Book Title: Tattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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दीपिकानियुक्तिश्च अ० २ सू. १७
जीवानामुपकारकत्वनिरूपणम् २४१
वैक्रिया-:
T-SSहारक - तैजस- कार्मण - श्रोत्रेन्द्रिय-चक्षुरिन्द्रिय-प्राणेन्द्रिय - जिह्वेन्द्रियस्पर्शनेन्द्रिय मनोयोग-वचोंयोगा - काययोगा-ssनप्राणञ्च ग्रहणलक्षणः पुद्गलास्तिकाय इति ॥ १६ ॥
मूलसूत्रम् — “परोप्परनिमित्ता जीवा " ॥ १७॥
छाया - परस्परनिमित्तानि जीवाः "
तत्त्वार्थदीपिका— जीवास्तावत् परस्परस्योपकारे निमित्तानि भवन्ति । तद्यथा – राजभृत्ययोः, आचार्यशिष्ययोरित्येवमादिभावेन परस्परोपकारोsवगन्तव्यः । तत्र राजा तावत् धनदानादीना भृत्यानामुपकारको भवति, भृत्यश्च - हितसाधनेनाऽहितप्रतिषेधेन च राज्ञ उपकारको भवति । आचार्यः उभयलोकफलप्रदोपदेशदानेन तदुपदेशविहित क्रियाऽनुष्ठापनेन च शिष्यस्योपकारको भवति,
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शिष्यश्च तदानुकूल्य विधानेनाऽऽचार्यस्योपकारको भवति । एवं सुखदुःखजीवितमरणान्यपि जीवानां जीवकृत उपकारो भवति । तथाहि---यो जीवो यस्य जीवस्य सुखं विदधाति स जीवस्तं जीवमनेकवारं सुखयति, यो जीवो यं दुःखयति स तमपि बहुवारं दुःखयति, यो यं जीवयति स तं बहुवारं जीवयति । एवं यो मारयति स तमपि बहुवारं मारयति । तथा चोक्तम्" मारि विचूरिवि जीवडा जं तु हुं दुक्खुकरीसि ।
पुतलहकारणे तंतु एक्कु सहीसि ॥ १॥ इति १७॥
रक, तैजस, कार्मेण शरीर श्रोतेन्द्रिय चक्षुरिन्द्रय, घ्राणेन्द्रिय, जिह्वेन्द्रिय, स्पर्शेन्द्रिय, मनोयोग, वचनयोग, काययोग तथा श्वासोच्छास का ग्रहण प्रवृत होता है । पुद्गलास्तिकाय ग्रहण लक्षण वाला है ॥ १६ ॥
मूलसूत्रार्थ -- ' परोप्परनिमित्ता जीवा' सूत्र १७ जीव परस्पर में निमित्त होते हैं ॥ १७ ॥
तत्त्वार्थदीपिका - जीव परस्पर एक दूसरे के उपकारक होते हैं । राजा और सेवक, आचार्य और शिष्य जैसे एक दूसरे के उपकारक हैं उसी प्रकार और जीवों का भी पारस्परिक उपकार समझना चाहिए । राजा धन आदि को देकर भृत्यों का उपकार करता हैं, सेवक हितसाधन करके और अहित को रोक करके राजा का उपकार करता है । आचार्य इहपरलोक में उत्तम फल देने वाला उपदेश के अनुसार क्रिया करवा कर शिष्य का उपकार करता है । शिष्य आचार्य के लिए अनुकूल कार्य करके आचार्य का उपकारक होता है । इस प्रकार जीवों का सुख, दुःख, जीवन और मरण भी जीवकृत उपकार है । जो जीव जिस जीव को सुख पहुँचाता है, वह उसे अनेक बार सुखी बनाता है । इसके विपरीत जो जीव जिसे दुख देता है, वह बदले में उसे बारंबार दुखी बनाता है । जो जिस का घात करता है, उसे उसके द्वारा बहुत वार मरना पड़ता है । कहा भी हैअरे जोब ! तू अपने पुत्र - कलत्र आदि परिवार के लिए जीवों का जो घात करेगा,
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શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર : ૧