Book Title: Tattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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तत्त्वार्थसूत्रे
सूर्यादिगतावपि प्राचीना कालगतिर्हेतुरेव भवति । तथाच - तिर्यग्लोकात्मके मनुष्यलोके एव कालस्य वृत्तिर्युक्ता। अन्यथा-लोकालोकयोर्वर्तनादिसद्भावान् सकालः सर्वत्रैव कथं न स्थात्, तथाच कालस्य पर्यायताऽपि युज्यत एवेति भावः । -- एवञ्च - सर्वभावानां वर्तना तावत् ।
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कालाश्रयावृत्तिरुच्यते, तत्र वर्तनातावत् उत्पत्तिः - स्थितिः - गतिश्च प्रथमसमयाश्रया व्यपदिश्यते । एवञ्च - वर्तनादीनां सकलभावपदार्थव्यापित्वं बोध्यम् वर्तन्ते स्वयमेव पदार्थास्तेषां वर्तनाशीलानां पदार्थानां प्रयोजिका कालाश्रया वृत्तिर्भवति, वर्ण्यन्ते पदार्था यया सा वर्तना । इतिव्युत्पत्तेः कालाश्रया वृत्तिरेव वा वर्तना - वर्तनशीलता, उच्यते, वृत्तिर्वर्तनं तथाशीलतेति भावः ।
“अनुदात्तेतश्चहलादेः” इति युच् प्रत्ययः तस्य- ' य - “ युवोरनाकौ -" इत्यनादेशः । पूर्वव्युत्पत्तौ तु - "ण्यासश्रन्थो युच् - " इति युच् सा वर्तना तावत् प्रतिद्रव्यपर्यायमन्तर्णीत कसमयस्वसत्तानुभवरूपा – उत्पाद्यस्य तदितरस्य वा भावपदार्थस्य प्रथमसमयसंव्यवहारोऽनुमानगम्यः तस्य तण्डुलादि विपाकवत् - अग्निजलसंयोगहेतुकः प्राथमिको विक्रिय, अतीतानागतविशेषविनिर्मुक्ताऽवसेया । सा च वर्तना परमप्रवीणपुरुषबुद्धिगम्या भवति । तथाचोक्तम्"विसस्य बाला इव दह्यमाना न लक्ष्यते वैकृतिरग्निपाते - 1
तां वेदयन्ते मितसर्वभावाः सूक्ष्मो हि कालोऽनुमितेन गम्यः ॥ १ ॥ इति
सूर्य आदि की गति में भी प्राचीन कालगति कारण होती हैं । अतएव मनुष्यलोक में ही काल द्रव्य का सद्भाव मानना उचित है । अन्यथा लोक और अलोक में वर्त्तना आदि का सद्भाव होने से सर्वत्र ही उसकी सत्ता क्यों न मानी जाय ? तात्पर्य यह है कि इससे काल की पर्यायता भी संगत हो जाती है ।
इस प्रकार वर्त्तना कालाश्रित वृत्ति कहलाती है । वर्त्तना उत्पत्ति स्थिति और गति है जो प्रथम समय आश्रित है । वर्त्तना आदि समस्त भावरूप पदार्थों में व्यापक है । पदार्थ स्वयं ही वर्त्तते हैं, उन वर्तनशील पदार्थों के लिए कालाश्रयवृत्ति निमित्त हो जाती है । जिसके द्वारा पदार्थ वर्तते हैं, वह वर्त्तना; ऐसी वर्त्तना शब्द की व्युत्पत्ति है । कालवृत्ति ही वर्त्तना या वर्त्तनशीलता कहलाती है । वृत्ति, वर्त्तन या वर्त्तनशीलता यह सब एकार्थक हैं । 'अनुदात्तेतच हलादे:' इस सूत्र से युच् प्रत्यय होता है, उसको 'युवोरनाकौ' इस सूत्र से आदेश नहीं होता | पहली व्युत्पत्ति में ण्यासश्रन्थो युच् इस सूत्र से युच् प्रत्यय होता है । वह वर्त्तना प्रत्येक द्रव्य और पर्याय में एक समय सम्बन्धी स्वसत्ता का अनुभव रूप है । उत्पाद्य या उससे इतर पदार्थ का प्रथम समय का व्यवहार अनुमान गम्य है । तण्डुल आदि के पाक के समान । अग्नि और जल हेतुक प्राथमिक विक्रिया अतीत एवं अनागत विशेषों से रहिक जानना चाहिए ।
वह वर्त्तना अत्यन्त कुशल बुद्धिमान् पुरुष की ही समझ में आती है । कहा भी है'विसस्य बाला' इत्यादि ।
શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર ઃ ૧