Book Title: Tattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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दीपिकानियुक्तिश्च अ२ सू १०
धर्मादीनामवगाहादिप्रदेशनिरूपणम् २०९ आकाशधर्मादीनां युगपद्भाविनामपि आधाराधेयभावे उपपद्यते, तत्र धर्माऽधर्मादीनि द्रव्याणि यत्र लोकयन्ते स लोकः अधिकरणे घन, तादृशो लोको यत्र तल्लोकाकाशम्, ततो बहिः सर्वतोऽनन्तमलोकाकाशम् लोकालोकविभागश्च धर्मास्तिकायाऽधर्मास्तिकाय सद्भावाऽसद्भावादवगन्तव्यः ।
तस्मिन् धर्मास्तिकायेऽसति हि जीवपुद्गलानां गतिनियामकहेत्वभावात् विभागो नोपपद्येत, एवम् अधर्मास्तिकायेऽसति स्थितेराश्रयनिमित्ताभावात् स्थिते रभाव आपद्येत । स्थितेरभावे सतिलोकालोकविभागो न स्यात्, तस्मात्-जीवपुद्गलानां गतिस्थितिनियामकधर्माधर्मास्तिकायसद्भावाल्लोकालोकविभागः सम्पद्यते । अथ स्थितिदानस्वभावस्याऽधर्मद्रव्यस्य लोकाकाशे स्थितस्य परतोऽभावात् कथमलोकाकाशः स्थितिं करोति ? एवं कालद्रव्यं विना कथमलोकाकाशो वर्तते. ? इतिचेन्न,तथाविधस्वभावात ।
तस्मात्-धर्माऽधर्मपुद्गलकालजीवद्रव्याणां लोकाकाशे एवावगाहो भवति, नतु-ततो बहिरलोकाकाशे तेषामवगह इति भावः । उक्तञ्च व्याख्याप्रज्ञप्तौ श्रीभगवतीसूत्रे२-शतके १० उद्देशके ।
कतिविहे णं भंते ! आगासे पण्णत्ते ? गोयमा ! दुविहे पण्णत्ते तं जहा-लोयागासे यअलोयागासे य, लोयागासे णं भंते ! कि जीवा जीवदेसा-जीवपदेसा अजीवा-अजीवदेसाअजीवपदेसा ? गोयमा ! जीबावि, जीवदेसावि, जीवपदेसावि, अजीकावि,अजीवदेसावि, देखा जाता है। अतः आकाश और धर्मादि युगपभावी पदार्थों में भी आधाराधेय भाव संगत है।
इस प्रकार धर्म, अधर्म आदि द्रव्य जहाँ देखे जाते हैं, वह लोक है । यहाँ अधिकरण में धर्म प्रत्यय हुआ है । जहाँ ऐसा लोक है वह लोकाकाश है और उससे बाहर सब तरफ अनन्त अलोकाकाश है । धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय के सदभाव और असद्भाव के कारण ही लोकाकाश और अलोकाकाश का विभाग हैं-वास्तवमें तो आकाश खण्डरहित एक द्रव्य है।
धर्मास्तिकाय न होता तो जीवों और पुद्गलों की गति का नियामक कारण न रहने से यह विभाग भी न होता । इसी प्रकार अधर्मास्तिकाय के अभाव में स्थिति का निमित्त कारण न होता तो स्थिति का ही अभाव हो जाता । ऐसी हालत में लोक-अलोक का विभाग भी न होता । अतएव जीवों और पुद्गलों की गति और स्थिति के नियामक धर्मास्तिकाय
और अधर्मास्तिकाय के सद्भाव और असद्भाव के कारण ही लोक और अलोक का विभाग होता है।
शंका-स्थिति में सहायक अधर्मास्तिकाय सिर्फ लोक में ही है, लोक के आगे नहीं है, तो अलोकाकाश की स्थिति किम प्रकार है ? इसी प्रकार काल के अभाव में अलोकाकाश कैसे वर्तना करता है ?
समाधान-इनकी स्थिति और वर्तना अपने अपने स्वभाव से ही होती है, ___ अतः धर्म, अधर्म, पुद्गल, काल और जीव द्रव्यों की अवगाहना लोकाकाश में ही है; उससे आगे अलोकाकाश में उनकी अवगाहना नहीं है। श्रीभगवतीसूत्र शतक २, उद्देशक १० वे सूत्रमें कहा है
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શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧