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* प्रथम सर्ग *
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है, कि कौओंकी सङ्गतिमें पड़कर बेचारा हंस भी मारा गया । वह दृष्टान्त इस प्रकार है :
किसी वनमें पानी में तैरनेकी विद्या नहीं जाननेवाला कोई कौआ बगुलोंकी देखा देखी मछली पकड़नेकी इच्छासे आकाशसे नीचे उतरा और सरोवरमें बैठा । परन्तु उसे तैरना नहीं आता था, इसलिये सिवारोंमें फँसकर मरनेको नौबतको पहुँच गया और बहुत व्याकुल होने लगा । उसकी यह हालत देख पास हो रहनेवाली हंसीको बड़ी दया उपजी । उसने अपने पति राजहंससे 'कहा, “हे स्वामी ! देखो, वह बेचारा कौआ मरा चाहता है । लोग तुम्हे सब पक्षियोंमें उत्तम बतलाते हैं, इसलिये उस बेचारे को किनारे लगाकर उसको जान बचा दो ।" यह सुन उस हंसने कहा, बहुत अच्छा । इसके बाद दोनों हंस-हंसीने मिलकर अपनी चोंचमें तृण ले उसीसे उसके सिवारके बन्धनको दूर किया और कौएको बाहर निकाल लिया । क्षणभर चुप रहनेके बाद उस कौएने बड़ी नम्रताके साथ हंससे कहा, – “हे हंस ! मेरो बड़ी इच्छा है कि, मैं तुम्हें इस उपकारका बदला दूँ, इसलिये तुम मेरे जंगलमें आकर मुझे सन्तुष्ट करो ।" यह सुन हंसने अपनी स्त्रीके मुँहकी ओर देखा । हंसी उसका यह मतलब समझ गयी और एकान्त में जाकर बोली, – “ हे प्राणनाथ ! यह बात उचित नहीं है। बिना विचारे कोई काम नहीं करना चाहिये । साथ ही कभी नीचोंकी सङ्गति नहीं कहनी चाहिये । कहा भी है कि :