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पृथ्वी के पाथड़े मे जाकर पैदा हुवा । दिग्विजय कर संभौम ने बहुत काल राज्य किया यह बहुत ही विपयी लंपटी था । एक बार इस को एक शत्रु देव ने व्यापारी के रूप में बड़े स्वादिष्ट अपूर्व फल खाने को दिये। जब वह फल न रहे तब चक्री ने और मागे । व्यापारी ने कहा कि यह एक द्वीप मे मिल सकेंगे। आप,जहाज पर मेरे साथ चलिये । वह लोलुपी चल दिया। मार्ग मे उस देव ने जहाज को डुबो दिया और चक्रवर्ती खोटे ध्यान से मर कर सातवीं नरक मे गया।
(E) नव वे चक्री २० वे तीर्थकर मुनि सुव्रत स्वामी के समय मे काशी नगरी के स्वामी इक्ष्वाकु वंशी पद्मोत्तर और ज्वला रानी के सुपुत्र महापद्म थे। बादलो को नष्ट होते देख वैरागी हो गये और साधु होकर मोक्ष पधारे।
(१०) दशवे चक्री श्री हरिसेण भगवान् नेमिनाथ के काल मे भोगपुर के राजा इक्ष्वाकु वंशी पद्म और मेरादेवी के सुपुत्र थे । एक दिन आकाश मे चंद्र ग्रहण देख आप साधु हो गये तथा अन्त मे मोक्ष पधारे। '
(११) ग्यारह वे चक्रवर्ती जयसेन श्री नेमिनाथ भगवान् के पीछे और अरिष्ट नेमि के पहिले कौशाम्बी नगर के इक्ष्वाकु वंशी राजा विजय और रानी वप्रावती के पुत्र थे। एक दिन आकाश मे उल्कापात देखकर वैराग्य हो साधु हो गये। तप करते हुए अन्त मे श्री सम्मेदशिखर पर पहुंचे। वहां चारण नाम की चोटी पर समाधि मरण कर सिद्धि को प्राप्त हुए।