Book Title: Tattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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दीपिकानियुक्तिश्च अ. २ सू० १८
कालस्य स्वरूपनिरूपणम् २५३ "शिशिरे चाऽतिघूमिकापिहितचन्द्रकिरणा बदरीवृक्षाश्च फलभरावनतशाखाः शिशुवृन्दैरनुस्रियमाणतला भवन्ति, तुहिमकणविशदकुन्दमालतीपुष्पवासवासिता वायवः प्रवहन्ति-२
"वसन्तेच-समन्ततः किञ्चिद् विकसत्प्रसूनाः कुन्दलताः, केसरतिलककुरबकशिरीषादिपुष्पपरागशालिनः युवजनमनोहारिणः समीरणाः शनैः शनैः सरन्ति, सहकारमञ्जरीरजः परागपूसरितशरीराः मञ्जुगुञ्जन्ति भृङ्गाः, कोकिलाश्च-कलरवकुहूशब्दैराम्रतरुवनानि मुखरयन्ति, मलयाचलपवनवेगकम्पितपरागपटलैः पिहितनयनपुटाः पथिकजनाः प्रत्यावर्त्तन्ते स्वस्वप्रेयसीगृहाभिमुखम्-३
ग्रीष्मे च-सहस्रकिरणः किरणनिकरैः पृथिवीतलं किरन आस्तीर्णाङ्गारसमूहमिव विदधाति, पथिकजनाश्च अत्यन्तसन्तप्तमानसाः कथञ्चिदतिदाघीयसो दिवसान् अतिवाहयन्ति, चन्दनपङ्काङ्गरागपरिलिप्ताङ्गाः भृत्यजनहस्तोत्क्षिप्ततालव्यजनपवने विद्यच्छक्तिञ्चालितविधु व्यजनप्रक्षिप्तात्यन्तचञ्चलपवनेन च शिशिरीकृतशरीराः भोगविलासिनो जनाः शिशिरेषु गृहोपवनेषु सरित् सरसीतीरेषु च विविधधारागृहान्तर्गताः सन्तो निरस्तनिदाघधर्मप्रसरमभिरमन्ते, गजदन्तखण्डशुभ्रमल्लिकाकलिका बहुलपरिमलवाहिनः परिकल्पितपाटलपुष्पाः सायं प्रातश्च सुरभयः पवनाः सुवासयन्ति विलासिजनजङ्गमशरीराणि-४
शिशिर ऋतु में चन्द्रमा की किरणे अत्यन्त धुंध से आच्छादित हो जाती हैं, बेरी (बोरड़ी) के वृक्षों की शारवाएँ फलों के भार से झुक जाती हैं, और बालक उनके नीचे घूमतेफिरते है, वायु वर्फ के कणों से विशद, कुन्द एवं मालती आदि के पुष्पों से सुवासित हो जाती है ।
वसन्त में चारों ओर कुन्दलताओं के फूल किंचित् विकसित हो उठते हैं, केसर तिलक कुरबक शिरीष आदि के फूलों के पराग से युक्त तथा तरुण जनों के मन को हरण करने वाला समीरण - पवन मंद-मंद चलती है, आम्र की मंजरी के रज एवं पराग से धूसरित शरीर वाले भ्रमर मनोहर गुंजार करने लगते हैं । कोकिलाएँ अपने 'कुहू कुहू' के कलरव से आम्रवनों को मुखरित करने लगती हैं ! मलयाचल के पवन के वेग से कम्पित चम्पा के परागसमूह से अपने नयन-पुटों को बन्द करके पथिक जन अपनी-अपनी प्रेयसियों के गृह की ओर लौटने लगते हैं।
ग्रीष्म ऋतु में सूर्य अपनी प्रखर किरणों से पृथ्वीतल को इतना तप्त बना देता है मानो उस पर अंगारों का समूह बिखेर दिया हो । पथिक जनों का मानस अत्यन्त सन्तप्त हो जाता है, वे जैसे-तैसे अत्यन्त लम्बे दिनों को पूरा करते हैं । भोगीविलासी लोग अपने शरीर पर चन्दन का लेपन करते हैं । सेवकों के हाथों से पंखा झलवाते हैं, अथवा विजली की शक्ति से चलने वाले विजली के पंखे से फेंका जाने वाला अत्यन्त चंचल वायु से अपने शरीर को शीतल करते हैं । शीतल गृहों, उपवनों, नदी या तालाब के किनारों पर विविध प्रकार के धारागृहों के अन्दर रह कर अपनी गर्मी और धूप के प्रसार को दूर करते हैं । हाथीदांत के खण्ड के समान श्वेत वर्ण मल्लिका की कलियाँ, प्रभूत सौरभ से सम्पन्न पाटल-पुष्प
और सायंकाल तथा प्रातः काल की सुरभित वायु विलासी जनों के जंगम शरीर को सुवासित करता है।
શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧