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दीपिकानियुक्तिश्च अ० २ सू. २
अजीवतत्वनिरूपणम् १७७ ... तपार्थनियुक्तिः पूर्वसूत्रे धर्माऽधर्माऽऽकाशकालपुद्गला अजीवा इत्युक्तम् , तेषां चधर्माद्गीनां द्रव्यगुणपर्यायत्वेनाऽनुपदेशे सति संशयो भवेदतः संशयनिवारणार्थमाह - "एयाणि दव्वाणि य छ" इति । एतानि धर्मादीनि पञ्च, चकारात् जीवश्वेत्येते षट् द्रव्याणि व्यपदिश्यन्ते तथाच-द्रूयते गम्यते प्राप्यते यथास्वं यथायथं स्वपर्यायेण यद् तद्र्व्यम् ।
पामार्थतस्तु-गुणान् द्रवति-प्राप्नोति,गुणैर्वा द्रूयते--ज्ञायते यद्तद् द्रव्यं व्यपदिश्यते, "गुणपयवद्र्व्यम् "इति द्रव्यलक्षणसद्भावात् । बस्तुतस्तु- स्व-स्वस्वभावस्थानमेव द्रव्यलक्षणं पर्यवसितम्. धर्मादीनां षण्णां द्रव्यसंज्ञा च द्रव्यत्वनिमित्ता। द्रव्यार्थिकनयाभिप्रायेण- तच्चद्रव्यत्वं परमार्थतो व्यतिरिक्ताऽव्यतिरिक्तपक्षद्वयमवलम्बते ।
__ नैकान्तेन धर्मादिभ्योऽन्यदेव तत् नानन्यदेव वा वर्तते । तस्माद् एतानि धर्मादीनि मयूराण्डकरसवत् सम्मूर्च्छितसर्वभेदप्रभेदमूलभूतानि देशकालक्रमव्यङ्ग्यभेदसमरसावस्थैकरूपाणि द्रव्याणि व्यपदिश्यमानानि गुणपर्यायकलापरिणाममूलकारणत्वाद् भेदप्रत्यवमर्शनाऽभिन्नान्यपि भिन्नानीव भासन्ते ।
'द्रव्यञ्च भव्ये, इति पाणिनिसूत्रेण दुधातोर्भावे-कर्तरिच द्रव्यमिति निपातनात् प्रकृते पर्यायाश्च भवनसमवस्थानमात्रका एवोत्थिताऽऽसीनोत्कुटकशयितपुरुषवत् , तदेवच--"जायतेऽस्ति विपरिणमते वर्धतेऽपक्षीयते विनश्यति'' इति रीत्योच्यते ।
तत्वार्थनियुक्ति पूर्व सूत्र में धर्म, अधर्म, आकाश, काल और पुद्गल अजीव हैं, ऐसा कहा गया है। इन धर्म आदि का यदि द्रव्य, गुण और पर्याय रूप से निरूपण न किया जाय तो संशय हो सकता है । अतएव संशय का निवारण करने के लिए कहते हैं।
जो यथायोग्य अपने पर्यायों के द्वारा प्राप्त किया जाता है, बह द्रव्य कहलाता है। वास्तव में जो गुणों को प्राप्त होता है अथवा गुणों के द्वारा जाना जाता है, वह द्रव्य कहलाता है। 'जो गुणों और पर्यायों वाला हो, वह द्रव्य है' ऐसा द्रव्य का लक्षण कहा गया है । असल में तो अपने-अपने स्वभाव में अवस्थित रहना ही द्रव्य का लक्षण है । धर्मादि छहों की द्रव्यसंज्ञा द्रव्यत्व के निमित्त से द्रव्यार्थिक नय के अभिप्राय से है। वह द्रव्यत्व वास्तव में भिन्न और अभिन्न-इन दोनों पक्षों का अवलम्बन करता है। बह धर्मादि से न तो सर्वथा भिन्न ही है और न सर्वथा अभिन्न ही है। इस कारण मयूर के अण्डे के रम के समान, जिनमें सब भेद-प्रभेद सम्मिलित हैं और जो देश, काल, क्रम, व्यायमेद एवं समरस अवस् । रूप हैं, ऐसे ये धर्म आदि द्रव्य कहलाते हैं । ये अभिन्न होते हुए भी गुण पर्याय कला और परिणाम के मूल कारण होने से भिन्न मालूम पड़ने से भिन्न प्रतिभासित होतेहैं ।
'द्रव्यश्च भव्ये' इस पाणिनि के सूत्र के अनुसार द्रु धातु से भाव और कर्ता अर्थ में 'द्रव्य' शब्द का निपात किया गया है। इस प्रकार द्रव्य, भव्य और भवन, इन सब का एक ही अर्थ है । गुण और पर्याय, भवन रूप ही हैं, खड़े हुए, बैठे हुए, उकडू और सोये
શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧