार अधर्म द्रव्य भी सत्त्व अमूर्तत्व आदि धर्मों का कभी परित्याग न करने के कारण नित्य है, मगर विभिन्न पदार्थों की स्थिति में निमित्त बनने रूप पर्यायों की अपेक्षा से अनित्य है ।
आकाश सत्त्व, अमूर्तत्व, अनन्तप्रदेशित्व, अवगाहना आदि गुणों के कारण नित्य है किन्तु अवगाहक वस्तुओं के भेद के कारण उसके अवगाहमान परिणाम में भी भेद होता रहता है । इस दृष्टि से वह अनित्य है । अलोकाकाश में जीव पुद्गल आदि अवगाहक नहीं हैं, फिर भी वहाँ अगरुलघु आदि पर्याय भिन्नाभिन्न होते हैं । यदि ऐसा न माना जाय तो अलोकाकाश में स्वतः उत्पाद और व्यय नहीं होंगे और न परापेक्ष ही होंगे । ऐसी दशा में वहाँ उत्पाद' व्यय और ध्रौव्य न होने से सत् का लक्ष्य भी घटित नहीं होगा । अतः जो वस्तु सत् भाव से नष्ट नहीं हुई, नहीं होती और नहीं होगी, वही नित्य कहलाती है।
अथवा-क्षण-क्षण में विविध प्रकार के परिणमन होते रहने पर भी वस्तु का अपने मूल अस्तित्व से अर्थात् ध्रौव्य रूप अंश से च्युत न होना नित्यत्व कहलाता है ।
शंका-उत्पत्ति और विनाश पर्याय द्रव्य से अभिन्न हैं, अतः पर्याय का विनाश होने पर द्रव्य का भी विनाश हो जाना चाहिए ।
___ समाधान यदि घट पर्याय का विनाश होने पर मृत्तिका का भी विनाश देखा जाता और मृत्तिका का विनाश होने पर पुद्गलद्रव्य का विनाश हो जाता होता तो ऐसा कहा जा सकता था;
શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧