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दोपिशानियुक्तिश्च अ० २ सू. ४
पुद्गलद्रव्यस्य रूपित्वनिरूपणम् १८७ मूलमूत्रम् “पोग्गला रूविणो" ॥४॥ छाया- “पुद्गला रूपिणः-" ॥४॥
नत्त्वार्थदीपिका-पुद्गलास्तावद् वर्ण-गन्ध-रस-स्पर्शवत्वात् चक्षुषा गृह्यमाणल्वात्-मूर्तवाच्च रूपिणो भवन्ति, न तु-अरूपिणः । यदि-पुद्रला अरूपिणः स्युः तदा-तेषां चाक्षुषप्रत्यक्षत्वं न स्यात् । उक्तञ्च स्थानाङ्गसूत्रे५-स्थाने तृतीयोद्देशके -- "पोम्गलस्थिकायं रूविकायं-" इति । पुद्गलास्तिकायो रूपिकाय इति । एवं व्याख्याप्रज्ञप्तौभगवतीसूत्रेऽपि ७ शतके १०-उद्देशके—“पोग्गलत्थिकायं रूविकायं-" इत्युक्तम् ॥ ४ ॥
तत्त्वार्थनियुक्तिः—पूर्वसूत्रे सामान्यत एव “अरूपीणि द्रव्याणि भवन्ति" इत्युक्तम् तत्र--विशेषरूपेण पुद्गलद्रव्यस्याऽरूपत्वप्रतिषेधेन रूपित्वं प्रतिपादयितुमाह -
__“पोग्गला रूविणो-" इति । पुद्गला रूपिणोभवन्ति न तु-अरूपाः, नित्यत्वावस्थितत्वे
तु-पुद्गलानामपि भवत एव, तत्स्वभावाव्ययत्वात् नित्यत्वं सदैव समस्ति, रूपादिमत्तया चाऽव्यतिकीर्यमाणस्वभावत्वेनाऽवस्थितत्वमपि पुद्गलानां भवत्येवेति भावः । अथोत्पादविनाशस्यात् पुद्रलद्रव्याणामनित्यतैव युक्ता न तु-तविरुद्धा नित्यता तेषां सम्भवतीति चेत् अत्रोच्यते ।
द्विविधं तावत् नित्यत्वं प्रज्ञप्तम् , अनाद्यपर्यवसाननित्यत्वम्-सावधिनित्यत्वञ्च । तत्र-प्रथम मृलसूत्रार्थ---"पोग्गला रूविणो" सूत्र ४
पुद्गल द्रव्य रूपी होते हैं "" तत्वार्थदीपिका-पुद्गल वर्ण गंध रस और स्पर्श से युक्त होने के कारण, चक्षु द्वारा ग्राह्य होने के कारण और मूर्त होने के कारण रूपी हैं-वे अरूपी नहीं है। पुद्गल यदि अरूपी होते तो नेत्र के द्वारा उन्हें देखना संभव न होता । स्थानांगसूत्र के पाँचवे स्थान, तीसरे उद्देशक के प्रथम सूत्र में कहा है-'पुद्गलास्तिकाय रूपोकाय है।, भगवतीसूत्र के सातवें शतक के दशम उदेशक में भी कहा है-पुद्गलास्तिकाय रूपीकाय है ॥४॥
तत्वार्थनियुक्ति--पूर्वसूत्र में सामान्य रूप से द्रव्यों को अरूपी कहा गया था, किन्तु विशेष रूप से पुद्गलास्तिकाय की अरूपता का निषेध करके उसे रूपी प्रतिपादन करने के लिए कहते है
पुद्गल रूपी हैं अरूपी नहीं। नित्यता और अवस्थितता तो पुद्गलों में भी पाई जाती है, क्योंकि वे अपने पुद्गल स्वभाव का कभी परित्याग नहीं करते । सदैव रूपदिमान् ही रहने के कारण वे अवस्थित भी है । केवल अरूपीपन उनमें नहीं पाया जाता ।
शंका-पुद्गलद्रव्य उत्पन्न और विनष्ट होते रहते हैं, अतएव उन्हें अनित्य मानना ही उचित है । उनमें अनित्यता से विरुद्ध नित्यता नहीं हो सकती।
समाधान-नित्यता दो प्रकार की कही गई है (१) अनादिअनन्तता अर्थात् आदि भी न होना और अन्त भी न होना और (२) सावधिनित्यता-अवधियुक्त नित्यता । प्रथम प्रकार की
શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧