________________
दीपिकानियुक्तिश्च अ० २ सू. १३ ।
जीवानामवगाहनिरूपणम् २१९ सङ्कोचविकासशालिता भवति पटस्येव पिण्डितवितताऽवस्थायिता प्रदीपप्रकाशस्येव सङ्कुचनप्रसारणे चर्ममण्डलस्येव संहरण-विसर्पणे इति भावः ॥
एवञ्चा-ऽमूर्तस्वभावस्य जीवस्याऽनादिबन्धं प्रत्येकत्वात् कथञ्चित् मूर्ततां धारयतः कार्मणशरीरवशात् महत्-अणु च शरीरमधितिष्ठतस्तद्वशात् प्रदेशसंहरणविसर्पणस्वभावस्य तावत्प्रमाणत्वे सति लोकाकाशस्याऽसंख्येयभागादिषु अवगाहः सम्पद्यते प्रदीपवत् यथा खलु निरावरणगमनप्रदेशेऽनवधृतप्रकाशपरिणामस्य प्रदीपस्य शरावो-दञ्छन-माणिका-उपवरकाद्यावरणवशात् तत्परिमाणता भवति ।
तथैवैकस्यापि जीवस्य लोकाकाशतुल्यप्रदेशत्वेऽपि प्रदेशानां सङ्कोच-विकासस्वभावतया लोकाकाशस्याऽसंख्येयभागादिषु अवगाहो भबत्येवेति भावः । अथैवमात्मनः सङ्कोचविकासस्वभा. वत्वे प्रदीपादिवदेवाऽनित्यत्वमापयेतेति चेन्मैवम् । स्याद्वादिनां जैनानां मते कस्यापि वस्तुन एकान्ततो नित्यता अनित्यताया वा सत्वात् ।।
सर्वस्यैव वस्तुनो द्रव्यपर्यायनयद्वयाऽऽविष्टतया सर्वेषामेव पदार्थानां नित्याऽनित्यत्वादिविकल्पशालित्वात् आत्मनोऽपि-द्रव्यार्थिकनयेना-ऽऽत्मत्वचैतन्यादिरूपेण नित्यत्वेऽपि पर्यायार्थिकनयेन ज्ञानशरीरादिपर्यायैर नित्यत्वाभ्युयगमात् । एतेनैतदपि प्रत्युक्तम्---
“वर्षातपाभ्यां किं व्योम्नश्चमण्यस्ति तयोः फलम् ।
"चों पमश्चेत्सोऽनित्यः खतुल्यश्चेदसत्फलः ॥१॥ इति पट आदि के अवगाह में किसी प्रकार की विषमता नहीं देखी जाती, क्योंकि जीव के प्रदेशों में संकुचित और विस्तृत होने का स्वभाव है जैसे वस्त्र में संकोच-विस्तार देखा जाता है, प्रदीप के प्रकाश में तथा चमड़े में भी संकोच-विस्तार होता है, उसी प्रकार जीव के प्रदेशों में भी संकोच विस्तार का स्वभाव विद्यमान है।
जीव अपने स्वभाव से अमूर्त हैं, किन्तु मूर्त कर्मों के साथ बद्ध होने के कारण मूर्त हो गया है । कार्मण शरीर के वश से वह बड़े या छोटे शरीर को धारण करता है, उसी के कारण उसके प्रदेशों में संकोच-बिस्तार होना है, इस कारण लोक के असंख्यातवें भाग आदि में, लोकाकाश के प्रदेशों के बराबर प्रदेश होने पर भी एक जीव का अवगाह संभवित होता है। __शंका-यदि जीव प्रदीप के समान संकोच-विस्तार स्वभाव वाला है तो प्रदीप समान ही अनित्य भी होना चाहिए ।
समाधान-अनेकान्तवादी जैनों के मत में कोई भी वस्तु न एकान्त नित्य है और न एकान्त अनित्य ही है। प्रत्येक वस्तु द्रव्य--पर्यायात्मक है, अतः द्रव्यरूप से नित्य और पर्यायरूप से अनित्य होने के कारण सभी में नित्यता तथा अनित्यता है । आत्मा भी द्रव्यार्थिकनय की अपेक्षा से नित्य है, क्योंकि उसका आत्मत्व शाश्वत है, वह अपने चैतन्य स्वभाव का कदापि परित्याग नहीं करता, किन्तु अपने ज्ञानपर्यायों और शरीरपर्यायों की अपेक्षा अनित्य है। इस कथन से
શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧