Book Title: Tattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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दीपिकानियुक्तिश्च अ०२ सू० २७
संघातनिष्पत्तिनिरूपणम् ३०५
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यदि-नित्यं स्यात्, तदा-विनाशोदयाभावात् अनित्यत्वं व्याहन्येत यदि तु-अनित्यं स्यात् तदा-स्थिरत्वाभावेन नित्यत्वं व्याहतं स्यात्, इत्याशङ्कां समाधातुमाह-"अप्पियणप्पिएहिंअणेगंत-" इति । अर्पिताऽनर्पिताभ्याम्-प्राधान्येन विवक्षिताऽविवक्षिताभ्यां किमपि वस्तु-अने कान्तं भवतीति भावः ।
तथाच अनेकान्तात्मकस्य वस्तुनः प्रयोजनवशाद् यस्य कस्यचिर्द्धर्मस्य विवक्षया प्रापितं प्राधान्यमर्पितमुपनीतम्, तद्भिन्नमनर्पितमुच्यते प्रयोजनाभावात् सदपि-अविवक्षितं सत् उपसर्जनीभूतमनर्पितमिति भावः अर्पितञ्चा–ऽनर्पितञ्चेतिअर्पिताऽनर्पिते,ताभ्यां सर्वमपि वस्तुअनेकान्तात्मकम् कथञ्चिन्नित्यं कथञ्चिदनित्यं भवति, इति न पूर्वोक्तविरोधः ।
तद्यथा कश्चित्पुरुषः पितेत्युच्यते स पुरुषः कस्यचित्पुत्रस्यापेक्षया पिता भवति, तस्य पितुरपि कश्चित्पिता भवति तदपेक्षया तु–स पूर्वः पिता पुत्र इति व्यपदिश्यते-पुनः स एव पुरुषः पितृत्वेन पुत्रत्वेन च व्यपदिश्यमानः कस्यचिदन्यस्य भ्रातुरपेक्षया भ्रातेत्युच्यते एवं स एव पुरुषः-पितामहापेक्षया पौत्र इत्युच्यते, मातुलापेक्षया भागिनेय इति. । मातामहापेक्षया दौहित्रःपर्यार्थिक नय से उत्पाद और व्यय से युक्त होने के कारण अनित्य होते हुए भी द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा मृत्तिका द्रव्य का अन्वय होने के कारण नित्य भी है, मगर यह कथन परस्पर विरुद्ध सा प्रतीत होता है । जो वस्तु अनित्य है वही नित्य कैसे हो सकती है ? यदि नित्य है तो विनाश और उत्पाद का होना असंभव है और यदि अनित्य है तो ध्रुव न रहनेके कारण नित्यता में विरोध आता है । इस आशंका का समाधान करने के लिए कहते हैं
किसी धर्म की प्रधान रूप से विवक्षा करने पर और किसी धर्म की अप्रधान रूप से विवक्षा करने पर अनेकांत की सिद्धि होती है।
प्रत्येक वस्तु अनेक धर्मों का अखण्ड पिण्ड है। उनमें से अपनी विवक्षा के अनुसार जिस किसी धर्म को विवक्षित करते हैं वह धर्म अर्पित कहलाता है और शेष धर्म विद्यमान होने पर भी प्रयोजन न होने के कारण विवक्षित नहीं किये जाते तब वे अनर्पित कहलाते हैं । इस प्रकार अर्पित और अनर्पित से अर्थात् धर्मों को प्रधान और गौण करने से वस्तु अनेकधर्मात्मक सिद्ध होती है। इसी कारण वह नित्य भी है और अनित्य भी है । अतएव पूर्वोक्त विरोध का परिहार हो जाता है ।
वह इस प्रकार है-कोई पुरुष पिता कहलाता है। वह अपने पुत्र की अपेक्षा से पिता है। मगर उस पिता का भी कोई पिता होता है। उसकी अपेक्षा से वह पिता पुत्र भी कहलाता है। इसके साथ ही पिता और पुत्र कहलाने वाला पुरुष अपने भाई की अपेक्षा से भ्राता भी कहा जाता है । इसी प्रकार अपने पितामह की अपेक्षा से पौत्र, मामा की अपेक्षा
શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧