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*प्रथम सर्ग
नहीं पहचानते ?” यह सुनते हो वह लजा, भय और शङ्काके भारसे झुककर नीचा सिर किये बैठ रहा। इसके बाद उसके मलिन वेशको दूर कर स्नान और भोजन करानेके बाद अच्छे वस्त्र पहना कुमारने उससे कहा-"सुनो सजन! जो द्रव्य अपने स्वजनोंके काममें नहीं आता, वह भी किसी कामका है ?"
यह सुन, वह नीच सेवक अपने मनमें सोचने लगा,-"अहा! कुमारकी मुझपर कैसो अकारण दया है ? कहते हैं कि, जिसे सम्पत्तीमें हर्ष न हो, विपत्तिमें विषाद न हो और समर-भूमिमें धैर्य हो, ऐसे त्रिभुवनके तिलक-खरूप पुत्रको कोई विरलीही माँ पैदा करती है। ____इसके बाद वह कुछ दिन वहीं आरामसे पड़ा रहा । एक दिन कुमारने उससे बातें करते हुए पूछा,-सज्जन! तुम्हारी ऐसी दुर्गति क्यों हुई ?" सज्जनने कहा, हे स्वामी! सुनिये, मैं आप की ऐसी दुर्दशा करके आपको वहीं बड़के पेड़ तले छोड़कर चला गया। आगे जानेपर चोरोंने मुझे लाठी-सोंटे और घुस्से-मुक्कोंसे मार-पीटकर मेरा सब कुछ छीन लिया । केवल मुझे पापोंका फल भोगनेके लिये छोड़ दिया। हे स्वामी! मुझे अपने पापोंका फल हाथों हाथ मिल गया और आपने भी अपने पुण्यका फल हाथों हाथ पा लिया। अब मुझे मालूम हो गया कि सचमुच धर्मकी ही जय होतो है । हे स्वामी ! मेरा मुंह देखनेसे भी पाप लगता है, इसलिये आप मुझे अपने पाससे दूर कर दीजिये।" ___ यह सुन, कुमारने कहा,-"मित्र!तुम अपने मनमें किसी बात