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बनगार
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हुए लक्षणोंसे युक्त और लोभ स्थूलता दीर्घता तथा इनसे उलटे तीन दोषोंसे रहित होना चाहिये । क्योकि आर्ष आगममें भी यह कहा है कि
रूपानायगुणैराख्यो यतीनां मान्य एव च ।
तपोज्येष्ठो गुरुश्रेष्ठो विज्ञयो गणनायकः ॥ इति । जो रूप आम्नाय तथा इतर गुणोंसे पूर्ण है, तप करनेमें ज्येष्ठ प्रधान और गुरुओं-मुनियोंमें श्रेष्ठ एवं यतियोंको अवश्य ही मान्य है वही गण-मुनिगणका नायक-धर्मदेशनाका अधिकारी आचार्य हो सकता है।
८-आठवां गुण तीर्थ और तच्चके प्रणयन-प्रतिपादनमें प्रवीणताका होना है । " सभी वस्तु अनेकान्तात्मक हैं" इस मतको तीर्थ कहते हैं। क्योंकि इसके द्वारा भव्य पुरुष संसारसमुद्रको तरकर पार होते हैं । इसके विरुद्ध संसार में सर्वथा एकान्तरूप जितने प्रवाद प्रचलित हैं उन सबके तिरस्कार-खण्डनसे चमक उठनेवाले और व्यवहार निश्चयनयकी प्रयोगपद्धतिसे विचित्र है आकार जिसका ऐसी चक्रात्मक वस्तुके प्रकाशित करनेवाले प्रतिपादनको उसका [ तर्थिका ] प्रणयन कहते हैं। इसी प्रकार अध्यात्म शास्त्रके रहस्यको तत्त्र कहते हैं। और उसके
स-तरहके प्रतिपादनको उसका प्रणयन कहते हैं, जिसमें कि भूतार्थ तथा अभूतार्थ निश्चय और व्यवहार इन दोनों नयोंके द्वारा दया दम त्याग और समाधिकी प्रवृत्ति के साथ सम्बन्ध रखनेवाले परमानंद पदकी व्यवस्था करके बता दी गई हो। इन दोनों प्रतिपादनोंमें तर्थिप्रतिपादन और तत्त्वप्रतिपादनमें प्रवीणताका अभिप्राय यही है कि वह धर्मदेशनाका अधिकारी आचार्य यह अच्छी तरह समझता हो कि इनमेंसे कहांपर किस प्रतिपादनको मुख्य और
को गौण करना चाहिये। ऐसा होनेसे ही वह अपने और दूसरेको ठीक प्रत्यय करा सकता है। क्योंकि इनमेंसे यदि एक ही को माना जायगा तो वह विषय तो सिद्ध नहीं ही होगा; परंतु दूसरे विषयका भी लोप हो जायगा । जैसा कि कहा भी है:
अध्याय