Book Title: Tattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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दीपिकानिर्युक्तिश्च अ० २ सू. १३
जीवानामवगाहनिरूपणम् २२१
एवञ्च - धर्माधर्माकाशजीवानां परस्परं पुद्गलेषु चावगाहरूपा वृत्तिरमूर्तत्वाद् न विरुध्यते । एतावता - धर्माधर्माकाशजीवानाममूर्तत्वात् परस्परेण वर्तनं न विरुद्धम्, नाऽपि - धर्मादीनां पुद्गलविषयकं वर्तनं विरुध्यते, तद्बलेन गतिस्थित्यवगाहदर्शनादात्मनश्च कर्मपुद्गलव्यापनात् जीवः संहरणविसर्पाभ्यां महान्तमणुं वा देहं गृह्णातीति फलितम् ।
अथ जीवानां प्रदेशसंहारविसर्गसामर्थ्ये सति, अविकलकारणकलापः खलु स जीवः सर्वान् प्रदेशानुपसंहृत्य - एकस्मिन्नाकाशदेशे कथं नाऽवस्थानं करोति प्रतिबन्धकवत्वभावात् कस्माल्लोका काशस्याऽसंख्येयभागादिषु जीवानामवगाहो भवति नैकप्रदेशादिषु : इतिचेदत्रोच्यते.
सर्वस्य संसारिणः कार्मणशरीर सम्बन्धाद् अनन्तानन्तपुद्गलप्रचित सर्व संसारिकार्मणशरीरोपश्लेषाद् लोकाकाशस्याऽसंख्येयप्रदेशावगाहितैव सम्भवति, नैकादिप्रदेशावगाहिता । सिद्धास्तुचरमशरीरत्रिभागहीनमवगाहन्ते । तथाच - शरीर त्रिभागः शुषिरो वर्तते । तत्पूरणात्- त्रिभागहीनाऽवगाहो भवति । स च - योगनिरोधकाले एव सम्भवति । तस्मात् - सिद्धोऽपि तदवस्थलोक में व्याप्त हो जाता है । सिद्ध होने के पश्चात् जीव की अन्तिम शरीर से त्रिभाग न्यून अवगाहना रहती है; तीसरा भाग शरीर के छिद्रों की पूर्ति में लग जाता है । किन्तु सिद्ध जीवों का आकार वही रहता है जो आकार मुक्ति के समय शरीर का होता है ।
इस प्रकार धर्म, अधर्म, आकाश और जीवों की परस्पर में तथा पुद्गलों में अवगाहना का विरोध नहीं है, क्योंकि वे अमूर्त हैं । इस कारण धर्म, अधर्म, आकाश और जीव का अमूर्त होने के कारण परस्पर में रहना विरुद्ध नहीं है और न धर्मादि का पुद्गलों में रहना विरुद्ध हैं; क्यों कि उन्हीं के निमित्त से गति, स्थिति और अवगाहना देखी जाती है और आत्मा कर्मपुद्गलों को व्याप्त करता है । फलितार्थ यह है कि जीव संकोचविस्तार स्वभाव के कारण बड़े अथवा छोटे शरीर को ग्रहण करता है ।
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शंका--यदि जीव के प्रदेशों में संकोच - विस्तार का सामर्थ्य है तो सम्पूर्ण कारण मिलने पर जीव समस्त प्रदेशों के सिकोड़ कर अकाश के एक ही प्रदेश में क्यों नहीं समा जाता ? रुकावट डालने वाली कोई वस्तु तो है नहीं ! ऐसी स्थिति में जीवों का अवगाह लोकाकाश के असंख्यातवें भाग आदि में क्यों होता है ? एक प्रदेश आदि में क्यों नहीं होता ! समाधान -- प्रत्येक संसारी जीव का कार्मण शरीर के साथ संबंध है और कार्मण शरीर अनन्तानन्त पुद्गलों के संचय से बना है । अतएव लोक के असंख्येय प्रदेशों में ही जीव ET अवगाह हो सकता है, एकादि प्रदेश में नहीं । हाँ सिद्ध जीव चरम शरीर के तीसरे भाग कम में अवगाहन करते हैं । इसका कारण यह है कि शरीर का तीसरा भाग छिद्रमय-पोला है । उस पोलेपन की पूर्ति में तीसरा भाग कम हो जाता है । यह त्रिभागन्यूनता योग निरोध के समय ही हो जाती है, अतःसिद्ध जीव भी त्रिभागन्यून अवगाहना वाले होते हैं ।
શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર : ૧