Book Title: Tattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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दीपिकानियुक्तिश्च अ० २ सू. १८
कालस्य स्वरूपनिरूपणम् २५१ अथ वर्तमानेन सूर्यस्योदयेनोपलक्ष्यमाणाभावपदार्थानां प्रति विशिष्टा क्रियैव वर्तते इत्यादिव्यवहारविषयतामवगाहते, न तु-तद् व्यतिरिक्तः कश्चित्कालस्तव्यवहारविषयः, एवं-"ह्यः श्वः" इत्येवमतीतानागतोदयलक्षणा सूर्यमण्डलभ्रमणानुमेया वस्तुक्रियैव-अवर्तत वतिष्यते-" इत्यादिना व्यवहियते इति चेन्मैवम् ।।
धर्मादिद्रव्यपरिणतिमानं कालस्तदन्यो वा कश्चिद् भवतु, न पक्षद्वयेऽपि कश्चिदोषः, किन्तु सूर्यगत्युपलक्षिता नैषा वस्तुक्रिया, “वर्तते-" इत्यादिव्यवहारविषयतामवगाहते, सूर्यगतावपि तत् सद्भावात् । तस्मात्- सर्वेषामेव भावानां "वर्तते" इत्यादि विषयतामवगाहमानानां वर्तनादिनिर्वाहकतया कश्चिदतिरिक्त-कालः कल्पनीय इति,
___ अन्यथा-कालेऽविद्यमाने सति “कालाश्रया वृत्ति-रिति वक्तुं न पार्येत, काले निश्चिते सति तदाश्रया वृत्तिर्वक्तुं शक्यते । तस्मात्सकलवस्तुगुणाश्रया वर्तना कालं विना न संघटते अतः पदार्थपरिणतिहेतुतया कश्चित्कालः कार्यानुमेयोऽस्ति । एवं कालद्रव्याभिधायिनः शब्दा अपि बहवो लोकप्रतीताः सन्ति, न तु-वस्तुक्रियामात्राऽभिधायिस्ते सम्भवन्ति । तद्यथा— “युगपद्युगपत् क्षिप्रं चिरं चिरेण परमिदमपरमिदमिति च ।
वत्स्येति, नैतद्वत्स्य॑ति वर्तते वृत्तमपि वर्तते इदमन्तर्वर्तते" शंका - वर्तमान सूर्य के उदय से प्रतीत होने वाली भावरूप पदार्थों की विशिष्ट क्रिया ही वर्त्तती हैं ऐसे व्यवहार की विषय होती है। उससे भिन्न कोई काल व्यवहार का विषय नहीं होता। इसी प्रकार 'ह्य(अतीत दिन) और 'श्व' (आगामी दिन) इस प्रकार अतीत और अनागत उदयरूप, सूर्यमण्डल के भ्रमण से अनुमान की जाने वाली वस्तु की क्रिया ही 'वरती' या 'वरतेगो' इत्यादि रूप से व्यवहार की जाती है ।
समाधान-काल चाहे धर्म आदि द्रव्यों का परिणमन मात्र हो, चाहे उससे भिन्न कुछ हो, दोनों पक्षों में कोई दोष नहीं है, मगर सूर्य की गति से प्रतीत होने वाली वस्तु की क्रिया 'वर्तते' ऐसे व्यवहार का विषय नहीं होती। क्योंकि सूर्य की गति में भी उसका सद्भाव है। अतएव 'वर्तते' इस प्रकार के व्यवहार का विषय बनने वाले सभी पदार्थों की वर्तना आदि का निर्वाहक काल कोई भिन्न ही होना चाहिए। यदि काल का अस्तित्व न माना जाय तो कालाश्रित वृत्ति भी नहीं मानी जा सकती । काल के निश्चित होने पर ही कालाश्रित वृत्ति कही जा सकती है। इस प्रकार सकल पदार्थों में होने वाली वत्तेना काल के बिना घटित नहीं हो सकती। अतएव पदार्थों के परिणमन के कारण काल का कार्य से अनुमान होता ही है। काल द्रव्य के वाचक बहुत-से शब्द भी लोक में प्रसिद्ध हैं । वे वस्तु की क्रियामात्र के वाचक नहीं हो सकते । वे शब्द इस प्रकार हैं-युगपद् (एक साथ) अयुगपद् (एक साथ नहीं), क्षिप्र (शीघ्र) चिर (देरी), चिरेण (देरसे), यह पर है, यह अपर है, यह वरतेगा, नहीं वरतेगा, यह वरत रहा है, यह वरता. यह अन्दर वरतता है, इत्यादि सब शब्द काल की अपेक्षा रखते हैं । आप्त
શ્રી તત્વાર્થ સૂત્રઃ ૧