Book Title: Tattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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इति । कालस्य कालद्रव्यस्य मनुष्यक्षेत्रेऽवगाहो भवति, नाऽन्यत्रेति भावः || १४ || मूलसूत्रम् – “गइठिइओगाहाणं निमित्ता धम्माधम्मागासा ॥ १५ ॥ छाया - गति-स्थित्यवगाहानां निमित्तानि धर्माऽधर्माकाशानि ॥ १५ ॥ तत्त्वार्थदीपिका- -- अथ धर्माधर्माssकाशकालपुद्गलजीवानां षण्णां पूर्वोक्तद्रव्याणां क्रमशो लक्षणानि प्रतिपादयितुं प्रथमं धर्माधर्माऽऽकाशानां लक्षणानि वक्ति - " गइ ठिs ओगाहाणं निमित्ता धम्माधम्मागासा - " इति । गतिस्थित्यवगाहानां निमित्तानि यथाक्रमं धर्माधर्माका - शानि भवन्ति । तथाच - गतिनिमित्तं धर्मः स्थितिनिमित्तमधर्मः, अवगाहनिमित्तमाकाशं भवतीति भावः ॥ १५॥
तत्वार्थनिर्युक्तिः - पूर्वं सामान्यतो धर्मादीनि षड्द्रव्याणि प्ररूपितानि सम्प्रति - तेषां यथायथं लक्षणानि प्ररूपयितुम् अथवा - तुल्येऽसंख्येयप्रदेशत्वे सति कृत्स्नलोकब्यापित्वमेव धर्माधर्मयोर्वर्तते न तु - असंख्येयभागादिषु वृत्तिमत्वम् । एवम् - असंख्येयप्रदेशे लोकाकाशे एवाऽवगाहो भवति नत्वलोकाकाशे तत्कथम् इत्याशङ्कां समाधातुं प्रयोगविस्रसापरिणामजनितामनेकप्रकारां सार्वलौकिकीमन्यद्रव्येषु असम्भाविनीं क्रियामारभमाणानां जीवपुद्गलानां गतिस्थित्योरूपग्राहकौ - तावद धर्माधर्मौ चक्षुषोदर्शनशक्ते रूपग्राहकसूर्यरश्मिवदिति कार्यतो धर्माधर्मयोः सकललोकव्याहैं - कालद्रव्य का अवगाह मनुष्यक्षेत्र में ही है, अन्यत्र नहीं ॥ १४ ॥
मूलसूत्रार्थ - 'गइ ठिs ओगाहाणं' इत्यादि || सूत्र १५॥
धर्म, अधर्म और आकाश द्रव्य क्रमशः गति, स्थिति और अवगाहना के निमित्त कारण हैं ॥१५॥
तत्त्वार्थसूत्रे
तत्त्वार्थदीपिका - धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल और जीव, इन छहों द्रव्यों के लक्षण क्रमशः प्रतिपादन करने के लिए प्रथम धर्म, अधर्म आकाश का लक्षण कहते हैं - धर्मद्रव्य गति का, rator स्थति का और आकाशद्रव्य अवगाहना का निमित्त है ॥ १५॥ तत्त्वार्थनियुक्ति-— पहले सामान्य रूप से धर्म आदि द्रव्यों का निर्देश किया गया है, अब उनका लक्षण बतलाते हैं । अथवा धर्म और अधर्म द्रव्य के असंख्यात प्रदेश तुल्य होने पर भी वे सम्पूर्ण लोक में व्याप्त है, असंख्यातवें भाग आदि में नहीं । इस प्रकार उनका अवगाह लोक में ही है, अलोक में नहीं, ऐसा क्यों है ? इस शंका का समाधान करने के लिए कहते है - छह द्रव्यों में से केवल जीव और पुद्गलद्रव्य में ही गतिक्रिया होती है, अन्य किसी द्रव्य में नहीं । वह गतिक्रिया प्रयोग परिणाम से भी होती है और विस्रसा (स्वभाव) परिणाम से भी होती है । इस गतिक्रिया में धर्म और अधर्म उसी प्रकार सहायक होते हैं जैसे सूर्य की किरणें नेत्रों के देखने में सहायक होती हैं । गतिक्रिया समस्त लोक में देखी जाती है, अतएव अनुमान प्रमाण से यह निश्चय हो जाता है कि धर्म और अधर्मद्रव्य भी सम्पूर्ण लोक में व्याप्त हैं ।
શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર : ૧