Book Title: Tattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
View full book text
________________
२०८
तत्त्वार्यसूत्रे स्वप्रतिष्ठं भवति तथा धर्मादीनामपि स्वप्रतिष्ठत्वसिद्धया न तेषामाधार आकाशः यदि तु धर्मादीनामन्य आकाशात्मक आधारः कल्प्यते, तदाऽऽकाशस्यापि अन्य आधारः कल्पनीयः स्यात् तथासति अनवस्थादोषप्रसङ्ग इति चेन्न
आकाशादधिकपरिमाणस्याऽन्यस्य द्रव्यस्याऽसद्भावेन तस्याऽऽकाशाधारतया कल्पयितुमशक्यत्वात् । आकाशमेव सर्वतोऽनन्तं वर्तते तस्माद् व्यवहारनयानुसारेणाऽऽकाशं धर्मादीनामधिकरणतया कल्प्यते, निश्चयनयात्मकैवंभूतनयापेक्षया पुनः सर्वाणि द्रव्याणि स्वप्रतिष्ठितान्येव सन्ति अतएव "क भवानास्ते" ? इति प्रश्ने सति "आत्मनि ” इत्युत्तरं भवति, तथाच धर्मादीनि न लोकाकाशाद् बहिः सन्तीति एतावन्मात्र मत्राधाराधेयभावकल्पनो साघ्यो व्यवहार उपपद्यते । ___ अथ लोके यथा कुण्डे बदरादीनां पूर्वोत्तरकालभाविनामाधाराधेयभावो दृष्टो न तथाऽऽकाशं पूर्वं धर्मादीनि पुनरुत्तरकालभावीनि सन्ति इति व्यवहारनयापेक्षयापि नो आकाशधर्मादीना माधाराधेयभावकल्पनोपपद्यते इति चेन्मैवम् ।
घटे रूपादयः शरीरे हस्तादयः इत्यादौ युगपद्भाविनामपि पदार्थानामाधाराधेयभावदर्शनात्
समाधान-लोकाकाश आप ही अपने सहारे टिका है । उसके लिए किसी अन्य आधार की आवश्यकता नहीं है।
शंका-जैसे आकाश आप ही अपने सहारे रहा हुआ है। उसी प्रकार धर्मादि भी अपने सहारे रह सकते हैं । उनका आधार आकाश मानने की क्या आवश्यकता है ? यदि धर्मादि का अलग आधार-आकाश-स्वीकार किया जाता है तो आकाश का भी अन्य आधार नहीं मानना चाहिए । ऐसी स्थिति में अनवस्था दोष का प्रसंग होगा ।
समाधान-आकाश से अधिक परिमाण वाला अन्य कोई द्रव्य नहीं है, जिसे आकाश का आधार माना जाय । आकाश सब ओर से अन्तरहित है । अतएव व्यवहारनय के अनुसार आकाश धर्मादि द्रव्यों का आधार मानागया है, किन्तु निश्चयनयरूप एवंभूतनय की अपेक्षा से सभी द्रव्य स्वप्रतिष्ठित हैं अर्थात् सभी अपने-अपने प्रदेशों में रह गए हैं। इसी कारण जब यह प्रश्न किया जाता है कि आप कहाँ रहते हैं ? तब उत्तर होता है-'अपने आप में ।' धर्मादि द्रव्य लोकाकाश से बाहर नहीं रहते और लोकाकाश में ही रहते हैं, बस इसी कारण उनमें आधार-आधेयभाव की कल्पना की जाती है।
शंका-लोक में ऐसा देखा जाता है कि जो पूर्वोत्तर कालभावी होते हैं, उन्हीं में आधार .. आधेयभाव होता है, जैसे कुंड और बदर का । यहाँ ऐसा तो है नहीं कि आकाश पहलेसे हो और धर्मादि बाद में हों । इस कारण व्यवहारनय के अनुसार भी आकाश और धर्मादि में आधाराधेयभाव की कल्पना नहीं की जा सकती ।
___ समाधान-पूर्वोत्तरकालीन पदार्थों में ही आधाराधेयभाव हो, ऐसा नियम नहीं है। घट में रूप है, शरीर में हाथ आदि हैं, यहाँ एक साथ होने वाले पदार्थों में भी आधाराधेय भाव
શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧