Book Title: Agam 03 Ang 03 Sthananga Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Shreechand Surana
Publisher: Agam Prakashan Samiti
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प्रथम स्थान
७
छेदन एक है (३४) । भेदन एक है (३५) ।
विवेचन—- छेदन शब्द का सामान्य अर्थ है— छेदना या टुकड़े करना और भेदन शब्द का सामान्य अर्थ है विदारण करना। कर्मशास्त्र में छेदन का अर्थ है— कर्मों की स्थिति का घात करना । अर्थात् उदीरणाकरण के द्वारा कर्मों की दीर्घ स्थिति को कम करना । इसी प्रकार भेदन का अर्थ है— कर्मों के रस का घात करना । अर्थात् उदीरणाकरण के द्वारा तीव्र अनुभाग को या फल देने की शक्ति को मन्द करना। ये छेदन और भेदन भी सभी जीवों के कर्मों की स्थिति और फल प्रदान शक्ति को कम या मन्द करने की समानता से एक ही हैं । - एगे मरणे अंतिमसारीरियाणं । ३७– - एगे संसुद्ध अहाभूए पत्ते ।
३६—
अन्तिम शरीरी जीवों का मरण एक है ( ३६ ) । संशुद्ध यथाभूत पात्र एक है (३७) ।
विवेचन—–— जिसके पश्चात् पुनः नवीन शरीर को धारण नहीं करना पड़ता है, ऐसे शरीर को अन्तिम या चरम शरीर कहते हैं। तद्-भव मोक्षगामी पुरुषों का शरीर अन्तिम होने की समानता से एक है। इस चरम शरीर से मुक्त होने के पश्चात् आत्मा का यथार्थ ज्ञाता द्रष्टारूप शुद्ध स्वरूप प्रकट होता है, वह सभी मुक्तात्माओं का समान होने से एक कहा गया है।
३८–
- 'एगे दुक्खे' जीवाणं एगभूए । ३९ – एगा अहम्मपडिमा 'जं से' आया परिकिलेसति । ४०—- एगा धम्मपडिमा जं से आया पज्जवजाए ।
का दुःख एक और एकभूत है (३८) । अधर्मप्रतिमा एक है, जिससे आत्मा परिक्लेश को प्राप्त होता (३९) । धर्मप्रतिमा एक है, जिससे आत्मा पर्यय-जात होता है (४०) ।
विवेचन-- स्वकृत कर्मफल भोगने की अपेक्षा सभी जीवों का दुःख एक सदृश है । वह एकभूत है अर्थात् लोहे के गोले में प्रविष्ट अग्नि के समान एकमेक है, आत्म- प्रदेशों में अन्तः प्रविष्ट — व्याप्त है। प्रतिमा शब्द के अनेक अर्थ होते - तपस्या विशेष, साधना विशेष, कायोत्सर्ग, मूर्ति और मन पर होने वाला प्रतिबिम्ब या प्रभाव । प्रकृत में अधर्म और धर्म का प्रभाव सभी जीवों के मन पर समान रूप से पड़ता है, अतः उसे एक कहा गया है । अभयदेवसूरि ने पडिमा का अर्थ - प्रतिमा, प्रतिज्ञा या शरीर किया है। पर्यवजात का अर्थ आत्मा की यथार्थ शुद्ध पर्याय को प्राप्त होकर विशुद्ध स्वरूप को प्राप्त करना है । इस अपेक्षा भी सभी शुद्धात्मा एकस्वरूप हैं।
४१– एगे मणे देवासुरमणुयाणं तंसि तंसि समयंसि । ४२ – एगा वई देवासुरमनुयाणं ि तंसि समयंसि । ४३ - एगे काय - वायामे देवासुरमणुयाणं तंसि तंसि समयंसि । ४४– - एगे उट्ठाण - कम्म-बल-वीरिय- पुरिसकार - परक्कमे देवासुरमणुयाणं तंसि तंसि समयंसि ।
देवों, असुरों और मनुष्यों का उस-उस चिन्तनकाल में एक मन होता है (४१) । देवों, असुरों और मनुष्यों का उस-उस वचन बोलने के समय एक वचन होता है (४२) । देवों, असुरों और मनुष्यों का उस-उस काय - व्यापार के समय एक कायव्यायाम होता है (४३) । देवों, असुरों और मनुष्यों का उस-उस पुरुषार्थ के समय उत्थान, कर्म, बल, वीर्य, पुरुषकार और पराक्रम एक होता है (४४)।
विवेचन — समनस्क जीवों में देव और मनुष्य के सिवाय यद्यपि नारक और संज्ञी तिर्यंच भी सम्मिलित हैं,