Book Title: Hajarimalmuni Smruti Granth
Author(s): Shobhachad Bharilla
Publisher: Hajarimalmuni Smruti Granth Prakashan Samiti Byavar
View full book text
________________
७० : मुनि श्रीहजारीमल स्मृति-ग्रन्थ : प्रथम अध्याय
2EENERG29039300MMENXEXXEX
बने हुए हैं. उसके पश्चात् प्रायः ऐसा होता कि जब मैं दर्शन करने जाता था तो एक-दो साधुओं को जान-बूझकर छोड़ देता था. वे देखते रहते थे और मैं उन्हें वन्दना किये बिना ही वापिस लौट जाता था. इसकी कई प्रकार की प्रतिक्रियाएँ होती थी. कुछ साधु इसकी उपेक्षा कर देते थे और जब दो-चार दिन बाद मैं उनके दर्शनार्थ जाता तो व्यवहार में कोई अन्तर नहीं दिखाई देता था. उनके प्रति हृदय स्वाभाविक श्रद्धा से झुक जाता था. कुछ ऐसे होते थे जो मिलने पर अपनी नाराजगी प्रकट करते थे और कुछ आचार्यश्री या बड़े साधु के पास शिकायत करते थे, जो क्रमश: संस्था के अध्यक्ष के पास पहुंचती थी. कुचेरे की बात है, एकबार वहाँ कुछ साधुओं का आगमन हुआ. आने के दो दिन बाद मैं दर्शनार्थ गया. मेरे साथ सेठ मोहनमल जी चोरडिया के द्वितीय पुत्र पारसमलजी भी थे. उन्हें देखकर साधुजी ने उनके भावी ससुराल के समस्त कुटुम्बियों के नाम बताने शुरू किये. बालक चुपचाप सुनता रहा. जब बाहर निकला, तो पूछने लगा-साधुओं को इन नामों से क्या मतलब था ? दूसरी ओर जब साधुजी को यह ज्ञात हुआ कि मैं एक जैन संस्था का विद्यार्थी रहा हूँ तो पूछने लगे-कल दर्शन करने क्यों नहीं आये ? क्या बीकानेर में भी ऐसा ही करते थे ? मैंने उत्तर दिया, वहाँ तो और भी अधिक विलम्ब हो जाता था. मुझे यह मालूम नहीं था कि आप इसकी प्रतीक्षा कर रहे हैं. उसके पश्चात् न मैं उनके दर्शनार्थ गया और न वह सरल हृदय बालक. मुनिश्री हजारीमलजी में इस प्रकार की लोकषणा नहीं थी. मैंने कई बार जान-बूझकर ऐसा किया कि उन्हें वन्दना किये बिना ही श्रीमधुकर मुनि को पढ़ाना प्रारम्भ कर दिया किन्तु उनके व्यवहार में मैंने किसी प्रकार परिवर्तन नहीं देखा ! वे अपने व्याख्यान में आदर्श व्यक्तियों के चरित्र मारवाड़ी गीतों में गाकर सुनाया करते थे. सरलहृदय भक्तों पर उनका सीधा प्रभाव पड़ता था. मुझे ऐसा प्रतीत होता था कि भगवान् महावीर ने लोकभाषा में उपदेश देने की जो परम्परा प्रारम्भ की थी यह उसका वर्तमान रूप है. संस्कृत के श्लोक, लच्छेदार हिन्दी, दार्शनिक चर्चा आदि बातें पांडित्यप्रदर्शन के लिए भले ही हों किन्तु उनका हृदय पर सीधा असर नहीं पड़ता. मीरा तथा सूरदास के सीधे-सादे भजन भावनाओं को जितना तरंगित करते हैं, उतना शंकराचार्य या धर्मकीर्ति का शब्दजाल नहीं कर सकता. संक्षेप में कहा जा सकता है कि मुनिश्री हृदय की भाषा में उपदेश देते थे, बुद्धि की भाषा में नहीं. उस परिवार में तीन साधु थे-स्वयं मुनिश्री, ब्रजलालजी महाराज और श्रीमधुकर मुनि. तीनों का परस्पर स्नेह और सहृदयता अभिनन्दनीय थी. न उनमें दिखावा था, न मायाचार और न किसी प्रकार का अभिमान. ऐसे मुनियों के प्रति हृदय अपने आप झुक जाता है. इस परिवार का एक साथी और था जो साधु न होने पर भी उसका स्थायी सदस्य-सा बन गया था ! वह था, भानजी नाम का जाट ! उस में सरलता थी और मस्ती थी. सदा अपने आपमें तृप्त रहता था. उसे देखकर ऐसा लगता था कि यदि जीवन का लक्ष्य सुख है तो वह तृप्ति से प्राप्त होता है. जो ज्ञान अतृप्ति को उत्पन्न करता है उस ज्ञान से अज्ञान अच्छा. कबीर का एक दोहा है कि भगवान् स्वप्न अर्थात् अर्ध-निद्रित अवस्था में मिलते हैं और जागने पर लुप्त हो जाते हैं. ऐसे जागरण से निद्रा अच्छी. मुनिश्री हजारीमलजी महाराज तथा उनके परिवार का स्मरण प्रायः आता रहता है. ग्रंथ के द्वारा उनकी स्मृति स्थायी बनाना अभिनन्दनीय है. इन शब्दों के साथ उस महापुरुष के प्रति हार्दिक श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ.
मुनि श्रीमल्लजी महाराज
साधुता के गौरीशंकर आत्मा की चरम उन्नति, अन्तर्बाह्य संयोगों की मुक्ति में है. समस्त प्राणियों को अपनी आत्मा के समान समझने का उच्चतम भाव सच्चे सन्त में होता है. इसी आत्मौपम्य बुद्धि के परिणाम स्वरूप सन्त, मनुष्यों के कल्याण-कार्य में जुटे
Jain Education. To
prary.org