Book Title: Tattvartha Sutra Part 01 Sthanakvasi
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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दीपिकानियुक्तिश्च अ० २ सू. ७ सर्वाकाशस्थ सर्वजीवानां अनन्तदेशत्वम् २०१
तत्त्वार्थदीपिका -अलोकाकाशस्य-लोकालोकाकाशरूपस्य, जीवाजीवाधारक्षेत्रभूतलोकाकाशस्य, ततः परस्याऽलोकाकाशस्य, सर्वाकाशस्येत्यर्थः । जोवानाञ्च-ज्ञान-दर्शनोपयोगस्वभावलक्षणसकलनारकदेवतिर्यङ्मनुष्यजीवानाम् अनन्ताः अविद्यमानोऽन्तो येषां तेऽनन्ताः अपर्यवसानाः प्रदेशा भवन्ति, नात्त्वसंख्येयाः-नापि-संख्येया इत्यर्थः असमन्ताल्लोके-ऽलोके च काशते इत्याकाशः ॥७॥
तत्त्वार्थनियुक्तिः--पूर्वसूत्रे धर्माधर्मलोकाकाशैकजीवानामसंख्येयप्रदेशत्वमुक्तम् संप्रतिसर्वाकाशस्य सर्वजीवानां चाऽनन्तदेशत्वं प्ररूपयितुमाह-"अलोगागासजीवाणमणंता-" इति । अलोकाकाशस्या-ऽलोकइत्युपलक्षणम् लोकालोकाकाशस्य-अविशिष्टाकाशस्य, सामान्याकाशरूपस्य-सर्वाकशस्येत्यर्थः जीवानां च-नारकादिसमस्तजीवसमूहानामनन्ताः प्रदेशाः सन्ति ।
अथावगाहदानमाकाशस्योपकारः इति रीत्याऽवगाहदानादेवाकाशो भवतीति लोकाकाशेतादृशाकाशत्वसत्वेऽपि अलोकाकाशे नेदमाकाशत्वं संघटते अलोकाकाशे कस्यापि जीवपुद्गलादेरवगाढ़त्वाभावेनाऽवगाहासम्भवात् इति चेन्मैवम् । धर्मादिसंज्ञावत् “आकाश:-"इत्यपिअनादिकालीना द्रव्यान्तरस्य संज्ञैवाऽवसेया. ।
मूलसूत्रार्थ- 'अलोगागासजीवाणमणंता ॥सूत्र ७॥ अलोकाकाश और जीवों के अनन्त प्रदेश होते हैं ॥७॥
तत्त्वार्थदीपिका-जीव और अजीव का आधार क्षेत्र लोकाकाश कहलाता है । लोकाकाश से आगे सब ओर जो शून्य आकाश है वह अलोकाकाश कहलाता है। यहाँ सम्पूर्ण आकाश से अभिप्राय है । अर्थात् सम्पूर्ण आकाश के और जीवों के अर्थात् ज्ञान दर्शन रूप उपयोग वाले सकल नारकों, देवों, तिर्यचों और मनुष्यों के अनन्त जिनका अन्त नहीं है, प्रदेश होते हैं । अर्थात् उनके न संख्यात प्रदेश होते हैं और न असंख्यात ही होते हैं।
जो लोक और अलोक में पूरी तरह प्रकाशमान होता है, आकाश कहलाता है ॥७॥
तत्त्वार्थनियुक्ति-पूर्वसूत्र में धर्म, अधर्म, लोकाकाश और एक जीव के असंख्यात प्रदेश कहे हैं । अब समस्त आकाश के और समस्त जीवों के अनन्त प्रदेशों की प्ररूपणा करने के लिए कहते हैं-अलोक शब्द यहाँ उपलक्षण है अतः उसका तात्पर्य है समस्त आकाश जिसमें लोक और अलोक-दोनों का समावेश हो जाता है। इस प्रकार सम्पूर्ण आकाश के तथा नारक आदि समस्त जीवसमूह के अनन्त प्रदेश होते हैं।
शंका-अवगाह देना आकाश का उपकार है; इसका फलितार्थ यह है कि अबगाह देने के कारण ही वह आकाश कहलाता है यह आकाश का लक्षण लोकाकाश में ही पाया जाता है, अलोकाकाश में नहीं । क्योंकि अलोकाकाश में कोई जीव या पुद्गलादि अवगाढ नहीं है. अतएव वहाँ अवगाह होना असंभव है।
समाधान-जैसे धर्म आदि संज्ञामात्र है उसी प्रकार 'आकाश' भी एक द्रव्य की अनादि काल से चली आई संज्ञा मात्र ही है ।
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શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧