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तत्त्वार्थसूत्रे दिव्वं बत्तीसइविहं नट्टविहिं उवदंसेत्तए नो चेव णं तस्स पुरिसस्स किंचि आबाधं वा-वाबाह वा उप्पाएइ छविच्छेदं वा करेइ, सुहुमं च णं उवदंसेज्जा, से तेणठेणं जाव अव्वाबाधादेवा
छाया-सन्ति खलु भदन्त ? अव्याबाघा देवाः ? हन्त ! सन्ति । तत्केनार्थेन भदन्त ! एवमुच्यते अव्याबाधा देवाः अव्याबाधा देवाः ? गौतम ! प्रभुः खलु एकैकोऽव्याबाधदेवः एकैकस्य पुरुषस्य एकैकस्मिन् अक्षिपत्रे दिव्यां देवर्द्धि दिव्यां देवद्युतिं दिव्यं देवानुभावं दिव्यं द्वाविंशद्विधं नाट्यविधिम् उपदर्शयितुम् ।
नैव तस्य पुरुषस्य कांचिदाबाधां वा व्याबाघां वा उत्पादयति, छविच्छेदं वा करोति, सूक्ष्मतया-उपदर्शयेत् । तत्तेनार्थेन यावदव्याबाधा देवाः इति । एवं भगवतीसूत्रे एव अष्टादशशतके सप्तमोदशके चोक्तम् – “देवे णं भंते ! महइढिए जाव महेसक्खे रूवसहस्सं विउव्वित्ता पभू णं अण्णमण्णेणं सद्धिं संगामं संगामित्तए ! हंता, पभू, ताओ णं भंते ! बोंदीओ किं एगजीवफडाओ अणेगजीवफडाओ गोयमा एगजीवफडाओ नो अणेगजीवफुडाओ, ते णं भंते ! तेसिं बोंदीणं अंतरा किं एगजीवफुडा, अणेगजीवफुडा-?
गोयमा-! एगजीवफुडा नो अणेगजीवफुडा, पुरिसे णं भंते ! अंतरे हत्थेण वा पाएण वा असिणा वा पभू विच्छित्तए ? नो इणठे समठे नो खलु तत्थ सत्थं कमइ”
देवाः खलु भदन्त ! महर्द्धिको यावत् महेशाख्यो रूपसहस्रं विकुर्वित्वा प्रभुरन्योऽन्येन साधु संग्रामं संग्रामयितुम्-३ हन्त-! प्रभुः,
इसी प्रकार चौदहवें शतक के अष्टम उद्देशक में कहा हैप्रश्न-~भगवन् ! क्या देव अव्याबाध हैं ? उत्तर-हाँ हैं।
प्रश्न-~-भगवन् ! किस हेतु से ऐसा कहा जाता है कि देव अव्याबाध है, देव अव्यबाध हैं ?
उत्तर-गौतम ! एक-एक अव्याबाध देव एक-एक पुरुष को, एक-एक पल में दिव्य देव-ऋद्धि, दिव्य देवद्युति, दिव्य देवानुभाव (दैवी प्रभाव और दिव्य बत्तीस प्रकार की नाटयविधि दिखलाने में समर्थ है । किन्तु वह देव उस पुरुष को कोई भी बाधा या व्याबाधा नहीं उत्पन्न करता है, न उसकी चमड़ी का छेदन करता है, वह सूक्ष्म रूप से यह सब दिखलाता है । इस अभिप्राय से कहा गया है कि देव अव्याबाध हैं।
इसी प्रकार भगवती सूत्र में अठारहवें शतक के सातवें उद्देशक में कहा है
प्रश्न-भगवन् ! महान् ऋद्धि का धारक और यावत् 'महेश' इस प्रकार की आख्या वाला देव क्या अपने एक हजार रूपों की विक्रिया करके आपस में ही एक दूसरे के साथ संग्राम करने में समर्थ है ? उत्तर--हाँ समर्थ है ।
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શ્રી તત્વાર્થ સૂત્ર: ૧