Book Title: Prakrit Vyakarana
Author(s): Hemchandracharya, K V Apte
Publisher: Chaukhamba Vidyabhavan
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीहेमचन्द्रकृत प्राकृत व्याकरण (हेमचन्द्रकृत सिद्धहेमशब्दानुशासनका आठवाँ अध्याय) डॉ. के.वा.आप्टे www.lainelibrary.org Personal use For Private Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ श्रीः ॥ चौखम्भा संस्कृतभवन ग्रन्थमाला श्रीहेमचन्द्रकृत प्राकृत-व्याकरण (हेमचन्द्रकृत सिद्धहेमशब्दानुशासनका आठवाँ अध्याय) मृलग्रन्थ, संस्कृत-संहिता, वृत्ति एवं सटिप्पणहिन्दी अनुवाद सम्पादक प्रा. डॉ. के. वा. आप्टे एम्. ए., पीएच. डी. संस्कृत-प्राकृतके भूतपूर्व अध्यापक विलिंग्डन कालेज, सांगली चौखम्भा संस्कृत भवन संस्कृत, आयुर्वेद एवं इन्डोलाजिकल ग्रन्थों के प्रकाशक एवं वितरक पोस्ट बाक्स नं० ११६० चौक ( दी बनारस स्टेट बैंक बिल्डिंग) वाराणसी-२२१००१ (भारत) Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रकाशक : चौखम्भा संस्कृत भवन, वाराणसी मुद्रक : वि० प्रि० प्रेस, वाराणसी संस्करण : प्रथम, वि सं० २०५२ मल्य : रु० २.०.०० (C) चौखम्भा संस्कृत भवन, वाराणसी इस ग्रन्थ के परिष्कृत तथा परिवर्धित मूल-पार एवं टीका, परिशिष्ट आदि के सर्वाधिकार प्रकाशक के अधीन हैं। फोन : ३२०४१४ प्रधानकार्यालय चौस्वम्भा संस्कृत संस्थान पोस्ट बाक्स नं० १९३९ के. ३७/११६, गोपाल मन्दिर लेन ( गोलघर समोप मैदागिन) वाराणसी-२२१००१ (भारत) फोन : ३३३४४५, ३३५६३० Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ THE CHAUKHAMBHA SANSKRITBHAWAN SERIES PRAKRITA VYAKARANA By HEMACHANDRA (8th CHAPTER OF SIDHAHE MAŚ ABDANUŠASANAM) TEXT, SANSKRIT COMMENTARY AND TRANSLATION IN HINDI WITH NOTES EDITED By Dr. K. V. APTE M. A,, Ph. D. Ex LECTURER, in SANSKRIT AND PRĀKRIT Wildingden College, SANGALI CHAUKHAMBHA SANSKRIT BHAWAN Sanskrit Ayurveda & Indological Publishers & Distributors Post Box No. 1160 CHOWK ( The Benaras State Bank Bldg. ) VARANASI-221001 Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ © Chaukhambha Sanskrit Bhawan, Varanasi Phone : 320414 Edition : First 1996 Head OfficeCHAUKHAMBHA SANSKRIT SANSTHAN Post Box No. 1139 K. 37/116, Gopal Mandir Lane (Golghar Near Maidagin) VARANASI-221001 ( INDIA ) Phone : 333445, 335930 Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका प्रस्तावना पादानुसार विषय (विषयके अगले अंक सूत्रों के अनुक्रमांक हैं । ) प्रयमपाद प्राकृत ओर आर्ष १-३, समास में स्वरोका ह्रस्वोभवन और दीर्धीभवन ४, संधि ५-१०, शब्दमें अन्त्य ब्यञ्जनके विकार ११-२४ ङ्ञ् ण् नके विकार २५, अनुस्वारागम २६-७, अनुस्वारलोप २८-२९, अनुस्वारका वैकल्पिक विकारे ३०, लिंगविचार ३१-३६, अकारके आगे विसर्गका विकार ३७, निर् और प्रति शब्दों के विकार ३८, आदिस्वरविकार ३९.१७५, स्वरके आगे अनादि असंयुक्त व्यञ्जनके विकार १७६-२७१ । द्वितीयपाद संयुक्त व्यञ्जनके विकार १.११५, स्थितिपरिबृत्ति ११६-१२४, कुछ संस्कृत शब्दोंको होनेवाले आदेश १२५.१४४, प्रत्ययोंको होनेवाले आदेश १४५-१६ , भवार्थी प्रत्यय १६३, स्वार्थे प्रत्यय १६४, कुछ शब्दों के आगे आनेवाले स्वार्थे प्रत्यय १६५-१७३, गोणादि निपात शब्द १७४, अव्ययोंके उपयोग १७५- १८ । तृतीयपाद वीप्सार्थी पदके आगे स्यादिके स्थानपर वैकल्पिक भकार १ संज्ञारूपविचार २-५७, सर्वनामरूप विचार ५८-८९, युष्मद्के रूप ९०.१०४, अस्मद्के रूप १०५-११७, संख्यावाचक शब्दोंके रूप ११८ १२३, विक्तिरूपोंके बारेमें संकीर्ण नियम १२४-१३०, विभक्तियोंके उपयोग १३१-१३७, नामधातु १३८, बर्तमानकालमें लगनेवाले प्रत्यय १३९-१४५, अस घातुके वर्तमानकालके रूप १४६-१४८, प्रेरक प्रत्यय १४९.१५३, प्रत्यय लगते समय होनेवाले विकार १५४-१५९, धातुके कर्मणि अंग १६०-१६१, भूतकाल १६२-१६३, अस धातुका भूतकाल १६४, विध्यर्थ-प्रत्यय-आदेश १६५, भविष्यकाल १६६-१७२, विध्यर्थ-आज्ञार्थ-प्रत्यय १७३-१७६, प्रत्ययोंको होनेवाले ज्ज ओर ज्जा आदेश १७७-१७८, संकेतार्थ १७९-१८०, शतृ-ज्ञानश्-प्रत्ययोंके आदेश १८१, शतृ-शानश्-प्रत्ययान्तॊके स्त्रीलिंगी अंग १८२ । Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थपाद धातुके आदेश १.२०, प्रेरक धातुके आदेश २१-५१, धातुके आदेश ५२-२०९, विशिष्ट प्रत्ययोंके पूर्व धातुको होनेवाले आदेश २१०-२१४, धातु के अन्य व्यञ्जनमें होनेवाले विकार २१५-२३२, धातुके अन्त्य स्वरके विकार २३३-२३७, धातुमें स्वरके स्थानपर अन्य स्वर २३८, ध्यञ्जनान्त धातुके अन्त में अकार २३९, अकारान्तेतर स्वरान्त धातुके अन्तमें वैकल्पिक अकारागम २४०, चि इत्यादि धातुओंके अन्तमें णकारागभ २४१, चि इत्यादि धातुओंके वैकल्पिक कर्मणि अंग २४२-२४३, हन खन् इत्यादि धातुओके वैकल्पिक कर्मणि अंग २४४-२५०, कुछ धातुओंके आदेशरूप कर्मणि अंग २५१-२५७, क. भू. धा० वि० के स्वरूपमें आनेवाले निपात २५८, धातुओंके अर्थ में बदल २५९, शौरसेनी भाषा २६०-२८६, मागधी भाषा २८७-३०२, पैशाचीभाषा ३.३-३२४, चूलिका पंशाची भाषा ३२५-३२८, अपभ्रंश भाषा ३२९-४४६, प्राकृतभाषा लक्षणों का व्यत्यय ४४७, उपसंहार ४४८ । Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तावना भारत की कुछ विशिष्ट प्राचीन भाषाओंको प्राकृत नाम दिया जाता है । उसका व्याकरण कलिकाल सर्वज्ञ आचार्य हेमचन्द्रने संस्कृतमे लिखा है । यह प्राकृत व्याकरण विस्तृत और प्रमाणभूत है। हिंदी अनुवाद सहित वह सम्पूर्ण व्याकरण यहाँ पहली बार प्रस्तुत किया जा रहा है । भारतीय भाषाओं में प्राकृत भारतीय भाषाओंका आर्यभाषा और आर्येतर भाषा ऐसा वर्गीकरण किया जाता है । उनमें से आर्य भाषाएँ भारतीय इतिहास-संस्कृति से घनिष्ठ रूप में संबंधित हैं । पिछले चार साढ़े चार सहस्र वर्षोंसे आर्य भाषाओंका विकास भारत में चल रहा है । इन्हीं आर्यभाषाओं में प्राकृतका समावेश होता है । प्राकृत शब्द का अर्थ प्राकृत शब्दको निश्चित व्युत्पत्ति तथा अर्थ - इनके बारेमें विद्वानों में मतभेद है । ( अ ) कुछ लोगोंके मतानुसार, प्राकृत शब्द संस्कृतके 'प्रकृति' शब्द से सिद्ध हुआ है । तथापि प्रकृति शब्दसे क्या अभिप्रेत है इसके बारे में भी मतभिन्नता है । (१) भारतीय प्राकृत व्याकरणोंके 'मतानुसार, प्रकृति शब्दसे संस्कृत भाषा सूचित होती है । संस्कृतरूप प्रकृतिसे उद्भुत वह प्राकृत ऐसा अर्थ होता है। प्राकृतका मूल (योनि ) संस्कृत है; संस्कृतरूप प्रकृतिकी विकृति यानी विकार प्राकृत है । इसका अभिप्राय यह है कि संस्कृत भाषा से ही प्राकृत भाषा निर्माण हुई है । (२) कुछ पंडितों के मतानुसार प्रकृति शब्दसे संस्कृत भाषा अभिप्रेत नहीं है । प्रकृति शब्दका अर्थ है मूल स्वभाव, इसलिए प्राकृत यानी मूलत: अथवा स्वभावत: सिद्ध होनेवाली भाषा है । (३) कुछ लोगों के मतानुसार, प्रकृति यानी जनसाधारण अथवा सामान्य लोग; उनकी जो भाषा" बह प्राकृत है । सामान्यजनोंके जिस भाषा पर व्याकरण इत्यादि संस्कार नहीं हुए हैं ऐसी सहज होनेवाली भाषा प्रकृति है; वही प्राकृत है; अथवा उस प्रकृति से सिद्ध होनेवाली प्राकृत है । एवं सर्वसाधारण लोगों की संस्काररहित / अकृत्रिम भाषा प्राकृत है । ( आ ) नमिसाधु प्राकृत शब्दको व्युत्पत्ति ऐसी भी देता है :- प्राक् कृत यानी प्राकृत, यानी पहले की हुई, और स्त्री, बाल इत्यादिको समझने में सुलभ होनेवाली "वह प्राकृत है । प्राकृत शब्दका एक नया स्पष्टीकरण इस प्रकार दिया जा सकता है: -- 'संस्कृत भाषा' शब्द प्रचार में आनेपर भाषा बोधक प्राकृत शब्द प्रचार में आया । अभिप्राय Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह है कि संस्कृतसे भिन्नत्व दिखानेके लिए प्राकृत शब्द प्रयुक्त किया जाने लगा। संस्कृत शब्द सम् + क धातुका कर्मणि भूतकालवाचक धातुसाधित विशेषण है और उसका अर्थ है 'संस्कारित किया हुआ' वचन या भाषा । प्राकृत शब्द भी प्र+आ+ धातु का कर्मणि भूतकालवाचक धातुसाधित विशेषण है, और उसका अर्थ है, 'बहुत (प्र) विरुद्ध अथवा भिन्न (आ) किया अथवा हुआ,वचन किंवा भाषा । मतलब यह कि संस्कृतसे भिन्न स्वरूप होनेवाली भाषाओंके पृथक्त्व दिखानेके लिए प्राकृत शन्द प्रचारमें आया। संक्षेप में, प्राकृत यानी संस्कृतसे भिन्न (पूर्वकालीन) भाषा । प्राकृत शब्दसे सूचित होनेवाली भाषाएं प्राकृत शब्दसे कौनसी भाषाएँ सूचित होती हैं इस बात में भारतीय प्राकृत वेयाकरण और आलंकारिक इनका एक मत नहीं है:---- (अ) प्राकृत ( माहाराष्ट्री), शौरसेमी, मागधी और पंशाची इन चार प्राकृतोंका विवेचन बररुचि करता है। (मा) माहाराष्ट्री, शौरसेनी, मागधी, आवन्तिका और प्राच्या इन पांच प्राकृतोंका निर्देश मृच्छकटिक नाटकका टीकाकार करता है। (इ) प्राकृत ( माहाराष्ट्री), शौरसेनी, मागधी, पंशादी, चूलिका पेशाची और अपभ्रंश ये छः प्राकृतें लक्ष्मीधर कहता है । (ई) मागधी अवन्तिजा, प्राच्या, शौरसेनी, अर्धमागधी, बाह्रीका और दाक्षिणात्या ऐसी सात प्राकृत भाषाओंका निर्देश भरत ने किया है । (उ) प्राकृत ( माहाराष्ट्री ), आर्ध, शौरसेनी, मागधी, पंशाची, धूलिका शाची और अपभ्रंश इन सात भाषाओंकी चर्चा हेमचन्द्र करता है । (ऊ) माहाराष्ट्री, शौरसेनी, प्राच्या, आवन्ती, मागधी, शाकारी, चाण्डाली, शाबरी, टक्कदेशीया, अपभ्रंश ( और उसके प्रकार ), पैशाची ( और उसके प्रकार ) पुरुषोत्तमदेवके प्राकृतानुशासनमें दिखाई देते हैं । (ए) माकंडेय सोलह प्राकृतोंका विवरण करता है। सर्वप्रथम वह प्राक्तके भाषा, विभाषा, अपभ्रंश और पैशाच ये चार विभाग करना है और इन विभागों में वह निम्नानुसार प्राकृतें कहता है:-(१) भाषा:--माहाराष्ट्री, शौरसेनी, प्राच्या, आवन्ती और मागधी । (२) विभाषाः-शाकारी, चाण्डाली, शाबरी, आभोरिका और टाक्की । (३) अपभ्रंशः--नागर, वाचड ओर उपनागर । (४) पैशाच-कैकेय, शौरसेम और पांचाल । प्रधान प्राकृत भाषाएँ ऊपर दी गई प्राकृत भाषाओंके बारेमें भी यह बात लक्षणीय है कि कुछ भारतीय प्राकृत व्याकरणकार° कुछ प्राकृतोंको अन्य प्राकृतोंका मिश्रण अथवा उपप्रकार समझते हैं । उदा०-आबन्ती ( = अवन्तिजा, आवन्तिका ) माहाराष्ट्री ओर शौरसेनीके संकटसे बनी है। प्राच्या भाषाकी सिद्धि शौरसेनीसे ही हुई है। ‘र का ल होना' यह फर्क छोड़ दे, तो बालीकी १३भाषा आवन्ती भाषामें हो Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ५ ) अंतर्भूत होती है । " शाकारी भाषा मागधोका ही एक प्रकार है : चाण्डाली भाषा मागधी और शौरसेनी के मिश्र से बनी है, ऐसा मार्कंडेय " का कहना है, तो पुरुषोत्तम देवके " मतानुसार, चाण्डाली भाषा मागधोका ही एक प्रकार है । शाबरी भाषा" मागधीका ही एक प्रकार है । आभीरी भाषा शाबरीके समान है: सिर्फ क्त्वा - प्रत्ययको इअ और उअ ऐसे आदेश" आभीरी में होते हैं | टाक्को भाषा" संस्कृत और शौरसेनीके संकरसे वनी है। जैनोंके अर्धमागधीको हेमचन्द्र आर्ष कहता है, और उसे ( माहाराष्ट्री ) प्राकृतके नियम विकल्पसे लागू पड़ते हैं ऐसा उसका कहना है | और अर्धभागधी बहुतांशों में "माहाराष्ट्रो के समान ही है । तथा चूलिका पेशाची और पैशाचीके अन्य प्रकार ये तो पैशाचीके उपभेद हैं । उसी प्रकार अपभ्रंश भाषा के प्रकार भी अपभ्रंशके उपभेद हैं । २० ऊपरका विवेचन ध्यान में रखे, तो माहाराष्ट्री, शौरसेनी, यागधी, पंथाची और अपभ्रंश इन पाँच भाषाओंको ही प्रधान प्राकृत भाषाएँ समझनमें कुछ आपत्ति न हो । प्राकृत भाषाओं के नाम जो जाति और जमाथि विशिष्ट प्राकृत बोलती थीं, उनसे उन प्राकृतोंको नाम दिये गए ऐसा दिखाई देता है । उदा० - शाबरी, चाण्डाली, इत्यादि । तथा जिन देशों में जो प्राकृतें बोली जाती थी उन देशों के नामोंसे उन प्राकृतोंको नाम दिये गए ऐसा भी दिखाई देता है । उदा० शौरसेनी, मागधी, इत्यादि । इस सन्दर्भ में लक्ष्मीधरका कहना लक्षणीय है :- शूरसेनोद्भवा भाषा शौरसेनीति गीयते । मगधोत्पन्नभाषां तां मागधीं सम्प्रचक्षते ॥ पिशाचदेश नियतं पैशाची - दिवतयं भबेत् ॥ भारतीय आर्यभाषाओं में प्राकृतोंका स्थान ऊपर निर्दिष्ट हुई प्राकृत भाषाएँ पूर्वकालमें बोली- भाषाएँ थीं; तथापि आज मात्र वे वैसी नहीं हैं; परन्तु उनके अवशेष साहित्य में दिखाई देते हैं । संस्कृत भाषा और आधुनिक आर्य भारतीय भाषाएँ इनसे प्राकृतोंका स्वरूप कुछ प्रकारों में भिन्न है; फिर भी वे उन दोनोंके बीचमें आती हैं। कुछ विद्वानोंके मतानुसार, प्रधान प्राकृतोंसे अथवा उन प्राकृतोंके अपभ्रंशोंसे आधुनिक भारतीय आर्यभाषाएं उत्पन्न हुई हैं | प्राकृतोंका शब्द-संग्रह प्राकृत वैयाकरणोंके मतानुसार, प्राकृत संस्कृत से सिद्ध हुई हैं । अपने इस मत के अनुसार वे प्राकृत शब्दोंका त्रिविध वर्गीकरण देते हैं : - ( १ ) तत्सम Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( - संस्कृत सम )-जो संस्कृत शब्द कोई भी विकार न होते हुए प्राकृतमें जैसे के तैसे आते हैं वे तत्सम शब्द । उदा०-इच्छा, उत्तम, मन्दिर इत्यादि । ( २ ) तद्भव ( = संस्कृतभव )---जो संस्कृत शब्द कुछ विकार/बदल पाकर प्राकृतमें आते हैं, वे तद्भव शब्द । उदा०---अग्गि (/ अग्नि ), हत्थ (V हस्त ), पसाय (/ प्रसाद ). किवा (५/ कृपा ) इत्यादि । प्राकृतमेंसे ९५ प्रतिशतसे अधिक शब्दोंके मूल संस्कृत भाषामें दिखाई देते हैं। ( ३ ) देशी अथवा देश्य--प्रायः जिन शब्दोंका संस्कृतसे कुछ सम्बन्ध नहीं जोड़ा जा सकता है, ऐसे शब्द। उदा० ---- खोडी, बप्प, पोट्ट इत्यादि । प्राकृतों की स्तुति ___ कुछ पूर्ववति लेखकों का मत है कि संस्कृतसे प्राकृत तथा अपभ्रंश भाषाएँ अधिक अच्छी हैं। बालरामायणमें राजशेखर कहता है :--प्रकृतिमधुराः प्राकृतगिरः । शाकुन्तल नाटकके टीकाकार शङ्करके मतानुसार . ---संस्कृतात् प्राकृतं श्रेष्ठ ततोऽपभ्रंश भाषणम् । कुवलयमालाकार उद्योतन कहता है :- संस्कृत भाषा दुर्जनों के हृदयके समान विषम है; प्राकृत सज्जनोंके वचनके समान सुखसङ्गत/शुभसङ्गत ( सुह-संगम ) है; तो अपभ्रंश प्रणयकुपित प्रणयिनीके वचनके समान मनोहर है। __हेमचन्द्र और उसके ग्रन्थ प्रारम्भमें ही कहा गया है कि प्रस्तुत प्राकृत व्याकरण आचार्य हेमचन्द्रने लिखा है। यह हेमचन्द्र जैनर्मियों में माननीय था। उसके पास तीव्रद्धिमत्ता, गहरा ज्ञान और अच्छी प्रतिभा थी। व्याकरण, कोश, काव्य, छन्द, चरित्र इत्यादि साहित्यके विविध अङ्गोंमे हेमचन्द्र ने लेखन किया है। उसका लेखन संस्कृत और प्राकृत दोनों भाषाओं में है। उसका बहुतांश लेखन उसके आश्रयदाता राजाकी सूचनानुसार हुआ ऐसा दिखाई देता है। अपने जिन ग्रन्थोंका अधिक स्पष्टीकरण करना हेमचन्द्र को आवश्यक लगा, उन ग्रन्थोंपर उसने अपनी स्वोपज्ञ वृत्ति लिखी है। गुजरात देशके धन्धुका नामक गाँव में विक्रम सम्बत् ११४५ ( इ० स० १.८८ में ) में हेमचन्द्रका जन्म मोढ महाजन (बाणी ) जातिमें हुआ। उसके परिवारके धर्मवे बारेमें निश्चित जानकारी उपलब्ध नहीं है। फिर भी उसपर जैनधर्मका प्रभाव दिखाई देता है। हेगचन्द्रका जन्मनाम चांगदेव था; उसके पिता का नाम चच्च था; और उसकी माताका नाम पाहिणी ( या चाहिणी ) था। एक वार देवचन्द्र सूरि नाम एक जनधर्मानुयायी धन्धुका गाँव में आया। चांगदेवके कुछ अङ्ग चिह्न देखकर, उसको जनसाधु बनानेकी इच्छासे, देवचन्द्रने पाहिणीके Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पास चांगदेवकी या वना की। उस समय चांगदेव का पिता दूसरे गांवमें गया हुआ था। माताने बहुत कष्टसे देवचन्द्रकी याचना स्वीकार की। यह बात समझने पर, वापस आया हुआ चच्च क्रुद्ध हुआ। परन्तु सिद्धराजके उदयन नामके जैन मन्त्री ने उसे समझाया। चांगदेवको पांचवें वर्ष में देवचन्द्रने जनसाधुकी दीक्षा दी, और उसका सोमचन्द्र नाम रखा । सोमचन्द्रने आवश्यक विद्याभ्यास किया। आगे चलकर सोमचन्द्रने गिरनार पर्वतपर सरस्वतीदेवीकी उपासनाकी । प्रसन्न हुई सरस्वतीने उसको सारस्वत मन्त्र दिया। जिसके बलसे सोमचन्द्र विद्वान् हो गया। उसकी विद्वत्ता देखकर, कुछ कालके अनन्तर देव चन्द्रने उसे 'सूरि' उपाधि दी, और उसका 'हेमचंद्र' ऐसा नया नामकरण किया। एक बार हेमचन्द्र ने गुजरातकी राजधानीको भेंट दी। वहाँ सिद्धराज नामक तत्कालीन राजासे उसका परिचय करा दिया गया। और अनन्तर हेमचन्द्र उसके आश्रयमें रहा। इस सिद्धराजकी सूचनानुसार हेमचन्द्र ने "सिद्धहेमशब्दानुशासन" नामक व्याकरण रचा। सिद्धराजके कुमारपाल नामक पुत्रपर हेमचन्द्रका बहत प्रभाव पड़ा । कुमारपालके शासनकालमें हेमचन्द्रने अपने अन्य ग्रन्थोंकी रचना की। चौयासी वर्षों की लम्बी आयु हेमचन्द्रको प्राप्त हुई थी। उसने अनेक वादविवाद किए, बहुत लोगोंको जैनधर्मके प्रति आकृष्ट किया, अनेक शिष्य किए, विविध ग्रन्थ रचे, और विक्रम सम्बत् १२२२ ( इ. स. ११७२ ) में देहत्याग किया। हेमचन्द्रका पांडित्य देखकर उसे प्राचीन कालमें 'कलिकालसर्वज्ञ' उपाधि दी गई थी। कुछ अर्वाचीन लोग उसे 'ज्ञानसागर कहते हैं। . हेमचन्द्र के नामपर अनेक ग्रंण हैं। उनमेंसे कुछ अन्थोंके उसके होनेपर संदेह किया जाता है। तथा इन ग्रन्थों में से कुछ सद्यःकालमें अनुपलब्ध, कुछ अमुद्रित, तो कुछ मुद्रित हैं। कुछ ग्रंथोंके नाम ऐसे हैं:-छन्दोनुशासन, सिद्धहेमशब्दानुशासन, अभिधानचितामणि, देशीनाममाला, काव्यानुशासन, व्याश्रयमहाकाव्य,प्रमाणमीमांसा, योगशास्त्र, त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरित, इत्यादि । हेमचन्द्र का प्राकृत व्याकरण सिद्धराजकी सूचनानुसार हेमचन्द्रने 'सिद्धहेमशब्दानुशासन' नामक संस्कृत और प्राक्तका व्याकरण लिखा। इसपर उसकी स्वोपज्ञ वृत्ति है। इस व्याकरणके कुल माठ अध्याय हैं। पहले सात अध्यायोंमें संस्कृत व्याकरणका विवरण है और Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ८ ) अंतिम आठवें अध्यायमें प्राकृत व्याकरणका विवेचन है। आठवां अध्याय चार पादोंमें विभक्त है। इस अध्यायमें प्राकृत ( = माहाराष्ट्री ), आर्ष, शौरसेनी, मागधी, पशाची, चूलिका पैशाची और अपभ्रंश इन भाषाओं के लक्षण और उदाहरण हेमचन्द्रने दिए हैं। इस प्राकृत व्याकरण मेंसे नियमोंके उदाहरण हेमचन्द्रकृत 'कुमारपालचरित' ग्रन्थमें भी दिखाई देते हैं। हेमचन्द्र के वणित प्राकृतोंका संक्षिप्त परिचय हेमचन्द्रका 'प्राकृत' शब्द सामान्यतः प्राकृतभाषावाचक न होकर, वह शब्द उसने माहाराष्ट्रो प्राकृतके लिए प्रयुक्त किया है। उससे कहा हुआ प्राकृतका स्वरूप माहाराष्ट्रीके स्वरूपसे मिलता-जुलता है। और इस संदर्भ में, 'तत्र तु प्राकृतं नाम महाराष्ट्रोद्भवं विदुः 'यह लक्ष्मीधरका वचन ध्यान देने योग्य है । आर्ष प्राकृत का उल्लेख हेमचन्द्र बीच-बीचमें करता है। हेमचन्द्रसे वणित धुलिका पंशाची प्रधान प्राकृत न होने, पैशाचीकी ही एक उपभाषा दिखाई देती है। इसकी पुष्टि होती है उस वचनसे जो हेमचन्द्रने अन्यत्र कहा है। अभिधानचितामणि मामक अपने ग्रंथ में, 'भाषाशट संस्कृतादिकाः' इस अपने बाक्यका विवरण करते समय हेमचन्द्र लिखता है:-'संस्कृत-प्राकृत-मागधी शौरसेनी-पैशाची अपभ्रंश-लक्षणाः । यहाँ चूलिका पैशाचीका स्वतन्त्र भाषाके स्वरूप में उसने निर्देश नहीं किया है। इसलिए चलिका पैशाचीको पैशाचीका प्रकार समझना अनुचित नहीं होगा । एवं,प्राकृत (माहाराष्ट्री) शौरसेनी, मागधी, पैशाची और अपभ्रंश इन प्रधान प्राकृतोंका विवेचन हेमचन्द्र ने किया है, ऐसा कहने में कोई आपत्ति नहीं होगी। इन प्राकृतोंकी अधिक जानकारी निम्नानुसार है माहाराष्ट्रो हेमचन्द्र इत्यादि वैयाकरण माहाराष्ट्रीको प्राकृत कहते हैं, तो प्राकृतचन्द्रिका उसे 'आर्ष' नाम देती है। दंडिन्के मतानुसार, महाराष्ट्राश्रया प्राकृत प्रकृष्ट है ( महाराष्ट्राश्रयां भाषां प्रकृष्टं प्राकृतं बिदुः)। प्राकृत वैयाकरणोंके मतानुसार, सर्व प्राकृत भाषाओं में माहाराष्ट्रीही मुख्य प्रधान और महत्त्वपूर्ण है। वह अन्य प्राकृतोंकी मूलभूत मानी गई है । अथवा अन्य प्राकृतोंके अध्ययन के लिए अत्यन्त उपयुक्त समझी गई है। अतः प्राकृत वैयाकरण प्रथम माहाराष्ट्रोका स्वरूप सम्पूर्ण और सविस्तार रूप में बताते हैं, और बादमें उससे अन्य प्राकृतोंकी जो विभिन्न विशेषताएं हैं उनको बताते हैं । हेमचन्द्र ने इसी पद्धतिको स्वीकारा है। माहाराष्ट्र नामसे यह स्पष्ट होता है कि यह प्राकृत महाराष्ट्रमें उत्पन्न हुई और वहां प्रचार में थी। परन्तु इस बारे में कुछ लोग संदेह व्यक्त करते हैं। Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेक काव्यग्रन्थ माहाराष्ट्री प्राकृतमें हैं। उदा०-ग उडबह, सेतुबन्ध इत्यादि । संस्कृत नाटको में पद्यभाग प्रायः महाराष्ट्री में होता है । आर्ष ( अर्धमागधी) हैमचन्द्र कहता हैं कि प्राकृत ( = माहाराष्ट्री ) के नियम विकल्पसे आर्ष प्राकृतपर लागू पड़ते हैं। आर्ष प्राकृत शब्दसे हेमचन्द्रको श्वेतांबर जैनोंके मूलातम अन्योंकी अर्धमागधी भाषा अभिप्रेत है, यह उसके सूत्र ४२८७ के ऊपरकी वृत्तिसे २"स्पष्ट हो जाता है। इसी को ही अर्धमागध, अर्धमागधा ( या अर्धमागधी ) नाम दिये जाते हैं। इसीको जैन ग्रन्थ 'ऋषि-भाषिता' कहते हैं। यह अर्धमागधी संस्कृत के नाटकमें दिखाई देनेवाली अर्धमागधीसे भिन्न स्वरूप है; इसीलिए इसको कभीकभी जैन अर्धमागधी कहा जाता है। शौरसेनी शूरसेन देशमें उत्पन्न हुई शौरसेनी भाषा है । संस्कृत नाटकोंमें नायिका और सखी मुख्यतः गद्यभागमें शौरसेनी प्रयुक्त करती हैं । प्राकृत व्याकरणोंमें भी इस भाषाके उदाहरण मिलते हैं। मागधी मगध देशकी भाषा मागधी है। संस्कृत नाटकोंमें राजाके अन्त:पुरके लोग अश्वपालक, राक्षस इत्यादि पात्र मागधी भाषा प्रयुक्त करते हैं। अशोकके शिलालेख और प्राकृत व्याकरण इनमें भी इस मागधीके उदाहरण दिखाई देते हैं । पैशाची पिशाच देशों की भाषा पैशाची ऐसा लक्ष्मीधर कहता है । तथापि ये पिशाच देश कौनसे हैं -~-इस बारेमें मतभेद है । वाग्भट पैशाची को 'भूतभाषित' कहता है । भूतपिशाच इत्यादि कुछ नीच पात्रोंके लिए पंचाचीका प्रयोग कहा गया है । माकंडेय कहता है कि पैशाचीके ग्यारह उपप्रकार हैं; तथापि वह स्वयं मात्र कैकेय, शौरसेन और पांचाल ये पैशाचीके तीन ही प्रकार मानता है। गुणाढ्य की बृहत्कथा---जो आज अनुपलब्ध है-पैशाची भाषामें भी ऐसा कहा जाता है। प्राकृत व्याकरण, हेमचन्द्र के कुमारपालचरित और काव्यानुशासन, कुछ षड्भाषा स्तोत्र इनमें पैशाचीके उदाहरण मिलने हैं । चूलिका पैशाची हेमचन्द्रने चूलिका पैशाचीकी जो विशेषताएँ दी हैं वे अन्य वैयाकरणों के Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १० ) मतानुसार पैशाचीकी ही हैं । चूलिका पैशाचीको पैशाचीका उपभेद समझने में कोई आपत्ति नहीं है । इसके उदाहरण हेमचन्द्र के कुमारपालचरित और काव्यानुशासन इनमें दिखाई देते हैं । अपभ्रंश अपभ्रंश शब्दके भिन्न स्पष्टीकरण पूर्वग्रन्थों में मिलते हैं । दंडिनके मतानुसार, aror में आमीर इत्यादिको भाषा और शास्त्र में संस्कृतेतरभाषा यानी अपभ्रंश । रुद्रट कहता है : - देशविशेषादपभ्रंशः । इस वाक्यकी टोकामें प्राकृतमेवापभ्रंश ः ' ऐसा नमिसाधु कहता है ! तो उस उस देश में शुद्ध भाषा यानी अपभ्रंश ऐसा वाग्भट का वचन" है | माहाराष्ट्री इत्यादि प्राकृत भाषाओंकी अन्तिम अवस्था यानी अपभ्रंश ऐसा कहा जा सकता है । अपभ्रंश के अनेक उपप्रकार मार्कंडेय इत्यादि लोग कहते हैं । हेमचन्द्र मात्र अपभ्रंशका कोई प्रकार नहीं देता है । विक्रमोर्वशीय नाटक और प्राकृत व्याकरण इनमें अपभ्रंशके उदाहरण हैं । इसके अलावा भविस्समन्त कहा, करकण्डचरिउ इत्यादि अनेक अपभ्रंश भाषा के ग्रन्थ आज उपलब्ध हैं । प्रस्तुत ग्रन्थ की रचना हिन्दी अनुवाद - टिप्पणी सहित हेमचन्द्रका प्राकृत व्याकरण यहाँ प्रस्तुत करते समय आगे दी हुई पद्धति स्वीकृत की गई है: 9 (१) पहले हेमचन्द्रका मूल संस्कृत सूत्र और उसका अनुक्रमांक अनन्तर उस सूत्रके ऊपरकी संस्कृतवृत्ति, और बादमें हिन्दी अनुवाद दिया है । एका अक्षर के ऊपरका यह चिह्न स्वरका लघु/ ह्रस्व उच्चारण दिखाता है। अक्षर के ऊपरका यह चिह्न सानुनासिक उच्चारण दिखाता है । वृत्ति में पद्यात्मक उदाहरण होनेपर ' उन्हें उस उस सूत्र के नीचे एक (१), दो (२) इत्यादि अनुक्रमांक दिये हैं । (२) वृत्ति में सूत्रका अर्थं आता है; इसलिए सूत्रका स्वतन्त्र भाषान्तर न देते हुए, केवल वृत्ति का ही भाषान्तर दिया है। मूल में से पारिभाषिक / तान्त्रिक शब्द अनुवार में जैसे के तैसे ही रखे हैं; उनका स्पष्टीकरण अन्तमें टिप्पणियों में दिया है : मूल में होनेवाले परन्तु अर्थ समझने के लिए आवश्यक होनेवाले शब्द कोष्ठकों में रखे हैं | अनुवादक में भी आवश्यक स्थानों पर कुछ शब्दोंका स्पष्टीकरण उन शब्दोंके आगे कोष्ठ में इस समीकरण चिह्न से दिया है । अनेक बार हेमचन्द्र सूत्रोंमें दिए हुए शब्द वृत्ति पुन: नहीं देता है; ऐसे शब्द भाषान्तरमें लेकर कोष्ठक में रखे हैं । कभी-कभी Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( ११ ) क् ख् देता है; व्यञ्जन क् ख् इत्यादि पद्धति नहीं दिये हैं; केवल अपभ्रंश भाषा के विवरण पिछले सन्दर्भ दिये हैं; शब्द सूत्र में देता कभी उसने वृत्ति में कभी वृत्ति में प्राकृत कभी वह कुछ प्राकृत मूलका शब्दशः भाषान्तर थोड़ा भिन्न होता हो, तो वह कोष्ठक में 'श' शब्द प्रयुक्तकर दिया है । वृत्ति में से उदाहृत शब्दोंकी पुनरुक्ति अनुबादमें न करते हुए उनमें से केबल पहला शब्द देकर आगे ३-४ बिन्दु रखकर बादमें अन्तिम शब्द दिया है । पद्यात्मक उदाहरणों के बारेमें भी ऐसा ही संक्षेप किया है इत्यादि व्यञ्जन हेमचन्द्र उनमें 'अ' स्वर मिलाकर क ख इत्यादि प्रकार से अनुवाद में भी बहुधा वैसा ही किया है। कुछ स्थानोंपर मात्र अनुवाद में से दिए हैं। वृत्ति से उदाहरणात्मक शब्दों के अर्थ प्रायः पद्यात्मक उदाहरणों के अर्थ अग्त में टिप्ठणियों में दिये हैं । में जब पिछले कुछ पद्य फिरभी आगे आये हैं, तब उनके पुनः उनका अनुवाद नहीं दिया है । (३) हेमचन्द्र कभी मूल संस्कृत है और उनका प्राकृत वर्णान्तर सूत्र में अथवा वृत्ति में कहता है, पहले संस्कृत शब्द देकर बादमें उनके प्राकृत वर्णान्तर दिये हैं; शब्द पहले रखकर बाद में वह उनके मूल संस्कृत शब्द देता है, शब्दोंके ही संस्कृत प्रतिशब्द देता है; तो कभी वह संस्कृत प्रतिशब्द देता ही नहीं है; पद्योंकी ही संस्कृत छाया उसने नहीं दी है । नहीं देता है, केवल उन्हीं स्थानोंपर संस्कृत प्राकृत वैकल्पिक शब्दों के बारेमें संस्कृत शब्द है । क्वचित् अनुवाद में भी उस प्राकृत शब्द के बाद संस्कृत प्रतिशब्द कोष्ठक में दिया है । जब पिछले प्राकृत शब्द अथवा पद्य आगे पुनः आते हैं, तब यहाँ उनके मूल संस्कृत शब्द ( या छाया ) बहुधा पुनः नहीं दिये हैं। प्राकृत अव्ययों का प्रयोग जिसमें है ऐसे शब्द समूहके अथवा पद्य के बारेमें, संस्कृत प्रतिशब्द देते समय प्राकृत के अव्ययभी कोष्ठक में रखे हैं; उनके समानार्थी संस्कृत शब्दभी कभी-कभी कोष्ठक में रखे हैं । प्राकृत शब्दरूप के विभाग में केवल मूल संस्कृत शब्दही फुटनोटमें दिया है । और फुटनोट में भी आवश्यक स्थानोंपर अगले - पिक्षले सूत्रोंके सन्दर्भ निर्दिष्ट किये । ( ४ ) तान्त्रिक / पारिभाषिक इत्यादि शब्दोंका तथा अन्य आवश्यक स्पष्टीकरण अन्तको टिप्पणियों में दिया है । पद्यात्मक उदाहरणोंका अनुवादभी टिप्पणियों में दिया है। टिप्पणियों में अनेक बार मराठी - हिन्दी में से सदृश शब्द दिये हैं । जिनपर एक बार टिप्पणी की गई है उनपर प्रायः टिप्पणी नहीं की गई है, परन्तु कभी-कभी टिप्पणियोंके अगले - पिछले सन्दर्भ निर्दिष्ट किए हैं। रूप इत्यादि के स्पष्टीकरण के लिए और अन्य कुछ कारणोंके लिए टिप्पणियों में पिछले सूत्रों के सन्दर्भ दिये गये हैं । ( ५ ) सूत्रों के सन्दर्भ देते समय, सूत्रका अनुक्रमांक और अनन्तर उस सूत्र के नीचे होनेवाला उस निर्दिष्ट किया है । इसलिए जहाँ हेमचन्द्र मूल संस्कृत शब्द शब्द पृष्ठके नीचे फुटनोट में दिया है । केवल एक बारही फुटनोटमें दिया अनेक बार अगले पहले पाद, फिर पद्यका क्रमांक Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १२ ) आभारप्रदर्शन प्रस्तुत लेखनके लिए भ० स० श्रीदासराम महाराज केलकरजीके शुभाशीर्याद हैं । मूलग्रन्थ में से कुछ तान्त्रिक शब्दोंका स्पष्टीकरण मा० प्रा० डॉ० प० ल० वैद्यजी ने अतिस्नेहभावसे किया; मैं उन्हें धन्यवाद देता हूँ । मेरे इस अनुवाद में से हिन्दी भाषाका सुधार और जाँच कार्य विलिंग्डन महाविद्यालय के हिन्दी के प्रधान प्राध्यापक श्री अ० अ० दातारजीने बड़ी आस्थापूर्वक अपना बहुमूल्य समय खर्च करके किया है जिसके लिए मैं उनका अत्यन्त आभारी हूँ । इस ग्रन्थ के कुछ अन्य कार्य में सहायता करनेवाली मेरी क्त्नी सौ० मायादेवी तथा मेरा पुत्र श्री नारायण इनकाभी मैं आभारी हूँ । इस लेखनकार्य में जिन पूर्वसूरियोंके ग्रन्थोंका मुझे उपयोग हुआ उन सबका में ऋणी हूँ । चौखम्भा संस्कृत संस्थान इस ग्रन्थको प्रकाशित कर रहा है; इसलिए उसके पदाधिकारियोंका में अत्यन्त ऋणी हूँ । सम्भव है कि इस ग्रन्थ में कुछ त्रुटियां और मुद्रणदोष रहे होंगे। वे क्षमादृष्टिसे देखे जाएँ ऐसी प्रार्थना है । सांगली के० वा० आपटे Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फुटनोट्स : प्रस्तावना - प्राकृत व्याकरणपर अनेक ग्रन्थ हैं । उदा० -- चण्डकृत प्राकृतलक्षय, वररुचिकृत प्राकृतप्रकाश, त्रिविक्रमरचिग प्राकृतशब्दानुशासन, मार्कंडेयप्रणीत प्राकृतसर्वस्व इत्यादि । २ - प्रकृतिः संस्कृतं तत्र भवं तत आगतं वा प्राकृतम् ( हेमचन्द्र ), प्रकृति: संस्कृतं, तत्र भवं प्राकृतमुच्यते ( मार्कंडेय ) । ३- - प्राकृतस्य तु सर्द एव संस्कृतं योनि प्राकृतसंजीवनी), प्रकृतेः संस्कृतायास्तु विकृतिः प्राकृती मता ( षभाषाचन्द्रिका) । - प्रकृत्या स्वभावेन सिद्धं प्राकृतम् । ५ - प्रकृतीनां साधारणजनानां इदं प्राकृतम् । ६ - सकलजगज्जैतूनां व्याकरणादिभिः अनाहितसंस्कारः सहजो वचनव्यापारः प्रकृतिः तत्र भवं सा एव वा, प्राकृतम् ( नमिसाधु ) | } ४ ७ - प्राक् पूर्व कृतं प्राक्कृवं बालमहिलादिसुबोधं सकलभाषानिबन्धनभूतं वचनं उच्यते (नभिसाधु) । ८ --- षड्विधा सा व प्राकृती च शौरसेनी च मागधी ! पैशाची चूलिकापैशाच्यपभ्रंश इति क्रमात् ॥ लक्ष्मीधर -मागध्यवन्तिजा प्राच्या शौरसेन्यर्धमागधी । 'हलका दाक्षिणात्या च सप्तभाषाः प्रकीर्तिताः ॥ भरत ✪- - दाक्षिणात्या प्राकृतका निर्देश भरतने किया है । उसके वारे में मार्कंडेय कहता है: -- दाक्षिणात्या भाषाका लक्षण और उदाहरण कहीं भी नहीं दिखाई देते हैं (दाक्षिणात्यावास्तु न लक्षणं नोदाहरणं च कुत्रचिद् दृश्यते ) । ११ – आवन्ती स्यान्माहाराष्ट्रो-शौरसेन्योस्तु संकरात् । मार्कंडेय १२ - प्राच्यासिद्धिः शौरसेन्याः ( मार्कंडेय ! | १३- आवन्त्यामेव बाह लोकी किन्तु रस्यात्र लो भवेत् । मार्कंडेय । १४ – विशेषो मागव्या: ( पुरुषोत्तमः); मागध्या - शाकारी (मार्कंडेय ) । १५ - चाण्डाली मागवी- शौरसेनीभ्यां प्रायशो भवेत् । मार्कंडेय | १६ - मागधी - विकृतिः । पुरुषोत्तमदेव | Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ( १४ ) १७---श' बरी च मागधी-विशेषः(पुरुषोत्तम);चाण्डाल्याः शाबरीसिद्धिः(मार्कडेय)। १८-अ भीर्यप्येवं स्यात् क्त्व इअ-उनी मात्यपभ्रंशः । मार्कंडेय । १९--- टाको स्यात् संस्कृतं शौरसेनी चान्योन्यमिश्रिते । मार्कंडेय । २०-अर्षे हि सर्वे विधयो विकल्प्यन्ते । हेमचन्द्र । २१ ---जिन्हें पाश्चात्य पंडित जैन माहाराष्ट्री और जैन शौरसेनी नामों से पुतारते हैं, बे अनुक्रमसे माहाराण्ट्री और अर्धमागधीका मिश्रण, तथा शीरसेनी--अर्धमागधीका मिश्रण हैं । २२---सर्वासु भाषास्विह हेतुभूतां भाषां महाराष्ट्रभूवा पुरस्तात् । नि रूपयिष्यामि यथोपदेशं श्री रामशाहमिमा प्रयत्नात् ॥ रामशमंतर्कवागीश । २३-त । सर्वभाषोपयोगित्वात् प्रथम माहाराष्ट्रीभाषा अनुशिष्यते मार्कंडेय । २४-~यत पि "पोराण मद्धमागहभासानियमं हवइ सुत्तं' इत्यादिना आर्षस्य अमागधभाषानियतत्व माम्नायि वृद्धस्तदपि प्रायोस्यैव विधानान्न वश्यमाणलक्षणस्य । २५---आ भीरादिगिरः काव्येष्वपभ्रंशतया स्मृताः । शात्रे त संस्कृतादन्यदपभ्रंशतयोदितम् ॥ दंडिन् । २६----अप भ्रंशस्तु यच्द्धं तत्तद्देशेषु भाषितम् ॥ वाग्भट । Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हेमचन्द्रकृत प्राकृत व्याकरण Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः पादः अथ प्राकृतम् ।। १ ।। अथशब्द आनन्तर्यार्थोऽधिकारार्थश्च । प्रकृतिः संस्कृतम् । तत्र भवं तत आगतं वा प्राकृतम् । संस्कृतानन्तरं प्राकृतमधिक्रियते। संस्कृतानन्तरं च प्राकृतस्यानुशासनं सिद्धसाध्यमानभेदसंस्कृतयोनेरेव तस्य लक्षणं न देश्यस्य इति ज्ञापनार्थम् । संस्कृतसमं तु संस्कृतलक्षणेनैव गतार्थम् । प्राकृते च प्रकृतिप्रत्ययलिङ्गकारकसमाससंज्ञादयः संस्कृतवद् वेदितव्याः। लोकाद् इति च वर्तते। तेन ऋऋलुलऐऔङञशषविसर्जनीयप्लुतवों वर्णसमाम्नायो लोकाद् अवगन्तव्यः । ङौ स्ववर्यसंयुक्तौ भवत एव । ऐदौतौ च केषांचित् । कैतवम् कैअवं । सौन्दर्यम् सौंअरि। कौरवाः कौरवा । तथा अस्वरं व्यञ्जनं द्विवचनं चतुर्थीबहुवचनं च न भवति ॥ १॥ ( सूत्र में ) 'अप' शब्द 'अनन्तर' अर्थ में था ( नूतन विषय का ) 'आरम्भ' अर्थ में प्रयुक्त है। प्रकृति यानी संस्कृत ( भाषा ) । वहाँ ( यानी संस्कृत में ) हुआ अथवा बहाँ से ( = संस्कृत से ) आया हुआ ( यानी उत्पन्न हुआ) प्राकृत है । संस्कृत के अनन्तर प्राकृत का प्रारम्भ किया जाता है । सिद्ध और साध्यमान ( ऐसे दो प्रकार के ) शब्द होनेवाला संस्कृत जिसका मूल ( = योनि ) है, वह प्राकृत ऐसा उस प्राकृत का लक्षण है और यह लक्षण देश्य का नहीं, इस बात का बोध करने के लिए 'संस्कृत के अनन्तर प्राकृत का विवेचन' ( ऐसा कहा है )। तथापि जो प्राकृत संस्कृत-समान है वह ( पहले कहे हए ! संस्कृत के व्याकरण से ज्ञात हुआ है। तथा प्राकृत में प्रकृति, प्रत्यय, लिंग, कारक, समास, संज्ञा, इत्यादि संस्कृत के अनुसार होते हैं ऐसा जाने। और लोगों से' ( - लोगों के व्यवहार से ) यह भी ( यहाँ अध्याहृत है)। इसलिए ऋ, ऋ, लू, ल, ऐ और औ, ङ्, ञ् , श् , और , विसर्ग तथा प्लुत छोड़कर ( प्राकृत में अन्य ) वर्ण समूह लोगों के व्यवहार से जानना है। अपने वर्ग के व्यंजन से संयुक्त रहनेवाले ङ और ञ् वर्ण ( प्राकृत में ) होते ही हैं; और कुछ लोगों के मतानुसार ऐ और औ ( ये स्वर भी प्राकृत में होते हैं )। उदा.- कैतवम् .. .. 'कोरवा । तथा स्वररहित व्यंजन, द्विवचन और चतुर्थी बहुवचन ( ये भी प्राकृत में ) नहीं होते हैं ॥ १ ॥ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बहुलम् ॥ २ ॥ बहुलम् इत्यधिकृतं वेदितव्यम् आ शास्त्रपरिसमाप्तेः । ततश्च क्वचित् प्रवृत्तिः क्वचिद् अप्रवृत्तिः क्वचिद् विभाषा क्वचिद् अभ्यदेव भवति । तच्च यथास्थानं दर्शयिष्यामः ॥ २ ॥ प्रथमः पादः ( प्रस्तुत व्याकरण ) शास्त्र के समाप्ति तक 'बहुल' का अधिकार है ऐसा जाने । और इसलिए ( इस शास्त्र में कहे हुए नियम इत्यादि की ) क्वचित् प्रवृत्ति होती है, क्वचित् ( वैसी ) प्रवृत्ति नहीं होती है, क्वचित् विकल्प होता है, और क्वचित् ( नियम में कथित से) भिन्न कुछ ( रूप या वर्णान्तर ) होता है । और वह हम योग्य स्थान पर बताएंगे ॥ २ ॥ आर्षम् ॥ ३ ॥ ऋषीणाम् इदं आषम् । आषं प्राकृतं बहुलं भवति । तदपि यथास्थानं दर्शयिष्यामः | आर्षे हि सर्वे विधयो विकल्प्यन्ते ॥ ३ ॥ ऋषियों का यह ( वह ) आर्ष ( प्राकृत ) है । भर्ष प्राकृत बहुल है। वह भी हम योग्य स्थान पर दिखाएंगे । ( प्रस्तुत व्याकरण में दिये हुए ) सर्व नियम आर्ण प्राकृत में बिकल्प से लगते हैं | ३ || दीर्घस्वौ मिथो वृत्तौ ॥ ४ ॥ १ वृत्तौ समासे स्वराणां दीर्घह्रस्वौ बहुलं भवतः । मिथः परस्परम् । तत्र ह्रस्वस्य दीर्घः । अन्तर्वेदिः अन्तावेई । सप्तविंशतिः सत्तावीसा | क्वचिन्न भवति । जुवइ - ' जणो । क्वषिद् विकल्पः । वारीमई वारिमई । भुभयन्त्रम् भुआयन्तं भुञ्जयन्तं । पतिगृहम् पईहरं पड़हरं । वेलूवणं वेलुवणं । दीर्घस्य ह्रस्वः । निअम्ब सिल ४ - खलिअ - वीइमालस्स | क्वचिद् विकल्पः । जउँणय * जउँणायडं । नइ * सोत्तं नईसोत्तं । गोरि हरं गोरीहरं । वहुमुहं वहूमुहं । १. युवतिजन । ३. वेणुवन । ५. यमुना तट । ७. गौरीगृह । वृत्ति में यानी समास में ( आदिम पद के अन्त्य ह्रस्व या दीर्घ ) स्वरों के दीर्घ और ह्रस्व स्वर बहुलत्व से होते हैं । ( सूत्र में से ) मिथ: ( शब्द का अर्थ ) परस्पर में है ( यानी ह्रस्व स्वर का दीर्घ स्वर होता है और दीर्घ स्वर का ह्रस्व स्वर होता है ) । उनमें - ह्रस्व स्वर का दीर्घं ( होने का उदाहरण ) : - अन्तर्वेदि सत्तावीसा । क्वचित् ( ह्रस्व स्वर का दोर्घ स्वर ) नहीं होता है । उदा० - जुवइ c २. वारिमति । ४. नितम्ब - शिला स्खलित वीचि - मालस्य । ६. नदी-स्रोतस् । ८. बधूमुख । Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरणे ) बारी जणो । क्वचित् विकल्प से ( ह्रस्व स्वर का दीर्घ स्वर होता है । उदा०-मई... वेलवणं । ( अब ) दीर्घ स्वर का ह्रस्व स्वर ( होने का उदाहरण :- -) निअम्ब 'मालस्स । क्वचित् विकल्प से ( दीर्घ स्वर का ह्रस्व स्वर होता है । ( उदा०- ) जउँणयडं.. "बहूमुहं । ... पदयोः सन्धिर्वा ॥ ५ ॥ 3 संस्कृतोक्तः सन्धिः सर्वः प्राकृते पदयोर्व्यवस्थितविभाषया भवति । वासेसी वास- ' इसी । विसमायवो विसम - आयवो । दहीसरो दहि - ईसरो । साऊअयं * साउ-उअयं । पदयोरिति किम् । " पाओ । पई । " वच्छाओ । मुद्धाइ । मुद्धाए । महइ । महए । बहुलाधिकारात् क्वचिद् एक- पदेपि । काही । " बिईओ बीओ | 10 ११ काहि संस्कृत ( व्याकरण ) में कही हुईं सर्व संधियाँ आकृत में दो पदों में व्यवस्थितविभाषा से होती हैं । उदा- वासेसी साउ - उभयं । ( सूत्र में ) दो पदों में ( संधि होती है ) ऐसा क्यों कहा है ? ( कारण एक ही पद के दो स्वरों में प्रायः संधि नहीं होती हैं । उदा० ) पाओ महए । तथापि बहुल का अधिकार होने से क्वचित् एक पद में भी ( दो स्वरों में संधि होती है । उदा० ) काहिइ बीओ | न युवर्णस्यास्वे ॥ वर्णस्य च उवर्णस्य च अस्वे वर्णे परे सन्धिर्न भवति । न वेरिवग्गे बि भवयासी । वन्दामि 3 अज्ज - वइरं । १. व्यास ऋषि । ३. दधि - ईश्वर । दणु इन्द १४ रुहिर - लित्तो सहइ उइन्दो नह- प्पहावलि - अरुणो । संझा- वहु-अवऊढो णववारिहरो व्व विज्जुला - डिभिन्न ॥ १ ॥ ६ ॥ १४. दनुजेन्द्ररुधिरलिप्तः शोभते उपेन्द्रो सन्ध्याबधूपगूढो नववारिधर इव ५. पाद । ७. वत्स या वसस् का पंचमी एक वचन है । ८. मुग्धा का तृतीया इत्यादि का एक वचन है । ९. कांक्ष धातु का आदेश मह है ( ४.१९२); उसका वर्तमानकाल तृतीयपुरुष एकवचन । १०. कर धातु का भविष्यकाल तृतीय पुरुष एकवचन । ११. द्वितीय । १२. न वैरिवर्गेऽप्यवकाशः । २. विषम आतप । ४. स्वादु-उदक ! ६. पति १३. वन्दे आर्यवज्रम् | नखप्रभावल्यरुणः । विद्युत् प्रतिभिन्नः ॥ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः पादः यूवर्णस्येति किम् । गूढोअर' - तामरसाणुसारिणी भमरपन्ति व्व ॥ ५ ॥ अस्व इति किम् । पुहवीसो । इ-वर्ण और उ-वर्ण इनके आगे विजातीय स्वर होने पर संधि नहीं होती है । उदा०--न वेरि पडिभिन्नो । इ-वर्ण और उ-वर्ण के ( आगे आने वाले विजातीय स्वर से संधि नहीं होती है। ऐसा क्यों कहा है ? ( कारण उनके आगे दिए वैसी संधियाँ शक्य होती हैं -- ) गूढोअर पति व्व । ( सूत्र में ) विजातीय स्वर ( आगे रहने पर | ऐसा क्यों कहा है ? ( कारण इ और उ के आगे होने वाले सजातीय स्वर से संधि शक्य होती है । उदा०- ) पुहवीसो । एदोतोः स्वरे ॥ ७ ॥ एकार- ओकारयोः स्वरे परे सन्धिर्न भवति । वहुआइ नहल्लिने आबन्धन्तीएं कञ्चुअं अंगे । मयरद्धय सरधोरणिधाराछेअ व्व दीसन्ति ॥ १ ॥ अपज्जत्तेभकलभदन्तावहासमूरुजुअं । उवमासु तं चैव मलिअबिसदण्डविरसमालक्खिमो एहि ॥ २ ॥ अहो ' अच्छरिअं । एदोतोरिति किम् । अथालोअणतरला इअरकईणं भमन्ति बुद्धीओ । अत्थ च्चेअ निरारम्भमेन्ति हिअयं कइन्दाणं ॥ ३ ॥ एकार ( = ए ) और ओकार ( = ओ ) के आगे स्वर होने पर संधि नहीं होती है । उदा० - बहुआ "अच्छरिअं । ए और ओ स्वरों की, ऐसा सूत्र में क्यों कहा है ? ( कारण ए और ओ स्वर छोडकर अ इत्यादि स्वरों के आगे आने बाले स्वर से संधि हो सकती है । उदा ) अत्थालोअणकइन्द्राणं । - १. गूढोदर तामरसानुसारिणी भ्रमरपंक्तिरिव । २. पुहबी + ईसी ( पृथ्वी + ईश ) । ३. वध्वा नखोल्लेखने आबध्नत्या कबुकमङ्गे । मकरध्वजशरधोरणिधारा छेदा इव दृश्यन्ते । १ । ४. उपमासु अपर्याप्तभकलमदन्ता बभास मूरुयुगम् । तदेन मृदितसिदण्ड विरसमालक्षषामह इदानीम् ॥२॥ ५. अहो आश्चर्यम् । ६. अर्थालोचनतरला इतरकवीनां भ्रमन्ति बुद्धयः । अर्धा एव निरारम्भं यन्ति हृदयं कवीन्द्राणाम् ॥ ३ ॥ Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतन्याकरणे स्वरस्योवृत्ते ॥८॥ व्यञ्जनसंपृक्तः स्वरो व्यञ्जने लुप्ते योवशिष्यते स उद्वृत्त इहोच्यते। स्वरस्य उवृत्ते स्वरे परे सन्धिर्न भवति । विससिज्जन्तमहापसुदंसणसम्भमपरोप्परारूढा । गयणे च्चिअ गन्धउडि कुणन्ति तुह कउलणारीओ ॥ १॥ निसामरोनिसिअरो। रयणी अरो। मणु अत्तं । बहुलाधिकारात् क्वचिद् विकल्पः। कुम्भआरो" कुम्भारो। सु-उरिसो सूरिसो। क्वचित् सन्धिरेव । साला हणो। चक्काओ । अतएव प्रतिषेधात् समासेऽपि स्वरस्य सन्धौ भिन्नपदत्वम्। ( शब्द में ) एकाध व्यंजन का लोप होने पर, उस व्यंजन से संपृक्त होनेवाला जो स्वर शेषाअवशिष्ट रहता है, उसको यहां उद्धृत्त कहा है । शब्द में एकाध स्वर के आगे उद्वृत्त स्वर होने पर ( उन दो स्वरों की ) संधि नहीं होती है। उदा.विससिज्जंत..... 'मणुअत्तं । बहुल का अधिकार होने से क्वचित् विकल्प ( यानी विकल्प से संधि ) होता है। उदा.--कुम्भमारो....."सूरिसो। क्वचित् संधि हो होती है । उदा० ..सालाहणो, चक्काओ । इसलिए ( संधि का ) ऐसा निषेध होने से, समास में भी स्वर-संधि के बारे में भिन्न पद माने जाते हैं। - त्यादेः॥९॥ तिबादीनां स्वरस्य स्वरे परे सन्धिर्न भवति । भवति इह होइ इह । धातु में लगने वाले प्रत्यय इत्यादि में, अन्त्य स्वर के आगे स्वर होने पर संधि नहीं होतो है। उदा० --भवति'... "इह । लुक् ॥ १०॥ स्वरस्य स्वरे परे बहुलं लुग भवति । त्रिदशैशः तिअसीसो। निःश्वासोच्छ्वासौ नीसासूसासा। एकाध स्वर के आगे ( दूसरा ) स्वर होने पर, बहुलत्व से (पूर्व रहने वाले स्वर का) लोप होता है। उदा.-त्रिदशेश""""सूसासा । १. विशस्यमानमहापशुदर्शन संभ्रमपरस्परारूढाः । गगम एव गंधकु (पु) टी कुर्वन्ति तव कौलनार्यः ।। २. निशाचर निशाकर। ३. रजनीकर रजनीचर ४. मनुजत्व । ५. कुम्भकार। ६. सुपुरुष । ७. शातवाहन । ४. चक्रवाक। Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः पादः अन्त्यव्यञ्जनस्य ॥ ११ ॥ शब्दानां यद् अन्त्यव्यञ्जनं तस्य लुग् भवति । जाव' । ताव। जसो । तमो । जम्मो । समासे तु वाक्यविभक्तयपेक्षायाम् अन्त्यत्वं अनन्त्यत्वं च । नोभयमपि भवति । सद्भिक्षुः सभिक्खू । सज्जनः सज्जणो । एतद्गुणाः एअगुणा । तद्गुणाः तग्गुणा । शब्दों का जो अन्त्य व्यंजन होता है उसका लोप होता है । उदा० - जाय नम्मो । परंतु समास में वाक्यविभक्ति की अपेक्षा होने पर ( समास के आदिम पद का अन्त्य व्यंजन ) कभी अन्त्य माना जाता है तो कभी अनन्त्य माना जाता है । इसलिए दोनों भी होते हैं ( यानी कभी उसका लोप होता है तो कभी वह वैसे ही रहकर अनंतर योग्य वर्णान्तर होता है । उदा०- ) सद्भिक्षुग्गुणा । न श्रदुदोः ।। १२ ।। श्रद् उद् इत्येतयोरन्त्यव्यञ्जनस्य लुग् न भवति । सद्दहिअं । सद्धा । उग्गयं उन्नयं । श्रद् और उद् इन ( शब्दों ) के अन्त्य व्यंजन का लोप नहीं होता है । उदा०सहिअं उन्नयं । निर्दुरोर्वा ।। १३ ।। निर् दुर् इत्येतयोरन्त्यव्यञ्जनस्य वा लुग् भवति । निस्स्सहं नीसहं । दुस्सहो" दूसहो । दुक्खओ " दुहिओ । निर् और दुर् इन ( उपसगों ) में अन्त्य व्यंजन का लोप विकल्प से होता है । उदा० – निस्सह "दुहिओ । स्वरेरन्तरश्च ।। १४ ॥ अन्तरो निदु रोश्चान्त्यव्यञ्जनस्य स्वरे परे लुग् न भवति । अन्त - रप्पा । निरन्तरं । निरवसेसं । दुरुत्तरं । दुरवगाहं । क्वचिद् भवत्यपि । अन्तोवरि । अंतर् ( शब्द तथा ) निर् और दुर् शब्दों में अन्त्य व्यंजन के आगे स्वर होने पर उस अन्त्य व्यंजन का लोप नहीं होता है । उदा० - अंतरप्पा इस अन्त्य व्यंजन का ) क्वचित् लोप होता भी है । उदा० - अन्तोवरि । १. यावत् । तावत् । यशस् । तमस् । जन्मन् । २. श्रद्धित । श्रद्धा । उद्गत | उन्नत ॥ ३. निःसह । ४. दुःसह ५. दुःखित । ६. अन्तरात्मा । निरन्तर । निरवशेष । दुरुत्तर । दुरवगाह । ७. अंतर- उपरि । दुरबगाहं । ( परंतु Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरणे स्त्रियामादविद्युतः ॥ १५ ॥ स्त्रियां वर्तमानस्य शब्दस्यान्त्यव्यञ्जनस्य आत्वं भवति । विद्युच्छब्दं वर्जयित्वा । लुगपवादः । सरित् सरिआ। प्रतिपद् पाडिवआ। सम्पद् सम्पआ। बहुलाधिकाराद् ईषत्स्पृष्टतरयश्रुतिरपि। सरिया। पाडिवया । सम्पया। अविद्युत इति किम् । विज्जू । विद्य त् शब्द छोडकर, अन्य स्त्रीलिंगी शब्दों में अन्त्य व्यंजन का था होता है। अन्त्य व्यंजन का लोप होता है ( १.११ ) इस नियम का अपवाद प्रस्तुत नियम है । उदा०-सरित्..... संपआ। बहुल का अधिकार होने से ( यहां आने वाले आ स्वर के उच्चारण की ध्वनि ) किचित् प्रयत्न से उच्चारित य् व्यंजन जैसी भी सुनाई देती है । उदा०-सरिया....'संपया । ( सूत्र में ) विद्युत् शब्द छोड़कर ऐसा क्यों कहा है ? ( कारण विद्युत् शब्द के अन्त्य व्यंजन का 'आ' न होते उसका लोप होता है । उदा.-) विज्जू। रोरा ॥१६॥ स्त्रियां वर्तमानस्यान्त्यस्य रेफस्य रा इत्यादेशो भवति । आत्त्वापवादः । गिरा। धुरा । पुरा। स्त्रीलिंगी शब्दों में अन्त्य रेफ को ( = र् व्यंजन को ) रा आदेश होता है। (स्त्रीलिंगी शब्दों में अन्त्य व्यंजन का ) आ होता है ( १.१५ ) इस नियम का अपवाद प्रस्तुत नियम है । उदा०-गिरा...""पुरा । क्षुदो हा ॥ १७॥ क्षुध शब्दस्यान्त्यव्यञ्जनस्य हादेशो भवति । छुहा । क्षुध् शब्द के अन्त्य व्यंजन को हा आदेश होता है । उदा०-छुहा । शरदादेरत् ॥ १८ ॥ शरदादेरन्त्यव्यञ्जनस्य अत् भवति । शरद् सरओ। भिषक् भिसओ । शरद् इत्यादि शब्दों के अन्त्य ग्यंजन का अ होता है । उदा०-शरद् भिसओ । दिक प्रावृषोः सः ॥ १६ ॥ एतयोरन्त्यव्यञ्जनस्य सो भवति । दिसा । पाउसो। (दिश् और प्रावृष् ) इन दोनों के अन्स्य व्यंजन का स होता हैं । उदा०दिसा, पाउसो। १. गिर् । धुर् । पुर् । Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः पादः आधुरप्सरसोर्वा ।। २०॥ एतयोरन्त्यव्यञ्जनस्य सो वा भवति । दीहाउसो दीहाऊ'। अच्छरसा अच्छरा। ( आयुस् और अप्सरस् ) इन ( दोनों) के अन्त्य व्यंजन का विकल्प से स होता है। उदा०--दीहाउसो'... 'अच्छरा । ककुभो हः ॥ २१ ॥ ककुभशब्दस्यान्त्यव्यञ्जनस्य हो भवति । कउहा। ककुभ् शब्द के अन्त्य व्यंजन का ह होता है । उदा०-कउहा । धनुषो वा ॥ २२ ॥ धनुः शब्दस्यान्त्यव्यञ्जनस्य हो वा भवति । धणुहं । धण । धनुस् शब्द के अन्त्य व्यंजन का विकल्प से ह होता है। उदा०-धणह, धण । मोऽनुस्वारः ॥ २३ ॥ अन्त्यमकारस्यानुस्वारो भवति । जलं फलं वच्छं गिरि पेच्छ । क्वचिद् अनन्त्यस्यापि । वणम्मि वर्णमि । अन्त्य मकार का अनुस्वार होता है। उदा०---जलं.... 'पेच्छ । क्वचित् अन्त्य न होने वाले मकार का भी अनुस्वार होता है । उदा० ----वम्मि वर्णमि । वा स्वरे मश्च ॥ २४ ॥ अन्त्यमकारस्य स्वरे परेऽनुस्वारो वा भवति । पक्षे लगपवादो मस्य मकारश्च भवति। वंदे उसभं भजिअं । उसभमजिअं च वन्दे । बहुलाधिकाराद् अन्यस्यापि व्यञ्जनस्य मकारः। साक्षात् सक्खं । यत् । तत् तं । विष्वक् वीसू । पृथक पिहं। सम्यक सम्म । इह" इहयं । माले ठुअं इत्यादि। ___ आगे स्वर होने पर अन्त्य मकार का विकल्प से अनुस्वार होता है। विकल्प पक्ष में ( अन्त्य व्यंजन का ) लोप होता है ( १.११ ) इस नियम का अपवाद (प्रस्तुत नियम ) है । और म् का मकार होता है ( यानी विकल्प से म् में अगला स्वर संपृक्त १. दीर्घायुस् । अप्सरस्। २. पेच्छ शब्द दृश् धातु का आदेश है ( सूत्र ४.१८१ देखिए )। ३. बन । ४. वन्दे ऋषभं अजितम् । ६. आश्लेष्टुम् । Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरणे हो जाता है )। उदा.-वंदे...""वंदे । बहुल का अधिकार होने से अन्य कछ व्यंजनों का भी मकार (=अनुस्वार) होता है । उदा०---साक्षात्""आलेठुझं इत्यादि। अणनो व्यञ्जने ॥ २५ ॥ ङ अ ण न इत्येतेषां स्थाने व्यञ्जने परे अनुस्वारो भवति । ङ। पक्तिः पन्तो। पराङ्मुखः । परंमुहो। ।। कञ्चुकः कंचुको। लाञ्छनम् लंछणं । ण । षण्मुखः छंमुहो। उत्कंठा उक्कंठा। न । सन्ध्या संझा। विन्ध्यः विझो। आगे व्यंजन होने पर, ङ् ञ् ण् और न इनके स्थान पर अनुस्वार होता है। उदा०-ङ् ( के स्थान पर )--पङ्क्तिः ""''परंमुहो । ञ् ( के स्थान पर )-- कञ्चकः....."लंछणं । ण् ( के स्थान पर )-षण्मुखः....."उक्कंठा। न (के स्थान पर )- सन्ध्या ....."विझो । __ वक्रादावन्तः ॥ २६ ॥ वक्रादिषु यथादर्शनं प्रथमादेः स्वरस्य अन्त आगमरूपोऽनुस्वारो भवति । वंकं । तंसं । अंसं । मंसू । पुंछं। गुंछं। मुंढा । पंसू । बुधं । कंकोडो। कंपलं । दंसणं । विछिओ। गिंठी । मंजारो। एष्वाद्यस्य। वयंसो। मणंसी। मणंसिणी। मणंसिला। पडंसुआ। एषु द्वितीयस्य । अवरि। अणिउँतयं । अइमुंतयं । अनयोस्तृतीयस्य । वक्र । व्यस्र। अश्रु। श्मश्रु । पुच्छ। गुच्छ । मूर्धन् । पर्श । बुध्न । कर्कोट । कूटमल । दर्शन । वृश्चिक । गृष्टि । मार्जार । वयस्य । मनस्विन् । मनस्विनी। मनःशिला । प्रतिश्रुत् । उपरि । अतिमुक्तक । इत्यादि। क्वचिच्छंदःपूरणेपि । देवं नाग-सूवण्ण। क्वचिन्न भवति । गिट्ठी। मज्जारो । मणसिला मणासिला। आर्षे। उमणोसिला। अइ मुत्तयं । वक्र इत्यादि शब्दों में, जैसा ( साहित्य में ) दिखाई देगा वैसा, प्रथम इत्यादि स्वरों के आगे (शब्दशः- अन्त में ) आगम रूप अनुस्वार ( = अनुस्वार का आगम ) होता है। उदा.-- ... .."मंजारो इन शब्दों में प्रथम स्वर के आगे ( अनुस्वार का आगम हुआ है )। वयंसो'.. ''पडंसुमा इन शब्दों में दूसरे स्वर के अनन्तर ( अनुस्वारागम होता है)। अवर ( और ) अणिउँतयं । अइमंतयं इम दो शब्दों में तीसरे स्वर के उपरान्त ( अनुस्वारागम दिखाई देता है)। ( अब तक कहे हुए शब्दों के मूल संस्कृत शब्द ऐसे हैं :-) वक्र'..."मतिमुक्तक, इत्यादि । १. देवनाग सुवर्ण। २. गृष्टि, मार्जार, मनःशिला। ३. मनःशिला, अतिमुक्तक । Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः पादः क्वचित् छन्दःपूरण के लिए भी ( अनुस्वारागम होता है। उदा.-) देवनाग सुवण्ण । क्वचित् ( उपर दिए गए कुछ शब्दों में अनुस्वारागम ) नहीं भी होता है । उदा.-गिट्ठी 'मणासिला । आर्ण प्राकृत में (कुछ शब्दों के वर्णान्तर ऐसे होते हैं)मणोसिला अइमुत्तयं । क्वास्यादेर्णस्वार्वा ॥ २७ ॥ क्त्वायाः स्यादीनां च यौ णसू तयोरनुस्वारोन्तो वा भवति । क्त्वा । 'काऊणं काऊण। काउआणं काउआण । स्यादि । वच्छेणं वच्छेण । वच्छेसं वच्छेसु । णस्वोरिति किम् । १ करिअ । अग्गिणो। क्त्वा ( प्रत्यय ) और विभक्ति प्रत्यय इनमें जो 'ण' और 'सु' आते हैं, उनके अन्त में (यानी उनके ऊपर ) विकल्प से अनुस्वार आता है। उदा-त्वाप्रत्यय में :-काऊणं... .. काउआण । विभक्ति प्रत्यय में :-वच्छेणं...." वच्छेसु । ( सूत्र में ) ण और सु के बारे में (अनुस्वार आता है) ऐसा क्यों कहा है ? (कारण जहाँ ण और सु नहीं होते हैं वहाँ अनुस्वारागम नहीं होता है । उदा-); करिम; अग्गिणो। विंशत्यादेर्लुक् ॥ २८॥ विंशत्यादीनां अनुस्वारस्य लुग भवति । विंशतिः वीसा। त्रिंशत् तीसा। संस्कृतम् सक्कयं । संस्कारः सक्कारो । इत्यादि । विशति इत्यादि शब्दों में अनुस्वार का लोप होता है। उदा.-विंशति...... सक्कारो, इत्यादि । मांसादेर्वा ॥ २६ ॥ मांसादीनामनुस्वारस्य लुग् वा भवति। मासं मंसं । मासलं मंसलं। कासं कंसं। पासू पंसू। कह कह। एव एवं । नूण नूणं । इक्षाणि इआणि, दाणि दाणि। कि "करेमि कि करेमि । समुहं संमुहं । केसुअं किसुअं। सीहो सिंघो । मांस । मांसल। कांस्य । पांसु। कथम् । एवम् । नूनम् । इदानीम् । किम् । संमुख । किशुक । सिंह । इत्यादि । १. काऊणं... ..'काउआण और करिअ ये सर्व कर धातु के पूर्वकाल वाचक धातुसाधित अव्यय हैं। २. वच्छ शब्द का तृतीया एकवचन । ३. वच्छ शब्द का सप्तमी अनेक वचन । ४. अग्गि ( अग्नि ) शब्द का प्रथमा अनेक वचन, इत्यादि ( सूत्र ३.२३ देखिए)। ५. कर धातु का वर्तमान काल प्रथम पुरुष एक बचन । Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरणे मांस इत्यादि शब्दों में अनुस्वार का लोप विकल्प से होता है। उदा:-- मासं...... सिंघो। (इन शब्दों के मूल संस्कृत शब्द ऐसे हैं-) मांस' सिंह, इत्यादि । वर्गन्त्यो वा ॥ ३०॥ अनुस्वारस्य वर्गे परे प्रत्यासत्तेस्तस्यैव वर्गस्यान्त्यो वा भवति । पङ्को' पंको। सङ्खो संखो। अङ्गणं अंगणं । लङ्घणं लंघणं । कञ्चुओ कंचुओ। लन्छणं लंछणं। अञ्जिअं अंजिअं। सञ्झा संझा। कण्टओ कंटओ। उक्कण्ठा उक्कंठा । कण्डं कंडं । सण्ढो संढो । अन्तरं अंतरं। पन्थो पंथो। चन्दो चंदो। बन्धवो बंधवो। कम्पइ कंपइ । वम्फइ वंफई। कलम्बो कलंबो। बारम्भो "आरंभो। वर्ग इति किम् । संसओ६ । संहरइ । नित्यमिच्छन्त्यन्ये । अनुस्वार के आगे वर्गीय व्यंजन होने पर ( उसके ) सांनिध्य से ( अनुस्वार के स्थान पर ) उस ही वर्ग का अन्त्य व्यंजन ( = उस वर्ग का अनुनासिक ) विकल्प से भाता है उदा०-पङ्को...""आरंभो। (सूत्र में) वर्गीय व्यजन (आगे होने पर) ऐसा क्यों कहा है ? (कारण वर्गीय व्यंजन आगे न हो, तो उस वर्ग का अन्त्य व्यंजन विकल्प से नहीं आता है। उदा.--) संसओ, संहरई। कुछ ( वैयाकरणों) के मतानुसार, ( यह वर्गीय अन्त्य व्यंजन विकल्प से न होते ) नित्य आता है। प्रापृट-शरत्तरणयः पुंसि ॥ ३१ ॥ प्रावृष शरद् तरणि इत्येते शब्दाः पंसि पल्लिगे प्रयोक्तव्याः। पाउसो। सरओ । एस- तरणी । तरणि शब्दस्य पुंस्त्रीलिङ्गत्वेन नियमार्थमुपादानम् । प्रावृष्. शरद् ( और ) तरणि ये शब्द पुंसि यानी पुलिंग में प्रयुक्त करे । उदा०पाउसो.....'तरणी । तरणि शब्द ( संस्कृत में ) पुल्लिगी तथा स्त्रीलिंगी होने से, (इस सूत्र में तरणि शब्द का निर्देश ), (यह शब्द प्राकृत में ) निश्चित रूप । पुल्लिगी होता है, यह बात दिखाने के लिए किया है । १. पङ्को से बंधवो तक जो शब्द हैं उनके मूल संस्कृत शब्द ऐसे हैं ----पक, शङ्ख, अङ्गन, लङ्घन, कञ्चक, लाञ्छन, अञ्जित, सन्ध्या, कण्टक, उत्कण्ठा, काण्ड, षण्ढ, अन्तर, पथिन् ( पन्था ), चन्द्र, बान्धव । २. कम्पकंप धातु का वर्तमान काल तृतीय पुरुष एकवचन । ३. वम्फ/वंफ धातु वल् धातु का आदेश है (सूत्र ४.१७६ देखिए) । उसका वर्तमान काल तृतीय पुरुष एकवचन । ४. कदम्ब । ५. आरम्भ । ६. संशय । ७. संहरति । ८. 'तरणी' रूप पुल्लिगी है, यह दिखाने के लिए उसके पीछे एस ( =एषः ) यह एतद् सर्वनाम का पुल्लिगी रूप प्रयुक्त किया है । Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ प्रथमः पादः स्नमदामशिरोनमः ॥ ३२ ॥ दाम शिरस्नभसर्जितं सकारान्तं नकारान्तं च शब्दरूपं सि प्रयोक्तव्यम् । सान्तम् । 'जसो । पओ। तमो । तेओ। उरो । नान्तम् । जम्मो। मम्मो। मम्मो। अदामशिरोनभ इति किम् । दामं । सिरं । नहं । यच्च सेयं वयं सुमणं सम्मं चम्म इति दृश्यते तद् बहुलाधिकारात् । दामन्, शिरस् और नभस् शब्द छोड़कर, अन्य सकारान्त तथा नकारान्त शब्दों के रूप पुलिंगमें प्रयुक्त करे। उदा०----सकारान्त ( शब्द )-जसो....."उरो। नकारान्त (शब्द)---जम्मो....... मम्मो। ( सूत्र में ) दामन्, शिरस्, नभस् छोड़कर ऐसा क्यों कहा है ? ( कारण ये शब्द प्राकृत में नपुंसकलिंग में ही प्रयुक्त होते हैं । उदा०-- ) दाभं.'नहं । और ( साहित्य में ) जो सेयं....."चम्मं ऐसे नपुंसक लिंगी रूप दिखाई देते हैं वे वहल का अधिकार होने के कारण हैं (ऐसा जाने)। वाक्ष्यर्थवचनाद्याः ॥ ३३ ॥ अक्षिपर्याया वचनादयश्च शब्दाः पंसि वा प्रयोक्तव्याः । अक्ष्यर्थाः । अज्ज विसा सवइ ते अच्छी। "नच्चावियाई तेणम्ह अच्छी इं । अञ्जल्यादिपाठादक्षिशब्दः स्त्रीलिङ्गेऽपि । एसा अच्छी। चक्ख 'चक्खूइं। नयणा नयणाई । लोअणा लोअणाई। वचनादि । वयणा" वयणाई। विज्जुणा' विज्जूए । कुलो कुलं । छंदो छंद। माहप्पो माहप्पं । दुक्खा दुक्खाइं। भायणा भायणाई। इत्यादि । इति वचनादयः । नेत्ता नेत्ताई। कमला कमलाई इत्यादि तु संस्कृतवदेव सिद्धम्। ___ अक्षि ( = आँख ) शब्द के समानार्थक शब्द और वचन इत्यादि शब्द विकल्प से पुल्लिग में प्रयुक्त करे । उदा.--- आँख अर्थ होने वाले शब्द :-अब दि. 'अच्छी ई। अक्षि शब्द अञ्जल्यादि-गण में होने से, वह स्त्रीलिंग में भी ( प्रयुक्त होता है । १. क्रम से:--यशम् । पयस् । तमस्। २. जन्मन् । नर्मन् । मर्मन् । तेजस् । उरस । ३. श्रेयस , वचस् / वयस् , सुमनस् , शर्मन्, ४. अद्यापि सा शपति ते अक्षिणो। यहाँ चर्मन् । 'अच्छी' पुंल्लिगी रूप है। ५. नतितानि तेन अस्माकं अक्षीणि । यहाँ ६. यहाँ 'अच्छी' स्त्रीलिंगी रूप है, यह 'अच्छीई' नपुंसकलिंगी रूप है । दिखाने के लिए उसके पीछे 'एसा' ७. चक्षुस् । नयन । लोचन । यहाँ दिए हुए यह एतद् सर्वनाम का स्त्रीलिंगी रूपों में पहला रूप पुल्लिगी है और ___ रूप प्रयुक्त किया गया है। दूसरा नपुंसकलिंगी है। ८. वचन। ९. क्रम से :--विद्युत् । कुल । छंदस् । माहात्म्य । दुःख ! भाजन । १०. क्रम से :- नेत्र । कमल । Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरणे उदा०-) एसा अच्छी। ( आँख अर्थ होने वाले अन्य शब्द :-) चक्खू... .."लो भणाई । वचन इत्यादि शब्दः--वयणा........ भायणाई, इत्यादि; ऐसे ये वचन इत्यादि शब्द होते हैं । ( परन्तु ) नेत्ता... ."कमलाई इत्यादि (पुल्लिगी तथा नपुंसकलिंगी रूप ) तो संस्कृत जैसे सिद्ध हुए हैं । गुणाद्याः क्लीबे वा॥ ३४ ॥ गुणादयः क्लीबे वा प्रयोक्तव्याः । गुणाई गुणा' । विहवेहिँ गुणाई 'मग्गन्ति । देवाणि देवा। बिन्दूई बिन्दुणो । खग्गं खग्गो । मंडलग्गं मंडलग्गो । कररुहं कररुहो । रुक्खाइं रुक्खा । इत्यादि । इति गुणादयः । ____ गुण इत्यादि शब्द विकल्प से नपुंसकलिग में प्रयुक्त करे । उदा.--गुणाई...... रुक्खा, इत्यादि । ऐसे ये गुण इत्यादि शब्द होते हैं । वेमाजल्याद्याः स्त्रियाम् ॥ ३५ ॥ इमान्ताजल्यादयश्च शब्दाः स्त्रियां वा प्रयोक्तव्याः । एसा गरिमा एस गरिमा। असा महिमा एस महिमा। एसा निल्लज्जिमा एस निल्लज्जिमा। एसा धुत्तिमा एस धूत्तिमा। अञ्जल्यादि। एसा' अञ्जली एस अञ्जली एस अञ्जली। पिट्ठी' पिठं । पृष्ठमित्वे कृते स्त्रियामेवेत्यन्ये । अच्छी अच्छि । पण्हा पण्हो। चोरिआ चोरिअं । एवं कुच्छी । बली । निहो । विही । रस्सी । गंठी । इत्यञ्जल्यादयः। गडडा गडडो इति तु संस्कृतवदेव सिद्धम् । इमेति तन्त्रेण त्वादेशस्य डिमा इत्यस्य पृथ्वादीम्नश्च संग्रहः। त्वादेशस्य स्त्रीत्वमेवेच्छन्त्येके । ___ इमन् ( प्रत्यय ) से अन्त होने वाले छब्द और अञ्जलि इत्यादि शब्द विकल्प से स्त्रीलिंग में प्रयुक्त करे । उदा०--एसा गरिमा ' . ' 'धुत्तिमा । अञ्जलि इत्यादि शब्दएसा अंजली, एस अंजली । पिट्ठी, पिटुं; इस पृष्ठ शब्द में ( ऋ स्वर का ) इ ऐसा स्वर किये जाने पर, वह पृष्ठ शब्द केवल स्त्रीलिंग में ( प्रयुक्त होता है ) ऐसा कुछ लोग कहते हैं । (अन्य अञ्जल्यादि शब्द)--अच्छी.... 'चोरिअं । इसी तरह कुच्छी. १. गुण । २. विभवः गुणाः मृग्यन्ते । ३. क्रम से :-देव । बिन्दु । खड्ग । मण्डलान । कररुह । वृक्ष । ४. क्रम से--गरिमन् । महिमन् । V निर्लज्ज I / धूर्त । रूप समान होने के कारण एसा और एसये सर्वनामों के रूप प्रयुक्त करके,पुलिंग और स्त्रीलिंग दिखाया गया है। ५. एसा और एस का उपयोग स्त्रीलिंग और पुलिंग दिखाने के लिए है। ६. पृष्ठ । ७. क्रम से--अक्षि । प्रश्न । चौर्य । ८. क्रम से---कुक्षि । बलि । निधि । विधि । रश्मि । ग्रंथि । ९. गर्ता, गर्त । Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः पादः गंठी, ऐसे ये अञ्जलि इत्यादि शब्द हैं। गड्डा और गड्डो ये शब्द तो संस्कृत के समान सिद्ध हुए हैं। (सूत्र में ) इम (न्) ऐसा नियमन होने से, ( भाववाचक संज्ञा) सिद्ध करने वाले त्व ( प्रत्यय ) का आदेश स्वरूप में आने वाला इमा ( डिमा) प्रत्यय तथा पृथु इत्यादि शब्दों में लगने वाला इमन् प्रत्यय, इनका ग्रहण होता है । व ( प्रत्यय ) के आदेश स्वरूप में आनेवाला इमा ( इमन ) प्रत्यय लगकर बने हुए शब्द स्त्रीलिंग में ही होते हैं, ऐसा कुछ लोगों का मत है। बाहोरात् ॥ ३६ ॥ बाहुशब्दस्य स्त्रियामाकारान्तादेशो भवति । बाहाए जेण' धरिओ एक्काए । स्पियामित्येव । वामेबरो२ बाहू। बाहु शब्द स्त्रीलिंग में प्रयुक्त होने पर, उसके अन्त में आकार आदेश होता है । उदा.-बाहाए... एक्काए । (वाह शब्द ) स्त्रीलिंग में प्रयुक्त होने पर ही ( उसके मन्त में आकार आदेश होता है; वह पुल्लिग में प्रयुक्त होने पर, उकारान्त ही रहता है । उदा:-) वामेमरो बाहू । ॥अतो डो विसर्गस्य ।। ३७ ॥ संस्कृतलक्षणोत्पन्नस्यातः परस्य विसर्गस्य स्थाने डो इत्यादेशो भवति । सर्वतः सव्वओ । पुरतः पूरओ। अग्रतः अग्गो । मार्गतः मग्गओ। एवं सिद्धावस्थापेक्षया । भवत: भवयो। भवन्तः भवन्तो । सन्तः सन्तो । कुतः कुदो। संस्कृत व्याकरण के नियमानुसार उत्पन्न हुए और अकार के आगे आने वाले विसर्ग के स्थान पर ओ ( डो) आदेश होता है। उदा.--सर्वत: .." मग्गओ। (संस्कृत शब्दों की ) सिद्धावस्था की अपेक्षा से वर्णान्तर इसी प्रकार होता है :-- भवतः... ." "कुदो। ॥ निष्प्रती ओत्परी माल्यस्थोर्वा ॥ ३८ ॥ निर प्रति इत्येतौ माल्यशब्दे स्थाधातौ च परे यथासंख्यं ओत् परि इत्येवं रूपौ वा भवतः। अभेदनिर्देशः सर्वादेशार्थः । ओभालं निम्मल्लं । ओमालयं वहइ । परिट्ठा "पइट्ठा । परिट्ठिअं ६पइट्ठिअं। निर ( निस् ) और प्रति ( उपसर्गों) के मागे माल्य शब्द तथा स्था धातु होने पर, विकल्प से उनके रूप अनुक्रम से ओ और परि होते हैं। ( सूत्र में 'निष्प्रती ओत्परी ऐसा ) अभेद-निर्देश 'सम्पूर्ण शब्द को आदेश होता है, यह दिखाने के लिए है। उदा.---ओमालं. पइट्ठि । १. बाहुना येन धृत एकेन । २. वामेतरः बाहुः । ३. निर्मास्य । ४. निर्माल्यं वहति । ५. प्रतिष्ठा । ६. प्रतिष्ठित । Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरणे आदेः॥ ३१ ॥ आदेरित्यधिकारः कगचजं ( १.१७७ ) इत्यादिसूत्रात् प्रागविशेषे वेदितव्यः । 'मादिम वणं ( = स्वर ) का इस सूत्र का अधिकार 'कगचनं इत्यादि के पिछले सूत्र तक सामान्यतः लागू है ऐसा जाने । तदाद्यव्ययात् तत्स्वरस्य लुक्॥ ४०॥ त्यदादेरव्ययाच्च परस्य तयोरेव त्यदाद्यव्ययोरादेः स्वरस्य बहुलं लुग भवति । अहेत्थ' अम्हे एत्थ । जइमा जइ इमा। जइहं जइ अहं । सर्वनाम और अव्यय के आगे आने वाले वे ही सर्वनाम और अव्यय के मादि स्वर का बहुलत्व से ( विकल्प से ) लोप होता है। उदा.-अम्हेत्थ... ... पदादपेर्वा ॥४१॥ पदात् परस्य अपेरव्ययस्यादे ग वा भवति। तं पि "तमवि। किं "पि किमवि । केण वि 'केणावि। कहंपि' कहमवि । ( एकाध ) पद के आगे आने वाले अपि अव्यय के आदि स्वर का विकल्प से लोप होता है। उदा-तं पि... ..'कहमवि । इतेः स्वरात् तश्च दिवः ॥ ४२ ॥ पदात् परस्य इतेरादेर्लग भवति स्वरात् परश्च तकारो द्विभवति । किं ति। जं ति। दिळं ति । न जुत्तं ति । स्वरात् । 'तहत्ति । झत्ति । पिओ त्ति । पुरिसो त्ति । पदादित्येव । इम' विज्ञ-गुहा-निलयाए । (एकाध ) पद के आगे आने वाले इति ( अध्यय ) के आदि स्वर का लोप होता है, और स्वर के आगे ( इति होने पर, इति के आदि स्वर का लोप होकर, शेष ति में से ) तकार का द्वित्व होता है। उदा० ---कि ति..."जुत्तं ति । स्वर के आगे १.वयं अत्र । २. यदि इमा। ३.यदि अहम् । ४. तं अपि । ५. कि अपि । ६. केन अपि । ७. कर्ष अपि । १. क्रम से :-किं इति । यद् इति । दृष्टं ९.क्रम से :-तथा इति । झटिति। इति । न युक्तं इति । प्रियः इति । पुरुषः इति । १०. इति विन्ध्यगुहानिलयया । २ प्रा. व्या. Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः पादः (इति होने पर)-तह त्ति..."पुरिसोत्ति । पद के आगे ही इति में आदि स्वर का लोप होता है; वैसा न होने पर लोप नहीं होता है । उदा० ) इअनिलयाए । लुप्त-य-र-व-श-ष-सां शषसां दीर्घः ।। ४३ ।। प्राकृतलक्षणवशाल्लप्ता याद्या उपरि अधो वा येषां शकार-षकार-सकाराणां तेषामादेः स्वरस्य दीर्घो भवति। शस्य यलोपे। पश्यति पासइ। कश्यपः कासवो । आवश्यकं आवासयं र-लोपे । विश्राम्यति वीसमइ । विश्रामः वीसामो। मिश्रं मीसं। संस्पर्शः । संफासो। वलोपे । अश्वः आसो। विश्वसिति वीससइ । विश्वासः वीसासो। शलोपे। दुश्शासनः दूसासणो। मनश्शिला मणासिला। षस्य य-लोपे। शिष्यः सीसो। पुष्यः पूसो। मनुष्यः मणूसो। रलोपे। कर्षकः कासओ। वर्णाः वासा । वर्षः वासो। वलोपे। विष्वाणः वीसाणो। विष्वक वीसं । षलोपे । निष्षिक्तः नीसित्तो । सस्य यलोपे । सस्यम् सासं । कस्यचित् कासइ । रलोपे। उस्रः ऊसो। विस्रम्भः वीसंभो । वलोपे । विकस्वरः विकासरो। निःस्वः नीसो। सलोपे । निस्सहः नीसहो। न दीर्घानुस्वारात् (२.१२) इति प्रतिषेधात् । सर्वत्र अनादौ शेषादेशयोद्वित्वम् (२.८९ ) इति द्वित्वाभावः।। प्राकृत व्याकरण के अनुसार, ( संयुक्त व्यंजन में से ) प्रथम अथवा द्वितीय अवयव होने वाले य् र् व श ष और स् व्यञ्जनों का लोप होकर, अवशिष्ट जो शकार, षकार और सकार होते हैं, उनके आदि स्थर का दीर्घ ( स्वर ) होता हैं । उदा-श में का लोप होने पर, श के बारे में-पश्यति...'आवासयं । (श्र या शं में ) र का लोप होने पर --विश्राम्य ति..... 'संफासो। (श्व में) व् का लोप होने पर - अश्वः... वीसासो। ( एश में ) श् का लोप होने पर--दुश्शासनः... 'मगासिला । (ज्य में ) य का लोप होने पर, के बारे में-शिष्यः ... "मणूसो । (र्ष में ) र का लोप होने पर-कर्षकः ....'चासो। (ब्द में ) व् का लोप होने पर--विष्वाणः.....वीसु। (ष में ) ष का लोप होने पर:-निष्षिक्तः नोसित्तो। ( स्य में ) य का लोप होने पर, स् के बारे में-शस्यं .... कासइ । (स्र में ) र् का लोप होने पर-उस्रः .. .. वीसंभो। (स्व में) व् का लोप होने पर ---विकस्वरः.... 'नीसो । ( स्स में ) स् का लोप होने पर-निस्सहः नीसहो । 'न दीर्धानुस्वारात' ऐसा निषेध होने से, (उपर्युक्त) सर्व स्थानों पर 'अनादी शेषादेशयोढिरवम्' सूत्र से होनेवाला द्वित्व नहीं होता है । अतः समृद्ध्यादो वा ॥ ४४ ॥ .. समृद्धि इत्येवमादिषु शब्देषु आदेरकारस्य दीर्घो वा भवति । सामिद्धी समिद्धी। पासिद्धी पसिद्धी। पायडं पयडं । पाडिवआ पडिवआ। पासुत्तो पसुत्तो। पाडिसिद्धी पडिसिद्धी। सारिच्छो सरिच्छो। माणंसीमणं सी। Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - शब्द ऐसे हैं इसलिए अस्पर्श: प्राकृतव्याकरणे माणंसिणी मणंसिणी । माहिआई अहिमाई । पारोहो परोहो । पावासू पवासू । पाडिप्फद्धी पडिएफद्धी । समृद्धि । प्रसिद्धि । प्रकट । प्रतिपत् । प्रसुप्त । प्रतिसिद्धि । सदृक्ष | मनस्विन् । मनस्विनी । अभियाति । प्ररोह । प्रवासिन् । प्रतिस्पधिन् । आकृतिगणोयम् । तेन । अस्पर्शः बाकं सो। परकीयं पारकेरं पारक्कं । प्रवचनं पावयणं । चतुरन्तम् चाउरन्तं इत्याद्यपि भवति । समृद्धि इत्यादि प्रकार के शब्दों में, आदि अकार का विकल्प से दीर्घ ( यानी आकार ) होता है । उदा०-- सामिद्धी पडिफद्धी । ( इन शब्दों के मूल संस्कृत प्रतिस्पर्धिन् । यह ( समृद्धयादि गण ) आकृति गण है; चाउरतं इत्यादि भी ( वर्णान्तर ) होते हैं । दक्षिणे हे ॥ ४५ ॥ ) समृद्धि १९ दक्षिणशब्दे आदे रतो हे परे दीर्घो भवति । दाहिणो । ह इति किम् । दक्खिणो । दक्षिण शब्द में ( क्ष का वर्णान्तर होकर, आदि अकार के ) आगे 'ह' आने पर, आदि अकार का दोर्घ ( पानी आकार ) होता है । उदा - - दाहिणो । ( आगे ) ह आने पर ऐसा ( सूत्र में ) क्यों कहा है ? ( कारण क्ष का वर्णान्तर होकर, ह नहीं आता, तो अ का दीर्घस्वर नहीं होता है । उदा०- ) दक्खिणो । इ: स्वप्नादौ ॥ ४६ ॥ । स्वप्न इत्येवमादिषु आदेरस्य इत्वं भवति । सिविणो सिमिणो । आफैँ उकारोऽपि । सुमिणो । ईसि । वेडिसो । विलिअं । विक्षणं । मुइंगो । किविणो । उत्तिम । मिरिअं । दिण्णं । बहुलाधिकाराण्णत्वाभावे न भवति । दत्तं । देवदत्तो | स्वप्न । ईषत् । वेतस । व्यलीक । व्यजन । मृदङ्गा | कृपण । उत्तम । मरिच । दत्त । इत्यादि । स्वप्न इत्यादि प्रकार के शब्दों में, आदि अ का इ होता है । उदा०- - सिविणो, सिमिणो; आर्ण प्राकृत में (स्वप्न शब्द में आदि अ का ) उकार भी होता है । उदा० . सुमिणो ( अन्य उदाहरण :- ) ईसि दिण्णं । बहुल का (दत्त शब्द में वर्णान्तर से त्त के स्थान पर ) ण्ण नहीं आता, तो नहीं होता है । उदा - दत्तं देवदत्तो । ( इन शब्दों के मूल संस्कृत दत्त; इत्यादि । , स्वप्न पक्वाङगार ललाटे वा ॥ ४७ ॥ एष्वादेरत इत्वं वा भवति । पिक्कं पक्कं । इंगालो अंगारो । णिडालं डालं । अधिकार होने से, आदि अ का इ ) शब्द ऐसे हैं : ) Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः पादः .. पक्व, अङ्गार और ललाट शब्दों में आदि अ का इ विकल्प से होता है। उदा.-पिक्कं... .. णडालं । ____मध्यम-कतमे द्वितीयस्य ॥४८॥ मध्यमशब्दे कतमशब्दे च द्वितीयस्यात इत्वं भवति । मज्झिमो । कइमो। मध्यम शब्द में तथा कतम शब्द में द्वितीय अ का इ होता है। उदा०मझिमो । कश्मो। सप्तपणे वा ॥४९॥ सप्तपणे द्वितीयस्यात इत्वं वा भवति । छत्तिवण्णो छत्तवण्णो । सप्तपर्ण शब्द में द्वितीय अ का विकल्प से इ होता है। उदा०-छत्तिवणो, छत्तवण्णो। __ मयट्यइवा ।। ५०॥ भयट्प्रत्यये आदेरतः स्थाने अइ इत्यादेशो भवति वा। विषमयः विसमइओ विसमओ। मयट प्रत्यय में आदि अ के स्थान पर अइ आदेश विकल्प से होता है। उदा:----- विषमयः... .. विसमओ। ईहरे वा ॥ ५१॥ हरशब्दे आदेरत ईर्वा भवति । होरो हरो। हर शब्द में आदि अ का विकल्प से ई होता है। उदा०-हीरो, हरो। ध्वनिविश्वचोरुः ।। ५२॥ अनयोरादेरस्य उत्वं भवति । झुणी। वीसुं। कथं सुणओ। शुनक इति प्रकृत्यन्तरस्य । श्वन्शब्दस्य तु सा साणो इति प्रयोगो भवतः। ध्वनि और विष्वक् (विष्यच्) शब्दों में आदि अ का उ होता है। उदा०--झणी, पोसं। सुणो रूप कैसे होता है ? ( उत्तर :----सुणी रूप ) शुनक इस दूसरे मूल (संस्कृत) शब्द से होता है। श्वन शब्द के सो सा, साणो ऐसे प्रयोग होते हैं। वन्द्रख ण्डिते णा वा ॥ ५३ ॥ अनयोरादेरस्य णकारेण सहितस्य उत्वं वा भवति । वुन्द्रं वन्द्रं । खुडिओ खंडिओ। Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरणे वन्द्र शब्द में ( आदि अ का ) और खण्डित शब्द में ( अगले ) णकार सहित आदि अ का विकल्प से उ होता है। उदा०-वुन्द्र... .. 'खण्डिभो। गवये वः ।। ५४ ॥ गवयशब्दे वकाराकारस्य उत्वं भवति । गउओ गउआ। गवय शब्द में वकार में से अकार का ( वकार के सह ) उ होता है। उदा.गउओ, गउआ । प्रथमे प्रथोर्वा ॥ ५५ ॥ प्रथमशब्दे पकारथकारयोरकारस्य युगपत् क्रमेण च उकारो वा भवति। पुढुमं पुढमं पढुमं पढमं । प्रथम शब्द में, एकार और थकार में से अकार का उकार एक ही समय और क्रम से विकल्प से होता है । उदा०-पुढभं... .. पढमं । ज्ञो णत्वेभिज्ञादौ ।। ५६ ॥ अभिज्ञ एवं प्रकारेषु ज्ञस्य णत्वे कृते ज्ञस्यैव अत उत्वं भवति । अहिण्ण' । सव्वण्ण । कयण्ण । आगमण्ण । णत्व इति किम् । अहिज्जो । सव्वजो। अभिज्ञादाविति किम् । प्राज्ञः पण्णो। येषां ज्ञस्य णत्वे उत्वं दृश्यते ते अभिज्ञादयः । अभिज्ञ ऐसे प्रकार के शब्दों में, ज्ञ का ण किए जाने पर अ का ही होता है । उदा०-अहिण्णू आगमण्णू ज्ञ का ण किए जाने पर, ऐसा (सूत्र में) क्यों कहा है ? ( कारण यदि ज्ञ का ण नहीं किया हो, तो ज्ञ में से अ का उ नही होता है। उदा०-) अहिज्जो, सव्वजो । ( सूत्र में ) अभिज्ञ इत्यादि शब्दों में ऐसा क्यों कहा है ? ( कारण अभिज्ञ इत्यादि शब्द छोड़कर, अन्य शब्दों में ज्ञ में से अ का उ नहीं होता है। उदा०--प्राज्ञः पण्णो । जिन शब्दों में ज्ञ का ण होकर, (श में से अ का ) उ हुआ है ऐसा दिखाई देता है, वे होते हैं अभिज्ञ इत्यादि शब्द । एच्छय्यादौ ॥ ५७ ॥ शय्यादिषु आदेरस्य एत्वं भवति । सेज्जा । सुंदरं । गेन्दुअं । एत्थ । शय्या। सौन्दर्य । कन्दुक । अत्र । आर्षे पुरेकम्भं । शम्या इत्यादि शब्दों में आदि का ए होता है। उदा०-सेज्जा... .""एस्थ । ( इनके मूल शब्द क्रम से ऐसे हैं :-) शम्या" ... अत्र । आर्ग प्राकृत में अन्य कुछ शब्दों में भी अ का ए होता है । उदा--पुरेकभं । ". १. क्रम से :--अभिज्ञ, सर्वज्ञ, कृतज्ञ, आगमज्ञ । २.क्रम से :--अभिज्ञ, सर्वज्ञ । ३. पुरःकर्म । Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ - युत्करपर्यन्ताश्चर्ये वा ॥ ५८ ॥ एषु आदरस्य एत्वं वा भवति । वेल्ली वल्ली । उक्केरो उक्करो । पेरन्तो पज्नन्तो । अच्छे अच्छरिअं अच्छअरं अच्छरिज्जं अच्छरीअं । बल्ली, उत्कर, पर्यन्त और आश्र्चयं शब्दों में, आदि अ का विकल्प से ए होता है । उदा० – वेल्ली ..अच्छरोमं । प्रथमः पादः ह्मचर्ये चः ॥ ५६ ॥ ब्रह्मचर्यंशब्दे चस्य अत एत्वं भवति । बम्हचेरं । ब्रह्मचर्यं शब्द में, च में से अ का ए होता है । उदा० - बम्हचेरं । तोन्तरि ।। ६० ।। " अन्तर्शब्दे तस्य अत एत्वं भवति । अन्तः पुरम् अंते उरं अन्तवारी अंतेआरी । क्वचिन्न भवति । अन्तग्गयं' । अन्तो- वीसम्भ- निवेसि आणं । अन्तर शब्द में, त ! में से अ का ए होता है । उदा० - अन्तःपुरं - अंतेआरी । क्वचित् ( ऐसा ) नहीं होता है । उदा० अन्तग्गयं "सिभाणं । www. ओत्पद्ये ॥ ६१ ॥ पष्मशब्दे आदेरत ओत्वं भवति । पोम्भं । पद्म - छद्म ( २११२ ) इति विश्लेषे न भवति । पउभं । पद्म शब्द में आदि अ का ओ होता है । उदा० - पोम्भं । 'पद्म - छद्म ".. 'सूत्र के अनुसार (यदि में से अवयवों का स्वर भक्ति से ) विश्लेष हुआ हो, तो वहाँ ( ओ स्वर ) नहीं होता है । उदा० - पउभं । नमस्कार परस्परे द्वितीयस्य ॥ ६२ ॥ १. अन्तर्गत अनयोद्वितीयस्य अत ओत्वं भवति । नमोक्कारो । परोप्परं । नमस्कार और परस्पर शब्दों में, द्वितीय अ का ओ होता है । उदा० - नमोक्कारो, परोप्परं । वा ॥ ६३ ॥ अपयतौ धातौ आदेरस्य ओत्वं वा भवति । ओप्पेइ अप्पेइ' ओप्पिअं अप्पि । अपयति धातु में आदि अ का ओ विकल्प से होता है । उदा० अप्पिमं । २. अन्तविश्रम्भनिवेशितानाम् । - मोप्पेइ.... ३. अर्पित । Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरणे स्वपावुच्च ।। ६४ ॥ स्वपितौ धातौ आदेरस्य ओत् उत् च भवति । सोवइ । सुवइ । स्वपिति धातु में आदि अ का ओ और उ होते हैं । उदा.-सोवइ, सुबइ। नात्पुनर्यादाई वा ।। ६५ ।। नत्रः परे पुनः शब्दे आदेरस्य आ आइ इत्यादेशौ वा भवतः । न उणा न उणाइ । पक्षे । न उण न उणो । केवलस्यापि दृश्यते । पुणाइ । न ( नञ् ) के आगे पुनः शब्द होने पर, ( पुनः शब्द में से ) आदि अ को पा और आइ आदेश विकल्प से होते हैं। उदा.--न उणा....."उणाइ । ( विकल्प-) पक्ष में-न उण, न उणो। ( क्वचित् ) केबल ( पुनः शब्द होते भी आइ भादेश) दिखाई देता है । उदा०--पुणाइ । ___ वालाब्बरण्ये लुक् ।। ६६ ॥ :: अलावरण्यशब्दयोरादेरस्य लुग वा भवति । लाउं 'अलाउं लाऊ अलाऊ । रणं अरण्णं । अत इत्येव । आरवण कंजरो व्व वेल्लंतो। अलाबु और अरण्य शब्द में, आदि अ का लोप विकल्प से होता है। उदा०लाउं......अरणं ! ( इन शब्दों में ) अ का ही विकल्प से लोप होता है। वैसा न होने पर लोप नहीं होता है । उदा०--) आरण्ण ... 'वेल्लंतो। वाव्ययोत्खातादावदातः ॥ ६७ ॥ अव्ययेषु उत्खातादिषु च शब्देषु आदेराकारस्य अद् वा भवति । अव्ययम् । जह जहा । तह तहा । अहव अहवा । व वा। ह हा इत्यादि । उत्खातादि । उक्खयं उक्खायं । चमरो चामरो। कलओ कालओ। ठविओ ठाविओ। परिविओ. परिठ्ठाविओ। संठविओ "संठाविओ। पययं पाययं । तलवेण्टं तालवेण्टं तलवोण्टं तालवोण्टं। हलिओ हालिओ । नराओ नाराओ। बलथा बलाया। कुमरो कुमारो । खइरं खाइरं । उत्खात । चामर । कालक । स्थापित । प्राकृत । तालवृन्त । हालिक । नाराच । वलाका । कुमार। खादिर । इत्यादि । केचिद् ब्राह्मणपूर्वाल्योरपीच्छन्ति । बम्हणो बाम्हणो । पुव्वण्हो पुव्वाण्हो । दवग्गी दावग्गी। चडू चाडू इति शब्दभेदात् सिद्धम् । १. पहले दो रूप नपुंसकलिंगी हैं; बाद के दो रूप पुल्लिगी हैं । २. बारण्य-कुञ्जरः इव वेलन् । ३. क्रम से-यथा । तथा । अथवा । वा । हा । ४. परिस्थापित । ५. संस्थापित। Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः पादः अव्ययों में और उत्खात इत्यादि शब्दों में, आदि आकार का अ विकल्प से होता है। उदा०--अव्ययों में---जह... 'हा, इत्यादि । उत्खात इत्यादि शब्दों में-- उक्वयं..... खाइरं। ( इनके मूल संस्कृत शब्द क्रम से ऐसे हैं:-) उत्खात...... खादिर, इत्यादि । ब्राह्मण और पूर्वाह्न शब्दों में भी ( आदि मा का विकल्प से म होता है ) ऐसा मत कुछ वैयाकरण व्यक्त करते हैं; (इसलिए-- वम्हणो' 'पुम्बाहो। दवग्गी, दावगी और चडू, चाडू ये रूप तो ( मूल ) भिन्न ( संस्कृत ) शब्दों से ही सिब हुए हैं ( इसलिए उन शब्दों में आ का विकल्प से अ होता है, ऐसा मानने की भावश्यकता नहीं है।) धवृद्धेर्वा ॥ ६८॥ घनिमित्तो यो वृद्धिरूप आकारस्तस्यादिभूतस्य अद् वा भवति । पवहो' पवाहो। पहरो' पहारो। पयरो पयारो। प्रकारः प्रचारो वा । पत्पवो पत्थावो । क्वचिन्न भवति । रागः राओ। पन् प्रत्यय लगने से वृद्धि के स्वरूप में जो आकार आता है, वह आदि होने पर, उसका विकल्प से अ होता है। उदा -पवहो.... 'पहारो; पयरो, पयारो ( इन दोनों के मूल संस्कृत शब्द ऐसे हैं-) प्रकार किंवा प्रचार; पत्थवो पत्यायो । क्वचित् ( ऐसे आ का अ नहीं होता है । उदा:-- ) रागः राओ। महाराष्ट्रे ॥ ६९॥ महाराष्ट्रशब्दे आदेराकारस्य अद् भवति । मरहट्ठे । मरहट्ठो। महाराष्ट्र शब्द में आदि आकार का अ होता है । उदा०-मरहट्ठ, मरहट्ठो । मांसादिष्वनुस्वारे ॥ ७० ॥ मांसप्रकारेषु अनुस्वारे सति आदेरातः अद् भवति । मंसं । पंसू । पंसणो। कंसं । कंसिओ। वंसिओ। पंडवो । संसिद्धिओ। संजत्तिओ । अनुस्वार इति किम् । मासं । पासू । मांस । पांसु । पांसन। कांस्य । कांसिक । वांशिक । पांडव । सांसिद्धिक । सांयात्रिक । इत्यादि। मांस ( इत्यादि ) प्रकार के शब्दों में, भनुस्वार होते समय, आदि आ का म होता है। उदा०--मंसं...''संजत्तिो । अनुस्वार होते समय, ऐसा क्यों कहा है ? ( कारण यदि इस अनुस्वार का लोप सूत्र १.२९ के अनुस्वार किया हो, तो आ का अ नहीं होता है । उदा.-) मांस, पासू । (उपयुक्त शब्दों के मूल संस्कृत शब्द ऐसे हैं-) मांस 'सायात्रिक, इत्यादि । १. प्रवाह । २. प्रहार। Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरणे श्यामाके मः ॥ ७१॥ श्यामाके मस्य आतः अद् भवति । सामओ। श्यामाक शब्द में,म् से संपृक्त होने वाले आ का अ होता है । उदा.-सामभो । इः सदादो वा ॥ ७२ ॥ सदादिषु शब्देषु आत इत्वं वा भवति । सइ सया। निसिअरो निसाअरो । कुप्पिसो कुप्पासो। सदा इत्यादि शब्दों में आ का इ विकल्प से होता है। उदा.-पाइ कुप्पासो। आचार्ये चोच्च ॥ ७३ ॥ आचार्यशब्दे चस्य आत इत्वं आत्वं च भवति । आ इरिओ आयरिओ। आचार्य शब्द में, च से संपृक्त रहने वाले आ के इ और अ होते हैं। उदा:आइरिओ, आयरिओ। ई: स्त्यानखल्वाटे ॥ ७४ ॥ स्त्यानखल्वाटयोरादेरात ई भवति । ठीणं थीणं थण्णं । खल्लीडो। संखायं इति तु सकः स्त्यः खा ( ४.१५ ) इति खादेशे सिद्धम् । स्स्यान और खल्बाट शब्दों में, आदि आ का ई होता है। उदा.---ठीणं....... खल्लीगे । (प्रश्न-संखायं रूप कैसे हुआ है ? उत्तर --) 'समा स्त्यः खा' सूत्रानुसार स्त्य को ) वा आदेश होकर, संखायं रूप सिख हुआ है । उः सास्नास्तावके ॥ ७५ ॥ अनयोरादेरात उत्वं भवति । सुण्हा । थुवओ। सास्ना भोर स्तावक शब्दों में,मादि आ का उ होता है । उदा.-सुण्डा,युवओ। __ऊद्वासारे ॥ ७६ ॥ आसारशब्दे आदेरात ऊद् वा भवति । ऊसारो आसारो। भासार शब्द में मादि आ का उ विकल्प से होता है । उदा०-ऊसारो,आसारो। आर्यायां यः श्वश्रवाम् ॥ ७७॥ आर्याशब्दे श्वश्रवां वाच्यायां यस्यात ऊर्भवति । अज्जू । श्वश्र्वामिति किम् । अज्मा। १. क्रम से सदा । निशाक (च) र । कूर्पास । २. आने संयुक्त म्यंजन होने के कारण, पिछला दोघं ई स्वर ह्रस्व हुमा है। Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः पाद: आर्या शब्द में, सास अर्थ वाच्यार्य होने पर, से संपृक्त रहने वाले मा का ऊ होता है। उदा०-अज्जू । सास ( अर्थ वाच्या होने पर ) ऐसा क्यों कहा है ? (कारक यदि सास अर्थ वाच्य न हो, तो आ का ऊ नहीं होता है । उदा.-)मज्जा । एद् ग्राह्य ।। ७८ ॥ ग्राह्यशब्दे आदेरात एत् भवति । गेज्झं । ग्राह्य शब्द में आदि आ का ए होता है । उदा०---गेझं । द्वारे वा ॥ ७६ ॥ द्वारशब्दे आत एद् वा भवति । देरं । पक्षे। दुआरं दारं बारं । कथंनेरइओ नारइओ। नैरयिकनारयिकशब्दयोभविष्यति । आर्षे अन्यत्रापि । 'पच्छे कम्भं । असहेज्ज२ देवासुरी। द्वार शब्द मे आ का ए विकल्प से होता है। उदा०-देरं । ( विकल्प ) पक्ष में आरं..'बारं । नेरइओ ओर नारइभो रूप कैसे होते हैं ? ( उत्तरः---) नरयिक और नारकिक ( शब्दों) के ( ये रूप ) होंगे। आर्ष प्राकृत में अन्य शब्दों में भी ( आ का ए होता है। उदा.-पच्छेकम्भं...''देवासुरी। पारापते रो वा ।। ८०॥ पारापतशब्द रस्थस्यात एद् वा भवति । पारेवओ पारावओ। पारापत शब्द में र् से संपृक्त रहने वाले आ का ए विकल्प से होता है । उदा०पारेवओ, पारावओ। मात्रांट वा ॥ ८१॥ मात्रटप्रत्यये आत एद् वा भवति । एत्तिअमेत्तं एत्ति अमत्तं । वहलाधिकारात् क्वचिन्मात्रशब्दपि । भो 'अणमेत्तं। मात्र ( मात्रट ) प्रत्यय में आ का ए विकल्प से होता है। उदा.-एत्तिअमेत्तं, एत्तिममत्तं । बहल का अधिकार होने से, क्वचित् मात्र शब्द में भी ( आ का ए होता है । उदा०-) भोमणमेत्तं । उदोद् वाने॥ ८२॥ आर्द्रशब्दे आदेरात उद् ओच्च वा भवतः। उल्लं ओल्लं । पक्षे। अल्लं अदं । बाहसलिलपवहेण” उल्लेइ । १. पश्चात्कर्म । २. असहापदेवासुरी। ३. इयन्मान। ४. भोजनमात्र । ५. बाष्प-सलिल-प्रवाहेण आद्रयति ( आर्दीकरोति)। Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरणे २७ आर्द्र शब्द में आदि आ के उ और ओ विकल्प से होते हैं । उदा. --~-उल्लं,मोल्लं। (विकल्प ) पक्ष में-भल्लं...."उल्लेइ । ओदाल्यां पङ्क्तौ ॥ ८३ ॥ आलीशब्दे पङ्क्तिवाचिनि आत ओत्वं भवति । ओली। पङ्क्ताविति किम् । आली सखी। __ आली शब्द में, पंक्ति अथ' होने पर, आ का ओ होता है । उदा-ओली । पंक्ति ( अब होने पर ) ऐसा क्यों कहा है ? ( कारण पंक्ति अर्थ न होने पर, आ का मओ नहीं होता है । उदा.-) आली ( यानी ) सहेलो । हस्वः संयोगे॥ ८४ ॥ दीर्घस्य यथादर्शनं संयोगे परे ह्रस्वो भवति । आत् । आभ्रभ अम्बं । ताभ्रम् तभ्बं । विरहाग्निः विरहग्गी । आस्यम् अस्सं । ईत् । मुनीन्द्रः मणिन्दो। तीर्थम् तित्थं । ऊत्। गुरूल्लापाः गुरुल्लावा। चूर्णः चुण्णो । एत् । नरेन्द्रः नरिन्दो। म्लेच्छ: मिलिच्छो । दिठ्ठिक्क-थणा-वळं । ओत् । अधरोष्ठः अहरुठं । नीलोत्पलम् नीलुप्पलं । संयोग इति किम् । आयासं । ईसरो। ऊसवो। (साहित्य में ) जैसा दिखाई देता है वैसा, संयुक्त व्यंजन आगे होने पर, (पिछले) दीर्घ स्वर का-हस्व स्वर होता है। उदा०-आ ( के आगे संयोग होने परआम्र....'अस्सं । ई (के आगे संयोग होने परः-- ) मुनीन्द्रः...."नित्यं । ऊ (के आगे संयोग होने परः-) गुरुल्लापा:: "चुण्णो । ए (के आगे संयोग होने पर-) नरेन्द्रः."बळें । ओ ( के आगे संयोग होने पर - ) अधरोष्ठः..."मीलप्पलं । ( आगे ) संयोग ( = संयुक्त शंभन ) होमे पर, ऐसा क्यों कहा है ? ( कारण आगे संयोग न हो, तो पिछला बीर्घ स्वर-वस्थ नहीं होता है । उदा.- ) आया; ( तथा आगे आने वाले संयुक्त व्यंजन में से एक अवयव का लोप किया हो, तो भी पिछला दोघं स्वर-हस्व नहीं होता है : उदा.-) ईसर, ऊसब । ___ इस एद्वा ॥ ८५॥ संयोग इति वर्तते। आदेरिकास्य संयोगे परे एकारो परे वा भवति । पेण्ड पिण्डं । धम्मेल्लं धम्मिल्लं । सेन्दूरं सिन्दूरं । वेण्ट विण्ट । पेटठं पिटठं । बेल्लं बिल्लं । क्वचिन्न भवति । चिन्ता । १. टेक-स्तन-पृष्ठभ् । २. क्रम से-आयास ( आकाश)। ईश्वर । उत्सव । ___३. क्रम से-पिण्ड । धम्मिल्ल । सिन्दूर। विष्णु । पृष्ठ । बिल्व । Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ प्रथमः पादः संयोग शब्द की अनुवृति ( इस सूत्र में ) है । ( तब इस सूत्र का होता है - ) आगे संयोग होने पर, आदि इकार का एकार विकल्प से उदा० -- पेण्डं... बिल्लं । क्वचित् ( आगे संयोग होने पर भी इ का ए ) है । उदा० - चिन्ता । | किंशुके वा ॥ ८६ ॥ किशुकशब्दे आदेरित एकारो वा भवति । केसुअं किसुअं । किशुक शब्द में आदि का एकार विकल्प से होता है । उदा० केसुअं, किसु । मिरायाम् ॥ ८७ ॥ मिराशब्दे इत एकारो भवति । मेरा । निरा शब्द में इ का एकार होता है । उदा० अर्थ ऐसा होना है । नहीं होता - मेरा । पथिपृथिवी प्रतिश्रुम्मूषिकहरिद्राविभीतकेष्वत् ॥ ८८ ॥ एषु आदेरितोकारो भवति । पहो । पुहई पुढवी । पडंसुआ । मूसओ । हद्दी हा । बहेडओ । पंथं किर देसितेति तु पथिशब्दसमानार्थस्य पन्थशब्दस्य भविष्यति । हरिद्रायां विकल्प इत्यन्ये । हलिद्दी हलद्दा | पथिन्, पृथिवी, प्रतिश्रुत्, मूषिक, हरिद्रा और बिभीतक इन शब्दों में, आदि इ का आकार होता है । उदा० पहो "बहे उभो । 'पन्थं किर देसित्ता' यहाँ तो पथिन् शब्द के समानार्थी होने वाले 'पंथ' शब्द का 'पंथं' ऐसा रूप होगा । कुछ के मतानुसार, हरिद्रा शब्द के बारे में ( इ का अकार होने का ) विकल्प है । उदा०-हलिद्दी, हलद्दा | शिथिलेङगुदे वा ॥ ८६ ॥ अनयोरादेरितोद् वा भवति । सढिलं पसढिलं सिढिलं पसिढिलं | अंगुअं इंगिअं । निर्मितशब्दे तु वा आत्वं न विधेयम् । निर्मातनिर्मितशब्दाभ्यामेव सिद्धेः । शिथिल और इंगुद इन दो शब्दों में, आदि इ का अ विकल्प से होता है । उदा० - सढिलं इंगुअं । परन्तु निर्मित शब्द में मात्र ( इ का ) विकल्प से आ होता है, ऐसा विधान करना नहीं है; कारण 1. निम्माअ और निम्मिअ ये शब्द ) निर्मात और निर्मित इन शब्दों से सिद्ध होते हैं । १. पन्थं किल देशित्वा । २. प्रशिथिल । Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरणे तित्तिरौ रः॥ १० ॥ तित्तिरिशब्दे रस्येतोद् भवति । तित्तिरो। तित्तिरि शब्द में, र् से संपृक्त रहने वाले इ का अ होता है। उदा०—तित्तिरो (/तित्तिर )। इतौ तो वाक्यादौ ॥११॥ वाक्यादिभूते इतिशब्दे यस्तस्तत्संबंधिन इकारस्य अकारो भवति । इअ जंपि आवसाणे । इअ विअसि २अकूसमसरो। वाक्यादाविति किम् । पिओ त्ति । पुरिसोत्ति । वाक्य के आदि रहने वाले इति शध्द में जो त् है उससे सम्बन्धित होने वाले इकार का अकार होता है। उदा.---इअ.."सरो। वाक्य के आदि रहने वाले ( इति शब्द में ) ऐसा क्यों कहा है ? ! कारण यदि इति शब्द वाक्य के आरम्भ में न हो, तो व से संपृक्त रहने वाले इ का अ न होकर, सूत्र १.४२ के अनुसार वर्णान्तर होता है। उदा. --- ) पिओ.."त्ति । ईजिह्वासिंहविंशतिशतो त्या ।। १२ । जिह्वादिषु इकारस्य तिशब्देन सह ई भवति । जीहा । सीहो । तीसा । वीसा । बहुलाधिकारात् क्वचिन्न भवति । "सिंहदत्तो। सिंहराओ'। जिह्वा इत्यादि शब्दों में, ति शब्द के साथ इकार का ई होता है। उदा.----- जीहा... ..'बोसा । बहल का अधिकार होने से, क्वचित ( इकार का ई) नहीं होता है। उदा० ... सिंह "राओ। लुकि निरः ॥ १३ ॥ निर् उपसर्गस्य रेफलोपे सति ईकारो भवति। नीसरइ । नीसासो । लुकीति किम् । निष्णओ" । निस्सहाई अंगाई। निर् उपसर्ग में से रेफ का ( = र व्यञ्जन का ) लोप होने पर, इ का ईकार होता है। उदा - नीसरइ, नीसासो। ( निर् उपसर्ग में से ) र् का लोप होने पर ऐसा क्यों कहा है ? ( कारण यदि र् का लोप न हो, तो इ का ईकार नहीं होता है। उदा ..---- ) निण्णओ... . 'अंगाई। १. इति जल्पिलावसाने । २. इति विकसितकुसुमश ( स ) रः । ३.प्रियः इति । ४. पुरुषः इति । ५. सिंहदत्तः । ६. सिंहराजः। ७.निर्णयः। ८. निःसहानि भङ्गानि । Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः पादः विन्योरुत् ।। ६४ ॥ दिवशब्दे नावुपसर्गे च इत उद् भवति । दिवा' दुभत्तो । दुआई । दुविहो । दुरेहो । दुवयणं । वहुलाधिकारात् क्वचिद् विकल्पः । दुउणो बिउणो। दुइओ बिइओ। क्वचिन्न भवति । विजः दिओ। दिवरदः दिरओ। क्वचिद् ओत्वमपि। दोवयणं । नि । णुमज्जइ । णुमन्नो। क्वचिन्न भवति । निवडइ६ । द्वि शब्द में और नि उपसर्ग में, इ का उ होता है। उदा०--द्वि में :-दुमत्तो ... 'दुवयणं । बहुल का अधिकार होने से, क्वचित् (द्वि में से इ का उ ) विकल्प से होता है। उदा०-दुउणो... ...बि इओ। क्वचित् ( द्वि में से इ का उ ) नहीं होता है । उदा०-द्विजः .. .. 'दिरओ। क्वचित् (द्वि में से इका) ओ भी होता है । उदा०-दोवयणं । ( अब ) नि उपसर्ग में :---णुमज्जइ, णुमनो। क्वचित् (नि में से इ का उ ) नही होता है । उदा.---निवडइ । प्रवासीक्षौ ॥ १५ ॥ अनयोरादेरित उत्वं भवति । पावासुओ। उच्छू। प्रवासि ( ) और इक्षु शब्दों में, आदि इ का उ होता है। उदा०--पावासुओ। उच्छु। युधिष्ठिरे वा ॥ १६ ॥ युधिष्ठिर शब्दे आदेरित उत्वं वा भवति । जुहटिठलो जहिठिलो। युधिष्ठिर शव्द में, आदि इ का उ विकल्प से होता है। उदा०-जट्ठिलो, जहिट्ठिलो। ओच्च द्विधाकृगः ॥ १७ ॥ दिवधा शब्दे कृग्धातोः प्रयोगे इत ओत्वं चकारादुत्वं च भवति । दोहाकिज्जइ दुहाकिज्जइ। दोहाइअं दुहाइअं। कृग इति किम् । दिहा गयं । क्वचित् केवलस्यापि दुहा वि सो "सुरवहू सत्थो। । (द्विधा शब्द के आगे ) कृ धातु का प्रयोग/उपयोग होने पर, द्विधा शब्द में इ का ओ, और ( सूत्र में प्रयुक्त) चकार के कारण ( = च शब्द के कारण ) उ भी १. क्रम से :----हिमात्र । द्विजाति । द्विविध । २. द्विरेफ । ३. द्विवचन । ४. क्रम से :--द्विगुण । द्वितीय । ५. क्रम से :-निमज्जति । निमग्न । ६. निपतति । ७. क्रम से :-द्विधाक्रियते । द्विधाकृत । ८. द्विधागत। ९. द्विधा अपि सः सुर-वधू-साधः । Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरणे होता है । उदा दोहा दुहाइअं । ( द्विधा शब्द के आगे ) कृ धातु का ( प्रयोग होने पर ) ऐसा क्यों कहा है ? ( कारण वैसा न हो, तो द्विधा में से इका होता है । उदा० ) दिहागयं । क्वचित् ( आगे कृ धातु का केवल ( द्विघा शब्द में भी इ का उ होता है । उदा०- -) ओ अबबा उ नहीं प्रयोग न होने पर ) दुहा.. .... सत्थो । वा निर्झरे ना ॥ ६८ ॥ निर्झरशब्दे नकारेण सह इत ओकारो वा भवति । ओज्झरो निज्झरो । निर्झर शब्द में नकार के साथ इ का ओकार विकल्प से होता है । उदा०-भोज्झरो, निज्झरो । " हरतिक्यामीतोत् ॥ ६६ ॥ हरीतकीशब्दे आदेरीकारस्य अद् भवति । हरडई | हरीतकी शब्द में, आदि ईकार का अ होता है । उदा०-आकश्मीरे ॥ १०० ॥ ३१ --हरडई | कश्मीरशब्दे ईत् आद् भवति । कम्हारा । कश्मीर शब्द में ई का आ होता है । उदा०-- कम्हारा । पानीयादिष्वित् ।। १०१ ।। 1 पानीयादिषु शव्देषु ईत् इद् भवति । पाणिअं । अलिअं । जिअ । जिअउ | विलिअं । करिसी । सिरिसो । दुइअं । तइअं । गहिरं । उवणिअं । आणिअं । पलिविअं | ओसि अन्तं । पसिअ । गहिअं । वम्मिओ । तयाणि । पानीय । अलीक | जीवति । जीवतु । त्रीडित । करीष । शिरीष । द्वितीय । तृतीय । गभीर । उपनीत । आनीत । प्रदोपित | अवसीदत् । प्रसीद । गृहीत । वल्मीक । तदानीम् । इति पानीयादयः ॥ बहुलाधिकार। देषु क्वचिन्नित्यं क्वचिद् विकल्पः । तेन | पाणीअं । अलीअं । जीअइ । करीसो । उवणीओ । इत्यादि सिद्धम् । पानीय इत्यादि शब्दों में ई का इ होता है । उदा०-- पाणिअंतयाणिं । ( इनके मूल संस्कृत शब्द ऐसे हैं :-- ) पानीय तदानीम् | ऐसे ये पानीय इत्यादि शब्द हैं । बहुल का अधिकार होने से, इन शब्दों में, ( ई का इ ) क्वचित् नित्य होता है तो कभी विकल्प से होता है । इसलिए पाणीअंउवणीओ ( ऐसे वर्णान्तर भी ) सिद्ध होते हैं । Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३ प्रथमः पादः उज्जीर्णे ॥ १.२॥ जीर्णशब्दे ईत् उद् भवति । जुण्णसुरा' । क्वचिन्न भवति । जिणे२ भोअणमत्ते। जीर्ण शब्द में ई का उ होता है। उदा०---जुण्णसुरा। क्वचित् ( जीर्ण में से ई का उ ) नही होता । उदा-मिण्णे .. .. मत्ते । ऊ_नविहीने वा ॥ १०३ ।। अनयोरति ऊत्वं वा भवति । हूणो हीणो। विहूणो विहीणो । विहीन इति किम् । पहीण-जर-मरणा।। होन और विहीन इन दो शब्दों में ई का ऊ विकल्प से होता है। उदा.-- हूणो"..."विहीणो। विहीन शब्द में (ई का ऊ विकल्प से होता है ) ऐसा क्यों कहा है ? ( कारण होम शब्द के पौछ 'वि' छोड़कर अन्य उपसर्ग होने पर, ई का ऊ नहीं होता है। उदा.--) पहीण... .."मरणा। तीर्थे हे ॥१०४॥ तीर्थशब्द हे सति ईत ऊत्वं भवति । तहं । ह इति किम् । तित्थं । तीर्थ शब्द में ( वर्ण विकार होकर ती के आगे ) ह व्यञ्जन होने पर, ई का ऊ होता है। उदा०-तूहं । ( आगे ) ह. ( व्यञ्जन ) आने पर, ऐसा क्यों कहा है ? ( कारण यदि आगे ह. न हो, तो ई का ऊ नहीं होता है। उदा.-) तित्थं । एत्पीयूषापीडबिभीतक कीदृशेदृशे ॥ १०५ ॥ एषु ईत एत्वं भवति । पेऊसं । आमेलो । बहेडओ। केरिसो। एरिसो। पीयूष, आपीड, बिभीतक, कोहश और ईदृश शब्दों में, ई का ए होता है । उदा... 'पेथसं... . 'एरिसो । नीडपीठे वा ॥ १०६॥ अनयोरीत एत्वं वा भवति । नेड नोडं । पेढं पीढं । नीड और पीठ इन दो शब्दों में, ई का ए विकल्प से होता है। उदा०-नेड .... .. 'पीढं। १. जीणंसुरा। २. जीणे भोजनमा। ३. प्रहीषनरामरणाः । Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरणे उतो मुकुलादिष्वत् ॥ १०७ ॥ • मुकुल इत्येव मादिषु शब्देषु आदे रुतोत्वं भवति । मउलं मउलो । मउरं । मउडं | अगरु । गहई । जहुट्ठलो जहिट्ठिलो । सोअमल्लं । गलोई । मुकुल | मुकुर । मुकुट । अगुरु । गुर्वीं । युधिष्ठिर । सौकुमार्य । गुडूची । इति मुकुलादयः । क्वचिदावपि । विद्रुतः विद्दाओ । मुकुल इत्यादि प्रकार के शब्दों में, आदि उ का अ होता है । उदा - मउलं... गलोई | ( इनके मूल संस्कृत शब्द ऐसे - ) मुकुल गुडूची । ऐसे ये मुकुल इत्यादि शब्द होते हैं । क्वचित् ( उ का) आकार ( आ ) भी होता है । उदा० - विद्रुतः विद्दाओ । वोपरौ ॥ १०८ ॥ उपरावृतोद् वा भवति । अवर उवरि । 'उपरि' शब्द में उ का अ विकल्प से होता है । उदा० - अवर, उबार । गुरौ के वा ॥ गुरौ स्वार्थे के सति आदेरुतोद् वा किम् । गुरू । गुरु शब्द में, आगे स्वार्थी के प्रत्यय होने पर, आदि उ का विकल्प से अ होता है । उदा० - गरुओ, गुरुओ । ( आगे स्वार्थी ) क प्रत्यय आने पर है ? ( कारण स्वार्थी क प्रत्यय आगे न होने पर, उ का अ ) गुरू । ऐसा क्यों कहा नहीं होता है । उदा० ३ प्रा० व्या० ❤ कुटावादेरुत इर्भवति । भिउडी । ब्रुकुटि शब्द में आदि उ का इ होता है । उदा० - भिउडी । पुरुषे रोः ।। १११ ॥ पुरुषशब्दे रोरुन इर्भवनि । पुरिसो । 'उरिमं । पुरुष शब्द से रु में से उ का इ होता है । उदा० - पुरिसो, परिसं । ईः क्षुते ।। ११२ ।। १०६ ॥ भवति । गरुओ गुरुओ । क इति ।। ११० ।। क्षुतशब्दे आदेरु ईत्वं भवति । छीअं । 1 क्षत शब्द में आदि उ का ई होता है । उदा० - ठीअं । १. पौरुष । ३३ Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ प्रथमः पादः ऊत्सुभगमुसले वा ।। ११३ ॥ अनयोरादेरुत ऊद् वा भवति । सूहवो सुहओ। मूसलं मुसलं । सुभग और मुसल इन दो शब्दों में, आदि उ का ऊ विकल्प से होता है । उदा०-सूहवो 'मुपलं । अनुत्साहोत्सन्ने त्सच्छे ॥ ११४ ॥ उत्साहोत्सन्नवजिते शब्दे यौ त्सच्छौ तयोः परयोरादेहत ऊद् भवति । त्स। 'ऊसुओ। ऊसवो । ऊसित्तो। ऊसरइ । च्छ । उद्गताः शुकाः यस्मात् सः २ऊसुओ। 'ऊससइ। अनुत्साहोत्सन्न इति किम् । उच्छाहो । उच्छन्नो। उत्साह और उत्सन्न शब्द छोड़कर, (अन्य) शब्दों में रहनेवाले जो त्स और च्छ, वे आगे होने पर, (उन शब्दों में) आदि उ का ऊ होता है। उदा.--त्स ( आगे होने पर )--ऊसुभो...ऊसरह । च्छ ( आगे होने पर )-जहाँ से शुक ( = तोते ) गए हुए हैं वह, ऊसुओ; ऊपसइ । उत्साह और उत्सन्न शब्द छोड़कर ऐसा क्यों कहा है ? ( कारण इन दो शब्दों में, उ का ऊ नहीं होता है। उदा.--- ) उच्छाहो, उच्छन्नो। लुकि दुरो वा ॥ ११५ ।। दुर् उपसर्गस्य रेफस्य लोपे सति उत ऊत्वं वा भवति । दूसहो' दुसहो । दूहवो दुहवो । लुकीति किम् । “दुस्सहो विरहो । दुर् उपसर्ग में से रेफ का ( =र् का ) लोप होने पर, उ का ऊ विकल्प से होता है । उदा .-दूसहो...दुहवो। ( दुर् में से ) रेफ का लोप होने पर ऐसा क्यो कहा है ? ( कारण यदि ऐसा लोप नहीं हुआ हो, तो उ का ऊ नहीं होता हैं । उदा०-) दुस्सहो विरहो। ओत्संयोगे ॥ ११६ ॥ संयोगे परे आदेरुत औत्वं भवति । लोण्डं । मोण्डं । पोक्खरं। कोट्टिमं। पोत्थओ। लोद्धओ। मोत्था । मोग्गरो। पोग्गलं । कोण्ढो । कोन्तो । वोक्कन्तं । १. क्रम से-उत्सुक । उत्सव । उसिक्त । उत्सरति । २. उच्छुक ! ३. उच्छ्वसिति । ४. क्रम से-दुःसह । दुभंग। ५. दुःसहः विरहः । ६. क्रम से-तुण्ड । मुण्ड । पुष्कर । कुट्टिम । पुस्तक । लुब्धक । मुस्ता । मुद्गर । पुद्गल । कुण्ठ । कुन्त । व्युत्क्रान्त । Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतम्बाकरणे ३५ आगे संयोग (= संयुक्त व्यञ्जन) होने पर, आदि उ का ओ होता है। उदा.तोण्डं....."वोक्तं । कुतूहले वा हस्वश्च ॥ ११७॥ कुतहलशब्दे उत ओद् वा भवति तत्संनियोगे ह्रस्वश्च वा। कोऊहलं कुऊहलं कोउहल्लं । कुतूहल शब्द में उ का ओ विकल्प से होता है और उसके सानिध्य में (तू में से दीर्घ क ) विकल्प से ह्रस्व होता है । उदा०-कोकहल... .. कोउहल्लं। अदूतः सूक्ष्मे वा ॥ ११८ ॥ सूक्ष्मशब्दे ऊतोद् वा भवति । सण्हं सुण्हं । आर्षे । सुहुमं । सूक्ष्म शब्द में ऊ का अ विकल्प से होता है । उदा.-सण्हं, अहं । आर्ष प्राकृत में ( मात्र ) सुहमं ( ऐसा सूक्ष्म शब्द का वर्णान्तर होता है )। दुकूले वा लश्च दिवः ॥ ११६ ॥ दुकूलशब्दे ऊकारस्य अस्वं वा भवति तत्संनियोगे च लकारो दिवभवति । दुअल्लं दुऊलं । आर्षे । दुगुल्लं । दुकूल शब्द में ऊकार का अ विकल्प से होता है और उसके सानिध्य में लकार का द्वित्व होता है । उदा० --- दुअल्लं, दुअलं । आर्ण प्राकृत में ( दुफूल का वर्णान्तर ) दुगुल्लं ( होता है )। ईर्वोद्व्यूढे ॥ १२० ॥ उद्व्यूढशब्दे ऊत ईत्वं वा भवति । उव्वीढं उब्बूढं । उद्व्यूढ शब्द में ऊ का ई विकल्प से होता है । उदा०---उब्बीढं, उव्वुढं । उभ्र-हनुमत्कण्डूयवातूले ॥ १२१॥ एषु ऊत उत्वं भवति । भुमया। हणुमन्तो । कण्डुअइ। वाउलो। भ्र , हनूमत्, कण्डूय और वातूल शब्दों में ऊ का उ होता है। उदा.-भुमया ...."बाउलो। मधूके वा ॥ १२२ ॥ मधूकशब्दे ऊत उद् वा भवति । महुअं महूअं । मधूक शब्द में ऊ का उ विकल्प से होता है । उदा.-महुअं, Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः पादः इदेतौ नूपुरे वा ॥ १२३ ॥ नूपुरशब्दे ऊत इत् एत् इत्येतौ वा भवतः । निउरं नेउरं । पक्षे। नूउरं । मूपुर शब्द में ऊ के इ भऔर ये दो ( स्वर ) विकल्प से होते हैं। उदा०-निउरं, नेउ । ( विकल्प... ) पक्ष में :-नूउरं । ओत्कूष्माण्डी-तूणीर-कूर्पर-स्थूल-ताम्बूल-गुडूची-मूल्ये ॥१२४॥ एषु ऊत ओद् भवति । कोहण्डी कोहली। तोणीरं। कोप्परं । थोरं । तम्बोलं । गलोई । मोल्लं। कूष्माण्डी, तूणीर, कूपर, स्थूल, ताम्बूल, गुडूची और मूल्य इन शब्दों में, ऊ का ओ होता है। उदा.-कोहण्डी... ."मोल्लं । स्थूणातूणे वा ॥ १२५ ॥ अनयोरुत ओत्वं वा भवति । थोणा थूणा । तोणं तूणं । .. स्थूणा और तूण शब्दों में, ऊ का ओ विकल्प से होता है । उदा०-थोणा...... तूर्ण। ऋतोऽत् ॥ १२६ ॥ भादेकारस्य अत्वं भवति । घृतम् घयं। तृणम् । तणं । कृतम् । कयं । वृषभः । वसहो । मृगः । मओ । घृष्टः घट्ठो । दुहाइ अमिति । कृपादिपाठात् । ( शब्द में से ) आदि ऋकार का अ होता है। उदा० --घृतम् .. ."अहो । (प्रश्न दुहाइअं [ द्विधाकृतम् ] वर्णान्तर कैसे होता है ? उत्तर :- ) दुहाइअं शब्द कृपादिगण होने के कारण ( इस शब्द में ऋ का इ हुआ है )। आत्कृशामृदुकमृदुत्वे वा ॥ १२७ ॥ एषु आदे ऋत आद् वा भवति । कासा किसा। माउक्कं मउअं। माउक्कं मउत्तणं। कुशा, मृदुक और मृदुत्व शब्दों में, आदि ऋ का आ विकल्प से होता है । उदा.-कासा... ...'मउत्तणं । इत्कृपादौ । १२८॥ कृपा इत्यादिषु शब्देषु आदेत इत्वं भवति । किवा। हिययं । मिट्ठ रसे एव । अन्यत्र मळं । दिळं । दिठी। सिळं । सिट्ठी । गिण्ठी । पिच्छी। भिऊ । भिंगो। भिंगारो। सिंगारो। सिआलो। घिणा। धुसिणं । विद्धकई । समिद्धी । इदुधी । गिद्धी। किसो। किसाणू । किसरा। किच्छं। तिप्पं । Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरणे ३७ किसिओ। निवो। किच्चा। किई । धिई। किवो। किविणो। किवाणं । विञ्चुओ। वित्तं । वित्ती। हिअं । वाहित्तं । बिहिओ। विसी । इसी। विइण्हो। छिहा । सइ । उक्किळं । निसंसो। क्वचिन्न भवति । रिद्धी । कृपा। हृदय । मृष्ट । दृष्ट । दृष्टि । सृष्ट । सृष्टि । गृष्टि । पृथ्वी। भृगु । भृग । भृगार । शृगार । शृगाल । घृणा । धुसृण । वृद्धकवि। समृद्धि । ऋद्धि । गृद्धि । कृश । कृशानु। कृसरा । कृच्छ्र । तृप्त । कृषित । नप । कृत्या। कृति । धृति । कृप । कृपण । कृपाण । वृश्चिक । वृत्त । वृत्ति । हत । व्याहत । बृहित । वृसी । ऋषि । वितृष्ण । स्पृहा । सकृत् । उत्कृष्ट । नशंस ।। _कृपा इत्यादि शब्दों में आदि ऋ का इ होता है। उदा०-किवा...हिययं; मिट्रं ( यह शब्द ) रस-वाचक होने पर ही ( ऋ का इ होता है; वह अर्थ न होने पर ) अन्यत्र मटुं ऐसा वर्णान्तर होता है; दिटुं...निसंसो । क्वचित् ( आदि ऋका इ ) नहीं होता है । उदा:-रिद्धी (Z ऋद्धि ) । ( उपर्युक्त शब्दों के मूल संस्कृत शब्द ऐसे-) कृपा...नृशंस । पृष्ठे वानुत्तरपदे ॥ १२६ ॥ पृष्ठशब्देनुत्तरपदे ऋत इद् भवति वा। पिछी पट्ठी । पिठि! —परिट्ठविरं । अनुत्तरपद इति किम् । महिवळें । पृष्ठ शब्द ( समास में ) उत्तर पद न होने पर, ( उसमें से ) ऋ का इ विकल्प से होता है। उदा.-पिट्ठोटविरं। (पृष्ठ शब्द समास में ) उत्तरपद न होने पर ऐसा क्यों कहा है ? ( कारण पृष्ठ शब्द समास में उत्तरपद होने पर, ऋ का इ नहीं होता है। उदा०-) महिवटुं । मसृण-मृगाक-मृत्यु-शङ्ग-धृष्टे वा॥ १३०॥ एषु ऋत इद् वा भवति । मसिणं मसणं । मिअंको मयंको। मिच्चु मच्चु । सिगं संगं । धिट्ठो धट्ठो।। मसृण, मृगांक, मृत्यु, शृङ्ग, और धृष्ट शब्दों में ऋ का इ विकल्प से होता है। उदा०-मसिणं. 'धट्ठो। उदृत्वादौ ॥ १३१॥ ऋतु इत्यादिषु शब्देषु आदे ऋत उद् भवति । उऊ। परामुट्ठो । पुट्ठो । पउ8ो । पुहई । पउत्ती । पाउसो। पाउओ। भुई । पहुडि । पाहुडं । परतुओ। निहुअं । निउअं । विउअं। संवुअं । वुत्तंतो। निव्वुअं । निव्वुई। बुंदं । वृंदावणो। वुड्ढो। वुढ्ढी। उसहो । मुणालं । उज्जू । जामाउओ। १. पृष्ठपरिस्थापितम् । २. महीपृष्ठम् । Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः पादः माउओ। माउआ। भाउओ। पिउओ। पुहुवी। ऋतु । परामृष्ट । स्पृष्ट । प्रवृष्ट । पृथिवी । प्रवृत्ति । प्रावृष् । प्रावृत । भृति । प्रभृति । प्राभृत । परभृत । निभृत । निवृत । विवृत । संवृत । वृत्तान्त । निवृत । निवृति । वृद। वृदावन । वृद्ध । वृद्धि । ऋषभ । मृणाल । ऋजु । जामातृक । मातृक । मातृका। भ्रातृक । पितृक । पृथ्वी । इत्यादि । ऋतु इत्यादि शब्दों में आदि ऋ का उ होता है। उदा-उउ'''पुहुवी। ( मूल संस्कृत शब्द क्रम से ऐसे हैं---) तु 'पृथ्वी । इत्यादि । निवृत्तवृन्दारके वा ॥ १३२ ॥ अनयोत उद् वा भवति । निवृत्तं निअत्तं । वृंदारया वंदारया।। निवृत्त और बुन्दारक इन दो शब्दों में ऋ का उ विकल्प से होता है। उदा०निवृत्तं 'बंदारया। वृषमे वा वा ॥ १३३ ॥ वृषभे ऋतो वेन सह उद् वा भवति । उसहो वसहो । वृषभ शब्द में व् के साथ ऋ का उ विकल्प से होता है । उदा०-उसहो, वसहो। गौणान्त्यस्य ।। १३४॥ गौणशब्दस्य योन्त्य ऋत् तस्य उद् भवति । 'मास-मंडलं । माउ-हरं । पिउ-हरं । माउसिआ। पिउसिआ। पिउ-वणं । पिउ-वई । ( समास में गौण शब्द का जो अन्त्य ऋ, उसका उ होता है। उदा.माउ.."पिउबई। मातुरिद्वा ॥ १३५ ॥ मातृशब्दस्य गौणस्य ऋत इद् वा भवति । माइ-हरं माउ-हरं । क्वचिदगौणस्यापि । माईणं। (समास में ) गौण होने वाले मातृ शब्दके ऋ का इ विकल्प से होता है । उदा -माई. 'हरं । क्वचित् ( मातृशब्द समास में ) गौण न होने पर भी ( उसमें से ऋ का इ होता है । उदा- ) माईणं । १. क्रम से-- मातृमण्डल । मातृगृह । पितृगृह । मातृष्वसा । पितृष्वसा । पितृवन पितृपति । २. मातृगृह । १. माई.....'मातृ । माइ शब्द का षष्ठी एकवचन । Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरणे उदूदोन्मृपि ॥ १३६ ॥ मृषाशब्दे ऋत उत् ऊत् ओच्च भवंति। मुसा मूसा मोसा। मुसावाओ २ मूसावाओ मोसावाओ। मृषा शब्द में ऋ के उ, ऊ और ओ होते हैं । उदा०--मुसा "वाओ । इदुतौ वृष्टवृष्टिपृथङ्मृदङ्गनप्तके ।। १३७ ॥ एषु ऋत इकारोकारौ भवतः । विठ्ठो वुट्ठो । विट्ठी वुट्ठी। पिहं पुहं । मिइंगो मुइंगो। नत्तिओ नत्तुओ। वृष्ट, वृष्टि, पृथक्, मृदङ्ग, और नतृक शब्दों में, ऋ के इकार और उकार होते हैं । उदा०--विट्ठो'' नत्तुओ। ___ वा बृहस्पतौ ।। १३८॥ बृहस्पतिशब्दे ऋत इदुतौ वा भवतः । बिहप्फई बुहफ्फई। पक्षे। बहफ्फई। बृहस्पति शब्द में ऋ के इ और उ विकल्प से होते हैं । उदा० --बिहप्फई । बुहप्फई । ( विकल्प- ) पक्ष में-बहप्फई । इदेदोवृन्ते ॥ १३ ॥ वृन्त शब्दे ऋत् इत् एत् ओच्च भवन्ति । विण्टं वेष्टं वोण्टं । वृन्त शब्द में ऋ के इ, ए, और ओ होते हैं । उदा०–विण्टं 'वोण्टं । रिः केवलस्य ॥ १४॥ केवलस्य व्यञ्जनेनासंपृक्तस्य ऋतो रिरादेशो भवति । रिद्धी । रिच्छो । व्यंजन से संपृक्त न रहने वाले केवल ऋ को रि आदेश होता है। उदा०रिद्धी, रिच्छो । ऋणन्वृषभत्वृषौ वा ॥ १४१ ॥ ऋणऋजुऋषभऋतुऋषिषु ऋतो रिर्वा भवति । रिणं अणं । रिज्जू उज्जू । रिसहो उसहो। रिऊ उऊ । रिसी इसी। ऋण, ऋजु, ऋषभ, ऋतु और रिषि शब्दों में ऋ का रि विकल्प से होता है । उदा०-रिणं. इसी। १. मृषा। २. मृषावाद । ३. क्रमसे--ऋद्धि । ऋक्ष । Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः पादः दृशः क्विफ्टक्सकः ॥ १४२ ॥ - क्विप् टक् सक् इत्येतदन्तस्य शेर्धातो ऋतो रिरादेशो भवति । सदृक् । सरि'वण्णो। सरिरूवो। सरि-बंदीणं । सदृशः सरिसो। सहक्षः सरिच्छो। एवस् । २ए आरिसो । भवारिसो। जारिसो। तारिसो। केरिसो । एरिसो। अन्नारिसो। अम्हारिसो। तुम्हारिसो। टक् सक् साहचर्यात् 'त्यदाद्यन्यादि' (हेम० ५.१ ) सूत्रविहितः क्विबिह गृह्यते। विवप, टक और सक् प्रत्यय जिसके अन्त मे होते हैं, उस दृश् धातु के ऋ को रि आदेश होता है। उदा०-सहा में---सरिवण्णो...बंदीणं; सहक्ष: 'सरिच्छो; इसी प्रकार-ए आरिसो' "तुम्हारिसो । यहाँ टक् और सक् के साहचर्य के कारण 'त्यदाद्यन्यादि' सूत्र में कहा हुआ क्विप् प्रत्यय यहाँ लेना है। आदृते ढिः ॥ १४३ ॥ आइतशब्दे ऋतो ढिरादेशो भवति । आढिओ। आहत शब्द में ऋ को डि आदेश होता है । उदा०-आढिओ । अरिदृप्ते ॥ १४४ ॥ हप्तशब्दे ऋतो रिरादेशो भवति । दरिओ । दरिम-सीहेण । दृप्त शब्द में ऋ को अरि आदेश होता है । उदा.-दरिओ' 'सीहेण । तृत इलिः क्लुप्तक्लन्ने ॥ १४५ ।। अनयोलत इलिरादेशो भवति । किलित्त "कुसुमोवयारेसु। धाराकिलिन्नवत्तं। क्लप्त और क्लन्न इन दो शब्दों में, ल को इलि आदेश होता है। उदा०किलित्त''वत्तं । एत इद्वा वेदनाचपेटादेवरकेसरे ॥ १४६॥ वेदनादिषु एत इत्त्वं वा भवति । विअणा वेअणा। चविडा। विअडचवेडा-विणोआ। दिअरो देवरो । महमहि अ-*दसण-किसरं । केसरं । महिला महेला इति तु महिलामहेलाभ्यां शब्दाभ्यां सिद्धम् । १. क्रम से-सहक-वर्ण । सहक्-रूप । सदृक्-बन्दिनाम् । २. एतादृश । भवादृश । यादृश । तादृश । कीदृश । ईदृश । अन्यादृश । अस्मादृश । युष्मादृश । ३. दृप्त-सिंहेन । ४. क्रम से-क्लप्तकुसुमोपचारेषु । धाराक्लन्नपत्रम् । ५. विकट, चपेटा, विनोदाः । ६. प्रसृत, दशन, केसरम् । सूत्र ४.७८ के अनुसार 'महमह' धातु प्र + ल धातुका धात्वादेश है। Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरणे ४१ बेदना इत्यादि-वेदना, चपेटा, देवर, और केसर-शब्दों में, ए का इ विकल्प से होता है। उदा०विअणा केसरं । (प्रश्न:-यह नियम महिला और महेला वर्णान्तरों के बारे में लगा है क्या ? उत्तर-नहीं ) महिला और महेला में वर्णान्तर तो महिला और महेला शब्दों से सिद्ध हुए हैं। ऊः स्तेने वा ॥ १४७ ।। स्तेने एत ऊद् वा भवति । थूणो थेणो। स्तेन शब्द में ए का ऊ विकल्प से होता है। उदा०-थूणो, येणो । ऐत एत् ॥ १४८॥ ऐकारस्यादौ वर्तमानस्य एत्वं भवति । सेला' । तेलोक्कं । एरावणो । केलासो। वेज्जो । केढवो । वेहव्वं । आदि रहने वाले ऐकारका ए होता है । उदा०-सेला...वेहव्वं । इत्सैन्धवशनैश्चरे ॥ १४६ ॥ एतयोरैत इत्त्वं भवति । सिन्धवं । सणिच्छरो। सन्धव और शनैश्चर इन दो शब्दों में ऐ का इ होता है। उदा०-सिंधवं, सणिच्छरो। . सैन्ये वा ॥ १० ॥ सैन्यशब्दे ऐत इद् वा भवति । सिन्नं सेन्नं । सैन्य शब्द में ऐ का इ विकल्प से होता है । उदा०-सिन्नं, सेग्नं । अइत्यादौ च ॥ १५१ ।। सैन्यशब्दे दैत्य इत्येवमादिषु च ऐतः अइ इत्यादेशो भवति । एत्वापवादः । सइन्न । दइच्चो। दइन्नं। अइसरि। भइरवो । वइजवणो। दइव । वइआलीअं। वइएसो। वइएहो । वइदब्भो। वइस्साणरो। कइअवं। वइसाहो । वइसालो । सइरं। चइत्तं । दैत्य । दैन्य। ऐश्वर्य। भैरव । वैजबन । दैवत । वैतालीय। वैदेश । वैदेह। बैंदर्भ। वैश्वानर । कैतव । वैशाख । वैशाल । स्वैर । चैत्य । इत्यादि । विश्लेषे न भवति । चैत्यम् चेइअं। आर्षे । चैत्य-वन्दनम् ची-वंदणं । __ सैन्य शब्द में तथा दैत्य इत्यादि प्रकार के शब्दों में, ऐ को अइ आदेश होता है। ( आदि ऐकारका ) ए होता है ( सूत्र १.१४८ ) इस नियम का अपवाद प्रस्तुत नियम है। उदा.-सइन्न; दइच्चो "चइत्तं । { इनके मूल संस्कृत शब्द क्रमसे ऐसे हैं-) ( सैन्य ); दैत्य...चत्य, इत्यादि । ( संयुक्त व्यंजन में से अवयवों का स्वरभक्ति १. क्रमसे-शैलाः । त्रैलोक्यम् । ऐरावतः । कैलासः । बैद्यः । कैटमः । वैधन्यम् । Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ प्रथमः पादः से ) विश्लेष हुआ हो, तो (ऐ का अइ ) नहीं होता है। उदा-चैत्यम् चेइमं । आर्ष प्राकृत में-चत्यवन्दनम् ( शब्द का ) ची-वंदणं ( ऐसा वर्णान्तर होता है )। वैरादौ वा ॥ १५२ ॥ वैरादिषु ऐतः अइरादेशो वा भवति । वइरं वेरं। कइलासो केलासो। कहरवं केरवं। वइसवणो वेसवणो। वइसंपायणो वेसंपायणो । वइआलिओ वेआलिओ। वइसिअं वेसिअं। चइत्तो चेत्तो। वैर। कैलास । कैरव । वैश्रवण । वैशम्पायन । वैतालिक । वैशिक । चैत्र । इत्यादि । वैर इत्यादि शब्दों में ऐ को अइ आदेश विकल्प से होता है। उदा०-वदर... चेत्तो। ( मूल संस्कृत शब्द क्रम से ऐसे:-) वैर...चैत्र,इत्यादि । एच्च दैवे ॥ १५३ ॥ दैवशब्दे ऐत एत् अइश्चादेशो भवति । देव्वं दइव्वं दइवं । दैव शब्द में ऐ का ए और अइ आदेश होते हैं। उदा०-देख्नं...दइन । उच्चैर्नीचैस्त्र अः ॥ १५४ ॥ अनयोरैतः अअ इत्यादेशो भवति । उच्चअं । नीचअं। उच्चनीचाभ्यां के सिद्धम् । उच्चैर्नीचैसोस्तु रूपान्तरनिवृत्त्यथं वचनम् । उच्चः और नीचः इन दो शब्दों में ऐ को अअ आदेश होता है। उदा०-उच्चअं, नीचरं । ( तो ) उच्च और नीच इन शब्दों से कौन से वर्णान्तर होते हैं ? उच्चः और नीचैः शब्दों के अन्य वर्णान्तर नहीं होते हैं, यह बताने के लिए ( यहाँ का ) विधान है। ईथैर्ये ॥ १५५ ॥ धैर्यशब्द ऐत ईद् भवति । धीरं 'हरइ विसाओ। धर्य शब्द में ऐ का ई होता है । उदा.---धीर.. विसाओ। ओतोद्वान्योन्यप्रकोष्ठातोद्यशिरोवेदनामनोहरसरोरुहे क्तोश्च ॥१५६।। एषु ओतोत्त्वं वा भवति तत्संनियोगे च यथासंभवं ककारतकारयोवर्वादेशः । अन्नन्न अन्नन्न । पवटठो पउठो। आवज्ज आउज्ज। सिरविअणा सिरोविअणा । मणहरं मणोहरं । सररुहं सरोरुहं।। अन्योन्य. प्रकोण्ठ, आतोद्य, शिरोवेदना, मनोहर, और सरोरुह इन शब्दों में, ओ का अ विकल्प से होता है, और उसके सानिध्य में, संभवनीय जहाँ तो वहाँ, ककार और नकार को न ( ऐसा ) आदेश होता है। उदा०--अन्नन्नं "सरोरुहं । १.धैर्य हरति विषादः । Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरण ऊत्सोच्छवासे ॥ १५७॥ सोच्छ्वासशब्दे ओत ऊद् भवति । सोच्छ्वासः सूसासो। सोच्छ्वास शब्द में ओ का ऊ होता है । सोच्छ्वासः सूसासो । गव्यउ आअः॥ १५८ ।। गोशब्दे ओतः अउ आअ इत्यादेशौ भवतः । गउओ। गउआ। गाओ। हरस्सा एसा गाई। गो शब्द में मो को अउ और आअ आदेश होते हैं । उदा०-गउओ ‘गाई। __ औत ओत् ॥ १५ ॥ औकारस्यादेरोद् भवति । कौमुदी कोमुई । यौधनम् जोव्वणं । कौस्तुभः कोत्थुहो । कौशाम्बी कोसंबी । क्रोंचः क्रोंचो । कौशिकः कोसिओ। आदि ( रहनेवाले ) औकार का ओ होता है। उदा०-कौमुदी' 'कोसिओ । उत्सौन्दर्यादौ १६०॥ सौन्दर्यादिषु शब्देषु औत उद् भवति । सुंदेरं सुंदरिअं। मुंजायणो। सुण्डो । सुद्धो अणी । दुवारिओ । सुगंधत्तणं । पुलोमी। सुवण्णिओ । सौन्दर्य । मौलायन । शौण्ड । शौद्धोदनि । दौवारिक । सौगन्ध्य । पौलोमी। सौवर्णिक । सौन्दर्य इत्यादि शब्दों में औ का उ होता है। उदा.-सुंदेरं.."सुवण्णिओ। ( इनके मूल संस्कृत शब्द क्रम से- ) सौन्दर्य 'सौणिक । कौक्षेयके वा ॥१६१ ॥ कौक्षेयकशब्दे औत उद् वा भवति । कुच्छेअयं कोच्छेअयं । कौक्षेयक शब्द में ओ का उ विकल्प से होता है। उदा.-कुच्छेअयं, कोच्छेअयं । अउः पौरादौ च ॥ १६२ ॥ कौक्षेयके पौरादिषु च औत अउरादेशो भवति । कउच्छे अयं । पौरः । पउरो। प'उरजणो। कौरवः । कउरवो। कौशलम् । कउसलं। पौरुषम् पउरिसं। सौधम् सउहं । गौडः गउडो । मौलिः । मउलो। मौनम् । मउणं सौराः । सउरा । कौलाः। कउला । ___ कौक्षयक शब्द में तथा पौर इत्यादि शब्दों में, औ को अउ आदेश होता है उदा.-करच्छेभयं; पौरः क उला । १. हरस्य एषा गौः । २. पौरजन । Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः पादः आच्च गौरवे ॥ १६३ ॥ गौरवशब्दे औत आत्वं अउश्च भवति । गारवं गउरवं । गौरव शब्द में औ के आ और अ उ होते हैं । उदा०-गारवं, गउरवं । नाव्यावः ॥ १६४॥ नौशब्दे औत आवादेशो भवति । नावा। नौ शब्द में भी को आव आदेश होता है । उदा०-नावा । __एत् त्रयोदशादौस्वरस्य सस्वरव्यञ्जनेन ।। १६५ ।। त्रयोदश इत्येवं प्रकारेषु संख्याशब्देषु आदेः स्वरस्य परेण सस्वरेण व्यञ्जनेन सह एद् भवति । तेरह । तेवीसा । तेतीसा। त्रयोदश इत्यादि प्रकार के संख्या (-वाचक) शब्दों में, अगले स्वर सहित व्यञ्जन के साथ, आदि स्वर का ए होता है । उदा०--तेरह तेतीसा । स्थविरविचकिलायस्कारे ॥ १६६ ॥ एषु आदेः स्वरस्य परेण सस्वरव्यञ्जनेन सह एद् भवति । थेरो । वेइल्लं । मुद्धविअइल्लपसूणपुंजा इत्यपि दृश्यते । एक्कारो। स्थविर, विचाकल, और अयस्कार शब्दों में, अगले स्वर सहित व्यञ्जन के सह, आदि स्वर का ए होता है। उदा०-थेरो, वेइल्लं; मुद्धविभइल्लपसूणपुंजा ( शब्द समूह में, ए न होते, विअइल्ल ) ऐसा ( वर्णान्तर ) भी दिखाई देता है; एक्कारो। वा कदले ॥ १६७॥ कदलशब्दे आदेः स्वरस्य परेण सस्वरव्यञ्जनेन सह एद् वा भवति । केलं कयलं । केली कयली। कदल शब्द में, अगले स्वर सहित व्यञ्जन के साथ, आदि स्वर का ए विकल्प से होता है। उदा.-केलं.. कयली ।। वेतः कर्णिकारे ।। १६८ ॥ कर्णिकारे इतः सस्वरव्यञ्जनेन सह एद् वा भवति । कण्णेरो कण्णिआरो। कणिकार शब्द में, (णि में से ) इ का ( अगले ) स्वर सहित व्यञ्जप के साथ विकल्प से ए होता है । उदा०-कण्णेरो, कणिआरो। १. क्रमसे-त्रयोदश । त्रयोविंशति । त्रयस्त्रिशत् । २. मुग्धविचकिलप्रसूनपुञ्जाः । ३. कदली। Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरणे अयौ वै ॥ १६६ ॥ अयिशब्दे आदेः स्वरस्य परेण सस्वरव्यञ्जनेन सह ऐद् वा भवति । ऐब'हेमि । अइ 'उम्मत्तिए । वचनादैकारस्यापि प्राकृते प्रयोगः । अयि शब्द में, अगले स्वर सहित व्यञ्जन के साथ, आदि स्वर का ऐ होता है । उदा०-- - ऐम्मत्तिए । ( ऐ होता है ऐसा ) विधान होने से, ऐकार का भी प्रयोग ( कभी-कभी दिखाई देता है ऐसा जाने ) | ओत् पूतरबदरनवमालिकानवफलिकापूगफले ।। १७० ।। पूतरादिषु आदेः स्वरस्य परेण सस्वरव्यञ्जनेन सह ओद् भवति । पोरो । बोरं । बोरी । नोमालिआ । नोहलिआ । पोप्फलं ४ पोप्फली । 1 पूतर इत्यादि - पूतर, वदर, नवमालिका, नवफलिका, पूगफल -- शब्दों में अगले स्वर सहित व्यञ्जन के साथ आदि स्वरका ओ होता है । उदा - पोरो पोष्फली | न वा मयूख लवण- चतुर्गुण-चतुर्थ-चतुर्दश चतुर्वार सुकुमारकुतूहलोदुखलोलूखले || १७१ ।। ४५ विकल्प से प्राकृत में मयूखादिषु आदेः स्वरस्य परेण सस्वरव्यञ्जनेन सह ओद् वा भवति । मोहो मऊहो । लोणं । इअ " लवगुग्गमा । चोग्गुणो चउग्गुणो । चोत्थो चउत्थो । चोत्थी चउत्थी' । चोद्दह चउद्दह । चोद्दसी 'चउद्दसी । चोव्वारो चउव्वारो । सोमालो । सुकुमालो । कोहलं कोउहल्लं । तह मन्ने कोहलिए । ओहलो उऊहलो | ओक्खल उलूहलं । मोरो मऊरो इति तु मोरमयूरशब्दाभ्यां सिद्धम् । ᄃ मयूख इत्यादि - मयूख, लवण, चतुर्गुण, चतुर्थ, चतुर्दश, चतुर्वार, सुकुमार, कुतूहल, उदूखल, उलूखल -- शब्दों में, अगले स्वर सहित व्यञ्जन के साथ, आदि स्वरका ओ विकल्प से होता है । उदा० - मो हो' उलूहलं । ( प्रश्न - इस नियम से ही मयूर शब्द से मोरो और मऊरो ये वर्णान्तर होते हैं क्या उत्तर-- - नहीं ) । मोरो और मऊरो ये वर्णान्तर मोर और मयूर शब्दों से सिद्ध हुए हैं । अवापोते ।। १७२ ॥ अवापयोरुपसर्गयोरुत इति विकल्पार्थनिपाते च आदेः स्वरस्य परेण १. बहि धातु भी धातु का आदेश है ( सूत्र ४.५३ देखिए ) । २. उन्मत्तिके । ३. बदरी । ४. Vपूगफल । ५. इति लवण - - - उद्गमाः । ७. चतुर्दशी । ६. चतुर्थी । ८. तथा मन्ये कुतूहलिके । - Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ प्रथमः पादः सस्वरव्यखनेन सह ओद् वा भवति । अव । ओ अरइ' अवयरइ। मोआसो अवयासो। अप । ओसरइ अवसरइ। ओसारिअं अवसारि। उत । ओ अषणं । ओ घणो । उ अवणं । उअधणो। क्वचिन्न भवति । अवगयं । अवसहो । उअ रवी। अब और अप उपसों में तथा विकल्प-अर्थबोधक उत अध्यय में (निपात ), अगले स्वर सहित व्यंजन के साथ, आदि स्थरका ओ विकल्प से होता है । उदा०अव-ओअरइ. 'अवयासो। अपः-ओसर इ. 'अवसारियं । उतः-ओवणं... "घणो । क्वचित् ( यही कहा हुआ वर्णान्तर ) नहीं होता है। उदा०-अवगयं "रबो । ऊच्चोपे ।। १७३ ।। उपशब्दे आदेः स्वरस्य परेण सस्वरव्यञ्जनेन सह ऊत् ओच्चादेशौ बा भवतः। ऊह"सि ओहसि उवहसि। ऊज्झाओ ओज्झाओ उवज्झाओ। ऊआसो ओआसो उववासो। उपशब्द में, अगले स्वर सहित व्यञ्जन के साथ, आदि स्वर को ऊ और ओ आदेश विकल्प से होते हैं । उदा-अहसि उववासो । __उभो निषण्णे ॥ १७४ ॥ निषण्णशब्दे आदेः स्वरस्य परेण सस्वरव्थलनेन सह उभ आदेशो वा भवति । णुमण्णो णिसण्णो । निषण्ण शब्द में, अगले स्वर सहित व्यञ्जन के साथ, आदि स्वर को उभ आदेश विकल्प से होता है । णुकण्णो, णिसण्णो । प्रावरणे अङ्ग्वाऊ ॥ १७५ ॥ प्रावरण शब्दे आदेः स्वरस्य परेण सस्वरव्यञ्जनेन सह अङगु आउ इत्येतावादेशौ भवतः । पंगुरणं पाऊरणं पावरणं । प्रावरण शब्द में, अगले स्वर सहित व्यञ्जन के साथ, आदि स्वरको अंगु और आउ ये आदेश विकल्प से होते हैं । उदा०--पंगुरणं पावरणं । स्वरादसंयुक्तस्यानादेः ।। १७६ ।। अधिकारोयम् । यदित ऊर्ध्वमनुक्रमिष्यामस्तत्स्वरात् परस्यासंयुक्तस्यानादेर्भवतीति वेदितव्यम् ।। यह ( सूत्र में से शब्द समूह ) अधिकार है। यहाँ से आगे हम अनुक्रम से जो १. क्रस अवतरित । अवकाश । २. क्रमसे-अपसरति । अपसारित । ३. क्रमसे-उतवनम् । उतधनः । ४. क्रमसे-अपगत । अपशब्द । उत रविः । ५. क्रमसे-उपहसित, उपाध्याय, उपवास । Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरणे ४७ कहेंगेः वह स्वर के अगले (=स्वर के आगे होने वाले ), असंयुक्त ( और ) अनादि वर्ण के बारे में होता है ऐसा जाने । कगचजतदपयवां प्रायो लुक् ।। १७७॥ स्वरात् परेषामनादिभूतानामसंयुक्तानां कगचजतदपयवानां प्रायो लुग भवति । क। तिथियरो। लोओ। सयढं । ग। नओ। नयरं। मयंको। च । सई । कयग्गहो। न। रययं । पयावई । गओ। त । विआणं । रसायलं । जई। द। गया । मयणो । प। रिऊ । सुररिसो । य। दयाल । नयणं । विओओ। व। 'लायण्णं । विउहो । वलयाणलो। प्रायो ग्रहणात् क्वचिन्न भवति । सुकुसुमं । पयागजलं । सुगौ । अगरू । सचावं । विजणं । सुतारं । विदुरो । सपावं । समवाओ। देवो । दाणवो । स्वरादित्येव । "संकरो। संगमो। नक्कंचरो। धणंजओ। विसंतवो। पुरंदरो। संवुडो। संवरो । असंयुक्तस्येत्येव । अक्को । वग्गो । अच्चो। वज्ज । धुत्तो। उद्दामो । विप्पो । कज्जं। सव्वं । क्वचित् संयुक्तस्यापि । नक्तंचरः नक्कं चरो। अनादेरित्येव । कालो। गंधो। चोरो। जारो। तरू। दयो। पाव । वण्णो। यकारस्य तु जत्वं आदौ वक्ष्यते। समासे तु वाक्यविभक्तयपेक्षया भिन्नपदत्वमपि विवक्ष्यते । तेन तत्र यथादर्शनमुभयमपि भवति । सुहकरो सुहयरो। आगमिओ आयमिओ । जलचरो जलयरो । वहुतरो। बहुअरो। सुहदो सुहओ। इत्यादि । क्वचिदादेरपि । स पुनः सउण । स च सो अ। चिह नं इन्धं । क्वचिच्चस्य जः । पिशाची पिसाजी ॥ एकत्वं एगत्तं । एकः । १. क्रमसे--तीर्थकर, लोक, शकट । २. क्रमसे-नग, नगर, मृगांक । ३. क्रमसे-शची, कचग्रह । ४. क्रमसे रजत, प्रजापति, गज । ५. क्रमसे वितान, रसातल, यति । ६. क्रमसे-गदा, मदन । ७. क्रमसे-रिपु, सुपुरुष । ८. क्रमसे-~-दयालु, नयन, वियोग । ९. क्रमसे-- लावण्य । विबुध । वडवानल । १०. क्रमसे-सुकुसुम । प्रयागजल । सुगत । अगुरु । सचाप । विजन । व्यञ्जन सुतार। विदुर । सपाप । समवा । देव । दानव । ११. क्रमसे-शंकर । संकर, संगम, नक्तंचर, धनंजय, विषंतप, पुरंदर, संवृत, संवर । संवर । १२. क्रमसे-अर्क, वर्ग, अर्य, वज्र । वयं, धूर्त, उद्दाम, विप्र, कायं, सर्व । १३. क्रमसे-काल, गंध, चौर, जार, तरु, दव, पाप, वर्ण । १४. क्रमसे-सुखकर/शुभकर, आगमिक, जलचर, बहुतर, सुखद, शुभद । Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ प्रथमः पादः एगो । अमुकः अमुगो । असुकः असुगो। श्रावकः सावगो। आकारः आगारो। तीर्थकरः नित्थगरो। आकर्षः । आगारिसो। लोगस्सुज्जो अगरा। इत्यादिषु तु व्यत्ययश्च ( ४.४४७ ) इत्येव कस्य गत्वम् । आर्षे अन्यदपि दृश्यते । आकुश्वनं आ उण्टणं । अत्र चस्य टत्वम् । स्वर अगले, अनादि होने वाले और असंयुक्त ऐसे जो क् ग् च् ज् त् द् प्य और व् व्यंजन, उनका प्रायः लोप होता है । उदा०-क् ( का लोप )-नित्थयरो... सयडं । ग् ( का लोप )-न ओ'मयंको । च् ( का लोप)-सइगहो । ज ( का लोप )-रथयं 'गओ। त् ( का लोप )-विआणं 'जई । द् ( का लोप )-गया मयणो । ५ ( का लोप )-रिऊ, सुउरिसो। य् ( का लोप ) दयालू बिओओ । व ( का लोप -लायणं. "याणलो। प्रायः ( लोप होता है ) ऐसा निर्देश होने से, क्वचित् ( क् ग् च ज इत्यादि का लोप ) नही होता है । उदा.-सुकुसूमंदाणवो। स्वर के आगे ही ( होने वाले क् ग् इत्यादि का लोप होता है। इसलिए पोछे अनुस्वार होने पर, ऐसा लोप नहीं होता है। उदा०-) संकरो...संवरो। ( क ग इत्यादि ) असंयुक्त होने पर ही ( उनका लोप होता है। वे संयुक्त हो, तो उनका लोप नहीं होता हैं । उदा० .-) अक्को...सव्वं । क्वचित् संयुक्त होने वाले ( क इत्यादि का लोप होता है । उदा.---.) नक्तंचरः नक्कंचरो । अनादि होने वाले ही ( क् ग् इत्यादि का लोप होता है; वे आदि हो,तो उनका लोप नहीं होता है । उदा:-) कालो "वण्णो । यकार आदि होने पर, उसका ज होता है, यह आगे (सूत्र १ २४५ में) कहा जाएगा। समास में तो वाक्य विभक्तिकी अपेक्षा से ( द्वितीय पद ) भिन्न है ऐसी विवक्षा हो सकती है। उस कारण उस स्थान पर जैसा साहित्य में दिखाई देता है वैसा दोनों भी (=यानी समास में द्वितीय पदके आदि व्यंजन कभी आदि तो कभी अनादि समझकर, वर्णान्तर ) होते हैं। उदा-सुहकरो' 'सुहओ, इत्यादि । क्वचित् ( च ५ इत्यादि ) आदि होने पर भी ( उसका लोप होता है। उदा०-) स पुनः · इन्धं । क्वचित् च का ज होता है। उदा०-पिशाची, पिसाजी। परंतु एकत्वं एगत्तं ' ज्जो इत्यादि शब्दों में, 'व्यत्ययश्च' सूत्रानुसार क का ग् होता है। आर्व प्राकृत में अन्य वर्णान्तर भी दिखाई देता है । उदा०-आकुञ्चनं आउण्टणं; यहाँ च का ट् हुआ है। यमुनाचामुण्डाकामुकातिमुक्तके मोनुनासिकश्च ।। १७८ ॥ एषु मस्य लुग् भवति लुकि च सति मस्य स्थाने अनुनासिको भवति । जउँणा । चाउँण्डा। काउँओ। अणिउँतयं । क्वचिन्न भवति । अइमंतयं अइ. मुत्तयं । - यमुना, चामुण्डा, कामुक, अतिमुक्तक शब्दों में, म् का लोप होता है, और लोप होने पर, भ के स्थान पर अनुनासिक आता है। उदा.-जउँणा' 'अणि उतयं । क्वचित् (भ का लोप ) नहीं होता है । उदा-अइ{तयं, अइमुत्तयं । ७. लोकस्य उद्योतकराः । Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरणे नावर्णात् पः ।। १७६ ॥ अवर्णात् परस्यानादेः यस्य लुग् न भवति । 'सवहो । सावो अनादेरित्येव । `परउट्ठो । अवर्ण के आगे होने वाले, अनादि प् का लोप नहीं होता है । उदा० - सवहो । सावो । ( प ) अनादि होने पर हो ऐसा होता है। प् आदि होगा, तो वह जैसा ही रहता है । उदा०, पर उठो । अवर्णो यश्रुतिः ।। १८० ॥ कणचजेत्यादिना ( १.१७७ ) लुकि सति शेषः अवर्णः अवर्णात् परो लघुप्रयत्नतरयकारश्रुतिर्भवति । तित्थयरो । सयढं । नयरं । मयंको कयग्गहो । कायमणी । रययं । पयावई । रसायलं । पायालं । मयणो । गया। नयणं । दयालू । लायणं । अवर्ण इति किम् । सउणो । पउणी । पउरं । निहओ । निनमो । वाऊ । कई । अवर्णादित्येव । 'लोस्स । देअरो । राईवं । क्वचिद् भवति । पियइ । 'कगचज' इत्यादि सूत्र से ( क् ग् इत्यादि का ) लोप होने पर, शेष अथगं यदि अवर्ण के आगे हो तो लघु प्रयत्न से उच्चारित 'य' जैसी ( उस अवर्ण की ) श्रुति होती है ( यानी लघु प्रयत्न से उच्चारित य जैसा वह अवर्णं सुनाई देता है ) । उदा० - तित्थयरोलायण्णं । अ-वर्णं ऐसा क्यों कहा ? कारण क् ग् इत्यादि का लोप होने पर यदि शेष वर्णं अ-वर्णन हो, तो उसकी य-श्रुति नहीं होती है । उदा० ) सउणो ं कई । अवर्ण के आगे होने पर ही ( शेष अ-वर्ण की व श्रुति होती है; पीछे अवर्ण न हो, तो प्रायः य श्रुति नहीं होती है । उदा०-- ) लोअस्स, देअरो । क्वचित् पोछे अ-वर्ण न होने पर भी शेष अ-वर्ण को य श्रुति होती है । उदा० ) - पियइ । कुब्जकर्षरकीले कः खोपुष्पे ॥ १ ८१ ॥ एषु कस्य खो भवति पुष्पं चेत् कुब्जाभिधेयं न भवति । खुज्जो । खप्परं । ओ | अपुष्प इति किम् । बंधेउं कुज्जयपसूणं । आषैन्यत्रापि । कासितं खासिअं । कसितं खसिअं । कुब्ज, कपर, कील शब्दों में, क का ख होता है; ( कुब्ज शब्द का ) यदि कुब्ज नामका फूल ऐसा अर्थ हो, तो कुब्ज शब्द में ( क का ख ) नहीं होता है । १. क्रमसे:- शपथ शाप । २. परपुष्ट । ३. काचमणि । ४. पाताल । ५. क्रम से... शुकनि ( शकुन ) । प्रगुण । प्रचुर । राजीव । निहत । निनत ( नि + नत ) | वायु । कवि | कपि । ६. क्रमसे - लोकस्य । देवरः । ७. पिबति । ४ प्रा० व्या● ८. बदवा कुब्जक- प्रसूनम् । ४९ Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः पादः उदा.-खुज्जो 'खलिओ। ( कुब्ज शब्द का अर्थ ) फूल न होने पर, ( क का ख होता है ) ऐसा क्यों कहा है ? ( कारण कुन्ज शब्द का अर्थ उस नामका फूल ऐसा होने पर, क का ग्स नहीं होता है। उदा०-) वंधेउं पसूणं । आर्ष प्राकृत में अन्यत्र भी यानी अन्य कुछ शब्दों में भी ( क का ख होता है। उदा० -- ) कासित.."ख सिकं । मरकत मदकले गः फन्दुके त्वादेः ॥१८२॥ अनयोः कस्य गो भवति कन्दुके त्वाद्यस्य कस्य । मरगयं । मयगलो । गेन्दुअं। _____ मरकत और मदकल इन दो शब्दों में क का ग होता है; परन्तु कन्दूक शब्द में मात्र आध क का ग होता है । उदा०-गरगयं''गेन्दु । किराते चः ॥ १८३ ॥ किराते कस्य चो भवति । चिलाओ। पुलिन्द एवायं विधिः । कामरूपिणि तु नेष्यते। नमिमो' हरकिरायं । किरात शब्द में क का च होता है । उदा.--चिलाओ। ( किरात शब्द का अयं किरात यानी ) पुलिन्द (=एक वन्य जाति ) होने पर ही, ( क का न होता है) यह नियम लागू पड़ता है। परन्तु ( किरात शब्द का अर्थ यदि किरात का ) वेश बारण करने वाला (किरात ऐसा हो, तो इस नियम की प्रवृत्ति ) इष्ट नहीं मानी जाती है। उदा०-नमिमो. किरायं । शीकरे भहौ वा ।। १८४ ॥ शीकरे कस्य भहौ वा भवतः । सीभरो सीहरो। पक्षे। सीअरो। शोकर शब्द में क के भ और ह विकल्प से होते हैं। उदा०-सीभरो, सीहरो। (विकल्प -----) पक्ष में-सीमरो। चन्द्रिकायां मः ॥ १८५ ॥ चन्दिकाशब्दे कस्य मो भवति । चंदिमा । चान्द्रिका शब्द में क का म होता है। उदा०-चंदिमा। निकषस्फटिकचिकुरे हः ॥ १८६॥ एषु कस्य हो भवति । निहसो। फलिहो । चिहरो। चिहरशब्दः संस्कृतेपि इति दुर्गः। १. नमामः हरकिरातम् । Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरणे निकष, स्फटिक और चिकुर शब्दों में क का ह होता है । उदा० - चिहुरो । दुर्ग के मतानुसार, चिहर ऐसा शब्द संस्कृत भाषा में भी है । खघथधभाम् ॥ १८७ ॥ स्वरात् परेषामसंयुक्तानामनादिभूतानां खघथधभ इत्येतेषां वर्णानां प्रायो हो भवति । ख । 'साहा । मुहं । मेहला । लिहइ । घ । २ मेहो । जहणं माहो । लाहइ । थ । नाहो । आवसहो । मिहुणं । कहइ । ध । साहू | वाहो । बहिरो । बाहर | इंद- हण । भ । " सहा । सहावो । नहं । थणहरो । सोहइ | स्वरादित्येव । संखो । संघो । कंथा । बंधो। खंभो । असंयुक्तस्येत्येव । "अक्खइ । अग्घइ । कत्थइ । सिद्धओ | बंधइ । लब्भइ | अनादेरित्येव । गज्जन्ते खे मेहा । गच्छइ घणो । प्राय इत्येव । सरिसव - खलो | पलय- घणो । अथिरो । जिण धम्भो । पणट्ठभओ । नभं । ... - स्वर के आगे होने वाले, असंयुक्त, अनादि होने वाले ख् घ थ् ध् और भू वर्णोका प्रायः ह होता है । उदा० -ख ( का ) - साहा लिहइ । घ ( का ह ) - मेहो... लाहइ । थ का ह) – नाहो कहइ । ध ( का ह ) - साहू इन्दधणू । भ ( का ह) – सहा सोहइ । स्बर के आगे होने पर ही ( ख् धु इत्यादि का ह होता है; पीछे अनुस्वार होने पर, ऐसा ह, नहीं होता है । उदा० ) संखो "खंभो । असंयुक्त होने पर ही ( ख् ध् इत्यादि का ह होता है; वे संयुक्त होने पर, ऐसा ह नहीं होता है । उदा० --) अक्ख इ 'लन्भइ । अनादि होने पर हो ( ख् घ् इत्यादि का ह. होता है; वे आदि हो, तो ह, नहीं होता है । उदा०--- - ) गज्जेते ( खु ध् इत्यादि का ह. ) प्रायः ही होता है; । कभी कभी उदा० ) सरिसव 'नभं । घणो । ऐसा है, नहीं होता है । १. क्रमसे -- शाखा । मुख । मेखला । लिखति । २. क्रमसे - मेध । जघन । माघ । श्लाघते । ५१ ३. क्रम से - नाथ | आवसथ | मिथुन । कथयति । ४. क्रमसे - साधु । व्याध | बधिर । बाधते । इन्द्रधनुस् । ५. क्रम से - सभा | स्वभाव । नभस् । स्तनभर | शोभते । ६. क्रम से - शंख । संघ | कंथा । बंध | स्तं ( स्कं ) भ । ७. क्रम से -- आख्याति, राजते ( सूत्र ४.१०० अनुसार, राज् का आदेश भग्ध है ), कथ्यते ( सूत्र २. १७४ देखिए ), सिद्धक, बध्नाति लभ्यते । ८. क्रमसे - गर्जन्ति खे मेघाः । गच्छति धनः । ९. क्रम से ---- सर्षप - खल प्रलय धन । अस्थिर | जिनधर्मं । प्रणष्ट भय । नभस् । Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२ प्रथमः पादः पृथकि धो वा ॥ १८८॥ पृथक् शब्दे थस्य धो वा भवति । पिधं युधं । पिहं पुहं । पृथक् शब्द में थ का ध विकल्प से होता है। उदा०-पिधं..."पुहं । शृङ्खले खः कः ॥ १८६ ॥ शृङ्खले खस्य को भवति । सङ्कलं । शृङ्खल शब्द में ख का क होता है । उदा०-संकलं । पुन्नागभागिन्योर्गों मः ॥ १६० ॥ अनयोगस्य मो भवति । 'पुनामाई वसंते । भामिणी। पुन्नाग और भागिनी शब्दों में ग का म होता है । उदा०-पुन्नामाई. 'भामिणी। छागे लः॥ ११॥ छागे गस्य लो भवति । छालो छाली। छाग शब्द में ग का ल होता है । उदा०-~-छालो, छाली । ऊत्वे दुर्भगसुभगे वः ॥ १६२॥ अनयोकत्वे गस्य वो भवति । दूहवो । सूहवो । ऊत्व इति किम् । दुहओ। सुहओ। दुभंग और सुहग इन दो शब्दों में, ( आदि उकारका ) ऊ होने पर, ग का व होता है । उदा०-दूहवो, सूहवो। ऊ होने पर ऐसा क्यों कहा है ? ( कारण इन शब्दों में, यदि उ का ऊ न हो, तो ग का व नही होता है । उदा०-)दुहओ, मुहओ। खचितपिशाचयोश्वः सल्लौ वा ॥ १६३ ॥ अनयोश्वस्य यथासंख्यं स ल्ल इत्यादेशौ वा भवतः। खसिओ खइओ। पिसल्लो पिसाओ। ___खचित और पिशाच शब्दों में, च को अनुक्रम से स और ल्ल आदेश विकल्प से होते है । उदा०-खसिओ... पिसाओ । जटिले जो झो वा ॥१६४ ॥ जटिले जस्य झो वा भवति । झडिलो जडिलो। जटिल शब्द में, ज का झ विकल्प से होता है। उदा.-झडिलो, जडिलो । १. पुन्नागानि वसन्ते। २. /छाग। Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरणे टो डः ॥ १६५ ॥ स्वरात् परस्यासंयुक्तस्यानादेष्टस्य डो भवति । नडो'। भडो। घडो। धडइ। स्वरादित्येव । घंटा। असंयुक्तस्येत्येव। खट्टा। अनादेरित्येव । २टक्को। क्वचिन्न भवति । अटति अटइ। स्वर के आगे होने वाले, असंयुक्त और अनादि ट का उ होता है। उदा.नडो.... धडइ । स्वर के आगे होने पर ही ( ट का ड होता है; पीछे अनुस्वार होने पर, यह वर्णान्तर नही होता है। उदा०-) घंटा । असंयुक्त होने पर ही ( ट का र होता है। संयुक्त होने पर नहीं होता है। उदा०-) खट्टा । अनादि होने पर ही ( ट का ड होता है; ट आदि हो, तो उसका ड नहीं होता है । उदा.---) टक्को । क्वचित् ( ट का ड ) नहीं होता है । उदा०-अटति अटइ। सटाशकटकैट मे ढः ॥ १६६ ।। एषु टस्य ढो भवति । सढा । सयढो । केढवो । सटा, शकट, कैटभ शब्दों में ट का ढ होता है। उदा०-सढा..."केढवो । स्फटिके लः ॥ १७॥ स्फटिके टस्य लो भवति । फलिहो। स्फटिक शब्द में ट का ल होता है । उदा० –फलिहो । चपेटापाटौ वा ॥ १९८॥ चपेटाशब्दे ण्यन्ते पटिधातौ टस्य लो वा भवति । चविला चविडा । फालेइ फाडेइ। ___चपेटा शब्द में और प्रयोजक प्रत्ययान्त पट् धातु में,ट का ल विकल्प से होता है। उदा०-चविला..."फाडेइ । ठो ढः ॥ १६६ ॥ स्वरात् परस्यासंयुक्तस्यानादेष्ठस्य ढो भवति । "मढो। सढो। कमढो। कुढारो । पढइ । स्वरादित्येव । वेकंठो । असंयुक्तस्येत्येव । चिट्ठइ' । अनादेरित्येव । हिअए ठाइ। १. क्रम से--नट । भट । घटति । घट। २. खना। ३. टक्क । ४. क्रगसे-मठ ।शठ। कमठ । कुठार । पठति । ५. वैकुण्ठ । ६. तिष्ठति । ७. हृदये तिष्ठति । हेमचद्र के मतानुसार, चिट्ठ और ठा ये धातु स्था धातु के आदेश हैं ( सूत्र ४.१६ देखिए) । Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४ प्रथमः पादः स्वर के आगे होने वाले, असंयुक्त, अनादि ठ का ढ होता है। उदा० --मढो... पढइ । स्वर के आगे होने पर ही ( का ढ होता है, पीछे अनुस्वार हो, तो ठ का ढ नहीं होता है। उदा०-) वेकुंठो । असंयुक्त होने पर ही ( ठ का ढ होता है, संयुक्त होने पर नहीं होता है । उदा०-) चिट्ठइ । अनादि होने पर ही ( ठ का ढ होता है; आदि होने पर नहीं होता है । उदा०-) हिअए ठाइ।। अंकोठे ल्लः ॥ २० ॥ अंकोठे ठस्य द्विरुक्तौ लो भवति । अंकोल्ल-तेल्ल-तुप्पं । अंकोठ शब्द में ठ का द्वित्वयुक्त ल (=ल्ल) होता है । उदा-अंकोल्लतेल्लतुप्पं । पिठरे हो वा रश्च डः ।। २०१॥ पिठरे ठस्य हो वा भवति तत्संनियोगे च रस्य डो भवति । पिहडो। पिढरो। पिठर शब्द में ठ का ह विकल्प से होता है और उसके सानिध्य में र का ड होता है । उदा०--पिहडो, पिढरो। डो लः ॥ २०२॥ स्वरात् परस्यासंयुक्तस्यानादेर्डस्य प्रायो लो भवति । वडवामुखम् । वलयामुहं । गरुलो । तलायं। कीलइ। स्वरादित्येव । मोडे। कोंडं। असंयुक्तस्येत्येव । खग्गो। अनादेरित्येव । रमई डिम्भो। प्रायोग्रहणात् । क्वचिद् विकल्पः । 'वलिसं वडिसं । दालिमं दाडिमं । गुलो गुडो। णाली णाडो। णलं. णडं। आमेलो आवेलो। क्वचित्र भवत्येव । -निविडं । गउडो। नीडं । उड। तडी। स्वर के आगे होने वाले, अनादि ड का प्रायः ल होता है । उदा०-बडवामुलं... कीलइ । स्वर के आगे होने पर ही ( ड का ल होता है। पीछे अनुस्वार होने पर नहीं होता है । उदा०–मोंडं, कोंडं । असंयुक्त होने पर ही ( ड का ल होता है, संयुक्त होने पर मही होता है । उदा०-) खग्गो। अनादि होने पर ही ( ड का ल होता है मादि होने पर नहीं होता है । उदा० --- ) रमइ डिम्भो । प्रायः ऐसा निर्देश होने से क्वचित् विकल्प से (ड का ल होता है। उदा.- वलिसं.... .''आवेडो क्वचित् ( द का ल ) होता ही नहीं है । उदा०-निबिडं... ..."तडी। १. अंकोठतैलधृतम् । २. क्रमसे:-- गइड । तडाग । क्रोडति ।। ३. क्रमसे:--मुण्ड । कुण्ड । ४. खड्ग । ५. रमते डिम्भः । ६. बडिश । दाडिम । गुड । नाडौ । ७. क्रम से :-नड आपीड । ८. क्रम से :-निबिड । गौड । पीडित । नीड । उडु । तडी (+नटी)। Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरणे ५५ वेणौ णो वा ।। २०३ ॥ वेणौ णस्य लो वा भवति । वेल । वेणू । वेणु शब्द में ण का ल विकल्प से होता है । उदा०-वेलू, वेणू । तुच्छे तश्चछौ वा ॥ २०४॥ तुच्छशब्दे तस्य च छ इत्यादेशौ वा भवतः । चुच्छं छुच्छं तुच्छं । तुच्छ शब्द में, त को च और छ ऐसे आदेश विकल्प से होते हैं। उदा.चुच्छं. 'तुच्छं। नगरत्रसरतूवरे टः ।। २०५ ॥ एषु तस्य टो भवति । टगरो। टसरो। ट्वरो। तगर, त्रसर, और तूवर शब्दों में त का ट होता है। उदा०-टगरो... ... टूवरो। प्रत्यादौ डः ॥ २०६ ॥ प्रत्यादिषु तस्य डो भवति । पडिवन्न'। पडिहासो। पडिहारो। पाडिहारो। पाडिप्फद्धी । पडिसारो । पडिनिअत्तं । पडिमा। पडिवया । पडंसुआ । पडिकरइ । पहडि । पाहुडं । वावडो । पडाया । बहेडओ। हरडई । मडयं । आर्षे दुष्कृतं । दुक्कडं । सुकृतम् सुकडं । आह्वतम् आहडं । अवहृतं अवहडं । इत्यादि। प्राय इत्येव । प्रतिसमयम् पइसमयं : प्रतीपम् पईवं । संप्रति संपइ । प्रतिष्ठानम् । पइटठाणं । प्रतिष्ठा पइटठा। प्रतिज्ञा। पइण्णा। प्रति। प्रभृति। प्राभृत। व्याप्त । पताका । बिभीतक । हरीतकी। मृतक । इत्यादि। प्रति इत्यादि शब्दों में त का इ बोता है। उदा०-पडियानं'' .."मडयं । प्राकृत में ( त का ड होने के उदा०::-- ) दुष्कृतम् ... "अवहडं, इत्यादि । (त का ऐसा ड) प्रायः ही होता है । ( तस्मात् ऐसा ड कभी नहीं होता है। उदा०--) प्रतिसमयम् .. .. 'पइण्णा ! ( क्रम से मूल संस्कृत शब्द ऐसे हैं :-) प्रति... ... मृतक, इत्यादि। १. पडिवन्नं से पडिकरइ तक के शब्दों में प्रति है। इनके मूल संस्कृत शब्द क्रम से ऐसे :-प्रतिपन्न । प्रतिहास । प्रतिहार । प्रतिस्पधिन् । प्रतिसार । प्रतिनिवृत्त । प्रतिमा। प्रतिपद् । प्रतिश्रुत् । प्रतिकरोति । २. 'प्रति' शब्द पडिवन्नं से पडिकरइ तक के शब्दों में है। ३. प्रभृति से मृतक तक के शब्द क्रम से पहुडि से मडयं तक के शब्दों के मूल संस्कृत Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः पादः इत्वे वेतसे ॥ २०७॥ वेतसे तस्य डो भवति इत्वे सति । वेडिसी। इत्व इति किम् । वेअसो। इ: स्वप्नादौ ( १.४६) इति इकारो न भवति इत्व इति व्यावृत्तिबलात् । वेतस शब्द में ( त में से अ का ) इ होने पर, त का ड होता है। उदा०- - वेडिसो। इ होने पर ऐसा क्यों कहा है ? ( कारण ऐसा न होने पर, त का ड नहीं होता है । उदा० ) वेअसो। ( प्रस्तुत सूत्र में ) इत्व होने पर ऐसे जो शब्द हैं उनके व्यावृत्ति करने के सामर्थ्य के कारण ( 'वेअस' इस वर्णान्तर में ) 'इ: स्वप्नादो' सूत्र के अनुसार ( अ का इ ) नहीं होता है। गर्भितातिमुक्तके णः ॥ २०८ ॥ अनयोस्तस्य णो भवति । गम्भिणो ! अणिउँतयं । क्वचिन्न भवत्यपि । अइमत्तयं । कथम् एरावणो । ऐरावणशब्दस्य । एरावओ इति तु ऐरावतस्य । गभित और अतिमुक्तक इन दो शब्दों में त का ण होता है । उदा.-गब्भिणो ... .. उतवं । क्वचित् ( ऐसा त का ण ) नही भी होता है। उदा०-अइमुत्तयं । (प्रश्न:-) एरावण शब्द कैस सिद्ध होता है ? ऐरावत शब्द में त का ण होकर सिद्ध होता नहीं क्या ? उत्तर :- ) ऐरावण शब्द का रूप है ( एरावण ); एरावमओ ( वर्णान्तर ) मात्र ऐरावत शब्द का है । रुदिते दिना णः ॥ २०९ ॥ - रुदितं दिना सह तस्य विरुक्तो णो भवति । रुण्णं । अत्र केचिद् ऋत्वादिषु द इत्यारब्धवन्तः स तु शौरसेनीमागधीविषय एव दृश्यते इति नोच्यते । प्राकृते हि । ऋतुः । रिऊ उऊ । रजतम् रययं । एतद् रमं । गतः गओ। आगतः आगओ। सांप्रतम् संपयं । यतः । जओ। ततः तओ। कृतम् कयं । हतम् हयं । हताशः हयासो। श्रुतः सूओ। आकृतिः आकिई । निवृतः निव्वुओ। तातः ताओ। कतरः कयरो । द्वितीयः दुइओ। इत्यादयः प्रयोगा भवन्नि। न पुनः उद्। रयदं इत्यादि । क्वचित् भावेपि व्यत्ययश्च ( ४.४४७) इत्येव सिद्धम् । दिही इत्येतदर्थं तु धृतेदिहिः (२.१३१ ) इति ... वक्ष्यामः । रुदित शब्द में दि के साथ त का ण्ण-द्विरुक्त ण --होता है । उदा०-रुण्णं । इस स्थल पर 'ऋत्वादिषु द ' ( - ऋतु इत्यादि शब्दों में त का द होता है, इस ) नियम का प्रारंभ कुछ ( वैयाकरण ) करते हैं, परंतु वह नियम शौरसेनी और मागधी भाषा के बारे में ही दिखाई देता है; इसलिए ( वह नियम यहाँ ) हमने कहा नहीं १. ऋतु । रजत। Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतण्याकरणे ५७ है। सच बात यह है-प्राकृत में ऋतु"""दुइओ इत्यादि प्रयोग होते हैं, परंतु उदू, रयद इत्यादि प्रयोग तो नहीं होते हैं । क्वचित् (त का द होने वाले प्रयोग प्राकृत में) यदि होते भी हैं, तो वे 'व्यत्ययश्च' ( इस हमारे व्याकरण के ) नियम से ही सिद्ध होते हैं। ( धुति शब्द से सिद्ध होन वाले ) दिही ( वर्णान्तर ) के लिए मात्र 'धृतेदिहिः' ( यह नियम ) हम ( आगे ) कहने वाले हैं । सप्ततो रः ।। २१० ॥ सप्तमो तस्य रो भवति । सत्तरी। सप्तति शब्द में त का र होता है । उदा.-सत्तरी । अतसीसातवाहने लः ॥ २११ ।। अनयोस्तस्य लो भवति । अलसी। सालाहणो सालवाहणो । सालाहणी' भासा। अतसी और सातवाहन इन दो शब्दों में, त का ल होता है। उदा.-अलसी... भासा । पलिते वा ।। २१२ ॥ पलिते तस्य लो वा भवति । पलिलं पलिअं। पलित शब्द मे त का ल विकल्प से होता है । उदा०-पलिलं, पलिमं । पीते वो ले बा ॥ २१३ ॥ पीते तस्य वो वा भवति । स्वार्थलकारे परे। पीवलं पीअलं । ल इति किम् । पोमं । पीत शब्द में, ( पोत के आगे ) स्वार्थे लकार ( प्रत्यय ) होने पर, त का व विकल्प से होता है । उदा०-पोबलं, पीअलं । ( स्वार्थे ) लकार ( आगे होने पर ) ऐसा क्यों कहा है ? ( कारण पीत के भागे स्वार्थ लकार न हो, तो त का व विकल्प से नहीं होता है । उदा०-) पीनं। वितस्तिवसतिभरतकातरमातुलिङ्ग हः ॥ २१४ ॥ एषु तस्य हो भवति । विहत्थी। वसही। बहुलाधिकारात् क्वचिन्न भवति । वसई । भरहो। काहलो। माहुलिंगं मातुलुंगशब्दस्य तु माउलुंगं । वितस्ति, वसति, भरत, कातर और मातुलिंग शब्दों में त का ह होता है। उदा०--विहत्थी, बसही; बहुलका अधिकार होने से, क्वचित् ( त का ह ) नहीं १. सातवाहनी भाषा । Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः पादः होता है; उदा०--वसई; भरहो....'माहुलिंगं । परंतु मातुलंग शब्द का वर्णान्तर मात्र माउलुंगं होता है। मेथिशिथिरशिथिलप्रथमे थस्य ढः ॥ २१५ ॥ एषु थस्य ढो भवति । हापबादः । मेढी। सिढिलो । सिढिलो। पढमो। मेथि, शिथिर, शिथिल और प्रथम शब्दों में थ का ढ होता है । ( थ का ) ह होता है ( सूत्र १.१८७ ) इस नियम का प्रस्तुत नियम अपवाद है । उदा०-- मेढी...... पढमो। निशीथ-पृथिव्योर्वा ॥ २१६ ॥ अनयोस्थस्य ढो वा भवति । निसीढो निसीहो । पुढबी पुहवी। निशीथ और पृथिवी इन दो शब्दों में थ का ढ विकल्प से होता है। उदा-- निसीढो' 'पुहवी। दशनदष्टदग्धदोलादण्डदरदाहदम्भदर्भकदनदोहदे दो वा डः ॥२१७।। एष दम्य डो वा भवति । डसणं दसणं। डट्ठो दट्ठो। डड्ढो दड्ढो । डोला दोला। डंडो दंडो। डरो दरो। डाहो दाहो। डम्भो दम्भो। ढब्भो दब्भो । कडणं कयणं । डोहलो दोहलो । दरशब्दस्य च भयार्थवृत्तेरेव भवति । अन्यत्र 'दरदलिअ । दशन, दष्ट, दग्ध, दोला, दण्ड, दर, दाह, दम्भ, दर्भ, कदन, और दोहद शब्दों में द का ड विकल्प से होता है। उदा०-डसणं. 'दोहलो । दर शब्द भय अर्थ में होने पर ही ( द का ड ) होता है; ( वैसा अर्थ न होने पर ) अन्य स्थानों में (दर ऐसा ही वर्णान्तर होता है । उदा०-) दरदलिअ । दंशदहोः ।। २१८॥ अनयोर्धात्वोर्दस्य डो भवति । डसइ२ । डहइ । दंश् और दह, धातुओं में द का ड होता है । उदा०--हसइ, डहइ । संख्यागद्गदे रः ॥ २१६ ॥ संख्यावाचिनि गद्गदशब्दे च दस्य रो भवति । एआरहरे । बारह । तेरह । गग्गरं । अनादेरित्येव । ते दस । असंयुक्तस्येत्येव । चउद्दह । संख्यावाचक शब्दों में और गद्गद शब्द में, द का र होता है। उदा.१. दरदलित। २. क्रमसे---दशति । दहइ । ३. क्रमसे----एकादश । द्वादश । चयोदश । गद्गद । ४. ते दश । ५. चतुर्दश । Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरणे एआरह....'गग्गरं। अनादि होने पर ही ( द का र होता है; द आदि हो, तो ऐसा र नहीं होता है । उदा:-) ते दस । असंयुक्त होने पर ही ( दकार होता है; द संयुक्त हो, तो ऐसा र नहीं होता है । उदा०-) चउद्दह । ___ कदल्यामद्रुमे ॥ २२० ॥ कदलोशब्दे अद्रुमवाचिनि दस्य रो भवति । करली। अद्रुम इति किम् । कयली केली। कदली शब्द में, उसका पेड अर्थ न होने पर, द का र होता है। उदा.-कदली । (कदली शब्द का अर्थ) पेड न होने पर ऐसा क्यों कहा है ? (कारण पेड अर्थ होने पर द का र नहीं होता है । उदा-) कयली, केली । प्रदीपिदोहद लः ॥ २२१ ॥ प्रपूर्वे दीप्यतौ धातौ दोहदशब्दे च छस्य लो भवति ।' पलीवेइ । पलित्तं । दोहलो। प्र ( उपसर्ग ) पीछे होने वाले दीप् धातु में और दोहद शब्द में, द का ल होता है। उदा०-पलोवेइ.'दोहलो । कदम्बे वा ॥ २२२ ॥ कदम्बशब्दे दस्य लो वा भवति । कलंबो कयंबो । कदम्ब शब्द में द का ल विकल्प होता है । उदा.-कलंबो, कयबो । ___ दीपौ धो वा ॥ २२३ ॥ दीप्यतौ दस्य धो वा भवति । धिप्पइ दिप्पइ। दीप्यति ( धातु ) में द का ध विकल्प से होता है । उदा.-धिप्पइ, दिप्पइ । कदर्थिते वः ॥ २२४ ॥ कथिते दस्य वो भवति । कवट्टिओ। कथित शब्द में द का व होला है । उदा०-कवट्टिओ । ककुदे हः ॥ २२५ ॥ ककुदे दस्य हो भवति । कउहं । ककुद शब्द में द का ह होता है । उदा०-कउहं । १. क्रमसे--प्रदीपयति । प्रदीप्त । दोहद । Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः पादः निषधे धो ढः ॥ २२६ ॥ निषधे धस्य ढो भवति । निसढो।। निषध शब्द में ध का ढ विकल्प से होता है। उदा०-निसढो । वौषधे ॥ २२७ ॥ ओषधे धस्य ढो वा भवति । ओसढं ओसहं । ओषध शब्द में ध का ढ विकल्प से होता है। उदा.-ओसढं, मोसहं । नो णः ॥ २२८॥ स्वरात् परस्यासंयुक्तस्यानादेर्नस्य णो भवति । 'कणयं। मयणो । वयणं । नयणं । माणइ । आर्षे। आरनालं। अनिलो। अनलो। इत्याद्यपि। स्वरके आगे होने वाले, असंयुक्त, अनादि ( ऐसे ) न का ण होता है। उदा०कणयं 'माण इ । आर्ष प्राकृत में, आरनालं. 'अनलो इत्यादि भी (वर्णान्तर होते हैं ।) वादौ ॥ २२६ ॥ असंयुक्तस्यादौ वर्तमानस्य नस्य णो वा भवति । णरो नरो । णई नई । णेइ नेइ । असंयुक्तस्येत्येव । न्यायः नाओ। असंयुक्त और आदि होने वाले न का ण विकल्प से होता है। उदा०-णरो'.. नेइ। असंयुक्त होने वाले ( न का ही ण होता है; यदि न संपुक्त हो, तो विकल्प से ण नही होता है। उदा०- ) न्यायः नाओ। निम्बनापिते लण्हं वा ॥ २३० ॥ अनयो नस्य ल ह इत्येतौ वा भवतः । लिम्बो निम्बो। पहाविओ नाविओ। निम्ब और नापित इन दो शब्दों में, न के ल और एह (विकार ) विकल्प से होते हैं। उदा०-लिम्बो' न्हाविओ। षो वः ।। २३१ ॥ स्वरात् परस्यासंयुक्तस्यानादेः पस्य प्रायो वो भवति । 'सवहो । सावो । १. क्रमसे-कनक । मदन । वदनावचन । नयन । मानमति । २. क्रमसे-आरनाल । अनिल । अनल । ३. क्रमसे-नर । नदी । नयति । ४. क्रमसे-शपथ । शाप । उपसर्ग। प्रदीप । काश्यप । पाप । उपमा । कपिल । कुणप । कलाप । कपाल । महीपाल । गोपायते । तपति । Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरणे उवसग्गो । पईवो । कासवो। पावं । उवमा । कविलं। कुणवं । कलावो। कवालं। महिवालो। गोवइ। तवइ । स्वरादित्येव । कंपइ' । असंयुक्तस्येत्येव । अप्पमत्तो । अनादेरित्येव । सुहेण पढइ । प्राय इत्येव । कई । रिऊ। एतेन पकारस्य प्राप्तयोर्लोपवकारयोर्यस्मिन् कृते श्रुतिसुखमुत्पद्यते स तत्र कार्यः। ___स्वर के आगे होने वाले, असंयुक्त, अनादि प का प्रायः व होता है। उदा.सवहो "तवइ । स्वर के आगे होने पर ही ( प का व होता है; पीछे अनुस्वार होने पर,प का व नहीं होता है । उदा०-) कंपइ । असंयुक्त होने पर ही (प का व होता है, प संयुक्त हो, तो व नहीं होता है । उदा०-)अप्पमत्तो । अनादि होने पर ही (प का व होता है; प आदि होने पर व नहीं होता है। उदा०-- ) सुहेण पढइ । प्रायः ही ( प का व होता है; इसलिए कभी प का व होता भी नही है। उदा.-) कई, रिऊ । तस्मात् पकार के बारे में प्राप्त होने वाले लोप और वकार इनमें जो (विकार) किए जाने पर श्र ति को (=सुनने को ) मधुर लगेगा, वही वहाँ करे । पाटिपरुषपरिधपरिखापनसपारिभद्र फः ॥ २३२ ॥ ण्यन्ते पटिधातौ परुषादिष च पस्य फो भवति । फालेइ फाडेइ । फरुसो। फलिहो । फलिहा । फणसो । फालिहद्दो। __ प्रयोजक प्रत्यायन्त पधातु में और परुष इत्यादि-परुष, परिध, परिखा, पनस, पारिभद्र--शब्दों में प का फ होता है । उदा०--फाले इ. 'फालिहद्दो । प्रभूते वः ॥ २३३ ॥ प्रभूते पस्य वो भवति । वहुत्तं । प्रभूत शब्द में प का व होता है। उदा.---वहत्तं । नीपापीडे मो वा ।। २३४ ।। अनयोः पस्य मो वा भवति । नीमो नीवो। आमेलो आमेडो। नीप और आपीड शब्दों में, का म विकल्प से होता है। उदा०--नोमो... आमेडो। पापी रः ।। २३५ ।। पापर्धावपदादौं पकारस्य रो भवति । पारधी । १. कम्पते। २. अप्रमत्त । ३. सुखेन पठति । ४. क्रमसे-कपि । रिपु । Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ प्रथमः पादः पापद्धि शब्द में पद के आदि न होने वाले पकारका र होता है। उदा०-- पारद्धी। फो भहौ ॥ २३६ ।। स्वरात् परस्यासंयुक्तस्यानादेः फस्य भहौ भवतः । क्वचिद् भः । रेफः रेभो। शिफा सिभा । क्वचित्तु हः । 'मुत्ताहलं । क्वचिदुभावपि । सभलं' सहलं। सेभालिआ सेहालिआ। सभरी सहरी। गुभइ गुहइ । स्वरादित्येव । गंफट । असंयुक्तस्येत्येव । पूप्फं । अनादेरित्येव । चिठइ५ फणी। प्राय इत्येव । कसण फणी। - स्वर के आगे होने वाले, असंयुक्त, अनादि फ के भ और ह होते हैं। क्वचित् (फ का ) भ होता है। उदा० - रेफ: 'सिभा । परन्तु क्वचित् (फ का ) ह होता है। उदा०मुत्ताहलं क्वचित् (फ के भ और ह ) दोनों भी होते हैं। उदा-सभलं... मुहइ । स्वर के आगे ( फ होने पर ही ये विकार होते हैं, पीछे अनुस्वार होने पर ये विकार नहीं होते हैं । उदा: --- ) गुंफइ । (फ ) असंयुक्त होने पर ही ( ये विकार होते हैं; फ संयुक्त होने पर, ये विकार नहीं होते हैं। उदा०-- ) पुष्पं । (फ) अनादि होने पर ही ( ये विकार होते हैं; फ आदि होने पर, ये विकार नहीं होते हैं । उदा० ---- ) चिट्ठइ फणी । प्रायः ही (फ के ये विकार होते हैं; कभी वे होते भी नहीं हैं। उदा०- ) कसणफणी। बो वः ॥ २३७ ॥ स्वरात् परस्यासंयुक्तस्यानादेबस्य वो भवति । अलाबू अलावू अलाऊ । शबल: सवलो। स्वर के आगे होने वाले, असंयुक्त, अनादि ब का व होता है । उदा--अलाबू.. सवलो। विसिन्यां भः ॥ २३८॥ बिसिन्यां बस्य भो भवति । भिसिणी। स्त्रीलिंगनिर्देशादिह न भवति । बिस तन्तुपेलवाणं ।। बिसिनी शब्द में ब का भ होता है। उदा०-भिसिणी । (सूत्र में बिसिनी ऐसा) स्त्रीलिंग का यानी स्त्रीलिंगी शब्द का निर्देश होने से, यहाँ (यानी आगे दिए उदाहरण में ब का भ नहीं होता है ! उदा०- ) बिस ' पेलवाणं । १. मुक्ताफल । २. कलसे--सफल । शेफालिका । शफरी । गुफति । २. गुम्फति ४. पुष्प । ५. तिष्ठति फणी । ६. कृष्णफणी । ७. बिसतन्तुपेलवानाम् । Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरणे कबन्धे मयौ ॥ २३६॥ कबन्धे बस्य मयौ भवतः । कमंधो कयंधो। कबन्ध शब्द में ब के भ और य होते हैं । उदा.---कमंधो, कयंधो । कैटभे भो वः ॥ २४०॥ कैटभे भस्य वो भवति । केढवो। कैटभ शब्द में भ का व होता है। उदा०-केढवो । विषमे मो ढो वा ॥ २४१ ।। विषमे मस्य ढो वा भवति । विसढो विसमो। विषम शब्दमें, म का ढ विकल्प से होता है। उदा० ----विसढो विसमो मन्मथे वः ।। २४२ ।। मन्मथे मरय वो भवति । वम्महो । मन्मथ शब्द में म का व होता है। उदा० --वम्भहो; वाभिमन्यौ ।। २४३ ॥ अभिमन्युशब्दे मो वो वा भवति । अहिवन्नू अहिमन्नू । अभिमन्यु शब्द में म का व विकल्प से होता है । उदा०---अहिवन्नू, अहिमन्नू । । भ्रमरे सो वा ॥ २४४॥ भ्रमरे मस्य सो वा भवति । भसलो भमरो। भ्रमर शब्द में म का स विकल्प से होता है। उदा. --- भसलो, भमरा । आदेयों जः ॥ २४५॥ पदादेयंस्य जो भवति । जसो। जमो । जाइ। आदेरिति किम् । अवयवो' । विणओ । बहुलाधिकारात् सोपसर्गस्यानादेरपि । संजमो । संजोगो । अवजसो । क्वचिन्न भवति । 'पओओ । आर्षे लोपोपि । यथाख्यातम् अहक्खायं । यथाजातम् अहाजायं। पद के आदि होने वाले य का ज होता है। उदा. ---जसो ... 'जाइ । (पद के) आदि होने वाले ( य का ज होता है ) ऐसा क्यों कहा है ? (कारण यदि पद के आदि य न हो, तो उसका ज नहीं होता है। उदा:-~अवयवो, विणओ। वहुल का अधिकार होने से, उपसर्ग युक्त और अनादि होने वाले ( य का भी ज होता है । उदा० -- ) संजमो. अवजसो । क्वचित् ( उपसर्गयुत्त और अनादि होने वाले १. क्रम से---यशस् । यम । याति । २. क्रमसे-अवयव । विनय । ३. क्रमसे-संयम । संयोग । अपयशस् ।। ४. प्रयोग। Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः पादः य का ज) नहीं होता है । उदा० -पओओ । आर्ष प्राकृत में ( आदि य का ) लोप भी होता है। उदा०-यवाख्यातम् ... अहाजायं । युष्मद्यर्थपरे तः ॥ २४६ ॥ युष्मच्छब्देथंपरे यस्य तो भवति । 'तुम्हारिसो। तुम्हकेरो । अर्थपर इति किम् । जुम्हदम्ह पयरणं । (द्वितीय पुरुषी तू-तुम ) अर्थ होने वाले युष्मद् शब्द में, य का त होता है । उदा.-तुम्हा..... केरो।। द्वितीय पुरुषी ) अर्थ होने वाले ( युष्मद् शब्द में ) ऐसा क्यों कहा है ? ( कारण वैसा अर्थ न होने पर, यष्मद् शब्द में से य का त नहीं होता है। उदा०-) जुम्ह.... 'पयरणं । यष्ट्यां लः॥ २४७॥ यष्ट्यां यस्य लो भवति । लट्ठी। वेणुलट्ठी । उच्छुलट्ठी। महुलट्ठी। यष्टि शब्द में य का ल होता है। उदा०-लट्टी.....'लट्ठी। वोत्तरीयानीयतीयकृये ज्जः ॥ २४८ ॥ उत्तरीयशब्दे अनीयतीयकृद्यप्रत्ययेषु च यस्य द्विरुक्तो जो वा भवति । उत्तरिज्जं उत्तरीअं। अनीय । 'करणिज्ज करणीअं। विम्हयणिज्ज विम्हयणीअं । जवणिज्जं जवणीअं । तीय । बिइज्जो' बीओ। कृद्य । पेज्जा' पेआ। उत्तरीय शब्द में और अनीय, तीय तथा कृभ प्रत्ययों में, य का द्विरुक्त ज ( = ज्ज) विकल्प से होता है । उदा० -उत्तरिज्ज, उत्तरीअं । अनीय (प्रत्यय में):करणिज्जं ..'जवणीअं । तीय ( प्रत्यय में ):-बिइज्जो, बीओ । कृद्य (प्रत्यय मैं):पेज्जा, पेआ। छायायां होकान्तौ वा ॥ २४९ ॥ अ-कान्तौ वर्तमाने छायाशब्दे यस्य हो वा भवति। वच्छ स्स च्छाही वच्छस्स च्छाया। आतणभावः । -सच्छाहं सच्छायं । अकान्ताविति किम् । मुहच्छाया । कान्तिरित्यर्थः ।। १. क्रमसे- युष्मादृश । युष्मदीय (सूत्र २.१४७ देखिए)। २. युष्मदस्मत्प्रकरणम् । ३. क्रमसे-वेणयष्टि । इक्ष याष्टिामधुष्टि ।४. क्रमसे-करणीय । विस्मयनीय । मापनीय । ५. द्वितीय । ६. पेया। ७. वृक्षस्य च्छाया। ८. सच्छाय। ९. मुखच्छाया। Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरणे कान्ति अर्थ न होने वाले छाया शब्द में य का ह विकल्प से होता है । उवा०-- बच्छस्स..:च्छाया; ( यहाँ छाया यानी ) धूप का अभाव; सच्छाहं, सच्छायं । कांति अर्थ न होने वाले ( छाया शब्द में ) ऐसा क्यों कहा है ? ( कारण छाया शब्द का अर्थ कांति हो, तो य का ह नहीं होता है । उदा०-मुहच्छाया (यानी मुहको) कांति ऐसा अर्थ है। डाहवौ कतिपये ॥ २५० ॥ कतिपये यस्य डाह व एत्येतौ पर्यायेण भवतः । कइवाहं कइअवं । कतिपय शब्द में य के आह ( डाह ) और व ये दो विकार पर्याय से होते हैं। उवा०—कइवाह, कइअवं । किरिमेरे रो डः ॥ २५१ ॥ अनयो रस्य डो भवति । किडो । भेडो । किरि और भेर शब्दों में र का ड होता है । उदा०-किडी, भेडो । पर्याणे डा वा ॥ २५२ ॥ पर्याणे रस्य डा इत्यादेशो वा भवति । पडायाणं पल्लाणं। पर्याण शब्द में, र को डा आदेश विकल्प से होता है । उदा०-पडायाणं,पल्लाणं । करवीरे णः ॥ २५३ ।। करवीरे प्रथमस्य रस्य णो भवति । कणवीरो । करवीर शब्द में पहले र का ण होता है। उदा०-कणवीरो। हरिद्रादौ ल: ।। २५४ ॥ ___ हरिद्रादिषु शब्देषु असंयुक्तस्य रस्य लो भवति। हलिही। दलिद्दाइ । दलिदो । दालिदं । हलिहो । जहुठिलो । सिढिलो । मुहलो। चलणो । वलुणो। कलुणो। इंगालो। सक्कालो। सोमालो। चिलाओ । फलिहा । फलिहो । फालिहहो । काहलो । लुक्को । अवद्दालं । भसलो। जढलं । बढलो । निटठुलो । बहलाधिकाराच्चरणशब्दस्य पादार्थवृत्तरेव । अन्यत्र चिरणकरणं । भ्रमरे स-संनियोगे एव । अन्यत्र भमरो। तथा । जढरं । बढ़रो। निठुरो। इत्याद्यपि। हरिद्रा। दरिद्राति। दरिद्र । दारिद्रय। हारिद्र । युधिष्ठिर । शिथिर। मुखर। चरण । वरुण । करुण । अंगार। सत्कार । सुकुमार। किरात । परिखा । परिघ। पारिभद्र । कातर । रुग्ण । अपद्वार । भ्रमर । जठर । बठर । निष्ठुर । इत्यादि । आर्षे । 'दुवालसंगे। इत्याद्यपि । १. चरणकरण ( यानी आचारकर्म )। २. द्वादशांग । ५ प्रा० व्या. Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः पादः हरिद्रा इत्यादि पाब्दों में असंयुक्त होने बाले र का ल होता है। उदा०हलिही...."निठुलो । बहुल का अधिकार होने से, चरण शब्द पाव अर्थ में होने पर ही ( उसमें से र का ल होता है। चरण का अर्थ पाव न होने पर ) अन्य स्थान में (र का ल नहीं होता है। उदा०-) चरणकरणं । भ्रमर शब्द में 'स' के सांनिध्य होने पर ही ( र का ल होता है ) स के सांनिध्य न होने पर ) अन्यत्र (र का ल नहीं होता है। उदा० ) भमरो। अपि च ( कुछ शब्दों में र का ल न होते ) जढरं.. निठुरो, इत्यादि भी ( वर्णान्तर ) होते हैं। उपर्युक्त शब्दों के मूल संस्कृत शब्द क्रमसे ऐसे हैं-) हरिद्रा' 'निष्ठुर, इत्यादि : आर्ष प्राकृत में दुवालसंगे इत्यादि वर्णान्तर भी होता है। स्थूले लो रः ।। २५५ ॥ स्थूले लस्य रो भवति । थोरं । कथं थूल भद्दो। स्थूरस्य हरिद्रादिलत्वे भविष्यति। स्थूल शब्द में ल का र होता है। उदा०-थोरं । (प्रश्न:-) थूलभद्दो ( यह वर्णान्तर ) कैसे होता है ? ( उत्तरः--स्थूरभद्र शब्द में से ) स्थूर शब्द में, हरिद्रा इत्यादि शब्दों के समान (र का) ल होकर । सूत्र १. ५४ ) थूलभद्द वर्णान्तर होगा । लाहललाङ्गललाङगले वादेर्णः ।। २५६ ।। एषु आदेर्लस्य णो वा भवति । णाहलो लाहलो। णंगलं लंगलं। णंगूलं लंगूलं। लाहल, लांगल, और लांगूल शब्दों में, आदि ल का ण विकल्प से होता है । उदा० ...गाहलो लंगूलं ।। ललाटे च ।। २५७ ।। ललाटे च आदेर्लस्य णो भवति : चकार आदेरनुवृत्त्यर्थः । णिडालं णडालं। __ और ललाट शब्द में आदि ल का ण होता है । ( सूत्र १.२५६ में से आदेः (=पहले के) पद की अनुवृत्ति ( प्रस्तुत ९.२५७ सूत्र में ) होती है, यह दिखाने के लिए ( प्रस्तुत सूत्र में ) चकार (=च शब्द) प्रयुक्त है । उदा० ..-णिडालं, णडालं । शबरे बो मः ।। २५८ ।। शबरे बस्य मो भवति । समरो। शबर शब्द में ब का म होता है। उदा , ----समरो । Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वप्ननीव्योर्वा ।। २५९॥ अनयोर्वस्य मो वा भवति । सिमिणो सिविणो । नोमी नीवी । स्वप्न और नीवी इन दो शब्दों में, व का म विकल्प से होता है । सिमिणो "नीवी | ..... प्राकृतव्याकरणे उदा० शषोः सः || २६० ॥ 1 शकारषकारयोः सो भवति । श सहो । कुसो । निसंसो | वंसो । सामा ।। सुद्धं । दस । सोहइ । विसइ । ष । २ सण्डो । निहसो । कसाबो । घोसइ । उभयोरपि । सेसो विसेसो । 1 शकार और षकार इन दोनों का स होता है । उदा० - श ( का स ) : - सद्दो "धोसइ । ( श और ष इन ) दोनों का भी ( स ): विसइ । ष ( का स ) -संडो' सेसो, विसेसो : स्नुषायां ण्हो न वा ॥ २६१ ॥ स्नुषाशब्दे षस्य हः णकाराक्रान्तो हो वा भवति । सुण्हा सुसा । स्नुषा शब्द में ष का यह ( ऐसा ) णकार से युक्त ह ( = ण्ह) विकल्प से होता है । सुहा, सुसा उदा०- दशपाषाणे हः || २६२ ॥ दशन् शब्दे पाषाणशब्दे च शषोर्यथादर्शनं हो वा भवति । दह' मुहो दसमुहो । दहबलो दसबलो । दहरहो दसरहो । दह दस । एमारह | बारह | तेरह | पाहाणी पासाणो । दशन् शब्द में और पाषाण शब्द में दिखाई देगा वैसा, विकल्प से ह होता है । दिवसे सः ।। २६३ । दिवसे सस्य हो वा भवति । दिवो दिवसो । दिवस शब्द में स का ह विकल्प से होता है । उदा०--1 हो धोनुस्वारात् ।। २६४ ॥ श और ष इनका, जैसा ( साहित्य में ) उदा०- - दहमुहो "पासाणी । अनुस्वारात् परस्य हस्य धो वा भवति । सिंधो सीहो । संधारो । संहारो । क्वचिदननुस्वारादपि । दाहः दाधो । 1 - दिवहो, दिवसो । १. क्रम से - शब्द । कुश । नृशंस । वंश | शामा । शुद्ध । दश । शोभते । विशति । २. क्रम से - षण्ड । निकष । कषाय । घोषयति । ३. क्रम से - शेष । विशेष । ४. क्रम से - दशमुख । दशबल | दशरथ । दश । एकादश । द्वादश । त्रयोदव | पाषाण Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमः पादः अनुस्वार के आगे होने वाले ह का ध विकल्प से होता है। उदा०-सिंधो... संहारो । क्वचित् ! पीछे ) अनुस्वार न होने पर ही ( ह का ध होता है । उदा०-) दाहः बाधो। - षट्शमीशावसुधासप्तपर्णेष्वादेश्छः ॥ २६५ ॥ एषु आदेर्वर्णस्य छो भवति । 'छ8ो । छटठी । छप्पओ । छम्मुहो । छमी। छावो । छुहा । छत्तिवण्णो। षट्, शमी, शाव, सुधा और सप्तपर्ण शब्दों में, आदि वर्ण का छ होता है । उदा-छट्ठो 'छत्तिवण्णो । शिरायां वा ।।२६६॥ शिराशब्दे आदेश्छो वा भवति । छिरा सिरा। शिरा शब्द में आदि (वर्ण) का छ विकल्प से होता है । उदा०-छिरा, सिरा । लुग भाजनदनुजराजकुले जः सस्वरस्य न वा ॥ २६७ ।। एषु स-स्वर-जकारस्य लुग वा भवति । भाणं भायणं । दणुवहो' दणुअवहो। राउलं रोय उलं। भाजन, दनुज और राजकुल शब्दों में, स्वर सहित जकार का लोप विकल्प से होता है । उदा० ---भाणं 'रायउलं । __ व्याकरणप्राकारागते कगोः ।। २६८ ॥ - एष को गश्च सस्वरस्य लुग् वा भवति : वारणं वायरणं । पारो पायारो। आओ। आगओ। व्याकरण, प्राकार, और आगत शब्दों में, स्वरसहित क् और ग् का विकल्प से लोप होता है। उदा०-वारणं 'आगओ। किसलयकालायसहृदये यः ॥ २६९ ॥ एष सस्वर-यकारस्य लुग् वा भवति । किसलं किसलयं । कालासं कालायसं। महण्ण श्वसभा सहिआ। 'जाला ते सहिअएहि घेप्पंति निसमणुप्पिअहि अस्स हिअयं । किसलय, कालायस और हृदय शब्दों में स्वर सहित यकार का लोप विकल्प से होता है। उदा.--किसलं. हिअयं । १. क्रमसे-षष्ठ । षष्ठी । षट्पद । षण्मुख । शमी । शाव । सुधा । सप्तपर्ण । २. दनुजवध । ३. महार्णवसमाः सहृदयाः । ४. यदा ते सहृदयः गृह्यन्ते । ५. निशमन अर्पित-हृदयस्य हृदयम् । Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरणे दुर्गादेव्युदुम्बरपादपतनपादपीठान्तदः ॥ २७० ॥ एष सस्वरस्य दकारस्य अन्तर्मध्ये वर्तमानस्य लुग वा भवति । दुग्गा-वी दुग्गा-एवी। उम्बरो उउम्बरो। पावडणं पायवडणं। पावीढं पायवीढं । अन्तरिति किम् । दुर्गादेव्यामादौ मा भूत् ।। दुर्गादेवी, उदुम्बर, पादपतन और पादपीठ शब्दों में, अन्तर्यानी मध्य में (बीच में) रहने वाले दकार का स्वर के साथ विकल्प से लोप होता है । उदा.-दुग्गावी.... पायवी ढं। मध्य में होने वाले ( दकार का ) ऐसा क्यों कहा है ? ( कारण दुर्गादेवी शब्द में पहले दकार को यह नियम लागू न पड़े, इसलिए )। यावत्तावज्जीवितावर्तमानावटपावारकदेवकुलैवमेवे वः ॥ २७१ ।। यावदादिषु सस्वर-वकारस्यान्तर्वर्तमानस्य लुग् वा भवति । जा जाव । ता ताव। जीअं जीविअं। अत्तमाणो आवत्तमाणो। अडो अवडो। पारमो पावारओ। देउलं देवउलं । एमेव एवमेव । अन्तरित्येव । एवमेवेन्त्यस्य न भवति। इत्याचार्यहेमचंद्रविरचितायां सिद्धहेमचन्द्राभिधानस्वोपज्ञ शब्दानुशासनवृत्तौ अष्टमस्याध्यायस्य प्रथमः पादः । यावत्, तावत् जीवित, आवर्तमान, अवट, प्रावारक, देवकुल, और एवमेव शब्दों में, मध्य में/बीच में रहने वाले वकार का स्वर के साथ विकल्प से लोप होता है। उदा-जा........." एवमेव । मध्य में रहने वाले हो वकार का विकल्प से लोप होता है; इसलिए एवमेव शब्द से अन्त्य ( वकार ) का ( विकल्प से लोप ) नहीं होता है। [ आठवें अध्याय का पहला पाद समाप्त हुआ। ] Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः पादः संयुक्तस्य ॥१॥ अधिकारोऽयं ज्यायामीत् ( २११५ ) इति यावत् । यदित ऊर्ध्वमनुक्रमिष्यामस्तत् संयुक्तस्येति वेदितव्यम् । ...: ( सूत्रमें । संयुक्तस्य शब्दका ) अधिकार 'ज्यायामीत्' सूत्र तक है। यहां से आगे हम क्रमसे जो कहनेवाले हैं, वह संयुक्त व्यंजनके बारेमें होता है ऐसा जाने । शक्तमुक्तदष्टरुग्णमृदुत्वे को वा ॥ २ ॥ एषु संयुक्तस्य को वा भवति । सक्को सत्तो । मुक्को मुत्तो। डक्को दट्ठो। लुक्को लुग्गो। मा उक्कं मा उत्तणं । ___ शक्त, मुक्त, दष्ट, रुग्ण और मृदुल शब्दों में, संयुक्त व्यंजनका क विकल्पसे होता है। उदा-सक्को ... ... ..'मा उत्तणं ।। क्षः खः क्वचित्तु छौ ॥ ३ ॥ क्षस्य खो भवति । 'खओ । लक्खणं । क्वचित्त छझावपि । खीणं छीणं झीणं । शिज्जइ। क्ष का ख होता है। उदा०-खओ, लक्खणं । परंतु क्वचित् ( क्ष के ) छ भोर झ भी होते हैं । उदार-खीणं.."झिज्जइ । कस्कयोनाम्नि ॥ ४॥ अनयोर्नाम्नि संज्ञायां खो भवति । एक। पोक्खरं । पोक्खरिणी। निक्खं । स्क' । खंधो । खंधावारो। अवक्खंदो। नाम्नीति किम् । "दुक्करं । निक्कम्पं । निक्कओ। नमोक्कारो । सक्कयं । सक्कारो । तक्करो। एक और स्क: ये संयुक्त व्यंजन ) संज्ञामें यानी संज्ञावाचक शब्दोंमें होनेपर, उनका क्ष होता है । उदा-क ( का ख):-पोक्खरं... ... निक्खं । १. क्रमसे:-क्षय लक्षण । २. क्रमसे :-क्षीण/क्षीयते । ३. क्रमसे:-पुष्कर । पुष्करिणी । निष्क । ४. क्रमसे:-स्कन्ध । स्कन्धाबार । अवस्कन्द । ५. क्रमसे :-दुष्कर । निष्कम्प । निष्क्रय । नमस्कार । संस्कृत । संस्कार । तस्कर । 'सक्कार' के लिए श्री वैद्यजीने शब्द सूची में दिया हुआ 'सरकार' यह संस्कृत शब्द योग नहीं है; 'संस्कार' ऐसा मूल संस्कृत शब्द आवश्यक हैं; क्योंकि यहां 'स्क' संयुक्त व्यंजन आवश्यक हैं । Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरणे शुष्कस्कन्दे वा ।। ५ ।। अनयोः कस्कयोः खो वा भवति । सुक्खं सुक्कं । खन्दो कन्दो । शुष्क और स्कन्द इन दोनों शब्दों में 6क और स्क का विकल्प से ख होता है। उदा०--सुक्खं..... कन्दो। क्ष्वेटकादौ ॥६॥ क्ष्वेटकादिषु संयुक्तस्य खो भवति । खेडओ । श्वेटकशब्दो विषपर्यायः। वोटकः खोडआ। स्फोटकः खोडओ। स्फेटकः खेडओ। स्फेटिकः खेडिओ। स्वेटक इत्यादि शब्दोंमे संयुक्त व्यंजनका ख होता है । उदा०-खेडओ; ( यह ) क्ष्वेटक शब्द विषशब्दका पर्यायवाचक है। श्वोटकः......'खेडिओ। स्थाणावहरे ।। ७॥ स्थाणौ संयुक्तस्य खो भवति हरश्चेद् वाच्यो न भवति । खाणू । अहर इति किम् । थाणुणो रेहा । ___ स्थाणु शब्द में संयुक्त व्यंजनका ख होता है। परंतु यदि (स्थाणु शब्दसे भगवान) शंकर अर्थ अभिप्रेत हो, तो ( स्थका ख ) नहीं होता हैं। उदा-खाणू। ( स्थाणु शब्दका ) अर्थ शंकर न होनेपर ऐसा क्यों कहा है ? ( कारण स्वाणु शब्दका अर्थ शंकर हो, तो स्थ का ख नहीं होता है । उदा.- ) थाणुणो रेहा। स्तम्भे स्तो वा ॥८॥ स्तम्भशब्दे स्तस्य खो वा भवति । खम्भो थम्भो । कष्ठादिमयः ।' स्तम्भ शब्दमें स्त का ख विकल्प से होता है । उदा०-खम्भो, थम्भो। ( यह स्तम्भ ) काष्ठ इत्यादिका बना हुआ है। थठावस्पन्दे ।। ६॥ स्पन्दा भाववृत्तौ स्तम्भे स्तस्य थठौ भवतः । थम्भो । ठम्भो । स्तम्भ्यते थम्भिज्जइ ठम्भिजाइ । स्पंदका ( = स्पंदनका, हलचलका ) अभाव अर्थमें होनेभले स्तम्भ शब्दमें स्त के थ और ठ होते हैं । उदा०-थंभो......."ठंभिज्जइ । १. स्थाणो: रेखा। Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ द्वितीयः पादः रक्ते गोवा ॥ १० ॥ रक्तशब्दे संयुक्तस्य गो वा भवति । रग्गो रत्तो । रक्त शब्द मैं संयुक्त व्यंजनका विकल्पसे ग होता है । उदा शुल्के गोवा ॥ ११ ॥ शुल्कशब्दे संयुक्तस्य ङ्गो वा भवति । सुङ्ग सुक्कं । शुल्क शब्द में संयुक्त व्यंजनका ङ्ग विकल्पसे होता है । उदा० -सुङ्ग, सुक्क । कृत्तिचत्वरे चः ॥ १२ ॥ अनयोः संयुक्तस्य चो भवति । किच्ची । चच्चरं । कृत्ति और चत्वर इन दो शब्दों में, संयुक्त व्यंजनका च होता हैं । उदा० - किच्ची, चच्चरं । ग्गो, रत्तो । त्यो चैत्ये ।। १३ ।। चैत्यवर्जिते त्यस्य चो भवति । 'सच्चं । पच्चअ । अचैत्य इति किम् । चइत्तं । चैत्य शब्द छोड़कर, ( अन्य शब्दों में ) त्य का च होता है । उदा - सच्चं पच्चओ । चरय शब्द छोड़कर ऐसा क्यों कहा है ? ( कारण चैत्य शब्द में, त्य का च नहीं होता है । उदा०-- ) चइत्तं । प्रत्यूषे षश्च हो वा ॥ १४ ॥ प्रत्यूषे त्यस्य चो भवति तत्संनियोगे च षस्य हो वा भवति । पच्चूहो पच्चूसो । प्रत्यूष शब्द में त्य का च होता है, और उसके सांनिध्य में ष का ह विकल्प से होता है । उदा० - पच्चूहो, पच्चूसो । त्वध्वद्वध्वां चछजझाः क्वचित् ।। १५ ।। एषां यथासंख्यमेते क्वचिद् भवन्ति । भुक्त्वा भोच्चा । ज्ञात्वा णच्चा | श्रुत्वा सोच्चा । पृथ्वी पिच्छी विद्वान् । विज्जं । बुद्ध्वा बुज्झा । भोच्चार सयलं पिच्छि विज्जं बुज्झा अणण्णयग्गामि । चइ ऊण तवं काउं संती पत्तो सिवं परमं ॥ १. क्रम से :- सत्य । प्रत्यय | २. मुक्त्वा सकली पृथ्वी विद्वान् बुध्वा अनन्यकगामि । त्यक्त्वा तपः कृत्वा शान्तिः प्राप्तः शिवं परमम् ॥ Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७३ त्व, थ्व, व और ध्व इनके क्वचित् अनुक्रमसे च, छ, ज और झ ( ये विकार ) होते हैं । उदा - भुक्त्वा ""बुज्झा; भोच्चा..... "परमं । वृश्चिके चुर्वा ॥ १६ ॥ वृश्चिके श्चेः सस्वरस्य स्थाने ञ्चुरादेशो वा भवति । छापवादः । विञ्चुओ विंचुओ । पक्षे : विञ्छिओ । प्राकृतव्याकरणे वृश्चिक शब्द में स्वरसहित श्वि के स्थान ञ्चु आदेश विकल्पसे होता है । (श्वका ) छ होता है ( देखिए सूत्र २:२१ ) इस नियमका अपवाद प्रस्तुत नियम हैं । उदा०-विश्वभो, विश्चुओ । ( विकल्प - ) पक्ष में : - विञ्छिओ । छोट्यादौ ।। १७ ।। अक्ष्यादिषु संयुक्तस्य छो भवति । खस्यापवादः । अच्छि । उच्छू । लच्छी । कच्छो । छीअं । छोरं । सरिच्छो । वच्छी । मच्छिआ । छेत्तं । छुहा । दच्छो । कुच्छी । वच्छं । छुण्णो | कच्छा । छारो । कुच्छे अयं । छुरो । उच्छा । छ्यं । सारिच्छं || अक्षि । इक्षु | लक्ष्मी । कक्ष । क्षुत । क्षीर । सदृक्ष | वृक्ष । मक्षिका । क्षेत्र | क्षुध् । दक्ष । कुक्षि । वक्षस् । क्षुण्ण । कक्षा । क्षार । कौक्षेयक | क्षर | उक्षन् । क्षत | सादृश्य । क्वचित् स्थगितशब्देपि । छइअं । आ । इर्खे | खीरं । सारिक्खमित्याद्यपि दृश्यते । I अक्षि इत्यादि शब्दों में संयुक्त व्यंजनका छ होता है । ( क्ष का ) ख होता है। (देखिए सूत्र २०३ ) इस नियमका अपवाद प्रस्तुत नियम है । उदा-अच्छि सारिच्छं ( इनके मूल संस्कृत शब्द क्रमसे ऐसे:-) अक्षि सादृक्ष्य | क्वचित् स्थगित शब्द में भी (स्थ इस संयुक्त व्यंजनका छ होता है । उदा०- - ) छइअं । आर्ष प्राकृत में 'इक्खू, खीरं, सारिक्खं इत्यादि वर्णान्तर भी दिखाई देते हैं । क्षमायां कौ ॥ १८ ॥ 2 कौ पृथिव्यां वर्तमाने क्षमाशब्दे संयुक्तस्य छो भवति । छमा पृथिवी । लाक्षणिकस्यापि क्ष्मादेशस्य भवति । क्ष्मा छमा । काविति किम् । खमा क्षान्तिः । कु यानी पृथ्वी इस अर्थ में होनेवाले क्षमा शब्द में संयुक्त व्यंजनका ल होता है । उदा - छमा (यानी ) पृथिवी ऐसा (क्षमा शब्दका) अर्थ है | व्याकरणके नियमानुसार क्ष्मा शब्द के आदेश से (संयुक्त व्यंजनका भी छ) होता है । उदा - क्ष्मा छमा । कु (यानी पृथ्वी इस ) अर्थ में होनेवाले क्षमा शब्द में) ऐसा क्यों कहा है ? ( कारण क्षमा १. क्रमसे : - इक्षु । क्षीर | सादृश्य । Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः पादः शब्दका अर्थ पृथ्वी न हो, तो उसमें से क्ष का छ नहीं होता है । उदा० - ) खमा (यानी ) क्षांति ( = क्षमा) । ७४ ऋक्षे वा ।। १६ ।। ऋक्षशब्दे संयुक्तन्य छो वा भवति । रिच्छं रिक्खं । रिच्छो रिक्खा । कथं छूढं क्षिप्तम् । वृक्षक्षिप्तयो रुक्खछूढो ( २.१२७ ) इति भविष्यति । ऋक्ष शब्द में संयुक्त व्यंजनका छ विकल्पसे होता | उदा०- - रिच्छं रिक्खो । ( प्रश्न : - ) क्षिप्तम् शब्दसे छूढं वर्गान्तर कैसे हुआ ? ( उत्तरः -- ) 'बुक्षक्षिप्तयोरुक्ख सूत्रानुसार ( आदेश होकर क्षिप्त शब्दसै छूढ वर्णान्तर] होगा । क्षण उत्सवे ॥ २० ॥ क्षणशब्दे उत्सवाभिधायिनि संयुक्तस्य छो भवति । छणो । उत्सव इति किम् । खा । उत्सव अर्थ कहनेवाले क्षण शब्दमें संयुक्त व्यंजनका छ होता है । उदा--क्षणो । उत्सव (अर्थ कहनेवाले क्षण शब्द में) ऐसा क्यों कहा है ? ( कारण उत्सब अर्थ न होनेपर, छ नहीं होता है । उदा--खणी ( कालमापनमें ) । स्वात् व्यवत्सप्साम निश्चले ।। २१ ।। 3 ह्रस्वान् परेषां थ्यश्च त्सप्सां छो भवति निश्वले तु न भवति । य । 'पच्छं । पच्छा | मिच्छा । व । पच्छिमं । अच्छे पच्छा । त्स । उच्छा हो । मच्छलो | मच्छरों । संवच्छलो संवच्छरो । चित्सइ । प्स । लिच्छइ । जुगुच्छइ । अच्छरा । ह्रस्वादिति किम् । "ऊसारिओ । अनिश्चल इति किम् । निच्चलो | आर्षे तथ्ये चोपि । तच्चं । 1 { ह्रस्व स्वर के आगे होने वाले थ्य, व त्स और प्स इनका छ होता है; परन्तु निश्चल शब्द में मात्र ( श्व का छ ) नहीं होता है । उदा०--थ्य का छ ) :- पच्छं ... मिच्छा । श्व ( का छ ):- पच्छिमं पच्छात्स ( का छ : उच्छाहो चिइच्छइ । स ( का छ ) :- लिच्छइ अच्छरा । ह्रस्व स्वर के आगे होने वाले ऐसा क्यों कहा है ? ( कारण पीछे स्वर ह्रस्क न हो, तो छ नहीं होता है । उदा० -) ऊसारिओ । निश्चल शब्द में श्र्च का छ ) नहीं होता है ऐसा क्यों कहा है ? (कारण निश्चल शब्द में व का च होता है । उदा० - निच्चलो | आर्ष प्राकृत में, तथ्य शब्द में से ( थ्य का ) च भी होता है । उदा० - तच्चं । 1 १. क्रम से:- पथ्य | पथ्या । मिथ्या । २. क्रमसे : पश्चिम | आश्चर्य । पश्चात् । ३. क्रमसेः- उत्साह । मत्सर । संवत्सर । चिकित्सति । ४. कम से: - लिप्सति । जुगुप्सति । अप्सरस् । ५. उत्सारित । Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरणे सामर्थ्यात्सुकोत्सवे वा ॥ २२ ॥ एषु संयुक्तस्य छो वा भवति । सामच्छं सामत्थं । उच्छुओ ऊसुओ । उछवो ऊसवो । सामर्थ्य, उत्सुक और उत्सव शब्दों में, संयुक्त व्यञ्जन का छ विकल्प से होता है । उदा०—सामच्छं ऊसवो । ७५ स्पृहायाम् ।। २३ ॥ स्पृहाशब्दे संयुक्तस्य छो भवति । फस्यापवादः । छिहा । बहुलाधिकारात् क्वचिदन्यदपि । निप्पिहो । स्पृहा शब्द में संयुक्त व्यञ्जन का छ होता है । ( स्प का ) फ होता है ( सूत्र २०५३ ) नियम का अपवाद प्रस्तुत नियम है । उदा - छिहा । बहुल का अधिकार होने से, क्वचित् ( स्पृहा शब्द में छ न होते ) निरालाभी ( वर्णान्तर ) होता है । उदा० -निष्पिहो । जः ॥ २४ ॥ एषां संयुक्तानां जो भवति । द्य । मज्जं । अवज्जं । वेज्जो । जुई । जोओ । य्य । जज्जा | सेज्जा 1 र्य 1 भज्जा | चौर्यसमत्वात् भारिआ । वज्जं । पज्नाओ । पज्जत्तं । मज्जाया । कब्जं । च, थ्य, और र्य इन संयुक्त व्यञ्जनों का ज होता है । उदा० द्य ( का ज ):मज्जं जोओ । य्य ( का ज ): --- जज्जो, सेज्जा । र्य ( का ज ) :- भज्आ, ( यह भार्यासब्द ) चौर्यादि शब्दों के समान होने से, ( उसमें स्वरभक्ति होकर ) भारिआ ( ऐसा भी वर्णान्तर होता है ); कज्जं मज्जायां । अभिमन्यौ जञ्जौ वा ।। २५ ।। अभिमन्य संयुक्तस्य जो अश्व वा भवति । अहिमज्जू अहिमञ्जु । पक्षे । अहिमन्नू । अभिग्रहणादिह न भवति । उदा अभिमन्यु शब्द में संयुक्त व्यञ्जन के ज ( यानी ज्ज ) और ञ्ज विकल्प से होते हैं । अहि" मञ्जु । ( बिकल्प -- ) पक्ष में :- महिमन्नू । ( अभिमन्यु शब्द में, मन्यु शब्द के पीछे ) अभि शब्द का निर्देश होने से, ( अभि शब्द पीछे न होने वाले ) यहाँ (पानी आगे दिए केबल मन्यु शब्द में ज ओर अ ) नहीं होते हैं । उदा० --- मन्नू । १. निःस्पृह । ३. क्रमसे - जय्य । शय्या | ५. क्रम से कार्य । वयं । पर्याय | पर्याप्त । मर्यादा | २. क्रम से - मध । अबध । वैद्य । द्युति । द्योत । ४. भार्या । Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ द्वितीयः पादः साध्वसध्यह्यां झः ॥ २६ ॥ साध्वसे संयुक्तस्य ध्यायोश्च झो भवति । सज्झसं । ध्य । बज्झए। झाणं । उवज्झाओ । सज्झाओ। सज्झं। विझो। ह्य। सज्झो। मज्झं । गुज्झं । णज्झइ। साध्वस शब्द में से संयुक्त व्यञ्जन का, और ध्य तया ह्य इन संयुक्त व्यञ्जनों का झ होता है । उदा० --सज्झसं । ध्य ( का झ ):--बज्झए "विञ्झो । ह्य (का झ):सज्झो"णज्झइ। ध्वजे वा ॥ २७ ॥ ध्वजशब्दे संयुक्तस्य झो वा भवति । झओ धओ। ध्वज शब्द में संयुक्त व्यञ्जन का झ विकल्प से होता है । उदा० ---- झओ, धओ! इन्धो झा ॥ २८ ॥ इन्धौ धातौ संयुक्तस्य झा इत्यादेशो भवति । समिज्झाइ । विज्झाइ । इन्ध् धातु में संयुक्त व्यञ्जन को झ आदेश होता है । उदा०-समिज्झाइ, निज्झाइ। वृत्तप्रवृत्तमृत्तिकापत्तनकथिते टः ॥ २६ ॥ एषु संयुक्तस्य टो भवति । वट्टो। पयट्टो। मट्टिआ। पट्टणं । कवट्टिओ। * वृत्त, प्रवृत्त, मृत्तिका, पत्तन और कथित शब्दों में,संयुक्त व्यञ्जन का ट होता है। उदा० वट्टो 'कवट्टिओ। तस्याधूर्तादौ ॥ ३० ॥ तस्य टो भवति । धूर्तादीन् वर्जयित्वा। केवट्टो। वट्टी। जट्टो। पयट्टइ । वटुलं। रायवट्टयं । नट्टई । संवट्टिअं। अधूर्तादाविति किम् । धुत्तो। कित्ती। वत्ता । आवत्तणं । निवत्तणं। पवत्तणं । संवत्तणं । आवत्तओ। निवत्तओ। निव्वत्तओ। पवत्तओ। संवत्तओ। वत्तिआ। वत्तिओ। कत्तिओ । उक्कत्तिओ। कत्तरी। मुत्ती। मुत्तो। मुहुत्तो। बहुलाधिकाराद् १. क्रमसे-बध्यते । ध्यान । उपाध्याय । स्वाध्याय । साध्य । विन्ध्य । २. क्रमसे-सह्य । मह्यम् । गुह्य । नह्यते । ३. क्रमसे-Vसम् + इन्ध । ।वि+इन्ध् । ४. क्रमसे :-कैवर्त । वर्तिका । जतं । प्रवर्तते । वतुंल । राजवातिका। नर्तकी । संवर्तित। Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरणे वट्टा । धूर्त । कीर्ति । वार्ता | आवर्तन । निवर्तन । प्रवर्तन । संवर्तन | आवर्तक । निवर्तक । निर्वर्तक । प्रवर्तक । संवर्तक । वर्तिका । वार्तिक । कार्तिक । उत्कर्तित। कर्तरि । मूर्ति । मूर्तं । मुहूर्त । इत्यादि । धूर्त इत्यादि शब्द छोड़कर, ( अन्य शब्दों में ) र्त का ट होता है उदा -- के बट्टी.. संवट्टि । धूर्त इत्यादि शब्द छोड़कर ऐसा क्यों कहा है ? ( कारण धूर्त इत्यादि शब्दोंमेर्त का ट न होते, त होता है । उदा - ) धुत्तो मुहुत्तो । बहुलका अधिकार होनेसे ( धूर्तादि शब्दों में से वार्ता शब्दका वर्णान्तर) वट्टा ( ऐसा भी होता है ) | ( धूर्तादि शब्दों के मूल संस्कृत शब्द क्रमसे ऐसे हैं :-) धूर्त मुहूर्त, इत्यादि । वृन्ते टः || ३१ ॥ वृन्ते संयुक्तस्य ण्टो भवति । वेण्टं । 'तालवेष्टं । वृन्त शब्द में संयुक्त व्यंजनका ण होता है । उदा --- वेण्टं, तालवेण्टं । ठोस्थिवि संस्थुले || ३२ ॥ अनयोः संयुक्तस्य ठो भवति । अट्ठी । विसंठुलं । अस्थि और विसंस्थुल इन दो शब्दों में संयुक्त व्यंजनका ठ होता है । उदा० अट्ठी, विसंठुलं । स्त्यानचतुर्थार्थे वा ॥ ३३ ॥ एषु संयुक्तस्य ठो वा भवति । ठीं थीणं । चउट्ठो चउत्थो । अट्ठो प्रयोजनम् । अत्थो धनम् । स्त्यान, चतुर्थ, और अर्थ इन शब्दों में संयुक्त व्यंजनका विकल्पये ट होता हैं । उदा०- -ठोणंच उत्थो; अट्ठो (यानी ) प्रयोजन, (और) अत्थो ( यानी ) धन । ष्टस्यानुष्टा संदष्टे || ३४ ॥ उष्ट्रादिवर्जिते ठस्य ठो भवति । लट्ठी । मुट्ठी । दिट्ठी । सिट्ठी । पुट्ठो । कट्ठे । सुरट्ठा। इट्ठो अणिट्ठ । अनुष्ट्र ष्टशसंदष्ट इति किम् । उट्टी । इट्टा व । संदट्टो | | ७७ उष्ट्र इत्यादि उष्ट्र इष्टा संदष्ट- शब्द छोड़कर, ( अन्य शब्दों में ) ष्ट का ठ होता है । उदा० - लट्ठी अणिट्टं । उष्ट्र इष्टा, संदष्ट शब्द छोड़कर ऐसा क्यों कहा है ? ( कारण इन शब्दों में ष्ट का ठ नहीं होता है; उसका ट्ट होता है । उदा० ) उट्टो... दो । १. तालवृन्त । २. क्रम से :-ष्टि । मुष्टि । दृष्टि । सृष्टि । पृष्ट । कष्ट । सुराष्ट्र | इष्ट । अनिष्ट | ३. इष्टाचूर्णं इव । Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ द्वितीयः पादः गर्ते डः॥ ३५॥ गर्तशब्दे संयुक्तस्य डो भवति । टापवादः । गड्डो । गड्डा । गर्त शव्दमें संयुक्त व्यंजनका ड होता है । (तं का) ट होता है (सूत्र २.३० देखिए नियमका अपवाद प्रस्तुत नियम है । उदा० ---- गड्डो, गड्डा । संमर्द वितर्दिविच्छदच्छर्दिकपदमर्दिते देस्य ॥ ३६॥ एषु दस्य डत्वं भवति । संमड्डो। विअड्डी । विच्छड्डो। छड्डइ । छड्डी । कवड्डो । मड्डिओ । संमड्डिओ। संमर्द, विदि, विच्छर्द, छदि, कपर्द, और मदित शब्दों में र्द का ह होता है । उदा०-संमड्डो संमड्डिओ। ___गर्दभे वा ॥ ३७॥ गर्दभे र्दस्य डो वा भवति । गड्डहो गद्दहो । गर्दभ शब्दमें र्द का ड विकल्प से होता हैं । उदा०-गडडहो गद्दहो । कन्द रिकाभिन्दिपाले ण्डः ॥ ३८॥ अनयोः संयुक्तस्य ण्डो भवति : कण्डलिआ। भिण्डिवालो। कन्दरिका और भिन्दिपाल इन दो शब्दों में, संयुक्त व्यंजनका ण्ड होता हैं । उदा०-कण्डलिआ, भिण्डिवालो । ___स्तब्धे ठढौ ।। ३६ ॥ स्तब्धे युक्तयोर्यथा मं ठढौ भवतः ! ठड्ढो। स्तब्ध शब्द में संयुक्त व्यञ्जनों के यथाक्रम ठ और ढ होते हैं। उदा.---- ठड्ढो । दग्धविदग्धवृद्धवृद्ध दः॥ ४० ॥ एषु संयुक्तस्य ढो भवति । दड्ढो विअड्ढो । वुड्ढा । वुड्ढो । क्वचिन्न भवति । विद्धकइनिरूविअं। दग्ध, विदग्ध, वृद्धि, और वुद्ध शब्दो में संयुक्त व्यंजन का ढ होता है। उदा:-- दढो 'बुड्ढो । क्वचित् (ऐप्ता ढ) नहीं होता है । उदा० ---विद्ध विरं । श्रद्धद्धिमूर्धाधन्ते वा ॥ ४१ ।। एषु अन्ते वर्तमानस्य संयुक्तस्य ढो वा भवति । सड्ढा सद्धा। इड्ढी रिद्वी। मुण्ढा मुद्धा । अड्ढं अद्ध । १. छड्डधातु मुच् धातुका आदेश हैं (सूत्र ४९१ देखिए)। २. संमदित। ३. वृद्ध-कवि ( पि )-निरूपितम् । Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरणे श्रद्धा, ऋद्धि, मूर्धन्, और अर्ध शब्दों में अन्त में रहने वाले संयुक्त व्यंजन का ढ विकल्प से होता है । उदा०सड्ढा अद्धं । म्नज्ञोर्णः ॥ ४२ ॥ अनयोर्णो भवति । न । ' निष्णं । पज्जुण्णो । ज्ञ । णा | सण्णा । पण्णा । विष्णाणं । म्न ओर ज्ञ इन दोनों का ण होता है । उदा - मन ( का ण ) :- निण्णं, पज्जुण्णो । ज्ञ ( का ण ) :---.. ••fauroi पञ्चाशत् पञ्चदश-दत्ते ॥ ४३ ॥ एषु संयुक्तस्य णो भवति । पण्णासा । पण्णरह । दिण्णं । पञ्चाशत्, पञ्चदश, और दत्त इन शब्दों में संयुक्त व्यंजन का ण होता है । • " दिण्णं । उदा - पण्णासा मन्यौ न्तो वा ॥ ४४ ॥ मन्यु शब्दे संयुक्तस्य न्तो वा भवति । मन्तु मन्नू । मन्यु शब्द में व्यंजन का न्त विकल्प से होता है । उदा --मन्तू, मन्नू । स्तस्य थोसमस्त स्तम्बे ॥। ४५ ।। समस्त स्तम्बवजिते स्तस्य थो भवति । हत्थो । थुई | थोत्तं । थोअं । पत्थरो । पत्थो । अस्थि । सत्थि । असमस्तस्तस्तम्ब इति किम् समत्तो । तम्बो | 1 समस्त और स्तम्ब शब्द छोड़कर, ( अन्य शब्दों में ) स्त का थ होता है । उदा० हत्थो ं सत्थि । समस्त और स्तम्ब शब्द छोड़ कर ऐसा क्यों कहा है ? ( कारण उन शब्दों में स्त का थ न होते, त होता है । उदा - ) समत्तो, तम्बो | स्तवे वा ॥ ४६ ॥ स्वशब्दे स्तस्य थो वा भवति । थवो तवो । स्तव शब्द में स्त का थ विकल्प होता है । उदा पर्यस्ते थौ || ४७|| पर्यस्ते स्तस्य पर्यायेण थटौ भवतः । पल्लत्थो पलट्टो । ७९ १. क्रम से: - निम्न | प्रद्युम्न | ३. क्रम से :- हस्त । स्तुति । स्वस्ति । -थयो, तवो । २. क्रम से : -- ज्ञान | संज्ञा : प्रज्ञा । विज्ञान | स्तोत्र । स्तोक । प्रस्तर : प्रशस्त । अस्ति । Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः पादः पर्यस्त शब्द में, स्त के पर्याय से थ और ट होते हैं। उदा०-पल्लत्थो, पल्लट्टो। वोत्साहे थो हश्च रः ।। ४८ ।। उत्साहशब्दे संयुक्तस्य थो वा भवति तत्सं नियोगे च हरय रः। उत्थारो उच्छाहो। उत्साह शब्द में संयुक्त व्यञ्जन का थ विकल्प से होता है और उसके सानिध्य में ह का र होता है । उदा० . .---उत्थारो; उच्छाहो । आश्लिष्टे लधौ ॥ ४६॥ आश्लिष्टे संयुक्तयोर्यथासंख्यं ल ध इत्येतौ भवतः । आलिखो। आश्लिष्ट शब्द में संयुक्त व्यञ्जनों के क्रम से ल और ध ऐसे ये (धिकार) होते हैं । उदा०-आलिद्धो। चिह्न न्धो वा ॥ ५० ॥ चिह्न संयुक्तस्य धो वा भवति । गहापवादः । पक्षे सोऽपि । चिन्धं इन्धं चिण्हं। चिह्न शब्द में संयुक्त व्यञ्जान का न्य विकल्प से होता है । (ह्न का) ण्ह होता है। ( सूत्र २७५ ) नियम का अपवाद प्रस्तुत नियम है । ( विकल्प ----- ) पक्ष में वह भो नियम लगता है। उदा--- चिन्धं चिण्हं । भस्मात्मनो; पो वा ।। ५१ ॥ अनयोः गयुक्तस्य पो वा भवति । भप्पो भरसो। अप्पा अपाणो। पक्षे अत्ता । भस्मन् और आत्मन् इन दो शब्दों में संयुक्त व्यञ्जन का विकल्प से प होता है । उदा० ---भप्पो 'अप्पागो। ( विकल्प ----- ) पक्ष में अत्ता ( एस? आत्मन् शब्द का वर्णान्तर होता है । डमक्मोः ।। ५२ ।। ड्मक्मोः पो भवति । कुडमलम कुम्पलं । रुक्मिणी रुप्पिणी। क्वचित् च्मोऽपि । रुच्मी रुप्पी। ड्म और कम का प होता है । उदा०----कुड्मलं. 'रुप्पिणी। क्वचित् ( कम का च्म भी ( होता है । उदा० - - ) रुच्मी, रुप्पी । Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरणे पस्पयोः फः ।। ५३ ॥ पस्पयोः फो भवति । पुष्पम् पुप्फं। शष्पम् सप्फं। निष्पेषः निप्फेसो। निष्पावः निप्फावो । स्पन्दनम् फंदणं । प्रतिस्पर्धिन पाडिप्फद्धी। बहुलाधिकारात् क्वचिद् विकल्पः । 'बुहप्फई बुहप्पई। क्वचिन्न भवति । 'निप्पहो। निप्पंसणं । परोप्परं। __प और स्प का फ होता है। उदा० ----( प का फ):-पुष्पम् निष्फावो। (स्प का फ):-स्पन्दनम् .. 'पाडिफदी। बहल का अधिकार होने से क्वचित विकल्प से होता है । उदा. ----बुहप्फई, बुहप्पई । क्वचित् (प और स्प का फ) नहीं होता है । उदा.-निप्पहो । परोप्परं । भीष्मे मः ।। ५४ ॥ भीष्मे मस्य फो भवति । भिप्फो। भीष्म शब्द में ष्म का फ होता है । उदा.-भिप्फो । श्लेष्मणि वा ५५॥ श्लेष्मशब्दे ष्मस्य फो वा भवति । सेफो सिलिम्हो। श्लेष्मन् शब्द में हम का फ विकल्प से होता है। उदा.---सेफो, सिलिम्हो । ताम्राने म्बः ॥५६॥ अनयोः संयुक्तस्य मयुक्तो बो भवति । तम्बं अम्बं । अम्बिर तम्बिर इति देश्यौ । ताम्र और आम्र इन दो शब्दों में संयुक्त व्यञ्जन का मकार से युक्त ब ( = म्ब) होता है । उदा -तम्ब, अम्बं । अम्बिर, तम्बिर शब्द ( मात्र ) देश्य शब्द होते हैं। हो भो वा ॥ ५७ ॥ वस्य भो वा भवति । जिब्भा जीहा । ह्व का भ विकल्प से होता है । उदा०-जिब्भा, जोहा । वा विह्वले वौ वश्च ॥ ५८ ॥ विह्वले ह्वस्य भो वा भवति तत्संनियोगे च विशब्दे वस्य वा भो भवति । भिब्भलो विब्भलो विब्भलो विहलो। विह्वल शब्द में ह्व का भ विकल्प होता है और उसके सानिध्य में 'वि' इस शब्द में से क् का भ् विकल्प से होता है। उदा०-भिन्भलो विहलो। 1. बृहस्पति । २. क्रमसे --निष्प्रभ । निस्पर्शन । परस्पर । ६ प्रा० व्या० Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८२ द्वितीयः पादः वोवें ॥ ५ ॥ ऊर्ध्वशब्दे संयुक्तस्य भो वा भवति । उभं उद्धं । ऊर्ध्व शब्द में संयुक्त व्यञ्जन का म विकल्प से होता है । उदा.-उन्भ,उद्धं । कश्मीरे म्भो वा ॥ ६०॥ कश्मीरशब्दे संयुक्तस्य म्भो वा भवति । कम्भारा कम्हारा। कश्मीर शब्द में संयुक्त व्यञ्जन का म्भ निकल्प से होता है । उदा--कम्भारा; कम्हारा। न्मो मः ।। ६१ ॥ न्मस्य मो भवति । अधोलोपापवादः। जम्मो । वम्महो। मम्मणं । न्म का म होता है । (संयुक्त व्यञ्जन में) अनंतर ( यानी द्वितीय अवयव होनेवाले म का ) लोप होता है ( सूत्र २.०८ ) नियम का अपवाद प्रस्तुत नियम है। उदा०जम्भो' 'मम्मणं । ग्मो वा ।। ६२ ॥ ग्मस्य मो वा भवति । युग्मम् । जुम्भ जुग्गं । तिग्मम् । तिम्मं तिग्गं । ग्म का म विकल्प से होता है । उद! o -...युग्मम् - निगं । ब्रह्मचर्यतूयसौन्दर्यशौण्डीये यो रः ।। ६३॥ . एषु यस्य रो भवति । जापवादः । बम्हचेरं । चौर्यसमत्वात् बम्हचरिअं । तूरं । सुंदेरं । सोण्डीरं। ___ ब्रह्मचर्य, तूयं, सौन्दर्य और शौण्डीर्य शब्दों में यं का र होता है । (यं का) ज होता है ( सूत्र २.४ ) नियम का अपवाद प्रस्तुत नियम है । उदार-बम्हचेरं; ( ब्रह्मचर्य शब्द ) चौर्य शब्द के समान होने से ( उसमें स्वरभक्ति होकर ) बम्हचरिमं ( ऐसा भी वर्णान्तर होता है; तूरं "सोंडीरं । धैर्ये वा ।। ६४॥ धैर्ये र्यस्य रो वा भवति । धीरं धिज्जं। सूरो सुज्जो इति तु सूर-सूर्यप्रकृतिभेदात् । धर्य शब्द में यं का र विकल्प से होता है । उदा०-धीर, धिज्जं । सूरो और सुज्जो शब्द मात्र सूर और सूर्य इन दो मूल भिन्न ( संस्कृत ) शब्द से सिद्ध हुए हैं। १. क्रमसे:-जन्मन् । मन्मथ । मन्मनस् । Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरणे एतः पर्यन्ते ॥ ६५ ॥ पर्यन्ते एकारात् परस्य यस्य रो भवति । पेरन्तो । एत इति किम् । पज्जन्तो । पर्यन्त शब्द में ( प में से अ का ए होकर, उस ) एकार के आगे होनेवाले बं का र होता है । उदा० - पेरन्तो । एकार के आगे होनेवाले ( यं का ) ऐसा क्यों कहा है ? ( कारण एकार के आगे र्य न हो, तो उसका र् न होते, ज्ज होता है । उदा० – ) पज्जन्तो । आश्चर्ये ।। ६६ ।। आश्र्चर्ये एतः परस्य यस्य रो भवति । अच्छेरं । एत इत्येव । अच्छरिअं । आर्य शब्द में (व में से अ का ए होकर, उस ) एकार के मागे होनेवाले यं कार होता है । उदा -अच्छोरं ए के आगे ( यं ) होने पर ही ( उसका र होता है; जैसा न होने पर र नहीं होता है । उदा० ) अच्छरिअं । ८३ अतो रिआर रिजरीअं ॥ ६७ ॥ अकारात् परस्य र्यस्य रिअ, अर, रिज्ज, रोम इत्येते आदेशा भवन्ति । अच्छरिअं अच्छअरं अच्छरिज्जं अच्छरीअं । अत इति किम् । अच्छेरं । आश्चर्य शब्द में ( एच में से ) अकार के आगे होनेवाले यं को रिभ, भर, रिब्ज और रीअ ऐसे ये आदेश होते हैं । उदा० - अच्छारिअं अच्छरीअं । अकार के आगे होनेवाले ( को ) ऐसा क्यों कहा है ? ( कारण श्च में से अ का ए यदि न हो, तो ये आदेश न होते, सूत्र २०६६ के अनुसार ) अच्छेरं ( ऐसा वर्णान्तर होता है ) । पर्यस्तपर्याणसौकुमार्ये ल्लः ॥ ६८ ॥ एषु र्यस्य ल्लो भवति । पर्यस्तं पल्लटं पल्लत्थं । पल्लाणं । सोअमल्लं । पल्लंको इति च पल्यङ्कशब्दस्य यलोपे द्वित्वे च । पलिको इत्यपि चौर्यसमत्वात् । पर्यस्त, पर्याण और सौकुमार्य शब्दों में र्य का ल्ल होता है । उदा० - - पर्यस्तम्.. सोअमलं । पल्लंक शब्द पल्यङ्क शब्द में से य् का लोप होकर और ल् का द्विस्व होकर सिद्ध हुआ हैं । ( पल्यङ्क शब्द का ) पलिश्रंको ऐसा भी ( वर्णान्तर होता है); कारण वह शब्द चोर्यसम शब्द है । Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः पादः बृहस्पतिवनस्पत्योः सो वा ॥ ६६ ॥ अनयोः संयुक्तस्य सो वा भवति । बहरसई बहप्फई भयस्सई भयप्फई। वणस्सई । वणप्फई। बृहस्पति और वनस्पति शब्दों में संयुक्त व्यञ्जन का स विकल्प से होता है । उदा०-बहस्सई. वणप्फई । बाष्पे होश्र णि ॥ ७० ॥ बाष्पशब्दे संयुक्तस्य हो भवति अश्रुण्यभिधेये। बाहो नेवजलभ् । अश्रुणोति किम् । बप्फो ऊष्मा। (बाष्प शब्द से ) अध अर्थ के अभिप्रेत होने पर, बाष्प शब्द में संयुक्त व्यञ्जन का ह होता है । उदा० ... बाहो ( यानी ) नयनों का नीर, अश्रु । अथ अर्थ कहने का अभिप्राय होने पर ऐसा क्यों कहा है ? ( कारण बाष्प शब्द का अर्थ अश्रु न हो, तो ष्प का ह नहीं होता है। उदा०-- ) बप्फो (यानी) ऊष्मा (= उष्णता) । कार्षापणे ।। ७१ ॥ कार्षापणे संयुक्तस्य हो भवति । काहावणो । कथं कहावणो। ह्रस्वः संयोगे ( १.८४ ) इति पूर्वमेव ह्रस्वत्वे पश्चादादेशे। कर्षापणशब्दस्य वा भविष्यति । कार्षापण शब्द में संयुक्त व्यञ्जन का ह होता है । उदा०- काहावणो । (प्रश्न:-) कहावणो ( यह वर्णान्तर ) कैसे होता है ? ( उत्तरः-- - कार्षापण शब्द में ) ह्रस्वः संयोगे' सूत्रानुसार पहले ही ( का में से आ ) ह्रस्व ! = अ ) हुआ और फिर (प्रस्तुत सूत्र के अनुसार र्ष को ह ) आदेश हुआ । अथवा ( कहावणो यह वर्णान्तर) कर्षापण शब्द का होगा। दुःखदक्षिणतीर्थे वा ॥ ७२ ।। एषु संयुक्तस्य हो वा भवति । दुहं दुक्खं । पर' दुक्खे दुक्खिआ विरला । दाहिणो दक्खिणो । तूहं तित्थं । दुःख, दक्षिण और तीर्थं शब्दों में संयुक्त व्यञ्जन का ह विकल्प से होता है । उदा.---दुहं 'तित्थं । १. परदुःखे दुःखिता विरलाः । Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरण कूष्माण्ड्यां ष्मो लस्तु ण्डो वा ॥ ७३ ॥ कूष्माण्ड्यां ष्मा इत्येतस्य हो भवति ण्ड इत्यस्य तु वा लो भवति । कोहली कोहण्डी। कूष्माण्डी शब्द में मा ( इस संयुक्त व्यञ्जन ) का ह होता है, परन्तु ण्ड का ल मात्र बिकल्प से होता है। उदा० -कोहली, कोहण्डी ! पक्ष्मश्मष्मस्मह्मां म्हः ।। ७४ ॥ __ पक्ष्मशब्दसंबंधिनः संयुक्तस्य श्मष्मस्मह्मां च मकाराक्रान्तो हकार आदेशो भवति । पक्ष्मन् पम्हाइं । पम्हल' लोअणा । म । कुश्मानः कुम्हाणो । कश्मीराः कम्हारा । म । ग्रीष्मः गिम्हो । ऊष्मा उम्हा। स्म । अस्मादृशः अम्हारिसो। विस्मयः विम्हओ। ह्म । ब्रह्मा बम्हा । सुमाः सुम्हा। बम्हणो । बह्मचेरं । क्वचित् म्भ पि दृश्यते । बम्भणो । बम्भचेर । सिम्भो । क्वचिन्न भवति । रश्मिः रस्सी। स्मरः सरो। पक्ष्मन् शब्द से सम्बन्धित रहनेवाले (क्ष्म इस ) संयुक्त व्यञ्जन को और श्म, म, स्म और ह्म इन ( संयुक्त व्यञ्जनों ) को मकार से युक्त हकार ( यानी म्ह ) आदेश होता है । उदा०-पक्ष्मन् "लोअणा । म ( का ण्ह ):- कुम्हाणो कम्हारा । म ( का म्ह ):---ग्रीष्म 'उम्हा। स्म ( का म्ह ):-अस्मादृशः विम्हओ। ह्म ( का म्ह ):--ब्रह्मा' 'बम्हचेर । क्वजित् ( म्ह के बदले ) म्भ भी दिखाई देता है। उदा०-~-वंभणो 'सिम्भो । क्वचित् ( ऐस; म्ह ) नहीं होता है । उदा. - रश्मिः .. सरो। सूक्ष्मश्नष्णस्नह्नह णक्ष्णां ण्हः ॥ ७५ ॥ सूक्ष्मशब्दसंबंधिनः संयुक्तरय श्नष्णस्नहल्क्ष्णां च णकाराक्रान्तो हकार आदेशो भवति । सूक्ष्मम् । सह । श्न । पण्हो । सिण्हो। ष्ण । विण्हू । जिण्हू । कण्हो। उहीसं । स्न। जोण्हा" । हाओ । पण्हुओ । ह्न। "वण्ही । जण्हू । । “पुवण्हो अवरणहो । क्ष्ण। -सण्हं । तिण्डं। विप्रकर्षे तु कृष्णकृत्स्नशब्दयोः कसणो कसिणो। सूक्ष्म शब्द से सम्बन्धित रहनेवाले ( प इस ) संयुक्त व्यञ्जन को तथा इन, ष्ण, स्न; ह्न, ह्ण और क्षण इन ( संयुक्त व्यञ्जनों ) को णकार से युक्त हकार (यानी ण्ह) १. पक्ष्मललोचना। क्रमसे:-ब्राह्मण । ब्रह्मचर्य । ३. क्रमसे:--प्रश्न । शिश्न । ४. क्रमसे----विष्णु। । जिष्णु। । कृष्ण । उष्णषि । ५. क्रमसे:- ज्योत्स्ना । स्नात । प्रस्नुत । ६. क्रमसे:--वह्नि । जह नु। ७. क्रमस:-पूर्वाह्न । अपराह्न । ८. क्रमसे:-~~श्लक्ष । तीक्ष्ण । Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीमः पादः मादेश होता है । उदा० ---सूक्ष्मम् सह । श्न ( का पह):-पण्हो, सिहो । ष्ण ( का ह ):-विण्हू'उण्हीसं । स्न ( का ण्ह ):-जोण्हा' 'पण्हुओ । ह्न (का एह):बण्ही, जण्हू । ल ( का ह ):---- पुटवण्हो, अवरोहो । क्ष्ण (का ह : ---सहं, निण्हं। तथापि स्वर भक्ति होने पर, कृष्ण और कृत्स्न शब्दों के कसणो और कसिणो ( ऐसे वर्णान्तर ) होते हैं। हो रहः ॥ ७६ ॥ हल: स्थाने लकाराक्रान्तो हकारो भवति । 'कल्हारं । पल्हाओ। ह्न के स्थान पर लकार से युक्त हकार (यानी ल्ह ) होता है । उदा०-कल्हारं, पल्हामओ। कगटडतदपशषसक पामूवं लुक् ।। ७७ ॥ ___ एषां संयुक्तवर्णसंबंधिनामूर्ध्वस्थितानां लुग् भवति । क। भुत्तं । सित्यं । ग। दुद्धं । मुद्धं । ट । षट्पदः । छप्पओ। कटफल कप्फलं । ड। खड्गः खग्गो । षड्जः सज्जो । त । उप्पलं' । उप्पाओ। द। मद्गुः मग्गू । मोग्गरो"। प। 'सुत्तो। गुत्तो। श। लण्हं। णिच्चलो। चुअइ । ष। पोटठी । छट्ठो। निठुरो । स । खलिओ। नेहो। क । दुःखम् दुक्खं। प। मंतःपातः । अंतप्पाओ। संयुक्त वर्ण से सम्बन्धित ( यानी संयुक्त व्यञ्जन में होनेवाले ) और प्रथम अवयव होनेवाले क्, ग्, ट्, ड्, त्, द, प, श, ष, स, क और प इन (ब्यञ्जनों) का कोप होता है। उदा०-- ( का लोप ):-भत्तं, सित्थं । ग् ( का लोप ):दुधं, मुद्धं । ट् (का लोप):-षट्पदः कप्फलं । ड् (का लोप)-खड्ग 'सज्जो । त् (का लोप):-सुत्तो, गुत्तो । श् (का लोप):--लण्हं."चुअइ । ष् का लोप):गोट्ठी "निठुरो। स् (का लोप):-खलिओ, नेहो । क ( का लोप ):-दुःखम् दुक्खं । (का लोप):-अंत:पातः अंतप्पाओ। अधो मनयाम् ।। ७८॥ ममयां संयुक्तस्याधो वर्तमानानां लुग भवति । म। जुग्गं । रस्सी । सरो। सेरं । न । नागो । लग्गो। य । ५२ सामा। कुडडं। वाहो। १. क्रमसे:--- कलार । प्रह्लाद । २. क्रमसे:-मुक्त । सिक्य । ३. क्रमसे:--दुग्ध । मुग्ध । ४. क्रमसे:-उत्पल । उत्पाद । उत्पात । ५. मुद्गर । ६. क्रमसे:-सुप्त । गुप्त । ७. क्रमसे:-लक्षण । निश्चल। श्चोतते ८. क्रमसे:-गोष्ठी । पष्ठ । निष्ठुर । ९. क्रमसे:-स्खलित । स्नेह । १०. क्रमसे:--युग्म । रश्मि । स्मर । स्मरे । ११. क्रमसे:-नग्न । लग्म । १२. क्रमसेः-श्यामा । कुड्य । व्याध । बाह्य । Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरणे ८७ संयुक्त व्यञ्जन में अनन्तर ( यानी द्वितीय अवयव ) होनेवाले म्, न और य इनका लोप होता है । उदा०--म् ( का लोप ):- जुग्गं रं । न ( का लोप ):-नग्गो, लग्गो। य् (का लोप):--सामा 'बाहो। सर्वत्र कबरामवन्दे ।। ७६ ॥ वन्द्रशब्दादन्यत्र लबरा सर्वत्र संयुक्तस्योर्ध्वमधश्च स्थितानां लुग भवति । ऊर्ध्वम् । ल । उल्का उक्का ; वल्कलम् वक्कलं। ब। शब्दः सद्दो। अब्दः अहो । लुब्धकः लोद्धओ। र। अर्कः अक्को। वर्गः वग्गो । अधः । श्लक्ष्णम् सण्हं । विक्लवः विक्कवो । पक्वम् । पक्कं पिक्कं । ध्वस्तः। धत्थो। चक्रम् चक्कं । ग्रहः गहो । रात्रिः : रत्ती। अत्र द्व इत्यादि संयुक्तानामुभयप्राप्तौ यथा दर्शनं लोपः। क्वचिदूर्ध्वम् ।' उद्विग्नः उबिग्गो। द्विगुणः विउणो। द्वितीयः बीओ। कल्मषम् कम्मसं । सर्वम् सठ। शुल्बम् सुब्बं । क्वचित्त्वधः । काव्यम् कब्बं । कुल्या कुल्ला। माल्यम् भल्ल । द्विपः दिओ। द्विजातिः दुआई। क्वचित् पर्यायेण । द्वारम् बारं दारं । उद्विग्नः उविग्गो उव्विणो । अवन्द्र इति किम् । वन्द्रं । संस्कृतसमोयं प्राकृ शब्दः । अत्रोत्तरेण विकल्पोपि न भवति निषेधसामर्थ्यात् । बन्द्र शब्द छोड़कर, अन्यत्र ( यानी अन्य शब्दों में ) संयुक्त व्यञ्जन में पहले अथवा अनन्तर ( यानी प्रयम किं वा द्वितीय अवयव ) होने वाले ल, ब और र इनका सर्वत्र लोप होता है उदा.--प्रथम ( अवयव ) होने परः---ल का लोप):उल्फा''वक्कलं । ब ( का लोप ): --- शब्द:--लोधी । र (का लोप):--अर्कः... वग्गो । अनन्तर ( यानो द्वितीय अवयव ) होने परः---(ल का लोप):---- इलक्षणम् .. विक्कयो । ( व का लोप ):-पक्वम् धत्थो। ( र का लोप :-चक्रम् "रत्ती । यहाँ द इत्यादि संयुक्त व्यञ्जनों में ( एकही समय पहला और दूसरा अवयव इनका लोप ऐसी) दो वर्णान्तरों की प्राप्ति होने पर, ( साहित्य में.) जैसा दिखाई देगा वैसा (किसी भी एक अवयव का) लोप करे । ( इसलिए ) क्वचित् प्रघम होनेवाले अवयव का ( लोप होता है । उदा०-) उद्विग्नः “सुब्बं । ( तो कभी ) अनन्तर होनेवाले ( अवयव ) का ( लोप होता है। उदा० --- काव्यम् - 'दुआई । क्वचित पर्याय से ( पहले और दूसरे अवयव का लोप होता है। उदा०-):--द्वारम्... उविणो । चन्द्र शब्द छोड़कर ऐसा क्यों कहा है ? ( कारण प्राकृत में ) वन्द्र ( शब्द वैसा ही रहता है )। यह प्राकृत शब्द वन्द्र संस्कृत सम है ! इस ( वन्द्र शब्द ) के बारे में, ( प्रस्तुत सूत्र में से ) निषेध के सामर्थ्य से, अगले ( २८० ) सूत्र में कहा हुआ विकल्प भी नहीं होता है। Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ द्वितीयः पादः द्रे रो न वा ॥ ८०॥ द्रशब्दे रेफस्य वा लुग् भवति । १चंदो चंद्रो। रुद्दो रुद्रो। भई भद्रं । समुद्दो समुद्रो। ह्रदशब्दस्य स्थितिपरिवृत्तौ द्रह इति रूपम् । तत्र द्रहो दहो। केचिद् रलोपं नेच्छन्ति । द्रहशब्दमपि कश्चित् संस्कृतं मन्यते। वोद्रहादयस्तु तरुणपुरुषादिवाचका नित्यं रेफसंयुक्ता देश्या एव । सिक्खन्तु वोद्रहीओ। वोद्रहद्रहम्मि पडिआ। 'द्र' शब्द में रेफ का विकल्प से होता है । उदा. चंदो 'समुद्रो । ह्रद शब्द में स्थिति परिवृत्ति ( = वर्णव्यत्यास ) होने पर, द्रहरूप सिद्ध होता है । वहाँ ( यानी द्रह शब्द के बारे में ) द्रहो, दहो ( ऐसे रूप होते हैं । ) कुछ वैयाकरणों के मतानुसार, रेफ का लोप नहीं होता है । द्रह शब्द भी संस्कृत शब्द है ऐसा कोइ एक (प्राकृत वैयाकरण) मानता है । तरुण पुरुष इत्यादि अर्थ होनेवाले वो द्रह इत्यादि शब्द नित्य रेफ से युक्त होते हैं और वे देश्य शब्द ही होते हैं । उदा०-सिक्खंतुः पडिआ। धान्याम् ॥ ८१ ।। धात्रीशब्दे रस्य लुग् वा भवति । धत्ती। ह्रस्वात् प्रागेव रलोपे धाई। पक्षे धारी। धात्री शब्द में र का लोप विकल्प से होता है। उदा०-धत्ती । र का लोप होने के पहले हो हस्व से ( दोर्घ होकर ) धाई ( रूप सिद्ध होता है)। (विकल्प-) पक्ष में:-चारी। तीक्ष्णे णः ॥ ८२॥ तीक्ष्णशब्दे णस्य लुग् वा भवति । तिक्खं तिण्हं । तीक्ष्ण शब्द में ण का लोप विकल्प से होता है। उदा०-तिक्खं, तिण्हं । ज्ञो नः ॥ ८३ ॥ ज्ञः संबंधिनो अस्य लुग वा भवति । जाणं णाणं। सव्वज्जो सव्वण्णू । अप्पज्जो अप्पण्णू । दइवज्जो दइवण्णू । इंगिअज्जो इंगिअण्ण । मणोज्ज मणोण्णं । अहिज्जो अहिराण । पज्जा पण्णा । अज्जा आणा। संजा सण्णा। क्वचित् न भवति । "विण्णाणं । १. क्रमसे:--चन्द्र । रुद्र । भद्र । समुद्र । २. शिक्षन्तां तरुण्यः । ३. तरुणहदे पतिता। ४. क्रमसे:-- ज्ञान । सर्वज्ञ । आत्मज्ञ । अल्पज्ञ । दैवज्ञ । इंगितज्ञ । मनोज्ञ । अभिज्ञ । प्रज्ञा । आज्ञा । संज्ञा। ५. विज्ञान। Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरणे ज्ञ ( इस संयुक्त व्यञ्जन ) से सम्बन्धित होनेवाले न का लोप विकल्प से होता है । उदा० - जागं सण्णा । क्वचित् (ञ का लोप) नहीं होता है । उदा०-1 -favorror I मध्याह्न हः ॥ ८४ ॥ मध्याह्न े हस्य लुग् बा भवति । मज्झन्नो मज्झहो । मध्याह्न शब्द में ह का लोप विकल्प से होता है । उदा० - मज्झन्नो, मज्झ०हो । दशार्हे ॥ ८५ ॥ पृथग्योगाद् वेति निवृत्तम् । दशार्हे हस्य लुग् भवति । दसारो । यह सूत्र पृथक् कहा है इसलिए ( सूत्र २८० में से अनुवृत्ति से आने वाले ) बा शब्द की निवृत्ति होती है । दशार्ह शब्द में ह का लोप होता है । उदा० - दसारो । आदेः श्मश्रु श्मशाने ॥ ८६ ॥ 6 अनयोरादेर्लुग्भवति । मासू मंसू मस्सू । मसाणं । आर्षे श्मशानशब्दस्य सोआ साणमित्यपि भवति । ८९ श्मश्रु और श्मशान इन दो शब्दों में, आदि ( होनेवाले व्यञ्जन ) का लोप होता है । उदा० - मासू मसाणं । आषं प्राकृत में श्मशान शब्द के सोआणं और सुसाणं ऐसे भी ( वर्णान्तर रूप ) होते हैं । श्री हरिश्चन्द्रे ॥ ८७ ॥ हरिश्चन्द्रशब्दे व इत्यस्य लुग् भवति । हरिअंदो । हरिश्चन्द्र शब्द में श्च् ( इस संयुक्त व्यञ्जन का लोप होता है । उदा०० - हरिनंदो । रात्रौ वा ॥ ८८ ॥ रात्रिशब्दे संयुक्तस्य लुग् वा भवति । राई रत्ती । रात्रि शब्द में संयुक्त व्यञ्जन का लोप होता है । उदा० - राई, रत्ती । अनादौ शेषादेशयोर्द्वित्वम् ॥ ८६ ॥ पदस्यानादौ वर्तमानस्य शेषस्यादेशस्य च द्वित्वं भवति । शेष । किप्पतरू । भुत्तं । दुद्धं । नग्गो । उक्का । अबको । मुक्खो । आदेश । डमको । जक्खो । रग्गो । किच्ची । रुप्पी | नवचिन्न भवति । कसिणो । अनादाविति किम् । खलिअं । थेरो । खम्भो । द्वयोस्तु द्वित्वमस्त्येवेति न भवति । विञ्चुओ" । भिण्डिवालो | १. क्रम से:२. क्रम से:४. क्रम से: - स्खलित । स्थविर । स्तम्भ | - कल्पतरु | मुक्त | दुग्ध । नग्न । उल्का । अर्क । मूर्ख । -दष्ट । यक्ष | रक्त । कृत्ति । दच्मी । ३. कृत्स्न । ५. क्रम से: - वृश्चिक । भिन्दिपाल | Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः पादः पद में अनादि होनेवाले शेष ( व्यञ्जन ) तथा कहा हुआ ) आदेश, इनका द्वित्व होता है। उदा०-शेष ( व्यञ्जन का द्वित्व :-कप्पतरू · मुक्खो। आदेश ( का द्वित्व):--डक्को रुप्पी । क्वचित् ( ऐसा ! द्वित्व नहीं होता है ( अन्य कुछ वर्णान्तर होता है। उदा.- ) कसिणो। ( पद में ) अनादि होनेवाले ऐसा क्यों कहा है ? ( कारण शेष किंवा आदेश अनादि न होने पर ( यानी आदि होने पर ) उसका द्वित्व नहीं होता है ! उदा०-) खलि...''खम्भो । ( संयुक्त व्यञ्जन के स्थान पर संयुक्त ध्यान का आदेश यदि कहा हुआ हो, तो वहां पहले ही ) दो व्यञ्जनों का अस्तित्व होने से वहां फिर) द्वित्व नहीं होता है। उदा:-विञ्चओ, भिण्डिवालो। द्वितीयतुर्ययोरुपरि पूर्वः ॥ १० ॥ द्वितीयतुर्ययोद्वित्वप्रसंगे उपरि पूर्वी भवतः। द्वितीयस्योपरि प्रथमश्चतुर्थस्योपरि तृतीय इत्यर्थः । शेष । 'वक्खाणं । बग्धो । मुच्छा। निज्झरो। कळं । तित्थं । निद्धणो । गुप्फ । निब्भरो । आदेश । जक्खो । धस्य नास्ति । अच्छी । मज्झं। पछी। बुड्ढो। हत्थो। आलिद्धो। पुप्फं। भिब्भलो। तैलादी (२.९८) द्वित्वे 'ओक्खलं । सेवादी (२.६६ ) "नक्खा । नहा । समासे । कइद्धओ कइधओ। द्वित्व इत्येव । “खाओ। (वर्गीय व्यञ्जनों में से ) द्वितीय और चतुर्थ व्यञ्जनों के द्वित्व होने का प्रसंग उपस्थित होने पर, उनके पूर्व होनेवाले दो व्यञ्जन ( यानी प्रथम और तृतीय व्यञ्जन) पहले के यानी प्रथम अवयव के रूप में आते है । ( अभिप्राय यह कि ) द्वित्तीय व्यञ्जन के पूर्ण पहला व्यञ्जन और चतुर्थ व्यञ्जन के पूर्व तीसरा व्यञ्जन आता है। उदा.शेष ( व्यञ्जन का द्वित्व होते समय ):-वक्खाणं.... मिन्भगे। मादेश (व्यञ्जन का द्वित्व होते समय ):---जक्खो; घ का द्वित्थ (दिखाई नहीं देता है; अच्छी.. भिम्भलो। सैलादौ सूत्र के अनुसार, द्वित्व होते समय:--ओक्स्चलं । 'सेवादी' सूत्र के अनुसार (विकल्प से द्वित्व होते समय):- नक्वा, नहा । समास में (द्वित्व होते समय ):कइद्घओ, कइधओ। (द्वितीय और चतुर्थ व्यञ्जनों का द्वित्व होते समय ही (प्रथम और तृतीय व्यञ्जन पहले आते हैं, द्वित्व न होते समय, वैसा नहीं होता है । उदा०-) खाओ। १. क्रमसे-व्याख्यान । व्याघ्र। मूर्छा । निर्झर । कष्ट । तीर्थ । निधन । गुल्फ । निर्भर २. पक्ष । ३. क्रमसे:- अक्षि । मध्य । पृष्ठ । वृद्ध । हस्त । आश्लिष्ट । पुष्प । विह्वल ४. उदुखल। ५. नखाः । ६. कपिध्वज। ७. खात । Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरणे दीर्घ वा ॥११॥ दीर्घशब्दे शेषस्य घस्य उपरि पूर्वो वा भवति । दिग्धो दोहो। दीर्घ शब्द में ( र् का लोप होने के अनन्तर ) शेष होनेवाले ध के पीछे पूर्व (यानी तीसरा व्यञ्जम) विकल्प से आता है। उदा०-दिग्धो, दोहो। .. न दीर्धानुस्वारात् ॥ १२॥ दीर्घानुस्वाराभ्यां लाक्षणिकाभ्यामलाक्षणिकाभ्यां च परयोः शेषादेशयोद्वित्वं न भवति । 'छढो । नीसासो। फासो। अलाक्षणिक । पार्श्वम् पासं। शीर्षम । सीसं । ईश्वरः । ईसरो। द्वष्यः । वेसो । लास्यम् लासं । आस्यम आसं । प्रेष्यः पेसो। अवमाल्यम् ओमालं । आज्ञा आणा । आज्ञप्तिः आणत्ती। आज्ञापनम् । आणवणं । अनुस्वारात् । यस्रम् तंसं । अलाक्षणिक । संझा। विक्षो। कंसालो। लाक्षणिक तथा भलाक्षणिक दीर्घ स्वर और अनुस्वार (इन) के आगे शेष व्यञ्जन और आदेश व्यञ्जम ( इन ) का द्वित्व नहीं होता है। उदा०-छूढो...... फासो । असाक्षणिक ( दीर्घ स्वर के आगे ):----पार्श्वम्... "आणवणं . (लाक्षणिक) अनुस्वार के आगे-भ्यसम् तंसं । मलाक्षणिक (अनुस्वार के आगे)-संझा 'कंसालो। रहोः ॥ १३॥ रेफहकारयोद्वित्वं न भवति । रेफः शेषो नास्ति । आदेश । सुंदेरं । बम्हचेरं । पेरन्तं । शेषस्य हस्य । 'विहलो । आदेशस्य । "कहावणो। रेफ और हकार का हित्व नहीं होता है। रेफ ( = र व्यञ्जन ) शेष ब्यञ्जन (कभो भी ) नहीं होता है । ( रेफ ) आदेश होने परः-संदेरं.... पेरन् । शेष ह ( का द्वित्व नहीं होता है । उदा.-) विहलो । आदेश होनेवाले (ह का द्वित्व नहीं होता है । उदा०-) कहावणो। __ धृष्टद्युम्ने णः ॥ ६४ ॥ धृष्टद्युम्नशब्दे आदेशस्य णस्य द्वित्वं न भवति । धट्ठज्जुणो। धृष्टद्युम्म शब्द में आदेश के रूप में आनेवाले ण का द्वित्व नहीं होता है। उदा०धट्ठज्जुणो। १. क्रमसे:-क्षिप्त । निःश्वास । स्पर्श । २. क्रमसे.-संध्या । विन्ध्य । कांस्ययुक्त । ३. क्रमसे:--सौंदर्य । ब्रह्मचर्य । पर्यन्त । ४. विह्वल । ५. कार्षापण । Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः पादः कर्णिकारे वा ॥६५॥ कणिकारशब्दे शेषरय णस्य द्वित्वं वा न भवति । कणिआरो कण्णिआरो। कर्णिकार शब्द में शेष होने वाले ण का द्वित्व विकल्प से नहीं होता है । उदा.कणिआरो, कण्णिआरो। हप्ते ।। ६६ ॥ हप्तशब्दे शेषस्य द्वित्वं न भवति । 'दरिअ-सीहेण । दृप्त शब्द में शेष व्यञ्जन का द्वित्व नहीं होता है । उदा०-दरिअसीहेण । समासे वा ॥ ७॥ शेषादेशयोः समासै द्वित्वं वा भवति । न इग्गामो नइगामो । कुसुमप्पयरो कुसुमपयरो। देवत्थुई देवथुई। हरक्खन्दा हरखन्दा। आणालखम्भो आणालखम्भो। बहुलाधिकारादशेषादेशयोरपि। सप्पिवासो सपिवासो। बद्धफलो बद्धफलो। मलयसिहरक्खंडं मलयसिहरखंडं । पम्मुक्कं पमुक्कं अईसणं । अदसणं । पडिक्कूलं पडिकूलं : तेल्लोक्कं तेलोक्कं । इत्यादि । शेष और आदेश व्यंजन का द्वित्व समास में विकल्प से होता है। उदा०- नइग्गामो... ."'खम्भो। बहुल का अधिकार होने से, शेष और आदेश न होने वाले व्यंजनों का भी ( समास में द्वित्व विकल्प से दिखाई देता है। उदा०-) सप्पिवासो... . 'तेलोक्क; इत्यादि । तैलादौ ॥ ९८॥ तैलादिषु अनादौ यथादर्शनमन्त्यस्यानन्त्यस्य च व्यंजनस्य द्वित्वं भवति । तेल्लं । मण्डुक्को। वेइल्लं । उज्जू । विड्डा। वहुत्तं । अनन्त्यस्य । सोत्तं । पेम्मं । जुन्वणं । आर्षे । 'पडिसोओ। विस्सोअसिआ। तैल। मण्डक । विचकिल । ऋजु । व्रीडा प्रभूत । स्रोतस् । प्रेमन् । यौवन । इत्यादि। तेल इत्यादि शब्दों में, जैसा साहित्य में दिखाई देगा वैसा, अनादि स्थान पर अन्त्य और अनन्त्य व्यंजनों का द्वित्व होता है। उदा०-तेल्लं.. .''बहुत्तं । अनन्त्य व्यंजनों का ( द्वित्व ) सोत्तं .. .."जुव्वणं । आर्ष प्राकृत में ( कभी ऐसा द्वित्व नहीं १. हप्त-सिंहेन ।२.क्रमसे नदीग्राम । कुसुमप्रकर । देवस्तुति । हरस्कन्दौ । आलानस्तम्भ। ३. क्रम से : - स-पिपास ! बद्ध-फल । मलय-शिखर-खण्ड । प्रमुक्त । अदर्शन । प्रतिकल । लोक्य । ४. क्रम से :-प्रतिस्रोतस् । विस्रोतसिका। Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरणे होता है तो कभी होता भी है । उदा० - से मूल संस्कृत शब्द ऐसे होते हैं - ) पडिसोमो, विस्सो असिआ । ( अनुक्रम यौवन । इत्यादि । ) तैल सेवादौ वा ।। ९९ ॥ सेवादिषु अनादौ यथादर्शनमन्त्यस्यानन्त्यस्य च द्वित्वं वा भवति | सेव्वा सेवा । नेड्डं नीडं । नक्खा नहा । निहित्तो निहिओ । वाहित्तो । वाहिओ । माउक्कं माउअं । एक्का एओ । कोउहल्लं कोउहलं । वाउल्लो वाउलो । थल्लो थोरो । हुत्तं हूअं । दइव्वं दइवं । तुहिक्को तुहिओ । भुक्को मूओ । खoणू । खा । थिणं थीणं । अनन्त्यस्य । अम्हस्केरं अम्हकेरं । तं च्चेअं तं । सोचिअ सोचिअ । सेवा । नीड । नख । निहित । व्याहृत । मृदुक । एक । कुतूहल । व्याकुल । स्थूल । हूत । दैव । तूष्णीक । मूक । स्थाणु | स्त्यान । अस्मदीय | चेअ । चित्र । इत्यादि । १३ सेवा इत्यादि शब्दों में, जैसा वाङ्मय में दिखाई देगा वैसा, अनादि स्थान पर, अन्त्य तथा अनन्त्य व्यञ्जनों का द्वित्व विकल्प से होता है । उदा०--सेव्या थीपं । अनन्त्य व्यञ्जनों का ( द्वित्व ) : अम्होरं चिअ | ( इनके मूल संस्कृत शब्द क्रमसे ऐसे हैं -- ) सेवा अस्मदीय; चेअ, चिअ इत्यादि । } शाङ्गे ङात्पूर्वोत् ॥ १०० ॥ शा ङात् पूर्वोऽकारो भवति । सारङ्गं । शाङ्ग शब्द में, ( र् के अनन्तर और ) ङ् के पहले अकार आता है । उदा०--- सारङ्गं । क्ष्मारलघारित्नेन्त्यव्यञ्जनात् ।। १०१ ।। एषु संयुक्तस्य यदन्त्यव्यञ्जनं तस्माद् पूर्वोद् भवति । छमा । सलाहा । रयणं । आर्षे सूक्ष्मेऽपि । सुमं । क्ष्मा, श्लाघा और रत्न शब्दों में, संयुक्त व्यञ्जन में से जो अन्त्य व्यञ्जन है उसके पूर्व अ आता है । उदा०—छमा रमणं । आर्ष प्रकृत में सूक्ष्म शब्द में भी ( ऐसा अकार आता है । उदा०- - ) सुमं । १. चेअ और चिअ ये दो अव्यय ' अवधारण' अर्थ दिखाते हैं ( सू २०१८४ देखिए ) | Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः पादः स्नेहारन्योर्वा ॥ १०२॥ अनयोः संयुक्तस्यान्त्यव्यञ्जनात् पूर्वोकारो वा भवति । सणेहो नेहो । अगणी अग्गी। ___स्नेह और अग्नि इन शब्दों में, संयुक्त व्यञ्जन में अन्स्य व्यञ्जन में पूर्व विकल्प से अकार आता है । उदा.-सणेहो... ."अग्गी ! प्लक्षे लात् ॥ १०३ ॥ प्लक्षशब्दे संयुक्तस्यान्त्यव्यञ्जनाल्लात् पूर्वोद् भवति । पलक्खो। प्लक्ष शब्द में, संयुक्त व्यञ्जन में से अन्त्य र व्यञ्जन के पूर्व में आता है। उदा.--पलक्खो । हंश्रीहीकृत्स्नक्रियादिष्टयास्वित् ॥ १०४ ।। एषु संयुक्तस्यान्त्यव्यलजात् पूर्व इकारो भवति । है । 'अरिहइ । अरिहा । गरिहा । बरिहो। श्री सिरी हो। हिरी। होतः हिरीओ। अहीक: अहिरीओ। कृत्स्नः कसिणो । क्रिया किरिआ। आर्षे तु हयं नाणं किया-हीणं । दिष्टया दिळुिआ ह, श्री, ह्री, कृत्स्न, क्रिया और दिष्टया शब्दों में, संयुक्त व्यञ्जन में से अन्त्य व्यञ्जन के पूर्व इकार आता है। उदा०-ई ( में ) :-अरिहइ. ''बरिहो। श्री. .. "किरिआ : आर्ष प्राकृत में मात्र (क्रिया शब्द में स्वर भक्ति से इकार नहीं आता है । उदा० ---- हयं ... .."कियाहीणं । दिष्टया दिट्ठिआ । शर्षतप्तवज्र वा ॥ १०५॥ शर्षयोस्तप्तवज्रयोश्च संयुक्तस्यान्त्यव्यंजनात् पूर्व इकारो वा भवति । शं । आयरिसो आयंसो। सूदरिसणो सदसणो। दरिसणं दंसणं । र्ष। 'वरिसं वासं। वरिसा वासा । बरिससयं वाससयं: व्यवस्थितविभाषया क्वचिन्नित्यम् । 'परामरिसो । हरिसो। अमरिसो। तप्तः लविओ तत्तो। वज्रम् वइरं वज्ज। र्श और पं इन संयुक्त व्यञ्जनों में तथा ता और वज्र शब्दों में संयुक्त व्यञ्जन में से से अन्य व्यञ्जन के पूर्व इकार विकल्प से आता है। उदा --( में):१. क्रम से :--...अर्हति । अर्हन् । गहीं । बह। २. हतं ज्ञानं क्रियाहीनम् । ३. क्रम से:----आदर्श । सुदर्शन । दर्शन । ४. क्रम से:- बर्ष । वर्षा । वर्षशत । ५. क्रम से:--- परामर्श । हर्ष । अमर्ष । Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरणे ९५ आयरिसो... .. 'दसणं । षं में ) वरिस... . 'वाससयं। व्यवस्थित विभाषा से क्वचित् ( कुछ शब्दों में ऐसा इकार ) नित्य आता है। उदा.-परा मरिसो... .. अमरिसो । तप्त... ..'वज्जं । लात् ॥ १०६ ॥ संयुक्तस्यान्त्यव्य खनाल्लाद् पूर्व इद् भवति : किलिन्नं । 'किलिठं । सिलिट्ठ । पिलुळं। पिलोसो। सिलिम्हो । सिलेसो । सुक्किलं । सुइलं । सिलोओ। किलेसो । अम्बिलं । गिलाइ । गिलाणं । मिलाइ । मिलाणं । किलम्मइ । किलन्तं । क्वचिन्न भवति । कमो पवो। विप्पवो। सुक्कपक्खो। उत्प्लावयति उप्पावेइ । संयुक्त व्यञ्जन में से अन्त्य ल त्यञ्जन के पूर्व इ आता है। उदा-किलिग्नं ... .."किलन्तं । क्वचित् ऐसा नहीं आता है। उदा.- कमो... .''उप्पावेइ । स्याद्भव्यचैत्यचौर्यसमेषु यात् ॥ १०७॥ स्यादादिषु चौर्यशब्देन समेषु च संयुक्तस्य यात् पूर्व इद् भवति । सिआ । सिआवाओ। भविओ। चेइअं। चौर्यसम। "चोरिअं। थेरिअं। भारिआ। गंभीरिअं। गहीरिअं! आयरिओ। संदरिअं । सोरिअं। वीरिअं । वरिअं। सूरिओ। धीरिअं बम्हचरिअं।। ___स्याद् इत्यादि यानी स्याद्, भव्य और चैत्य शब्दों में में तथा चौर्य शब्द के समान शब्दों में, संयुक्त त्यञ्जन में से ए के पूर्व इ आता है। उदा --सिआ... ... चेइमं । चौर्य सम ( शब्दों में ) :...-चोरिअं... .''बम्हनरिअं। स्वप्ने नात् ॥ १०८ ॥ स्वप्नशब्दे नकारात् पूर्व इद् भवति । सिविणो । स्वप्न शब्द में नकार के पूर्व इ आता है। उदा० --सिविणो । १. कम से :---क्लिन्न । क्लिष्ट । श्लिष्ट । प्लुष्ट । प्लोष । श्लेष्मन् । श्लेष । शुक्ल । श्लोक । क्लेश; अम्ल । ग्लायति । ग्लान । म्लायति । म्लान । क्लाम्यति । क्लान्त । २. क्रम से :-कलम । प्लव । विप्लव । शुक्लपक्ष। ३. क्रम से :-- स्यात् । स्याद् वाद । भव्य । चत्य । ४. क्रम से :-चौर्य । स्थैर्य । भार्या । गाम्भीर्य । आचार्य । सौन्दर्य । शौर्य । वीर्य । वर्य । सूर्य । धयं । ब्रह्मचर्य । Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः पादः स्निग्धे बादितौ ॥ १०९॥ स्निग्धे संयुक्तस्य नात् पूर्वी अदितौ वा भवतः । सणिद्धं सिणिद्धं । पक्षे। निळ्। स्निग्ध शब्द में संयुक्त व्यञ्जन से न के पूर्व अ और इ विकल्प से आते हैं। उदा-सणिद्धं, सिणिद्धं । (विकल्प-) पक्ष में:---निद्धं । कृष्णे वणे वा ॥ ११० ॥ कृष्णे वर्णवाचिनि संयुक्तस्यान्त्यव्यञ्जनात् पूवौं अदितौ वा भवतः । कसणो कसिणो कण्हो । वर्ण इति किम् । विष्णौ कण्हो । वर्ण ( = रंग ) बाचक कृष्ण शब्द में, संयुक्त व्यंजन में से अन्त्य व्यञ्जन के पूर्व म और इ विकल्प से आते हैं। उदा०-..कसणो... . ' 'कण्हो । वर्णवाचक ( कृष्ण शब्द में ) ऐसा क्यों कहा है ? ( कारण कृष्ण शब्द वर्णवाचक न होते ) विष्णु अर्थ हो, तो कण्हो ( ऐसा ही वर्णान्तर होता है )। उच्चाहति ॥ १११॥ अहंत्-शब्दे संयुक्तस्यान्त्यव्यञ्जनात् पूर्वी उत् अदितौ च भवतः । 'अरुहो अरहो अरिहो । अरुहन्तो' अरहन्तो अरिहन्तो । अर्हत् शब्द में संयुक्त व्यञ्जन में से अन्त्य व्यञ्जन के पूर्व उ तथा अ और इ आते हैं । उदा.- अरुहो... .. अरिहन्तो। __पद्मछमूर्खद्वारे वा ॥ ११२ ॥ एषु संयुक्तस्यान्त्यव्यञ्जनात् पूर्व उद् वा भवति । पउमं पोम्म। छउमं छम्मं । मुरुक्खो मुक्खो। दुवार । पक्षे । वारं देरं दारं । पन, छद्म, मूर्ख और द्वार शब्दों में, संयुक्त व्यञ्जन में से अन्त्य व्यञ्जन के पूर्व उ विकल्प से आता है। उदा.-..--प उभं'' ''मुक्खो; दुवारं; ( विकल्प--) पक्ष में:-वारं... .. दारं । तन्वीतुल्येषु ॥ ११३ ॥ उकारान्ता डीप्रत्ययातास्तन्वीतुल्याः । तेषु संयुक्तस्याल्यव्यञ्जनात् पूर्व उकारो भवति । तणुवी । लहुवी। गरुवी । बहुवी । पुहुवी। मउवी। क्वचिदन्यत्रापि । स घ्नम् । सुरुाघ । आर्षे । सूक्ष्मम् । सुहुमं । १. क्रम से :--अहंत् । अर्हन् । २. क्रम मे :- तन्वी । लध्वी । गुर्वी । बही। पृथ्वी । मद्री। Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरणे ( संस्कृत में मूलत: ) उकारान्त होकर जिनको ( स्त्रीलिंगी बनाने का ) ङी प्रत्यय लगा हुआ है, ऐसे शब्द तन्वीतुल्य शब्द होते हैं । उन शब्दों में संयुक्त व्यञ्जन से अन्त्य व्यञ्जन के पूर्व उकार आता है । उदा० तणुबी मउवी । क्वचित् अन्य शब्दों में भी ( संयुक्त व्यञ्जन में से अन्त्य व्यञ्जन के पूर्व उकार आता है । उदा०- २) स्रुघ्नम् सुरुग्धं । आर्ष प्राकृत में : -- सूक्ष्मम् सुहुमं । एकस्वरे श्वः स्वे ॥ ११४ ॥ एकस्वरे पदे यौ श्वस् स्व इत्येतौ तयोरन्त्यव्यञ्जनात् पूर्वं उद् भवति । श्वः कृतम् । सुवे कयं । स्वे जनाः । सुवे जणा । एकस्वर इति किम् । स्वजनः सयणो । एक स्वर होने वाले श्वस् ( = श्व: ) और स्व ये वो शब्द ) हैं, उनमें अन्त्य व्यंजन के पूर्व उ आता है ! उदा० श्वः "जणा। एक स्वर होने वाले ( पद में ) ऐसा क्यों कहा है ? ( कारण यदि पद एक स्वर न हो, तो यहाँ कहा हुआ वर्णान्तर नहीं होता है । उदा०- ) स्वजन: सयणो । ज्यायामीत् ।। ११५ ।। ज्याशब्दे अन्त्यव्यञ्जनात् पूर्वं ईद् भवति । जीमा । ज्या शब्द में अन्त्य व्यंजन के पूर्व ई आता है । उदा० - जीआ । करेणूवाराणस्यी रणोर्व्यत्ययः ॥ ११६ ॥ अनयो रेफणकारयोव्यंत्ययः स्थितिपरिवृत्तिर्भवति । कणेरू । वाणारसी | स्त्रीलिंगनिर्देशात् । पुंसि न भवति । ए सो करेण । करेणू और वाराणसी शब्दों में रेफ और णकार का व्यत्यय यानी स्थितिपरिवृत्ति ( = स्थान में बदल ) होती है । उदा० - कणेरू, वाणारसी । ( सूत्र में करेणू शब्द में ) स्त्रीलिंग को निर्देश होने से, ( करेणु शब्द ) पुंल्लिंग में होने पर ( स्थिति परिवृत्ति ) नहीं होती है । उदा० एसो करेणू | आला ने लनोः ॥ ११७ ॥ आलानशब्दे लनोव्यंत्ययो भवति । आणालो । आणा लक्खम्भो । आलान शब्द में ल और न का व्यत्यय होता है । उदा० - आणालो " क्खंभो । अचलपुरशब्दे १. एषः करेणुः । ७ प्रा० व्या० ९७ अचलपुरे चलोः ॥ ११८ ॥ चकारलकारयोव्यंत्त्ययो भवति । अलचपुरं । २. आलान स्तम्भ | Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितोयः पादः अचलपुर शब्द में चकार और लकार का व्यत्यय होता है । उदा०-- असचपुरं। महाराष्ट्र हरोः ॥ ११९॥ महाराष्ट्रशब्दे हरोव्यत्ययो भवति । मरहट्ठ। महाराष्ट्र शब्द में ह और र का व्यत्यय होता है । उदा०-मरहट्ठ । हृदे हदोः ।। १२० ॥ ह्रदशब्दे हकारदकारयाव्यत्ययो भवति । द्रहो । आर्षे । हरए। महपुण्डरिए। ह्रद शब्द में हकार और दकार का व्यत्यय होता है। उदा०-द्रहो । आष प्रास में ( द्रह शब्द में स्वर भक्ति होती है । उदा०-) हरए महपुण्डरीए । हरिताले रलोन वा ॥ १२१॥ हरितालशल्दे रकारलकारयोव्यत्ययो वा भवति । हलिआरो । हरिआलो। हरिताल शब्द में रकार और लकार का व्यत्यय विकल्प से होता है। उदा. ---- हलिभारो, हरिआलो। __ लघुके लहोः ।। १२२ ॥ लघकशब्दे घस्य हत्वे कृते लहोव्यत्ययो वा भवति। हलुअ लहअं। घस्य व्यत्यये कृते पदादित्वात् हो न प्राप्नोतीति हकरणम् ।। लघुक शब्द में, घ का ह करने पर, ल और ह का व्यत्यय विकल्प से होता है। उदा०—हलुअं, लहुअं। घ का व्यत्यय किए जाने पर, घ पद आदि (स्थान में ) होता है. इसलिए उसका ह नहीं होता है; ( अतः पहले ही घ का ) ह करना है। ललाटे लडोः ॥ ५२३ ॥ ललाटशब्दे लकारडकारयोव्यत्ययो भवति वा । णडाल णलाडं। ललाटे च ( १.२५७ ) इति आदेलंस्य णविधानादिह द्वितीयो ल: स्थानी।। ललाट शब्द में लकार और डकार का व्यत्यय विकल्प से होता है ! उदा.णडालं, णलाई । 'ललाटे च' सूत्रानुसार आदि ल का ण होने के कारण यहाँ द्विीतीय ल स्थानी है ( अतः धितोय ल और ड का व्यत्यय विकल्प से होता है)। १. ह्रदे महापुण्डरीके । Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरण ह्ये ह्योः ॥ १२४ ॥ ह्यशब्दे हकारयकारयोर्व्यत्ययो वा भवति । गुह्यम् गुम्हं गुज्झं। सह्यः सय्हो सज्झो। हय पन में हकार और यकार का व्यत्यय विकल्प से होता है। उदा.गुह, यम् .. . सज्झो । स्तोकस्य थोक्कथोक्थेवाः॥ १२५ ॥ स्तोकशब्दस्य एते त्रय आदेशा भवन्ति वा। थोक्कं थोवं देवं । पक्षे। थो। ____ स्तोक शब्द को थोक्क, पोष, और थेव ये आदेश विकल्प से होते हैं। उदा.पोक्कं .. .. थेवं । ( विकल्प- पक्ष में:-यो । दुहितभगिन्योधूआ बहिण्यौ ॥ १२६ ॥ अनयोरेतावादेशौ वा भवतः । धूआ दुहिआ। बहिणो भइणी। दुहित गौर भगिनी शब्दों को धूआ और ( बहिणी ये आदेथ विकल्प से होते हैं । उदा.-धूआ.. "भइणी । वृक्षक्षिप्तयो रुक्खळूढो ॥ १२७ ।। वृक्षक्षिप्तयोर्यथासंख्यं रुक्ख छुढ इत्यादेशौ वा भवतः । रुक्खो वच्छो । छूढं खित्तं । उच्छूढं 'उक्खित्तं । वृक्ष और क्षिप्त इन शब्दों का अनुक्रम से रुक्ख और छूढ ऐसे ये आदेश विकल्प से होते हैं । उदा-रुक्खो'.. ."उक्खित्तं । वनिताया बिलया ।। १२८ ॥ वनिता शब्दस्य विलया इत्यादेशो वा भवति । विलया वणिआ। विलयेति संस्कृतेपि इति केचित् । ___ वनिता शब्द को विलया ऐसा आदेश विकल्प से होता है। उदा.-विलपा, वणिआ। कुछ के मतानुसार विलया ऐसा शब्द संस्कृत में भी है। . गौणस्येषत कूरः ॥ १२९ ॥ ईषच्छब्दस्य गौणस्य कूर इत्यादेशो वा भवति । चिंच व्व कूरपिक्का। पक्षे। ईसि। १. उत्क्षिप्त । २. चिञ्चा इव ईषत्पक्वा । Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः पादः से होता है । उदा० - चिंच व्व ( समास में ) गौण ( पद ) होने वाले ईषत् शब्द को कूर ऐसा आदेश विकल्प पिक्का ( विकल्प से - ) पक्ष में : - ईसि । स्त्रिया इत्थी || १३० ।। १०० स्त्रीशब्दस्य इत्थी इत्यादेशो वा भवति । इत्थी थी । स्त्री शब्द को इत्थी ऐसा आदेश विकल्प में होता है । उदा० - वृतेर्दिहिः ।। १३१ ।। धृतिशब्दस्य दिहिरित्यादेशो वा भवति । दिही धिई | धृति शब्द को दिहि ऐसा आदेश विकल्प से होता हैं । उदा० - दिही, धिई । भार्जारस्य मञ्जरवञ्जरौ ॥ १३२ ॥ मार्जारशब्दस्य मञ्जर वञ्जर इत्यादेशों वा भवतः । मञ्जरो वजरो । पक्षे । मज्जारो | -इत्थी, थी । मार्जार शब्द को मञ्जर और वञ्जर ऐसे आदेश विकल्प से होते हैं । उदा० - मञ्जरो, बञ्जरो । ( विकल्प ) पक्ष में: - मज्जारो । वैर्यस्य वेरुलिअं ॥ १३३ ॥ वैडूर्यंशब्दस्य वेरुलिअं इत्यादेशो वा भवति । वेरुलिअं वेडुज्जं । वैडूर्य शब्द को वेरुलिअं ऐसा आदेश विकल्प से होता है । वेज्जं । एहि एता इदानीमः ॥ १३४ ॥ अस्य एतावादेशौ वा भवतः । एहि एत्ताहे इआणि । इदानीम् शब्द को एहि और एत्ताहे ये दो आदेश विकल्प से होते हैं । उदा०-एहि इआणि उदा० --- वेरुलिअं पूर्वस्य पुरमः || १३५ ॥ पूर्वस्य स्थाने पुरिम इत्यादेशो वा भवति । पुरिमं पुवं । पूर्व शब्द के स्थान पर पुरिम ऐसा आदेश विकल्प से होता है । उदा०पुरिमं पुव्व । वस्तस्य हित्तठौ ॥ १३६ ॥ त्रस्त शब्दस्य हित्थ तट्ठ इत्यादेशो वा भवतः । हित्थं तट्टं तत्थं । ➖➖ Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरणे १०१ त्रस्त शब्द को हित्य और तट्ठ ऐसे आदेश विकल्प से होते हैं । उदा-हित्थं ... ..'तत्थं । बृहस्पतौ बहो भयः ॥ १३७ ।। बृहस्पतिशब्दे बह इत्यस्यावयवस्य भय इत्यादेशो वा भवति । भयस्सई भयप्फई भयप्पई । पक्षे । बहस्सई बहप्फई बहप्पई । वा बृहस्पती ( १.१३८) इति इकारे उकारे च । विहस्सई बिहप्फई बिहप्पई। बुहस्सई बुहप्फई बुहप्पई। बृहस्पति शब्द में बह इस अवयव को भय ऐसा आदेश विकल्प से होता है। उदा०-भयस्सई... .. 'भयप्पई ( विकल्प-) पक्ष में :--बहस्सई.... ..'बहप्पई । 'वा बृहस्पती' सूत्र के अनुसार ( ऋस्वर के ) इकार और उकार होने परः-बिहस्सई बुहप्पई ( ऐसे वर्णान्तर होंगे )। __ मलिनोमय-शुक्ति-छुप्तारब्ध-पदातेमइलाबह-सिप्पि छिक्काहत्तपाइक्कं ।। १३८ ॥ मलिनादीनां यथासंख्यं मइलादय आदेशा वा भवन्ति । मलिनं । मइलं मलिणं । उभयम् अवहं । उवहमित्यपि 'केचित् । अवहोआसं । उभयबलं । आर्षे । ' उभयोकालं। शुक्ति । सिप्पी सुत्ती। छुप्त। छिक्को छुत्तो। आरब्धं । आढत्तो आरद्धो । पदाति । पाइको पयाई । मलिन इत्यादि यानी मलिन, उभय, शुक्ति, छुप्त, आरब्ध और पदाति इन शब्दों को अनुक्रम से महल इत्यादि यानी मइल, वह, सिप्पि, छिक्क आढत्त, और पाइक्क ऐसे आदेश विकल्प से होते हैं। उदा०-मलिन... ..'अ ; कुछ के मतानुसार, ( उभय को ) उवह ऐसा भी ( आदेश होता है ); अवहोआसं... ''बलं । आर्ष प्राकृत में उभयोकालं { ऐसा दिखाई देता है ); शुक्ति'' ''पयाई । दंष्ट्राया दाढा ।। १३६ ।।। पृथग् योगाद् वेति निवृत्तम् । दंष्ट्राशब्दस्य दाढा इत्यादेशो भवति । दाढा । अयं संस्कृतेपि । . (यह सूत्र ) अलग रूप से कहे जाने के कारण, ( सूत्र २.१२१ मे से अनुवृत्ति से आने वाले ) वा शब्द की निवृत्ति ( इस सूत्र में ) होती है। दंष्ट्रा शब्द को दाढा ऐसा आदेश होता है। उदा-दाढा । यह ( दाढा शब्द ) संस्कृत में भी है। बहिसो बाहिं बाहिरौ ।। १४० ।। बहिःशब्दस्य बाहिं बाहिर इत्यादेशौ भवतः । बाहिं बाहिरं । १. उभयबल । २. उभयकाल । Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः पादः बहिः शब्द को बाहि और बाहिर ऐसे आदेश होते हैं । बाहिरं । १०२ - बाहि अधसो हेट्टं ।। १४१ ॥ अधस् शब्दस्य हेट्ठ इत्ययमादेशो भवति । हेठं । अधस् शब्द को हेट्ठ ऐसा यह आदेश होता है । उदा०-हेट्ठ | मातृषितुः स्वसुः सिआछौ ।। १४२ ।। मातृपितृभ्यां परस्य स्वसृशब्दस्य सिआ छा इत्यादेशौ भवतः । माउसिआ माउच्छा । पिउसिआ पिउच्छा । उदा०--- मातृ और पितृ शब्दों के आगे आने वाले स्वसृ शब्द को सिक्षा और छा ऐसे मावेश होते हैं । उदा० – माउ सिमा पिउच्छा । तिर्यचस्तिरिच्छिः || १४३ ॥ तिर्यंच शब्दस्य तिरिच्छिरित्यादेशो भवति । तिरिच्छि पेच्छइ' । आ तिरिया इत्यादेशोपि । तिरिआ । तिमंच शब्द को तिरिच्छ ऐसा आदेश होता है । उदा० - तिरिच्छि पेच्छइ । भाषं प्राकृत में तिरिआ ऐसा भी आदेश होता है । उदा० - तिरिआ । गृहस्य घरोपतौ ।। १४४ ॥ गृहशब्दस्य घर इत्यादेशो भवति पतिशब्दश्चेत् परो न भवति । घरो । घर - सामी । राय-हरं । अपताविति किम् । गहवई । गृह शब्द को घर ऐसा आदेश होता है । परन्तु ( गृह शब्द के ) आगे पति शब्द यदि हो, तो ( घर ऐसा आदेश ) नहीं होता है । उदा०-- - घरो.. हरं । ( गृह के के आगे ) पति शब्द न हो ऐसा क्यों कहा है ? ( कारण पति शब्द आगे होने पर, गृह शब्द को घर ऐसा आदेश नहीं होता है । उदा०- - ) गहबई । शीलाद्यर्थस्रः || १४५ ।। 1 शीलधर्मसाध्वर्थे विहितस्य प्रत्ययस्य इर इत्यादेशो भवति । हसनशील: इसिरो | "रोविरो । लज्जिरो । जंपिरो । बेविशे भमिरो । ऊससिरो । केचित् तुन एव इरमाहुस्तेषां नमिरगमिरादयो न सिध्यन्ति । तृनोत्र रादिना बाधित - त्वात् । १. २. गृहस्वामी । ५. राजगृह । ४. गृहपति । तिर्यक् प्रेक्षते । ५. क्रम से: - रोदनशील । लज्जावान् । जल्पनशील । वेपनशोल । भ्रमणशील । उच्छ्वसनीक | Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरणे शील, धर्म, और साधु इन अर्थों में कहे हुए प्रत्यय को इर ऐसा आदेश होता है। उदा०-हसनशील: हसिरो। ( इसी प्रकार:-) रोविरो... . ऊससिरो। कुछ लोग कहते हैं कि 'तृन्' इस प्रत्यय को ही इर आदेश होता है; परन्तु उनके मतानुसार नमिर, गमिर इत्यादि शब्द सिद्ध नहीं होते हैं; कारण यहां तृन् ( प्रत्यय ) का र इत्यादि से बाध होता है। क्त्वस्तुमत्तूणतुआणाः ॥१४॥ क्त्वाप्रत्ययस्य तुम् अत् तूण तुआण इत्येते आदेशा भवन्ति । तुस् । 'दळं । मोत्तुं । अत् । भमिअ। रमिअ । तूण । घेत्तण । काऊण । तुआण । भेत्तुआण' । सोउआण । वन्दित्तु इत्यनुस्वारलोपात् । वन्दित्ता इति सिद्धसंस्कृतस्यैव वलोपेन । कटु इति तु आर्षे । क्त्वा को तुम्, अत् तूण और तुआण ऐसे ये आदेश होते हैं। उदा०---तुम् :दटुं, मोत्तुं । अत् :-भमिअ, रमिअ । तूण :-धेत्तूण, काऊण । तुभाण-भेत्तुआण, सोउआण । वंदित्तु यह रूप अनुस्वार का लोप होकर हुआ है । वंदित्ता यह रूप संस्कृत में से ( वन्दित्वा इस ) सिद्ध शब्द में से व का लोप होकर बना है। आर्ष प्राकृत में (कृ धातु का ) कटु ऐसा रूप होता है। इदमर्थस्य केरः ।। १४७ ॥ इदमर्थस्य प्रत्ययस्य केर इत्यादेशो भवति । युष्मदीयः तुम्हकेरो। अस्मदोयः । अम्हकेरो । न च भवति । मईअ- पक्खे पाणिणोआ। ( उसका अथवा अमुकका ) यह : होता है' इस अर्थ में होनेवाले प्रत्ययको केर ऐसा आदेश होता है। उदा०-युष्मदीय' अमृकेरो। ( कभी ऐसा आदेश ) होता भी नहीं है। उदा.-.-मईअपक्खे, पाणिणीआ। परराजभ्यां क्कडिक्कौ च ॥ १४८ ॥ पर राजन् इत्येताभ्यां परस्येदमर्थस्य प्रत्ययस्य यथासंख्यं संयुक्तौ क्को डित् इक्कश्चादेशौ भवतः । चकारात् केरश्च । परकीयं पारक्कं परक्कं पारकेरं । राजकोयम् राइक्कं रायकेरं। पर और राजन् शब्दों के आगे आनेवाले ( उसका किंवा अमुकका ) यह ( है ) १. क्रम से:-/दृश् । V मुथ् । २. क्रम सेः-V भ्रम् । /रम् । ३. क्रम से :-/ग्रह । । ४. क्रम ।-/भिद् । Vश्रु । ५. / वन्द् । ७. क्रमसे :-मदीयपक्षे । पाणिनीयाः । Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ द्वितीयः पादः इस अर्थ में होनेवाले प्रत्ययको अनुक्रम से संयुक्त व्यञ्जनयुक्त ऐसा क्क और डित् इक्क ऐसे आदेश होते हैं । और ( सूत्र में ) चकार प्रयुक्त होने से, (इस इदमर्थी प्रत्यय को) केर ऐसा भी आदेश होता है। उदा०-- परकीयम् 'रायकेरं । युष्मदस्मदोज एच्चयः ॥ १४६ ।। आभ्यां परस्येदमर्थस्यात्र एच्चय इत्यादेशो भवति । युष्माकमिदं यौष्माकम्, तुम्हेच्चयं । एवं अम्हेच्चयं । युष्मद् और अस्मद् के आगे आनेवाले, इदमर्थ में होनेवाले, अञ् प्रत्ययको एच्चय ऐसा आदेश होता है। उदा.-तुम्हारा यह ( युष्माकं इदम् ) इस अर्थ में बने हुए यौष्माकम् के अर्थ में तुम्हेच्चयं ( ऐसा रूप होता है )। इसीतरह अम्हेच्चयं रूप होता है)। वतेवः ॥ १५० ॥ वतेः प्रत्ययस्य द्विरुक्तो वो भवति । महुरव्व' पाडलिउत्ते पासाया । वत् प्रत्ययका द्वित्वयुक्त व ( यानी व्व ) होता है । उदा०--महुरव्य 'पासाया । सर्वाङ्गादीनस्येकः ।। १५१ ।। सर्वाङ्गात् सर्वादेः पथ्यङ्ग (हे० ७.१ ) इत्यादिना विहितस्येनस्य स्थाने इक इत्यादेशो भवति । सर्वाङ्गीणः सव्वंगिओ। 'सर्वाङगात् सेर्वादेः पथ्यङ्ग इत्यादि सूत्र में कहे हुए इन इस प्रत्यय के स्थान पर इक ( इअ ) ऐसा आदेश होता है। उदा०--सर्वाङ्गीण: सव्वं गिओ। पथो णस्येकट् ॥ १५२ ॥ नित्यं णः पन्थश्च ( हे० ६.४ ) इति यः पथो णो विहितस्तस्य इकट भवति । पान्थः पहिओ। 'मित्यं णा: पन्यश्च' सूत्र में पथिन् शब्द के बारे में ण कहा है; उसका इकट् (इ.) होता है । उदा०-पान्थः पहिओ । ईयस्यात्मनो णयः ।। १५३ ।। आत्मनः परस्य ईयस्य णय इत्यादेशो भवति । आत्मीयम् अप्पणयं । आत्मन् शब्द के आगे आनेवाले ईय प्रत्यय को णय ऐसा आदेश होता है । उदा०-आत्मीयम् अप्पणयं । १. मथुरावत् पाटलिपुत्रे प्रासादाः । Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरणे त्वस्य डिमाणौ वा ।। १५४ ।। .२ त्वप्रत्ययस्य डिमा त्तण इत्यादेशौ वा भवतः । पोणिमा' । पुप्फिमा २ । पुप्फत्तं । इम्नः पृथ्वादिषु नियतपीनता इत्यस्य प्राकृते पीणया इति पीणत्तणं पुष्कत्तणं । पक्षे । पणित्तं । त्वात् तदन्यप्रत्ययान्तेषु अस्य विधिः । 1 भवति । पीणदा इति तु भाषान्तरे । तेनेह तलो दा न क्रियते । प्रत्ययको डिमा ( इमा ) और तण ऐसे आदेश विवल्प से होते है । उदा० पौणिमा पुप्फसणं । ( विकल्प - ) पक्ष में- पणत्तं पुष्कत्तं । इमन् प्रत्यय पृथु इत्यादि शब्दों के बारे में नित्य लगता है; इसलिय वह प्रत्यय छोड़कर अन्य प्रत्ययों से अन्त होनेवाले शब्दों के बारे में यह प्रत्यय लगता है ऐसा नियम ( इस सूत्र में कहा है ) । पीनता शब्द का प्राकृत में पीणया ऐसा वर्णान्तर होता है। पीणदा ( यह वर्णान्तर ) मात्र दूसरी ( यानी शौरसेनी ) भाषा में होता है । इसलिए यहाँ तल [ प्रत्यय ) का दा नहीं किया है । अनङ्कोठात् तैलस्य डेल्लः ।। १५५ ।। अकोठवर्जिताच्छब्दात् परस्य तैलप्रत्ययस्य डेल्ल इत्यादेशो भवति । सुरहिजलेण कडुएल्लं । अनङ्कोठादिति किम् | अकोलतेल्लं । अकोठ शब्द छोड़कर अन्य शब्दों के आगे आनेवाले तैल प्रत्यय को डेल्ल (एल्ल) ऐसा आदेश होता है । उदा०- - सुरहि एल्लं । अंकोठ शब्द छोड़कर ऐसा क्यों कहा है । ( कारण अंकोठ शब्द के आगे तैल प्रत्यय को डेल्ल ऐसा आदेश नहीं होता है | उदा० - - अंकोल्लतेल्लं । यत्तदेतदोतोरित्तिअ एतल्लुक् च ।। १५६ ।। एभ्यः परस्य डावादेरतोः परिमाणार्थस्य इत्तिअ इत्यादेशो भवति एतदो लुक् च । यावत् जित्तिअं । तावत् तित्तिअं । एतावत् । इत्तिअं । यद्, तद् और एतद् इनके आगे परिमाण अर्थ में आनेवाले डावादि अतु प्रत्यय को एत्ति ऐसा आदेश होता है और एतद् का लोप होता है । उदा० यावत्" इत्तिमं । १. पीवत्व । ३. सुरभिजलेन कटुतैलम् । १०५ इदंकिमच डेतिअडेत्तिलडेदहाः ॥ १५७ ॥ इदकिभ्यां यत्तदेतद्भ्या परस्यातोडवितोर्वा डित् एत्तिअ एत्तिल एद्दह इत्यादेशा भवन्ति एतल्लुक् च । इयत् एत्तिअं एत्तिलं एद्दहं । कियत् केत्तिअं २. पुष्पत्व । ४. अकोठतैलम् । Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ द्वितीयः पादः केत्तिलं हं । यावत् । जेत्तिअं जेत्तिलं जेद्दहं । तावत् तेत्तिअं तेत्तिलं तेद्दहं । एतावत् एत्तिअं एत्तिलं एदहं । इदम् और किम तथा यद्, तद् और एतद् [ सर्वनामों के आगे आनेवाले अतु किवा डावत् ( इन ) प्रत्ययों को डित् होनेवाले एत्तिअ, एत्तिल और एद्दह ऐसे आदेश होते हैं और एतद् का लोप होता है । उदा० - इयत्एद्दहं । कृत्वसो हुत्तं ॥ १५८ ॥ १ वारे कृत्वस् ( हे० ७२ ) इति यः कृत्वस् विहितस्तस्य हुत्तमित्यादेशो भवति । सयहुतं । सहस्सहुतं । कथं प्रियाभिमुखं पियहुतं । अभिमुखार्थेन हुत्तशब्देन भविष्यति । 'वारे कृत्वस्' सूत्रानुसार जो कृत्वस् प्रत्यय कहा हुआ है उसको हुत्तं ऐसा आदेश होता है । उदा० -- सयहुत्तं सहस्सहुत्तं । ( प्रश्नः - ) प्रियाभिमुखं ( शब्द ) का वर्णान्तर पियहुतं ऐसा कैसे होता है ? ( उत्तर:-- ) अभिमुख ( इस ) अर्थ में होनेवाले हुत्त शब्द के कारण ( वह वर्णान्तर ) होगा । आल्विल्लोल्लालवन्तमन्तेत्तरमणा मतोः ॥ १५६ ॥ आलु इत्यादयो नव आदेशाः मतोः स्थाने यथाप्रयोगं भवन्ति । आलु । नेहालू | दयालू । ईसालू । लज्जालुआ : इल्ल | सोहिल्लो । छाइल्लो । जामइल्लो | उल्ल । विआ - रुल्लो । मंसुल्लो । दप्पुल्लो । आल | सद्दालो । जडालो | फडालो | रसालो । ६ जोव्हालो | वन्त । धणवन्तो । भत्तिवन्तो । मन्त । ' हणुमन्तो । सिरिमन्तो । पुण्णमन्तो । इत्त । कव्व' इत्तो । माणइत्तो । इर । 'गव्विरो । रेहिरो । मण | धणमणो | केचिन्मादेशमपीच्छन्ति । २ हणुमा । मतोरिति किम् । धणी । अत्थिओ | १ आलु इत्यादि यानी आलु, इल्ल, उल्ल, आल, वन्त, मन्त, इत्त, इर और मण ऐसे नौ आदेश मत् प्रत्यय के स्थान पर, साहित्य में जैसा प्रयोग होगा उसी रह होते हैं । उदा - - आलुः - नेहालू लज्जालुआ । इल्ल : --- सोहिल्लो • "जामइल्लो । १. क्रम से - शतकृत्वः । सहस्रकृत्वः | २. क्रम से - स्नेहालु । दयालु । ईर्ष्यालु । लजावती २. क्रमसे - 1 / झोभ | V छाया | Vयाम | ४. क्रमसे - / विकार | विचार | V मांस / दर्प । ५. क्रम से - V शब्द । / जटा | / फटा । / रस | ६. ज्योत्स्ना । ७. क्रमसे - Vधन | / भक्ति । ८. क्रमसे - हनुमत् । श्रीमत् । पुण्यमत् । ९. क्रमसे - काव्य । / मान । १०. क्रमसे -- / गवं : शोभावत् । ११. धन १२. हनुमत् । १३. क्रमसे - धनिन् । अर्थिक । Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरणे उस्ल:--विआरुल्लो 'दप्पुल्लो । आल:-सद्दालो.... 'जोण्हालो । वंतः-धणवतो, भत्तिवंतो । मंतः-हणुमंतो""पुण्णमंतो। इत:- कव्वइत्तो,माणइत्तो। इर--गम्विरो, रेहिरो । मणः-धणमणो । ( मत् प्रत्यय को ) मा ऐसा भी आदेश होता है ऐसा कुछ ( वैयाकरण ) कहते हैं । उदा०-हणमा । मत् ( प्रत्यय ) के ( स्थान पर ये आदेश होते हैं ) ऐसा क्यों कहा है ? ( कारण अन्यमत्वर्थी प्रत्ययों को ऐसे आदेश नहीं होते हैं । उदा०-) धणी, अत्थिओ। तो दो तसो वा ।। १६० ॥ तसः प्रत्ययस्य स्थाने तो दो इत्यादेशौ वा भवतः । सव्वत्तो सव्वदो। एकत्तो एकदो। अन्नत्तो अन्नदो । कत्तो कदो । जत्तो जदो । तत्तो तदो। इत्तो इदो । पक्षे । सव्वओ । इत्यादि । तस् प्रत्यय के स्थान पर तो और दो ऐसे आदेश विकल्प से होते हैं । उदा०सव्वत्तो 'इदो । ( बिकल्प-.) पक्षमें---सव्वमओ. इत्यादि । त्रपो हिहत्थाः ।। १६१ ।। अप प्रत्ययस्य एते भवन्ति । यत्र जहि जह जत्थ । तत्र तहि तह तत्थ । कुत्र कहि कह कत्थ । अन्यत्र अन्नहि अन्नह अन्नत्थ । अप् प्रत्यय को हि, ह और त्य ये मादेश होते हैं । उदा.-यत्र 'अन्नत्य । वैकादः सि सि इआ ॥ १६२ ।। एकशब्दात् परस्य दा-प्रत्ययस्य सि सि इआ इत्यादेशा वा भवन्ति । एकदा एक्कसि एक्कसि एक्कइआ । पक्षे । एगया। एक शब्द के आगे आनेवाले दा प्रत्यय को सि, सिमं और इआ ऐसे आदेश विकल्प से होते हैं । उदा०-एकदा 'एक्कइआ। (विकल्प-) पक्षमें-एगया। डिल्लडल्लो भवे ॥ १६३ ।। भवेर्थे नाम्नः परौ इल्ल उल्ल इत्येतौ डितौ प्रत्ययौ भवतः। 'गामिल्लिआ। पुरिल्लं । हेटिठल्लं । उवरिल्लं । अप्पुल्लं आल्वालावपीच्छन्त्यन्ये ।। ( अमुक स्थान पर ) हुआ (= उत्पन्न) इस अर्थ में. संज्ञा के आगे इल्ल ओर उल्ल ऐसे ये दो डित् प्रत्यय आते हैं। उदा.--गामिल्लिआ अप्पुल्लं। इस 'भव' के अर्थ में, अलु और आल ऐसे प्रत्यय भी आते हैं, ऐसा कुछ वैयाकरणों का मत है। १. क्रमसे-सवंतः । एकतः । भन्यतः । कुतः । यतः । ततः । इतः । २. सर्वतः । ३. एकदा। ४. क्रमसे-/ग्राम । पुरः ( सूत्र २.१६४ देखिए )। /हेटह (सूत्र २.१४१ देखिए) । Vउपरि । मप्प (सूत्र २.५१ देखिए)। Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ द्वितीयः पादः . स्वार्थे कश्च वा ॥ १६४ ॥ स्वार्थे कश्चकारादिल्लोल्लौ डितौ प्रत्ययौ वा भवतः । क। कुंकुम'-पिंजरयं । चंदओ । गयणय म्मि। धरणीहर-पक्खुब्भन्तयं । दुहिअए रामहिअयए। इहयं । आलेठ्ठअं आश्लेष्टुम् इत्यर्थः । द्विरपि भवति । बहुअयं । ककारोच्चारणं पैशाचिक-भाषार्थम् । यथा। वतनके३ वतनकं समप्पेत्तन । इल्ल । निज्जिआसोअ- पल्लविल्लेण । पुरिल्लो पुरो पुरा वा । उल्ल । मह" पिउल्लओ। मूहल्लं । हत्थुल्ला । पक्षे। चन्दो। गयणं । इह । आलेटठं। बहु । बहुअं। मुहं । हत्था। कुत्सादिविशिष्टे तु संस्कृतवदेव कप् सिद्धः । यावादि लक्षणः कः प्रतिनियतविषय एवेति वचनम् । क और (सूत्रमें से) चकार के कारण इल्ल और उल्ल ये दो डित् प्रत्यय विकल्पसे स्वार्थे ( =अपने आप इस अर्थ में ) प्रत्यय होते हैं । उदा०-(स्वार्थे) क (प्रत्यय)कंकुम इहयं । आलेठुमं ( यानी ) आश्लेष्टुम् ऐसा अर्थ है । (यह स्वार्थे क प्रत्यय एकही शब्दको ) दो बार भी लगता है । उदा०--बहुअयं । (सूत्रमें) क का उच्चारण पैशाचिक (= पैशाची) भाषा के लिए है । उदा ----वतनके .....प्पेत्तुन । ( स्वार्थे ) इल्ल ( प्रत्यय )-निज्जिआसोम-पल्लविल्लेण । पुरिल्लो ( यह शब्द ) पुरः अथवा पूरा ( इन शब्दों से बना है )। । स्वार्थे ) उल्ल ( प्रत्यय )-मह ..... हत्थुल्ला। (विकल्प- ) पक्ष में-चंदो... हत्था । परंतु कुत्सा इत्यादि विशिष्ट अर्थ में कहना हो, तो संस्कृत के समान कप् प्रत्यय सिद्ध होता है । यावादि-लक्षण (ऐसा क प्रत्यय) विशिष्ट शब्दों को निश्चित रूप से लगता है ऐसा वचन है ? ल्लो नवैकाद्वा ।। १६५ ।। आभ्यां स्वार्थे संयुक्तो लो वा भवति । नवल्लो। एकल्लो। सेवादित्वात् कस्य द्वित्वे एक्कल्लो पक्षे । नवो। एक्को एओ। नब और एक इन शब्दो के आगे संयुक्त ल ( = ल्ल) ऐसा स्वार्थे प्रत्यय विकल्पसे आता हैं । उदा०----नवल्लो, एकल्लो । (एक शब्द) सेवादि शब्दोंके गण में होने के कारण ( सत्र २.९९ देखिए ), क का द्वित्व होने पर--एक्कलो ( रूप होता है)। विकल्प-पक्षमें-नवो..."एओ। उपरेः संव्याने ॥ १६६ ॥ संव्यानेथे वर्तमानादुपरिशब्दात् स्वार्थे ल्लो भवति । अवरिल्लो । संव्यान इति किम् । अवरि। १. क्रमसे-कं कुम-पिञ्जरकम् । चन्द्रक । /गगन । धरणीधर-पक्ष उद्घान्तकम् । दुःखित के रामहृदयके । Vइह । /आश्लेष्टुम् । २. Vबहुक । ३. वदनके वदनकं समर्प्य । ४. निजित-अशोक-पल्लवकेम । ५. मम पितृकः । ६. क्रमसे-/मुख । हस्त । Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरण संव्यान ( = ढक्कन, वस्त्र ) इस अर्थ में होनेवाले 'उपरि' शब्द के आगे ल्ल प्रत्यय स्वार्थी आता है । उदा० - अवरिल्लो । संव्यान अर्थ में होनेवाले ऐसा क्यों कहा है ? ( कारण वह अर्थ न होने पर; स्वार्थे ल्ल प्रत्यय नहीं लगता है । उदा०-) ० - ) अवरि । वो मया माया || १६७ ॥ शब्दात् स्वार्थे मया डमया इत्येतौ प्रत्ययौ भवतः । भुमया । ममया । भ्रू शब्द के आगे मया और डमया ( = अमया ) ऐसे ये प्रत्यय स्वार्थे आते हैं । उदा - भुमया, भमया । गूढो । १०९ शनैसो डिअं ।। १६८ ।। शनैस् शब्दात् स्वार्थे डिअम् भवति । सणि 'अमवगूढो । शनैः शब्द के आगे डिअं ( इअं ) ऐसा स्वार्थे प्रत्यय आता है । उदा०--सणि." मनाको न या डयं च ।। १६६ ।। मनाक् शब्दात् स्वार्थे डयं डिअं च प्रत्ययो वा भवति । मणयं मणियं । पक्षे । मणा । मनाक् शब्द के आगे अयं ( इयं ) और इअं ( डिअं ) ऐसे स्वार्थे प्रत्यय विकल्पसे आते हैं । उदा० - मणयं, पणियं । (विकल्प) पक्ष में-मणा । मिश्राङडालिअः || १७० ॥ मिश्रशब्दात् स्वार्थे डालि अः प्रत्ययो वा भवति । मोसालिअं । पक्षे । मीसं मिश्र शब्द के आगे डालिअ ( आलिय ) ऐसा स्वार्थे प्रत्यय विकल्प से आता है । मोसालिअं । ( विकल्प - ) पक्ष में-मीसं । रो दीर्घात् ।। १७१ ।। दीर्घशब्दात् परः स्वार्थे रो वा भवति । दोहरं । दीहं । दीर्घ शब्द के आगे र ऐसा स्वार्थे प्रत्यय विकल्प से आता है । उदा०दीहरं, दीहं । त्वादेः सः ।। १७२ ।. भावे त्वतल् ( हे० ७.१ ) इत्यादिना विहितात् त्वादेः परः स्वार्थे स एव त्वादिर्वा भवति । मृदुकत्वेन मउअत्तयाइ । आतिशायिकात् त्वातिशायिकः १. शनैः अवगूढः । Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० द्वितीयः पादः संस्कृतवदेव सिद्धः । जेठ'यरो। कणिठ्यरो। 'भावे त्वतल' इत्यादि सूत्र से कहे हुए त्व इत्यादि ( प्रत्ययों ) के आगे वही त्व इत्यादि प्रत्यय विकल्पसे स्वार्थे प्रत्यय इस स्वरूप में आते हैं। उदा.-मृदुकत्वेन मउअत्तयाइ । आतिशयित्व का आतिशयिकत्व दिखानेवाला प्रत्यय संस्कृत के समान ही सिद्ध होता है । उदा०...जेट्टयरो, कपिट्टयरो। विद्युत्पत्रपीतान्धाल्लः ।। १७३ ॥ एभ्यः स्वार्थे लो वा भवति । विज्जुला । पत्तलं । पोवलं पीअलं अंधलो। पक्षे। विज्जू । पत्तं । पीअं। अंधो। कथं जमलं। यमलमिति संस्कृतशब्दाद् भविष्यति। विद्युत्, पत्र, पीत और अन्ध थब्दों के आगे ल ऐसा स्वार्थे प्रत्यय विकल्प से आता है। उदा०...विज्जुला ... 'अंधलो । ( विकल्प... ) पक्षमें...विज्जू "बंधो । (प्रश्न" } जमल रूप कैसे होता है ? (उत्तर") वह रूप संस्कृत यमल शब्दसे होगा। गोणादयः ॥ १७४ ॥ गोणादयः शब्दाः अनुक्तप्रकृतिप्रत्ययलोपागमवर्णविकारा बहुलं निपात्यन्ते । गौः गोणो गावी । गावः गावीआ । बलोवर्दः बइल्लो। आपः । माऊ । पश्चपश्चाशत् पञ्चावण्णा पणपन्ना। त्रिपञ्चाशत् तेवण्णा। त्रिचत्वारिंशत् ते आलीसा। व्युत्सर्गः बि उसग्गो। व्युत्सर्जनम् वोसिरणं। बहिमैथुनं वा बहिद्धा । कार्यम् णमुक्कसि। क्वभित् कत्थइ । उद्वहति मुव्वहइ। अपस्मारः वम्हलो। उत्पलं कन्दुटे । धिक् धिक् छि छि धिद्धि । धिगस्तु धिरत्यु । प्रतिस्पर्धा पडिसिद्धी पाडिसिद्धी । स्थासकः । चंचिकं । निलयः निहेलणं । मधवान् मघोणो। साक्षो सक्खिणो। जन्म जम्मणं । महान् महन्तो। भवान् भवन्तो। आशी: आसीसा । क्वचित् हस्य हुभौ । बृहत्तरम् वड्डयरं। हिमोरः भिमोरो । ल्कस्य डः । क्षुल्लकः खड्डओ। घोषाणामग्रे तनो गायनः धायणो। वरः वढो। ककुदम् ककूधं । अकाण्डम् अत्थक्कं । लज्जावतो लज्जालुइणी। कुतूहलम् कुडडं। चूतः मायंदो। माकन्द शब्दः संस्कृतेपीत्यन्ये । विष्णुः भट्टिओ। श्मशानम् करसी। असुराः अगया। खेलम् खेडडं। पौष्पं रमः तिगिच्छि। दिनम् अल्लं । समर्थः पक्कलो। पण्डकः णेलच्छो । कासः पलही। बली उज्जल्लो । ताम्बूलम् झसुरं। पंश्चली छिछई। शाखा साहुली । इत्यादि । वाधिकारात् पक्षे यथादर्शनं गउओ इत्याद्यपि भवति । गोला १. क्रमसे । ज्येष्ठतरः । कनिष्ठतरः । For Priv Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतम्पाकरणे १११ गोआवरी इति तु गोदा-गोदावरीभ्यां सिद्धम् । भाषाशब्दाश्च । आहित्य' लल्लक्क विड्डिर पच्चड्डिअ उप्पेहड मडप्फर पड्डिच्छिर अट्टभट्ट विहडफ्फड उज्जल्ल हल्लप्फल्ल इत्यादयो महाराष्ट्रविदर्भादिदेशप्रसिद्धा लोकतोवगन्तव्याः। क्रियाशब्दाश्च । २अवयासइ फुम्फुल्लइ उप्फालेइ इत्यादयः । अतएव च कृष्ट-धष्ट-वाक्य-विद्वस-वाचस्पति-विष्टरश्रवस्-प्रचेतस-प्रोक्तप्रोतादीनां क्विबादिप्रत्ययान्तानां च अग्निचित्-सोमसुत्-सुग्ल-सुम्ले. त्यादीनां पूर्वः कविभिर प्रयुक्तानां प्रतीति वैषम्यपरः प्रयोगो न कर्तव्यः । शब्दान्तरैरेव तु तदर्थोभिधेयः । यथा। कृष्टः, कुशलः । वाचस्पतिः गुरुः । विष्टरश्रवा हरिः । इत्यादि । धष्टशब्दस्य तु सोपसर्गस्य प्रयोग इष्यते एव । मन्दरयडपरिघटळं । तद्दिअसनिहट्ठाणंग । इत्यादि । आर्षे तु तु यथादर्शनं सर्वमविरुद्धम् । यथा। "घट्ठा । मट्ठा । विउसा । सुअलक्खणाणुसारेण । वक्कन्तरेसु अपुणो, इत्यादि । ( अब जिन शब्दों के बारे में ) प्रकृति, प्रत्यय. लोप, आगम ( किंवा अन्य ) वर्णविकार नहीं कहैं हैं, ऐसे गोण इत्यादि शब्द प्रायः निपातके स्वरूप में आते हैं । उदा०--गौः गोणो....''आसीसा । क्वचित् ( मूल संस्कृत शब्द में से ) ह के ड्ड और भ होते हैं । उद। ---बृहत्तरम्..... भिमोरो । ( कभी ) ल्ल का ड्ड होता है। उदा० ---- क्षुल्लक: खुड्डओ। घोषाणामतनो....... मायंदो। माकन्द शब्द संस्कृत में भी हैं ऐसा अन्य लोग कहते हैं। विष्णुः भट्टिओ...."साहुली, इत्यादि । ( इस सूत्र में भी सूत्र २.१६५ में से ) वा ( = विकल्प ) शब्द का अधिकार होने के कारण, विकल्प पक्ष में ( ऊपर दिए हए शब्दों के रूप वाङ्मय में ) जैसा दिखाई देगा वैसा, गउओ इत्यादि भी होते हैं । गोला और गोआवरी ये रूप मात्र गोदा और गोदावरी इन ( संस्कृत ) शब्दों से सिद्ध होते हैं । और उस देश की भाषाओं में से ( विशिष्ट ऐसे ) आहित्य ( आहित्य )....."हल्लफल्ल इत्यादि शब्द महाराष्ट्र, विदर्भ इत्यादि देशों में प्रसिद्ध हैं और वे लोगों से ही जानते हैं : ( इसीतरह ) क्रियावाचक शब्द भी ( = क्रियापद भी ) ( दिखाई देते हैं । उदा० ..... ) अवयासइ"उप्फाले इ, इत्यादि । और इसीलिए ही कृष्ट..... प्रोत, इत्यादि शब्द तथा क्विप् इत्यादि प्रत्ययों से अन्त होनेवाले अग्निचित्... · सुम्ल, इत्यादि शब्दों का जो पूर्व कविओं ने नहीं प्रयुक्त किए हैं, ( उनके बारे में ) अर्थ समझने में प्रत्यवाय हो ऐसा प्रयोग न करे, १. क्रकसे--ऋद्ध । भयंकर । क्षरित । आडम्बरयुक्त । गर्व । सदृश । अशुभ संकल । व्याकुल । बलिष्ठ । त्वरा । २. क्रमसे-श्लिष्यति । (प्र+फुल्ल ) ? : ( उद्+स्फाय ) ?। ३. क्रमसे-मन्दरतटपरिधृष्टम् । तद्दिवनिधृष्टानङ्ग। ४. क्रमसे - धृष्ट । मृष्ट । विद्वस् । श्रुतलक्षणानुसारेण । वाक्यान्तरेषु च पुनः । Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः पादः उनका अर्थ ( उनके ) अन्य समानार्थक शब्दों के द्वारा कहे । उदा०- -कृष्ट (के बदले ) कुशल, वाचस्पति ( के बदले ) गुरु, बिष्टरश्रवाः ( के बदले ) हरि, इत्यादि । तथापि पीछे उपसर्ग होनेवाले धृष्ट शब्द के प्रयोग की अनुज्ञा है । उदा० - मन्दरयड' ठाणंग, इत्यादि । आषं प्राकृत में, ( साहित्य में ) जैसा दिखाई देगा वैसा, सवं ही प्रयोग ठीक ( = अविरुद्ध ) होते हैं । उदा -घट्ठा अपुणो, इत्यादि । ११२ अव्ययम् || १७५ ॥ अधिकारोयम् । इतः परं ये वक्ष्यन्ते आ बाद समाप्तेस्तेऽव्ययसंज्ञा ज्ञातव्याः । ( सूत्र में से अव्यय शब्द का अधिकार है । इस पाद के अन्त तक यहाँ से आगे जो ( शब्द ) कहें जाएंगे, उनको अव्यय संज्ञा है ऐसा जाने । तं वाक्योपन्यासे ॥ १७६ ॥ तमिति वाक्योपन्यासे प्रयोक्तव्यम् । तं ति 'असबंदि मोक्खं । तं ( अव्यय ) वाक्य का प्रारंभ करते समय प्रयुक्त करे । उदा० - तं तिअस" मोक्खं । ---- आम अभ्युपगमे || १७७ ॥ आमेत्यभ्युपगमे प्रयोक्तव्यम् । आम 'बहला वणोली । आम (अव्यय) अभ्युपगम ( स्वीकार, संमति ) करते समय प्रयुक्त करे । उदा० - आम 'वणोली | वि वैपरीत्ये ॥ णवीति वैपरीत्ये प्रयोक्तव्यम् । गवि हा १७८ ॥ वणे । वि ( अव्यय ) वैपरीत्य ( = विपरीतान उलटेपन ) दिखाने के लिए प्रयुक्त करे | उदा० विवणे । पुणरुत्तं कृतकरणे ॥ १७६ ॥ पुणरुत्तमिति कृतकरणे प्रयोक्तव्यम् । अइ सुप्पइ' पंसुलि गोसहेहि अंगेहि पुणरुत्तं । १. त्रिदशवन्दिमोक्ष । ३. हा वने । हा अव्यय ) खेद सूचक है | ) ४. अयि (अति) स्वपिति पांसुला निःसहै: अंग : ( पुणरुत्तं ) । २. बहलावनाली Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरणे ११३ कृतकरण ( = किया हुआ पुनः करना ) अर्थ में पुणरुक्तं ( अम्यय ) प्रयुक्त गरे। उदा:-अइ... पुणरुत्तं ।। हन्दि विषादविकल्पपश्चात्तापनिश्चयसत्ये ॥१८॥ हन्दि इति विषादाविषु प्रयोक्तव्यम् । , हन्दिा चलणे णओ सो ण माणिओ हन्दि हुज्ज एत्ताहे। हन्दि न होही भणिरी सा सिज्जइ हन्दि तुह कज्जे ॥ १ ॥ हन्दि । सत्यमित्यर्थः । विषाद इत्यादि यानी विषाद, विकल्प, पश्चात्ताप, निश्चय और सत्व ये वर्ष दिखाने के लिए हंदि अव्यय प्रयुक्त करे। उदा.-हंदि चलणे.... कज्जे । इन्दि । (यानी) सत्य ऐसा अर्थ है। हन्द च गृहाणार्थे ॥ १८१॥ हन्द हन्दि च गृहाणार्थे प्रयोक्तव्यम् । 'हन्द पलोएसु इमं। इन्दि । गृहाणेत्यर्थः । ___ गहाण ( = ले ) इस अर्थ में हन्द तथा हन्दि ( ये अव्यय ) प्रयुक्त करे । उदा.हन्द .... इमं । हन्दि । यामी गृहाण ( = से.) ऐसा अर्थ है। मिव पित्र विव व्व व विअ इवार्थे वा ॥ १८२ ॥ एते इवार्थे अव्ययसंज्ञकाः प्राकृते वा प्रयुज्यन्ते । कूममं मिव । चन्दणं पिव । हंसो विव। सारो व्व। खीरोमा सेसस्स व निम्मोओ। कमलं विअ । पक्षे। नील'प्पलमाला इव । मिव, पिष, विव, व्व, व, विअ ये अव्यय-संज्ञक शब्द प्राकृत मे इव ( = जैसा, समान ) इस शब्द के अर्थ में विकल्प से प्रयुक्त किए जाते हैं । उदा०-कुमुअंमिष कमलंबिध । ( बिकल्प- ) पक्ष में-नीलु ... इव । जेण तेण लक्षणे ॥ १८३ ॥ . जेण तेण इत्येतौ लक्षणे प्रयोक्तव्यौ । भमररुअं' जेण कमलवणं । भमर१. (हन्दि) चरणे नतः सः न मानिनः ( हन्दि ) भविष्यति इदानीम् । ( हन्दि ) न __ भविष्यति भणनशीला सा स्विद्यति (हन्दि) तव कार्ये । २. प्रलोकयस्व इदम् । ३. क्रमसे-कुमुदं (इव) । चन्दनं (इव)। हंसः (इव) । सागरः (इब)। ४. क्रमसे-धीरोद. शेषस्य इव) निर्मोकः । कमलं (इव) ५. नीलोत्पलमाला इव । ६. क्रमसे-भ्रमररुतं येन कमलवनम् । भ्रमररुतं तेन कमलपनम् । ८ प्राः व्या० Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ रुवं तेण कमलवणं । लक्षण (चिह्न) दिखाने के लिए जेण और तेण ( ये दो ) अव्यय प्रयुक्त करे । उदा० - भमररुअं • बणं । urs चेr चिr च्च अवधारणे ॥ १८४ ॥ एतेवधारणे प्रयोक्तव्याः । गईए' गइ । जं चेअ मउलणं लोअणाणं । अणुबद्धं तं चिr कामिणीणं । सेवादित्वाद् द्वित्वमपि । ते चिअरधन्ना । ते च्वेअ सुपुरिसा । च्च । सच्च य रूवेण । स च्च सीलेण । rs, चेr चिभ, और चच ये शब्द अवधारण दिखाने के लिए प्रयुक्त करे । उदा० गईए • कामिणीणं । (चेअ ओर चिम शब्द) सेवादि-गण में ( सूत्र २.९९ देखिए ) अंतर्भूत होने के कारण, ( उन द्वित्व भी होता है । उदा तेच्चिअ " सुपुरिसा । च्च ( का प्रयोग ) 'सीलेण । शब्दों में ) - सच्च बले निर्धारण निश्चययोः ॥ १८५ ॥ बले इति निर्धारणे निश्चये च प्रयोक्तव्यम् । निर्धारणे । बले 'पुरिसो धणंजओ खत्तिणं । निश्वये । बले सीहो । सिंह एवायम् । द्वितीयः पादः निर्धारण और निश्चय दिखाने के लिए बले ( अव्यय ) प्रयुक्त करे । निर्धारण ( दिखाने के लिए ) - बले' खत्तिआणं । निश्चय ( दिखाने के लिए ) - बले सीहो (यानी ) यह सिंहही है ( ऐसा अर्थ होता है ) । किरेर हिर किलार्थे वा ॥ १८६ ॥ किर दूर हिर इत्येते किलार्थे वा प्रयोक्तव्याः । कल्लं किर" खरहिअओ । तस्स इर । पिअवयंसो हिर। पक्षे । एवं किल तेण सिविणए मणि । किर, इर, और हिर ऐसे ये शब्द किल ( = सचमुच, इत्यादि ) शब्द के अर्थ में प्रयुक्त करे | उदा० -- -कल्लं' "हिर । ( विकल्प - ) पक्ष में एवं भणिआ । १. क्रम से - गत्या (एव) यद् (एव) मुकुलनं लोचनयो: । अनुबद्धं तद् (एव) कामिनीनाम् २. ते (एव) धन्याः । ते (एव) सुषुरुषाः । ३. क्रम से - सः (एव) न रूपेण । सः (एव) शीलेन । - ४. (बले) पुरुष : धनंजयः सत्रियाणाम् । ५. क्रमसे -- कल्यं (फिर) खरहृदयः । तस्य ( इर) प्रियवयस्यः (हिर ) । ६. एवं किल तेन स्वप्न के भणिता । Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरणे णवरं केवले ॥ १८७॥ केवलार्थे णवर इति प्रयोक्तव्यम् । णवर' पिआई चिअ णिव्वडन्ति । 'केवल' इस अर्थ में णवर ( अव्यय ) प्रयुक्त करे। उदा०-णवर" .. णिबडन्ति । मानन्तर्ये णवरि ॥ १८८॥ आनन्तर्ये णवरीति प्रयोक्तव्यम् । णवरि अ से रहु वइणा। केचित्त केवलानन्तर्यार्थयोर्णवरणवरि इत्येकमेव सूत्रं कुर्वते तम्मते उभावप्युभयाथों। __ बानन्तयं ( = अनन्तर, बाद में ) दिखाने के लिए णवरि ( ऐसा अव्यय) प्रयुक्त करे । उदा.--णवरि'.. ..."वइणा। परन्तु कुछ वैयाकरण 'केवलानन्तथियोर्णबरणवरि' ऐसा एक ही सूत्र करते हैं; उनके मतानुसार, ( णवर और णवरि ये ) दोनों भी अव्यय ( केवल और आनन्तयं इन ) दो अर्थों में होते हैं। अलाहि निवारणे ॥ १८९ ॥ अलाहीति निवारणे प्रयोक्तव्यम् । अलाहि किं वाइ एण लेहेण । अलाहि अव्यय निवारण दिखाते समय प्रयुक्त करे। उदा.-.-अलाहि... .... लेहेण । अण णाई नगर्थे ।। १९० ॥ अण णाई इत्येतौ नत्रोर्थे प्रयोक्तव्यौ। अण'चिन्तिअममुणन्ती । गाई करेमि रोसम् । अण और णाई ये दो शब्द नञ् (न, नहीं ) के अर्थ में प्रयुक्त करे। उदा.अचिंतिम... .. रोसं। माई मार्थे ।। १९१॥ माइं इति मार्थे प्रयोक्तव्यम् । माइं काहीअ रोसं । मा कार्षीद् रोषम् । १. ( णवर ) पियाई ( चिअ ) पृथक् । स्पष्टं भवन्ति । (णिव्यड के लिए सूत्र ४.. देखिए)। २. ( णवरि ) च तस्य रघुपतिना। ३. ( अलाहि ) कि वाचितेन लेखेन । ४. क्रम से :-( न ) चिन्तितं अजानती । ( न ) न करोमि रोषम् । For Privat Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीयः पादः ___माई ( अव्यय ) मा ( = मत ) के अर्थ में प्रयुक्त करे । उदा०-माई... ... रोसं ( यानी वह ) रोष न करे ( ऐसा अर्थ है )। हद्धी निर्वेदे ॥ १९२ ।। हद्धी इत्यव्ययमत एव निर्देशात् हा धिक शब्दादेशो वा निर्वेदे प्रयोक्तव्यम् । हद्धी हद्धी । हा धाह धाह । हदी ( यह ) अव्यय अथवा, निर्देश होने के कारण 'हा धिक्' इन शब्दों का ( होने वाला धाह ऐसा ) आदेश (ये ) निर्वेद ( - खेद, शोक, वैराग्य ) दिखाने के लिए प्रयुक्त करे । उदा०-हदी... .''धाह । ___ वेव्वे भयवारणविषादे ॥ १९३ ॥ भयवारणविषादेषु वेव्वे इति प्रयोक्तव्यम् । वेव्वे त्ति । भये वेव्वे त्ति वारणे जूरणे अ वेव्वेत्ति । उल्लाविरीइ वि तृहं वेव्वेत्ति मयच्छि किं णे ॥१॥ किं उल्लावेतीए उअ जूरंतीऍ किं तु भीआए। उव्वाडिरीऍ वेव्वे ति तीऍ णि न विम्हरिभो ॥ २॥ भय, वारण ( = निवारण ) और विषाद ( इन ) अर्थों में वेवे ( अव्यय ) प्रयुक्त करे । उदा-वेव्वे ति... . 'विम्हरिभो ॥ २ ॥ वेव्व च आमन्त्रणे ।। १९४ ॥ वेव्व वेव्वे च आमन्त्रणे प्रयोक्तव्ये ३वेव्व गोले। वेव्वे मुरन्दले वहसि पाणिों। - वेव्व और देव्वे ( ये दो अव्यय ) आमन्त्रण करते समय प्रयुक्त करे। उदा०वेब... ... 'पाणि। मामि हला हले सख्या वा ॥ १९५ ॥ एते सख्या आमन्त्रणे वा प्रयोक्तव्याः । मामि सरिसक्ख राण वि । पणवह माणस्स हला । हले हया सस्स । पक्षे । सहि" एरिसि च्चिअ गई। १. ( वेब्वे ) इति भये ( वेब्वे ) इति वारणे जूरणे च ( वेवे ) इति । उस्तापनशीलायाः अपि तव ( बेव्वे ) इति मृगाक्षि किं ज्ञेयम् ॥ २. कि उल्लापयन्त्या उत जूरन्त्या कि तु भीतया । उद्विग्नया ( वेग्वे ) इति तया भणितं न विस्मराम: ॥ ३. क्रम से :-( वेव्व ) गोले । (वेव्वे ) मुरन्दले वहसि पानीयम् । ४. क्रम से :- मामि ) सादृशाक्षाणां अपि । प्रणमत मानस्य ( हला)। हले हताशस्य । ५. सखि ईदृशो (च्चिअ ) गतिः। Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरणे ११७ दे संमुखीकरणे च ।। १९६ ॥ सम्मुखीकरणे सख्या आमन्त्रणे च दे इति प्रयोक्तव्यम् । दे पसिअ ताव सुंदरि । दे ओ पसिअ निअत्तसु। ( एकाध का ) ध्यान आकृष्ट करने के लिए तथा सखो को बुलाने के लिए दे ( ऐसा अव्यय ) प्रयुक्त करे । उदा०-दे पसिम... ..निअत्तसु । हुं दानपृच्छानिवारणे ।। १९७॥ हु इति दानादिषु प्रयुज्यते । दाने । हु गेह' अप्पणो चित्र । पृच्छायाम् । हु साहसु सब्भावं । निवारणे । हुनिल्लज्ज समोसर । हूँ ( यह अव्यय दान इत्यादि यानो दान, पृच्छा और निवारण करने के प्रसंग में प्रयुक्त किया जाता है। उदा०-दान ( प्रसंग.) में :-हुँ गेह...: च्चिस । पृच्छा करते समय :--हुँ... .."सब्भावं। निवारण करते समय ;-ह ... .. 'समोसर। हु खु निश्चयवितकसंभावनविस्मये ।। १९८ ॥ हु खु इत्येतौ निश्चयादिषु प्रयोक्तव्यौ । निश्चये । तंपि हु 'अच्छिन्नसिरी। तं खु सिरीएँ रहस्सं । वितर्कः ऊहः संशयो वा। ऊहे। न हु णवरं संगहिआ। एअं खु हसइ । संशये। जलहरो खुधूमवडलो खु । सम्भावने । 'तरीउं ण हु णवर इमं । एअंख हसइ । विस्मये। को ख एसो सहस्ससिरो। बहुलाधिकारादनुस्वारात् परो हुर्न प्रयोक्तव्यः । निश्चय इत्यादि यानी मिश्चय, वितर्क, सम्भावन और विस्मय दिखाते समय, ह और खु ये दो (अव्यय) प्रयुक्त करे । उदा.- निश्चय दिखाते समयः-तं पि....... रहस्सं । वितर्क यानी ऊह ( = विचार ) अथवा संशय ( ऐसा अर्थ है )। अह दिखाते समय :--न हु... .."हसइ । संशय दिखाते समय --जलहरो'.. ."खु । १. क्रम से :---( दे ) प्रसीद तावत् सुन्दरि । ( दे ) आ प्रसीद निवर्तस्व । २. (हु ) गृहाण स्वयं । च्चिम)। ३. (हु) कथय सद्भावम् । ४. (हु) निर्लज्ज समपसर । ५. क्रम से:-त्वं अपि ( हु ) अच्छिन्नश्रीः । त्वं । लद् ( खु ) श्रिय: रहस्यम् ! ६. कम से :-न (हुणवरं ) संगृहीता । एतद् ( खु) हसति । ७. जलधरः (खु) धूमपरलः (खु)। ८. क्रम से :-तरीतुं न ( हु णबर ) इदम् । एतद् ( खु) हसति । ९. कः ( ख ) एषः सहस्रशिराः । Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ द्वितीयः पादः सम्भावन दिखाते समय ।-तरी.... .."हसइ । विस्मय दिखाते समय :-को ... ...सिरो । बहुल का अधिकार होने के कारण, अनुस्वार के आगे हु (यह अव्यय) म प्रयुक्त करे। ऊ गर्दाक्षेपविस्मयसूचने ॥ १९९ ।। ऊ इति गर्दादिषु प्रयोक्तव्यम् । गरे । 'ऊ जिल्लज्ज । प्रक्रान्तस्य वाक्यस्य विपर्यासाशंकाया विनिवर्तनलक्षणः आक्षेपः । ऊ कि भएन भणि। विस्मये । ऊ' कह मुणिआ महयं । सूचने । ऊ केण न विण्णायं । ___ गर्दा इत्यादि यानी गर्दा, आक्षेप, विस्मय और सूचन दिखाते समय, ऊ ( यह अव्यय) प्रयुक्त करे । उदा०-गर्दा ( = निदा ) दिखाते समय :- जिल्लज्ज । (बोलने में ) शुरु किए वाक्य का विपर्यास होगा इस आशंका से पूर्व–कषितसे संबंधित ऐसा आक्षेप होता है। ( यह आक्षेप दिखाते समय ) : ... .."भणिमं । विस्मय ( दिखाते समय ) :- कह.. ''अहमं । सूचन करते वक्त :-.": ... पिण्णायं । थू कुत्सायाम् ॥ २० ॥ थू इति कुत्सायां प्रयोक्तव्यम् । थू निल्लज्जो' लोओ। थू ( अव्यय ) कुत्सा दिखाने के लिए प्रयुक्त करे । उदा०-यू... "लोगो । रे अरे संभाषणरतिकलहे ॥ २०१॥ अनयोरर्थयोर्यथासंख्यमेतौ प्रयोक्तव्यौ । रे सम्भाषणे । रे हि अय मडहसरिआ । अरे रतिकलहे । अरे "मए समं मा करेसु उवहासं। सम्माषण और रति कलह इन अर्यों में अनुक्रम से रे और बरे ये अव्यय प्रयुक्त करे। उदा०-सम्भाषण अर्थ में रे :-रे... .."सरिया। रतिकलह अर्थ में :मरे..."उवहासं। ____ हरे क्षेपे च ॥ २०२॥ क्षेपे सम्भाषणरतिकलहयोश्च हरे इति प्रयोक्तव्यम् । क्षेपे । हरे णि'ल्लज्ज । सम्भाषणे । हरे पुरिसा' । रतिकलहे । हरे १ बहुवल्लह । १.( क ) मिर्लज्ज । २. ( 3 ) किं मया भणितम् । ३. (ऊ) कथं ज्ञाता अहम् । ४. ( 3 ) केन न विज्ञातम् । ५. (५) मिज्नः लोकः । ६. रे हृदय अल्पसरित् । ७. मरे मया समं मा कुरु उपहासम् । ८. ( हरे ) निर्लज्ज । ९. (हरे ) पुरुष । १०. (हरे ) बहुवल्लभ । Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरणे ११९ क्षेप तथा सम्भाषण और रतिकलह इन अर्थों में हरे ऐसा अव्यय प्रयुक्त करे । उदा.-क्षेप अर्थ में :-हरे णिल्लब । सम्भाषण में :-हरे पुरिसा। रतिकलह में :--हरे बहुवल्लह । ओ सूचनापश्चात्तापे । २०३ ।। ओ इति सूचनापश्चात्तापयोः प्रयोक्तव्यम् । सूचनायाम् । ओ 'अविणयतत्तिल्ले। पश्चात्तापे। ओ न 'मए छाया इत्तिआए। विकल्पे तु उतादेशेनवौकारेण सिद्धम् । ओ विरए मि नहयले। ____ओ ( यह अव्यय ) सूचना और पश्चाताप दिखाने के लिए प्रयुक्त करे । उदा.-सूचना : ओ.. "तत्तिल्ले । पश्चात्ताप दिखाते समय : ओ न... ... इत्ति आए । विकल्प दिखाते समय मात्र उत ( अव्यय ) का आदेश इस स्वरूप में ओ ( ऐसा अव्यय ) सिद्ध होता है। उदा.-ओ" "यले । अव्वो सूचना-दुःख-संभाषणापराध-विस्मयानन्दादर भय-खेद-विषाद-पश्चात्तापे । २०४॥ अव्वो इति सूचनादिषु प्रयोक्तव्यम् । सूचनायाम् । अव्वो दुक्कर - कारय । दुःखे । अव्वो दलन्ति५ हिययं । सम्भाषणे किमिणं किमिणं । अपराधविस्मययोः। अव्वो हरन्ति हिअयं तह वि न वेसा हवन्ति जुवईण। अव्वो किं पि रहस्सं मुणन्ति धुत्ता जणब्भहिआ ॥ १॥ आनन्दादर-भयेषु। अव्वो 'सुपहाय मिणं अव्वो अज्जम्ह सप्फलं जी। अव्वो अइ अम्मि तुमे नवरं जइ सा न जूरिहिइ ॥२॥ खेदे । अव्वो न जामि छेत्तं । विषादे। १. ( ओ ) अविनयतत्परे । २. ( ओ ) न मया छाया एतावत्याम् । ३. ( भो) विरचयामि नभस्तले । ४. ( अव्वो ) दुष्करकारक । ५. ( अबो) दलन्ति हृदयम् । ६. ( अम्बो ) किमिदं किमिदं । ७. ( अव्वो ) हरन्ति हृदयं तथा अपि न वेष्या भवन्ति युवतीनाम् । ( अम्मो ) कि अपि रहस्यं जानन्ति धूर्ता जनाभ्यधिकाः ॥ ८. ( अन्धो ) सुप्रभातमिदं ( अब्बो ) अद्यास्माकं ( अब मम ) सफलं जीवितम् । ( अव्बो ) अतीते त्वयि ( नवरं ) यदि सा न खेत्स्यति । ९. ( अव्यो ) न या मि क्षेत्रम् । Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय : पादः अव्वो नासेन्ति' दिहिं पुलयं वड्ढेन्ति देन्ति रणरणयं । एम्हि तस्सेअ गुणा ते च्चिअ अव्वो कह णु ए अं ॥ ३ ॥ पश्चात्तापे। अव्वो तह तेण कया अहयं जह कस्स साहेमि ॥ ४॥ अम्बो (ऐसा यह अव्यय) सूचना इत्यादि यानी सूचना, दुःख, संभाषण, अपराध, विस्मय, आनन्द, आदर, भय, खेद, विषाद और पश्चात्ताप दिखाने के लिए प्रयुक्त करे । उदा०- सूचना दिखाने के लिए:-~-अव्वो दुक्करकारय । दुःख के बारे में:अध्यो...."हिययं । संभाषण में:--अव्यो..... किमिणं । अपराध और विस्मय दिखाते वक्तः-अन्धो हरन्ति'....'भहिया ॥ १ ॥ आनंद, आदर और भय इनके बारे में:-अब्बो सुपहाय....."जूरि हिइ ॥ २ ॥ खेद दिखाते समयः-अव्वो ..... छेत्तं । विपाद दिखाते समय:-अव्यो नासेन्ति..... एकं ॥ ३ ॥ पश्चात्ताप में:अव्यो सह... साहेमि ॥ ४ ॥ अइ संभावने ॥ २०५ ॥ संभावने अइ इति प्रयोक्तव्यम् । अइ दिअर किं न पेच्छसि । संभावन दिखाने के लिए अइ ऐसा अव्यय प्रयुक्त करे । उदा०-अइ"'पेच्छसि । वणे निश्चयविकल्पानुकम्प्ये च ।। २०६ ॥ वणे इति निश्चयादौ सम्भावने च प्रयोक्तव्यम् । वणे देमि। निश्चयं ददामि । विकल्पे । होइ बणे न होइ । भवति वा न भवति । मनुकम्प्ये । दासो वणे न मुच्चइ । दासो न त्यज्यते । सम्भावने । नत्थि 'वणे नं न देइ विहिपरिणामो । सम्भाव्यते एतदित्यर्थः । निश्चय इत्यादि यानी निश्चय, विकल्प और अनुकम्प्य ये अपं दिखाने के लिए तपा संभावन अर्थ में, वणे ( ऐसा अव्यय ) प्रयुक्त करे। उदा०-वणे देमि यानी मैं निश्चित रूप से देता हूँ। विकल्प दिखाते समयः-होर..."होइ यानी होता है अथवा नहीं होता है। अनुकम्प्य अर्थ में:-दासो.. ..'मुच्चइ यानी अनुकंपनीय ऐसे दास का त्याग नहीं किया जाता है। संभावन अर्थ में:--मत्थि...... परिणामो यानी यह संभवनीय है, ऐसा अर्थ है। १. (अव्वो नाशयन्ति धुति पुलकं वर्धयन्ति दहति रणरणकम् । इदानीं तस्यैव गुणा: ते ( च्चिअ अन्वो ) कथं नु एतत् ।। २. (भव्यो) तथा तेन कृता अहं यथा कस्य कथयामि । ३. (भइ) देवर कि न प्रेक्षसे । ४. नास्ति (वणे) यद् न ददाति विधिपरिणामः । Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतण्याकरणे १२१ मणे विमर्श ॥ २०७॥ मणे इति विमर्शे प्रयोक्तव्यम् । मणे सूरो। कि स्वित् सूर्यः । अन्ये मन्ये इत्यर्थमपिच्छन्ति । मणे ऐसा अव्यय विमर्श अर्थ में प्रयुक्त करे । उदा०--मणे सूरो ( यानी ) क्या यह सूर्य है ? ( मणे अव्यय का ) मन्ये (= मैं मानता हूँ) ऐसा भी भर्थ है, ऐसा भन्य (याकरण) मानते हैं। अम्मो आश्चयें ॥ २०८ ।। अम्मो इत्याश्चर्ये प्रयोक्तव्यम् । अम्मो कह पारिज्जइ । अम्मो (अव्यय) आश्चर्य दिखाने के लिए प्रयुक्त करे । उदा०-सम्मो पारिष्मा। स्वयमोर्थे अष्पणो न वा ॥ २०९॥ स्वयमित्यस्यार्थे अप्पणो वा प्रयोक्तव्यम् । विसयं 'विअसन्ति अप्पणो कमलसरा । पक्षे । सयं चेअ मुणसि करणिज्जं । स्वयं (शब्द के अर्थ में अपणो (शब्द) विकल्प से प्रयुक्त करे । उदा०-विजयं... सरा । (विकल्प-) पक्ष में:-सयं..... 'करणिज्ज । प्रत्येकमः पाडिक्कं पाडिएक्कं ॥ २१० ॥ प्रत्येकमित्यस्यार्थे पाडिक्कं पाडिएक्कं इति च प्रयोक्तव्यं वा । पाडिक पाडिएक्कं । पक्षे। पत्ते। प्रत्येकम् (शब्द) के अर्थ में पाडिक्कं और पाडिएक्कं ये शब्द) विकल्प से प्रयुक्त करे । उदा०-पाडिक्कं, पाडिएककं । (विकल्प-) पक्ष में:-पत्ते । उअ पश्य ॥ २११ ॥ उअ इति पश्येत्यस्यार्थे प्रयोक्तव्यं वा। उअ निच्चल निष्फंदा भिसिणी पत्तंमि रेहइ बलाआ। निम्मल भरगय मायण परिट्ठिआ संखसुत्ति व्व ॥१॥ पक्षे पुलआदयः। १. (अम्मो) कथं शक्यते । २. विशदं विकसन्ति स्वयं (अप्पणो) कमल सरांसि । ३. स्वयं (चेअ) जानासि करणीयम् । ४. पश्य निश्चल निष्पंदाबिसिनीपत्रे राजते बलाका । निर्मल-मरकत-भाजन-परिस्थिता शंखशुक्तिः इव ॥ Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ द्वितीयः पादः पश्य ( = देखो ) इस ( शब्द ) के अर्थ में उ अ ऐसा ( अव्यय) विकल्प से प्रयुक्त करे। उदा०-उम.."सुत्तित्व । ( विकल्प---) पक्ष में:-पुलअ इत्यादि ( शब्द प्रयुक्त करे )। इहरा इतरथा ।। २१२ ॥ ..... इहरा इति इतरथार्थे प्रयोक्तव्यं वा। इहरा' नी सामन्नेहिं । पक्षे । इअरहा। इतरथा ( = नहीं तो ) अर्थ में इहरा ऐसा शब्द विकल्प से प्रयुक्त करे । उदा०इहरा नौसामन्नेहिं । ( विकल्प- ) पक्ष में:-इअरहा। एक्कसरिअं झगिति संप्रति ।। २१३ ।। एक्कसरि झगित्यर्थे सम्प्रत्यर्थे च प्रयोक्तव्यम् । एक्कसरिअं। झगिति सांप्रतं वा। झगिति (= एकदम, सहसा) अर्थ में तथा संप्रति (= अब) अर्थ में एषकसरि (अव्यय) प्रयुक्त करे । उदा०-एक्कसरि ( यानी ) अचानक-सहसा अथवा सांप्रत ऐसा अर्थ है। मोरउल्ला मुधा ॥ २१४ ।। मोरउल्ला इति मुधार्थे प्रयोक्तव्यम् । मोरउल्ला । मुधेत्यर्थः। मोरउल्ला ( अव्यय) सुधा ( शब्द ) के अर्थ में प्रयुक्त करे । उदा०-मोरउल्ला (पानी) सुधा ऐसा अर्थ है। दरार्धारपे॥ २१५ ॥ दर इत्यव्ययमर्धार्थे ईषदर्थे च प्रयोक्तव्यम् । दर-विअसिअं । अर्धेनेषद् वा विकसितमित्यर्थः। दर ऐसा अव्यय अर्ध (= आधा) अर्थ जौर ईषद् (= अल्प, थोड़ा) इन पर्यों में प्रयुक्त करे । उदा.-दर-विअसिसं (यानो) आधा अथवा अल्प विकसित हुमा, ऐसा अर्थ है। किणो प्रश्ने । २१६॥ किणो इति प्रश्ने प्रयोक्तव्यम् । किणो धुवसि । प्रश्न पूछते समय किणो (अव्यय) प्रयुक्त करे । बाल-किणो धुवसि । १. इतरषा निःसामान्यः । २. (किणो) धुनोषि। Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरणे १२३ इजेराः पादपुरणे ।। २१७॥ इ जे र इत्येते पादपूरणे प्रयोक्तव्याः । न उणा' इ अच्छीइं। अणुकलं वोत्तुं जे । गेण्हइ' र कलमगोवी। अहो। हहो । हेहो। हा। नाम । अहह । ही सि । अयि अहाह । अरि रिहो इत्यादयस्तु संस्कृतसमत्वेन सिद्धाः । ____, जे भोर र ऐसे ( अव्यय पद्य में ) पाद पूरण के लिए प्रयुक्त करे। उदा०न उणा....."गोषी । अहो, हंहो, हेहो, हा, नाम, अहह, ही सि, अयि, अहाह, अरि, रि, हो इत्यादि (अव्यय) संस्कृत-समान स्वरूप में ही सिद्ध होते हैं। प्यादयः ॥ २१८ ॥ प्यादयो नियतार्थवृत्तयः प्राकृते प्रयोक्तव्याः । पि वि अध्यर्थे । (अपने अपने नियत अर्थों में होने वाले पि इत्यादि (अव्यय) प्राकृत में (उस उस अर्थ में ) प्रयुक्त करे। उदा०-पि, वि ( ये अव्यय ) अपि (अव्यय ) के गर्ष में (प्रयुक्त करें)। इत्याचार्यश्रीहेमचन्द्रसूरिविरचितायां सिखहेमचन्द्राभिधानस्वोपज्ञशब्दानुशासनवृत्तौ अष्टमस्याध्यायस्य द्वितीयः पादः ॥ ( आठवें अध्याय का दूसरा पाद समाप्त हुआ। ) 400A १. न पुनः (इ) मक्षिणी । २. अनुकूलं वक्त (जे)। ३. गृह्णाति (र) कलमगोपी । Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयः पादः वीप्स्यात् स्यादेर्वीप्स्ये स्वरे मो वा ॥१॥ वीप्सार्थात् पदात् परस्य स्यादेः स्थाने स्वरादौ वीप्सार्थे पदे परे मो वा भवति । एकैकम् एक्कमेक्कं एक्कमेक्केण । अंगे अंगे अंगम्मि । पक्षे । एक्केक्कमित्यादि। स्वर से प्रारम्भ होनेवाले वीप्सार्थी पद आगे होने पर, पिछले वीप्सार्थी पद के भागे होनेवाले विभक्ति प्रत्यय के स्थान पर विकल्प से म् आता है। उदा.-- एककम्...."मंगंमि । (विकल्प--) पक्ष में:--एक्केक्कं; इत्यादि । अतः सेडोंः ॥२॥ आकारान्तानाम्नः परस्य स्यादेः सेः स्थाने डो भवति। वच्छो' । अकारान्त संज्ञा के आगे विभक्त प्रत्ययों में से सि (प्रत्यय) के स्थान पर डित् ओ (डो) भाता है । उदा०-वच्छो। वैतत्तदः ॥ ३ ॥ एतत्सदोकारात् परस्य स्यादेः से? वा भवति । एसो 'एस। सो णरो स णरो। एतद् और तद् इन ( सर्वनामों ) के अकार के आगे विभक्ति प्रत्ययों में से सि (प्रत्यय) का हो विकल्प से होता है। उदा.-एसो....."णरो । जसशसोलुक्॥ ४ ॥ अकारान्तानाम्नः परयोः स्यादिसम्बन्धिनोर्जस्शसोलुंग भवति । वच्छा एए। वच्छे पेच्छ। अकारान्त संज्ञा के आगे, विभक्ति प्रत्ययों से संबंधित रहनेवाले जस् और शस् इन प्रत्ययों का लोप होता है । उदा० -वच्छा....."पेच्छ । १. वृक्ष । २. क्रमसेः-एषः एषः । सः नरः स नरः । ३. क्रमसे:--वृक्षाः एते । वृक्षान् प्रेक्षस्व । Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरणे अमोस्य ॥ ५॥ अतः परस्यामोकारस्य लुग् भवति । वच्छं पेच्छ । (शब्दों के अन्त्य) अकार के अगले अम् (प्रत्यय) में से अकार का लोप होता है। उदा.- वच्छं पेच्छ । टा-आमोणः ॥६॥ • अतः परस्य टा इत्येतस्य षष्ठी बहुवचनस्य च आमो णो भवति । वच्छेण । वच्छाण । (शब्द के अन्त्य) अकार के अगले टा ( प्रत्यय ) का तथा षष्ठी बहुववन के भाम् (प्रत्यय) का ण होता है । उदा०-वच्छेण । वच्छाण । भिसो हि हिँ हिं ॥७॥ अतः परस्य भिसः स्थाने केवल: सानुनासिकः सानुस्वारश्च हिर्भवति । बच्छेहि वच्छेहिं । 'वच्छेहि कया छाही । (शब्द के अन्त्य अकार के अगले भिस् (प्रत्यय) के स्थान पर केवल, सानुनासिक और अनुस्वारयुक्त 'हि' आता है । उदा.-बच्छेहि...'छाही । ङसेस् तो दो-दु-हि-हिन्तो-लुकः ॥ ८ ॥ अतः परस्य ङसेः त्तो दो दु हि हिन्तो लुक इत्येते षडादेशा भवन्ति । वच्छत्तो । वच्छांभो। वच्छाउ । वच्छाहि । वच्छाहिंतो । वच्छा। दकारकरणं भाषान्तरार्थम् । . (शब्द के अन्त्य) अकार के अगले सि (प्रत्यय) को तो, दो, दु, हि, हिन्तो और लोप ऐसे ये छः आदेश होते हैं। उदा०-वच्छत्तो . 'वच्छा । (सूत्र के दो और दु में से) दकार का प्रयोग अन्य (यानी शौरसेनी) भाषा के लिए है। भ्यसस् तो दो दु हि हिन्तो सुन्तो ।। ९ ॥ । अतः परस्य भ्यसः स्थाने तो दो दहि हिन्तो सुन्तो इत्यादेशा भवन्ति । वृक्षेभ्यः वच्छत्तो वच्छाओ वच्छाउ वच्छाहि वच्छेहि वच्छाहिन्तो वच्छेहिन्तो वच्छासुन्तो वच्छेसुन्तो । (शब्द के अन्त्य) अकार के अगले भ्यस् ( प्रत्यय ) के स्थान पर तो, दो, दु, हि, हितो और संतो ऐसे आदेश होते हैं। उदा.---वृक्षेभ्यः वच्छत्तो 'वच्छे संतो। १. वृक्षः कृता छाया। Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयः पाद: उसः स्सः ॥१०॥ अतः परस्य डसः संयुक्तः सो भवति । पियस्स' । पेम्मस्स। उपकुम्भं शैत्यम् उवकुम्भस्स सीअलत्तणं । (शब्द के अन्त्य) अकार के अगले ङस् (प्रत्यय) का संयुक्त स ( =स्स ) होता है । उदा.-पियस्स...... 'सीअलत्तणं। डे म्मि ॥ ११ ॥ अतः परस्य अॅडित् एकारः संयुक्तो मिश्च भवति । वच्छे वच्छम्मि । देवं देवम्मि । तं तम्मि। अत्र द्वितीयातृतीययोः सप्तमी (३.१३५) इत्यमो ङिः। (शब्द के अन्त्य) अकार के अगले डि ( प्रत्यय ) को डित् एकार और संयुक्त मि यानी मि (ऐसे आदेश ) होते हैं। उदा.--बच्छे....."तम्मि । ( देवं और सं इन उदाहरणों में) 'द्वितीयातृतीययोः सप्तमी' सूत्रानुसार अम् (प्रत्यय) का हि है। जसशस्ङसित्तोदोद्वामि दीर्घः ॥ १२ ॥ एषु अतो दी| भवति । जसि शसि च । वच्छा। ङसि । वच्छाओ वच्छाउ वच्छाहि वच्छाहितो वच्छा। त्तोदोदुषु । वृक्षेभ्यः । वच्छत्तो । ह्रस्वः संयोगे। (१.८४ ) इति ह्रस्वः । वच्छाओ। वच्छाउ। आमि । वच्छाण । ङसिनैव सिद्धे त्तोदोदुग्रहणं भ्यसि एत्वबाधनार्थम् । ___जस्, बस, सि, सो, दो, दु और आम् ( ये प्रत्यय आगे) होने पर, ( उनके पीछले) प्रकार का दोघं ( स्वर यानी आकार ) होता है। उदा०-जम और शस् ( आगे होने पर ):-बच्ला । ङसि ( आगे बोने पर ) :-इच्छाओ... ..'बधा। त्तो, दो और दु (आगे होने पर ):- वृक्षेभ्यः बच्छतो, ( इस बच्छत्तो रूप में यद्यपि पिछला अ दीर्घ होता है यानी छ का च्छा होता है, तथापि ) ह्रस्वः संयोगे' सूत्रानुसार ( बह दीर्घ आ) ह्रस्व हुआ है, वच्छाओ, बच्छाउ । माम् ( मागे होने पर ):--वच्छाण । ( सच कहे तो असि प्रत्यय के निर्देश से (त्तो; दो और दु प्रत्ययों का ग्रह्य होकर, सूत्र में उनकी ) सिद्धि होने पर भी, तो, दो और दु ऐसा ( स्वतंत्र ) निर्देश ( सूत्र में ) किया है, कारण ( ३.१५ सूत्र के अनुसार ) भ्यस् प्रत्यय आगे होने वक्त होने वाले ए का बाध यहाँ हो, इसलिए । भ्यसि वा ॥ १३ ॥ भ्यसादेशे परे अतो दीर्घा वा भवति । वच्छाहिन्तो वच्छेहिन्तो। वच्छासुन्तो वच्छे सुन्तो । वच्छाहि वच्छेहि । १. क्रमसे:-- /प्रिय । / प्रेमन् । Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरणे १२७ भ्यस् ( प्रत्यय ) के आदेश आगे होने पर, (उनके पिछले) अकार का दीर्घ ( स्वर यानी आ) विकल्प से होता है । उदा०-वच्छाहितो....'वच्छेहि । टाणशस्येत् ॥ १४ ॥ टादेशे णे शसि च परे अस्य एकारो भवति । टा ण। वच्छेण । णेति किम् । अप्पणा' अप्पणिआ अप्पणइआ। शस् । बच्छे पेच्छ। टा ( प्रत्यय ) का आदेश ण, मोर शस् ( प्रत्यय ) आगे होने पर (उनके पिछले) अकार का एकार होता है। उदा०-टा का आदेश ण ( आगे होने पर ):-बच्छेण । (टा का आदेश ) ण ( आगे होने पर ) ऐसा क्यों कहा है ? (कारण टा को ण आदेश न हुआ हो, तो पिछले अ का ए नही होता है। उदा०-- ) अप्पणा अप्पण इमा। शस् ( प्रत्यय आगे होने पर ):- बच्छे पेच्छ । भिसभ्यससुपि ॥१५॥ एषु अत एर्भवति । भिस् । वच्छेहि वच्छेहि वच्छेहिं । भ्यस्। वच्छेहि वच्छेहितो वच्छेसुंतो। सुप् । वच्छेसु।। भिस, भ्यस् और सुप ये प्रत्यय आगे होने पर, ( उनके पिछले ) अकार का ए होता है। उदा०---भिस् ( आगे होने पर ):-वच्छेहि... .. वच्छेहिं । भ्यस् ( आगे होने पर ) : -वच्छेहि... 'वच्छेसंतो । सुप् ( आगे होने पर ) :--वच्छेसु । इबुतो दीर्घः ॥ १६॥ इकारस्य उकारस्य च भिस् भ्यस् सुप्सु परेषु दी? भवति । भिस् । गिरीहिं बुद्धीहि । दहीहिं। तरूहि । धेणहिं । महहिं 'कयं । भ्यस । गिरीओ' । बुद्धीओ। दहीओ। तरूओ। घेणओ। महूओ' आगओ । एवम् । गिरीहिंतो गिरी संतो आगओ इत्याद्यपि । सुप् । गिरीसु। बुद्धीसु । दहीसु । तख्सु । घेणूसु । महूसु 'ठिअं। क्वचिन्न भवति । दि 'अभूमिसु दाणजलोल्लिआई। इदुत इति किम् । वच्छेहिं । वच्छेसुन्तो वच्छेसु । भिस् भ्यस सुपीत्येव । गिरिं तरु पेच्छ। भिस्, म्पस और सुप् ये प्रत्यय आगे होने पर, ( उनके पिछले ) इकार और उकार इनका दीर्घ ( स्वर यानी ईकार और ऊकार ) होता है । उदा०--भिस् ( मागे १. / आत्मन् । इन रूपों के लिए सूत्र ३५६-५७ देखिए । २, वृक्षान् प्रेक्षस्व । ३. क्रमसे:-/गिरि । Vबुद्धि । / दधि । Vतरु । धेनु ।। मधु । ४. Vत : ५. आगत । ६. /स्थित । ७. द्विजभूमिषु दान-जल-आदि तानि । Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ तृतीयः पादः होने पर ) :-गिरीहिं...'कयं । भ्यस् ( आगे होने पर ):--गिरीओ''आगो, इसी प्रकार :-गिरीहितो''आगबो, इत्यादि भी होता है। सुप् (आगे होने पर):गिरीसु....."ठि। क्वचित् ( इन प्रत्ययों के पिछले इ और उ इनका दीर्घ स्वर ) नहीं होता है। उदा.-दिम...."ल्लिआई। इकार और उकार ( इनका दीर्घ स्वर होता है ) ऐसा क्यों कहा है ? कारण पीछे इ का उ न हो, तो ऐसा दीर्घ स्वर नहीं होता है। उदा०-) वच्छेहि.... 'बच्छेसु । भिस्, म्यस् और सुप ये प्रत्यय आगे होने पर ही ( पिछले इ और उ दीर्घ होते हैं, अन्य प्रत्यय आगे होने पर, वे दीर्घ नहीं होते हैं । उदा०- गिरि..... पेच्छ । चतुरो वा ॥ १७॥ चतुर उदन्तस्य भिसभ्यसयुप्सु परेषु दो? वा भवति। चऊहि चउहि । चऊओ चउओ। चऊसु चउसु । उकारान्त वतुर ( यानी चउ ) शब्द के आगे भिस, म्यस और सुप ये प्रत्यय होने पर ( पिछला उकार ) विकल्प से दीघं ( यानी ऊ ) होता है। उदा०चऊहि...' उसु । लुप्ते शसि ॥ १८ ॥ इदुतोः शसि लुप्ते दी| भवति । गिरी। बुद्धी। तरू । धेणू पेच्छ। लुप्त इति किम् । गिरिणो। तरुणो पेच्छ। इदुत इत्येव । वच्छे पेच्छ। जसशस् ( ३.१२ ) इत्यादिना शसि दोघंस्य लक्ष्यानुरोधार्थो योगः । लुप्त इति तु णवि प्रतिप्रसवार्थशंकानिवृत्त्यर्थम् । ( आगे आने वाले ) शस् । प्रत्यय ) का लोप होने पर ( उसके पिछले ) इ और उ इनका दोघं ( यानी ई और ऊ ) होता है। उदा ---गिरी... . 'पेच्छ । ( शस् प्रत्यय का) लोप होने पर ऐसा क्यों कहा है ? ( कारण शस् प्रत्यय का लोप न होते यदि शस् प्रत्यय का आदेश आगे हो,तो पिछले इ और उ दीर्घ नही होते हैं । उदा०गिरिणो'... "पेच्छ । ( शस् प्रत्यय का लोप होने पर, पिछले ) इ और उ इनका ही दोघं होता है ( अन्य स्वरों का नहीं । उदा०-)वच्छे पेच्छ । 'जस्शस्' इत्यादि सूत्रानुसार, शस् प्रत्यय ( आगे ) होने पर, उदाहरणों के अनुसार ( दोष हो ) यह बताने के लिए दोध होता है, ऐसा ( प्रस्तुत ) नियम है। ( शस् प्रत्यय का ) लोप होने पर ऐसा कहने का कारण तो यह है कि ‘णो' प्रत्यय के ( सूत्र ३.२२ देखिए ) बारे में प्रतिप्रसव है क्या, ऐसो शंका न हो, इसलिए । Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरणे अक्लीवे सौ ॥ १६॥ इदुतो क्लीबे नपुंसकादन्यत्र सौ दी| भवति । गिरी। बुद्धी। तरू। घेणू। अक्लोब इति किम् । दहिं महु। साविति किम् । निरि बुद्धि । तर घेणुं। केचित्तु दीर्घत्वं विकल्प्य तदभावपक्षे सेर्मादेशमपीच्छन्ति । अग्गि। निहिं । वाउं । विहु। नपुंसकलिंग न होने पर ( यानी ) नपुंसकलिंग छोड़कर, अन्यत्र ( यानी पुलिाग और स्त्रीलिंग होने पर, शब्द के अन्त्य ) इ और उ इनके आगे सि ( प्रत्यय ) होने पर. ( उसके पिछले इ और उ इनका ) दीर्घ ( यानो ई और क ) होता है । सदा.गिरी..." घेण । नपुंसकलिंग न होने पर ऐसा क्यों कहा है ? ( कारण इकारान्त और उकारान्त शब्द नपुंसकलिंग में हो, तो इ और उ इनका दीर्घ नहीं होता है। उदा.-) दहि, महु । सि ( प्रत्यय ) आगे होने पर ऐसा क्यों कहा है ? ( कारण वैसा न होने पर, इ और उ इनका दीर्घ नहीं होता है। उदा०-- ) गिरि 'घेणुं । परन्तु कुछ वैयाकरण मानते हैं कि (इ और उ इनका) दीर्घ होना वैकल्पिक है; और ( ऐसे दीर्घत्व के ) अभाव-पक्ष में, सि ( प्रत्यय ) को म् ऐसा आदेश होता है। उदा०–अरिंग.... विहुँ। पुंसि जसो डउ डओ वा ॥ २० ॥ इदुत इतीह पञ्चम्यन्तं सम्बध्यते। इदुतः परस्य नसः पुंसि अउ अओ इत्यादेशौ हितौ वा भवतः। अग्गउ अग्गओ। घायउ वायओ चिटठन्ति। पक्षे। अग्गिणो। वाउणो। शेषे अदन्तवद्भावाद् अग्गी । वाऊ। पुंसीति किम् । बुद्धीओ। घेणूओ। दहीइं। महूई। जस इति किम् । अग्गी अग्गिणो वाऊ वाउणो 'पेच्छइ । इदुत इत्येव । वज्छा। 'इदुतः' यह शब्द यहाँ पञ्चमी-विभक्ति प्रत्ययान्त लेकर ( इस सूत्र के शब्दों से ) जोड़कर लेना है । ( फिर इस सूत्र का अर्थ ऐसा होता है:-) ( शब्द के अन्त्य ) इ और उ इनके आगे, पुल्लिग में, जस् प्रत्यय ) को अउ और अओ ऐसे डित आदेश विकल्प से होते हैं। उदा-अग्गउ....."चिट्ठन्ति ( विकल्प- ) पक्ष में:अग्गिणो, वाउणो । ( ये शब्द ) उर्वरित ( रूपों ) के बारे में, अकारान्त शब्द के समान होने के कारण, ( उनके ) अग्गी, वाऊ ( ऐसे रूप होते हैं । । पुल्लिग में ऐसा क्यों कहा है ? ( कारण पुल्लिग न होने पर, जस को ऐसे आदेश नहीं होते हैं। उदा०-) बुद्धीओ'...'महूई । जस । प्रत्यय ) को ( आदेश होते हैं ) ऐसा क्यों १. क्रमसेः-/अग्नि । / निधि । / वायु । /विधु । Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३० तृतीयः पादः कहा है ? ( कारण जस् प्रत्यय न होने पर, ऐसे आदेश नहीं होते हैं। उदा०-) अग्गी..... 'पेच्छइ । इ और उ इनके ही आगे ( आने वाले जस् को ऐसे आदेश होते हैं। जस् के पीछे अन्य स्वर हो, तो जम् को ऐसे आदेश नहीं होते हैं । उदा०-) बच्छा । वोतो डवो ॥ २१॥ . उदन्तात् परस्य जसः पुंसि डित् अवो इत्यादेशो वा भवति । साहवो' । पक्षे । साहओ साहउ साहू साहुणो । उत इति किम् । वज्छा । पुंसीत्येव । घेण । महूइं । जस इत्येव । साहू साहुणो पेच्छ। ... उकारान्त शब्द के आगे जस प्रत्यय को; पुल्लिग में, डित् अवो ऐसा आदेश विकल्प से होता है। उदा० - साहवो। विकल्प--- ) पक्षमें -साहओ साहणो । (शब्द के अन्त्य । ज के आगे ( यानी उकारान्त शब्द के आगे ) ऐसा क्यों कहा है ? ( कारण जस् के पीछे उ छोड़कर अन्य स्वर हो, तो ऐसा आदेश नहीं होता है। उदा.- ) बच्छा। पुल्लिग में ही ( ऐसा आदेश होता है, पुल्लिग न होने पर, ऐसा आदेश नहीं होता है । उदा०-- ) घेणू' महूई। जस् ( प्रत्यय ) को हो ( ऐसा आदेश होता है। अन्य प्रत्ययों को नहीं । उदा० ---- ) साहू... पेच्छ । ___ जसशसोर्णो वा ॥ २२ ॥ इदुतः परयो सशसोः पुंसि णो इत्यादेशो वा भवति। गिरिणो तरुणो' रेहन्ति पेच्छ वा । पक्षे । गिरी तरू। पंसीत्येव । दहीइं महइं। जस-शसोरिति किम् । गिरिं तरु । इडुत इत्येव । वच्छा । वच्छे। जसशसोरिति द्वित्वमिदुत इत्यनेन यथासंख्याभावार्थम् । एवमुत्तरसूत्रेपि । इ और उ इनके आगे जस् और शस् ( प्रत्ययों) को पुल्लिग में णो ऐसा आदेश विकल्प से होता है। उदा०-गिरिणो... 'पेच्छ वा । ( विकल्प . ) पक्षमें:गिरी, तरू । पुल्लिग होने पर ही ( ऐसा आदेश होता है; पुल्लिग न होने पर ऐसा आदेश नहीं होता है। उदा० -- ) दहीई, महूई। जस् और शस ( प्रत्ययों ) को आदेश होता है ऐसा क्यों कहा है ? ( कारण ये प्रत्यय न होने पर, ऐसा आदेश नहीं होता है। उदा०-) गिरि, तरुं । इ और उ इनके आगे ही ( जस् और शस प्रत्ययों को ऐसा आदेश होता है, अन्य स्वरों के आगे नहीं । उदा०-- ) वच्छा, वच्छे । जस् और शस् इन दोनों को (यह आदेश होता है ऐसे कहने का कारण यह है कि ) १. सांधु। २. /तरु । ३. राजन्ते । सूत्र ४.१०० अनुसार राज् धातु को रेह ऐसा आदेश होता है। Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरणे १३१ इ के आगे और उ के आगे ऐसा कहा जाने के कारण (बह आदेश ) अनुक्रम से होता है ऐसा अर्थ न लिया करे । इसी तरह ( यहाँ से ) अगले सूत्रों में हो जाने । ङसिङसोः पुंक्लीबे वा ॥२३॥ पुंसि क्लीबे च वर्तमानादिदुतः परयोङसिङसोर्णो वा भवति। गिरिणो। तरुणो। दहिणो। महणो आगओ वि १आरो वा। पक्षे उसेः । गिरीओ गिरीउ गिरोहिंतो। तरूओ तरूउ तरूहिंन्तो। हिलुको निषेत्स्येते। उसः । गिरिस्स । तरुस्स । ङसिङसोरिति किम् । गिरिणा तरुणा कयं । पंक्लीब इति किम् । बुद्धीअ घेणूअ लद्धं समिद्धी वा । इदुत इत्येव । 'कमलाओ। कमलस्स। पुल्लिग में और नपुंसकलिंग में होने वाले ( शब्दों के अन्त्य ) इ और उ इनके आगे आने वाले सि और ङस् । इन प्रत्ययों) का णो विकल्प से होता है । उदा.गिरिणो....... विआरो वा । ( विकल्प- ) पक्षमें:- सि के बारे में:-गिरीओ... तरूहितो। ( इन इकारान्त और उकारान्त पुल्लिगी और नपुंसकलिंगी संज्ञामों के संदर्भ में पंचमी एकवचन के ) हि और लोप ( इन दोनों ) का निषेध आगे ( सूत्र ३.१२६-१२७ देखिए ) फिया नायगा। ङस् के बारे में:-गिरिस्स, तरुस्स । असि अस् इन प्रत्ययों का ( णो होता है ) ऐसा क्यों कहा है ? ( कारण ये प्रत्यय न होने पर वह णो नहीं होता है ) उदा०--गिरिणा'... 'कयं । पुल्लिग में और नपुंसकलिंग में होने वाले ( शब्दों के ) ऐसा क्यों कहा है ? ( कारण स्त्रीलिंगी शब्दों के बारे में ऐसा णो नहीं होता है : उदा०-) बुद्धीअ ... समिद्धी वा । इ और उ इनके हो आगे आने वाले ( ङसि और ङस् प्रत्ययों का णो होता है; अन्य स्वरों के आगे बाने वाले उसि और ङस् प्रत्ययों का णो नही होता है । उदा०-) कमलाओ,कमलस्स । टो णा ।। २४ ॥ पुंक्लीबे वर्तमानादिदुतः परस्य टा इत्यस्य णा भवति । गिरिणा 'गामणिणा । खलपुणा तरुणा। दहिणा महुणा । ट इति किम् । गिरी तरू दहिं महु। पुंक्लीब इत्येव बुद्धीअ घेणूअ कयं । इदूत इत्येव । 'कमलेण ।। पुल्लिग में और नपुंसकलिंग में होने वाले ( शब्दों के अन्त्य ) इ और उ इनके आने वाले टा ( प्रत्यय ) का णा होता है। उदा० ---गिरिणा... ..'महुणा । टा ( प्रत्यय ) का ( णा होता है ) ऐसा क्यों कहा है ? ( कारण अन्य प्रत्ययों का ऐसा णा नहीं होता है। उदा०- , गिरी... ' मह। पुलिंग में और नपुंसकलिंग १. विकार । २. / लब्ध । ३. समृद्धि । ४. कमल । ५. /ग्रामणी । ६. खिमपू। Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ तृतीयः पादः में (होने वाले इकारान्त और उकारान्त शब्दों के बारे में टा प्रत्यय का ना होता है, स्त्रीलिंगी शब्दों के बारे में नहीं होता है। उदा०-) बुद्धीस... ."कयं । इ और उ इनके ही आगे आने वाले (टा का णा होता है; अन्य स्वरों के आगे आने वाले टा का णा नहीं नहीं होता है । उदा०-) कमलेण ।। क्लीवे स्वरान्म सेः ॥ २५ ॥ क्लीबे वर्तमानात् स्वरान्तानाम्नः सेः स्थाने म् भवति । वणं । पेम्म । दहिं । महु। दहि मह इति तु सिद्धापेक्षया। केचिदनुनासिकमपीच्छन्ति । दहि महुँ । क्लीब इति किम् । बालो। बाला। स्वरादिति इदुतो निवृत्यर्थम् । ___ नपुंसकलिंग में होने वाली स्वरान्त संज्ञा के आगे सि ( प्रत्यय ) के स्थान पर म् होता है । उदा.---वणं... ...मह। दहि और महु (ये रूप ) मात्र ( संस्कृत में से ) सिद्ध रूपों से बने हए हैं। कुछ ( वैयाकरण सि के स्थान पर) अनुनासिक भी मानते हैं। उदा०-दहि, महें। नपंसकलिंग में होने वाले ( स्वरान्त संज्ञा के मागे ) ऐसा क्यों कहा है ? ( कारण नपुंसकलिंग न होने पर सि प्रत्यय का म् नहीं होता है । उदा०-) बालो, बाला। इदुतः ( = यानी इ और उ इनके आगे ) शब्द की निवृत्ति करने के लिए ( प्रस्तुत सूत्र में ) स्वरात् ( = स्वर के आगे ) शब्द प्रयुक्त किया है। जसशस इ-ई-णयः सप्राग्दीर्घाः ॥ २६ ॥ क्लीबे वर्तमानानाम्नः परयो सशसोः स्थाने सानुनासिकसानुस्वाराविकारौ णिश्चादेशा भवन्ति समाग्दीर्घाः । एषु सत्स पूर्वस्वरस्य दीर्घत्वं विधीयते इत्यर्थः। ई। जाई 'वयणाई अम्हे। इं। "उम्मीलन्ति पंकयाई चिट्ठन्ति पेच्छ वा । दहीई हन्ति जेम वा । महइं मुश्च वा । णि । फूलन्ति पंकयाणि गेण्ह ११ वा। हन्ति दहीणि जेम वा । एवं महणि । क्लीब इत्येव । बच्छा । वच्छे । मसशस इति किम् । सुहं ।। नपुंसकलिंग में होनेवाली संज्ञा के अगले जस और शस् ( प्रत्ययों ) के स्थान पर सानुनासिक और सानुस्वार इकार और णि ऐसे आदेश होते हैं। और ( उस १. वन । प्रेमन् । २. बाल। ३. बाला । ४. यानि वचनानि अस्माकम् । ५. /उन्मील् । ६. पंकज । ७. भवन्ति । ८. Vभुज् धातु का आदेश जेम है(सूत्र ४.११० देखिए)। ९. Vमुच । १०. फुल्ल । ११. गृहाण। १२. सुख । Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरण समय ) उनके पिछले स्वर दीर्घ होते हैं ( यानी ) ये आदेश आगे होने पर, उन्नके पूर्व ( यानी पीछे ) होने वाला स्वर दीर्घ होता है, ऐसा विधान यहाँ है, ऐसा अर्थ होता है । उदा० -इँ ( आदेश होने पर ) : जाइँ अम्हे । इं ( आदेश होने पर ) :- उम्मीलन्ति -मुञ्च वा । णि ( आदेश होने पर ) :! - फुल्लन्ति ... जेम वा । इसी तरह महूनि ( ऐसा रूप होता है) । नपुंसकलिंग में होने वाली ही ( संज्ञा के आगे जस् और शस् इनके ऐसे आदेश होते हैं; अन्य लिंग में होने वाली संज्ञा के आगे ऐसे आदेश नहीं होते हैं । उदा०- ) वच्छा, बच्छे । जस् और शस् प्रत्ययों के ( स्थान पर ) ऐसा क्यों कहा है ? ( कारण अन्य प्रत्ययों के स्थान पर ऐसे आदेश नहीं होते हैं । उदा० -- 2) सुहं । स्त्रियामुदोतौ वा ॥ २७ ॥ 1 स्त्रियां वर्तमानान्नाम्नः परयोर्जस्शसोः स्थाने प्रत्येकं उत् ओत् इत्येतौ सप्राग्दी वा भवतः । वचनभेदो यथासंख्यनिवृत्त्यर्थः । मालाउ । मालाओ । बुद्धी बुद्धीनो । सहीउ सहीओ । घेण्उ घेणओ । वहूर बहूओ । पक्षे । माला बुद्धी सही घेणू वहू । स्त्रियामिति किम् । वच्छा । जस् - शस इत्येव । मालाए कयं । ――――― स्त्रीलिंग में होने वाली संज्ञा के आगे आने वाले जस् और शस् ( प्रत्ययों ) के स्थान पर प्रत्येक को उ और ओ ऐसे ये आदेश विकल्प से होते हैं, ( और उस समय ) उनके पूर्व (यानी पीछे होने वाला स्वर दीर्घ होता है । ( आदेशों के ) अनुक्रम की निवृत्ति करने के लिए वचनभेद है । उदा - मालाउ बहूभो । ( विकल्प - ) पक्ष में । —माला .. वहू । स्त्रीलिंग में होने वाली ( संज्ञा के आगे आने वाले ) ऐसा क्यों कहा है ? ( कारणं अन्य लिंगी संज्ञा के आगे उ और ओ नहीं होते हैं । ) वच्छा । जस् और शस् ( प्रत्ययों ) के स्थान पर ही ( उ और भी होते हैं; अन्य प्रत्ययों के स्थान पर नहीं होते है । उदा०-- · ) मालाए कयं । उदा० ईतः सेवा वा ॥ २८ ॥ स्त्रियां वर्तमानादीकारान्तात् सेर्जस्सोव स्थाने आकारो वा भवति । एसा हसन्तीआ । गोरीभा' चिट्ठन्ति पेच्छ वा । पक्षे । हसन्ती गोरीओ । स्त्रीलिंग में होने वाली ईकारान्त ( संज्ञा ) के आगे होने वाले सि ( प्रत्यय ) तथा जस् और शस् ( प्रत्यय ) इनके स्थान पर आकार विकल्प से आता है । उदा०-- एसा पेच्छ वा । ( विकल्प - ) पक्ष में :-- हसन्ती, गोरीओ । १३३ १. क्रम से : -- माला । बुद्धि | सखी । धेनु । वधू | २. एषां हसन्ती । ३. गौरी । Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयः पादः टा-उस-उरदादिदेवा तु उसेः ॥ २६ ॥ स्त्रियां वर्तमानान्नाम्नः परेषां टाङसडीनां स्थाने प्रत्येकं अत्-भात् इत् एत् इत्येते चत्वार आदेशाः सप्राग्दीर्घा भवन्ति । ङसेः पुनरेते सप्राग्दीर्घा वा भवन्ति । 'मुद्धाअ मुद्धाइ मुद्धाए २कयं मुहं ठिअं वा। कप्रत्यये तु मुद्धिनाअ मुद्धिआइ मुद्धिआए। "कमलिआअ कमलिखाइ कमकिमाए। बुद्धीअ बुद्धीआ बुद्धीइ बुद्धौए कयं विहवो ठिअं वा। सहीम सही सहीइ सहीए कयं वयणं ठिअं वा । धेश घेणूमा घेणइ घेणए कयं दुद्धं ठिसंवा । वहूअ वहूआ वहूइ वहूए कयं भवणं ठिअं वा । इसेस्तु वा । मुद्धाअ मुद्धाइ मुद्धाए। बुद्धीअ बुद्धीआ बुद्धीइ बुद्धीए । सहीम सहीआ सहीइ सहीए । घेणूक घेणूआ घेणूइ घेणूए । वहूम वहूआ वहूइ वहूए आगओ। पक्षे। मुद्धाओ मुद्धाउ मुद्धाहितो। रईनो रईउ' ० रईहिंतो। धेणू धेउ धेहिंतो। इत्यादि। शेषेदन्तवत् ( ३.१२४ ) अतिदेशात् जस्-शस-ङसि-तोदो दवामि दीर्घः (३.१२)इति दीर्घत्वं पक्षेपि भवति । स्त्रियामित्येव । वच्छेण । बच्छस्स । वच्छम्मि। वच्छाभो। हादीनामिति किम् । मुद्धा बुद्धी सही घेणू वहू। स्त्रीलिंग मे होने वाली संज्ञा के आगे आने वाले टा, ङस्, और ङि इन प्रत्ययों के स्थान पर प्रत्येक को अ, आ, इ और ए ऐसे ये चार आदेश, उनके पूर्व होने वाला ( यानी पीचे होने वाला ) स्वर दीर्घ होकर, होते हैं। परन्तु उसि प्रत्यय के बारे में मात्र ये ( आदेश उनके ) पूर्व ( यानी पीछे ) आने वाला स्वर दोघं होकर विकल्प से होते हैं । उदा०--मुद्धाअ "" ""ठिनं वा । ( संज्ञा के आगे स्वार्थे ( क प्रत्यय होनेपर मात्र ) ऐसे रूप होते हैं )--मुद्धिआअ... ...: कमिलआए। ( अन्य शब्दों के रूप ) -बुद्धीम" ..'वहुए... -"ठि वा । उसि प्रत्यय के बारे में (ये आदेश ) विकल्प से होते हैं । उदा.---मुद्धाम... 'वहूए आगो । ( विकल्प--) पक्ष में:-मुद्धाओ'... 'धेहितो, इत्यादि । 'शेषे दन्तवत्' सूत्र से विहित किए अतिदेश के कारण, 'जस्... .. दीर्घः' सूत्र से आने वाला दीर्घत्र विकल्प पक्ष में भी होता है । स्त्रीलिंग में होने वाली ही ( संज्ञा के आगे होने वाले टा इत्यादि प्रत्ययों के स्थान पर अ इत्यादि आदेश आते हैं, अन्य लिंगी संज्ञा के आगे नहीं आते हैं। उदा.--बच्छेण....'वच्छाओ । टा, इत्यादि यानी टा, ङस् , और ङि इनके ( स्थान १. मुग्धा । २. कृत । ३. मुख। ४. स्थित । ५. कमलिका। ६. विभव । ७. वचन/बदन । ८. दुग्ध। ९. भवन । १०. रति । Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृसम्याकरणे १३५ पर अ इत्यादि आदेश आते हैं ) ऐसा क्यो कहा है ? ( कारण से प्रत्यय न हो, तो ऐसे आदेश नहीं होते हैं । उदा०-- ) मुद्धा...''वहू । नात आत् ॥ ३० ॥ स्त्रियां वर्तमानादादन्तान्नाम्नः परेषां टा-स्-डि-ङसीनामादादेशो न भवति । मालाअ मालाइ मालाए कयं सहं ठिअं आगओ वा । ___स्त्रीलिंग में होने वाली आकारान्त संज्ञा के आगे आनेवाले टा, ङस्, ङि, और ङसि इन प्रत्ययों को आ ऐसा आदेश नहीं होता है। उदा०-मालाअ''आगओ वा। प्रत्यये ङीन वा ।। ३१॥ .. . उणादिसूत्रेण ( हे० २४) प्रत्ययनिमित्तो यो ङीरुक्तः सः स्त्रियां वर्तमानानाम्नो वा भवति । 'साहणी । कुरुचरी । पक्षे। आत् (हे० २.४) इत्याप्। साहणा' | कुरुचरा । 'अणादि' सूत्र से प्रत्यय के निमित्त से ( यानी प्रत्यय के स्वरूप में ) जो डी ( = ई ) प्रत्यय कहा हुआ है, वह स्त्रीलिंग में होने वाली संज्ञाओं को विकल्प से लगता है । उदा० - साहणी; कुरुचरी । (विकल्प-) पक्षमें -'आत्' सूत्र के अनुसार ( कहा हुआ ) आप् प्रत्यय लगता है । उदा०-साहणा, कुरुचरा। अजातेः पुंसः ।। ३२ ॥ अजातिवाचिनः पुल्लिङ्गाद् स्त्रियां वर्तमानाद् ङीर्वा भवति। नीली' नीला। काली काला। हसमाणी हसमाणा। सुप्पणही सुप्पणहा। इमीए इमाए। इमीणं इमाणं । एईए एआए। एईणं एआणं। अजातेरिति किम् । करिणी । अया। एलया । अप्राप्ते विभाषेयम् । तेन गोरी कूमारी इत्यादौ संस्कृतवन्नित्यमेव डीः । अजातिवाचक पुल्लिगी शब्दों से स्त्रीलिंग में आने वाले (= होने वाले) शब्दों के आगे ई ( डी ) प्रत्यय विकल्प से आता है। उदा०-नीली "एआणं । अजातिवाचक (पुल्लिगी शब्दों से ) ऐसा क्यों कहा है ? ! कारण यदि पुल्लिगी शब्द जातिवाचक हो, तो ऐसा नहीं होता है । उदा०- ) करिणी... .. "एलया । (यह प्रत्यय) प्राप्त न होने पर, यह विकल्प है। इसलिए गोरी, कुभारी, इत्यादि शब्दों में संस्कृत के समान नित्य ई ( डी ) प्रत्यय लगा हुआ है। १. क्रमसे:- माधन । /कुरुचर । २. क्रमसै:--नील । काल । हसमाण । शूर्पूणख । इदम् । इदम् । एतद् । एतद् । ३. क्रमसे:-करिन् । अज । एड/एल। ४. क्रमसे:---गौर । कुमार। Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ तृतीयः पादः किं यत्तदोस्यमामि ॥ ३३ ॥ सि-अम्-आम्-वजिते स्यादौ परे एभ्यः स्त्रियां ङीर्वा भवति। कोओ काओ। कीए । काए । कोसु कासु। एवम् । जीओ जाओ। तीओ ताओ। इत्यादि । अस्यमामीति किम् । का जा सा। कं नं तं । काण जाण ताण। सि, अम् और आम् ( प्रत्यय ) छोड़कर, अन्य विभक्ति प्रत्यय आगे होने पर, किम्, यद् और तद् इन ( सर्वनामों) को स्त्रीलिंग में डी प्रत्यय विकल्प से लगता है। उदा०-कीओ...'कासु । इसी तरह ही, जीमो...."तामो, इत्यादि (रूप) होते हैं। सि, अम् और आम् प्रत्यय छोड़कर ऐसा क्यों कहा है ? ( कारण ये प्रत्यय आगे होने पर, स्त्रीलिंग में ही प्रत्यय नहीं लगता है । उदा.-) का...'ताण । छायाहरिद्रयोः ।। ३४ ॥ अनयोरा प्रसंगे नाम्नः स्त्रियां ङीर्वा भवति। छाही छाया। हलद्दी हलद्दा । छाया और हरिद्रा इन ( दो शब्दों ) के बारे में, आप ( प्रत्यय ) लगने के प्रसंग में, संज्ञा के स्त्रीलिंग में डी ( प्रत्यय ) विकल्प से लगता है । उदा०-छाही हलद्दा । स्वस्रादेर्डा ॥ ३५ ॥ स्वस्रादेः स्त्रियां वर्तमानात् डा प्रत्ययो भवति । ससा' । नणन्दा । दुहिआ। दुहिआहिं । दुहिआसु । दुहिआ सुओ। गउआ। स्रोलिंग में होने वाले स्वसृ इत्यादि शब्दों को हित और (डा) प्रत्यय लगता है। उदा.-ससा...."गउमा । हस्वोमि ।। ३६ ॥ स्त्रीलिंगस्य नाम्नोमि परे ह्रस्वो भवति । मालं । नइं६ । वहु। हसमाणि हसमाणं पेच्छ। अमीति किम् । माला सही वहू। अम् ( प्रत्यय ) आगे होने पर, स्त्रीलिंगी संज्ञा का (अन्त्य) स्वर ह्रस्व होता है। उदा.-मालं.... पेच्छ । अम् ( प्रत्यय ) आगे होने पर ऐसा क्यों कहा है । (कारण बह प्रत्यय आगे न होने पर, संज्ञा का अन्त्य स्वर ह्रस्व नहीं होता है। उदा.-) माला..."बहू । १. स्वसू । २. ननन्द । ३. दुहित। ४. दुहित-सुत । ५. गवय । ६. नदी। Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरणे नामन्त्र्यात् सौ मः || ३७ ॥ आमन्त्र्यार्थात् परे सौ सति क्लीबे स्वरान्म से: ( ३.२५ ) इति यो म् उक्तः स न भवति । हे त । हे दहि । हे महु । संबोधनार्थी सि ( प्रत्यम ) आगे होने पर, 'क्लीवे स्वरान्म से : ' सूत्र में कहा हुआ जो म्, वह नहीं होता है । उदा० हे तण "महु । डो दीर्घो वा ॥ ३८ ॥ आमत्त्र्यार्थात् परे सौ सति अतः सेड : ( ३२ ) इति यो नित्यं डोः प्राप्तो यश्च अक्लीबे सौ ( ३१६ ) इति इदुतोरकारान्तस्य च प्राप्तो दीर्घः सः वा भवति । हे देव हे देवो । हे खमासमण हे खमासमणो । हे अज्ज हे अज्यो । दीर्घः । हे हरी हे हरि । हे गुरू हे गुरु । जाइविसुद्वेण । पहू हे प्रभो इत्यर्थः । एवं दोष्ण पहू जिअलोए । पक्षे । हे पहु । एषु प्राप्ते विकल्पः । इह् त्वप्राप्ते हे गोअमा' हे गोअम । हे कासवा " हे कासव । रेरे चप्फलया' । रे रे निग्विणया १० 1 (. संबोधनार्थी सि ( प्रत्यय ) आगे होने पर, 'अतः सेर्डो:' सूत्र से जो डो नित्य प्राप्त होता है वह, तथा अक्लोवे सौ' सूत्र से इकारान्त और उकारान्त तथा अकारान्त ( शब्दो के अन्त्य ) स्वर का जो दोघं ( स्वर ) प्राप्त होता है वह, वे विकल्प से होते है । उदा०- - हे देव......अज्जो | दोर्घ ( स्वर ) का उदाहरण:हे हरी" पहू (यहाँ ) हे प्रभु ऐसा अर्थ है; एवं दोप्पिलोए । ( विकल्प - ) पक्षमें:- हे पहु । इन ( इकारान्त और उकारान्त ) शब्दों में ( दीर्घस्वर ) प्राप्त होते समय विकल्प है । ( अब ) यहाँ ( यानी आगे दिए उदाहरणों में दीर्घस्वर ) प्राप्त न होते भी, (ऐसा दिखाई देता हैं: ---) हे गोअमा मिग्विणया । ऋतोद्वा ॥ ३९ ॥ १३७ ऋकारान्तस्यामन्त्रणे सौ परे अकारोन्तादेशो वा भवति । हे पितः हे | हे दातः हे दाय २ । पक्षे । हे पिअरं " । हे दायार" । पिन ५९ ११ २. क्षमाश्रमण । १. तृण ३. भयं । ४. जातिविशुद्धेन प्रभो । ५. एवं द्वो प्रभो जीवलोके । ६. प्रभु । ७. गोतम । ८. कश्यप । ९. निष्फल, झूठ बोलने बाला इस अर्थ में चप्पलय देशी शब्द है । १०. निर्घुणक | ११. पितृ । १२. दातु । Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयः पादः ऋकारान्त शब्दों के संबोधन में, सि ( प्रत्यय ) आगे होने पर, अकार ऐसा अन्तादेश ( = अन्त में अ ऐसा आदेश ) विकल्प से होता है । उदा०-हे पितः दाय । ( विकल्प - ) पक्ष में:- हे पिअरं दायार । नाम्न्यरं वा ।। ४० ॥ ऋदन्तस्यामन्त्रणे सौ परे नाम्नि संज्ञायां विषये अरं इति अन्तादेशो वा भवति । पितः हे पिअरं । पक्षे । हे पिअ । नाम्नीति किम् । हे कर्तः हे कत्तार' । १३८ ऋकारान्त शब्दों के संबोधन में; सि ( प्रत्यय ) आगे होने पर, नामों के यानी संज्ञाओं के बारे में, अर्र ऐसा अन्तादेश ( = अन्त में आदेश ) विकल्प से होता है । उदा- - हे पितः "पिअरं । ( विकल्प - ) पक्षमें :- हे पिअ । संज्ञाजों के बारे में ऐसा क्यों कहा है ? ( कारण ऋकारान्त शब्द संज्ञा न हो, तो अरं ऐसा अन्तादेश नहीं होता है । उदा०-- -) हे कर्तः कसार । .... वाप ए ॥ ४१ ॥ आमन्त्रणे सौ परे आप एत्वं वा भवति । हे माले हे महिले । अज्जिए । पज्जिए पक्षे । हे माला । इत्यादि । आप इति किम् । हे पिउच्छा । हे माउच्छा । बहुलाधिकारात् क्वचिदोत्वमपि । अम्मो भणामि " भणिए । 1 www संबोधन में सि ( प्रत्यय ) आगे होने पर, ( उसके पिछले ) आ ( आप ) स्वर का विकल्प से ए होता है । उदा०- रे माले पज्जिए । ( विकल्प - ) पक्षमें :हे माला इत्यादि । आ (आप) का (ए होता है) ऐसा क्यों आप् न हो, तो ए नहीं होता है । उदा०- ~ ) हे पिउच्छा अधिकार होने के कारण, इस आप का ) कभी ओ भी अम्मो भणिए । १. कर्तृ । ३. अम्बा । ईदूतोह स्वः ।। ४२ ।। आमन्त्रण सौ परे ईदृदन्तयोह्रस्वो भवति । हे नइ । हे गामणि । हे 'समणि | हे वहु । हे खलपु । संबोधन में सि ( प्रत्यय ) आगे होने पर; ईकारान्त और ऊकारान्त संज्ञाबी का ( अन्त्य स्वर ) ह्रस्व (यानी अनुक्रम से इ और उ) होता है । उदा० - नइ खलपु । कहा है ? ( कारण पीछे माउच्छा । बहुल का होता है । उदा० २. क्रम से:- - माला महिला । आर्यिका । प्रार्थिका । ४. भणित । ५. श्रमणी । Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरण १३९ क्विपः ॥ ४३ ॥ क्विबन्तस्येदूदन्तस्य ह्रस्वो भवति । गामणिणा खलपुणा। गामणिणो खलपुणो । क्विप् प्रत्यय से अन्त होने वाले ईकारान्त और ऊकारान्त संज्ञाओं का ( अन्त्य स्वर विभक्ति प्रत्यय आगे होने पर) ह्रस्व हो जाता है । उदा०-गामणिणा 'खलपुणो ___ ऋतामुदस्यमौसु वा ॥ ४४ ॥ सि-अम्-औ-वजिते अर्थात् स्यादौ परे ऋदन्तानामुदन्तादेशो वा भवति । जस् । भत्तू भत्तुणो भत्तउ भत्तओ। पक्षे। भत्तारा' । शस् । भत्त भत्तुणो। पक्षे। भत्तारे । टा। भत्तणा। पक्षे। भत्तारेण । भिस् । भत्तहि । पक्षे । भत्तारेहिं । ङसि । भत्त णो भत्त ओ भत्तूउ भत्त हि भत्त हितो। पक्षे। भत्ताराओ भत्ताराउ भत्ताराहि भत्ताराहिंतो भत्तारा। उस । भत्तणो भत्तु स्स । पक्षे। भत्तारस्स । सुप् । भत्त सु । पक्षे। भत्तारेसु । बहुवचनस्य व्याप्त्यर्थत्वात् यथादर्शनं नाम्न्यपि उद् वा भवति जस्-शस्-डसि-ङस्सु । पिउणो जामाउणो भाउणौ। टायाम् । पिउणा । भिसि । पिऊहिं । सुपि । पिऊस । पक्षे । पिअरा इत्यादि । अस्य मौस्विति किम् । सि । पिआ। अम् । पिमरं । औ। पिअरा। सि, अम्, और ओ ये प्रत्यम छोड़कर अर्थात् इतर विभक्ति प्रत्यय आगे होने पर, ऋकारान्त शब्दों को उत् ऐसा सन्तादेश ( यानी अन्त में उ ऐसा आदेश ) विकल्प से होता है । उदा०---जस् ( प्रत्यय आगे होने पर ):-भत्तू.. .. भत्तो ; (विकल्प- ) पक्ष में:--भत्तारा। शस् ( प्रत्यय आगे होने पर )- भत्तू, भत्तुंणो; ( विकल्प ) पक्षमें:-भत्तारे । टा ( प्रत्यय आगे होने पर ):-भत्तणा; (विकल्प-) पक्षमें:--भत्तारेण । भिस् ( प्रत्यय आगे होने पर ):-भत्तूहि; (विकल्प---) पक्षमें:भत्तारेहिं । ङसि ( प्रत्यय आगे होने पर }:--भत्तुणो..."भहितो; ( विकल्प--) पक्षमें:-भत्ताराओ...'मत्तारा । ङस् (प्रत्यय आगे होने पर ):-भत्तुणो, भत्तुस्स, (विकल्प-) पक्षमें:-भत्तारस्स । सुप (प्रत्वय आगे होने पर):-भत्त सु; (विकल्प-) पक्षमें-भतारेसु । बहुवचन व्याप्त्यर्थी ( यानी समावेशक अर्थ में ) होने से (साहित्य में ) जैसा दिखाई देगा वैसा संज्ञाओं के बारे में भी, जस् शस् ङसि और उस् प्रत्यय आगे होने पर,विकल्प से ( अन्त में ) उ आता है उदा०-( जस् और शस् प्रत्यय आगे होने पर ): --पिउणो..... भाउणो । टा (प्रत्यय आगे होने पर)-पीउणा । भिस् ( प्रत्यय आगे होने पर ).--पिऊहिं । सुप् ( प्रत्यय आगे होने पर ):१. भई। २. क्रमसे:-पितृ जामातृ भ्रातृ । Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयः पादः पिऊसु । ( विकल्प-) पक्षमें:-पिअरा, इत्यादि । सि, अम्, और या प्रत्यय छोड़कर ऐसा क्यों कहा है ? ( कारण ये प्रत्यय आगे होने पर, अन्त में उ आदेश नहीं होता है। उदा०-) सि ( आगे होने पर ):-पिआ । अम् ( आगे होने पर :-पिअरं । को ( आगे होने पर ):-पिअरा। आरः स्यादौ ॥ ४५ ॥ स्यादौ परे ऋत आर इत्यादेशो भवति । भत्तारो भत्तारा। भत्तारं भत्तारे। भत्तारेण भत्तारेहिं । एवं डस्यादिषूदाहार्यम् । लुप्तस्याद्यपेक्षया । भत्तार'-विहिवं। सि इत्यादि (विभक्ति प्रत्यय ) आगे होने पर, ( शब्द के अन्त्य ) ऋ को आर आदेश होता है। उदा०–भत्तारो..."भत्तारेहिं । इसी तरह ङसि इत्यादि प्रत्यय आगे होने पर उदाहरण ले। ( अन्त्य ऋ का आर होने के बाद, कुछ कारण से ) स्यादि ( यानी विभक्ति-) प्रत्ययों के लोप की अपेक्षा होते भी ( यह आर वैसाही रहता है । उदा०-) भत्तारविहिरं । आ अरा मातुः ।। ४६ ॥ मातृसम्बन्धिन ऋतः स्यादौ परे आ अरा इत्यादेशौ भवतः। माआ माअरा। माउ माआओ माअराउ माअराओ। मा मामरं। इत्यादि । बाहुलकाज्जनन्यर्थस्य आ देवतार्थस्तु अरा इत्यादेशः । माआए 'कुच्छीए । नमो माअराण । मातुरिद् वा ( १.१३५ ) इतीत्त्वे माईण इति भवति । तामुदं ( ३.४४ ) इत्यादिना उत्वे माऊए 'समन्निअं 'वन्दे इति । स्यादावित्येव 'माइदेवो । माइगणो। सि इत्यादि ( विभक्ति प्रत्यय ) आगे होने पर, मातृशब्द से सम्बन्धित होने वाले ऋ को बा और अरा ऐसे आदेश होते हैं। उदा०-माआ... ..'माअरं, इत्यादि । बहुलत्य होने से, मा इस अर्थ में होने वाले मातृ शब्द में आ, और देवता इस अर्थ होने पर, (मातृशब्द में) अरा, ऐसा आदेश होता है। उदा०-माआए..'मा अराण । 'मातुरिद् बा' सूत्र के अनुसार, ( मातृ शब्द में ऋ का) इ होने पर, माईण ऐसा (रूप) होता है। परन्तु 'ऋतामूद०' इत्यादि सूत्र के अनुसार ( मातृ में से ऋ का ) उ होने पर 'माऊए समन्नि बन्दे', ऐसा होता है। विभक्ति प्रत्यय आगे होने पर ही ( मातृ में से ऋ को आ और अरा ये आदेश होते हैं। अन्य समय में नहीं होते हैं। उदा.-) माइदेवो, माइगणो । १. भर्तृ-विहित । २. कुक्षि । २. नमः। ४. समन्वित । ५. Vबन्द । ६. भातृदेव । ७. मातृगण । Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरणे नाम्न्यरः || ४७ ॥ ऋदन्तस्य नाम्नि संज्ञायां स्यादौ परे अर इत्यन्तादेशो भवति । 'पिअरा । पिअरं पिअरे । पिअरेण पिअरेहिं । जामायरा । जामायरं जामायरे । जामायरेण जामाय रेहिं । भायरा । भायरं भायरे । भायरेण भायरेहिं । ऋ ( स्वर ) से अन्त होने वाले नामों में यानी संज्ञा शब्दों में, विभक्ति प्रत्यय आने होने पर, अन्त्य ऋ को ) अर ऐसा अन्तादेश ( = अन्त में अ आदेश ) होता है । उदा० - पिअरा भायरे हि । आ सौन वा ॥ ४८ ॥ ऋदन्तस्य सौ परे आकारो वा भवति । पिआ । जामाया । भाया । "कता | पक्षे । पिअरो । जामायरो । भायरो । कत्तारो । ४ सि ( प्रत्यय ) आगे होने पर; ऋकारान्त शब्दों के अन्त में आकार विकल्प से होता है । उदा० - यिआ कत्ता । ( विकल्प - ) पक्ष में – पिअरो कत्तारो । राज्ञः ।। ४६ । राज्ञो नलोपैन्त्यस्य आत्वं वा भवति सौ परे । राया । हे राया । पक्षे | आणादेशे । रायाणो । हे राया हे रायं इति तु शौरसेन्याम् । एवं हे 'अप्पं हे अप्प ! 1 सि ( प्रत्यय ) आगे होने पर, राजन् शब्द में से ( अन्त्य ) नू का लोप होने थर, अन्त्य ( वर्ण ) का आ विकल्प से होता है । उदा० - राया, हे राया (विकल्प - ) पक्ष में: - ( सूत्र ३.५६ के अनुसार ) आण ऐसा आदेश होने परः - रायाणी । हे रावा, हे रायं ऐसा शौरसेनी ( भाषा) में होता है । इसी तरह हे अप्पं, हे अप्प ( ऐसा होता है ) । १. पितृ । ५. राजन् । जस्शस्ङसिङसां णो ॥ ५० ॥ राजन् - शब्दात् परेषामेषां णो इत्यादेशो वा भवति । जस् । रायाणो चिट्ठन्ति । पक्षे । राया । शस् । रायाणो पेच्छ । पक्षे । राया राए । ङसि । राइनो रण्णो आगओ । पक्षे । रायानो रायाउ रायाहि रायाहितो राया । ङस । राइणो रण्णो 'धणं । पक्षे । रायस्स । राजन् शब्द के आगे आने वाले जस्, शस् ङसि और ङस् प्रत्ययों को णो ऐसा आदेश विकल्प से होता है । उदा० -जस् ( को आदेश ) :- रायाणो चिट्ठन्ति । ४. कर्तृ । ૪૧ २. जामातृ । ६. आत्मन् । ३. भ्रातृ । ७. धन । Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयः पादः ( बिकल्प-) पक्ष में :--राया । शस ( को आदेश )-रायाणो पेच्छ । (विकल्प-) पक्ष में:-राया, राए । ङ सि ( को आदेश ):-राइणो...'आगओ । (विकल्प-) क्ष में:-रायाओ....."राया । उस को आदेश):-राइणो धणं । ( विकल्प-) पक्ष में :-रायस्स । ठो णा ॥५१॥ राजन्-शब्दात् परस्य टा इत्यस्य णा इत्यादेशो वा भवति । राइणा रण्णा । पक्षे । राएण 'कयं ।। राजन् शब्द के आगे,टा प्रत्यय को णा ऐसा आदेश विकल्प से होता है। उदा०राइणा, राणा । ( विकल्प-) पक्षमें..."राएण कयं । इर्जस्य णोणाङौ ॥ ५२ ।। राजन्शब्दसम्बन्धिनो जकारस्य स्थाने गोणङिषु परेषु इकारो वा भवति । राइणो चिट्ठन्ति पेच्छ आंगओ धणं वा। राइणा कयं। राइम्मि । पक्षे । रायाणो । रण्णो । रायणा । राएण । रायम्मि । णो, णा और ङि ( प्रत्यय ) आगे होने पर, राजन् शब्द से सम्बन्धित होने वाले जकार के स्थान पर इकार विकल्प से होता है। उदा०-राइणो......"राइम्मि । (विकल्प- पक्ष में:-रायाणो......"राय स्मि । इणममामा ।। ५३ ॥ राजन्शब्दसम्बन्धिनो जकारस्य अमाम्भ्यां सहितस्य स्थाने इजणम् इत्यादेशो वा भवति । राइणं पेच्छ । राइणं धणं । पक्षे। रायं । राईणं। अम् और आम् प्रत्ययों के सह, राजन् शब्द से सम्बन्धित होने वाले जकार के स्थान पर इणं ऐसा आदेश बिकल्प से होता है। उदा.---। इणं 'धणं । (विकल्प-) पक्षमें:-रायं, राईणं । ईद् भिस्भ्यसाम्सुपि ।। ५४ ।। राजन्शव्दसम्बन्धिनो जकारस्य भिसादिषु परतो वा ईकारो भवति । भिस् । राईहि । भ्यस् । राईहि राईहिंतो राईसंतो। आम् । राईणं। सुप् । राईसु । पक्षे। रायाणेहि । इत्यादि । भिस्, इत्यादि ( यानी भिस्, भ्यस् आम् और सुप ) प्रत्यय आगे होने पर,राजन् शब्द से सम्बन्धित होने वाले जकार का ईकार विकल्प से होता है। उदा० १. कृत। Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरणे भिस् ( आगे होने पर ) : - - राईहि । भ्यस् ( आगे होने पर ) : - राईहि राईतो । आम् ( आगे होने पर ) :- राईण । सुप् ( आगे होने पर ) :-- राईसु । ( विकल्प -- ) पक्ष में : रायाणेहि, इत्यादि आजस्य टाङसिङस्सु सणाणोष्वण ॥ ५५ ॥ रामन् शब्दसम्बन्धिन आज इत्यवयवस्य टाङसिङस्सु णा णो इत्यादेशापन्नेषु परेषु अण् वा भवति । रण्णा राइना कयं । रण्णो राइणो आगओ धणं वा | टाङसिङस्स्विति किम् । रायानो चिट्ठन्ति पेच्छ वा । सणाणोष्विति किम् । राएण | रायाओ । रायस्स । णा और णो ऐसे आदेश जिनको प्राप्त हुए हैं ऐसे टा, ङसि और ङस् ये प्रत्यय आगे होने पर, राजन् शब्द से सम्बन्धित होने वाले 'आज' अवयव का अण् विकल्प से होता है । उदा०-- रण्णा ..धणं वा । टा, ङसि और ङस् प्रत्यय आगे होने पर ऐसा क्यों कहा है ? ( कारण ये प्रत्यय आगे न होने उदा०-- -) रायाणी... • पेच्छ बा । णा और णो ऐसे हुए हैं ऐसा क्यों कहा है ? ( कारण ये आदेश न हों, तो अण् नहीं होता है । ) राएण पर, अण् नहीं होता है । आदेश जिनको प्राप्त उदा० 'रायस्स । पुंस्यन आणो राजवच्च ॥ ५६ ॥ पुंलिङ्गे वर्तमानस्यान्नन्तस्य स्थाने आण इत्यादेशो वा भवति । पक्षे । यथा - दर्शनं राजवत् कार्यं भवति । आणादेशे च अतः सेर्डोः ( ३.२ ) इत्यादयः प्रवर्तन्ते । पक्षे तु राज्ञः जस्-शस् - ङसिङसां णो ( ३.३० ), टोणा ( ३.२४ ) इणममामा ( ३५३ ) इति प्रवर्तन्ते । अप्पाणो अप्पाणा अप्पाण अप्पाणे | अप्पाणेण अप्पाणेहि । अप्पानाओ अप्पाणासंतो । अप्पाणस्स अप्पाणाण । अप्पाणम्मि अप्पाणेसु । अप्पाण - कथं । पक्षे राजवत् । अप्पा अप्पो । हे अप्पा हे अप्प | अपाणो चिट्ठन्ति । अप्पाणो पेच्छ । अपणा अप्पेहि । अप्पाण्णो अपाओ अप्पा अप्पाहि अप्पार्हितो अप्पा | अप्पासुंतो । अप्पणो धणं । अप्पाणं । अप्पे अप्पे | रायाणो रायाणा । रायाणं रायाणे । रायाणेण रायाणेहिं । रायाणाहितो । रायाणस्स रायाणाणं । रायाणम्मि रायाणेसु ! पक्षे । राया इत्यादि ॥ एवम् जुवाणो । जुवाण-जणो । जुआ ॥ बम्हाणो' बम्हा : 'अद्वाणो अद्धा ॥ उक्षन् उच्छाणो उच्छा । 'गावाणो गावा । १. आत्मन् । ३. क्रम से: - - युवन् । युवन् + जन । युवन् । ५. अध्वन् । ६. ग्रावन् । २. आत्मन् +- कृत । १४३ ४. ब्रह्मन् । Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪૪ तृतीयः पादः पूसाणो पूसा । तक्खाणो तक्खा । मुद्धाणो मुद्धा | श्वन् साणो सा ॥ सुकर्मणः पश्य सुकम्माणे पेच्छ । निएइ कह सो सुकम्भाणे । पश्यति कथं स सुकर्मणः इत्यर्थः । पुंसीति किम् । शर्म सम्मं । पुल्लिंग में होने वाली, अन् अन्त होने वाली संज्ञाओं के ( अन्त्य ) स्थान में आण आदेश विकल्प से आता है । ( विकल्प -- ) पक्ष में, वाङ्मय में जैसा दिखाई देगा वैसा, राजन् शब्द के समान कार्य होता है । और आण आदेश होने पर, 'अत: सेड:' इत्यादि सूत्रों से नियम लगते हैं । परन्तु ( विकल्प -- ) पक्ष में, राजन् शब्द के बारे में लगने वाले 'जस् - शस् इण मामा इन सूत्रों में से नियम लगते हैं । उदा -- अप्पाणो अध्वाण -- कथं ( विकल्प - - ) पक्ष में :-- राजन् शब्द के समान :- अप्पा अप्पेसु ( ऐसे रूप होते हैं ); रायाणो... राधासु ( विकल्प -- ) पक्ष में :--राया, इत्यादि । इसी तरह :-- जुवाणो सुकम्माणे पेच्छ; निएइ... सुकम्भाणे ( यानी ) शुभ कर्म करने वालों को कैसे देखता है, ऐसा अर्थ है । पुल्लिंग में होने वाली ( अन्नन्त संज्ञाओं के ) ऐसा क्यों कहा है ? ( कारण अन्नन्त शब्द पुल्लिंग में न हो, तो आण आदेश नहीं होता है । ) शर्म, सम्मं । अप्पाणेसु; उदा० ―― आत्मनष्टो णिआ णइआ ॥ ५७ ॥ आत्मनः परस्याष्टाया: स्थाने णिआ णइआ इत्यादेशौ वा भवतः । अप्पणिआ पा' उसे उवगयम्मि । अपणिआ य "विअड्डि 'खाबिआ । अप्पइमा । पक्षे । अप्पाणेण । आत्मन् शब्द के आगे होने वाले टा ( प्रत्यय ) के स्थान पर णिआ और इआ ऐसे आदेश विकल्प से होते हैं । उदा०-- अप्पणिआ अप्पणइआ । ( विकल्प - ) पक्ष में :-- अप्पाणेण । अतः सर्वादेर्डेर्जसः ॥ ५८ ॥ सर्वादेरदन्तात् परस्य जस: डित् ए इत्यादेशो भवति । सव्वे | अन्ने । जे । ते । के । एक्के । कयरे । इयरे । एए । अत किम् । सव्वानो । रिद्धीओ । जस इति किम् । सव्वस्स । सर्व, इत्यादि अकारान्त सर्वनामों के आगे आनेवाले जस् ( प्रत्यय ) को डि ए ऐसा आदेश होता है । उदा० -- सव्वे ** एए । अकारान्त ( सर्वनामों के ) ३. मूर्धन् । १. पूषन् । २. तक्षन् । ४. ६. उपगत । निअ । दृश् धातु का निअ आदेश है ( सूत्र ४.१८१ देखिए ) । ५. प्रावृषु । ७. चितदि । ८. खनि । ९. क्रम से :- सर्वं । अन्य | ज ( यद्) । त ( वद् ) । क ( किम् ) । एक । १०. ऋद्धि । कतर । इतर । एतद् । Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरणे ऐसा क्यों कहा है ? ( कारण सर्वनाम अकारान्त न हो, तो जस् को डित् ए आदेश नहीं होता है । उदा० -- ) सव्वाओ रिद्धीओ । जस् (प्रत्यय) को ऐसा क्यों कहा है ? (कारण अन्य प्रत्ययों को ऐसा आदेश नहीं होता है । उदा.-) सब्वस्स। ः स्सिम्मित्थाः ।। ५९ ।। सर्वादेरकारात् परस्य ङः स्थाने स्सि म्मि त्थ एते आदेशा भवन्ति । सव्वस्सि सव्वम्मि सव्वत्थ । 'अन्नस्सि अन्नम्मि अन्नत्थ । एवं सर्वत्र। अत इत्येव । अमुम्मि। . सर्व, इत्यादि अकारान्त सर्वनामों के आगे आने वाले डि (प्रत्यय) के स्थान पर स्थि, म्मि और स्थ ये आदेश होते हैं। उदा.-सवस्सि" ... अन्नत्थ । इसी तरह इतर सर्वत्र ( यानी अन्य अकारान्त सर्वनामों के बारे में होता है)। अकारान्त सर्वनामों के ही ( बारे में ऐसा होता है; अन्य स्वर से अन्त होने वाले सर्वनामों के आगे डि को ऐसे आदेश नहीं होते हैं। उदा.-) अमुम्मि । न वानिदमेतदो हिं॥ ६० ॥ इदम्-एतद्-वर्जितात् सर्वादेरदन्तात् परस्य हिमादेशो वा भवति । सम्वहिं । अन्नहिं । कहिं । जहिं । तहिं । बहुलाधिकारात् किंयत्तद्भयः स्त्रियामपि । काहिं । जाहिं । ताहिं । बाहलकादेव कियत्तदोस्यमामि ( ३.३३ ) इति ङी स्ति। पक्षे सव्वस्सि सबम्मि सव्वत्थ । इत्यादि । स्त्रियां तु पक्षे। काए कोए । जाए जीए। ताए तीए । इदमेतद्वर्जनं किम् । इमस्सि एअस्सि। इदम् और एसद् (ये सर्वनाम ) छोड़ कर, अन्य सर्व इत्यादि सर्वनामों के आगे आने वाले ङि ( प्रत्यय ) को हिं ऐसा आदेश विकल्प से होता है। उदा०-सहि... ..."तहिं । बहुल का अधिकार होने से, किम्, यद्, और तद् इनके स्त्रीलिंगी रूपों में भी ( हि ऐसा आदेश होता है। उदा०-) काहिं .''ताहिं । ( इस ) बहुलत्व के ही कारण, 'यित्तदोस्यमामि' सूत्र से कहा हुआ ही प्रत्यय नहीं आता है । ( विकल्प---) पक्ष में-सबस्सि .... .."सव्वस्थ, इत्यादि । स्त्रीलिंग में मात्र ( विकल्प- ) पक्ष में :--काए ... .तीए । इदम् और एतद् ( ये सर्वनाम ) छोड़ कर ऐसा क्यों कहा १. अन्य। २. / अदस् । १. प्रा. व्या. Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयः पादः है ? ( कारण उनके बारे में हि आदेश नहीं होता है। उदा०-) इमस्ति, एमस्सि । आमो डेसिं ॥ ६१॥ सर्वादेरकारान्तात् परस्यामो डेसिमित्यादेशो वा भवति । सव्वेसि । अन्नेसिं । 'अवरेसिं । इमेसिं । 'एए सिं । जेसिं। तेसि । केसि । पक्षे। सब्वाण । अन्नाण । 'अवराण । इमाम । 'एआण । जाण । ताण । काण। बाहुलकात् स्त्रियामपि । सर्वासाम् सव्वेसिं । एवम् अन्नेसि । तेसिं। - सर्व, इत्यादि अकारान्त सर्वनामों के आगे आने बाले आम् ( प्रत्यय ) को हित् एसिं ( डेसि ) ऐसा आदेश विकल्प से होता है। उदा०-सम्वेसि... .. केसि । ( विकल्प- ) पक्ष में :-सव्वाण .. ."काण । बहलत्व के कारण स्त्रीलिंग में भी ( एसिं आदेश होता है। उदा-- ) सर्वासां, सव्वेसि; इसी तरह अन्नेसि, तेसि । किंतद्भ्यां डासः !! ६२॥ कितद्भयां परस्यामः स्थाने डास इत्यादेशो वा भवति । कास। तास । पक्षे। केसि । तेसिं । किम् और लद् इन । सर्वनामों) के आगे आने वाले आम् ( प्रत्यय ) के स्थान पर डास ( = डित् आस ) ऐसा आदेश विकल्प से आता है। उदा० कास, तास । (विकल्प-- ) पक्ष में :--केसि, तेसि ! किंयत्तयो ङसः ॥ ६३ ।। एभ्यः परस्य उसः स्थाने डास इत्यादेशो वा भवति । सः स्सः ( ३.१० ) इत्यस्यापवादः । पक्षे सोऽपि भवति । कास कस्स । जास जस्स । तास तस्स । बहुलाधिकारात् कितद्भयामाकारान्ताभ्यामपि डासादेशो वा। कस्या धनम् कास धण। तस्या धनम् तास धणं। पक्षे। काए। ताए । किम्, यद्, और तद् इनके आगे आने वाले ङस् । प्रत्यय ) के स्थान पर हास ( = डित् आस ) ऐसा आदेश विकल्प से होता है। ‘डसः स्प:' सूत्र में कहे गये हुए नियम का अपवाद प्रस्तुत नियम ) है । ( विकल्प-) पक्ष में वह (स्स भी होता है। उदा०-कास... ."तस्स । बहुल का अधिकार होने से, किम् और तद् ये सर्व रामों आकारान्त (गानी स्त्रीलिंग में ) होने पर भी, डास १. अपर। २. इदम् । ३. एतद् । Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरणे १४. आदेश विकल्प से होता है । उदा०-कस्या...''धणं । ( विकल्प - ) पक्ष में :काए; ताए। ईद्भ्यः स्सा से ॥ ६४ ॥ किमादिभ्यः ईदन्तेभ्यः परस्य सः स्थाने स्सा से इत्यादेशौ वा भवतः । टा-ङस्-डेरदादिदेवा तु इसेः ( ३.२६) इत्यस्यापवादः । पक्षे अदादयोपि । किस्सा कीसे की कीआ कीइ कीए । जिस्सा जीसे जोअ जीआ जीइ जीए । तिस्सा तोसे तीअ तीआ तीइ तीए। ईकारान्त (स्त्रीलिंगी ) किम् इत्यादि ( यानी किम्, यद्, और तद् इन) सर्वनामों के आगे उस (प्रत्यय ) के स्थान पर स्सा और से ऐसे आदेश विकल्प से होते हैं। 'टाङस्' .."उसेः' सूत्र में ( कहे हए ) नियम का अपवाद ( प्रस्तुत नियम ) है। ( विकल्प-) पक्ष में ( उस ३.२९ सूत्रानुसार ) अ, इत्यादि भी होते हैं । उदा० ---किस्सा... .."तीए । डोहे डाला इआ काले ॥ ६५ ॥ कियत्तद्भयः कालेभिधेये डे: स्थाने आहे आला इति डितौ इआ इति च आदेशा वा भवन्ति । हिस्तिम्मि त्थानामपवादः । पक्षे तेपि भवन्ति । काहे काला कइआ। जाहे जाला जइआ। ताहे ताला तइआ। ताला' जाअन्ति गुणा जाला ते सहि अए हिँ घेप्पन्ति ॥ १॥ पक्षे। कहिं कस्सि कम्मि कत्थ। समय कहने के बक्त, किम, यद् और तद् इन ( सर्वनामों ) के आगे बाने वाले ङि ( प्रत्यय ) के स्थान पर आहे और आला ऐसे ( ये दो ) डित् ( आदेश ), और इआ ऐसा आदेश, विकल्प से होता है : ( कि प्रत्यय को) हि, स्सि, म्मि, मोर स्थ ऐसे आदेश होते हैं (सूत्र ३.५९-६० देखिए ) इस नियम का अपवाद प्रस्तुत नियम है । ( विकल्प-) पक्ष में वे भी ( यानी हिं, स्सि, म्मि, और त्थ भौ) होते हैं। उदा०-काहे... .''तइआ; ताला... ."घेप्पन्ति; ( विकल्प-) पक्ष में :-- कहिं कत्थ । ङसेम्हा ॥ ६६॥ किंयत्तद्भधः परस्य ङसेः स्थाने म्हा इत्यादेशो वा भवति । कम्हा । जम्हा । तम्हा । पक्षे । काओ । जाओ। ताओ। किम्, यद्, और तद् इन ( सर्वनामों ) के आगे आने वाले सि (प्रत्यय ) १. तदा जायन्ते गुणाः यदा ते सहृदयः गृह्यन्ते ॥ १॥ Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ तृतीयः पादः के स्थान पर म्हा ऐसा आदेश विकल्प से होता है। उदा:-कम्हा... . तम्हा । ( विकल्प- ) पक्षमें :--काओ....."ताओ। तदो डोः ॥ ६७॥ तदः परस्य इसे? इत्यादेशो वा भवति । तो । तम्हा । तद् ( सर्वनाम ) के आगे आने वाले सि ( प्रत्यय ) को डो ( = डित् ओ ) ऐसा आदेश विकल्प से होता है । उदा-तो, तम्हा । किमो डिणोडीसौ ॥ ६८॥ किमः परस्य डसेडिणो डोस इत्यादेशौ वा भवतः। किणो । कोस । कम्हा । किम् ( सर्वनाम ) के आगे आने वाले ऊसि ( प्रत्यय ) को डिणो ( =डित् णो ) और डोस ( = डित् ईस ) ऐसे आदेश विकल्प से होते हैं। उदा०-किणो इदमेतत्कियत्तस्यष्टो डिणा ॥ ६९॥ एभ्यः सर्वादिभ्योकारान्तेभ्यः परस्याष्टायाः स्थाने डित् इणा इत्यादेशो वा भवति । इमिणा इमेण। एदिणा एदेण । किणा केण । जिणा जेण। तिणा तेण । इदम्, एतद्, किम्, यद्, और तद् इन अकारान्त सर्वनामों के आगे आने वाले टा ( प्रत्यय) के स्थान पर डित् इणा ऐसा आदेश विकल्प से होता है। उदा०-- इमिणा .." तेण । तदो णः स्यादौ क्वचित् ।। ७० ॥ तदः स्थाने स्यादौ परे ण आदेशो भवति क्वचित् लक्ष्यानुसारेण । णं पेच्छ। तं पश्येत्यर्थः । सोअइ अ णं रहवई। तमित्यर्थः । स्त्रियामपि । हत्थुन्नामिअ-मुही णं तिअडा। तां त्रिजटेत्यर्थः । णेण भणिअं। तेन भणितमित्यर्थः। तो णेण करयलटिठआ। तेन इत्यर्थः । भणि च णाए। तया इत्यर्थः । णेहिं कयं । तैः कृतमित्यर्थः । णाहिं कयं । ताभिः कृतमित्यर्थः । विभक्ति प्रत्यय आगे होने पर, लक्ष्य के ( साहित्य में से उदाहरण के ) अनुसार, तद् ( सर्वनाम ) के स्थान पर ण ऐसा आदेश क्वचित् होता है। उदा० ----णं १. शोचति च तं रघुपतिः । २. हस्त-उन्नामित-मुखी तां त्रिजटा । ३. तस्मात् तेन करतस्थिता। ४. भणितं च तया। Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरणे १४९ पेच्छ ( यानी ) तं पश्य ( यानी उसको देख ) ऐसा अर्थ है। सोअइ... ...रहबई ( इस वाक्य में णं यानी ) तं ( = उसको ) ऐसा अर्थ है। स्त्रीलिंग में भी (तद् सर्वनाम को ण ऐसा आदेश होता है। उदा०- ) हत्थु... .. तिअडा। ( इस वाक्य में णं तिअडा यानी ) तां त्रिजटा. ( = उसको त्रिजटा ) ऐसा अर्थ है। णेण भणिसं ( यानी ) तेन भणितं ( = उसने कहा ) ऐसा अर्थ है। तो णेण... ... ठिा ( इसमें गेण यानी ) तेन ( = उसने) ऐसा अर्थ है। भणिमंच णाए ( इस वाक्य में गाए यानी ) तथा ( = उसने ) ऐसा अर्थ है । णेहि कयं ( यानी ) तः कृतम् ( = उन्होंने किया ) ऐसा अर्थ है । णाहिं कयं ( यानी ) ताभिः कृतम् ( = उन्होंने किया ) ऐसा अर्थ है । किमः कस्त्रतसोश्च ।। ७१ ॥ किमः को भवति स्यादौ तसोश्च परयोः । को के। के के। केण । त्र। कत्थ । तस् । कओ कत्तो कदो। विभक्ति प्रत्यय और त्र तथा तस् ( प्रत्यय ) आगे होने पर, किम् (सर्वनाम ) का क होता है । उदा० ---(विभक्ति प्रत्यय आगे होने पर):-को...."केण । त्र ( प्रत्यय आगे होने पर ):-कत्थ । तस् । प्रत्यय आगे होने परः- ) को 'कदो। इदम इमः ॥ ७२ ॥ इदमः स्यादौ परे इम आदेशो भवति । इमो इमे। इमं इमे। इमेण । स्त्रियामपि । इमा। विभक्ति प्रत्यय आगे होने पर, इदम् ( सर्वनाम ) को इम आदेश होता है। उदा०-इमो...."इमेण । स्त्रीलिंग में भी (यह आदेश होता है। उदा.-) इमा । पुखियोन वायमिमिआ सौ ॥ ७३ ॥ इदम्-शब्दस्य सौ परे अयमिति पुल्लिगे इमिआ इति स्त्रीलिंगे आदेशौ वा भवतः । अहवायं' कयकज्जो। इमिआ' वाणिअ-धूआ। पक्षे। इमो। इमा। सि ( प्रत्यय ) आगे होने पर, इदम् ( सर्वनाम-) शब्द को पुलिंग में अयं ऐसा और स्त्रीलिंग में इमिश्रा ऐसा, ऐसे आदेश विकल्प से होते हैं । उदा०-अहवायं... धमा । (विकल्प-) पक्ष में:-इमो, इमा । स्सिस्सयोरत् ॥ ७४ ॥ इदमः स्सिस्स इत्येतयोः परयोरद्भवति वा। अस्सि। अस्स । पक्षे। १. अथवा भयं कृतकार्यः। २. इयं वणिक-दुहिता । Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयः पादः इमादेशोपि । इमस्सि । इमस्स । बहुलाधिकारादन्यत्रापि भवति । एहिं 'एसु । माहि । एभिः एषु आभिरित्यर्थः । fe और स ये ( प्रत्यय ) आगे होने पर, इदम् ( सर्वनाम ) का 'म' विकल्प से होता है । उदा० - अस्स, अस्स । ( विकल्प - ) पक्ष में: - ( इदम् सर्वनाम को सूत्र ३९७२ के अनुसार ) इम ऐसा आदेश भी होता है । उदा० - - इमस्सि, इमस्स । बहुलका अधिकार होने से, अन्यत्र भी ( यानी अन्य कुछ प्रत्ययों के पूर्व भी इदम् काम होता है । उदा० ) एहि, एसु और आहि ( यानी ) एभि:, एषु भोर आभिः ऐसा अर्थ होता है | १५० डेर्मेन हः ॥ ७५ ॥ इदमः कृते मादेशात् परस्य ङ: स्थाने मेन सह ह आदेशो वा भवति । इह । पक्षे । इमस्सि । इमम्मि । जिसमें इम आदेश किया हुआ है ऐसे इदम् ( सर्वनाम ) के आगे आने वाले ङि ( प्रत्यय ) के स्थान पर म के साथ 'ह' ऐसा आदेश विकल्प से होता है । उदा०इह । ( विकल्प - ) पक्षमें : - इमस्सि, इमम्मि । न त्थः ॥ ७६ ॥ इदमः परस्य ङ: स्सि म्मि त्था: ( ३.५९ ) इति प्राप्तः त्यो न भवति । इह् इमस्सि इमम्मि | ङि प्रत्यक्ष का 'हे' "स्था:' सूत्रानुसार होनेवाला तथ ऐसा आदेश इदम् सर्वनाम के आगे नहीं होता है । उदा० इह इमम्मि । --- गोम्शस्टाभिसि ॥ ७७ ॥ इदम: स्थाने अम् शस् टाभिस्सु परेषु ण आदेशो वा भवति । णं पेच्छ । णे पेच्छ । पेण णेहिं कयं । पक्षे । इमं । इमे इमेण । इमेहि । अम्, शस्, टा और भिस् प्रत्यय आगे होने पर, 'ण' (ऐसा ) मादेश विकल्प से होता है । उदा० णं पक्ष में:- इमं -- "इमेहि । इदम् ( सर्वनाम ) के स्थान पर कथं । ( विकल्प ) अमेणम् ॥ ७८ ॥ इमोमा सहितस्य स्थाने इणम् इत्यादेशो वा भवति । इणं पेच्छ । पक्षे । इमं । १. इदम् का अ होने के बाद. सूत्र ३.१५ के अनुसार, इस अ का ए होकर, एहि, ए ये रूप बने हुए हैं । Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरणे अम् ( प्रत्यय ) के साथ इदम् ( सर्वनाम ) के स्थान पर इणं ऐसा आदेश विकल्प से होता है । उदा. - इणं पेच्छ : (विकल्प -) पक्षमें:-इमं । क्लीबे स्यमेदमिणमो च ॥ ७९ ।। नपंसकलिंगे वर्तमानस्येदमः स्यम्भ्यां सहितस्य इदम् इणमो इणं च नित्यमादेशा भवन्ति । इदं इणमो इणं धणं चिट्ठइ पेच्छ वा । नपुंसक लिंग में होनेवाले इदम् ( सर्वनाम ) को, सि और अम् (प्रत्ययों) के सह, इदं, इणमो और इणं ऐसे आदेश नित्य होते हैं । उदा० . -इदं..... 'पेच्छ बा। ..मः किं ।। ८० ।। किमः क्लोबे वर्तमानस्य स्यम्भ्यां सह किं भवति । किं कुलं तुह । कि कि ते पडिहाइ। नपुंसक लिंग में होनेवाले किम् । सर्वनाम ) का, सि और अम् (प्रत्ययों) के सह, कि होता है । उदा-कि.. पडिहाइ । वेदं तदेतदो ङसाम्भ्यां सेसिमौ ॥ ८१ ॥ इदम् तद् एतद् इत्येतेषां स्थाने ङस् आम् इत्येताभ्यां सह यथासंख्यं से सिम् इत्यादेशौ वा भवतः । इदम् । से सोलं। से गूणा । अस्य शीलं गुणा वेत्यर्थः । सिं उच्छाहो । एषाम् उत्साह इत्यर्थः । तद् । से सोलं । तस्य तस्या वेत्यर्थः.। सिं गुणा । तेषां तासां वेत्यर्थः। एतद् । से महि। एतस्याहितमित्यर्थः । सिं गुणा । सिं सीलं। एतेषां गुणाः शीलं वेत्यर्थः। पक्षे। इमस्स इमेसि इमाण । तस्स तेसि ताण । एअस्स एएसि एआण । इदंतदोरामापि से आदेशं कश्चिदिच्छति । डस् और माम् ( प्रत्ययों) के सह, इदम्, तद् और एतद् ( इन सर्वनामों) के स्थान पर अनुक्रमसे से और सिम् ऐसे आदेश विकल्प से होते हैं। उदा०-इदम् (के आदेश):--ये..... 'गुणा ( यानी ) अस्य ( = इसका ) शील अथवा गुण ऐसा अर्थ है । सिं उच्छाहो ( यानी ) एषां ( = इनका ) उत्साह ऐसा अर्थ है। तद् ( के आदेश ):-से सील ( इन शब्दों में से यानी ) उसका या उसकी ऐसा अर्थ है । सिं गुणा ( इस शब्द समूह में सि यानी ) उनका (पुस्तिगी तथा स्त्रीलिंगी) ऐसा अर्थ है । सिं गुणा"... 'सोलं ( इन शब्दों में ) एतेषां ( = इनका ) गुण अथवा शील ऐसा मर्थ होता है । (विकल्प-) पक्षमें:--- इमस्स..."एआण । इदम् और तद् (सर्वनामों) १. कि कुलं तव । २. कि कि ते प्रतिभाति । Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ तृतीयः पादः का माम् ( प्रत्यय ) के सह 'से' ऐसा आदेश होता है, ऐसा कोई एक (वैयाकरण ) मानता है। वैतदो ङसेस्त्तो ताहे ॥ ८२ ।। एतदः परस्य उसेः स्थाने तो ताहे इत्येतावादेशौ वा भवतः । एत्तो एत्ताहे । पक्षे । एआओ एआउ एआहि एआहिंतो एआ। एतद सर्वनाम के आगे आनेवाले असि ( प्रत्यय ) के स्थान पर तो और ताहे ऐसे ये आदेश विकल्प से होते हैं । उदा०--एत्तो, एत्ताहे । ( विकल्प-) पक्षमें:एमआयो..."एमा। त्थे च तस्य लुक ।। ८३ ।। एतदस्त्थे परे चकारात् त्तो त्ताहे इत्येतयोश्च परयोस्तस्य लुग भवति । एत्थ । एत्तो। एत्ताहे। एतद् ( सर्वनाम ) के आगे, त्य तथा ( सूत्र में से ) चकार के कारण तो और त्ताहे ( ये आदेश ) होने पर, ( एतद् शब्द में से ) 'त' का लोप होता है । उदा०एत्थ..."एत्ताहे । एरदीतौ म्मौ वा ॥ ८४ ॥ एतद एकारस्य ड्यादेशे म्मौ परे अदीतौ वा भवतः । अयम्मि । ईयम्मि । पक्षे । एमम्मि। एतद् ( सर्वनाम ) में से एकार को डी ( = डित् ई ) आदेश होने पर, (उसके) आगे म्मि (प्रत्यय ) होने पर, उसके अ और ई विकल्प से होते हैं। उदा०अपम्मि, ईयम्मि । ( विकल्प-) पक्षमें:-एअम्मि।। वैसेणमिणमो सिना ।। ८५॥ एतदः सिना सह एस इणं इणमो इत्यादेशा वा भवन्ति। 'सब्वस वि एस गई। सव्वाण' वि पत्थिवाण एस मही। एस सहाओ च्चिअ । ससहरस्स । एस सिरं । इणं । इणमो । पक्षे । एअं । एसा । एसो। __सि ( प्रत्यय ) के सह एतद् ( सर्वनाम ) को एस, इणं और इणमो ऐसे आदेश विकल्प से होते हैं। उदा०-सव्वस्स......"इणमो। (विकल्प-) पक्षमें:एम.""एसो। १. सर्वस्य अपि एषा गतिः । २. सर्वेषां अपि पापियानां एषा मही। ३. एकः स्वभावः एव शशधरस्य । ४. शिरस् । Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरणे १५३ तदश्च तः सोक्लीवे ।। ८६ ॥ तद एतदश्च तकारस्य सौ परे भक्लोबे सो भवति। सो परिसो। सा महिला । एसो पिओ । एसा मुद्धा । सावित्येव । ते एए 'धन्ना । ताओ एआओ' महिलाओ। मक्लीब इति किम् । तं "एअं वणं ।। सि ( प्रत्यय ) आगे होने पर, तद् और एतद् ( सर्वनामों) के तकार का, नपुंसकलिंग न होते, स होता है। उदा.-सो पुरिसो...""मुद्धा। सि ( प्रत्यय ) मागे होने पर ही ( ऐसा स होता है; अन्य प्रत्यय आगे होने पर, स नहीं होता है। उदा.-) ते एए.....'महिलाओ । नपुंसकलिंग न होते, ऐसा क्यों कहा है ? (कारण ये सर्वनाम नपुंसकलिंग में हों, तो ऐसा स नहीं होता है। उदा.-तं......वणं । __ वादसो दस्य होनोदाम् ॥ ८७ ॥ अदसो दकारस्य सौ परे ह आदेशो वा भवति तस्मिश्च कृते अतः सेझैः ( ३.३ ) इत्योत्वं शेषं संस्कृतवत् ( ४.४४८) इत्यतिदेशाद् आत् (हे० २.४) इत्याप् , क्लीबे स्वरान्म से. ( ३.२५ ) इति मश्च न भवति। अह पुरिसो। अह महिला। अह वणं । 'अह मोहो परगुणलहुअयाइ । अह णे हि अएण हसइ मारुय तणओ। असावस्मान् हसतीत्यर्थः। अह कमलमुही। पक्षे । उत्तरेण मुरादेशः । अमू पुरिसो। अमू महिला । अमुं वणं। सि ( प्रत्यय ) आगे होने पर, अदस् (सर्वनाम ) के दकार को 'g' ऐसा आदेश विकल्प से होता है, और वह किए जाने के बाद, 'अतः सेडों:' सत्र के अनुसार आनेवाला ओ, 'शेषं संस्कृतवत्' सूत्र के अतिदेश से 'आत्' सूत्र से आने वाला आ (आप) प्रत्यय, और 'क्लीबे..." सेः' सूत्र से आनेवाला म, ये (तीनों भी विकार ) नहीं होते हैं। उदा० --अह.. .."बहुअयाइ। अह णे ... ...तणमो ( इस वाक्य) में वह हमको हसता है ऐसा अर्थ है । मह कमलमुही। (विकल्प-) पक्ष में :-अगले ( = ३.८८) सूत्र के अनुसार ( अदस् के दकार को ) मु ऐसा आदेश होता है । उदा.----अमू" "वणं । मुः स्यादौ ॥ ८८ ॥ अदसो दस्य स्यादौ परे मुरादेशो भवति । अमू पुरिसो । अमुणो पुरिसा। १. पुरुष। २. प्रिय । ३. ते एते धन्याः । ४. ताः एताः महिलाः ।। ५. तद् एतद् वनम् । ६. असो मोहः परगुणलघुकतया। ७. असौ अस्मान हृदयेन हसति मारुततनयः । ८. कमलमुखी । Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ तृतीयः पादः । भ्रमं वणं । अमूइं वणाई अमूणि वर्षाणि । अमू माला मालाओ । अमुणा अमूहि । ङसि । अमूओ अमूर अमूर्हितो । तो मूसुंतो । ङस् । अमुणो अमुस्स । आम् । अमूण । ङि । अमूसु । विभक्ति प्रत्यय आगे होने पर, अदस् ( सर्वनाम ) के द को मु ऐसा आदेश होता है । उदा० - अमू पुरिसो मालाओ । अमुणा अमूहि । ङसि ( प्रत्यय आगे होने पर ) :- अमू ओ अमूहितो । भ्यस् ( प्रत्यय आगे होने पर ) :अमूहितो अमृतो । ङस् ( प्रत्यय आगे होने पर ) :- अमुणो अमुस्स । आम् ( प्रत्यय मागे होने पर ) :- अमूण । ङि ( प्रत्यय आगे होने पर ) : - अमुम्मि । सुप् ( प्रत्यय आगे होने पर ) :― - अमृसु । .. अमूउ अमूओ भ्यस् । अमूहिअमुम्मि | सुप् । म्मावये वा ।। ८९ ।। अदसोन्त्यव्यञ्जनलुकि दकारान्तस्य स्थाने ङयादेशे म्मौ परतः अय इअ इत्यादेशौ वा भवतः । अयम्मि । इयम्मि । पक्षे । अमुम्मि । अदस् ( सर्वनाम ) के अन्त्य व्यञ्जन का लोप होने पर, दकारान्त ( बने हुए ) अदस् के स्थान पर, ङि ( प्रत्यय ) का आदेश रूप ऐसा म्मि ( प्रत्यय ) आगे होने पर, अयं और इअ ऐसे आदेश बिकल्प से होते हैं । उदा० – मयम्मि, इयम्मि । ( विकल्प --- ) पक्ष में : - अमुम्मि । युष्मदस्तं तुं तुवं तुह तुमं सिना ॥ ९० ॥ युष्मदः सिना सह तं तुं तुवं तुह तुमं इत्येते पचादेशा भवन्ति । तं तं तुवं तुह तुमं 'दिट्ठो । सि प्रत्यय ) के सह युष्मद् सर्वनामको तं, तुं, तुवं, तुह, और तुमं ऐसे ये पाँच आदेश होते हैं । उदा० तं तूं दिट्ठो । मे तुम्भे तुझ तुम्ह तुम्हे उहे जसा ॥ ९१ ॥ मदो जसा सह भे तुब्भे तुज्झ तुम्ह तुम्हे उन्हे इत्येते षडादेशा भवन्ति । भे तुब्भे तुज्झ तुम्ह तुम्हे उन्हे चिट्ठह । ब्भो म्हज्झो वा (३.१०४) इति वचनात् तुम्हे तुज्झे । एवं चाष्टरूप्यम् । जस् ( प्रत्यय ) के सह युष्मद् ( सर्वनाम ) मे, लुठभे, तुज्झ, तुम्ह, तुम्हे, और उन्हे ऐसे छ: आदेश होते हैं । उदा०चिट्ठह | 'भो म्हज्झौ वा ' इस वचन के कारण ( तुब्भे इस रूप में से नभ के के म्ह और ज्झ होकर ) -... १. दृष्ट । Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरणे १५५ तुम्हे और तुज्झे ( ऐसे रूप ) होते हैं। और इसी तरह ये ( कुल ) आठ रूप होते हैं। तं तुं तुमं तुवं तुह तुमे तुए अमा ॥ ९२ ॥ युष्मदोमा सह एते सप्तादेशा भवन्ति । तं तुं तुमं तुवं तुह तुमे तुए 'वन्दामि। __ अम् ( प्रत्यय ) के सह युष्मद् ( सर्वनाम ) को तं, तुं, तुम, तुवं, तुह, तुमे, तुए ( ऐसे ये ) सात आदेश होते हैं । उदा.---तं... .."वन्दामि ।। वो तुज्झ तुम्भे तुम्हे उय्हे मे शसा ।। ९३ ॥ युष्मदः शसा सह एते षडादेशा भवन्ति । वो। तुज्झ । तुब्भे । ब्भो म्हज्झौ वेति वचनात् तुम्हे तुज्झे । तुम्हे उय्हे भे पेच्छामि । शस् ( प्रत्यय ) के सह युष्मद् ( सर्वनाम ) को वो, तुज्झ, तुम्भे, तुम्हे, उरहे, और भे ( ऐसे ) ये छः आदेश होते हैं। उदा०-चो... "तुम्भे; 'भो म्ह ज्झो वा' इस वचनानुसार, तुम्हे, तुज्झे; तुम्हे"""पेच्छामि । दे दि दे ते तइ तए तुमं तुमइ तुमए तुमे तुमाइ टा ॥ ९४ ॥ युष्मदष्टा इत्यनेन सह एते एकादशादेशा भवन्ति । भे दि दे ते तइ तए तुमं तुमइ तुमए तुमे तुमाइ 'जम्पिअं। __टा (प्रत्यय) के सह युष्मद् ( सर्वनाम ) को भे, दि, दे, ते, तप, तए, तुम, तुमइ, तुमए, तुमे, और तुमाइ ( ऐसे ) ये ग्यारह आदेश होते हैं। उदा.-भे दि ... .."जंपियं। मे तुब्मेहिं उज्झेहिं उम्हेहिं तुम्हेहिं उय्हे हिं भिसा ॥९॥ युष्मदो भिसा सह एते षडादेशा भवन्ति । भे। तुन्भेहिं । भोम्हज्झौ वेति वचनात् तुम्हेहिं तुज्झेहिं । उज्झेहिं उम्हेहिं तुम्हेहि उव्हेहिं भुत्त' । एवं चाष्टरूप्यम् । भिस् (प्रत्यय ) के सह युष्मद् सर्वनाम को मे, तुभेहि, उज्झेहि, उम्हेहि, तुम्हेहिं, और उव्हेहिं ( ऐसे ) ये छः आदेश होते हैं। उदा०-भे, तुब्भेडिं; 'भो म्हसो वा' इस वचनानुसार तुम्हेहि, तुम्झेहिं; उज्झेहिं ... .."भुत्तं । एवं (कुल) मारु रूप होते हैं। १.Vबन्दु । २. जल्पित । ३. भक्त । Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयः पादः तइ-तुव-तुम-तुह-तुम्भा ङसौ ॥ ९६ ॥ युष्मदो डसौ पञ्चम्येकवचने परत एते पश्चादेशा भवन्ति । ङसेस्तु त्तोदो-दु-हि-हिन्तो-लुको यथाप्राप्तमेव । तइत्तो तुवत्तो तुमत्तो तहत्तो तुब्भत्तो। ब्भो म्हज्झौ वेति वचनात् तुम्हत्तो तुज्झत्तो। एवं दो-दु-हि-हिंतो-लुक्ष्वप्युदाहार्यम् । तत्तो इति तु त्वत्त इत्यस्य वलोपे सति । पंचमी एक वचन का सि प्रत्यय आगे होने पर, युष्मद् ( सर्वनाम ) को तइ, तुष, तुम, तुह, और तुब्भ ( ऐसे ) ये पांच आदेश होते हैं। ङसि को तो तो, दो दु, हि, हितो, और लुक ( सूत्र ३.८ देखिए ) ये आदेश हमेशा की तरह प्राप्त होते ही हैं। उदा०-तइत्तो... ..तुब्भत्तो; 'भो म्हज्झो वा' वचन के अनुसार तुम्हत्तो मोर तुज्झत्तो। इसी प्रकार, दो दु, हि, हितो और लोप इनके बारे में उदाहरण ले। 'तत्तो' यह रूप मात्र (संस्कृत में से ) त्वत्तः ( इस रूप ) में से व् का लोप होकर बना है। तुय्ह तुब्भ तहिंतो ङसिना ॥ ९७॥ युष्मदो ङसिना सहितस्य एते त्रय आदेशा भवन्ति । तुम्ह तुत्भ तहितो आगओ । ब्भो म्हज्झौ वेति वचनात् तुम्ह तुज्झ । एवं च पञ्च रूपाणि । ङसि ( प्रत्यय ) के सह युष्मद् ( सर्वनाम ) को तुम्ह, तुब्भ, और तहितो ( ऐसे ) ये तीन आदेश होते हैं। उदा०-तुम्ह.. ..'आगो । 'भो म्ह झो वा' वचन के अनुसार तुम्ह, तुज्झ । और इसी प्रकार (कुल) पांच रूप होते हैं। तुब्भतुरहो रहो म्हा भ्यसि ॥ ९८ ॥ युष्मदो भ्यसि परत एते चत्वार आदेशा भवन्ति । भ्यसस्तु यथाप्राप्तमेव । तुब्भत्तो तुम्हत्तो उव्हत्तो। उम्हत्तो ब्भो म्ह-ज्झौ वेति वचनात् । तम्हत्तो तुज्झत्तो । एवं दो-दु-हि-हिंतो-सुन्तोष्वप्युदाहायम्।। ___भ्यस् ( प्रत्यय ) आगे होने पर, युष्मद् ( सर्वनाम ) को तुब्भ, तुम्ह, उयह और उम्ह ( ऐसे ) ये चार आदेश होते हैं । भ्यस् ( प्रत्यय ) के आदेश सूत्र ३.९ देखिए ) हमेशा की तरह होते हा हैं। उदा-सुम्भत्तो'.. ... | 'भो म्हज्झौ वा' वचन के अनुसार, तुम्हत्तो, तुज्झत्तो। इसी प्रकार, दो, इ, हि हितो और सुंतो (प्रत्ययों) के बारे में उदाहरण लें । तुम Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरणे तइ-तु-ते-तुम्ह-तुह-तुहं-तुव-तुम-तुमे-तुमो तुमाइ-दि-दे-इ-ए-तुब्भोभोय्हा ङसा ॥ ९९ ॥ युष्मदो डसा षष्ठ्ये कवचनेन सहितस्य एते अष्टादशादेशा भवन्ति । तइ । तु । ते । तुम्हं । तुह । तुहं । तुव । तम । तमे। तुमो। तुमाइ । दि । दे। इ। ए। तब्भ । उब्भ । उयह धणं। ब्भो म्हज्झौ वेति वचनात् तुम्ह तज्झ, उम्ह उज्झ । एवं च द्वाविंशती रूपाणि । षष्ठी एकवचन कै उस् ( प्रत्यय ) के सह युष्मद् ( सर्वनाम ) को तइ, तु, ते, तुम्हं, तुह, तुहं, तुव, तुम, तुमे, तुमो, तुमाइ, दि, दे, इ, ए, तुब्भ, उब्भ, और उयह ( ऐसे ) ये अठारह आदेश होते हैं। उदा०-तइ...."उयह धणं । 'भो म्ह ज्झौ वा' वचन के अनुसार तुम्ह और तुज्झ, तथा उम्ह और उज्झ ( ये रूप होते हैं। और इस प्रकार ( कुल ) बाईस रूप होते हैं। त वो मे तब्भ तुभं तुब्माण तुवाण तुमाण तुहाण उम्हाण आमा ॥१०० ॥ युष्मद आमा सहितस्य एते दशादेशा भवन्ति । तु। वा। भे। तुब्भ । तब्भं । तुब्भाण । तुवाण । तुमाण । तुहाण । उम्हाण। क्त्वा स्यादेर्णस्वोर्वा ( '.२७ ) इत्यनुस्वारे तब्भाणं तुवाणं तुमाणं तुहाणं उम्हाणं। ब्भो म्हज्झौ वेति वचनात् तुम्ह तुज्झ, तुम्हं तुझं, तुम्हाण तुम्हाणं तुज्झाण तुज्झाणं, धणं । एवं च त्रयोविंशती रूपाणि । ___ आम ( प्रत्यय ) के सहित ( होने वाले ) युष्मद् (सर्वनाम ) को तु, वो भे, तुब्भ, तुभं, तुम्भाण, तुवाण, तुमाण, तुहाण, ओर उम्हाण ( ऐसे ) ये दस आदेश होते हैं। उदा०--तु वो--- .."उम्हाण । 'क्वास्यादेर्णस्बोर्वा' इस सूत्र के अनुसार, ( ण के ऊपर ) अनुस्वार आने पर, तुब्भाणं . . ."उम्हाणं ( ऐसे भी रूप होते हैं ) । 'भो म्ह ज्झौ वा वचन के अनुसार, तुम्ह'.. ''तुज्झाणं धणं ( ऐसे रूप होते हैं )। और इस प्रकार, ( कुल ) तेईस रूप होते हैं । तुमे तुमए तुमाइ तइ तए ङिना ॥ १०१।। युष्मदो डिना सप्तम्येकवचनेन सहितस्य एते पञ्चादेशा भवन्ति । तुमे तुमए तुमाइ तइ तए ठिअं। सप्तमी एक वचन के ङि ( प्रत्यय ) के सहित ( होनेवाले ) युष्मद् को तुमे, तुमए, तुमाइ, तइ, और तए ( ऐसे ) ये पांच आदेश होते हैं। उदा०--तुमे... .... तए ठि। Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय: पाद: तु तुव तुम तुह-तुमा ङौ ॥ १०२ ॥ युष्मदो ङौ परत एते पञ्चादेशा भवन्ति । ङेस्तु यथा प्राप्तमेव । तुम्मि | तुमि । तुमम्मि । तुहम्मि । तुब्भम्मि ! भो म्हन्झौ वेति वचनात् तुम्हम्मि तुज्झमि । इत्यादि । ( प्रत्यय ) आगे होने पर, युष्मद् ( सर्वनाम ) को तु, तुम्भ ( ऐसे ) ये पाँच आदेश होते हैं । ङि ( प्रत्यय ) के देखिए ) हमेशा की तरह होते ही हैं । उदा तुमम्मि झो बा' इस वचन के अनुसार, तुम्हम्मि और तुज्झम्मि; इत्यादि । सुपि ।। १०३ ।। युष्मदः सुपि परतः तु तुव - तुम तुह-तुम्भा भवन्ति । तुसु । तुवेसु । तुमेसु । तुहेसु । तुब्भेसु । ब्भो म्हज्झौ वेति वचनात् तुम्हे तुज्झेसु । केचित्तु सुप्येत्वविकल्पमिच्छन्ति । तन्मते तुवसु तुमसु तुहसु तुब्भसु तुम्हस् तुज्झस् । तुब्भस्यात्वमपीच्छत्यन्यः । तुम्भासु तुम्हासु तुझासु । सुप प्रत्यय ) आगे होने पर, युष्मद् ( सर्वनाम ) को सु, लुख, तुम, तुह मौर तुम ( ऐसे ये पांच आदेश ) होते हैं। उदा० तुसु तुब्भेसु । 'भो म्हज्झो वा' वचन के अनुसार, तुम्हेसु और तुज्झेसु ( ये रूप होते हैं पर ( उसके पिछले अ का ) ए विकल्प से होता है, हैं; उनके मतानुसार, तुवसु तुज्झसु ( ऐसे रूप ) । सुप् ( प्रत्यय ) आगे होने ऐसा कुछ ( वैयाकरण ) मानते होंगे ) ( सु प्रत्यय के पूर्व ) तुब्भ में ( अन्त्य अ का ) आ होता है, ऐसा दूसरा कोई ( वैयाकरण ) मानता है; ( उसके मतानुसार ) तुब्भासु "तुज्झासु ( ऐसे रूप होंगे ) । भो म्हज्झौ वा ॥ युष्मदादेशेषु यो द्विरुक्तो भस्तस्य म्ह ज्झ १०४ ॥ इत्येतावादेशौ वा भवतः । पक्षे १५८ स एवास्ते तथैव चोदाहृतम् = ब्भ ) कहा युष्मद् ( सर्वनाम ) को ( कहे हुए) आदेशों में से जो द्विरुक्त भ ( हुआ है, उसको म्ह और ज्झ ऐसे ये (दो) आदेश विकल्प से होते हैं । ( विकल्प - ) पक्ष में: -- वह (भ) वैसा ही रहता है । और तदनुसार (ऊपर) उदाहरण दिये हैं । अस्मदो म्मि अम्मि अम्हि हं अहं अहयं सिना ॥ १०५ ॥ अस्मदः सिना सह एते षडादेशा भवन्ति । अज्ज म्मि हासिआ ' मामि तेण । उन्नम न अम्मि कुविआ । अम्हि करेमि । जेण हं विद्वा । १. अद्य अहं हासिता मामि ) तेन । ३. अहं करोमि । तत्र, तुम, तुह, और आदेश ( सू० ३. तुभम्मि । 'ब्भो म्ह २. उन्नम न अहं कुपिता । ४. येन अहं वृद्धा ( विद्या ) । Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरणे किं 'पहुट्ठम् अहं । अहयं कयपणामो | सि ( प्रत्यय ) के सह अस्मद् ( सर्वनाम ) को म्मि, अम्मि, अम्हि, हं, अहं और अयं (ऐसे ) ये छ: आदेश होते हैं । उदा० - अज्ज म्मि कयपणामी । अम्ह अम्हे आम्ही मो वयं मे जसा ॥ १०६ ॥ अस्मदो जसा सह एते षडादेशा भवन्ति । अम्ह अम्हे अम्हो मो वयं भे भणामो । ९५९ जस् ( प्रत्यय ) के सह अस्मद् को अम्ह, अम्हे, अम्हो, मो, वयं और मे ( ऐसे ) ये छः आदेश होते हैं । उदा०--: - अम्ह भे भणामो । णे णं मि अम्मि अम्ह मम्ह मं ममं मिमं अहं अमा ॥ १०७ ॥ अस्मदोमा सह एते दशादेशा भवन्ति । ममं मिमं अहं पेच्छ । अम् (प्रत्यय) के सह अस्मद् ( सर्वनाम ) को मं; ममं, मिमं और अहं ( ऐसे ये ) आदेश होते हैं । अम्हे अम्हो अम्ह णे शसा ॥ णे णं मि अम्मि अम्ह मम्ह मं णे णं, मि, अम्मि, अम्ह, मम्ह, उदा० - अहं पेच्छ । १०८ ॥ अस्मदः शसा सह एते चत्वार आदेशा भवन्ति । अम्हे अम्हो अम्ह णे पेच्छ । शस् ( प्रत्यय ) के सह अस्मद् (सर्वनाम) की अम्हे अम्हो, अम्ह और णे (ऐसे ) ये चार आदेश होते । उदा - — अम्हे' णे पेच्छ । मि मे ममं ममए ममाइ मइ मए मयाइ खे टा ।। १०९ ।। अस्मदष्टा सह एते नवादेशा भवन्ति । मि मे ममं ममए ममाइ मइ मए मयाइ कयं । टा ( प्रत्यय ) के सह अस्मद् ( सर्वनाम ) को मि, मे, ममं ममए, ममाइ, मइ, मए, मगाइ और णे ( ऐसे ) ये नौ आदेश होते हैं । उदा० -मि मेणे कयं । अम्हेहि अम्हाहि अम्ह अम्हे से भिसा ।। ११० ॥ अस्मदो भिसा सह एते पञ्चादेशा भवन्ति । अम्हेहि अम्हाहि अम्ह अम्हे कथं । भिस् (प्रत्यय) के सह अस्मद् को अम्हेहि, अम्हाहि, अम्ह, अम्हे और णे (ऐसे ) ये पाँच बादेश होते हैं । उदा०- अम्हेहि • "णे कयं । १. कि प्रमृष्टा अस्मि अहम् | २. अहं कृतप्रणामः । Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयः पादः मइ-मम-मह-मज्झा ङसौ ॥ १११ ॥ अस्मदो ङसौ पञ्चम्येकवचने परत एते चत्वार आदेशा भवन्ति । इसेस्तु यथाप्राप्तमेव । मइत्तो ममत्तो महत्तो मज्झत्तो आगओ। मत्तो इति तु मत्त इत्यस्य । एवं दो-दु-हि हिंतो लुक्ष्वप्युदाहार्यम् । पंचमी एकवचन का ङसि ( प्रत्यय ) आगे होने पर, अस्मद् ( सर्वनाम ) को मइ, मम, मह और मज्झ (ऐसे) ये चार आदेश होते हैं । ङसि के आदेश ( सूत्र ३८ देखिए ) हमेशा की तरह होते हैं । उदा०-मइत्तो..." आगओ । मत्तो यह रूप मात्र ( संस्कृत में से ) मत्तः इस ( रूप ) से आया है। इसी प्रकार दो, दु, हि, हिंतो और मुक इनके बारे में उदाहरण लें। ममाम्हौ भ्यसि ॥ ११२ ।। अस्मदो भ्यसि परतो मम अम्ह इत्यादेशौ भवतः । भ्यसस्तु यथाप्राप्तम् । ममत्तो अम्हत्तो। ममाहितो अम्हाहिंतो। ममासुंतो अम्हासुंतो। ममेराँतो अम्हेसंतो। ____ म्यस् ( प्रत्यय ) आगे होने पर, अस्मद् । सर्वनाम ) को मम ओर अम्ह ऐसे (दो) आदेश होते हैं। भ्यस् के आदेश हमेशा की तरह होते हैं ( सूत्र ३.९ देखिए )। उदा.-ममत्तो... . 'अम्हे संतो। मे मइ मम मह महं मज्झ मज्झं अम्ह अम्हं ङसा ॥ ११३ ॥ अस्मदो ङसा षष्ट्य कवचनेन सहितस्य एते नवादेशा भवन्ति । मे मइ मम मह महं मज्झ मज्झं अम्ह अम्हं धणं । षष्ठी एक वचन के उस् ( प्रत्यय ) से सहित ( होने वाले ) अस्मद् को मे, मइ, मम, मह, महं, मण्झ, मज्झं, अम्ह, और अम्हं ( ऐसे ) ये नौ आदेश होते हैं । उदा.-मे... .."अम्हं धणं । __णे णो मज्झ अम्ह अम्हं अम्हे अम्हो अम्हाण ममाण महाण मज्झाण आमा ।। ११४ ॥ अस्मद आमा सहितस्य एते एकादशादेशा भवन्ति । णे णो मज्झ अम्हं अम्हे अम्हो अम्हाण ममाण महाण मज्झाण धणं। क्त्वास्यादेर्ण स्वोर्वा ( १.२७) इत्यनुस्वारे । अम्हाणं ममाणं महाणं मज्झाणं। एवं च पञ्चदश रूपाणि । ____ आम् ( प्रत्यय ) से सहित ( होनेवाले ) अस्मद् को णे, णो, मज्झ, अम्ह, अम्हं, अम्हे, अम्हो, अम्हाण, ममाण, महाण, और मज्झाण ( ऐसे ) ये ग्यारह आदेश होते हैं । उदा.-णे... .. 'मज्झाण धणं । 'क्त्वास्यादेर्ण स्वोर्वा' सूत्र के अनुसार, ( ण के Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरणे ऊपर ) अनुस्वार आने पर, अम्हाणं मज्झाणं ( ऐसे रूप होते हैं ) । और इसी प्रकार ( कुल ) पन्द्रह रूप होते हैं । मि मह ममाइ मए मे ङिना ॥ ११५ ॥ अस्मदो ङिना सहितस्य एते पचादेशा भवन्ति । मि मइ ममाइ मए मे ठिभं । १६१ ङि ( प्रत्यय ) से सहित ( होने वाले ) अस्मद् को मि, मइ, ममाइ, मए, और मे ( ऐसे ) ये पाँच आदेश होते हैं । उदा०-- मि मे ठिअं । अम्ह-मम-मह- मज्झा ङौ ॥ ११६ ॥ अस्मदो ङौ परत एते चत्वार आदेशा भवन्ति । ङेस्तु यथाप्राप्तम् । अहम्मि ममम्मि महम्मि मज्झम्मि ठिअं । ङि ( प्रत्यय ) आगे होने पर, अस्मद् ( सर्वनाम ) को अम्ह, मम, मह, और मज्झ (ऐसे ) ये चार आदेश होते हैं । डिप्रत्यय के आदेश ( सूत्र ३.११ देखिए ) हमेशा की तरह होते हैं । उदा० अम्हम्मिमज्झाम्मि ठिअं । सुपि ॥ ११७ ॥ अस्मदः सुपि परे अम्हादयश्चत्वार् आदेशा भवन्ति । अम्हेसु समेसु महेसु मज्झे । एत्व - विकल्प मते तु । अम्हसु ममसु महसु मज्झसु । अम्हस्यात्वमपीच्छत्यन्यः | अम्हासु । सुप ' प्रत्यय ) आगे होने पर, अस्मद् ( सर्वनाम को अह इत्यादि ( यानी अम्ह, मम, मह और मज्झ ऐसे ये ) चार आदेश होते हैं । उदा० - मम्हेसु मझें । ( सुप्रत्यय के पूर्व पिछले अ का ) ए विकल्प से होता है इस मत के अनुसार, अम्हसु ं. मज्झसु ( ऐसे रूप होंगे ) | ( सु प्रत्यय के पूर्व ) 'अम्ह' में ( अ का ) आ होता है ऐसा दूसरा कोई ( वैयाकरण ) मानता है; तदनुसार अम्हासु । ऐसा रूप होगा ) । त्रस्ती तृतीयादौ ॥ ११८ ॥ त्रः स्थाने तो इत्यादेशो भवति तृतीयादौ । तीहिं कथं । तीहितो आगओ । तिन्हं धणं । तीसु ठिअं । तृतीया इत्यादि । यानी तृतीया से सप्तमीतक ) विभक्तियों में त्रि ( इस संख्यावाचक शब्द ) के स्थान पर तो ऐसा आदेश होता है । उदा० तीहि तोसु ठिभं । ११ प्रा० व्या० Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ तृतीयः पादः द्वेदों वे ॥ ११६ ॥ द्विशब्दस्य तृतीयादौ दो वे इत्यादेशौ भवतः । दोहि वेहि कयं । दोहितो वैहितो आगओ। दोण्हं वेण्हं धणं । दोसु वेसु ठिअं। तृतीया इत्यादि ( यानी तृतीया से सप्तमीतक ) विभक्तियों में वि ( इस संख्यावाचक ) शब्द को दो और वे ऐसे आदेश होते हैं। उदा०-दोहि " .. वेसु ठिअं। दुवे दोणि वेणि च जस-शसा ॥१२०॥ जस्-शस्भ्यां सहितस्य वेः स्थाने दुवे दोणि वेण्णि इत्येते दो वे इत्येतो च आदेशा भवन्ति । दुवे दोण्णि वेण्णि दो वे ठिआ पेच्छा वा। हस्वः संयोगे (१.८४) इति ह्रस्वत्वे दुणि विण्णि। जस् और शस् ( इस प्रत्ययों ) से सहित ( होने वाले ) दिव ( शब्द ) के स्थान पर दुवे, दोण्णि, और वेण्णि ऐसे ये ( तोन ) तथा दो और वे ऐसे ये ( दो ), ऐसे आदेश होते हैं । उदा०-दुवे... .. पेच्छ वा । 'ह्रस्वः संयोगे' सूत्र के अनुसार, ( स्वर का ) ह्रस्वत्व आने पर, दुण्णि और विणि ( ऐसे रूप होते हैं)। त्रस्तिण्णिः ।। १२१ ॥ जस्-शस्भ्यां सहितस्य त्रेः स्थाने तिणि इत्यादेशो भवति । तिण्णि ठिा पेच्छ वा। जस् और शस् ( प्रत्ययों ) से सहित ( होनेवाले ) त्रि ( शब्द ) के स्थान पर तिणि ऐसा आदेश होता है । उदा०--तिण्णि .. .. 'पेच्छ वा । चतुरश्वत्तारो चउरो चत्तारि ॥ १२२ ॥ चतुर्-शब्दस्य जस्-शस्भ्यां सह चत्तारो चउरो चत्तारि इत्येते आदेशा भवन्ति । चत्तारो चउरो चत्तारि चिट्ठन्ति पेच्छ वा। जस् और शस् ( प्रत्ययों) के सह चतुर ( इस संख्यावाचक ) शब्द को चत्तारो, चउरो और चत्तारि ऐसे ये आदेश होते हैं। उदा०---चत्तारो... ... पेच्छ वा। संख्याया आमो छह ण्हं ।। १२३ ।। संख्याशब्दात् परस्यामो ण्ह ण्हं इत्यादेशौ भवतः । दोण्ह । तिण्ह । चउण्ह। Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतम्याकरणे पंचण्ह' । छह । सत्तण्ह । अट्ठण्ह । एवम् । दोण्हं । तिण्हं । चउण्हं । पंचण्हं। छण्हं । सत्तण्हं । अठण्हं । नवण्हं । 'दसण्हं । 'पण्णरसण्हं । दिवसाणं । अट्ठार सण्हं समणसाहस्सीणं । कतीमाम् कईण्हं । बहुलाधिकारात् विंशत्यादेर्न भवति । ___ संस्थावाचक शब्द के आगे आनेवाले आम् ( प्रत्यय ) को ण और हं ऐसे बादेश होते हैं । उदा०-दोण्ह... अहह । इसी प्रकार :-दोण्हं... .. कइण्डं ( ऐसे रूप होते हैं )। बहुल का अधिकार होने से, विशति इत्यादि ( संस्थावाचक ) शब्दों के बारे में ( ह और हं ये आदेश ) नहीं होते हैं। शेषेदन्तवत् ॥ १२४ ॥ उक्तादन्यः शेषस्तत्र स्यादिविधिरदन्तवदतिदिश्यते । येष्वाकाराद्यन्तेषु पूर्व कार्याणि मोक्तानि तेषु जसशसोलक ( ३.४ ) इत्यादीनि अदन्ताधिकारविहितानि कार्याणि भवन्तीत्यर्थः । तत्र जस्शसोलुक इत्येतत्-कार्यातिदेशः । माला गिरी गुरू सही "वहू रेहन्ति पेच्छ वा । अमोऽस्य (३.५) इत्येतत्कातिदेशः। गिरि गुरु सहिं वहुं' गामणि खलपं पेच्छ । टा आमोणः ( ३६) इत्येतत्कातिदेशः । हाहाण कयं । मालाण गिरीण गुरूण सहीण वहूण धणं। टायास्तु । टोणा ( ३.२४) । टाडसरदादिद्वा तु डसेः ( ३२६ ) इति विधिक्तः । भिसो हि हिँ हिं ( ३७ ) इत्येतत्कातिदेशः। मालाहि गिरीहि गुरूहि सहीहि वहूहि कयं । एवं सानुनासिकानुस्वारयोरपि । इसेस् तोदोदुहिहिन्तो लुकः ( ३८ ) इत्येतत्कार्यातिदेशः । मालाओ मालाउ मालाहिन्तो। बुद्धीओ बुद्धीउ बुद्धीहितो । घेणू ओ घेणउ घेणहितो आगओ। हिलको तु प्रतिषेत्स्येते ( ३.१२७-१२६ )। भ्यसस् त्तो दो दु हि हितो संतो ( ३.६ ) इत्येतत्कार्यातिदेशः । मालाहिंतो मालासंती। हिस्तु निषेत्स्यते ( ३.१२७ )। एवं गिरीहिंतो इत्यादि । ङस: स्सः (३.१०) इत्येतत्कार्यातिदेशः । गिरिस्स । गुरुस्स। दहिस्स । “मुहस्स । स्त्रियां तु टाङसङः ( ३.२६ ) इत्यायुक्तम् । डे म्मि डे: ( ३.११) इत्येतत्कातिदेशः । गिरिम्मि। गुरुम्मि। दहिम्म । महुम्मि । डेस्तु निषेत्स्यते ( ३१२८ । स्त्रियां तु टाङसड़ेः ( ३.२६) इत्यायुक्तम् । जसशस्ङसित्तोदोद्वामि दीर्घः ( ३.१२) इत्येतत्कातिदेशः । गिरी गुरू चिट्ठन्ति । गिरीओ गुरूओ आगओ। गिरीण गुरूग धणं । भ्यसि वा ( ३.१३ ) इत्येतत्कार्यातिदेशो न प्रवर्तते। इदुतो दीर्घः ( ३.१६ ) इति नित्यं १. क्रम से :-पंचन् । षट् । सप्तन् । अष्टन् । २. नवम् । ३. दशन् । ४. पंचदशानां दिवसानाम् । ५. अष्टादश । ६. श्रमणसाहस्री। ७. वधू । ८. मधु । Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ तृतीयः पादः विधानात् । टाणशस्येत् (३.१४) भिसभ्यस्सुपि ( ३.१५ । इत्येतत्कार्यातिदेशस्तु निषेत्स्यते (३.१२६)। ( अब तक ) कहा हुआ ( रूप विचार ) छोड़ कर ( उर्वरित ) अन्य ( रूपविचार यानी ) शेष; उसके बारे में अकारान्त शब्द के समान विभक्तिरूपों को विचार है, ऐसा अतिदेश ( इस सूत्र से ) किया जाता है। ( यानी ) आकार इत्यादि (स्वरों) से अन्त होने वाले शब्दों के बारे में ( जो रूप इत्यादि ) कार्य अब तक नहीं कहे हुए हैं, उन शब्दों के बारे में 'जस्शसोलक' इत्यादि अकारान्त शब्दाधिकार में कहे हुए कार्य होते है, ऐसा अर्थ है। ( स्पष्ट शब्दों में ऐसा कहा जा सकता है :-) उनमें से पहले, 'जसशसोलुक' सूत्र के कार्य का बतिदेश ऐसा होता है :-- माला . . ." "पेच्छ वा । 'अमोऽस्य' सूत्र के कार्य का अतिदेश ( ऐसा :--- ) गिरि ... . "पेच्छ । 'टा आमोणः' सत्र के कार्य का अतिदेश ( ऐसा होता हैं :--- ) हाहाण कम; मालाण... ..'वहण धण; टा ( प्रत्यय ) के बारे में मात्र, 'टो गा' और 'टाङस्' .."डसे' एसा विधि ( = नियम ) कहा हुआ है । 'भिसो...' हि' सूत्र के कार्य का अतिदेश ( एसा :--- ) मालाहि... ... ... ..'यहूहि कयं; इसी प्रकार सानुनासिक और सानुस्वार 'हिके बारे में ( अतिदेश होता है)। 'उसेस्.. 'लुकः' सूत्र के कार्य का अतिदेश ( ऐसा होता है :-) मालाओ " धेहितो आगओ; ( इनमें से ) ह्रि और लुक इनका निषेध आगे ( सूत्र ३.१२६-१२७) किया जाएगा । 'भ्यस्... ' 'सुन्तो' सूत्र के कार्य का अतिदेश ( ऐसा :---- ) मालाहिंतो, मालासंतो; हि प्रत्यय का निषेध आगे (सूत्र ३.१२७ में) किया जाएगा; इसी प्रकार गिरीहितो, इत्यादि ( रूप होते हैं )। 'उसः स्स:' सूत्र के कार्य का अतिदेश ( ऐसाः -- ) गिरिस्स' . . 'महुस्स; स्त्रीलिंगी शब्दों के बारे में मात्र 'टङस् ः' इत्यादि नियम कहा हुआ है : 'डे मि डे' सूत के कार्य का अतिदेश (ऐसा होता है :-- ) गिरिम्मि... ..'महुम्मि; परन्तु डे ( प्रत्यय । के बारे में मात्र आगे ( सूत्र ३.१२८ में ) निषेध किया जाएगा; स्त्रीलिंगी शब्दों के बारे में मात्र 'टाङस् :' इत्यादि नियम कहा है । 'जस्... .. दीर्घः' सूत्र के कार्य का अतिदेश (ऐसा):--गिरी ."गुरूणधणं 'भ्यसि वा' सूत्र के कार्य का अतिदेश ( मात्र) नहीं लागू होता है; कारण 'इदृतो दीर्घः' ऐसा नित्य नियम कहा हुआ है । 'टाण शस्येत्' और 'भ्यस्सुपि' इन सूत्रों के कार्यों के अतिदेश का निषेध आगे ( सूत्र ३.१२९ में ) किया जाएगा। न दी? णो ॥१२५।. इदुदन्तयोरर्थात् जस्शसङस्यादेशे णो इत्यस्मिन् परतो दी? न भवति ।। अग्गिणो वाउणो । णो इति किम् । अग्गो अग्गीओ। Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरणे १६५ इकारान्त और उकारान्त शब्दों के आगे, अर्थात् जस् और ङसि ( इन प्रत्ययों) को णो आदेश होने पर, ( उनका अन्त्य स्वर ) दीर्घ नहीं होता है। उदा०अग्गिणो, वाउणो। ( आगे ) णो आदेश होने पर ऐसा क्यों कहा है ? ( कारण आगे णो आदेश न हो, तो अन्त्य स्वर दीर्घ होता है। उदा०-) अग्गी, अग्गीमो । ङसेलक ॥ १२६ ॥ आकारान्तादिभ्योदन्तवत् प्राप्तौ ङसेलग न भवति। मालत्तो मालाओ मालाउ मालाहितो आगओ। एवम् ! अग्गीओ वाऊओ इत्यादि । आकारान्त इत्यादि शब्दों के आगे, अकारान्त शब्द के समान प्राप्त हुए सि ( प्रत्यय ) का लोप नहीं होता है। उदा:--मालत्तो' ... आगओ। इसी प्रकार अग्गीओ, वाऊओ, इत्यादि ( रूप होते हैं )। भ्यसश्च हिः ॥ १२७ ।। आकारान्तादिभ्योदन्तवत् प्राप्तो भ्यसो इसेश्च हिर्न भवति । मालाहितो मालासुतो। एवं अग्गीहिंतो इत्यादि । मालाओ मालाउ मालाहिंतो। एवं अग्गीओ इत्यादि। ___ आकारान्त इत्यादि शब्दों के आगे, अकारान्त शब्द के समान प्राप्त हुए म्यस् और ङसि ( इन प्रत्ययों) का हि नहीं होता है। उदा. ~मालाहितो, मालासंतो। इसी प्रकार अग्गीहितो, इत्यादि; मालाओ .. .."मालाहितो; इसी प्रकार अग्गीओ इत्यादि ( रूप होते हैं )। हुः ॥ १२८ ॥ आकारान्तादिभ्योदन्तवत् प्राप्तो हुर्डे न भवति । अग्गिम्मि। वाउम्मि । दहिम्म। महुम्मि। आकारान्त इत्यादि शब्दों के आगे, अकारान्त शब्द के समान प्राप्त होने वाले कि ( प्रत्यय ) का हे नही होता है । उदा० --- अग्गिम्मि... :: महुम्मि । ____एत् ॥१२६ ॥ आकारान्तादीनामर्थात् टाशभिसभ्यस्सुप्सु परतोदन्तवद् एत्वं न भवति । द्वाहाण कयं । मालाओ पेच्छ । मालाहि कयं । मालाहिंतो मालासुतो आगओ। माकासु ठिअं । एवं अग्गिणो वारणो इत्यादि । ____टा, शस्, भिस्, और सुप् ये ( प्रत्यय ) अर्थात् आकारान्त इत्यादि शब्दों के मागे होने पर, अकारान्त शब्द के समान, उनके ( अन्त्य स्वर का ) ए नहीं होता Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयः पादः है। उदा.-हाहाण... ..'मालासु ठि। इसी प्रकार अग्गिणो, वाउणो इत्यादि ( रूप होते हैं )। द्विवचनस्य बहुवचनम् ।। १३० ॥ सर्वासां विभक्तीनां स्यादीनां त्यादीनां च द्विवचनस्य स्थाने बहुवचनं भवति । दोण्णि 'कुणन्ति । दुवे 'कुगन्ति । दोहिं दोहितो दोसुतो दोसु । हत्था । पाया। थणया । नयणा। स्यादि तथा त्यादि ( इन ) सब विभक्तियों के बारे में, द्विवचन के स्थान पर बहुवचन माता है । उदा०-दोण्णि... ..'नयणा। चतुर्थ्याः षष्ठी ॥ १३१ ।। चतुर्थ्याः स्थाने षष्ठी भवति । मुणिस्स मुणीण देइ । 'नमो देवस्स देवाण । चतुर्थी विभक्ति के स्थान पर षष्ठी विभक्ति भाती है। उदा.-~-मुणिस्स..... देवाण । तादर्या ॥ १३२ ॥ तादथ्यं विहितस्य डेश्चतुर्थंकवचनस्य स्थाने षष्ठी वा भवति । देवस्स देवाय । देवार्थमित्यर्थः । डेरिति किम् । देवाण । 'उसके लिए' ( तादर्थ्य ) इस अर्थ में कहे हुए के इस चतुर्षी एकवचनी प्रत्यय के स्थान पर षष्ठी (विभक्ति ) विकल्प से आती है। उदा०-देवस्स, देवाय (यानी ) देव के लिए ऐसा अर्थ है । डे ( प्रत्यय ) के ( स्थान पर ) ऐसा क्यों कहा है ? ( कारण चतुर्थी बहुवचनी प्रत्यय के स्थान पर ऐसा विकल्प नही होता है। उदा०-) देवाण । वधाड्डाइश्च वा ॥ १३३ ।। वधशब्दात् परस्य तादर्थ्यडिद् आइ षष्ठी च वा भवति । वहाइ वहस्स वहाय । वधार्थमित्यर्थः । बध शब्द के आगे, तादध्यं ( दिखानेवाले ) के प्रत्यय के रित् आइ भीर षष्ठी विकल्प से होते हैं। उदा०-वहाइवहाय ( यानी ) वध के लिए ऐसा अर्थ है। १. धातु का आदेश कुण ( सूत्र ४.६५ देखिए )। २. क्रम से:-हस्त । पाद । स्तन-क । नयन । ३. मुनि । ५. नमः । Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरण १६७ क्वचिद् द्वितीयादेः ।। १३४ ॥ द्वितीयादीनां विभक्तीनां स्थाने षष्ठी भवति क्वचित् । सीमाधरस्स' वन्दे । तिस्सा मुहस्स भरिमो। अत्र द्वितीयायाः षष्ठी। धणस्स लद्धो। धनेन लब्ध इत्यर्थः । चिरस्स मुक्का । चिरेण मुक्तेत्यर्थः। तेसिमे अमणा इण्णं । तैरेतदनाचरितम् । अत्र तृतीयायाः। चोरस्स बीहइ। चोराद् बिभेतीत्यर्थः । इ अराई जाण लहु अक्खराइं पायन्ति मिल्ल सहिआण। पादान्तेन सहितेभ्य इतराणीति । अत्र पंचम्याः पिट्ठीए केसभारो । अत्र सप्तम्याः। द्वितीया, इत्यादि विभक्तियों के स्थान पर षष्ठी ( विभक्ति ) क्वचित् आती है । उदा.-सीमाधरस्स...... भरिमो; यहाँ द्वितीया के स्थान पर षष्ठी आई है। धणस्स लद्धो ( यानी ) धन से प्राप्त ऐसा अर्थ है; चिरस्समुक्का ( यानी ) चिर काल के बाद छुटी हुई ऐसा अर्थ है; तेसि... "इण्णं ( यानी ) वे यह ( बात ) आचरण में नहीं लाये ( ऐसा अर्थ है ); यहाँ तृतीया के स्थान पर (षष्टी विभक्ति आई है)। चोरस्स बीहइ ( यानी ) चोर से डरता है ऐसा अर्थ है, इअराई...'सहिमाण ( इस वाक्य ) में पादान्त से सहित होनेवाले से भिन्न ( ऐसा अर्थ है ), यहाँ पंचमी (विभक्ति ) के स्थान पर ( षष्टी विभक्ति आई है )। पिट्ठीए केस भारो; यहाँ सप्तमी के ( स्थान षष्ठी आई है)। द्वितीयातीययोः सप्तमी ।। १३५ ॥ द्वितीयातृतीययोः स्थाने क्वचित् सप्तमी भवति । गामे वसामि । 'नयरे न 'जामि । अत्र द्वितीयायाः। मइ वेविरीए मलिआई। तिस तेसु अलंकिआ पुहवी । अत्र तृतीयायाः।। द्वितीया और तृतीया इन (विभक्तियों) के स्थान पर क्वचित् सप्तमी (विभक्ति) माती है। उदा.-गामे ....'जामि; यहां द्वितीया के (स्थान पर सप्तमी आई है)। मह... 'पुहवी; यहाँ तृतीया के ( स्थान पर सप्तमी आई है)। वश्वभ्यास्तृतीया च ।। १३६ ॥ पञ्चम्याः स्थाने क्वचित् तृतीया सप्तम्यौ भवतः । चोरेण बीहइ । चोराद् १. सीमाधरं वन्दे । २. तस्याः मुखं स्मरामः। ३. लघु-असर। ४. षष्ठे केशभारः। ५.ग्राम । ६. वस् । ७. नगर । ८. या (=जाना)। ९. मया बेपनशीलया मृदितानि । १०. त्रिभिः तैः अलंकृता पृथ्वी । Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ तृतीयः पादः विभेतीत्यर्थः । अन्ते उरे रमि उमागओ राया'। अन्तः पुराद् रन्त्वागत इत्यर्थः। पंचमी (विभक्ति) के स्थान पर क्वचित् तृतीया और सप्तमी (विभक्तियां ) आती है । उदा०--चोरेण बीहइ (यानी) चोर से डरता है ऐसा अर्थ है । अंतेउरे" राणा (बानी ) अंतःपुर से रमकर राजा आया ऐसा अर्थ है । सप्तम्या द्वितीया ॥ १३७ ॥ सप्तम्याः स्थाने क्वचिद् द्वितीया भवति । विज्जुज्जोयं 'भरइ रत्ति। आर्षे तृतीयापि दृश्यते । तेणं कालेणं तेणं समएणं । तस्मिन् काले तस्मिन् समये इत्यर्थः । प्रथमाया अपि द्वितीया दृश्यते । चउवीसं पि जिणवरा। चतुर्विशति रपि जिनवरा इत्यर्थः। सप्तमी (विभक्ति ) के स्थान पर क्वचित् द्वितीया आती है । उदा.---विजु'' रति । आर्ष प्राकृत में (सप्तमी के स्थान पर ) तृतीया विभक्ति भी दिखाई देती है । उदा.- तेणं... समएणं ( यानी ) उस काल में उस समय में ऐसा अर्थ है । प्रथमा (विभक्ति) के स्थान पर भी ( क्वचित् ) द्वितीया दिखाई देती है । उदा०-चरवीस पि जिणवरा (यानी) चौबिस भी जिन श्रेष्ठ ऐसा अर्थ है । क्यडोर्यलुक् ।। १३८ ॥ क्यङन्तस्य क्यअन्तस्य वा सम्बन्धिनो यस्य लुग् भवति । गरुआ गरुआमइ । अगुरुर्गुरुभवति गुरुरिवाचरति वेत्यर्थः । क्यङ् क्यङ् । दमदमा दमदमाअइ । लोहिआइ लोहि आअइ । क्या तथा क्यञ्ज ( इन प्रत्ययों) से अन्त होनेवाले शब्दो से संबंधित होनेवाले य का लोप विकल्प से होता है। उदा०-गरुभाइ, गरुआअह (यामी ) गुरु न हों गुरु होता है अथवा गुरु के समान आचार करता है, ऐसा अर्थ है । क्यक्ष (प्रत्ययान बन्द के बारे में ):-- दमदमाइ... - लोहिमाअइ । त्यादीनामायत्रयस्याद्यस्येचे चौ ॥ १३९ ॥ त्यादीनां विभक्तीनां परस्मैपदानामात्मनेपदानां च सम्बन्धिनः प्रथम त्रयस्य यदाद्यं वचनं तस्य स्थाने इच एच इत्येतावदेशौ भवतः । हसइ हसए वेवइ वेवए । चकारौ इचे चः (४.१३८ ) इत्यत्र विशेषणायौं । १. राजन् । २. विद्युद्योतं स्मरति रोत्री। 1. क्रमसे:--हस् । वेप् । Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरण परस्मैपद और आत्मनेपद इन त्यादि विभक्तियों से संबंधित होनेवाले प्रथमजय का जो आद्य वचन, उसके स्थान पर इच् और एच् ऐसे ये ( दो ) आदेश होते हैं । उदा.-हसइ.... 'वेवए। ( इच् और एच् में से ) दो चकार 'इचेचः' इस सूत्र में विशेषणार्थी इस स्वरूप में होते हैं । द्वितीयस्य सि से ॥१४॥ त्यादीनां परस्मैपदानामात्मनेपदानां च द्वितीयस्य त्रयस्य सम्बन्धिन आद्यवचनस्थ स्थाने सि से इत्येतावदेशौ भवतः । हससि हससे । वेवसि वेवसे। धातुओं को लगनेवाले परस्मैपद और आत्मनेपद प्रत्ययों में से द्वितीय-त्रय से संबंधित होनेवाले आद्य वचन के स्थान पर सि और से ऐसे ये ( दो ) आदेश होते हैं। उदा.-हससि " ..'वेबसे । तृतीयस्य मिः ।। १४१ ॥ त्यादीमां परस्मैपदानामात्मनेपदानां च तृतीयस्य त्रयस्याद्यस्य वचनस्य स्थाने मिरादेशो भवति । हसामि । वेवामि । बहुलाधिकाराद् मिवेः स्थानीयस्य मेरिकारकोपश्च । 'बहुजाणय रूसिउं सक्कं ! शक्नोमीत्यर्थः। न मरं । न निये इत्यर्थः । __ धातुओं को लगनेवाले परस्मैपद और आत्मनेपद प्रत्ययों में से तृतीय-त्रय के आद्य वचन के स्थान पर मि ऐसा आदेश होता है। उदा०-हसामि, वेवामि । और बहल का अधिकार होने से, मिवि के स्थानीय मि के इकार का लोप होता है। उदा.बहु...'सक्कं ( इन शब्दों में सक्कं यानी ) शक्नोमि ( समर्थ हूँ) ऐसा अर्थ है। न मरं; (यहाँ) मैं नहीं मरता हूँ ऐसा अर्थ है । पहुष्वाद्यस्य न्ति न्ते इरे ॥ १४२ ॥ त्यादीनां परस्मैपदात्मनेपदानामाद्यत्रयसम्बन्धिनो बहुषु वर्तमानस्य पचनस्य स्थाने त्ति ते इरे इत्यादेशा भवन्ति । हसन्ति । वेवन्ति । हसिज्मन्ति । रमिन्जन्ति । 'गज्जन्ते खे मेहा बहित्ते रक्खसाणं च । उप्पज्जन्ते 'कइहिअय-सायरे कव्व-रयणाई। दोण्णि वि न' पहुप्पिरे बाहू। न प्रभवत इत्यर्थः । विच्छुहिरे । विक्षभ्यन्तीत्यर्थः । क्वचिद् इरे एकत्वेपि । सूसइरे गामचिक्खल्लो शुष्यतीत्यर्थः । १ . बहुजाणय (= चोर, जार, धूर्त इन अर्थों में देशी शब्द) रोषित शक्नोमि । २. गर्जन्ति से मेषाः। ३. बिभ्यतिराक्षसेम्यः ।। ४. उत्पद्यन्ते कवि हृदय-सागरे काव्य-रत्नानि । ५. द्वी अपि न प्रभवतः बाहू । ६. ग्राम । ७. कीचड अर्थ में चिक्खस्क देशी शब्द है। Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीयः पादः धातुभों को लगनेवाले परस्मैपद और आत्मनेपद प्रत्ययों में से माद्य त्रय से संबंधित होनेवाले बहु (= अनेक) वचन के स्थान पर न्ति, न्ते और इरे ऐसे आदेश होते हैं। उदा०-हसन्ति....'' रयणाई; दोणि.... बाहू; (यहाँ न पहुप्पिरे यानी) न प्रभवतः ( = समर्थ नहीं होते हैं ) ऐसा अर्थ है; विच्छुहिरे ( यानी ) विक्षुभ्यन्ति (=क्षब्ध होते हैं ) ऐसा अर्थ है । इरे प्रत्यय) क्वचित् एकवचन में मी लगता है। उदा.-~-सूसइरे गामचिक्खल्लो (यहाँ सूसइरे यानी) शुष्यति ( = सुखता है) ऐसा भर्य है। मध्यमस्येत्थाहचौ ॥ १४३ ॥ त्यादीनां परस्मैपदात्मनेपदानां मध्यमस्य त्रयस्य बहुषु वर्तमानस्य स्थाने इत्था हच इत्येतावादेशौ भवतः । हसित्था हसह। वेवित्था वेवह। बाहुलकादित्थान्यत्रापि। यद्यत्ते रोचते जं जं ते रोइत्था। हच् इति चकारः इहह चोहस्य ( ४.२६८ ) इत्यत्र विशेषणार्थः ।। धातुओं को लगनेवाले परस्मैपद और आत्मनेपद प्रत्ययों में से मध्यम त्रय के बहु ( =अनेक ) वचन के स्थान पर इत्था और इच् ऐसे ये आदेश होते हैं। उदा०हसित्या.... वेवह । बाहुलक से इत्था (प्रत्यय) अन्य स्थानों पर (लगा हुआ। दिखाई देता है । उदा.-) यद्यत्ते....'रोइत्या । हच में से चकार 'इह हवोहस्य' इस सूत्र में विशेषणार्थी है। तृतीयस्य मोमुमाः ॥१४४॥ त्यादीनां परस्मैपदात्मनेपदानां तृतीयस्य त्रयस्य सम्बन्धिनो बहुषु वर्तमानस्य वचमस्य स्थाने मो मु म इत्येते आदेशा भवन्ति । हसामो हसामु हसाम । 'तुवरामु तुवराम। धातुओं को लगनेवाले परस्मैपद और आत्मनेपद प्रत्ययों में तृतीय त्रय से संबंधित होनेवाले बहु (= अनेक) बचन के स्थान पर मो, मु और म ऐसे ये आदेश होते हैं । उदा.-हसामो.....तुवरमा । - अत एवैच से ॥ १४५॥ त्यादेः स्थाने यो एच से इत्येतादेशावुक्तौ तावकारान्तादेव भवतो नान्यस्मात् । हसए हससे। तुवरए तुवरसे। करए करसे । अत इति किम् । ठाइ' ठासि । वसुआइ “वसुभासि । होइ' होसि । एवकारोकारान्ताद् एच् से एव १. त्वर् । २. कृ। ३. स्था। ४. बसुधा धातु उद्+वा धातु का आदेश है। देखिए सू ४-११ । ५. भू। Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरणे १७१ भवत इति विपरीतावधारण निषेधार्थः । तेनाकारान्ताद् इच् सि इत्येतावपि सिद्धो । हस हससि । वेवइ वेवसि । धातुओं को लगनेवाले प्रत्ययों के स्थान पर ( ऊपर सूत्र ३.१३९-४० में ) जो एज् और से ऐसे ये ( दो ) आदेश कहे हुए हैं, वे केवल अकारान्त धातुओं के आगे ही होते हैं, अन्य (स्वरान्त धातुओं) के आगे नहीं होते हैं। उदा० - हसए" करसे । अकारान्त धातुओं के आगे ऐसा क्यों कहा है ? ( कारण अन्य स्वरान्त धातुओं के आगे ये दो आदेश नहीं भाते हैं । उदा● ) ठाइ होसि । अकारान्त धातुओं के आगे ही एच् और से ( ये आदेश ) होते हैं ऐसे विपरीत निश्चय ( = अवधारण ) का निषेध करने के लिए ( सूत्र में अतः शब्द के आगे : एव-कार ( एव शब्द ) प्रयुक्त किया है । इसलिए अकारान्त धातुओं के आगे इच् और सि ये दो भी ( आदेश ) सिद्ध होते हैं । उदा० - इसइ वेबसि । - सिनास्तेः सिः ।। १४६ ॥ सिमा द्वितीय त्रिकादेशेन सह अस्ते : सिरादेशो भवति । निठुरो जं सि । सिनेति किम् । से आदेशे सति अत्थि तुमं । .. ( धातुओं को लगने वाले प्रत्ययों में से ) द्वितीय त्रिक में से ( = तीन के समूह में से ) ( आद्यवचन के ) सि इस आदेश के सह अस् ( धातु ) को सि ऐसा आदेश होता है । उदा० - निठुरो जं सि सि ( इस आदेश ) के सह ऐसा क्यों कहा है ? ( कारण सि आदेश न होने पर, से आदेश होते समय अस्थि तुमं ( ऐसा प्रयोग होता है ) । मिमोहिम्होम्हा वा ॥ १४७ ॥ अस्तेर्धातोः स्थाने मि मो म इत्यादेशैः सह यथासंख्य म्हि म्हो म्ह इत्यादेशा वा भवन्ति । एस म्हि । एषोस्मीत्यर्थः । गयर म्हो । गय' म्ह | मुकारस्याग्रहणादप्रयोग एव तभ्येत्यवसीयते । पक्षे । अत्थि अहं । अस्थि अहे । अस्थि अम्हो | ननु च सिद्धावस्थायां पक्ष्मश्मष्मस्मह मां म्हः ( २.७४ ) इत्यनेन म्हादेशे म्हो इति सिध्यति । सत्यम् । कि तु विभक्तिविधौ प्रायः साध्य मानावस्थाङ्गीक्रियते । अन्यथा बच्छेण वच्छेसु सब्बे जे ते के इत्याद्यर्थं सूत्राण्यनारम्भणीयानि स्युः अस् धातु के स्थान पर, मि, मो और म इन आदेशों के सह अनुक्रम से म्हि, म्हो, और म्ह ऐसे आदेश विकल्प से होते हैं । उदा० - एस म्हि ( यानी ) एषः १. निष्ठुर: यद् असि । २. गताः स्मः । Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ तृतीयः पादः अस्मि ( यह मैं हैं ) ऐसा अर्थ होता है; गय... .."म्ह। सूत्र में मुकार ( इस आदेश ) का निर्देश न होने से, । उसका ) प्रयोग होता ही नहीं, ऐसा जाना है। (विकल्प-) पक्ष में :--अस्थि... .. अम्हो । ( शंका :-) पक्ष्म '' .."म्ह!' सूत्र के अनुसार, ( स्म. इस रूप के ) सिद्धावस्था में म्ह आदेश के होते 'म्हो' यह रूप सिद्ध होता है । ऐसा नहीं कहा जा सकता क्या ?)। ( उत्तर :-) यह सच है। तथापि प्रत्यय लगाकर ( होने वाले रूपों के ) नियम कहते समय, प्रायः (शब्द की) साध्यमान अवस्था स्वीकृत की जाती है; अन्यथा वच्छण... .. के इत्यादि रूप सिद्धि क लिए सूत्र कहने की जरूरत नहीं थी, ऐसा होगा। अस्थिस्त्यादिना ॥ १४८ ॥ अस्तेः स्थाने त्यादिभिः सह अत्थि इत्यादेशो भवति । अत्थि सो । अत्थि ते । अत्थि तुमं । अत्थि तुम्हे । अत्थि अहं । अत्थि अम्हे। ति इत्यादि ( धातुओं को लगने वाले ) प्रत्ययों के सह अस् (धातु ) के स्थान पर अत्थि ऐसा आदेश होता है । उदा.-अस्थि... ."अम्हे । णेरदेदावावे ॥ १४९ ।। णेः स्थाने अत् एत् आव आवे एते चत्वार आदेशा भवन्ति । 'दरिसइ । कारेइ करावइ करावेइ । हासेइ हसावइ हसावेइ । उव सामेइ उवसमावइ उवसमावेइ। बहुलाधिकारात् क्वचिदेनास्ति । 'जाणावेइ। क्वचिद् आवे नास्ति । पाएइ। भावेइ। णि ( इस प्रत्यय ) के स्थान पर अ, ए, आव, और आवे ( ऐसे ) ये चार आदेश होते हैं। उदा.-उवसमावेइ । बहुल का अधिकार होने से, क्वचित् ए ( आदेश ) नहीं होता है । उदा०-जाणावेइ । क्वचित्आवे ( आदेश ) नहीं होता है । उदा०-पाएइ, भावेइ ।। गुर्वादेरविर्वा ।। १५० ।। गुर्वादेणेः स्थाने अवि इत्यादेशो वा भवति । शोषितम् सोसविमं सोसि। तोषितम् तोसविअं तोसिअं। दीर्घ स्वर आदि ( स्थान में ) होनेवाले धातुओं को लगनेवाले णि ( इस प्रत्यय ) के स्थान पर अवि ऐसा आदेश विकल्प से होता है। उदा . शोपितम् ... तोसि। १. /दृश् । २. / उप+ शम् । ३. जाण धातु ज्ञा धातु आदेश है ( सूत्र ४.७ देखिए )। ४. क्रमसेः --पा । भू । Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरणे भ्रमेराडो वा ।। १५१ ।। भ्रमः परस्य णेराड आदेशो वा भवति । भमाडइ भमाडेइ । पक्षे भामेइ मावइ भमावेइ । भ्रम ( धातु ) के आगे आनेवाले णि ( प्रत्यय ) को आड ऐसा आदेश विकल्प से होता है । उदा०- - ममाडइ, भमाडेइ । ( विकल्प - ) पक्षमें: भामेइ ...भावेइ | लुगावी भावकर्मसु ॥ १५२ ॥ : स्थाने लुक् आवि इत्यादेशौ भवतः क्ते भावकर्मविहिते च प्रत्यये परतः । कारिअं कराविअं । हासिअं हसाविअं । खामिअं 'खमाविअं । भावकर्मणोः । कारीबइ करावी अइ । कारिज्जइ कराविज्जइ । हासी अइ हसावी अइ । हासिज्ज हसाविज्जइ । क्त तथा भाव और कर्म इनके लिए कहे हुए प्रत्यय आगे होने पर, णि ( प्रत्यय ) के स्थान पर लोप और आवि ऐसे आदेश होते हैं । उदा०-- ( क्तप्रत्यय आगे होने पर ) : --- कारिअं खमाविअं । भाव कर्म प्रत्यय ( आगे होने पर ) : कारोअइ. हसाविण्जइ । १७३ अल्लुक्यादेरत आ: ।। १५३ ।। बेल्लोपेषु कृतेषु आदेरकारस्य आ भवति । अति पाडइ | पारइ । एति । काइ' | खामेइ | लुकि । कारिअं । खामिअं । कारी अइ खामी अइ । कारिखजइ खामिज्जइ । अदेल्लुकीति किम् । कराविअं । करावी अइ कराविज्जइ । आदेरिति किम् । संगामेइ' । इह व्यवहितस्य मा मूत् । कारिअं । इहान्त्यस्य मा भूत् । अति इति किम् । दूसेइ" । केचित् तु आवे भाव्यादेशयोरप्यादेरत आत्वमिच्छन्ति । कारावेइ । हासाविओ जणो 'सामलीए । कारिअं .. fr ( प्रत्यय ) के अ, ए और लोप किए जाने पर, ( धातु में ) आदि ( होनेवाले ) अकार का आकार होता है । उदा०-- अ किए जाने परः -- - पाढइ, माडइ । ए किए जाने पर : --- कारेइ, खामेइ । लोप किए जाने परः ...खामिज्जइ । (णि प्रत्यय के ) अ, ए और लोप किए जाने पर ऐसा क्यों कहा है ? ( कारण वैसा न हो, तो आदि अकार का आकार नहीं होता है । उदा०- ) कराविअं कराविज्जइ । आदि ( होनेवाले अकार का आकार होता है ) ऐसा क्यों कहा है ? कारण 'संगामेइ' १. क्षामित । क्रमसे: V | Vक्षम् । ५. दुष् । २. क्रमसे: - /पत् । भृ । ४ संग्राम | ६. हासितः जनः श्यामलया । Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ तृतीयः पादः इस स्थल पर व्यवहित होनेवाले ( अकार ) का ( आकार ) न हो ( इसलिए ); और 'कारिमं' में अन्त्य (अकार) का (आकार) न हो ( इसलिए )। अकार का (माकार होता है) ऐसा क्यों कहा है ? ( कारण अन्य स्वर आदि होने पर, ऐसा आकार नहीं होता है । उदा०-) दूसेइ । तथापि (णि प्रत्यय के) आवे और भावि ये आदेश होने पर भी, (धातु में से आदि अकार का आकार होता है, ऐसा कुछ (वैयाकरण) मामते हैं । (उनके मतानुसार) कारावेइ, हासाविभो जणो सामलीए, (ऐसा होगा)। मो वा ॥१५४ ॥ ____अत आ इति वर्तते। भदन्ताद् धातोमौं परे मत आस्वं वा भवति । हसामि हसमि। जाणामि जाणमि लिहामि लिहमि । अत इत्येव । होमि । अत मा ( = अ का आ होता है ) ये शब्द ( सूत्र ३.१५३ में से ) प्रस्तुत सूत्र में ) अनुवृत्ति से होते ही हैं। अकारान्त धातु के आगे मि प्रत्यय होने पर, (धातु के अन्त्य ) अ का आ विकल्प से होता है। उदा.-हसामि... ... 'लिहमि । अकाही ( आकार होता है; अन्य भन्स्य स्वरों का आकार नहीं होता है। उदा.-) होमि। इच्च मोममे वा ॥ १५५॥ अकारान्ताद् धातोः परेषु मोमुमेषु अत इत्त्वं चकाराद् आत्त्वं च वा भवतः । भणिमो भणामो। भणिमु भणामु। भणिम भणाम । पक्षे । भणमो। भणमु । भणम । वर्तमानापञ्चमीशतृषु वा ( ३.१५८ ) इत्येत्वे तु भणेमो भणेमु भणेम । अत इत्येव । ठामो । होमो। अकारान्त धातु के आगे मो, मु, और म ( ये प्रत्यय ) होने पर, (धात में से अन्त्य । अ का इ, और ( सूत्र में से ) चकार के कारण आ, ऐसे (विकार । आदेश ) विकल्प से होते हैं। उदा-भणिको... ..."भणाम । ( विकल्प-) पक्ष में :-भणमो... ... ... .."भणम । 'वर्तमाना... ..'वा' इस सूत्र के अनुसार, ( भकारान्त धातु के अन्त्य अ का ) ए होने पर, भणेमो... .. भणेम ( ऐसे रूप होते हैं )। ( अन्त्य ) अ का हो ( आ होता है; अन्य अन्त्य स्वरों का आ नहीं होता है । उदा०--- ) ठामो, होमो। क्ते ॥ १५६ ॥ क्ते परतोत इत्त्वं भवति। हसिअं । पढिअं३ । नविअं । हासिकं । पाढिअं। गयं नयं इत्यादि तु सिद्धावस्थापेक्षणात् । अत इत्येव । "झायं । 'लुअं । "हूअं। १. /लिख । ३. पठित। ४. नत I/नम् । ५. ध्यात । *. भूत । हूत। Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरणे (अकारान्त धात के ) आगे क्त प्रत्यय ) होने पर, (धात में से अन्त्य ) अ का इ होता है। उदा.-हसि..... "पाढिअं। गर्य और नयं ये रूप मात्र ( संस्कृत में से गत और मत इन ) सिद्धावस्था की । रूपों की ) अपेक्षा से हैं। (अन्त्य) अ का ही ( इ होता है; अन्य अन्त्य स्वरों का इ नहीं होता है । उदा०-) झायं..."हुआ। एच्च क्त्वातुम्तव्यभविष्यत्सु ॥ १५७ ॥ __ क्त्वातुम्तव्येषु भविष्यत्कालविहिते च प्रत्यये परतोत एकारश्चकारादिकारश्च भवति । क्त्वा । हसेऊण । हसिऊण । तुम् । हसेउं हसिउं । तव्य । हसेअव्वं हसिअव्वं । भविष्यत् । हसेहिइ हसिहिइ अत इन्येव । काऊण । ( अकारान्त धातु के ) आगे क्त्वा, तुम् और तव्य ( ये प्रत्यय ) तथैव भविष्य काल का ऐसा कहा हुआ प्रत्यय, ( आगे ) होने पर (धातु में से अन्त्य ) अ का एकार, और ( सत्र में से ) चकार के कारण, इकार होता है। उदा०-क्या ( प्रत्यय आगे होने पर ):--हसे ऊग, हसिऊण । तुम् (प्रत्यय आगे होने पर ) हसे उं, हसिउं। तव्य ( प्रत्यय आगे होने पर):-हसेअन्वं, हसिअम्वं । भविष्यकाल का प्रत्यय ( आगे होने पर ):-हसेहिइ, हसिहिइ । ( अन्त्य ) अ के ही ( इ और ए होते हैं; अन्य अन्त्य स्वरों के इ और ए नहीं होते हैं । उदा.--) काऊग। वर्तमानापञ्चमीशतृषु वा ॥ १५८ ॥ वर्तमानापञ्चमीशतृषु परत अकारस्य स्थाने एकारो वा भवति । वर्तमाना। हसेइ हसइ। हसेम हसिम । हसेमु हसिमु । पञ्चमी । हसेउ हसउ । 'सुणेउ सुणउ । शतृ । हसेन्तो हसन्तो। क्वचिन्न भवति । जयइ। क्वचिदात्वमपि । 'सुणाउ। वर्तमान काल के प्रत्यय, आज्ञार्थ के प्रत्यय, और शतृ ( यह ) प्रत्यय आगे होने पर, ( धातु के अन्त्य ) अकार के स्थान पर एकार विकल्प से होता है। उदा० -वर्तमान काल के प्रत्यय ( आगे होने पर ):-हसेह... .."हसिमु । आज्ञार्थ के प्रत्यय ( आगे होने पर ) : --हसे उ... ..."सुण उ । शतृ प्रत्यय ( आगे होने पर ):--हसेन्तो, हसन्तो । क्वचित् ( अन्त्य अ का ए) नहीं होता है। उदा.-- जयऽ । क्वचित् ( अन्त्य अ का ) आ भी होता है । उदा-सुणाउ । जा ज्जे ॥।॥ १५९ ।। ज्जा ज्ज इत्यादेशयोः परयोरकारस्य एकारो भवति। हसेज्जा हसेज्ज । अत इत्येव । होज्जा होज्ज । १. Vश्रु । २. Vजि Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७६ तृतीयः पादः ज्जा औए ज्ज ये आदेश (-रूप प्रत्यय ) आगे होने पर, (धातु के अन्त्य ) अकार का एकार होता है । उदा.- हसेज्जा, हसेज । ( अन्त्य ) अ का हो ( एकार होता है; अन्य स्वरों का नहीं । उदा.-) होज्जा, होज । ईअइज्जौ क्यस्य ॥ १६० ॥ चि-जि-प्रभृतीनां भावकर्मविधिं वक्ष्यामः । येषां तु न वक्ष्यते तेषां संस्कृतातिदेशात् प्राप्तस्य क्यस्य स्थाने इअ इज्ज इत्येतावादेशौ भवतः । हसीअइ हसिज्जइ। हसीअन्तो हसिज्जन्तो। हसी अमाणो हसिज्जमाणो। पढीअइ पढिज्जइ। होईअइ होइज्जइ। बहलाधिकारात् क्वचित् क्योपि विकल्पेन भवति । मए नवेज्ज'। मए नविज्जेज्ज। तेण लहेज्ज । तेग लहिज्जेज्ज। तेण अच्छेज्ज । तेण अच्छिज्जेज्ज । तेण अच्छीअइ। चि, जि, इत्यादि ( धातुओं ) के भाव-कम-रूप सिद्ध करने के नियम हम आगे (सूत्र ४.२४१-२४३ देखिए) कहेंगे। परंतु जिन (धातुओं) के बारे में ( ऐसे नियम ) नहीं कहे जाएंगे, उनके बारे में, संस्कृत में से अतिदेश से प्राप्त हुए क्य ( प्रत्यय ) के स्थान पर ईअ और इज्ज ऐसे ये आदेश होते हैं। उदा०-हसीअइ.....होइज्जइ । बहुरू का अधिकार होने से, क्वचित् क्य (= य) भी विकल्प से लगता है । मए" अच्छीअइ । दृशिवचे सडच्चं ॥ १६१ ॥ दृशेवंचेश्च परस्य क्यस्य स्थाने यथासंख्यं डीसडुच्च इत्यादेशौ भवतः । ईअइज्जापवादः । दीसइ । वुच्चइ । हम और वच् ! इन धातुओं ) के आगे आनेवाले वय ( प्रत्यय ) के स्थान पर अनुक्रम से डीस ( =डित् ईस ) और डुच्च ( = डित् उच्च ) ऐसे आदेश होते हैं। (क्त प्रत्यय के ) ईअ और इज्ज ( ऐसे आदेश होते हैं-सूत्र ३. ६० देखिए ) इस नियम का अपवाद प्रस्तुत नियम है । उदाo--दीसइ, वुच्चइ । सी ही हीअ भूतार्थस्य ।। १६२ ।। भूतेर्थे विहितोद्यतन्यादिः प्रत्ययो भूतार्थः, तस्य स्थाने सी ही हीम इत्यादेशा भवन्ति । उत्तरत्र व्यञ्जनादोअ-विधानात् स्वरान्तादेवायं विधिः । कासी काही 'काहीअ। अकार्षीत् अकरोत् चकार वेत्यर्थः । एवम् । ठासी ठाही ठाही । आयें। देविन्दो "इणमब्बवी इत्यादी सिद्धावस्थाश्रयणात् ह्यस्तन्याः प्रयोगः । १. नम्। २. लभ् । ३. अच्छ के लिए सत्र ४.२१५ देखिए । ४. Vव । ५. देवेन्द्रः इदं अब्रवीत् । Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरणे भूतकाल के अर्थ में कहा हुमा ( जो ) मद्यतनी इत्यादि प्रत्यय, वह भूतकाल का प्रत्यय होता है। उसके स्थान पर सी,ही और हीम ऐसे आदेश होते हैं । अगले सूत्र में ( ३.१६३ में ), ( व्यञ्जनान्त धातु के भन्त्य ) व्यञ्जन के भागे ईब (ऐसा) प्रत्यय कहा जाने के कारण, स्वरान्त धातु के बारे में ही यह ( प्रस्तुत ) नियम है (ऐसा माने)। उदा.-कासी.... काहीअ (यानी) अकार्षीत्... किंवा चकार ( = क्रिया ) ऐसा भर्य है । इसी प्रकार : ठासी ठाहीअ । आषं प्राकृत में, देविन्दो इणमन्नबी इत्यादि स्थकों पर सिद्धावस्था में से (रूपों का) आधार होने से, ह्यस्तनी का प्रयोग ( किया गया दिखाई देता है)। ___ व्यञ्जनादी अः ॥ १६३ ॥ व्यञ्जनाद् धातोः परस्य भूतार्थस्याद्यतन्यादि प्रत्ययस्य ईअ इत्यादेशो भवति । हुवीभ । अभूत् अभवत् बभूवेत्यर्थः । एवं-अच्छीअ । आसिष्ट मास्त आसांचक्रे वा । गेण्हीअ । अग्रहीत् अगृह्णात् जग्राह वा। व्यंजनान्त धातु के आगे भूतार्थ में होनेवाले अद्यतनी इत्यादि प्रत्यय को ईम ऐसा आदेश होता है। उदा.--- हुबीअ ( यानी ) अभूत्... बभूव ( = हुमा) ऐसा अर्थ है । इसी प्रकार:- अच्छोम (यानी) भासिष्ट ....चक्रे ( ऐसा अर्थ है ), गेण्हीम (यानी) अग्रहीत्... 'जग्राह (सिया) (ऐसा अर्थ है)। तेनास्तेरास्यहेसी ।। १६४॥ अस्तेर्धातोस्तेन भूतार्थेन प्रत्ययेन सह आसि अहेसि इत्यादेशौ भवतः । आसि सो तुमं अहं वा । जे आसि । ये आसन्नित्यर्थः । एवं अहेसि । उस भूतकालार्थी प्रत्यय के सह अस् धातु को आसि और अहेसि ऐसे भावेश होते हैं । उदा०-आसि... 'अहं बा; जे आसि (यानी) ये आसन् ( = जो होते ) ऐसा अर्थ है । इसी प्रकारः-... अहेसि । ज्जात् सप्तम्या इर्वा ॥ १६५ ॥ सप्तम्यादेशात् ज्जात् पर इर्वा प्रयोक्तव्यः । भवेत् होज्जइ होज्ज । सप्तमी (=विष्यथं) का आदेश होनेवाले ज्ज के आगे इ विकल्प से प्रयुक्त करे । उदा.---भवेत् होनइ होन। भविष्यति हिरादिः ॥१६६ ॥ भविष्यदर्थे विहिते प्रत्यये परे तस्यैवादिहिःप्रयोक्तव्यः। होहिइ । भविष्यति भविता वेत्यर्थः । एवम् । होहिन्ति होहिसि होहित्था। हसिहिइ । काहिइ । १. /कृ। ५. देवेन्द्रः इदं अब्रवीत् । १२ प्रा. व्या. Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ तृतीयः पादः भविष्यकालार्थ में कहा हुआ प्रत्यय आगे होने पर, उस (प्रत्यय) के ही पूर्व पीछे 'हि' ( यह अक्षर ) प्रयुक्त करे । उदा० --होहिड ( यानी ) भविष्यति किंवा भविता (= होगा) ऐसा अर्थ है। इसी प्रकार:---होहिन्ति..... काहिइ । मिमोमुमे स्सा हा न वा ॥ १६७॥ भविष्यत्यर्थे मिमोमुमेषु तृतीयत्रिकादेशेषु परेषु तेषामेवादी 'स्सा हा' इत्येतौ वा प्रयोक्तव्यौ। हेरपवादौ । पक्षे हिरपि । होस्स्सामि होहामि । होस्सामो होहामो होस्सामु होहामु होस्साम होहाम। पक्षे । होहिमि । होहिमु होहिम। क्वचित्तु हा न भवति । हसिस्सामो हसिहिमो। भविष्यकालार्थ में ( होनेवाले ) मि, मो, मु. और म ऐसे तृतीय त्रिक के आदेश आगे होने पर, उनके ही पूर्व पीछे स्सा और हा ऐसे ये ( शब्द ) विकल्प से प्रयुक्त करे। ( भविष्यकालार्थी प्रत्यय के पीछे ) "हि' शब्द ) प्रयुक्त करे ( सूत्र ३.१६६) नियम का अपवाद ( यहां कहा है)। ( विकल्प-- ) पक्ष में 'हि' भी प्रयुक्त करे । उदा०-होस्सामि... " होहाम। ( विकल्प- ) पक्ष में---होहिमि... .."होहिम । परंतु क्वचित् 'हा' (शब्द नहीं आता है। उदा०–हसिस्सामो, हसिहिमो । मोमुमानां हिस्सा हित्था ॥ १६८ ॥ धातोः परौ, भविष्यति काले मोमुमानां स्थाने, हिस्सा हित्था इत्येतौ वा प्रयोक्तव्यौ। होहिस्सा होहित्था। हसिहिस्सा हसिहित्था। पक्षे। होहिमो होस्सामो होहामो। इत्यादि। धातु के आगे भविष्यकाल में मो, मु और म इनके स्थान पर हिस्सा और हित्पा ऐसे ये (शब्द) विकल्प से प्रयुक्त करे । उदा--होहिस्साहसि हित्था । (विकल्प-) पक्षमें-होहिमो.....होहामो, इत्यादि। मेः स्सं ॥ १६९ ।। धातोः परो भविष्यति काले म्यादेशस्य स्थाने स्सं वा प्रयोक्तव्यः । होस्सं । हसिस्सं । कित्त' इस्सं । पक्षे । होहिमि होस्सामि होहामि । कित्त' इहिमि। धातु के आगे भविष्यकाल में मि ( प्रत्यय ) के आदेश के स्थान पर (सूत्र ३.१६७ देखिए ) स्सं ( शब्द ) विकल्प से प्रयुक्त करे। उदा.-होस्सं.... .. कित्तइस्सं । (विकल्प-) पक्षमें:-होहिमि ...."कित्तइहिमि । . कृदो हं॥१७० ॥ करोते ददातेश्च परो भविष्यति विहितस्य म्यादेशस्य स्थाने हं वा १. कोत्। २. 1/ । ३. /दा । Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ সাম্রাজ্য १०१ प्रयोक्तव्यः । काहं दाहं । करिष्यामि दास्यामीत्यर्थः । पक्षे। काहिमि दाहिमि । इत्यादि। ___ करोति और ददाति (इन धातुओं) के आगे, भविष्यकाल में कहे हुए मि (प्रत्यय) के आदेश के स्थान पर हं शब्द विकल्प से प्रयुक्त करे। उदा.-काहं, दाहं (यानी) करिष्यामि ( = मैं करूँगा,, दास्यामि ( = मैं दूंगा ) ऐसा अर्थ है। (विकल्प-) पक्षमें:-काहिमि, दाहिमि इत्यादि । श्रुगमिरुदिविदिशिमुचिवचिछिदिभिदिभुजां सोच्छं गच्छं रोच्छ वेच्छं दच्छं मोच्छं वोच्छं छेच्छं मेच्छं भोच्छं ॥१७१॥ श्वादीनां धातूनां भविष्यद्-विहित-म्यन्तानां स्थाने सोच्छमित्यादयो निपात्यन्ते। सोच्छं श्रोष्यामि । गच्छं गमिष्यामि। संगच्छं संगस्ये। रोच्छं रोदिष्यामि । विद ज्ञाने । वेच्छं वेदिष्यामि । दच्छं द्रक्ष्यामि । मोच्छं मोक्ष्यामि। वोच्छं वक्ष्यामि । छेच्छं छेत्स्यामि । भेच्छं भेत्स्यामि । भोच्छं भोक्ष्ये। भविष्यकालार्य में कहे हुए मि (प्रत्यय) से अन्त होनेवाले श्रु, इत्यादि (यानी श्रु, गम्, रुद्, विद्, दृश, मुच, वच्, छिद् भिद् और भुज इन ) धातुओं के स्थान पर सोच्छं इत्यादि ( यानी सोच्छं, गच्छं. रोच्छं, वेच्छं, दच्छं, मोच्छं, बोच्छं, छेच्छं, भेच्छ और भोच्छं ऐसे ये शब्द) निंपात रूप में आते हैं। उदा.-सोच्छं."रोदिष्यामि; विद् (धातु यहाँ मानना) (ज्ञान) (इस अर्थ में है), वेच्छ..... "भोल्ये । सोच्छादय इजादिषु हिलुक् च वा ॥ १७२ ॥ श्वादीनां स्थाने इबादिषु भविष्यदादेशेषु यथासंख्यं सोच्छादयो भवन्ति । ते एवादेशा अन्त्यस्वराद्यवयववर्जा इत्यर्थः । हिलुक च वा भवति। सोच्छिइ। पक्षे। सोच्छिहिइ। एवम् सोच्छिन्ति सोच्छिहिन्ति । सोच्छिसि सोच्छिहिसि, सोच्छित्था सोच्छिहित्था सोच्छिह सोच्छिहिह । सीच्छिमि सोच्छिहिमि सोच्छिस्सामि सोच्छिहामि सोच्छिस्सं सोच्छं, सोच्छिमो सोच्छिहिमो सोच्छिस्सामो सोच्छिहामो सोच्छिहिस्सा सोच्छिहित्था। एवं मुमयोरपि । गच्छिइ गच्छिहिइ, गच्छिन्ति गच्छिहिन्ति । गच्छिसि गच्छिहिसि, गपिछस्था गच्छिहित्था गच्छिह गच्छिहिह । गच्छिमि गच्छिहिमि गच्छिस्सामि गच्छिहामि गच्छिस्सं गच्छं, गच्छिमो गच्छिहिमो गच्छिस्सामो गच्छिहामो गच्छिहिस्सा गच्छिहित्था । एव मुमयोरपि । एवं रुदादीनामप्युदाहार्यम् । Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय: पाद: इच् इत्यादि भविष्यकाल के आदेश ( आगे ) होने पर, श्रु इत्यादि ( यानी श्रु, गम्, रुद्, विद्. दृश्, मुच् वच् छिद्, भिद् और भुज् इन ) धातुओं के स्थान पर सोच्छ इत्यादि ( यानी सोच्छ, गच्छ, रोच्छ, वेच्छ, दच्छ, मोच्छ, बोच्छ, बेच्छ, भेच्छ और भोच्छ ) होते हैं। यानी अन्त्य स्वर इत्यादि अवयव छोड़कर, वे ही आदेश होते हैं, ऐसा अर्थ है । और ( इस समय ) हि ( इस अक्षर ) का लोप विकल्प से होता है । उदा०----: -सोच्छिइ; ( विकल्प - ) पक्ष में:- सोच्छिहिइ । इसी प्रकारः सोच्छिन्ति "सोच्लिहित्था; इसी प्रकार मु और म ( इन प्रत्ययों ) के बारे में भी ( जाने ) । गच्छ ''गच्छिहित्था; इसी प्रकार मु और म ( इन प्रत्ययों) के बारे में भी ( जाने) इसी प्रकार रुद् इत्यादि (धातुओं के रूपों के उदाहरण लें । ? दुसुम विध्यादिष्वेकस्मिंस्त्रयाणाम् १७३ ।। विध्यादिष्वर्थेषूत्पन्नानामेकत्वेर्थे वर्तमानानां त्रयाणामपि त्रिकाणां स्थाने यथासंख्यं दु सु मु इत्येते आदेशा भवन्ति । हसउ सा । हससु तुमं । हसामु अहं । पेच्छर पेच्छ्सु पेच्छाम् । दकारोच्चारणं भाषान्तरार्थम् । - विधि, इत्यादि अर्थों में उत्पन्न हुए और एकस्व अर्थ में होने वाले त्रयों के त्रिकों के स्थान पर अनुक्रम से दु, सु और मु ऐसे आदेश होते हैं । उदा० - हसमु" पेच्छामु | { टु में ) दकार का उच्चारण अन्य ( यानी शौरसेनी ) भाषा के लिए है । सोहिं ।। १७४ ॥ पूर्वसूत्रविहितस्य सो : स्थाने हिरादेशो वा भवति । देहि । देसु । कहे हुए सु ( इस आदेश ) के स्थान पर 'हि' पिछले (यानी ३०१७३ ) सूत्र में ऐसा आदेश विकल्प से होता है । उदा - देहि, देसु । अत इज्ज स्विज्जहीज्जेलुको वा ।। १७५ ।। अकारात् परस्य सो: इज्जसु इज्जहि इज्जे इत्येते लुक् च आदेशा वा भवन्ति । हसेज्जसु हसेज्जहि हसेज्जे हस । पक्षे । हससु । अत इति किम् । हो । ठाहि । ( अकारान्त धातु के अन्त्य ) अकार के आगे आने वाले सु ( इस आदेश ) के इज्ज, इनहि, इज्जे ऐसे ये ( तीन ) और लोप ऐसे आदेश विकल्प से होते हैं । उदा०- - हसेज्जसु हस । ( विकल्प - ) पक्षमे :- हससु । अकार के ( आगे माने वाले ) ऐसा क्यों कहा है ? ( कारण अन्य स्वरों के आगे सु के इज्जसु इत्यादि आदेश नहीं होते हैं । उदा० ) होसु, ठाहि । Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरण १८१ बहुषु न्तु ह मो ॥ १७६ ।। विध्यादिषूत्पन्नानां बहुष्वर्थेषु वर्तमानानां त्रयाणां त्रिकाणां स्थाने यथासंख्यं न्तु ह मो इत्येते आदेशा भवन्ति । न्तु । हसन्तु, हसन्तु हसेयुर्वा । ह। हसह, हसत हसेत वा । मो। हसामो हसाम हसेम वा । एवम् । तुवरन्तु' तुवरह तुवरामो। विधि, इत्यादि अर्थों में उत्पन्न हुए (और) बहु ( = अनेक) इस अर्थ में होनेवाले त्रयों के त्रिकों के स्थान पर अनुक्रम से न्तु, ह और मो ऐसे ये आदेश होते हैं । उदा-न्तु (का उदाहरण): .. हसन्तु ( यानी ) हसन्तु किंवा इसेयुः ( हंसने दो या हसे ऐसा अर्थ है )। ह (का उदाहरण):-हसह (यानी) सत अथवा हसेत (- तुम हसो या तुम हसें ऐसा अर्थ है। भो ( का उदाहरण ): "हसामा ( यानी ) हसाम किंवा हसेम ( हमें हँसने दो या हम हसैं, ऐसा अर्थ है)। इसीप्रकार:-तुवरन्त... तुवरामो (ऐसे रूप होते हैं)। __ वर्तमाना भविष्यन्त्योश्च ज जा वा ।। १७७ ॥ बर्तमानाया भविष्यन्त्याश्च विघ्यादिषु च विहितस्य प्रत्ययस्य स्थाने ज्ज ज्जा इत्येतावदेशौ वा भवतः । पक्षे यथाप्राप्तम् । वर्तमाना। हसेज्ज हसेज्जा। पढेज्ज' पढेज्जा । सुणेज्ज३ सुणेज्जा । पक्षे । हसइ । पढइ। सुणइ । भविष्यन्ती। पढेज्ज पढेज्जा । पक्षे । पढिहिइ । विध्यादिषु । हसेज्ज हसिज्जा। हसतु हसेद् वा इत्यर्थः । पक्षे । हसउ । एवं सर्वत्र । यथा तृतीयत्रये। अइ वाएज्जा । अइवायावेज्जा । न समणु जाणामि न समणुजाणेज्जा वा । अन्ये त्वन्यासामपीच्छन्ति। होज्ज, भवति भवेत् भवतु अभवत् अभूत् बभूव भूयात् भविता भविष्यति अभविष्यद् वा इत्यर्थः। __वर्तमानकाल के तथाही भविष्यकाल के और विधि इत्यादि । अर्थों ) में कहे हुए जो प्रत्यय, जनके स्थान पर ज्ज और ज्जा ऐसे ये आदेश विकल्प से होते हैं। (विकल्प--- ) पक्ष:-हमेशा के प्रत्यय होते ही हैं । उदा.-.- वर्तमानकाल में :--- हसेज्ज ...."सुणेज्जा; (विकल्प-~-) पक्षमें: - हसइ.'सुणइ । भविष्यकाल में:पढेज्ज, पढेज्जा; ( विकल्प-) पक्षभे :--- पढिहिइ । विधि, इत्यादि में:--हसेज्ज, हसेज्जा ( यानी हसतु किया हसेत् ऐा अर्थ है; ( विकल्प ----- ) पक्षमें:-हस । इसी प्रकार सर्व स्थानों पर। उदा-तृतीय के त्रय में : ---अइ वाएज्जा... .. समण जाणामि अथवा न समणुजाणेज्जा। (ज्ज और ज्जा में आदेश ) अन्य काल और १. Vत्वर । . २. /पठ् । ३. Vश्रु-सुण । ४. / अति+पत् । ५. /समनुज्ञा। Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८२ तृतीयः पादः अर्थ इनके बारे में भी होते हैं, ऐसा दूसरे वैयाकरण मानते हैं ( उनके मतानुसार:- ) होज यानी भवति * अभविष्यत् ऐसा अर्थ है । ...... मध्ये च स्वरान्ताद् वा ।। १७८ ॥ स्वरान्ताद् धातोः प्रकृतिप्रत्ययोर्मध्ये चकारात् प्रत्ययानां च स्थाने अन ज्ना इत्येतौ वा भवतः वर्तमानाभविष्यन्त्योविध्यादिषु च । वर्तमाना । होज्जइ होज्जाइ होज्ज होज्जा । पक्षे । होइ । एवम् । होज्जसि होज्नासि होज्ज होज्ज । पक्षे । होसि । एवम् । होज्जहिसि होज्जाहिसि होज्ज होज्जा हो हिसि । होज्जहिमि होज्जाहिमि होज्जस्सामि होज्जहामि होज्जस्सं होज्ज होज्जा । इत्यादि । विध्यादिषु । होज्जउ होज्जाउ होज्ज होज्जा, भवतु भवेद् वेत्यर्थः । पक्षे । होउ । स्वरान्तादिति किम् । हसेज्ज हसेज्जा । तुवरेज्ज तुवरेज्जा । । वर्तमानकाल और भविष्यकाल इनमें तथैव विधि इत्यादि ( अर्थी ) में, स्वरान्त धातु के बारे में, ( धातु की ) प्रकृति और प्रत्यय इनके बीच, तर्थव ( सूत्र में से ) चकार के कारण प्रत्ययों स्थान पर, ज और ना ऐसे ये शब्द विकल्प से आते 1 उदा० - वर्तमानकालमें : ---- होबइ ... "होना; ( विकल्प - ) पक्षमें: - होइ । इसी प्रकारः -- होलसि होना; ( विकल्प ) पक्षमें: - होसि । इसी प्रकार (भविष्य - काल में ) : - होन हिसि "होजा, इत्यादि । विधि इत्यादि में: होनउ होना (यानी ) भवतु किंवा भवेत् ऐसा अर्थ है; ( विकल्प - ) पक्ष में: - होउ । स्वरान्त धातु के बारे में ऐसा क्यों कहा है ? ( कारण धातु स्वरान्त न हो, तो ऐसा प्रकार नहीं होता है । उदा० - -) हसेल. "तुवरेना । क्रियातिपत्तेः ।। १७९ ॥ क्रियातिपत्तेः स्थाने ज्जज्जावादेशौ भवतः । होज्ज होज्जा । अभविष्यदित्यर्थः । जइ होज्ज' वण्णणिज्जो । क्रियातिपत्ति (= संकेतार्थ) के स्थान पर ज और जा (ऐसे ये ) आदेश होते हैं । उदा० होन होना (यानी ) अभविष्यत् ऐसा अर्थ है । जइहोन वण्णणियो । J -- न्त माणौ ॥ १८० ॥ क्रियातिपत्तेः स्थाने न्त-माणी आदेशौ भवतः । होन्तो होमाणो, अभविष्यद् इत्यर्थः । १. यदि अभविष्यत् बर्णनीयः । Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरणे हरिणट्ठाणे हरिणक 'जइ सि हरिणाहिवं निवेसन्तो । न सहतो चिचअ तो राहु-परिहवं से जिअन्तस्स ॥ ६ ॥ क्रियतिपत्ति (= संकेतार्थ) के स्थान पर न्त और माण (ऐसे ये ) आदेश होते हैं । उदा०- -होन्तो, होमाणी ( यानी ) अभविष्यत् ऐसा अर्थ है; हरिण - जिमन्तस्स । शत्रानशः ।। १८१ ॥ शतृ आनश् इत्येतयोः प्रत्येकं न्त माग इत्येतावादेशौ भवतः । शतृ । हसन्तो हसमाणो । आनश् | वेवन्तो' वेवमाणो । 1 शतृ और मान ( इन प्रत्ययों) के प्रत्येक को न्त और मान ऐसे ये आवेश होते हैं। उदा० - शतृ ( प्रत्यय ) को: - हसन्तो, हसमाणो । आनश् ( प्रत्यय ) को :बेबन्तो, वेबमाणो | १८३ ई च स्त्रियाम् ॥ १८२ ॥ स्त्रियां वर्तमानयोः शत्रानशोः स्थाने ई चकारात् न्तमाणौ च भवन्ति । हसई हसन्ती समाणी । वेवई वेवन्ती वेवमाणी । स्त्रीलिंग में होनेवाले शतृ और आनश् ( इन प्रत्ययों ) के स्थान पर ई, तथैव ( सूत्र में से) चकार के कारण न्त और माण (ये भी) होते हैं । उदा० - हसई" भाणी | इत्याचार्य हेमचन्द्रविरचितायां सिद्धहेमचन्द्राभिधानस्वोपज्ञशब्दानुशासनवृत्तौ अष्टमस्याध्यायस्य तृतीयः पादः ( आठवें अध्याय का तृतीयपाद समाप्त हुआ । ) १. हरिणस्थाने हरिणांक यदि हरिणाधिपं न्यवेशयिष्य : (निवेसन्तोसि ) । न असहिष्यथा एव ततः राहुपरिभवं अस्य जयतः ॥ २. √वेप् । Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ पादः इदितो वा ॥ १॥ सूत्रे ये इदितो धातवो वक्ष्यन्ते तेषां ये आदेशास्ते विकल्पेन भवन्तीति वैदितव्यम् । तत्रैव च उदाहरिष्यन्ते। _(अब अगले) सूत्रों में जो इ (यह अक्षर) इत् होनेवाले धातु कहे जाएंगे, उनको जो आदेश होते हैं, वे विकल्प से होते हैं ऐसा जाने। उनके उदाहरण भी वहीं दिए जाएंगे। कथेअर-पजरोप्पाल-पिसुण-संघ-बोल्ल-चव-जम्प-सीस-साहाः ॥२॥ कथेर्धातोर्वज्जरादयो दशादेशा वा भवन्ति । वज्जरइ । पज्जरइ । उप्पालइ । पिसुणइ । संघइ। वोल्लइ। चवइ । जंपइ। सीसइ। साहइ । उब्बुक्कइ इति तूत्पूर्वस्य बुक्क भाषणे इत्यस्य । पक्षे। कहइ । एते चान्यदेशीषु पठिता अपि अस्माभिर्धात्वादेशीकृता विविधेषु प्रत्ययेषु प्रतिष्ठन्तामिति । तथा च । वज्जरिओ कथितः। वज्जरिऊण कथयित्वा। वज्जरणं कथनम् । वज्जरन्तो कथयन् । वज्जरिअव्वं कथयितव्यम् । इति रूपसहस्राणि सिध्यन्ति । संस्कृतधातुवच प्रत्ययलोपागमदिविधिः । कथ् ( कथि ) धातु को बज्जर इत्यादि ( यानी बज्जर, पज्जर, उप्पाल, पिसुण, संघ, बोल्ल, चब, जंप, सीस और साह ऐसे ) दस आदेश विकल्प से होते हैं। उदा.वज्जर.... 'साहइ । उब्वुक्फइ ( यह रूप ) मात्र उद् ( उपसर्ग ) पूर्व में होनेवाले 'बुक्क' याना कहना ( भाषणे ( इस धातु से होता है । विकल्प-) पक्षमें:-कहा। ये ( आदेश ) यद्याप अन्य वैयाकरणों ने देशी शब्दों में कहे हैं, तथापि हमने उन्हें धात्वादेश किया है; ( हेतु यह कि ) विविध प्रत्ययों में ( उन्हें ) प्रतिष्ठा मिले । मौर इसलिए बज्जरिओ ...... कथयितब्यम्, इसी प्रकार सहस्रों रूप सिद्ध होते हैं, और ( इन धात्वादेशों के बारे में ) संस्कृत में से धातु के समान ही प्रत्यय, लोप, आगम इत्यादि विधि ( कार्य ) होते हैं। दुःखे णिव्वरः ॥ ३॥ दुःख विषयस्य कथेणिव्वर इत्यादेशो वा भवति । णिव्वरह । दुःखं कथयतीत्यर्थः। ___दुःख विषयक कथ् (धातु) को णिम्बर ऐसा आदेश विकल्प से होता है । उदाणिम्बरइ (पानी) दुःख से कहना है ऐसा अर्थ है । Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८५ प्राकृतव्याकरणे १८५ जुगुप्सेझुणदुगुच्छदुगुञ्छाः ॥ ४ ॥ जुगुप्सेरेते त्रय आदेशा वा भवन्ति । झुणइ । दुगुच्छइ । दुगुञ्छइ। पक्षे । जुगुच्छई । गलापे । दुउच्छई दुउञ्छई जुउच्छई। जुगुप्स् (धातु ) को ये ( = झुण, दुगुच्छ और दुगुञ्छ ) तीन आदेश विकल्प से होते हैं। उदा.-झुणइ..."दुगुञ्छइ । ( विकल्प-) पक्ष में:-जुगुच्छह । (इन रूपों में) ग् का लोप होने पर, दुउच्छइ; दुःउञ्छइ, जुउच्छइ ( ऐसे रूप होते हैं )। बुभुक्षिवीज्योीरव-वोजौ ॥ ५॥ बुभुक्षेराचारक्विबन्तस्य च वीजेर्यथासंख्यमेतावादेशौ वा भवतः । णीरवइ । बुहुक्खइ । वोज्जइ । वीजई। बुभुक्ष मोर आचार ( अर्थ में लगनेवाले ) पिवप् ( प्रत्यय ) से अन्त होनेवाला बीज, इन धातुओं) को अनुक्रम से ( णीरव और वोज) ये आदेश विकल्प से होते हैं। उदा.-णीरवर; (विकल्प-पक्षमें:- ) बुहुक्खइ । बोज्जइ; (विकल्पपक्षमें:-) वीजइ। ध्यागोागौ ॥ ६॥ अनयोर्यथासंख्यं झागा इत्यादेशौ भवतः । झाइ । झाअह। णिज्झाइ। णिज्झामइ। निपूर्वो दर्शनार्थः । गाइ मायइ । झाणं । गाणं । (ध्य और गे ) इन ( धातुओं ) को अनुक्रम से झा और गा ऐसे आदेश होते हैं । उदा०-साइ'..."णिज्झाअइ; नि ( यह उपसर्ग ) पूर्व में होनेवाला (ध्ये पातु ) देखना ( दर्शन ) अर्थ में है; गाइ...'गाणं । ज्ञो जाणमुणौ ॥७॥ जानातेणिमुण इत्यादेशौ भवतः । जाणइ मुणइ । बहुलाधिकारात् क्वचित् विकल्पः । जाणिों णायं । जाणिऊण नाऊण । जाणणं णाणं। मणइ इति तु मन्यतेः। ज्ञा ( जानाति इस धातु ) को जाण और मुण ऐसे आदेश होते हैं। उवाजाणइ, मुणइ । बहुल का अधिकार होने से, क्वचित् विकल्प होता है। उदा.जाणिसं'. 'णाणं ; मणइ यह रूप मात्र मन् (मन्यते) (धातु) का हैं। १./नि-+-ध्य । २. क्रमसे:-/ध्यान । गान । ३. ज्ञात । ४. V ज्ञान । Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८६ चतुर्थः पादः उदो ध्मो धुमा ॥ ८॥ उदः परस्य ध्मो धातोर्धमा इत्यादेशो भवति । उद्घमाइ। उद् ( उपसर्ग ) के आगे आनेवाले ध्मा धातु को धुमा ऐसा आदेश होता है। उदा.-उधुमाइ । श्रदो धो दहः ॥ ९ ॥ श्रदः परस्य दधातेदह इत्यादेशो भवति । सद्दहइ । 'सहहमाणो जीवो। श्रद् ( इस अव्यय ) के अगले धा ( दधाति ) धातु को दह ऐसा मादेश होता है । उदा०-सदहइ. 'जीवो। पिबेः पिज-डल्ल-पट्ट-धोट्टाः ॥१०॥ पिवतेरेते चत्वार आदेशा वा भवन्ति । पिन्बाइ । डल्लइ । पट्टइ । धोट्टइ। पिमइ। पिबति (पा-पिब् धातु ) को ( पिज्ज, डल्ल,पट्ट और घोट्ट ऐसे ) ये चार आदेश विकल्प से होते हैं । उदा०-पिज्जइ....."धोट्टई । ( विकल्प-पक्षमें:-) पिअइ। उद्वातेरोरुम्मा वसुभा ॥११॥ उतूर्वस्य वातेः ओरुम्मा वसुआ इत्येतावादेशौ वा भवतः । ओरुम्माइ । वसुआइ। उव्वाइ। उद् ( मह उपसर्ग) पूर्व में होनेवाले वा (पाति) धातु को ओझम्मा और बसुआ ऐसे ये आदेश विकल्प से होते हैं । उदा०-भोरुम्माइ, वसुभाइ । (विकल्प-पक्षमें:-) सम्बाइ। निद्रातेरोहीरोयौ ॥१२॥ निपूर्वस्य द्रातेः ओहीर उङ्घ इत्यादेशौ वा भवतः । ओहीरइ । उङ्घइ । निहाइ। नि ( उपसर्ग) पूर्व में होनेवाले द्रा ( द्राति ) धातु को ओहोर भौर उध ऐसे भादेव विकल्प से होते हैं । उदा०--ओहोरइ, उङ्घइ । (विकल्प पक्षमें :-) निहाइ । आघ्र राइग्धः ॥ १३॥ आजिघ्रतेराइग्ध इत्यादेशो वा भवति । आइग्धइ । भग्धाइ । आ+घ्रा ( आजिध्रति ) घातु को आइग्धः । ऐसा आदेश विकल्प से होता है । उदा.-आइग्बइ । (विकल्प-पक्ष में:-) अग्धाइ। १. बद्धानः जीवः। Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतश्याकरणे १८७ १८७ स्नातेरभुत्तः ॥ १४ ॥ स्नातेरब्भुत्त इत्यादेशो वा भवति । अब्भुत्तइ। हाइ। स्ना ( स्नाति ) धातु को अन्मुक्त ऐसा आदेश विकल्प से होता है। उदा.-- भन्धुत्तइ । ( विकल्प- क्षमें:-) हाइ । ___ समः स्त्यः खाः ॥१५॥ संपूर्वस्य स्त्यायतेः खा इत्यादेशो भवति । संखाइ। संखायं । सम् (उपसर्ग) पूर्व में होनेवाले स्त्यायति (स्त्य) धातु को खा ऐसा आदेश होता है । उदा.--संखाइ, संखायं । । स्थष्ठा-थक्क-चिह-निरप्पाः॥ १६ ॥ तिष्ठतेरेते चत्वार आदेशा भवन्ति । ठाइ ठाअइ। 'ठाणं । पठिओ। उठ्ठिओ। पट्ठाविओ । उहाविमो । थक्कइ । चिठ्ठइ। चिट्ठिऊण। निरप्पइ । बहुलाधिकारात् क्वचिन्न भवति । 'थिअं । थाणं । पत्थिओ। उत्यिो । थाऊण । स्था (दिहति ) धातु को ( ठा, थक्क, चिट्ठ और निरप्प ऐसे ) ये चार आवेत होते हैं । उदा०-ठाइ ....."निरप्पइ । बहुल का अधिकार होने से, क्वचित् ( ऐसे आदेश ) नहीं होते हैं। उदा.-थि... ...'थाऊण । उदष्ठकुक्कुरौ ॥ १७॥ उदः परस्य तिष्ठतेः ठ कुक्कुर इत्यादेशौ भवतः । उट्ठइ । उक्कुकुकुरइ। उद् ( उपसर्ग ) के अगले तिष्ठति (स्था) धातु को ठ और कुक्कुर ऐसे मादेश होते हैं। उदा० -उटइ, उक्कुक्कुर । म्लेापव्वायौ ॥ १८ ॥ म्लायतेर्वा पव्वाय इत्यादेशौ वा भवतः । वाइ। पव्वायइ । मिलाइ। म्लायति (/म्लै) को वा और पम्बाय ऐसे भादेश विकल्प से होते हैं । उदा.माइ, पब्बायइ । (विकल्प-पक्षमें:-) मिलाइ। निर्मो निम्माणनिम्मवौ ॥ १९॥ निपूर्वस्य मिमीतेरेतावादेशौ भवतः । निम्माणइ । निम्मवइ। १. प्रामसे:-स्पान । प्रस्पित । उत्स्थित । प्रस्थापित । उत्स्थापित । २. क्रमसे:-स्थित । स्थान । प्ररिस्पत। उत्स्थिस । स्था। Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ चतुर्थ. पादः निर् (उपसर्ग) पूर्व में होनेवाले मिमीति (V मा) को निम्माण और निम्मव ये भादेश होते हैं । उदा.-निम्माणइ, निम्मबइ । क्षेणिज्झरो वा ॥ २० ॥ क्षयतेणिज्झर इत्यादेशो वा भवति । णिज्झरइ । पक्षे । झिज्जइ । क्षति ( /क्षि ) को णिज्झर ऐसा आदेश विकल्प से होता है। उदा.गिज्झरइ । (विकल्प-) पक्ष में:-झिज्जइ : छदणेणमनूभसन्नुमढक्कौम्बालपव्वालाः ॥ २१ ॥ छदेय॑न्तस्य एते षडादेशा वा भवन्ति । णुमइ । नूमइ । णत्वे मइ । सन्नमइ । ढक्कइ । ओम्बालइ । पव्वालइ । छायइ। .. प्रेरक (=प्रयोजक) प्रत्यय अन्त में होनेवाले छदि (४द् ) धातु को ( णुम, नूम, सन्नम, ढक्क, ओम्बाल और पव्वाल ऐसे ) ये छः आदेश विकल्प से होते हैं । उदा.णुमइ, नूमइ; ( नूम में से न का ) ण होने पर, णूमद; सन्नुमइ" .''पग्वालइ । (विकल्प-पक्ष :-) छायइ ।। . निविपत्योणिहोडः॥ २२ ॥ निवृगः पतेश्च ण्यन्तस्य णि होड इत्यादेशो वा भवति । णि होडइ । पक्षे । निवारेइ । पाडेइ। प्रेरक प्रत्यय अन्त में होने वाले निवृ ( निगः) और पत् ( पति ) इन धातुओं को णिहोड ऐसा आदेश विकल्प से होता है। उदा.-णिहोड। ( विकल्प-) पक्ष में :-निवारेइ । पाडेइ । दूङो दूमः ॥ २३ ॥ दूङो ण्यन्तस्य दूम इत्यादेशो भवति । दूमेइ मज्झ' हि अयं । प्रेरक प्रत्यय के अन्त में होने वाले दू ( दूङ ) धातु को दूम ऐसा आदेश होता है । उदा.-दूमेइ... ..हि अयं । धवलेवुमः ॥ २४ ॥ धवलयतेय॑न्तस्य दुमादेशो वा भवति । दुमइ । धवलइ। स्वराणां स्वरा (बहुलम् ) ( ४.२३८ ) इति दीर्घत्वमपि । दूमि । धवलितमित्यर्थः।। प्रेरक प्रत्ययान्त धवलयति (धातु ) को दुम ऐसा आदेश विकल्प से होता है। उदा०-दुम । ( विकल्प पक्ष में ):-धवलइ । 'स्वराणां स्वरा ( बहुलम् ) १. मम हृदयम् । Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरणे सूत्र से ( दुम में से ह्रस्य उ का ) दीर्घ ऊ भी होता है । उदा अवलित ऐसा अर्थ है | १८९ तुले रोहामः ॥ २५ ॥ तुलेर्ण्यन्तस्य ओहाम इत्यादेशो वा भवति । ओहामइ । तुलइ | प्रेरक प्रत्यधान्त तुल् ( धातु ) को महाम ऐसा आदेश विकल्प से होता है । उदा० -- महामह । ( विकल्प - पक्ष में : -- - ) तुलइ | - दूमि ( यानी ) विरिचेरो लुण्डोल्लुण्डप हत्थाः || २६ ॥ विरेचयतेर्ण्यन्तस्य ओलुण्डादयस्त्रय आदेशा वा भवन्ति । ओलुण्ड | उल्लुण्ड । पल्हत्थइ । विरेअइ । प्रेरक प्रत्ययान्त विरेचयति (वि + रि धातु ) को ओलुण्ड इत्यादि ( यानी ओलुण्ड, उल्लुण्ड और पल्हत्थ ऐसे ये ) तीन आदेश विकल्प से होते हैं । उदा०ओलुण्डइ पल्हत्थइ । ( विकल्प-पक्ष : ) विरेअइ । तडेराहो विहोडौ ॥ २७ ॥ तडेर्ण्यन्तस्य एतावादेशौ वा भवतः । आहोडइ । विहोडइ । पक्षे ताडेइ । प्रेरक प्रत्यय अन्त में होने वाले त ( तडि ) धातु को ( आहोड सौर विछोड ) ये आदेश विकल्प से होते हैं । उदा० - आहोडइ, बिहोडइ ( विकल्प - ) पक्ष में : -ताडेइ | मिश्रेर्वी साल मेलवौ ।। २८ ।। मिश्रयते ण्यन्तस्य वीसाल मेलव इत्यादेशौ वा भवतः । वीसालइ । मेल! वइ । मिस्स | प्रेरक प्रत्ययान्त मिश्रयति धातु को बीसाल और मेलव आदेश विकल्प से होते हैं । उदा० -- वीसालइ मेलबइ । ( विकल्प-पक्ष में :---- ) मिस्सइ । उद्यूलेर्गुण्ठः ॥ २९ ॥ उद्धूयन्तस्य गुण्ठ इत्यादेशो वा भवति । गुण्ठइ । पक्षे । उद्दूलेइ । प्रेरक प्रत्ययान्त उवल धातु को गुण्ठ ऐसा आदेश विकल्प से होता है । उदा०गुण्ठइ । ( विकल्प ) पक्ष में :- उद्ध्रुलेइ । भ्रस्ता लिअण्ट- तमाडौ ॥ ३० ॥ भ्रमयतेर्ण्य न्तिस्य तालिअण्ट तथाड इत्यादेशौ वा भवतः । तालिअण्टइ । तमाइ । भाइ । भमाडेइ भमावेइ : Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः पादः प्रमयति ( Vघ्रम् ) इस प्रेरक प्रत्ययान्त धातु को तालिअण्ट और तमाड ऐसे आदेश विकल्प से होते हैं। उदा०-तालिअण्टइ, तमाडइ। (विकल्प पक्ष :-) भामेई... .."भमावेइ। नशेविउड-नासव-हारव-विप्पगाल-पलावाः॥ ३१ ॥ नशेय॑न्तस्य एते पञ्चादेशा वा भवन्ति । विउडइ। नासवइ। हारवइ । विप्पगालइ । पलावइ । पक्षे । नासइ । प्रेरक प्रत्ययान्त नश् धातु को ( विउड, नासव, हारब, विप्पगाल, और पलाय ऐसे ) ये पांच आदेश विकल्प से होते हैं। उदा०-विउडइ .. 'पलावइ । (विकल्प-) पक्ष में :-नासइ । दृशेर्दाव-दस-दक्खाः ॥ ३२ ॥ दृशेय॑न्तस्य एते त्रय आदेशा वा भवन्ति । दावइ । दंसइ । दक्खवइ । दरिसह। प्रेरक प्रत्ययान्त दृश् धातु को ( दाव, दस और दक्खव ऐसे ) ये तीन आदेश विकल्प से होते हैं। उदा०-दाबइ... ..'दक्खवइ। ( विकल्प पक्ष में :-) दरिसइ। . उद्घटेरुग्गः ।। ३३ ॥ उत्पूर्वस्य घटेय॑न्तस्य उग्ग इत्यादेशो वा भवति । उग्गइ । उग्धाडइ । उद् ( उपसर्ग) पूर्व में होने वाले प्रेरक प्रत्ययान्त धट् धातु को उग्ग ऐसा देश विकल्प से होता है । उदा० ।- उग्गइ (विकल्प पत्र में :-) उग्धाइ। स्पृहः सिहः ।। ३४ ॥ स्पृहो ण्यन्तस्य सिह इत्यादेशो वा भवति । सिहइ। प्रेरक प्रत्ययान्त स्पृह, धातु को सिह ऐसा आदेश विकल्प से होता है । उदा.-- सिहए। संभावेरासंघः ॥ ३५ ॥ सम्भावयतेरासंघ इत्यादेशो ( वा ) भवति । आसंघइ । संभावइ । सम्भावयति ( धातु ) को आसंघ ऐसा आदेश ( विकल्प से ) होता है। उदा०आसंघइ (विकल्प-पक्ष :-- ) सम्भावइ । Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरणे उनमेरुत्थंघोल्लाल-गुलुगुञ्छोप्पेलाः ॥ ३६॥ उत्पूर्वस्य नमेय॑न्तस्य एते चत्वार आदेशा वा भवन्ति । उत्थंघई। उल्लालइ । गुलगुञ्छ । उप्पेलइ । उन्नामइ।। ___उद् ( उपसर्ग) पूर्व में होने वाले प्रेरक प्रत्ययान्त नम् (धातु ) को ( उत्थंघ, उल्लाल, गुलुगञ्छ और उप्पेल ऐसे ) ये चार आदेश विकल्प से होते हैं। उदा०-उत्थंघइ... .."उप्पेलइ । (विकल्प-पक्ष में :- ) उन्ना प्रस्थापः पट्टव-पेण्डवौ ।। ३७ ।। प्रपूर्वस्य तिष्ठतेर्ण्यन्तस्य पठ्ठव पेण्डव इत्यादेशौ वा भवतः । पट्ठवइ । पेण्डवइ । पट्ठावइ। प्र ( उपसर्ग ) पूर्व में होने वाले प्रेरक प्रत्ययान्त तिष्ठति ( /स्था ) को पट्ठ और पेण्डव ऐसे आदेश विकल्प से होते हैं। उदा०-पट्ठव इ, पेण्डवइ । ( विकल्प पक्ष :-) पट्ठावइ । विज्ञपेोक्काबुक्की ।। ३८ ॥ विपूर्वस्य जानातेय॑न्तस्य वोक्क अवुक्क इत्यादेशौ वा भवतः । वोक्कइ । अवुक्कइ । विण्णव । वि ( उपसर्ग) पूर्व में होने वाले प्रेरक प्रत्ययान्त जानाति ( /ज्ञा ) को वोषक ओर अवुक्क ऐसे आदेश विकल्प से होते हैं। उदा.-बोक्कइ, अवुक्कइ । ( विकल्वपक्ष में :- ) विण्णवइ । अरल्लिव-चच्चुप्प-पणामाः ।। ३९ ॥ अर्पर्ण्यन्तस्य एते त्रय आदेशा वा भवन्ति । अल्लिवइ । चच्चुप्पइ । पणामइ । पक्षे । अप्पेइ। प्रेरक प्रत्ययान्त अपं, ( अपि ) को ( अल्लिव, चच्चुप्प और पणाम ऐसे ) ये तीन भादेश विकल्प से होते हैं। उदा.-अल्लिव इ... ::"पणामइ । (विकल्प- ) पक्ष में :-अप्पेड़। यापेर्जवः ॥ ४०॥ यातेर्ण्यन्तस्य जव इत्यादेशो वा भवति । जवइ । जावेइ। प्रेरक प्रत्ययान्त याति ( /या ) धातु को जब ऐसा आदेश बिकल्प से होता है। उदा०-जवइ ( विकल्प-पक्ष में ? - ) जावेइ । Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'चतुर्थ: पाद: प्लावेरोम्वाल- पन्वालौ ॥ ४१ ॥ प्लवतेयं तस्य एतावादेशौ वा भवतः । ओम्वालइ । पव्वालइ । पावेइ । प्रेरक प्रत्ययान्स प्लवति ( /प्लु ) को ( ओम्वाल और पव्वाल ऐसे ) ये भादेश विकल्प से होते हैं । उदा० - ओम्बाला, पव्वालह । ( विकल्प पक्ष मे :- > पावेह | १९२ विकोशेः पक्खोडः ॥ ४२ ॥ विकोशयतेर्नामधातोर्ण्यन्तस्य पक्खोड इत्यादेशो वा भवति । पक्खोडद | विकोसइ | fastशयति इस प्रेरक प्रत्ययान्त नाम धातु को पक्खोड ऐसा आदेश विकल्प से होता है । उदा० - पक्खोडइ । ( विकल्प पक्ष में :-- ) विकोसइ । रामन्थे रोग्गाल - बग्गोलौ ॥ ४३ ॥ रोमन्थेर्नामधातोयं न्तस्य एतावादेशौ वा भवतः । ओग्गालइ । वग्गोलइ । रोमन्थइ । रोमन्थ ( शब्द ) से होने वाले प्रेरक प्रत्ययान्त नाम धातु को ऐसे ) ये आदेश विकल्प से होते हैं ! उदा० .. में : --- ) रोमंथइ | ओग्गाल मौर --- ओग्गालइ, वग्गोल | ( विकल्प - पक्ष कमेर्णिहुवः || ४४ || कमे स्वार्थण्यन्तस्य बहुव इत्यादेशो वा भवति । णिहुवइ । कामेइ । स्वायें प्रेरक प्रत्यय से अन्त होने वाले कम् धातु को णिहुव ऐसा आदेश विकल्प से होता है । उदा०- -- णिहुबइ ( विकल्प-पक्ष में :-- ) कामेह | प्रकाशेर्णुव्वः ।। ४५ ।। प्रकाशेष्यन्तस्य णुव्व इत्यादेशो वा भवति । गुव्वइ । पयासेइ | प्रेरक प्रत्ययान्त प्रकाश्वातु को णुव्व ऐसा आदेश विकल्प से होता है । उदा०goat | ( विकल्प-पक्ष में :- २) पयासेइ । कम्पेर्विच्छोलः ॥ ४६ ॥ कम्पेण्यंन्तस्य विच्छोल इत्यादेशो वा भवति । विच्छोलइ । कम्पेई | प्रेरक प्रत्ययान्त कम्प् धातु को विच्छोल ऐसा विकल्प से होता है । उदा० विच्छोलs | ( विकल्प - पक्ष में :--- ) कम्पेइ | Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरणे आरोपेर्वलः ॥ ४७ ॥ आरुण्यन्तस्य वल इत्यादेशो वा भवति । वलइ | आरोवेइ । प्रेरक प्रत्ययान्त आवह, धातु को वल ऐसा आदेश विकल्प से होता है । उदा०वलइ | ( विकल्प - पक्ष में :-) आरोबेइ । दोले खोलः ॥ ४८ ॥ दुके: स्वार्थे ण्यन्तस्य रंखोल इत्यादेशो वा भवति । रंखोलइ । दोलइ । स्वायें प्रेरक प्रत्यय से अन्त होने वाले दुल् धातु को रंखोल ऐसा आदेश विकल्प से होता है । उदा० - रंखोलइ । ( विकल्प-पक्ष में :) दोलइ । रजे रावः । ४९ ॥ जेर्ण्यन्तस्य राव इत्यादेशो वा भवति । रावेइ । रइ । प्रेरक प्रत्ययान्त रञ्ज, धातु की राव ऐसा आदेश विकल्प से होता है । उदा०रावे | ( विकल्प - पक्ष में :- ) रजेइ | घटेः परिवाडः || ५० ॥ घटेoयन्तस्य परिवाड इत्यादेशो वा भवति । परिवाडेइ । घडे । प्रेरक प्रत्ययान्त घट् धातु को परिवाड ऐसा आदेश विकल्प से होता है । उदा०परिवाडे | ( विकल्प - पक्ष में :- ) घडेइ । वेष्टेः परिआलः ॥ ५१ ॥ गेष्टेर्ण्यन्तस्य परिआल इत्यादेशो वा भवति । परिआलेइ । वेढेइ । प्रेरक प्रत्ययान्त वेष्ट् धातु को परिभाल ऐसा आदेश विकल्प से होता है । उदा०परिआलेइ ( विकल्प-पक्ष :- २) वेढेइ | क्रियः किणो वेस्तु क्के च ॥ ५२ ॥ १९३ रिति निवृत्तम् । क्रीणातेः किण इत्यादेशो भवति । वेः परस्य तु द्विरुक्तः केश्चकारात् किणश्च भवति । किणइ । विक्केइ । विविकणइ । णे ( प्रेरक प्रत्ययान्त धातु को ) इस शब्द की अब निवृत्ति होती है क्री 1 क्रीणाति ) धातु को किण ऐसा आदेश होता है । वि ( इस उपसर्ग ) के आगे होने वाले क्री ( क्रीणाति ) धातु को मात्र द्वित्वयुक्त के ( = क्के, और ( सूत्र में से ) चकार के कारण किण ( ऐसे आदेश ) होते हैं । उदा० - किणइ... विक्किणइ | १३ प्रा० व्या० *** Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः पादः भियो भा-चीहौ ।। ५३ ॥ बिभेतेरेतावादेशौ भवतः। भाइ। बीहइ। बीहि । बहुलाधिकाराद् भीओ। __ भो ( बिभेति ) धातु को { भा और बहि ऐसे ) ये आदेश होते हैं। उदा०भाइ... बीहियं । बहुल का अधिकार होने के कारण, ( बीह आदेश न होते हो) भीओ ( ऐसा रूप होता है )। आलीङोल्ली ॥ ५४॥ आलोयतेः अल्ली ईत्यादेशो भवति । अल्लीयइ । अल्लीणो। आली ( मालीयति ) को अल्लो ऐसा आदेश होता है। उदा.- अल्लोयइ, अल्लोणो। निलीडेर्णिलीअ-णिलुक्क-णिरिग्ध-लुक्कलिक्क-ल्हिक्काः ॥५॥ निलीङ एते षडादेशा वा भवन्ति । णिलीअइ । णिलुक्कइ। णिरिग्घइ । लुक्कइ । लिक्कइ । ल्हिक्कइ । निलिज्जइ: निली धातु को ( णिलीअ, णिलुक्क, णिरिग्घ, लुक्क, लिक्क, और ल्हिक्क ऐसे ) ये छ. आदेश विकल्प से होते हैं। उदा.-.णिलीअइ... ... ... ... ल्हिक्कइ। (विकल्प-पक्ष में :--- ) निलिज्जइ । विलीउविरा ॥ ५६ ॥ विली.विरा इत्यादेशो वा भवति । विराइ । विलिज्जइ । विली धातु को विरा ऐसा आदेश विकल्प से होता है। उदा.---विराइ । ( विकल्प पक्ष में :-) विलिज्जइ । रुते रुज-रुण्टौ ॥ ५७॥ रौतेरेतावादेशौ भवतः । रुखइ । रुण्टइ। रवइ । रु ( रौति ) धातु को ( रुञ्ज और रुण्ट ऐसे ) ये आदेश विकल्प से होते हैं । उदा०- रुञ्जइ, रुण्टइ । ( विकल्प पक्ष में :-) रवइ । शूटेहणः ।। ५८ ॥ शृणोतेहण इत्यादेशो वा भवति । हणइ । सुणइ । १. बोह धातुका फ० भू० धा० वि०। २. आलीन । Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरणे १९५ श्रु ( शृणोति ) धातु को हण ऐसा आदेश विकल्प से होता है । उदा०-हणइ । (विकल्प पक्ष में :-- ) सुणइ । धूगेधुवः ॥ ५९॥ धुनातेधुंव इत्यादेशो वा भवति । धुवइ । धुणइ । धू (घुनाति ) धातु को धुव ऐसा आदेश विकल्प से होता है। उदा.-धुबइ । ( विकल्प पक्ष में :- ) घुणइ । मुवे:-हुव-हवाः ॥ ६०॥ भुवो धातो) हुव हव इत्येते आदेशा वा भवन्ति । होइ होन्ति । हुवइ हुवन्ति । हवइ हवन्ति । पक्षे । भवइ । 'परिहीण विहवो । भविउँ । पभवइ । परिभवइ । सम्भवइ । क्वचिदन्यदपि । उब्भुअई । 'भत्तं । भू (धातु ) को हो, हुव, और हव ऐसे ये आदेश विकल्प से होते हैं। उदा.होइ."हवन्ति । (विकल्प-) पक्ष में :-भवइ... ..'सम्भवइ । क्वचित् भिन्न (वर्णान्तर ) भी होता है । उदा.-उन्मुमइ, भत्तं ।। अविति हुः॥ ६१ ॥ विद् वर्जे प्रत्यये भुवो हु इत्यादेशो वा भवति । हुन्ति । भवन हुन्तो । अवितीति किम् । होइ। वित् ( प्रत्यय ) छोड़ कर (अन्य ) पत्यय होने पर, भू (धातु) को हु ऐसा आदेश विकल्प से होता है। उदा० . हन्ति... .. इन्तो। वित् छोड़ कर ऐसा क्यों कहा है ? ( कारण वैसा न होने पर. हु आदेश नहीं होता है । उदा०-) होइ। पृथक्स्पष्टे णिव्वडः ॥ ६२ ॥ पृथग्भूते स्पष्टे च कर्तरि भुवो णिव्वइ इत्यादेशो भवति । णिव्वडइ । पृथक स्पष्टो वा भवतीत्यर्यः पृथग्भूत और स्पष्ट ऐसा कर्तरि अर्थ होने पर, भू (धातु ) को णिव्वड ऐसा आदेश होता है। उदा० ---णिब्वडइ ( यानी ) पृथक् अथवा स्पष्ट होता है ऐसा अर्थ है। प्रभो हुप्पो वा ॥ ६३ ॥ १. परिहीणविभवः । २. उद्भवति । ३. भूत। Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९६ चतुर्थः पादः प्रभुकत॒कस्य भुवो हुप्प इत्यादेशो वा भवति । प्रभुत्वं च प्रपूर्वस्यवार्थः । अङ्गे च्चिअ न पहुप्पइ । पक्षे । पभवइ । प्रभावो | समर्थ होना इस कर्तरि अर्थ में होने वाले भू (धातु ) को हुप्प ऐसा आदेश विकल्प से होता है। समर्थ होना यह अर्थ प्र ( उपसर्ग ) पूर्व में होने काले भू धातु का है । उदा०--अङ्गे.. ." पहुप्पइ । ( विकल्प ) पक्ष में :पभवेइ। क्ते हूः ॥ ६४ ॥ भुवः क्त प्रत्यये हूरादेशो भवति । हूअं । अणुहूअं । पहूअं । भू (धातु) के आगे क्त प्रत्यय होने पर, (भू को ) हू आदेश होता है । उदा०हुर्भ... ."पहू। .. कुगेः कुणः ॥ ६५ ॥ कृगः कुण इत्यादेशो वा भवति । कुणइ । करइ । क (ग ) धातु को कुण ऐसा आदेश विकल्प से होता है। उदा.-कुणइ । (विकल्प-पक्ष में :-) करइ । काणेक्षिते णिआरः ॥६६॥ काणेक्षितविषयस्य कृगो णिआर इत्यादेशो वा भवति । गिआरइ । काणेक्षितं करोति। ___ काणेक्षित-विषयक कृ धातु को णिआर ऐसा आदेश विकल्प से होता है। उदा.णिआरइ ( यानी ) काणेक्षितं करोति ( ऐसा अर्थ है )। निष्टम्भावष्टम्मे णिछह-संदाणं ॥ ६७ ॥ निष्टम्भविषयस्यावष्टम्भ विषयस्य च कृगो यथासंख्यं णिठ्ठह संदाण इत्यादेशौ वा भवतः । णिठ्ठहइ। निष्टम्भं करोति । संदाणइ । अवष्टम्भं करोति। निष्टंभ-विषयक और अवष्टंभ-विषयक कृ धातु को अनुक्रम से णिठ्ठह और संदाण ऐसे ये आदेश विकल्प से होते हैं । उदा०-णिठ्ठहइ ( यानी ) निष्टम्भं करोति ( ऐसा अर्थ है)। संदाणइ ( यामो) अवष्टम्भं करोति ( ऐसा अर्थ है)। १. अङ्गे एव न प्रभवति । २. क्रम से :-भूत । अनुभूत । प्रभूत । Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरणे श्रमे वावम्फः ॥ ६८ ॥ श्रमविषयस्य कृंगो वावम्फ इत्यादेशो वा भवति । वावम्फइ । श्रमं करोति । श्रमविषयक कृ धातु को वावम्फ ऐसा आदेश विकल्प से होता है । उदा०बावम्फर ( यानी ) श्रमं करोति ( ऐसा अर्थ है ) । मन्युनौष्ठमालिन्ये णिब्बोलः ॥ ६९ ॥ मन्युना करणेन यदोष्ठमालिन्यं तद् विषयस्य कृगो णिव्वोल इत्यादेशो वा भवति । णिव्वोलह । मन्युना ओष्ठं मलिनं करोति । १९७ क्रोध के कारण से ( आने वाला ) जो होठों का मालिन्य वह विषय होने वाले कृ धातु को णिब्वोल ऐसा आदेश विकल्प से होता है । उदा० - णिव्वोलइ ( यानी ) क्रोध से होंठ मलिन करता है ( ऐसा अर्थ है ) । शैथिल्य - लम्बने पयल्लः ॥ ७० ॥ शैथिल्य विषयस्य लम्बनविषयस्य चं कृगः पयल्ल इत्यादेशो वा भवति । पल्लइ । शिथिली भवति लम्बते वा ! ffect विषयक तथा लम्बन विषयक कृ धातु को पयल्ल ऐसा आदेश विकल्प से होता है | उदा - पयल्लइ ( यानी ) शिथिल होता है अथवा टंगता है । टंगा रहता है ( ऐसा अर्थ है ) । निष्पाताच्छोटे नीलञ्छः ॥ ७१ ॥ निष्पतनविषयस्य आच्छोटनविषयस्य च कृगो णीलुञ्छ इत्यादेशो भवति वा । णीलुन्छइ । निष्पतति आच्छोटयति वा । frogar-विषयक और आच्छोटन विषयक कृ धातु को णीहुञ्छ ऐसा आदेश विकल्प से होता है । उदा० - णोलुञ्छइ यानी ) निष्पतति ( = बाहर जाता है ) अथवा आच्छोर्यात ( = भेदन कराता है ) ( ऐसा अर्थ है ) | क्षुर - विषयक कृ धातु को कम्मइ (यानी, क्षुरं करोति ( क्षुरे कम्मः ॥ ७२ ॥ क्षुर - विषयस्य कृगः कम्म इत्यादेशो वा भवति । कम्मइ । क्षुरं करोतीत्यर्थः । कम्म ऐसा आदेश विकल्प से होता है । उदा० = क्षुर करता है ) ऐसा अर्थ है । Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९८ चतुर्थः पादः चाटौ गुललः ॥ ७३ ॥ चाटुविषयस्य कृगो गुलल इत्यादेशो वा भवति । गुललइ । चाटु करोतीत्यर्थः। चाटु-विषयक कृ धातु को गुलल ऐसा आदेश विकल्प से होता है। उदा.-. गुललइ ( यानी ) चाटु करोति ( = चाटु | मधुर वोलता है ) ऐसा अर्थ है । स्मरेझर-झूर-भर-भल-लढ-विम्हर-सुमर-पपर-पम्हुहाः ॥ ७४ ॥ स्मरेरेते नवादेशा वा भवन्ति । झरइ । झूरइ। भरइ । भलइ । लढइ । विम्हरइ । सुमरइ । पयरइ । पम्हहइ । सरइ । स्मृ ( स्मरि ) धातु को ( झर, झूर, भर, भल, लढ, विम्हर, सुमर, पयर, और पम्हुह ऐसे ) ये नौ आदेश विकल्प से होते हैं। उदा०-झरइ... .''पम्हुहइ । (विकल्प पक्ष में :-) सरइ । विस्मुः पम्हुस-विम्हर-वीसराः ॥ ७५ ॥ विस्मरतेरेते आदेशा भवन्ति । पम्हुसइ । विम्हरइ । वीसरइ । विस्मृ ( विस्मरति ) धातु को ( पम्हुस, विम्हर और वीसर ऐसे ) ये आदेश होते हैं । उदा०-पम्हसइ" ''वीसरइ। व्याहगेः कोक्क-पोक्कौ ॥ ७६ ॥ व्याहरतेरेतावादेशौ वा भवतः । कोक्कइ । ह्रस्वत्वे तु कुक्कइ । पोक्कइ । पक्षे । वाहरइ । ब्याह ( व्याहरति ) धातु को ( कोक्क और पोक्क ) ऐसे आदेश विकल्प से होते हैं। उदा०-कोक्कइ; ( कोक्कइ में से ओ स्वर ) ह्रस्व होने पर, कुक्काइ (ऐसा रूप होगा ); पोक्कई । ( विकल्प-) पक्ष में :-वाहरइ । प्रसरेः पयल्लोवेल्लौ ॥ ७७॥ प्रसरतेः पयल्ल उवेल्ल इत्येतावादेशौ वा भवतः। पयल्लइ । उवेल्लइ । पसरइ। प्रसृ ( प्रसरति ) धातु को पयल्ल और उबेल्ल ऐसे ये आदेश विकल्प से होते हैं । उदा.-पपल्लइ, उवेल्लइ । ( विकल्प पक्ष में :- पसरइ । महमहो गन्धे ॥ ७८ ।। १. मालती। २. मालतीगन्ध : प्रसरति । Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरणे १९९ प्रसरतेर्गन्धविषये महमह इत्यादेशो वा भवति । महमहइ मालई । मालईगन्धो पसरइ । गन्ध इति किम् । पसरइ। गन्ध-विषयक प्रसरति ( V+ सृ) धातु को महमह ऐसा आदेश विकल्प से होता है। उदा.-महमहइ मालई । ( विकल्प पक्ष में :-) मालई गन्धो पसरइ । गन्धविषयक ( प्रसृ धातु ) ऐसा क्यों कहा है .. ...? ( कारण गन्ध विषयक प्रसृ धातु न हो, तो महमह आदेश नहीं होता है । उदा०-) पसरइ। निस्सरेणी-हर-नील-धाड-वरहाडाः ॥ ७६ ॥ निस्सरतेरेते चत्वार आदेशा वा भवन्ति । णीहरइ। नीलइ। धाडइ । वरहाडई । नीसरइ। निस्सरति ( निस्सृ) धातु को ( णोहर, नील, धाड और वरहाड ऐसे ) ये चार आदेश विकल्प से होते हैं। उदा.-णीहरइ... .''वरहाडइ। (विकल्प-पक्ष में :-) नीसरइ। जाग्रेजग्गः ॥ ८०॥ जागर्तेर्जग्ग इत्यादेशो वा भवति । जग्गइ । पक्षे । जागरइ । जागति (जागृ ) धातु को जग्ग ऐसा आदेश विकल्प से होता है। उदा०जग्गइ । ( विकल्प- ) पक्ष में :-जागरइ । व्याप्रेराअड्डः ॥ ८१ ॥ व्याप्रियते राअड्ड इत्यादेशो वा भवति । आअड्डेइ । वावरे । व्याप्रियति (Vब्यापू) धात को आ अड्ड ऐसा आदेश विकल्प से होता है। उदा.-आ अड्डेइ । ( विकल्प-पक्ष में ) :- वावरेइ। ___ संघृगेः साहर-साहट्टो ॥ ८२॥ संवृणोतेः साहर साहट्ट इत्यादेशौ वा भवतः । साहरइ। साहट्टइ। संवर। संवृणोति ( /सम्+वृ) धातु को साहर और साहटूट ऐसे आदेश विकल्प से होते हैं । उदा.-साहरइ, साहट्टइ ( विकल्प-पक्ष में :-) संवरइ। आहङः संनामः ॥ ८३ ॥ आद्रियतेः संनाम इत्यादेशो वा भवति । संनामइ । आदरइ । आद्रियति ( /आ + ६) धातु को संनाम ऐसा आदेश विकल्प से होता है। उदा०--संनामइ । विकल्प-पक्ष में :-) आदरइ। Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः पादः प्रहगेः सारः॥ ८४॥ प्रहरतेः सार इत्यादेशो वा भवति । सारइ । पहरइ । प्रहरति (/प्र + ह) धातु को सार ऐसा आदेश विकल्प से होता है। उदा०सार । ( विकल्प-पक्ष में ):-पहरइ । अवतरेरोह-ओरसौ ॥ ८५॥ अवतरतेः ओह ओरस इत्यादेशौ वा भवतः । ओहइ। ओरसइ । ओअरइ । __अवतरति ( अव+त) धातु को ओह और ओरस ऐसे आदेश विकल्प से होते हैं । ओहइ, ओरसइ । ( विकल्प पक्ष में ) :-ओअरइ । शकेश्चय-तर-तीर-पाराः ॥ ८६ ॥ शक्नोतेरेते चत्वार आदेशा वा भवन्ति । चयई । तरइ । तीरइ । पारइ । सक्कइ। त्यजतेरपि चयइ। हानि करोति । तरतेरपि तरइ। तीरयतेरपि तीरइ। पारयतेरपि पारेई । कम समाप्नोति । शक्नोति ( 1/शक् ) धातु को ( चय, तर, तीर, और पार ऐसे ) ये चार आदेश विकल्प से होते हैं । उदा०-चयइ . ..'पारइ । ( विकल्प-पक्ष में ):-सक्कई । त्यति ( Vत्यज् ) धातु से भी चयइ ( यह रूप होता है); ( त्यजति यानी) हानि करोति (= त्याग करता है, ऐसा अर्थ है)। तरति (Vत) धात से भी तरइ ( ऐसा रूप होता है)। तीरयति (Vतीर् )धात से भी तीरइ ( पह रूप होता है । पारयति ( 14 ) धातु से भी पारेइ ( रूप होता है )। (पारेइ यानी ) कर्म समाप्नोति ( = कर्म पूर्ण करता हैं, ऐसा अर्थ होता है)। फक्कस्थक्कः ॥ ८७॥ फक्कतेस्थक्क इत्यादेशो भवति । थक्कइ । फक्कति ( Vफक ) धात को थक्क आदेश होता है । उदा.-थक्कइ । श्लाघः सखहः ॥ ८८ ॥ श्लाघतेः सह इत्यादेशो भवति । सलहइ । फ्लापति ( Vश्लाथ् ) धातु को सलह आदेश होता है । उदा०-सलहइ । खचेर्वेअडः ॥ ८९॥ खचतेर्वेअड इत्यादेशो वा भवति । वेअडइ। खचइ। Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरणे २०१ खचति (खिच् ) धातु को वेअड ऐसा आदेश विकल्प से होता है । उदा०वेअर ( विकल्प-पक्ष में):-खचइ । पचेः सोल्ल-पउलौ ॥९॥ पचतेः सोल्ल पउल इत्यादेशौ वा भवतः । सोल्लइ । पउलइ। पयइ। पचति ( /पच् ) धातु को सोल्ल और पउल ऐसे आदेश विकल्प से होते हैं । उदा.-सोल्लइ, पउलइ । ( विकल्प पक्ष में ) :--पयइ।। मुचेश्छडडावहेड-मेल्लोस्सिक्क-रेअव-णिल्लुञ्छ-धंसाडाः ॥११॥ मुश्चतेरेते सप्तादेशा वा भवन्ति । छड्डइ । अवहेडइ । मेल्लइ । उस्सिक्कइ। रेअवइ । णिल्लुन्छइ । धंसाडइ । पक्षे। मुअइ।। मुञ्चति (/मुच् ) धातु को ( छड्डु, अवहेड, मेल्ल, उस्सिक्क, रेअव, जिल्लुन्छ और धंसाड ऐसे ) ये सात आदेश विकल्प से होते हैं । उदा०-छड्डइ... .."घंसार। (विकल्प-) पक्ष में :- मुअइ । दुःखे णिव्वलः ॥ ९२॥ दुःखविषयस्य मुचेः णिव्वल इत्यादेशो वा भवति । णिव्वलेइ । दुःखं मुश्चतीत्यर्थः । दुःख-विषयक मुच् ( मुचि ) धातु को णिव्वल ऐसा आदेश विकल्प से होता है। उदा० --णिव्वलेइ ( यानी ) दुःख का | दुःख से त्याग करता है ऐसा अर्थ है। वञ्चेर्वेहव-वेलव-जूरवोमच्छाः ।। ९३ ।। वश्चतेरेते चत्वार आदेशा वा भवन्ति । वेहवई। वेलवइ। जूरवइ । उमच्छइ । वश्चइ। वञ्चति (वि) धातु को ( वेहव, वेलब, जूरव, और उमच्छा ऐसे ) ये चार आदेश विकल्प से होते हैं। उदा.-वेहवइ... .."उमच्छइ । ( विकल्प पक्ष में ):-वच। रचेरुग्गहावह-विडविड्डाः ॥१४॥ रचेर्धातोरेते त्रय आदेशा वा भवन्ति । उग्गहइ। अवहई। विडविड्डइ । रमइ। रच् ( रचि ) धातु को ( उग्गह, अवह, विडविड ऐसे ) ये तीन आदेश विकल्प से होते हैं । उदा०-उग्गहइ... .."विडविड्डइ । ( विकल्प पक्ष में):-रमइ । Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः पादः समारचेरुवरुत्थ-सारव समार केलायाः ॥ ६५ ॥ समारचेरेते चत्वार आदेशा वा भवन्ति । उवहत्थइ । सारवइ । समारइ । केलायइ । समारयई । समारच् ( समारचि ) धातु को ( उवहत्य, सारव, समार और केलाय ऐसे ) ये चार आदेश विकल्प से होते हैं । उदा० -- उवहृत्थइ केलायड । ( विकल्प पक्ष में ) :-- समारयइ । २०२ सिचेः सिश्वसम्पौ ॥ ९६ ॥ सिञ्चतेरेतावादेशौ वा भवतः । सिचाइ । सिम्पइ | सेअइ | सिञ्चति ( सिच् ) धातु को ( सिञ्च और सिम्प ऐसे ) ये आदेश विकल्प से होते हैं | उदा० -सिव इ, सिम्पइ । ( विकल्प पक्ष में ) : - अइ | प्रच्छः पुच्छः ॥ ९७ ॥ पृच्छेः पुच्छादेशो भवति । पुच्छइ । पृच्छ (प्रच्छ् ) धातु को पुच्छ आदेश होता है । उदा०-पुच्छइ । गर्जेर्बुक्कः ॥ ९८ ॥ गर्जतेर्बुक्क इत्यादेशो वा भवति । बुक्कइ । गज्जइ । गति ( ग ) धातु को बुक्क ऐसा आदेश विकल्प से होता है । बुक्कइ ( विकल्प - पक्ष में :- - ) गज्जइ । वृषे ढिक्कः ।। ९९ ॥ वृषकर्तृ कस्य गर्जेढिक्क इत्यादेशो वा भवति । ढिक्कइ । वृषभो गर्जति । वृष -कर्तृक गज् ( गजि ) धातु को ढिक्क आदेश विकल्प से होता है । उदा०ढिक्कइ ( यानी ) वृषभ ( बैल ) गर्जना करता है ( ऐसा अर्थ है ) । = राजेरग्घ-छज-सह-रीर - रेहाः ।। १०० ।। राजेरेते पञ्चादेशा वा भवन्ति । अग्घइ । छज्जइ । सहइ । रीरइ । रेहइ । रायइ । राज् ( राजि ) धातु को ( 'अग्ध, छज्ज, आदेश विकल्प से होते हैं । उदा० - अग्घइ रायइ । --122 सह, शेर और रेह ऐसे ) ये पांच रेहइ । ( विकल्प पक्ष में :-- Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरणे मस्जेराउड्ड-णिउड्ड-बुड्ड-खुप्पाः ॥१०१॥ मज्जतेरेते चत्वार आदेशा वा भवन्ति । आउड्डइ। णिउड्डइ । बुड्डइ। खुप्पइ । मज्जइ। __ मज्जति (/मस्जु ) धातु को ( आउड्ड, णि उड्ड, बुड्ड और खुप्प ) ये चार आदेश विकल्प से होते हैं । उदा०-आउड्डइ....""खुप्पइ । ( विकल्प पक्ष में :-) मज्जइ। पुजेरारोल-वमालौ ॥ १०२॥ पुञ्जरेतावादेशौ वा भवतः । आरोलइ । वमालइ । पुखइ । पुञ्ज ( पुजि ) धातु को ( आरोल और बमाल ऐसे ) ये आदेश विकल्प से होते हैं । उदा०-आरोलइ, वमालइ । ( विकल्प पक्ष में :-) पुञ्जइ । लस्जे हः ॥ १०३ ॥ लज्जतेजर्हि इत्यादेशो वा भवति । जीहइ । लज्जइ । लज्जति ( Vलस्ज् ) धातु को जीह ऐसा आदेश विकल्प से होता है। उदा०-- जीहइ । ( विकल्प-पक्ष में ):-लुज्जइ । तिजेरो सुक्कः ॥ १०४ ॥ तिजेरो सुक्क इत्यादेशो वा भवति । ओसुक्कइ तेअणं । तिज् ( तिजि ) धातु को ओसुक्क ऐसा आदेश विकल्प से होता है। उदा०भोसुक्कइ । ( विकल्प-पक्ष में :-) तेअणं ( तेजनम् )। मृजेरग्धुस-लुञ्छ-पुञ्छ-पुंस-फुस-पुस-लुह-हुल-रोसाणा ॥१०॥ मृजेरेते नवादेशा वा भवन्ति । उग्धुसइ । लुञ्छइ। पुञ्छइ । पंसइ । फुसइ । पुसइ। लुहइ । हुलइ । रोसाणइ । पक्षे। मज्जइ । मृज् ( मृजि ) धातु को उग्घुस, लुञ्छ, पुञ्छ, पुंस, फुस, पुस, लुह, हुल, और रोसाण ऐसे ये नौ आदेश विकल्प से होते है। उदा०-उग्घुसइ"" ""रोसाणइ । ( विकल्प-) पक्ष में :-मज्जइ। भजेर्वेमय-भुसुमूर-मूर-सूर-सूड-विर-पविरञ्ज करञ्ज-नीरजाः ॥ १०६ ॥ भञ्जरेते नवादेशा वा भवन्ति । वेमयइ। मुसुमूरइ। मूरइ। सूरइ । सूडइ। विरइ । पविरलइ। करआइ । नीरखइ । भाइ । Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ चतुर्थः पादः भञ्ज ( भजि ) धातु को ( वेमय, मुसुमूर, मूर, सूर, सूड, विर, पविरल, करा और नीरज ऐसे ) ये नौ आदेश विकल्प से होते हैं। उदा०-वेमयइ....... नीराइ । ( विकल्प पक्ष में :-) भाइ ।। अनुव्रजेः पडिअग्गः ॥ १०७ ।। अनुव्रजेः पडिअग्ग इत्यादेशो वा भवति । पडिअग्गइ । अणुवच्चइ । अनुव्रज् ( अनुजि ) धात को पहिअग्ग ऐसा आदेश विकल्प से होता है। उदा०-पडिअग्गइ । ( विकल्प पक्ष में ):-अणुवञ्चइ । अर्जेविंढवः ॥ १०८ ॥ अर्जेबिढव इत्यादेशो वा भवति । विढवइ । अज्जइ। अर्ज ( अजि ) धातु को विढव ऐसा आदेश विकल्प से होता है। उदा०विढवइ । (विकल्प-पक्ष में):--अज्जइ । मुजो जुञ्ज-जुज-जुप्पाः ॥ १०९॥ मुजो जुञ्ज जुज्ज जुप्प इत्यादेशा भवन्ति । जुइ । जुज्जइ । जुप्पइ । मुज् धातु को जुञ्ज, जुज्ज और जुप्प ऐसे आदेश होते हैं। उदा.--जुञ्जइ... .. जुप्पइ । भुजो भुञ्ज-जिम-जेम-कम्मागह-चमढ-समाण-चड्डाः ॥११०॥ भुज एतेष्टादेशा भवन्ति । भुलइ। जिमइ । जेमइ। कम्भेइ । अण्हइ । समाणइ । चमढइ । चड्डइ। भुज् धातु को भुञ्ज, जिम, जेम, कम्माण्ह, चमढ, समाण और चड्ड ये आठ आदेश होते हैं । उदा०-भुञ्जइ.. "चडुइ । वोपेन कम्भवः ॥ १११ ॥ उपेन युक्तस्य भुजेः कम्भव इत्यादेशो वा भवति । कम्भवइ । उवहुआइ । उप ( इस उपसर्ग ) से युक्त होने वाले मुज् ( भुजि ) धातु को कम्भव ऐसा आदेश विकल्प से होता है । उदा.-कम्भवइ । (विकल्प-पक्ष में :-) उवहुञ्जइ। घटेगढः ॥ ११२ ॥ घटतेर्गढ इत्यादेशो वा भवति । गढइ । धडइ। घटति (Vघट्) धातु को गढ ऐसा आदेश विकल्प से होता है । उदा.-गढइ । (विकल्प-पक्ष में):-घडइ । Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरणे समो गलः ॥ ११३ ॥ सम्पूर्वस्य घटतेगल इत्यादेशो वा भवति । संगलइ । संघडइ । सम् ( उपसर्ग ) पूर्व में होने वाले धटति (घट् ) धातु को गल ऐसा आदेश विकम्प से होता है । उदा.--संगलइ । ( विकल्प पक्ष में):-संघडइ । हासेन स्फुटेमुरः ।। ११४ ।।। हासेन करणेन यः स्फुटिस्तस्य मुरादेशो वा भवति । मुरइ। हासेन स्फुटयति। हास ( = हास्य ) इस करण से युक्त होने वाला जो स्फुट ( स्फुटि ) धातु, उसको मुर आदेश विकल्प से होता है। उदा० --मुरइ ( यानी ) हासेन स्फुटति (ऐसा अर्थ है )। मण्डेश्चिश्व-चिश्चअ-चिचिल्ल-रोड-टिविडिक्काः ॥११॥ मण्डेरेते पश्चादेशा वा भवन्ति । चिञ्चइ । चिश्चअइ । चिचिल्लइ । रीडइ। टिविडिक्कइ । मण्डइ। मण्डू ( मण्डि ) धातु को चिञ्च, चिञ्चअ, चिचिल्ल, रोड और टिविडिक्क ऐसे ये पांच आदेश विकल्प से होते हैं। उदा०-चिञ्चइ... ...टिविडिक्कइ । ( विकल्प-पक्ष में :-) मण्ड। - तुडेस्तोड-तुट्ट-खुट्ट-खुडोक्खुडाल्लुक्क-णिलुक्क - लक्कोल्लूराः ।। ११६ ॥ तुडरेते नवादेशा वा भवन्ति । तोडइ । तुट्टइ । खुट्टइ । खुडइ । उक्खुडइ । उल्लक्कइ । णिलुक्कइ । लुक्कइ । उल्लूरइ । तुडइ। तुर ( तुडि ) धातु को ( तोड, तट्ट, खुटु, खुड, उक्खुड, उलुक्क, णिलुक्क, लुक्क और उल्लूर ऐसे ) ये नौ आदेश विकल्प से होते हैं। उदा०-तोडइ... .. उल्लूरक । (विकल्प-पक्ष में ) :-तुडइ । घूर्णो घुल-घोल-घुम्म-पहल्लाः ॥ ११७ ॥ घूर्णेरेते चत्वार आदेशा भवन्ति । घुलइ । घोलइ । घुम्मइ । पहल्लइ। धूण् (धूणि ) धातु को (धुल, घोल, घुम्म और पहल्ल ऐसे ) ये चार आदेश होते है । उदा०-घुलइ::" .. पहल्लइ । विवृतेढंसः ॥ ११८॥ विवृतेढे स इत्यादेशो वा भवति । ढंसइ । विवट्टइ। Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ चतुर्थः पादः विवृत् धातु को ढंस ऐसा आदेश विकल्प से होता है। उदा०-ढंसइ । (विकल्प पक्ष में ):-विवट्टइ। क्वथेरट्टः ॥ ११ ॥ क्वथेरट्ट इत्यादेशो वा भवति । अट्टइ । कढइ । क्वथ् ( क्वथि ) धात को अट्ट ऐसा आदेश विकल्प से होता है। उदा०-- अट्टा । (विकल्प पक्ष में ):-कढई। ग्रन्थेर्गण्ठः ॥ १२० ॥ ग्रन्थेर्गण्ठ इत्यादेशो भवति । गण्ठइ । 'गण्ठी। ग्रन्थ् धातु को गण्ठ ऐसा आदेश होता है । उदा.--गण्ठइ । गण्ठी । मन्थेषु सल-विरोलौ ॥ १२१ ॥ मन्थे(सल विरोल इत्यादेशौ वा भवतः । घुसलइ। विरोलइ। मन्थइ । मथ् ( मन्थि ! धातु को धुसल और विरोल ऐसे आदेश विकल्प से होते हैं । उदा.--धुसलइ, विरोलइ । ('वकल्प-पक्ष में ):--मन्थइ । ह्लादेरवअच्छः ।। १२२ ।। ह्लादेय॑न्तस्याण्यन्तस्य च अवअच्छ इत्यादेशो भवति । अवअच्छइ । ह्लादते ह्लादयति वा । इकारो ण्यन्तस्यापि परिग्रहार्थः । प्रेरक प्रत्ययान्त तथैव प्रेरक प्रत्यय रहित ऐसे लादते (Vलाद् ) धातु को अवअच्छ ऐसा आदेश होता है। उदा.--अवअच्छाइ ( यानी ) ह्लादते अथवा ह्लादयति ( ऐसा अर्थ है ) । ( सूत्र में से ह्लादि शब्द में से ) इकार प्रेरक प्रत्ययान्त ह्लाद् धातु के ग्रहण करने के लिए है । नेः सदो मज्जः ॥ १२३ ॥ निपूर्वस्य सदो मज्ज इत्यादेशो भवति । अत्ता एत्थ' णुमज्जइ । नि ( उपसर्ग ) पूर्व में होने वाले सद् धातु को मज्ज ऐसा आदश होता है। उदा.-अत्ता एत्थ ण मज्जइ । छिदेदुहाव-णिच्छल्ल-णिज्झोड-णिव्वर-णिल्लूर-लूराः ॥१२४॥ छिदेरेते षडादेशा वा भवन्ति । दुहावइ । णिच्छल्लइ । णिज्झोडइ। णिव्वरइ । पिल्लूरइ । लूरइ। पक्षे । छिन्दइ। १. अन्थि । . २. आत्मा अत्र निषीदति। Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरण २०७ छिद् (छिदि ) धातु को ( दुहाव, णिच्छल्ल, णिज्झोड, णिज्वर, गिल्लूर और लूर ऐसे ) ये छः आदेश विकल्प से होते हैं। उदा.--दुहावइ... ."लूरइ । (विकल्प-) पक्ष में :--छिन्दइ। ___ आङा ओअन्दोद्दालौ ॥ १२५ ॥ आङा युक्तस्य छिदेरोअन्द उद्दाल इत्यादेशौ वा भवतः । ओअन्दइ । उद्दालइ । अच्छिन्दइ। आ ( उपसर्ग) से युक्त होने वाले छिद् धातु को ओअन्द और उद्दाल ऐसे आदेश विकल्प से होते हैं । उदा.--ओअन्दइ, उद्दालइ । (विकल्प पक्ष में ):-- मच्छिन्दह । मृदो मल-मढ-परिहट्ट-खड्ड-चड्ड-मड्ड-पन्नाडाः ।। १२६ ॥ मृनातेरेते सप्तादेशा भवन्ति । मलइ। मढइ। परिहट्टइ। खड्डइ। चड्डइ । मड्डइ। पन्नाडइ । मृनाति ( V मृदु ) धातु को ( मल, मढ, परिहट्ट, खड्डु, चड्ड. मड्डु, और पन्नाड ऐसे ) ये सात आदेश होते हैं । उदा०--मलइ... .. पन्नाडइ । स्पन्देश्चुलुचुलः ।। १२७ ।। स्पन्देश्चुलुचुल इत्यादेशो वा भवति । चुलुचुलइ । फन्दइ। स्पन्द् धातु को चुलचुल ऐसा आदेश विकल्प से होता है। उदा--- चुलुचुलइ । (विकल्प-पक्ष में ):--फन्दइ। निरः पदेवलः ॥ १२८ ॥ निर्वस्य पदेवल इत्यादेशो वा भवति । निव्वलइ। निप्पज्जइ । निर् ( उपसर्ग ) पूर्व में होने वाले पद धात को वल ऐसा आदेश विकल्प से होता है । उदा.---निव्वलइ । ( विकल्प-पक्ष में ):--निप्पज्जइ । विसंवदेविअट्ट-विलोट्ट-फंसाः ॥ १२९ ॥ विसंपूर्वस्य वदेरेते त्रय आदेशा वा भवन्ति। विअट्टइ : विलोट्टइ । फंसइ । विसंवयइ। वि और सम् ( ये उपसर्ग) पूर्व में होने वाले वद् धात को ( विअट्ट, विलोट्ट और फंस ऐसे ) ये तोग आदेश विकल्प से होते हैं। उदा.-विअट्टइ... .. 'फंसइ । (विकल्प पक्ष में ) :-विसंवयइ । Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ चतुर्थः पादः शदी झड - पक्खोडौ ॥ १३० ॥ शीयतेरेतावादेशौ भवतः । झडइ । पक्खोडइ । शीयते ( / शद् ) धातु को ( झड और पक्खोड ऐसे ) ये आदेश होते हैं । उदा० -- झडइ, पक्खोडइ । आक्रन्देर्णीहरः ।। १३१ ॥ आक्रन्देर्णीहर इत्यादेशो वा भवति । णीहरइ । अक्कन्दइ । आक्रन्दु ( आक्रन्दि ) धातु को णीहर ऐसा आदेश विकल्प से होता है । उदा०गोहरइ । ( विकल्प - पक्ष में ) : - अक्कन्दइ । खिदेर्जूरविसूरौ ।। १३२ ।। खिदेरेतावादेशौ वा भवतः । जूरइ । विसरइ । खिज्जइ । खिद् (खिदि) धातु को जूर और विसूर ऐसे ये आदेश विकल्प से होते हैं । उदा० - जूरइ, विसूरह । ( विकल्प - पक्ष में ) :- खिज्जइ । रुधेरुत्थंघः ।। १३३ ॥ う रुधेरुत्थंघ इत्यादेशो वा भवति । उत्थन्धइ । रुन्धइ । धू ( रुधि ) धातु को उत्थंघ ऐसा आदेश विकल्प से होता है । उदा० -- उत्थं - घइ | ( विकल्प - पक्ष में : -- रुन्धइ | निषेधे+कः ॥ १३४ ॥ निषेधतेषक इत्यादेशो वा भवति । हक्कइ । निसेहइ । निषेधति ( Vf + स ) धातु को हक्क ऐसा आदेश विकल्प से होता है । उदा० -- हक्कइ | ( विकल्प - पक्ष में ) :- निसेहइ | क्रुधेर्जूरः ॥ १३५ ॥ क्र ुधेर्जूर इत्यादेशो ( वा ) भवति । जूरइ । कुज्झइ । क्रुध् धातु को जूर ऐसा आदेश विकल्प से होता है । उदा० - जूरइ । ( विकल्पपक्ष में ) :- कुज्झइ । जनो जा - जम्मौ ॥ १३६ ॥ जायतेजजम्म इत्यादेशौ भवतः । जाअइ । जम्मइ । जायते ( /जन् ) धातु को जा और जम्म ऐसे आदेश होते हैं । उदा० जाअइ । जम्मइ । Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरणे २.. . तनेस्तड-तडु-तड्डव-विरलाः ।। १३७ ॥ तनेरेते चत्वार आदेशा वा भवन्ति । तडइ। तड्डइ । तड्डवइ। विरल्लइ । तण। तन् धातु को ( तड, तड्डु, तड्डव और विरल्ल ऐसे ) ये चार आदेश विकल्प से होते हैं । उदा.-तडइ 'विरल्लइ । ( विकल्प-पक्ष में ):-तणइ । तृपस्थिप्पः ।। १३८ ॥ तृप्यते स्थिप्प इत्यादेशो भवति । थिप्पइ। तृप्यति ( Vतृप् ) धातु को थिष्प बादेश होता है : उदा.-पिप्पा । उपसरल्लिअः॥ १३९ ॥ उपपूर्वस्य सृपेः कृतगुणस्य अल्लिअ इत्यादेशो वा भवति । अल्लिअइ। उवसप्पइ। उप ( यह उपसर्ग ) पूर्व में होने वाले और जिसमें गुण किया हुआ है, ऐसे सृप धातु को अल्लिअ आदेश विकल्प से होता है । उदा०--अल्लिअइ। ( विकल्प पक्ष में ):---उवसप्पइ । संतपेझङ्खः ।। १४० ॥ सन्तपेझंङ्ख इत्यादेशो वा भवति । झङ्खइ । पक्षे । सन्तप्पइ । सन्तप् धातु को झल ऐसा आदेश विकल से होता है। उदा०-मखा। (विकल्प-) पक्ष में :-सन्तप्पइ । व्यापेरोअग्गः ॥ १४१ ॥ व्याप्नोतेरो अग्ग इत्यादेशो वा भवति । ओ अग्गइ । वावेइ । व्याप्नोति ( V व्याप ) धातु को ओअग्ग ऐसा आदेश विकल्प से होता है । उदा०-ओअग्गइ । ( विकल्प-पक्ष में ) :-वावेइ । समापेः समाणः ।। १४२ ।। समाप्नोतेः समाण इत्यादेशो वा भवति । समाणइ । समावेइ । समाप्नोति ( Vसमाप् ) धातु को समाण ऐसा आदेश विकल्प से होता है । उदा.-समाणइ । ( विकल्प-पक्ष में ):-समावेइ। १४ प्रा. व्या. Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ: पाद: क्षिपेर्गलत्थाडडक्ख-सोल्ल- पेल्ल-गोल्ल-ह-हुल- परी घत्ता ॥ १४३ ॥ क्षिपेते नवादेशा वा भवन्ति । गलत्थइ । अड्डक्खइ । सोल्लइ । पेल्लइ । गोइ । ह्रस्वत्वे तु गुल्लइ । छुहइ । हुलइ । परीइ घत्तइ । खिवइ । क्षिप धातु को ( गल्लत्थ, अड्डुक्ख, सोल्ल, पेल्ल, पोल्ल, छुह, हुल, परी, और धत ऐसे ) ये नौ आदेश विकल्प से होते हैं । उदा०-- गलत्थ इ " ...णोल्लइ; ( पोल्ल में से ओ स्वर ) ह्रस्व होने पर मात्र णल्लइ ( ऐसा रूप होगा ); छुहइ ●... | ( विकल्प पक्ष में ) : -- खिवइ । उक्षिपेगुलगुलोत्थं घाल्लत्थोत्तोस्सिक्क हक्खुवाः ॥ १४४ ॥ २१० उत्पूर्वस्य क्षिपेते षडादेशा वा भवन्ति । गुलगुञ्छइ । उत्थंधइ । अल्ल त्थइ । उब्भुत्तइ । उस्सिक्कइ । हक्खुवइ । उक्खिवइ । 1 उद् ( उपसर्ग ) पूर्व मे होने वाले क्षिप् वात को ( गुरुगुञ्छ, उत्थं ध, अल्लत्थ, उन्मुक्त उस्सिक्क और हक्खुव ऐसे ) ये छ: आदेश विकल्प से होते हैं । उदा० गुल गुञ्छइ... हक्खुवइ । ( विकल्प पक्ष में ) : उक्खिवइ । आक्षिपेर्णीरवः || १४५ ।। आङ्पूर्वस्य क्षिपेर्णीरव इत्यादेशो वा भवति णीरवइ । अक्खिवइ । आ ( उपसर्ग ) पूर्व में होने वाले क्षिप बात को नीरव ऐसा आदेश विकल्प से होता है । उदा०- -गीरवर ( विकल्प - पक्ष में ) : --- अक्खिवइ । स्वपेः कमवस- लिस-लोट्टाः ।। १४६ ।। स्वपेरेते त्रय आदेशा वा भवन्ति । कमवसइ । लिसइ । लोट्टई | सुअइ । स्वप् धातु को ( कमवस, लिस और लोट्ट ऐगे ) ये तीन आदेश विकल्प से होते हैं । उदा० --- -कमयसइ लोट्टई । ( विकल्प - पक्ष में ) --सुअइ । C वेपेरायम्यामज्झौ ॥ १४७ ॥ वेपेरायम्ब आयज्झ इत्यादेशौ वा भवतः । आयम्बइ । आयज्झइ | वेवइ । वे धातु को आयम्ब और आयज्झ ऐसे आदेश विकल्प से होते हैं । उदा०-आयम्बइ, आयझइ | ( विकल्प - पक्ष में ) : - वेवड | विलपेर्झ वडवडौ ॥ १४८ ॥ विलपेर्झङ्ख वडवड इत्यादेशौ वा भवतः । झखइ । वडवइ । विलवइ । Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरणे विल धातु को झङ्ख और वडबड ऐसे आदेश विकल्प से होते हैं । उदा०शङ्खइ, वढवडइ । ( विकल्प - पक्ष में ) :- बिलबइ | लिपो लिम्पः ॥ १४९ ॥ लिपतेलिम्प इत्यादेशो भवति । लिम्पइ | लिए धातु को लिम्प ऐसा आदेश होता है । उदा०-- लिम्पइ | १५० ।। गुप्येविर - णडौ । गुप्तेरेतावादेशौ वा भवतः । विरइ । बडइ | पक्षे । गुप्पइ । गुप्त ( V गुप्) धातु को विर और गड ऐसे ये आदेश विकल्प से होते हैं । उदा०-- बिरड, डड़ । ( विकल्प - ) पक्ष में :-- :--गुष्पइ 1 २११ कपोवहो णिः ।। क्रपेः अवह इत्यादेशो ण्यन्तो भवति । अवहावेइ । कृपां करोतीत्यर्थः । कृप् ( क्रपि ) धातु को प्रेरक प्रत्यय से अन्त होने वाला अबह ( यानी अवहावे ) ऐसा आदेश होता है । उदा०--- अवहावे३ ( यानी ) कृपा करता है, ऐसा अर्थ है । १५१ ।। प्रदीपेस्तेअव-सन्दुम-सन्धुक्काव्त्ताः ॥ १५२ ॥ प्रदीप्यतेरेते चत्वार आदेशा वा भवन्ति । ते अवइ । सन्दुमइ । सन्धुक्कइ । अत्तइ | पलीदइ । प्रदीप्यति ( / प्रदीप ) धातु को तेअत्र, सन्दुम, सन्धुक्क और अब्भुत ऐसे ये - चार आदेश विकल्प से होते हैं । उदा०-- - ते अब इ अब्भुत्तइ । ( बिकल्प - पक्ष में ) : -- पलीवइ । लुभेः संभावः ।। १५३ ।। लुभ्यतेः सम्भाव इत्यादेशो वा भवति । सम्भावइ । लुम्भइ । लुभ्यति ( Vलुभ् ) धातु को सम्भाव ऐसा आदेश विकल्प से होता है । उदा०सम्भावइ । ( विकल्प - पक्ष में ) : -- लुब्भ इ । क्षुभेः खउर-पड्डौ || १५४ ।। क्षुभेः खउर पड्डुह इत्यादेशौ मा भवतः । खउरइ । पड्डुहइ । खभइ । Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ: पाद: खउर और पड्डुह ऐसे आदेश बिकल्प से होते हैं । उदा०-( विकल्प - पक्ष में ) : -- खुब्भ इ । जाडो रमे रम्भ- दवौ ।। १५५ ।। आङः परस्य रमे रम्भ ढव इत्यादेशौ वा भवतः । आरम्भइ । आढवइ ! आरभइ । आ ( उपसर्ग ) के आगे होने वाले रम् धातु को रम्भ और ढव ऐसे आदेश विकल्प से होते हैं । उदा:--आरम्भइ, आढवइ । ( विकल्प - पक्ष में ) आरभइ । २१२ क्षुम् धातु को खउरइ, पड़ डुइइ । उपालम्भेर्झङ्ख-पच्चार- वेलवाः ।। १५६ ।। उपालम्भेरेते त्रय आदेशा वा भवन्ति । झङ्खइ । पच्चारइ । वेलवइ । उपालम्भइ | उपालम्भ् घातु को ( झङ्ख, पच्चार और बेलव बिकल्प से होते हैं । उदा० - - झङ्खइ उवालम्भइ । वेलवइ । अवेजृम्भो जम्भा ॥ १५७ ॥ जृम्भेर्जम्भा इत्यादेशो भवति वेस्तु न भवति । जम्भाइ जम्भाअइ । अवे रिति किम् | केलिपसरो' बिअम्भइ । ऐसे ) ये तीन आदेश i विकल्प - पक्ष में ) --- जम्भ् धातु को जम्मा ऐसा आदेश होता है; तथापि वि ( उपसर्गं ) पीछे होने पर, ( जम्भा आदेश ) नहीं होता है । उदा०-- जम्भाइ, जम्भाभइ । वि ( यह उपसर्ग ) पीछे होने पर ( जम्भा आदेश ) नहीं होता है, ऐसा क्यों कहा है ? ( कारण वि उपसर्ग पीछे न होने पर ही, जम्भा आदेश होता है । उदा० - ) के लि यसरो विअम्भइ | भाराकान्ते नमेर्णिसुः ॥ १५८ ॥ भाराक्रान्ते कर्तरि नमेनिसुढ इत्यादेशो ( वा ) भवति । णिसुढइ । पक्षे । णवइ । भाराक्रान्तो नमतीत्यर्थः । भाराक्रान्त ( कोई पुरुष ) कर्ता होने पर, नम् धातु को ( विकल्प से होता है । उदा० - णिसुढइ । विकल्प - ) ( यानी ) भाराक्रान्तः नमति ( बोझ से आक्रान्त पुरुष अर्थ है । १. केलिप्रसरः विजृम्भते । णिसुढ ऐसा आदेश में : - पक्ष नमता - णवइ; है ), ऐसा Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरणे विश्रमेणिव्वा ॥ १५९॥ विश्राम्यतेणिव्वा इत्यादेशो वा भवति । णिव्वाइ। वीसमइ । विधाम्यति (/विश्रम् ) धातु को णिब्वा ऐसा आदेश विकल्प से होता है। उदा०-णिव्याइ । ( विकल्प-पक्ष में ) :-- वीसमइ । आक्रमेरोहावोत्थारच्छन्दाः ॥ १६० ॥ माक्रमतेरेते त्रय आदेशा वा भवन्ति । ओहावइ । उत्थारइ। छुन्दइ । अक्कमइ। आक्रमति ( /आक्रम् ) धातु को ओहाव, उत्थार और छुन्द ऐसे ये तीन मादेश विकल्प से होते हैं। उदा० - ओहावइ'.. . छुन्दइ। (विकल्प-पक्ष में):अक्कमइ । भ्रमेष्टिरिटिल्लाढुण्दुल्ल-ढण्ढल्ल-चक्कम्म-भम्मड-भमड-भमाड-तलअण्ट झण्ट-झम्प-भुम-गुम-फुम-फुस-दुम-दुस-परी-पराः ॥१६१॥ भ्रमेरेतेष्टादशादेशा वा भवन्ति । टिरिटिल्ल । ढुण्ढुल्लइ । ढण्ढल्लइ । चक्कम्मइ । भम्मडइ। भमाडइ। तल अण्टइ। झण्टइ। झम्पइ । भुमइ । गुमइ । फुमइ । फुसइ । ढुमइ । ढुसइ । परीइ । परइ । भमइ।। प्रम् धातु को टिरिटिल्ल, ढुण्ढुल्ल, ढण्ढल्ल चक्कम्म, भम्मड, भमड, भमाड, तलमण्ट, झण्ट, सम्प, भुम, गुम, फुम, फुस, ढुम, ढुस, परी, और पर ऐसे ये अठारह आदेश विकल्प के होते हैं। उदा०-टिरिटिल्लइ... .. 'परइ । ( विकल्प-पक्ष में ):-अमइ । गमेरई-अइच्छाणुवजावजसोक्कुसाक्कुस-पच्चड्ड-पच्छन्दणिम्मह-णी-णीण-णीलुक्क-पदअ-रम्भ-परिभल्ल-बोल परिअल-णिरिणास-णिवहावसेहावहराः ॥ १६२ ॥ गमेरेते एकविंशतिरादेशा वा भवन्ति । अईइ। अइच्छइ। अणुवज्जइ। अवज्जसइ । उक्कुसइ । अक्कुसइ । पचड्डइ । पच्छन्दइ। णिम्महइ । णीइ। णीणइ। णोलुक्कइ। पदअइ। रम्भइ। परिअल्लइ। वोलइ। परिअलइ। णिरिणासइ । णिवहइ। अवसेहा । अवहरह । पक्षे । गच्छई । हम्मइ णिहम्मइ णीहम्मइ आहम्मइ पहम्मइ इत्येते तु हम्म गतावित्यस्यैव भविष्यन्ति । गम् धातु को अई, अइच्छ, अणुबज्ज, अवज्जस, उक्कुस, अक्कुस, पच्चड्ड, पच्छन्द; णिम्मह, णी, णीण, णीलुक्क, पदम, रम्भ, परिअल्ल, बोल, परिअल, णिरि Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ चतुर्थः पादः णास, णिवह, अवसेह और अवहर ऐसे ये. इक्कीस आदेश विकल्प से होते हैं। उदा.- ... .. अवहरइ । ( विकल्प-- ) पक्ष में :-गच्छइ । परन्तु णिहम्मद, मोहम्मइ, आहम्मइ, और पहम्मद ऐसे ये रूप तो 'हम्म गतो' ( में कहे हुए हम्म् ) धातु के होंगे। आङा अहिपच्चुअः ।। १६३ ॥ आङा सहितस्य गमेः अहिपच्चुअ इत्यादेशो वा भवति । अहिपच्चुअई। पक्षे। आगच्छद। बा ( उपसर्ग ) से सहित होने वाले गम् धातु को अहि पच्चु अ ऐसा आदेश विकल्प से होता है। उदा.---अहिपच्चुअइ। ( विकल्प-) पक्ष में :-आग समा अभिडः ॥ १६४ ॥ समा युक्तस्य गमेः अभिड इत्यादेशो वा भवति । अब्भिडई । संग सम् ( उपसर्ग ) से युक्त होने काले गम् धातु को अम्भित ऐसा आदेश विकल्प से होता है। उदा०-- अमिडइ । ( विकल्प-पक्ष में ):-संगच्छइ । अभ्याङोम्मत्थः । १६५ ।। अभ्याङ्भ्यां युक्तस्य गमेः उम्मत्थ इत्यादेशो वा भवति । उम्मत्थइ । अब्भागच्छइ । अभिमुख मागच्छतीत्यर्थः । अभि और आ ( इन दो उपसर्गों ) से युक्त होने वाले गम् धातु को उम्मत्थ ऐसा आदेश विकल्प से होता है। उदा०-उम्मथइ। ( विकल्प-पक्ष में ): -अन्भागन्छ । ( यानी ) अभिमुखं मागच्छति, ऐसा अर्थ है । प्रत्याङा पलोट्टः।। १६६॥ प्रत्याभ्यां युक्तस्य गमेः पलोट्ट इत्यादेशो वा भवति । पलोट्टई । पच्चागच्छ। प्रति और आ ( इन उपसर्गों ) से युक्त होने वाले गम् धातु को पल्लोट्ट ऐसा भादेश विकल्प से होता है । उदा०-पलोट्टइ । ( विकल्प-पक्ष में ) :-पच्चाग शमेः पडिसा-परिसामौ ॥ १६७ ।। शमेरेतावादेशौ वा भवतः । पडिसाइ । परिसामइ । समइ। शम् धातु को पडिसा और परिसाम ये आदेश विकल्प से होते हैं। उदा.पडिसाइ, परिसामइ । ( विकल्प-पक्ष में ) :-समइ । Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरणे रमेः संखुड्ड - खेड्डो भाव- किलिकिश्च - कोट्टुममोट्टाय-णीसर- वेल्लाः ।। १६८ ।। रमतेरेतेष्टादेशा वा भवन्ति । संखुड्डइ । खेड्ड । उभावइ । किलिकिइ । कोट्टुमइ । मोट्टायइ । णीसरइ । वेल्लइ । रमइ । रम् धातु को संखुड्डु, खेड, उब्भाव, किलिकिव, कोट्टुम, मोट्टाथ, भीसर, और वेल्ल ये आठ आदेश विकल्प से होते हैं । उदा - संखुड्डुइ वेल्लइ । ( बिकल्प - पक्ष में ) : - रमइ । पूरेरग्वाडान्धवोद्धुमाङगुमा हिरेमाः ।। पूरेरेते पञ्चादेशा वा भवन्ति । अग्घाडइ । अग्घवइ । उद्धुमाइ । अगुमइ । अहिरेमइ । पूरइ । पूर धातु को अग्धाड, अग्धव, उद्घमा अङ्गुम और अहिरेम ये पाँच आदेश विकल्प से होते हैं । उदा० अग्घाड इ अहिरेम । (विकल्प - ) पक्ष पूरइ । त्वरस्तुवर - जडौ || १७० ।। २१५ १६९ ।। 4 त्वरतेरेतावादेशौ भवतः । तुवरइ जअडइ । 'तुवरन्तो । 'जअडन्तो । त्वरते ( Vवर् ) धातु को तुबर और जभड ऐसे ये आदेश होते हैं । उदा०तुबर अइ - अनन्तो । त्यादिशत्रोस्तूरः ।। १७१ ।। त्वरतेस्त्यादौ शतरि च तूर इत्यादेशो भवति । तुरइ । तुरन्तो । त्यादि ( यानी धातु को लगने वाले प्रत्यय ) और शतृ ( प्रत्यय ) लगते समय, त्वरते ( /त्वर् ) धातु को तुर ऐसा आदेश होता है । उदा० तूरइ । तुरन्तो । TH तुत्यादौ ॥ १७२ ॥ त्वत्यादौ तुर आदेशो भवति । तुरिओ । तुरन्तो । अत् ( = अ ) इत्यादि ( प्रत्यय आगे होने पर ), त्वर् धातु को तर आदेश होता है । उदा० तूरइ, तुरन्तो । क्षरः खिर-झर-पज्झर-पच्चड - णिच्चल-गिट्टुआः ।। १७३ ।। क्षरेते षड् आदेशा भवन्ति । खिरइ । झरइ । पज्झरइ । पच्चडइ । णिच्चलइ । णिट्टुअइ । १- २. तुवर और जअड इनके ब० का० धा० बि० । Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ चतुर्थः पादः क्षर् धातु को खिर, झर, पज्झर, पच्चड, णिच्चल और णिटुअ ये छः मादेश होते हैं । उदा० --खिरइ... .."णिटुअइ । उच्छल उत्थल्लः ॥ १७४ ॥ उच्छलतेरुत्थल्ल इत्यादेशो भवति । उत्थल्लइ । उच्छमति (उच्छल् ) धातु को उत्थल्ल आदेश होता है। उदा. उत्पल्ला । विगलेस्थिप्प-णिटुहौ ॥ १७ ॥ विगलतेरेतावादेशौ वा भवतः । थिप्पइ । णिटुहइ । विगलइ। विगलति ( विगल ) धात को विष्प और णिटुह ये आदेश विकल्प से होते हैं। उदा.-पिप्पा, णि टुहइ । ( विकल्प-पक्ष में ) :-विगलइ । दलिवल्योर्विसट्ट-वम्फौ ॥ १७६ ॥ दलेर्वलेश्च यथासंख्यं विसट्ट वम्फ इत्यादेशौ वा भवतः । विसट्टइ। वम्फइ पक्षे दलइ । वलइ। ___ दल और वल् इन धातुओं को अनुक्रम से विसट्ट और वम्फ ऐसे आदेश विकल्प से होते हैं । उदा०-विसट्टइ, वम्फइ । ( विकल्प- ) पक्ष में :-दलइ, बलइ । भ्रंशेः फिट्ट-फिट्ट-फुड-फुट्ट-चुक्क-मुल्लाः ॥ १७७॥ भ्रंशेरेते षडादेशा वा भवन्ति । फिडइ । फिट्टइ । फुडइ। फुट्टइ। चुक्कइ। भुल्लइ । पक्षे । मंसइ। भ्रंश् घात को फिड, फिट्ट, फुड, फुट्ट, चुक्क और मुल्ल ऐसे ये छः आदेश विकल्प से होते हैं। उदा-फिड इ... .."भुल्लइ । (विकल्प-) पक्ष में :मंसद। नशेणिरणास-णिवहावसेह-पडिसा-मेहावहराः ॥१७८॥ नशेरेते षडादेशा वा भवन्ति । णिरणासइ। णिवहइ। अवसेहइ । पडिसाइ । सेहइ । अवहरइ । पक्षे । नस्सइ। __ नश् धातुको णिरणास, णिवह, अबसेह, पडिमा, सेह और अबहर ये छः आदेश विकल्प होते हैं। उदा०-णिरणासइ ."अवहरइ (विकल्प-) पक्ष में:-नस्सइ । ___अवात्काशो वासः ॥ १७९ ॥ अवात् परस्य काशो वास इत्यादेशो भवति । ओवासइ । Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतण्याकरणे २१७ भव ( उपसर्ग ) के आगे होनेवाले काश् धातु को वास ऐसा आदेश होता है। उदा०-भोवासइ । संदिशेरप्पाहः ॥ १८० ॥ सन्दिशतेप्पाह इत्यादेशो वा भवति । अप्पाहइ । सन्दिसइ। संदिशति ( /संदिश ) धातु को अप्पाह ऐसा आदेश विकल्प से होता है। उदा.-अप्पाहइ । (विकस्प-पक्ष में):-संदिसइ । दृशो निअच्छापेच्छावयच्छावयज्म-वज-सव्वव-देक्खौअक्खा वक्खावअक्ख-पुलोअ-पुलअ-निआवआस-पासाः॥१८१॥ दृशेरेते पश्चदशादेशा भवन्ति । निअच्छइ। पेच्छइ। अवयच्छइ । अवयज्झइ । वज्जइ। सव्ववइ । देक्खइ। ओअक्खइ। अवक्खइ । अवअक्खइ। पुलोएइ । पुलएइ। निअइ। अवमासइ । पासइ। निज्झाअइ । इति तु निध्यायतेः स्वरादत्यन्ते भविष्यति । दृश् धातु को निअच्छ, पेच्छ, अवयच्छ, अवयज्झ, वज्ज, सम्बव, देक्ख, ओअक्ख, भवक्ख, अबअक्स, पुलोअ, पुलअ, निअ, अवास जोर पास ऐसे ये पंद्रह आदेश होते हैं। उदा.- निअच्छइ....."पासइ । मिज्झाअइ ( यह रूप ) मात्र निध्यायति में से (अन्त्य) स्वर के आगे (यामी निध्य-निज्झा के आगे) अ अन्त में आने पर होगा। स्पृशः फास-फंस-फरिस-छिव-छिहालुवालिहाः ॥ १८२॥ स्पृशतेरेते सप्त आदेशा भवन्ति । फासइ। फंसइ । फरिसइ । छिवइ । छिहइ। आलुङ्खइ । आलिहइ। स्पृशति ( 1 स्पृश् ) धातु को फास, फंस, फरिस, छिव, छिह, आलुङ्ख भोर मालिह ऐसे ये सात आदेश होते हैं । उदा०-फासइ.::..'मालिहइ । प्रविशे रिः॥ १८३ ॥ प्रविशेः रिअ इत्यादेशो वा भवति । रिअइ । पविसइ।। प्रविश् धातु को रिअ ऐसा आदेश विकल्प से होता है। उदा.-रिभइ । (विकल्प-पक्ष में):-पविसइ । प्रान्मृशमृषोम्ह सः॥ १८४ ॥ प्रात् परयोमृशतिमुष्णात्योम्हु सं इत्यादेशो भवति । पम्हुसइ । प्रमृशति प्रमुष्णाति वा। प्र ( इस उपसर्ग ) के आगे होनेवाले मृशति ( V मृश् ) और मुष्णाति (Vमृष्) इन धातुओं को म्हुस ऐसा आदेश होता है। उदा०-पम्हुसइ ( यानी ) प्रमशति अथवा प्रमुष्णाति ऐसा अर्थ है । Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ चतुषः पादः पिषेणिवह-णिरिणास-णिरिणज्ज-रोश्च-चड्डाः ॥ १८५।। पिषेरेते पञ्चादेशा भवन्ति वा । णिवहइ। णिरिणासह। णिरिणज्जइ। रोश्चई । चड्डइ । पक्षे । पीसइ । पिष धातु को णिवह, णिरिणास, णिरिणज्ज, रोञ्च और चड्ड ये पांच आदेश विकल्प से होते हैं । उदा०-णिवहइ 'चड्डइ । (विकल्प-पक्ष में):-~-पीसइ । भषेमुक्कः ॥ १८६ ॥ भषेर्भुक्क इत्यादेशो वा भवति । भुक्कई । भसइ ! भष धातु को भुक्क ऐसा आदेश विकल्प से होता है। उदा०--भुक्कइ । (विकल्प-पक्ष में):-भसइ । कृषः कड्ढ-साअड्ढाश्चाणच्छायच्छाइञ्छाः ॥ १८७॥ कृषेरेते षडादेशा वा भवन्ति । कडढई । सा अड्डई । अश्वइ । अणच्छइ । अयञ्छ । आइञ्छ । पक्षे। करिसइ । कृष् धातु को कड्ढ, आसड्ढ, मञ्च, अणच्छ, अयञ्छ और आइञ्छ ऐसे ये छः आदेश विकल्प से होते हैं । उदा०-कड्ढ.''आइछह । ( विकल्प-पक्ष में ):करिसइ। असावक्खोडः ॥ १८८॥ असिविषयस्य कृषेरक्खोड इत्यादेशो भवति । अक्खोडेइ। असि कोशात् कर्षति इत्यर्थः । असि-विषयक कृष् धातु को अक्लोड ऐसा आदेश होता है। उदा०-अक्खोडेइ (यानी) म्यान से तलवार निकालता है, ऐसा अर्थ है । गवेषेण्दुल्ल-ढण्ढोल्ल-गमेस-घत्ताः ॥ १८९॥ गवेषेरेते चत्वार आदेशा वा भवन्ति । ढुण्ढुल्लइ । ढण्ढोल्लइ । गमेसइ। धत्तइ। गवेसइ। गवेष धातु को ढुण्ढुल्ल, ढण्ढाल्ल, गमेस ओर धत्त ऐसे ये चार आदेश विकल्प से होते हैं । उदा.---ढुण्ढुल्लइ .... 'धत्तइ । (विकल्प पक्ष में):--गवेसइ । श्लिषेः सामग्गावयास-परिअन्ताः ॥ १९ ॥ श्लिष्यतेरेते त्रय आदेशा वा भवन्ति । सामग्गइ। अवयासह। परिअन्तइ । सिलेसइ। Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृव्याकरणे श्लिष्यति ( श्लिष् ) धातु को ( सामग्ग, अवयास और परिअन्त ) ये तीन आदेश विकल्प से होते हैं। उदा०-सामग्गइ ... "परिअन्तइ । (विकल्प-पक्ष में):सिलेसइ। म्रक्षेश्योप्पडः ॥ १९१ ।। म्रक्षेश्वोप्पड इत्यादेशो वा भवति । चोप्पडइ । मक्खइ । म्रक्ष् धातु को चोपड ऐसा आदेश विकल्प से होता है। उदा० .चोपडइ । ( विकल्प-पक्ष में :--मक्खइ । काक्षेराहाहिलङ्घाहिल-जच्च-त्रम्झ-मह-सिह-विलुम्पाः ।। १९२ ।। काङ्क्षतेरेतेरष्टादेशा वा भवन्ति । आहइ। अहिलङ्घइ । अहिलङ्खइ । वच्चइ । वम्फइ । महई । सिहइ । विलुम्पइ । कङ्खइ। काङ्क्षति ( काश् । धातु को आह, अहिलङ्घ, अहिलङ्ख, वच्च, वम्फ, मह, सिह और विलुम्प ऐसे ये आठ आदेश विकल्प से होते हैं । उदा०-आइ ...... विलुम्मइ । ( विकल्प---पक्ष में ):-कलइ । प्रतीक्षेः सामय-विहीर-विरमालाः ।। १९३ ।। प्रतीक्षेरेते त्रय आदेशा वा भवन्ति । सामथइ। विहीरइ। विरमालइ । पडिक्खइ। प्रतीक्ष् धातु को सामय, विहरि और विरमाल ये तीन आदेश विकल्प से होते हैं। उदा.--सामयइ....."विरमालइ ( विकल्प-पक्ष में ):-पडिक्खइ । तक्षेस्तच्छ-चच्छ-रम्प-रम्फाः ॥ १९४ ॥ तक्षेरेते चत्वार आदेशा वा भवन्ति । तच्छइ। चच्छइ । रम्पइ । रम्फइ । तक्खइ। तक्ष् धातु को तच्छ, चच्छ, रम्प और रम्फ ये चार आदेश विकल्प से होते हैं । उदा०-तच्छइ...."रम्फइ । (विकल्प -पक्ष में ):-तक्खइ । विकसेः कोआस-वोसट्टौ ॥ १९५ ॥ विकसेरेतावादेशौ वा भवतः । कोआसइ । वोसट्टइ । विअसइ । विकस धातु को कोआस और वोसट्ट ये आदेश विकल्प से होते हैं। उदा.-- कोआसइ, वोसट्टइ । ( विकल्प-पक्ष में ):-विअसइ । हसेगुजः ।। १९६ ॥ • हसेर्गुल इत्यादेशो वा भवति । गुखइ । हसइ । Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० चतुर्थः पादः हस् धातु को गुञ्ज ऐसा आदेश विकल्प से होता है। उदा०-गञ्जइ । (विकल्पपक्षमें):-हसइ। खसेहँस-डिम्भौ ।। १९७॥ स्रसेरेतावादेशौ वा भवतः । ल्हसइ । परिल्हसइ सलिल 'वसणं । डिम्भइ । संसइ। संस् धातु को ल्हस और डिम्भ ये आदेश विकल्प से होते हैं। उदा०--ल्सइ... डिम्भइ । ( विकल्प-पक्ष में ):-संसइ । __ त्रसेडर-बोज्ज-वज्जाः ॥ १९८ ॥ बसेरेते त्रय आदेशा वा भवन्ति । डरइ । बोज्जइ । वज्जइ । तसइ । त्रस् धातु को डर, बोज्ज और वज्ज ये तीन आदेश विकल्प होते हैं। उदा.डरह... .."वज्जइ । ( विकल्प-पक्ष में ) :-तसइ । न्यसो णिम-णुमौ ॥ १६ ॥ न्यस्यतेरे तावादेशौ भवतः । णिमइ । णुमइ । न्यस्यति ( Vन्यत् ) धातु को णिम और णुम ये आदेश होते हैं । उदा.णिमइ, णुमइ । . पर्यसः पलोट्ट-पल्लट्ट-पल्हत्थाः ॥ २० ॥ पर्यस्यतेरेते त्रय आदेशा भवन्ति । पलोट्टइ । पल्लट्टइ । पल्हत्थइ। पर्यस्यति ( V पर्यस् ) धातु को पलोट्ट, पल्लट्ट और पल्हत्य ये तीन आदेश होते हैं । उदा.-पलोट्टइ... .. पल्हत्थइ । निःश्वसेझङ्खः ।। २०१॥ निःश्वसे झंङ्ख इत्यादेशो वा भवति । अङ्खइ । नीससइ । निःस् धातु को झख ऐसा आदेश विकल्प से होता है। उदा०-झसइ । (विकल्प-पक्ष में ):-नीससइ । उल्लसेरूसलोसुम्भ-णिल्लस-पुलआअ-गुजोल्लारोआः ॥२०२॥ उल्लसेरेते षडादेशा वा भवन्ति । ऊसलइ। ऊसुम्भइ । जिल्लसइ । पुलमाअइ । गुलोल्लइ । ह्रस्वत्वे तु गुञ्जुल्लइ । आरोअइ । उल्लसइ । १. ( परिसंसते ) सलिल-वसनम् । Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरणे २२१ उल्मस् धातु को ( ऊसल, ऊसुम्भ, णिल्लस, पुलआअ, गुञ्जोल्ल, भौर आरोम ऐसे ) ये छः आदेश विकल्प से होते हैं। उदा०-ऊसलइ... .."गुलोल्लइ; ( गुञ्जोल्ल में से जो का ओ) ह्रस्व होने पर, गुज़ुल्लइ = ( ऐसा रूप होगा); आरोअइ। ( विकल्प-पक्ष में ):-उल्लसइ। भासेर्भिसः ॥ २०३ ।। भासेभिस इत्यादेशो वा भवति । भिसइ । भासइ । भास् धातु को भिस् ऐसा आदेश विकल्प से होता है। उदा०-भिसइ । ( विकल्प-पक्ष में ):-भासइ । ग्रसेधिसः ॥ २०४॥ ग्रसेधिस इत्यादेशो वा भवति । घिसइ । गसइ। ग्रस् बातु को घिस ऐसा आदेश विकल्प से होता है। उदा०-धिसइ । ( विकल्प-पक्ष में ) :- गसइ । अवाद् गाहेर्वाहः ।। २०५॥ अवात् परस्य गाहेर्वाह इत्यादेशो वा भवति । ओवाहइ । ओगाहइ । अव ( उपसर्ग ) के आगे होने वाले गाह, धातु को वाह ऐसा आदेश विकल्प से होता है । उदा०--ओवाहइ । ( विकल्प-पक्ष में ) :- ओगाहइ । आरुहेश्चड-बलग्गौ ॥ २०६॥ आरुहेरेतावादेशौ वा भवतः । चडइ । वलग्गइ । आरुहइ । आरुह, धातु को घड और बलग्ग ये आदेश विकल्प से होते हैं। उदा०-चडइ, वलग्गइ । ( विकल्प-पक्ष में ):-आरुहइ । मुहेगु म्म-गुम्मडौ । २०७॥ मुहेरेतावादेशौ वा भवतः । गुम्मइ ! गुम्मडइ । मुज्झइ । मुह, धातु को गुम्म और गुम्मड ऐसे ये आदेश विकल्प से होते हैं। उदा. - गुम्भइ, गुम्मडइ । ( विकल्प-पक्ष में ) : मुज्झइ । दहेरहिऊलालुवौ ॥ २०८ ॥ दहेरे तावादेशौ वा भवतः । अहिऊलइ । आलुङ्खइ । डहइ। दह, धातु को ( अ.ि ऊल और आलुल ऐसे ये आदेश विकल्प से होते हैं । उदा०-अहि ऊलइ, आलुखइ । ( विकल्प-पक्ष में ):--डहइ । Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः पादः ग्रहो बल- गेह-हर-पङ्ग-निरुवारा हिपच्चुआः ॥ २०६ ॥ ग्रहरेते षडादेशा भवन्ति । वलइ । गेण्हइ । हरइ । पङ्गइ । निस्वारइ | अहिपच्चुअइ । २२२ ग्रह धातु को ( बल, गेण्ट, हर, पड्ग, निस्वार और अहिपच्चुअ ) ऐसे ये छ: आदेश होते हैं । उदा० - बलइ "अहिपञ्चु । क्त्वा तुम्-तव्येषु घेत् ।। २१० ॥ ग्रहः क्त्वा म्-तव्येषु धत् इत्यादेशो भवति । क्त्वा । त्तूण । धेत्तुआण । क्वचिन्न भवति । गेहि । तुम् । धेत्तुं । तव्य । धेत्तव्वं । कस्बा, तुम और तव्य ( प्रत्यय आगे ) होने पर ग्रह धातु को धेत् ऐसा आदेश होता है । उदा० -बत्वा ( प्रत्यय आगे होने पर ) :- घेत्तूण घेत्तुआण; क्वचित् ( यह घेत् आदेश ) नहीं होता है; उदा०- -- गेहि । तुम् (प्रत्यय आगे होने पर ) :धेत्तुं । तब्य ( प्रत्यय आगे होने पर ) :- घेत्तव्वं । वचो वोत् ।। २११ ॥ वक्तेर्वोत् इत्यादेशो भवति क्त्वा तुम्-तव्येषु । वोत्तूण । वोत्तुं । वोत्तव्वं । क्वा, तुम और तव्य ( प्रत्यय आगे ) होने पर, वक्ति ( Vवच् ) धातु को वोत् ऐसा जादेश होता है उदा०- ( क्त्या प्रत्यय आगे होने पर ): -वोत्तूण । ( तुम् प्रत्यय आगे होने पर ) :-वोत्तुं । ( तव्य प्रत्यय आगे होने पर ) : -वोत्तव्यं । रुदभुजमुचां तोन्त्यस्य ।। २१२ ।। एषामन्त्यस्य क्त्वातुम्नव्येषु तो भवति । रोत्तॄण रोतुं रोत्तव्वं । भोत्तूण भोत्तुं भोत्तव्वं । मोत्तण मोत्तुं मोत्तव्वं । क्त्वा, तुम और तव्य ( ये प्रत्यय आगे ) होने पर, । रुद्, भुज् और मुच् ) इन ( धातुओं ) के अन्त्य वर्ण का त् होता है । उदा०-( - ( रुद् ) . रोत्तूण रोत्तब्वं । ( भुज् ) भोत्तू भोक्तव्व । मुच्):- मोत्तूण 'मोतव्वं । दृशस्तेन ठः ।। २९३ ॥ दृशोन्त्यस्य तकारेण सह द्विरुक्तष्ठकारो भवति । दट्ठूण । दठ्ठे 1 दट्ठव्वं । धातु के अन्त्य वर्ण का, (क्त्वा, तुम और तव्यत्यय आगे होने पर ), तकार के सह द्वित्वयुक्त ( = ठ्ठ ) होता है । उदा० दठून दट्ठम्बं । Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरणे आ कुगो भूतभविष्यतोश्च ।। २१४ ।। कृगोन्त्यस्य आ इत्यादेशो भवति भूतभविष्यत्कालयोश्चकारात् क्त्वातुम्तव्येषु च । काहीअ अकार्षीत् अकरोत् चकार वा । काहिइ करिष्यति कर्ता वा । क्त्वा । काऊ । तुभ् | काउं तव्य । कायव्वं । भूतकाल और भविष्यकाल ( इनके प्रत्यय आगे ) होने पर, तर्थव ( सूत्र में से ) चकार के कारण, क्त्वा, तुम और तव्य ( ये प्रत्यय आगे ) होने पर, कृ धातु के अन्त्य वर्ण को आ ऐसा आदेश होता है : उदा० ( भूतकाल में ) : --- काहीअ (यानी ) अकार्षीत् अकरोत् अथवा चकार ( ऐसा अर्थ है ) | ( भविष्यकाल में ) - काहिइ ( यानी ) करिष्यति किंवा कर्ता । ऐसा अर्थ है ) । क्त्वा ( प्रत्यय आगे होने पर ) :काऊ । सुम् ( प्रत्यय आगे होने पर : --- का उं । तथ्य ( प्रत्यय आगे होने पर ) : ) : कायव्वं । गमिष्यमासां छः || २१५ ।। एषामन्त्यस्य छो भवति । गच्छइ । इच्छइ । जच्छइ । अच्छइ । ( गम्, इष्, यम् और आस्) इन धातुओं के अन्त्य वर्ण का छ होता है । उदा०- गच्छइ अच्छइ । छिदिभिदोन्दः || २१६ ॥ अनयोरन्त्यस्य नकाराक्रान्तो दकारो भवति । छिन्दइ । ( छिंद और भिद् ) इन धातुओं के अन्त्य वर्ण का नकार से युक्त दकार ( =न्द ) होता है । उदा०--- -- छिन्दइ, भिन्दइ । युधबुधगृधधसिधमुहां ज्झः ॥ २१७ ॥ एषामन्त्यस्य द्विरुक्तो झो भवति । जुज्झइ । बुज्झइ । गिज्झइ । कुज्झइ । सिज्झइ | मुज्झइ । ( युध्, बुध् गृध्, क्रुध्, सिधू और मुट् ) इन धातुओ के अन्त्य वर्णं का द्विरुक्त झ ( = ज्झ ) होता है उदा०-- जुज्झइ ! २२३ मुज्झइ रुधोन्धम्भौ च ।। २९= ॥ रुधोन्त्य स्यन्ध भ इत्येतौ चकारात् ज्झश्व भवति । रुन्धइ । रुम्भइ । रुज्झइ । रुध् धातु के अन्त्य वर्ण को न्ध और म्भ ऐसे ये ( दो ) और (सूत्र में से ) चकार के कारण ज्झ ( ऐसे आदेश होते हैं ) । उदा०-- हन्वइ 'रुज्झइ । Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ चतुर्थः पादः सदपतोर्डः ॥ २१९ ॥ अनयोरन्त्य हो भवति । सडइ । पडइ । (सद् और पत्) इन धातुओं के अन्त्य वर्ण का ड होता है । उदा०-सडइ, पडइ । क्वथवर्धा ढः ॥२२० ।। अनयोरन्त्यस्य ढो भवति । कढइ। वडढइ 'पवय-कलकलो। परिअड्ढइ लायण्णं । बहुवचनाद् वृधेः कृतगुणस्य वधेश्चाविशेषेण ग्रहणम् ।। (क्वथ् और वृध ) इन धातुओं के अन्त्य वर्ण का ढ होता है। उदा.कढइ... .''लायणं । ( सूत्र में वर्धाम् ऐसा ) बहुवचन प्रयुक्त होने के कारण, जिसमें गुण किया हुआ है ऐसे ( वृध का यानी ) वधं का भी कुछ भी फर्क न करते ग्रहण होता है। वेष्टः ॥ २२१ ॥ वेष्ट वेष्टने इत्यस्य धातोः कगटडं इत्यादिना ( २.७७) षलोपेन्स्यस्य ढो भवति। वेढइ । वेढिज्जइ । ____ 'वेष्ट बेष्टने' (यहाँ कहे हुए) वेष्ट धातु में 'कगटड.' इत्यादि सूत्र से (व्यंजन) का लोप होने पर, ( वेष्ट के ) अन्त्य वर्ण का ढ होता है। उदा०-वेढइ, वेढिज्जा । समोल्लः ॥ २२२ ॥ सम्पूर्वस्य वेष्टतेरन्त्य द्विरुक्तो लो भवति । संवेल्लइ । सम् ( उपसर्ग ) पूर्व में होने वाले वेष्टति ( वेष्ट ) धातु के अन्त्य थर्ण का द्विरुक्त ल ( = ल्ल ) होता है। उदा.-संवेल्लइ । वोदः ॥ २२३ ॥ उदः परस्य वेष्टतेरन्त्यस्य ल्लो वा भवति । उव्वेल्लइ । उव्वेढइ। उद् ( उपसर्ग ) के आगे होने वाले वेष्टति (Vबेष्ट् ) धातु के अन्त्य वर्ण का ल्ल विकल्प से होता है । उदा.---उध्वेल्लइ । ( विकल्प-पक्ष में ):-उब्वेढह । स्विदां ज्जः ॥ २२४ ॥ स्विदिप्रकाराणामन्त्पस्य द्विरुक्तो जो भवति । सव्वं गसिज्जिरीए। संपज्जइ । खिज्जइ" । बहुवचनं प्रयोगानुसरणार्थम् । १. वर्धते प्लवग-कलकलः । २. परिवर्धते लावण्यम् । ३. सर्वाग-स्वेदनशीलायाः । ४. सं+ पद् । ५. / खिद् । Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरणे २२५ स्विद् (धातु के ) प्रकार के धातुओं के अन्त्य वर्ण का द्विरुक्त ज ( = ज्ज) होता है। उदा.-सव्वंग... .. खिज्जइ । ( सूत्र में स्थिदां ऐसा ) बहुवचन, ( वाङ्मयीन ) प्रयोग के अनुसरण दिखाने के लिए है । ब्रजनृतमदां उचः ॥ २२५ ।। एषामन्त्यस्य द्विरुक्तश्चो भवति । वच्चइ । नच्चइ । मच्चइ । ( व्रज् , नृत् और मद् ) इन धातुओं के अन्त्य वर्ण का द्विरुक्त च ( = च्च) होता है । उदा०- बच्चइ... ''मच्चइ । रुदनमोवः ।। २२६ ॥ अनयोरन्त्यस्य वो भवति । रुवइ रोवइ । नवइ । ( रुद् और नम् ) इन धातुओं के अन्त्य वर्ण का व होता है। उदा०-रुबइ ....'नवइ। उद्विजः ॥ २२७ ॥ उद्विजतेरन्त्यस्य वो भवति । उव्विवइ । 'उव्व वो। उदायजति (उद् + विज् ) घातु के अन्त्य वर्ण का व होता है। उदा.उविवइ, उम्वेवो। खादधावोलुक् ॥ २२८ ॥ अनयोरन्त्यस्य लग भवति । खाइ खाअइ। खाहिइ । खाउ । धाइ। धाहिइ । धाउ । बहुलाधिकाराद् वर्तमाना-भविष्यद्-विध्यायेकवचन एवं भवति । तेनेह न भवति । खादन्ति । धावन्ति । क्वचिन्न भवति । धावई पुरओ। ( खाद् और धाव ) इन धातुओं के अन्त्य वर्ण का लोप होता है। उदा०खाइ... .' धाउ । वहुल का अधिकार होने से, वर्तमान काल, भविष्यकाल और विधि इत्यादि में से एकवचन में ही ( ऐसा अन्त्य वर्ण का लोप ) होता है; इसलिए यहाँ ( = आगे दिए उदाहरणों में ऐसा लोप ) नहीं होता है। उदा०-खादन्ति, धावन्ति । क्वचित् ( एकवचन में ऐसा लोप ) नहीं होता है । उदा.-धावइ पुरओ । सृजा रः॥ २२९ ।। सृजो धातोरन्त्यस्य रो भवति । निसिरइ३ । वोसिरई। वोसिरामि। १. उद्वेग । २. धावति पुरतः । ३./नि + सृज् । ४. V व्युद् + सृज् । १५ प्रा० व्या० Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः पादः सृज् धातु के अन्त्य वर्ग का र होता है । उदा० -- मिसिरइ....वोसिरामि । शकादीनां द्वित्वम् २३० ॥ शकादीनामन्त्यस्य द्वित्वं भवति । शक् सक्कइ । जिम् जिम्मइ । लग् लग्गइ । मग् मग्गइ । कुप् कुप्पइ । नश् नस्सइ । अट् परिअट्टइ' । लुट् पलोटूटइ' । तुट् तुट्टइ । नट् नट्टइ । सिव सिव्वइ इत्यादि । शक् इत्यादि धातुओं के अन्त्य वर्ण का द्विस्व होता है । उदा० शक सक्कइ ... सिव् सिग्वइ, इत्यादि । २२६ स्फुटिचलेः || २३१ ॥ अनयोरन्त्यस्य द्वित्वं वा भवति । फुट्टइ फुडइ । चल्लइ चलइ | ( स्फुट् और चल् इन धातुओं के अन्त्य वर्ण का द्वित्व विकल्प से होता है । उदा. -फुट्ट इ 'चलइ । प्रादेर्मीलेः २३२ ।। प्रादेः परस्य मीलेरन्त्यस्य द्वित्वं वा भवति । पमिल्लइ पमीलइ । निमिल्लइ निमीलइ । सम्मिल्लइ सम्मीलइ । उम्मिल्लइ उम्मीलइ । प्रादेरिति किम् । मोलइ । उपसर्गं के ( प्रादेः ) आगे होनेवाले मील धातु के अन्त्य ( व्यञ्जन ) का द्वित्व विकल्प से होता है । उदा०--- पमिल्लइ "उम्मीलइ । उपसर्ग के आगे होनेवाले ( कील धातु के ) ऐसा क्यों कहा है ? कारण वीछे उपसगं न हो, तो मील के अन्त्य वर्ण का द्वित्व नहीं होता है । उदा० ( ) मीलइ | उवर्णस्यावः २३३ । धातोरन्त्यस्य वर्णस्य अवादेशो भवति । नुङ् निण्हवइ । हु निहवइ । च्युङ् चवइ रु रवइ । कु कवइ । सू सवइ पसवइ । धातु के अन्त्य उ-वर्ण को अव ऐसा आदेश होता है । उदा०- - हनु ( हनुङ् ) निण्हवइ... पसवइ । ऋवर्णस्यारः ।। २३४ ॥ धातोरन्त्यस्य ऋवर्णस्य अरादेशो भवति । करइ । धरइ | मरइ | वरइ । १. परि + अट् । ३. क्रमसे : -- प्रमील् । निमोल् | मंमील् | उन्मील् । ५. नि+हु | ७. क्रम से : २. प्र + लुट् । ४. :– कृ । धृ । मृ । ब । वृ । सृ । हृ । त । जृ । जृ । नि + हनु । ६. प्र + सू । Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरणे २२७ सरइ । हरइ । तरइ । जरइ। धातु के अन्त्य ऋ-वर्ण को अर आदेश होता है। उदा०-करइ...'जरइ । वृषादीनामरिः ॥ २३५ ॥ वृष इत्येवं प्रकाराणां धातूनां ऋवर्णस्य अरिः इत्यादेशो भवति । वृष वरिसइ । कृष् करिसइ । मृष् मरिसइ । हृष हरिसइ। येषामरिरादेशो दृश्यते ते वृषादयः । वृष् इत्यादि प्रकार के धातुओं के ऋ-वर्ण को अरि ऐसा आदेश होता है । उदा०-वृष वरिसइ.....'हरिसइ । जिन धातुओं में अरि ऐसा आदेश दिखाई देता है, वे वृष इत्यादि प्रकार के धातु होते हैं । रुषादीनां दीर्घः ॥ २३६ ॥ __ रुष इत्येव प्रकाराणां धातुनां स्वरस्य दीर्घो भवति । रूसइ' । तूसइ। सूसइ । दूसइ । पूसइ । सीसइ । इत्यादि । __ रुष् इत्यादि प्रकार के धातुओं के ( ह्रस्व ) स्वर का दीर्घ ( स्वर ) होता है। उदा०-रूस... " सीसइ, इत्यादि । युवर्णस्य गुणः ॥ २३७ ॥ धातोरिवर्णस्य च किङत्यपि गुणो भवति । जेऊण'। नेऊण । नेइ । नेन्ति । उडडेइ । उडडेन्ति' । मोत्तण" । सोऊण । क्वचिन्न भवति । नीओ। उड्डीणो । धातु के इ-वर्ण का, विङत् प्रत्यय आगे होने पर भी, गुण होता है। उदा०जेऊण ...... सोऊण । क्वचित् ( ऐसा गुण ) नहीं होता है । उदा०-नीमो, उड्डीणो। __ स्वराणां स्वराः ॥ २३८ ॥ धातष स्वराणां स्थाने स्वरा बहलं भवन्ति । हवई हिवइ। चिणइ चुणइ । सद्दहणं सदृहाणं । धावइ धुवइ । रुवइ र वइ । क्वचिन्नित्यम् । देइ । लेइ । विहेइ । नासइ । आर्षे । बेमि । ___ धातुओं में स्वरों के स्थान पर ( अन्य ) स्वर बहुलत्व से आते हैं। उदा.१. क्रमसे:- रुष् । तुष । शुष् । दुष् । पुष । शिष् । २./जि । ३. नी। ४. उड्डी। ५. मुच् । ६. श्रु । ७. नीत . ८. उड्डोन । ९. क्रमसे:- मू । चि । श्रद्धान IVधात् ।। रुद् । १०. क्रमसे:- दा।Vला विभी। नश् । ११. ब्रू । Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ चतुर्थः पादः हवइ...'रोवइ। क्वचित् ( ये अन्य स्वर ) नित्य आते हैं। उदा०-देह.... नासइ । आर्ष प्राकृत में:-बेमि । व्यञ्जनाददन्ते ॥ २३६ ॥ व्यञ्जनान्ताद् धातोरन्ते अकारो भवति । भमइ । हसइ । कुणइ । चुम्बइ। भणइ । उवसमइ। पावइ । सिञ्चइ। रुन्धइ । मुसइ । हरइ । करइ । शबादीनां च प्रायः प्रयोगो नास्ति । व्यञ्जनान्त धातु के अन्त में अकार आता है। उदा.-भमइ.....'करइ । परंतु शप इत्यादि धातुओं का प्रयोग प्रायः ( दिखाई ) नहीं देता है । स्वरादनतो वा ।। २४०॥ अकारान्तवर्जितात् स्वरान्ताद् धातोरन्ते अकारागमो वा भवति । पाइ पाअइ। धाइ धाअइ। जाइ जाअइ। झाइ झाअइ। जम्भाइ जम्भाअइ। उव्वाइ उव्वाअइ। मिलाइ मिलाअइ। विक्केइ विक्केअइ। होऊण होइऊण । अनत इति किम् । चिइच्छई' । दुगुच्छई। अकारान्त धातु छोड़ कर, इतर स्वरान्त धातु के अन्त में अकार का आगम विकल्प होता है। उदा० ~पाइ... .."होइ ऊण । अकारान्त धात छोड़ कर, ऐसा क्यों कहा है ? ( कारण अकारान्त धातु के अन्त में ऐसा अकार का आगम नहीं होता है । उदा०-) चिइच्छइ, दुगुच्छइ ।। चि-जि-श्र-हु-स्तु-लू-पू-धूमां णो ह्रस्वञ्च ॥ २४१ ॥ च्यादीनां धातूनामन्ते णकारागमो भवति एषां स्वरस्य च ह्रस्वो भवति । चि चिणइ । जिणइ । श्रु सुणइ । हु हुणइ। स्तु थुणइ । लू लुणइ । पू पुणइ । धग धुणइ। बहुलाधिकारात् क्वचिद् विकल्पः । उचिणइ उच्चेइ । जेऊण जिणिऊण । जयइ जिणइ । सोऊण सुणिऊण । चि इत्यादि ( यानी चि, जि, श्रु, हु, स्तु, लू, पू और धू इन ) धातुओं के अन्त मे णकार का आगम होता है और इन (धातओं) के ( दीर्घ ) स्वर का ह्रस्व (स्वर) होता है। उदा०-चि चिणइ... .. युणइ । बहुल का अधिकार होने से, क्वचित् विकल्प होता है। उदा०-उच्चिणइ... .."सुणिऊण । १. क्रमसे:-भ्रम् । हस् । कृ-कुण । चुम्ब् । भण् । उपशम् । प्राप् । सिच्-सिञ्च् । रुध्-रुन्ध् । मुष् । हृ-हर् । कृ-कर । २. क्रम से :-पा। धाव-धा । या । ध्यै । जम्भ् । उद्वा । म्ल । विक्री । भू-हो । ३. क्रम से :-चिकित्सति । जुगुप्सति । ४. क्रम से :- उच्चि । जि । जि । श्रु Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरणे २२९ ना वा कर्मभावे व्वः क्यस्य च लुक ॥ २४२ ॥ च्यादीनां कर्मणि भावे च वर्तमानानामन्ते द्विरुक्तो वकारागमो वा भवति, तत्सन्नियोगे च क्यस्य लुक् । चिव्वइ चिणिज्जइ । जिव्वइ जिणिज्जइ । सुब्वइ सुणिज्जइ । हुब्वइ हुणिज्जह । थव्वइ थणिज्जइ। लुब्बाइ लुणिज्जइ । पुव्वइ पुणि ज्जइ। धव्वइ । धुणिज्जइ। एवं भविष्यति। चिव्विहिइ । इत्यादि। कर्मणि और भावे ( रूपों में ) होने वाले चि इत्यादि ( यानी चि, जि, श्रु, हु, स्त, लू, पू धू इन ) धातओं के अन्त में द्विरुक्त वकार का ( यानी व्व का आगम विकल्प से होता है, और उस ( ब ) के सान्निध्य में क्य ( प्रत्यय ) का लोप होता है। उदा-चिव्वइ. ."घुणिनइ। इसी प्रकार ही भविष्य काल में ( रूप होते हैं । उदा०-) चिन्विहिइ, इत्यादि । म्मश्चेः ।। २४३ ॥ चिगः कर्मणि भावे च अन्ते संयुक्तो मो वा भवति, तत्सन्नियोगे क्यस्य च लुक । चिम्मइ । चिव्वइ । चिणिज्जइ भविष्यति । चिम्मि हिइ । चिव्वि हिई । चिणिहिइ। कर्मणि और भावे ( रूपों में ) होने वाले चि ( धातु ) के अन्त में संयुक्त म ( = म्म ) विकल्प से आता है, और उस (म्म ) के सान्निध्य में क्य ( प्रत्यय ) का लोप होता है। उदा -चिम्म... ... चिणिज्जइ । भविष्यकाल में ( उदा०-) :-चिम्मिहिइ... .."चिणिहिइ । हन्खनोन्त्यस्य ।। २४४ ॥ अनयोः कर्म भावेन्त्यस्य द्विरुक्तो मो वा भवति, तत्सन्नियोगे क्यस्य च लुक् । हम्मइ हणिज्जइ । खम्मइ खणिज्जइ। भविष्यति। हम्मिहिइ । खम्मिहिइ खणिहिइ। बहुलाधिकाराद्धन्तेः कर्त-यपि । हम्मइ हन्तीत्यर्थ । क्वचिन्न भवति । हन्तव्वं । हन्तूण । हओ। कर्मणि और भावे ( रूपों में ) होने वाले हन् और खन् इन धातुओं के अन्त में द्विरुक्त म ( = म्म ) विकल्प से आता है, और उस ( म्म ) के सान्निध्य में क्य ( प्रत्यय ) का लोप होता है। उदा०-हम्मइ . . खणिजइ । भविष्य काल में ( उदा.-):-हम्मिहिइ . . 'खाणि हिइ। बहुल का अधिकार होने से, हन्ति ( हन ) धातु के कर्तरि रूप में भी ( ऐसा म्म आता है। उदा.- ) हम्मइ यानी हन्ति ( = वध करता है ) ऐसा अर्थ है । क्वचित् ( ऐसा म्म ) नही होता है। उदा०-हन्तव्वं.... .."हो । Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः पादः भो दुह - लिह-वह-रुधामुच्चातः ।। २४५ ।। दुहादीनामन्त्यस्य कर्मभावे द्विरुक्तो भो वा भवति, तत्सन्नियोगे क्यस्य च लुक्, बहेरकारस्य च उकारः । दुब्भइ दुहिज्जइ । लिभइ लिहिज्जइ । वूब्भइ वहिज्जइ । रुब्भइ रुन्धिज्जइ । भविष्यति । दुब्भिहिइ दुहिहिइ । इत्यादि । २३० कर्मणि और भावे ( रूपों ) में, दुह, इत्यादि ( यानी ) दुह: लिह, वह और रुध् ) धातुओं के अन्त्य वर्ण का द्विरुक्त भ ( = ब्भ ) विकल्प से होता है, ओर उस ( ब्भ ) के सांनित्य में क्य ( प्रत्यय ) का लोप होता है, और वह - ( धातु ) में से अकार का उकार होता है । उदा०- दुब्भइरुन्धिज्जइ । भविष्यकाल में ( उदा० - दुब्भिहिद्द, दुद्दिहि इत्यादि । दहो ज्झः ।। २४६ ॥ दहोन्त्यस्य कर्मभावे द्विरुक्तो झो वा भवति, तत्सन्नियोगे क्यस्य च लुक् उज्झइ डहिज्जइ । भविष्यति । इज्झिहिइ डहिहिए । कर्मणि और भावे रूपों में, दह, धातु के अन्त्यवर्ण का द्विरुक्त झ ( = ज ) विकल्प से होता है, और उस ( ज्झ ) के सांनिध्य में क्य ( प्रत्यय ) का लोप होता है । उदा - उज्झइ, डहिज्झइ । भविष्यकाल में ( उदा० ):- उज्झिइ डहिहि । बन्धो न्धः ।। २४७ ॥ बन्धेर्धातोरन्त्यस्य न्ध इत्यवयवस्य कर्मभावे ज्झो वा भवति, तत्सन्नियोगे क्यस्य च लुक् । बज्झइ बन्धिज्जइ । भविष्यति । बज्झिहिई उन्धिहिइ । कर्मणि और भावे रूपों में, बन्ध धातु के अन्त्य न्ध् अवयव का ज्झ विकल्प से होता है और उस ( ज्झ ) के सांनिध्य में क्य ( प्रत्यय ) का लोप होता है । उदा०झइ बन्धिज्जइ । भविष्यकाल में (उदा० ) :- बज्झिहि, बन्धिहि । समनूपाद् रुधेः ॥ २४८ ॥ समनूपेभ्यः परस्य रुधेरन्त्यस्य कर्मभावे ज्झो वा भवति, तत्संनियोगे क्यस्य च लुक् । संरुज्जइ । अणुरुज्झइ । उवरुज्झइ । पक्षे । संरुन्धिज्जइ । अरुन्धिज्जइ । उवरुन्धिज्जइ । भविष्यति । संरुज्झिहिइ संरुन्धिहिइ । इत्यादि । कर्मणि और भावे रूपों में, सम्, अनु, ( अथवा ) उप ( होने बाले रुध् धातु के जन्त्य वर्ण का सांनिध्य में क्य ( प्रत्यय ) का लोप इन उपसर्गों ) के आगे ज्झ विकल्प से होता है, और उस ( झ ) के होता है । उदा०--- संरुज्झइ 'उबरुज्झद्द | Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरणे २११ ( विकल्प-) पस में:-संरुन्धिज्जइ ... .."उवरुन्धिज्जइ। भविष्यकाल में:संरुज्झिहिइ, संरुन्धिहिइ, इत्यादि । गमादीनां द्वित्वम् ।। २४६ ॥ गमादीनामन्त्यस्य कर्मभावे द्वित्वं वा भवति, तत्सन्नियोग क्यस्य च लक। गम् गम्मइ गमिज्जइ। हस हस्सइ हसिज्जइ। भण भण्णइ भणिज्जइ। छुप छप्पइ विज्जइ । रुदनमोर्वः ( ४.२२५ ) इति कृतवकारादेशो रुदिरत्र पठ्यते। रुव रुपइ रुपिज्जइ। लभ् लब्भइ लहिज्जरु। कथ कत्थइ कहिज्जइ। भुज भुज्जइ भुजि जइ। भविष्यति। गम्मिहिइ गमिहिइ । इत्यादि। कर्मणि और भावे रूपों में, गम् इत्यादि धातुओं के अन्त्य वर्ण का विकल्प से द्वित्व होता है, और उस ( द्वित्व ) के सानिध्य में क्य ( प्रत्यय ) का लोप होता है। उदा०-गम् गम्म....."छुविज्जइ । 'रुदनमोर्वः' सूत्र से जिसमें वकार आदेश किया हुआ है ऐसा रुद् धातु यहाँ लेना है । रु रुव्वइ ......"भुञ्जिज्जइ । भविष्यकाल में:गम्मिहिइ, गमिहिइ, इत्यादि । ह-कृ-त-ब्रामीरः ।। २५० ।। एषामन्त्यस्य ईर इत्यादेशो वा भवति तत्सन्नियोगे च क्य लक। हीरइ हरिज्जइ । करिइ करिज्जई । तीरइ तरिज्जइ । जीरइ जरिज्जइ। ( कर्मणि और भावे रूपों में, ह , कृ, तृ और ज़ ) इन धातुओं के अन्त्य वर्ण को ईर ऐसा आदेश विकल्प से होता है । और उस ( ईर ) के सानिध्य में क्य ( प्रत्यय ) का लोप होता है । उदा०-हरिइ ... "जरिज्जइ । अर्जेविंढप्पः ।। २५१ ॥ अन्त्यस्येति निवृत्तम् । अर्जेविढप्प इत्यादेशो वा भवति, तत्सन्नियोगे क्यस्य च लुक । विढप्पइ। पक्षे । विढविज्जइ अज्जिज्जइ । ( इस सूत्र में अब ) अन्त्यस्य ( = अन्य वर्ण का ) इस शब्द की निवृत्ति हुई है। ( कर्मणि और भावे रूपों में ) अज् धातु को विढप्प ऐसा आदेश विकल्प से होता है, और उसके सानिध्य में क्य ( प्रत्यय ) का लोप होता है। उदा०--विढप्पइ । (विकल्प-) पक्ष में:--विढविज्जइ, अज्जिज्जइ । __झो णव्व-णजौ ॥ २५२ ।। जानातेः कर्मभावे णव्व णज्ज इत्यादेशौ वा भवतः, तत्सन्नियोगे क्यस्य च लक। णव्वइ णज्जइ। पक्षे। जाणिज्जइ मूणिज्जइ। म्नज्ञोणः ( २.४२ ) इति णादेशे तु । णाइज्जइ। नञ् पूर्वकस्य । अणाइज्जइ । Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ चतुर्थः पादः कर्मणि और भावे रूपों में, जानाति ( ज्ञा ) धातु को णव्व और णज्ज ऐसे ये आदेश विकल्प से होते हैं, और उनके सानिध्य में क्य ( प्रत्यय ) का लोप होता है। उदा०-णव्वइ, णज्जइ। ( विकल्प- ) पक्षमें:-जाणिज्जइ. मुणिज्जइ । 'म्नज्ञोर्ण:' सूत्र से (ज्ञा धातु में ज्ञ इस संयुक्त व्यञ्जन को ) ण आदेश होने पर तो णाइज्जइ ( ऐसा रूप होता है)। नन् (अव्यय) पूर्व में होने वाले ( ज्ञा धातु का ) अगाइज्जइ (ऐसा रूप होता है । __ व्याहगेर्वा हिप्पः ॥ २५३ ॥ व्याहरतेः कर्मभावे वाहिप्प इत्यादेशो वा भवति, तत्सन्नियोगे क्यस्य च लुक् । वाहिप्पइ। वाहरिज्जइ।। कर्मणि और भावे रूपों में, व्याहरति (ध्याह) धातु को वाहिप्प ऐसा आदेश बिकल्प से होता है, और उसके सानिध्य में क्य (प्रत्यय) का लोप होता है । उदा.वाहिप्पइ । (विकल्प-पक्ष में) वाहरिज्जइ। आरमेराढप्पः ॥ २५४ ॥ आङ् पूर्वस्य रभेः कर्मभावे आढप्प इत्यादेशो वा भवति क्यस्य च लक । आढप्पइ । पक्षे । आढवीअइ। कर्मणि और भावे रूपों में, आ (उपसर्ग) पूर्व में होनेवाले रम् धातु को बाढप्प ऐसा आदेश विकल्प से होता है, और ( उसके सानिध्य में ) क्य ( प्रत्यय ) का लोप होता है । उदा.-आढप्पइ । (विकल्प-) पक्ष में:-आढवीअइ । स्निहसिचोः सिप्पः ।। २५५ ।। अनयोः कर्मभावे सिप्प इत्यादेशो भवति क्यस्य च लुक् । सिप्पइ । स्निह्यते सिच्यते वा। कर्मणि और भावे रूपों में ( स्निह, और सिच् ) इन धातुओं को सिप्प ऐसा आदेश होता है, और (उसके सानिध्य में) क्य (प्रत्यय) का लोप होता है । उदा.सिप्पइ (यानी) स्निह्यते अथवा सिच्यते (ऐसा अर्थ है)। अहेर्धेप्पः ॥ २५६ ॥ ग्रहः कर्मभावे धेप्प इत्यादेशो वा भवति क्यस्य च लुक । धेप्पइ । गिण्हिज्जइ। ___कर्मणि और भावे रूपों में, ग्रह, धातु को धेप्प ऐसा मादेश विकल्प से होता है, और (उसके र्सानिध्य में) क्य (प्रत्थय) का लोप होता है। उदा०--घेप्पइ । (विकल्पपक्ष में) गिणिज्जइ। Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरणे २३३ स्पृशेश्छिप्पः ॥ २५७ ॥ स्पृशतेः कर्मभावे छिप्पादेशो वा भवति क्यलुक च। छिप्पइ। छिविज्जइ। ___ कर्मणि और भावे रूपों में, स्पृशति (/ स्पृम्) धातुको छिप्प ऐसा आदेश विकल्प से होता है, और ( उसके सानिध्य में ) क्य ( प्रत्यय ) का लोप होता है । उदा०-- छिप्पइ । (जिकल्प--पक्ष में):--छिविज्जइ।। क्तेनाप्फुण्णादयः ।। २५८ ॥ अप्फुण्णादयः शब्दाः आक्रमिप्रभतीनां धातूनां स्थाने क्तेन सह वा निपात्यन्ते। अप्फुण्णो आक्रान्तः । उक्कोसं उत्कृष्टम् । फूडं स्पष्टम् । वोलीणो अतिक्रान्तः । वो सट्टो विकसितः। निसुट्टो निपातितः । लुग्गो रुग्णः । ल्हि क्को नष्टः । पम्हठो प्रमृष्टः प्रमुषितो वा। विढत्तं अर्जिनम् । छित्तं स्पृष्टम् । निमिअं स्थापितम् । चक्खि आस्वादितम् । लुअं लूनम् । जढं त्यक्तम् । झोसिसंक्षिप्तम् । निच्छूढं उद्वृत्तम् । पल्हत्थं पलोटं च पर्यस्तम् । ही समणं हेषितम् । इत्यादि। अप्फुण्ण इत्यादि शब्द, आक्रम् इत्यादि धातुओं के स्थान पर, क्त ( प्रत्यय ) के सह निपात स्वरूप में विकल्प से आते हैं । अत्फुण्णो आक्रान्तः... ... .."हेषितम्, इत्यादि। धातवोर्थान्तरेपि ॥ २५६ ॥ उक्तादर्थादर्थान्तरेपि धातवो वर्तन्ते । बलिः प्राणने पठितः खादनेपि वर्तते। बलइ खादति प्राणनं करोति वा। एवं कलिः संख्याने संज्ञानेपि । कलइ जानाति संख्यानं करोति वा। रिगिर्गतौ प्रवेशेपि । रिगइ प्रविशति गच्छति वा। काङ्क्षतेर्वम्फ आदेशः प्राकृते । वम्फइ। अस्यार्थः इच्छति खादति वा। फरकतेस्थक्क आदेशः । थक्कइ नीचां गतिं करोति विलम्बयति वा। विलप्युपालम्भ्यो झङ्क आदेशः । झङ्घ। विलपति उपालभते भाषते वा। वा । एवं पडिवालेइ प्रतीक्षते रक्षति वा । केचित् कैश्चिदुपसर्गेनित्यम् । पहरइ युध्यते। संहरइ संवृणोति । अणुहरइ सदृशी भवति । नीहरइ पुरीषोत्सगं करोति। विहरइ क्रीडति । आहरइ खादति । पडिहरइ पुनः पूरयति । परिहरइ त्यजति । उबहरइ पूजयति वाहरइ आह्वयति । पवसइ देशान्तरं गच्छति । उच्चपइ चटति । उल्लुहइ निःसरति । उक्त ( = कहे हुए ) अर्थों से भिन्न अर्थों में भी धातु ( प्राकृत में प्रयुक्त ) होते हैं। उदा०-बल् ( बलि ) धातु प्राणन अर्थ में कहा हुआ है; वह खादन अर्थ में Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३४ चतुर्थः पादः भी होता है। ( अतः ) बलइ ( यानी ) खादति ( = खाता है ) अथवा प्राणनं करोति ( = श्वासोच्छ्वास करता है )। इसी प्रकार, कल् ( कलि ) धातु संख्यान (= गणना) तथैव संज्ञान ( अर्थों ) में भी होता है। उदा०-कलइ ( यानी ) जानाति ( = जानना है ) अथवा संख्यानं करोति । = गणना करता है)। रिग ( रिगि ) धातु गति ( तथैव ) प्रवेश ( इन अर्थों में ) में भी होता है । उदा०-- रिगइ ( यानी ) प्रविशति ( = प्रवेश करता है ) अथवा गच्छति ( = जाता है)। प्राकृत में काङ्क्षति ( /काङ्क्ष ) धातु को वम्फ आदेश होता है। वम्फइ; इस का अर्थ इच्छति ( = इच्छा करता है ) अथवा खादति ( = खाता है ) ( ऐसा होता है )। ( प्राकृत में ) फक्कति ( /फक्क् ) धातु को थक्क आदेश होता है । थक्क इ ( यानी ) नीचां गति करोति ( = नीचे गमन करता है ) अथवा विलम्बयति . = विलम्ब करता है ) ( ऐसा अर्थ होता है ) । ( प्राकृत में ) विलप् ( विलपि ) और उपालम्भ ( उपालभ्भि ) इन धातुओं को झङ्ख ऐसा आदेश होता है। झङ्खइ ( यानी ) विलपति ( = विलाप करता है), उपालभते ( निन्दा करता है ), अथवा भाषते (= बोलता है) (ऐसे अर्थ होते हैं ) । इसी प्रकार :पडिवालेइ ( यानी ) प्रतीक्षते ( = प्रतीक्षा करता ) अथवा रक्षति ( = रक्षण करता है ) ( ऐसे अर्थ होते हैं )। कुछ ( विशिष्ट ) उपसर्गों से युक्त होने वाले कुछ ( विशिष्ट ) धातु ( विशिष्ट ऐसे ) निश्चित अर्थ में ( प्राकृत में होते हैं )। उदा.---पहरइ ( यानी ) युध्यते ( = युद्ध करता है ); संहरति ( यानी संवृणोति ( = ढकता ); अणुहरइ ( यानो) सदृशोभवति ( = सदृश होता है ); नीहरइ (यानी) पुरीषोत्सर्ग करोति ( = मलोत्सर्ग करता है); विहरई (यानो) क्रीडति ( = खेलता है ); आहरइ ( यानी ) खादति ( = खाता है ); पहिहरइ ( यानी ) पुनः पूरयति ( - पुनः पूर्ण करता है ); परिहरइ ( यानी ) त्यजति ( = त्याग करता है ); उवहरइ ( यानी ) पूजयति ( = पूजा करता है ); वाहरइ (यानी) आह्वयति ( = बुलाता है ); पवसइ ( यानी ) देशान्तरं गच्छति ( = अन्य देश में जाता है ); उच्चुणइ ( यानी ) चटति ( = चाटता है ); उल्लुहइ (यानी ) निःसरति ( = बाहर निकलता) है। तो दोनादौ शौरसेन्यामयुक्तस्य ॥ २६० ॥ शौरसेन्यां भाषायामनादावपदादौ वर्तमानस्य तकारस्य दकारो भवति, न चेदसौ वर्णान्तरेण संयुक्तो भवति । तदो पूरिदपदिशेण' मारुदिणा मन्तिदो। एतस्मात् एदाहि एदाहो। अनादाविति किम् । तधा करेध जधा२ तस्स १. ततः पूरितप्रतिज्ञेन मारुतिना मन्त्रितः । २. तथा कुरुत यथा तस्य राज्ञः अनुकम्पनीया भवामि । Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरण २३५ राइणो अशुकम्पणीआ भोमि । अयुक्तस्येति किम् । 'मत्तो। अय्यउत्तो। असम्भाविद सक्कारं । हला स उन्तले। शौरसेनी भाषा में, अनादि होने वाले ( यानो ) पद के आदि न होने वाले तकार का, यदि वह (तकार ) अन्य वर्गों से संयुक्त न हो, तो ( उस तकार का) दकार होता है। उदा.-तदौ... ..."एदादो। अनादि ( होने वाले तकार का) ऐसा क्यों कहा है ? ( कारण यदि तकार पद का आदि हो, तो उसका दकार नहीं होता है । उदा०:-) तधा'.. .."भोमि । असंयुक्त ( तकार का ) ऐसा क्यों कहा है ? ( कारण तकार संयुक्त हो, तो उसका दकार नहीं होता है । उदा.-) नत्तो ... .."सउन्तले । अधः क्वचित् ।। २६१ ॥ वर्णान्तरस्याधो वर्तमानस्य तस्य शौरसेन्यां दो भवति । क्वचिल्लक्ष्यानुसारेण । महन्दो निच्चिन्दो । अन्देउरं। शौरसेनी भाषा में, ( एकाध ) अन्य वर्ण के अनन्तर होने वाले ( यानी संयुक्त होने वाले ) तकार का द होता है। ( सूत्र में से ) क्वचित् ( शब्द का अभिप्राय है कि उपलब्ध ) उदाहरणों के अनुसार । उदा.-महन्दो... ."अन्देउरं ।। वादेस्तावति ।। २६२ ।। शोरसेन्या तावच्छब्दे आदेस्तकारस्य दो वा भवति । दाव । ताव । शौरसेनी भाषा में, तावत् शब्द मे आदि ( होने वाले ) तकार का द विकल्प से होता है । उदा०-दाव, ताव । __ आ आमन्त्र्ये सौ वेनो नः ।। २६३ ॥ शौरसेन्यामिनो नकारस्य आमन्त्र्ये सौ परे आकारो वा भवति । भो कञ्चुइआ । सुहिआ। पक्षे। भो तवस्सि । भो भणस्सि। शौरसेनी भाषा में, ( शब्द के अन्त्य ) इन में से नकार का सम्बोधन अर्थ में होने वाले ) सि ( प्रत्यय ) आगे होने पर, विकल्प से आकार होता है। उदा.भोकञ्चुइमा, सुहिआ। (विकल्प-) पक्ष में :--पक्ष में :--भो तवस्सि, नो भणसि । १. क्रम से : --मत्त । आर्यपुत्र । असम्भावित--सत्कारम् । हला शकुन्तले । २. क्रम से :-महत् । निश्चिन्त । अन्तःपुर । ३. क्रम से : ---भोः कञ्चुकिन् । सुखिन् । ४. क्रम से :-भो तपस्विन् । भो मनस्विन् । Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ चतुर्थः पादः मो वा ॥ २६४ ॥ शौरसेन्यामामन्ये सौ परे नकारस्य भो वा भवति। भो' रायं । भो विअयवम्भं । सुकम्भं भयवं कुसुमा उह । भयवं तित्थं पवत्तह । पक्षे। 'सयललोअ-अन्ते आरि भयव हुदवह । शौरसेनी भाषा में, सम्बोधनार्थी सि (प्रत्यय ) आगे होने पर, ( शब्द में से अन्त्य ) नकार का म् विकल्प से होता है। उदा०-भो रायं... .. 'पवत्तेह । ( विकल्प-) पक्ष में :-सयल... .."हुदवह । भवद्-भगवतोः ।। २६५ ।। आमन्त्र्य इति निवृत्तम् । शौरसेन्यामनयोः सौ परे नस्य मो भवति । कि एत्थभवं हिदएग चिन्तेदि । एदुभवं । समणे भगवं महावीरे। पज्जलिदो भयवं हदासणो । क्वचिदन्यत्रापि । मघवं पाग सासणे। संपाइ अवं सीसो। कय करेमि काहं च। आमन्त्र्ये (= संबोधन अर्थ में) इस ( सूत्र ४२६४ में से) पद की (इस सूत्र में) निवृत्ति हई है । शौरसेनी भाषा में, (भवत् और भगवत् ) इन शब्दों के आगे सि ( प्रत्यय ) होने पर, न का म होता है। उदा०--कि एस्थ..... हुदासणो । क्वचित् इतरत्र यामी अन्य शब्दों में भी (ऐसा म् होता है । उदा०---) मघवं.... 'काहं च । न वा यो व्यः ॥ २६६॥ शौर्यसेन्यां यस्य स्थाने य्यो वा भवति । अय्य उत्त पय्याकूलीकदम्हि । सुय्यो । पक्षे । “अज्जो । पज्जाउलो । कज्ज परवसो। १. क्रम से :--भो राजन् । भो विजयवर्मन् । सुकर्मन् । भगवन् कुसुमायुध । भगवन् तीथं प्रवर्तयत । २. सकल कोक-अन्तश्चारिन् भगवन् हुतवह । ३. क्रम से :---कि अत्र भवान् सहयेन चिन्तयति । ऐतु भवान् । श्रमणः भगवान् महावीरः । प्रज्वलितः भगवान् हुताशनः । ४. मधवान् पाकशासनः । ५. सम्पादितवान् शिष्य । ६. कृतवान् । ७. क्रमसे:--आर्यपुत्र पर्याकलीकृता अस्मि । सूर्य । ८. कमसे:--आर्य । पर्याकुल । कार्यपरवश । Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरण २३७ शौरसेनी भाषा में, र्य के स्थान पर य्य विकल्प से होता है। उदा.--अय्य उत्त..."सुय्यो । (विकल्प-) पक्ष में:--अज्जो'... 'परवसो । थो धः ॥ २६७ ॥ शौरसेन्यां थस्य धो वा भवति । कधेदि कहेदि । णाधो णाहो । कधं कहं। राजपधो राजपहो । अपदादावित्येव । थामं । थेओ। शौरसेनी भाषा में, ( पद के आदि न होनेवाले ) थ का ध विकल्प से होता है । उदा.--कधेदि:.... राजपहो । पदके आदि न होनेवाले ( थ का ही ध होता है, पद के प्रारम्भ में होनेवाले थ का ध नहीं होता है । उदा०--) थाम, थेओ । इहहचोहस्य ॥ २६८ ॥ इह शब्द सम्बन्धिनो मध्यमस्थेत्थाहचौ [ ३.१४३ ] इति विहितस्य हचश्च हकारस्य शौरसेन्यां धो वा भवति । 'इध । होध । परित्तायध । पक्षे । इह । होह । परित्तायह । शौरसेनी भाषा में, इह शब्द से संबंधित होनेवाले (ह), तथैव 'मध्यम ..."हच्ची सूत्र में कहे हुए हच में से (ह), इन दोनों हकार का ध विकल्प से होता है । उदा०इध.."परित्तायध । (विकल्प--) पक्ष में:---इह .''परित्तायह । भुवो भः ॥ २६९ ॥ भवते हकारस्य शौरसेन्यां भो वा भवति । भोदि होदि । भुवदि हुवदि। भवदि हवदि। शौरसेनी भाषा में, भवति (V भू) धातु के हकार का भ विकल्प से होता है । उदा०-भोदि....'हवदि । पूर्वस्य पुरवः ॥ २७०॥ शौरसेन्यां पूर्वशब्दस्य पुरव इत्यादेशो वा भवति । अपुरवं नाडयं अपुरवागदं । पक्षे। अपुव्वं पदं । अपुव्वागदं । शौरसेनी भाषा में, पूर्व शब्द को पुरव ऐसा आदेश विकल्प से होता है । उदा.अपुरवं...''गदं । (विकल्प-) पक्ष में:--अपुन्वं... 'गदं । १. क्रमसे:-- कथ । नाथ । कथम् । राजपथ । २. क्रमसे:---स्थाम । स्तोक । ३. क्रमसेः--इह । /हो (भू)। परि + । ४. क्रमसे:--अपूर्व नाटकम् । अपूर्वागतम् । ५. क्रभसेः--अपूर्व पदम् । अपूर्वागत Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ चतुर्थः पादः क्त्व इय-दूणौ ।। २७१॥ शौरसेन्यां क्त्वा प्रत्ययस्य इय दूण इत्यादेशौ वा भवतः । भविय' भोदूण । हविय होदूण । पढिय पढिदूण। रमिय रन्दूण। पक्षे । भोत्ता' : होत्ता। पढित्ता । रन्ता। शौरसेनी भाषा में, क्त्वा प्रत्यय को इय और दूण ऐसे आदेश विकल्प से होते हैं। उदा:--भविय... रन्दूण । (विकरुप--) पक्षमें:--भोत्ता...... "रन्ता । __ कृगभो डडुअः ॥ २७२ ॥ आभ्यां परस्य क्त्वा प्रत्ययस्य डित् अडअ इत्यादेशो वा भवति । कडअ । गडुअ । पक्षे । करिय करिदूण । गच्छिय गच्छिदूण । (चौरसेनी भाषा में, कृ और गम्) इन धातुओं के आगे आनेवाले क्त्वा प्रत्यय को डित् अड्डअ ऐसा आदेश विकल्प से होता है । उदा०--कडुम, गडुअ । ( बिकल्प-- ) पक्षमें:--करिय..."गच्छिदूण । दिरिचेचोः ॥ २७३ ॥ त्यादीनामाद्यत्रयस्याद्य स्येचेचौ [ ३.१३६ ] इति विहितयो रिचेचोः स्थाने दिर्भवति । वेति निवृत्तम् । नेदि । देदि । भोदि । होदि । ( शौरसेनी भाषा में ), 'त्यादी.....'चेची' सूत्र से कहे हुए इच् और एच् इन प्रत्ययों के स्थान पर दि होता है । (इस सत्र में) वा (=विकल्प) शब्द की निवृत्ति हुई है । उदा०- -नेदि"होदि ।। अतो देश्च ।। २७४ ॥ अकारात् परयो रिचेचोः स्थाने देश्चकाराद् दिश्च भवति । अच्छदे अच्छदि। गच्छदे गच्छदि। रमदे रमदि। किज्जदे किज्जदि । अत इति किम् । वसुआदि । नेदि । भोदि । ( शौरजी भाषा में, धातु के अन्त्य ) अकार के आगे आने वाले इच् और एच प्रत्ययों के स्थान पर दे, और ( सत्र में से ) चकार के कारण दि होते हैं । उदा.-- अच्छेद ...... किग्जदि । अकार के आगे ( आने वाले इच् और एच् के ) ऐसा क्यों १. /भू। २. V हो, हव । ३. /पठ् । ४./ रम् । ५. नी। ६. /दा । ७. भू । ८. /हो । ९. V आम् (सूत्र ४२१५ देखिए)। १०. /रम् । ११. क्रियते । १२. Vउद्वा । सुत्र ४.११ देखिए) । Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरणे कहा है ? ( कारण अकार छोड़कर अन्य स्वर के आगे दे नहीं होता है । उदा०-- :) वसुआदि "भोदि । भविष्यति सिः || २७५ ।। शौरसेन्यां भविष्यदर्थे विहिते प्रत्यये परे स्सिर्भवति । हिस्साहामपवादः । भविस्सिदि । करिस्सिदि । गच्छिस्सिदि । शौरसेनी भाषा में, भविष्यकालार्थी ऐसा कहा हुआ प्रत्यय ( धातु के ) आगे होने पर स्सि होता है । ( भविष्यकाल में ) हिस्सा ( सूत्र ३.१६८ देखिए ) और हा ( सूत्र ३·१६७ देखिए ) होते हैं, इस नियम का अपवाद प्रस्तुत नियम है । उदा०-भबिसिदिगच्छिस्सिदि । अतो डसेर्डादो-डादृ ।। २७६ ॥ अतः परस्य ङसेः शौरसेन्यां आदो आदु इत्यादेशौ डितौ भवतः । दूरादो' य्येव । दूरादु । २३९ शौरसेनी भाषा में ( शब्द के अन्त्य ) अकार के आगे आने वाले ङसि प्रत्यय को fe आदो और डिन् आदु ऐसे आदेश होते हैं । उदा०-दूरादु । - दूरादो इदानीमो दार्णि ॥ २७७ ॥ शौरसेन्यामिदानीमः स्थाने दाणि इत्यादेशो भवति । अनन्तरकरणीयं आणवेदु अय्यो । व्यत्ययात् प्राकृतेपि । अन्नं दाणि वोहि । शौरसेनी भाषा में, इदानीम् के स्थान पर दाणि ऐसा आदेश होता है । उदा०-अनन्तर· ···अय्यो | (और) व्यत्यय ( सूत्र ४*४४७ देखिए ) होने के कारण, प्राकृत में भी ( दाणि शब्द दिखाई देता है । उदा० - - ) अन्नं दाणि बोहि । तस्मात्ताः ॥ २७८ ॥ शौरसेन्यां तस्माच्छब्दस्य ता इत्यादेशो भवति । ता जाव पविसामि । ता अलं एदिणा माणेण - शौरसेनी भाषा में, तस्मात् शब्द को ता ऐसा आदेश होता है । ता जाव " माणेण । मोन्त्याण्णो वेदेतोः ।। २७९ ।। १. क्रम से: - - दूरात् एव दूरात् । २. अनन्तरकरणीयं इदानीं आज्ञापयतु आर्य: । ३. अन्यं इदानीं बोधिम् । ४. क्रम सेः -- तस्मात् यावत् प्रविशामि । तस्मात् अलं एतेन मानेन । उदा०- Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४. चतुर्थः पादः शौरसेन्यामन्त्यान्मकारात् पर इदेतोः परयोर्णकारागमो वा भवति । इकारे । 'जुत्तं णिमं जुत्तमिमं। सरिसं णिमं सरि समिणं । एकारे । किं णेदं किमेदं । एवं णेदं एवमेदं। शौरसेनी भाषा में (शब्द के) अन्त्य मकार के आगे इ और ए ये स्वर होने पर, णकार का आगम विकल्प से होता है । उदा० --इकार आगे होने परः---जुत्तं ... सरिसमिणं । एकार आगे होने परः--किणेदं... 'एवमेदं । एवार्थेय्येव ।। २८० ॥ एवार्थे य्येव इति निपातः शौरसेन्यां प्रयीक्तव्यः । मम य्येव बम्भणस्स । सो य्येव एसो। शौरसेनी भाषा में, एव के अर्थ में य्येव ऐसा निपात ( अव्यय ) प्रयुक्त करे । उदा०--मम....."एसो। हजे चेट्याह्वाने ।। २८१ ॥ शौरसेन्यां चेट्यावाने हजे इति निपातः प्रयोक्तव्य । हजे “चदुरिके। शौरसेनी भाषा से, चेटी को बुलाते समय, हजे ऐसा निपात ( =अव्यय ) प्रयुक्त करे । उदा--हजे चदुरिके । हीमाणहे विस्मयनिवेदे ॥ २८२ ॥ शौरसेन्यां हीमाणहे इत्ययं निपातो विस्मये निर्वेदे च प्रयोक्तव्यः । विस्मये । हीमाणहे "जीवन्तवच्छा मे जणणी । निर्वेदे । हीमाणहे पलिस्सन्ता हगे एदेण नियविधिणो दुव्ववसिदेण । शौरसेनी भाषा में होमाणहे ऐसा यह निपात विस्मय और निर्वेद दिखाने के लिए प्रयुक्त करे। उदा०--दिखाने के लिए :- होमाणहे... .'जणणी निर्वेद दिखाने के लिए ---हीमाणहे'.. ''दुव्वसिदेण । १. क्रम से--युक्तं इदम् । सदृशं इदम् । २. क्रम से :--कि एतद् । एवं एतद् । ३. क्रम से :--मम एव ग्राह्मणस्य । स एव एषः । ४. हजे चतुरिके। ५. (हीमाणहे)--जीवद्-वत्सा मे जननी । ६. (हीमाणहे ) परिश्रान्तः अहं एतेन निजविधेः दुर्व्यवसितेन । Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरणे २४१ णं नन्वर्थे ॥ २८३ ॥ शौरसेन्यां नन्वर्थे णमिति निपातः प्रयोक्तव्यः । णं 'अफलोदया। णं अय्यमिस्सेहिं पुढमं य्येव आणत्तं । णं भवं मे अग्गदो चलदि । आषे वाक्यालङ्कारपि दृश्यते । तमो त्थु णं । जयाणं । तयाणं । शौरसेनी भाषा में, ननु के अर्थ में णं ऐसा निपात प्रयुक्त करे। उदा.। णं .... ..'चलदि । आर्ष प्राकृत में ( णं अव्यय | निपात ) वाक्यालङ्कार के स्वरूप में (प्रयुक्त किया हुआ) दिखाई देता है । उदा./नमो. " तयाणं । अम्महे हर्षे ।। २८४॥ शौरसेन्यां अम्महे इति निपातो हर्षे प्रयोक्तव्यः । अम्हहे एआए' सुम्मिलारा सुपलिगढिदो भवं । शौरसेनी भाषा में, अम्महे ( यह निपात ) हर्ष दिखाने के लिए प्रयुक्त करे । उदा०-अम्महे .."भवं । ही ही विदूषकस्य ॥ २८५ ।। शौरसेन्यां हीही इति निपातो विदूषकाणां हर्षे द्योत्ये प्रयोक्तव्यः । ही ही भो सम्पन्ना मणोरधा पियवयस्सस्स । ___ शौरसेनी भाषा में ही ही ऐसा निपात विदूषकों का हर्ष दिखाना हो, तो प्रयुक्त करे । उदा०-ही ही भो... .''वयस्सस्स । शेषं प्राकृतवत् ॥ २८६ ।। शौरसेन्यामिह प्रकरणे यत् कार्यमुक्त ततोन्यच्छौरसेन्यां प्राकृतवदेव भवति । दीर्घह्रस्वौ मिथो वृत्तौ ( १.४ ) इत्यारभ्य तो दोनादौ शौरसेन्यामयुक्तस्य ( ४.२६० ) एतस्मात् सूत्रात् प्राग यानि सूत्राणि एषु यान्यूदाहरणानि तेषु मध्ये अमूनि तदवस्थान्येव शौरसेन्या भवन्ति अमूनि पुनरेवं विधानि भवन्तीति विभागः प्रतिसूत्रं स्वयमभ्यूह्य दर्शनीयः। यथा। अन्दावेदी। जुवदि जणो । मणसिला। इत्यादि । १. क्रम से :-- ( णं ) नफलोदया। ( णं) आर्यमिश्रः प्रथम एव आज्ञप्तम् । (णं) भवान् मे अग्रतः चलति । २. क्रम से :-नमोऽतु ( ण)। यदा ( णं )। तदा ( णं)। ३. ( अम्हहे ) एताए मिलया सुपरिगृहीतः भवान् । ४. (ही ही) भोः सम्पन्नाः मनोरथाः प्रियवयस्यस्य । १६ प्रा व्या. Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ चतुर्थः पादः शौरसेमी भाषा के बारे में जो कुछ कार्य इस प्रकरण में कहा हुआ है, वह छोड़ कर अन्य कार्य प्राकृत के समान शौरसेनी भाषा में होता है । ( अभिप्राय ऐसा है :--- ) 'दीर्घ... ."वृत्ती' इस सूत्र से प्रारम्भ करके 'तो दोनादौ... ..'युक्तस्य' इस सूत्र के पूर्व तक जो सूत्र और उनके लिए जो उदाहरण दिए हुए हैं, उनमें से 'अमुक सूत्र जैसे के तैसे शौरसेनी को लागू पड़ते हैं,' ( और ) अमुक सूत्र मात्र ( कुछ फर्क से ) इसी प्रकार लागू पड़ते हैं,' इत्यादि विभाग प्रत्येक सूत्र का स्वयं ही विचार करके ( अभ्यूह्य ) दिखाए। उदा०--अन्दावेदी... .."मणसिला, इत्यादि । अत एत् सौ पुंसि मागध्याम् ॥ २८७ ॥ __ मागध्यां भाषायां सौ परे अकारस्य एकारो भवति पंसि पुल्लिगे। एष मेषः एशे मेशे। एशे। पुलिशे। करोमि भदन्त करेमि भन्ते । अत इति किम् । णिही । कली। गिली । पंसीति किम् । जलं। यदपि 'पोराणमद्धमागह भासानिययं हवइ सूत्तं' इत्यादिनार्णस्य अर्धमागधभाषानियतत्वमाम्नायि वृद्धस्तदपि प्रायोस्यैद विधानान्न वक्ष्यमाणलक्षणस्य। कयरे आगच्छइ। से तारिसे दुक्खसहे जिइन्दिए । इत्यादि । ___मागधी भाषा में, पुंसि यानी पुल्लिग में, सि ( प्रत्यय ) आगे होने पर, ( शब्द के अन्त्य ) अकार का एकार होता है। उदा०---एष... .. 'भन्ते । अकार का ( एकार होता है ) ऐसा क्यों कहा है ? ( कारण अन्य स्वरों का एकार नहीं होता है । उदा०-- ) णिही... . गिली । पुल्लिग में ऐसा क्यों कहा है ? ( कारण अन्य लिंगों में ऐसा एकार नहीं होता है। उदा.-- ) जलं। ( जैन धर्मियों के ) प्राचीन सूत्र अर्ध मागध भाषा में हैं इत्यादि वचन से वृद्ध पुरुषों ने यद्यपि आर्ष यानी अधं मागध भाषा है ऐसा कहा है, तथापि वह भी प्रायः ( अभी प्रस्तुत स्थान में बताए हुए इस ) नियम के अनुसार है, ( यहाँ से आगे ) कहे जाने वाले नियमों के अनुसार नहीं है ( यह ध्यान में रखे । ) उदा०--कयरे'.. ..'जिइन्दिरा, इत्यादि । रसोर्लशौ ॥ २८८ ॥ मागध्यां रेफस्य दन्त्यसकारस्य च स्थाने यथासंख्यं लकारस्तालव्य१. एषः पुरुषः। २. क्रम से :--निधि । करिन् । गिरि । ३. क्रम से :--कतरः आगच्छति । सः तादृशः दुःखसहः जितेन्द्रियः । Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरणे २४३ शकारश्च भवति । र । नले। कले। स । हंशे । शुदं । शोभणं । उभयोः । शालशे । पुलिशे। लहश-वश-नमिल-शुल-शिल-विअलिद-मन्दाल-लायिदंहि-युगे । वीलयिणे पक्खालदु मम शयलमवय्य-यम्बालं ॥१॥ मागधी भाषा में, रेफ के और दन्त्य सकार के स्थान पर अनुक्रम से लकार मीर तालव्य शकार होते हैं। उदा.--र ( के स्थान पर):--नले, कले। स (के स्थान पर :-- ) हंशे... .. शोभणं । दोनों के ( स्थान पर):--शालशे, पुलिशे । ( तथंव :-- ) लहशवथ... .यम्बालं। सषोः संयोगे सोग्रीष्मे ॥ २८९ ।। मागध्यां सकार-षकारयोः संयोगे वर्तमानयोः सो भवति ग्रीष्मशब्दे तु न भवति । ऊवं लोपाद्यपवादः। स । 'पस्खलदि हस्ती। बुहस्पदी । मस्कली। विस्मये । ष । शुस्क'-दालं । कस्टं। विस्नं । शस्प-कवले। उस्मा। निस्फलं । धनुस्खण्डं अग्रीष्म इति किम् । गिम्ह-वाशले। मागधी भाषा में, संयोग में होने वाले सकार और षकार ( इन ) का स होता है; परन्तु पोष्म शब्द में मात्र (ष का स ) नहीं होता है। प्रथम होने वाले (स् और ष् इन ) को लोप होता है ( सूत्र २.७७ देखिए ) इत्यादि (नियमों ) का अपवाद प्रस्तुत नियम है। उदा.---स ( का स ):--पक्खलदि... .. "विस्मये । ष ( का स ) :--शुस्कदालं.. .''धनुस्खण्डं । ग्रीष्म शब्द में (ष का स ) नही होता है ऐसा क्यों कहा है ? ( कारण ग्रीष्म शब्द में आगे दिया हुआ वर्णान्तर होता है । उदा०-- ) गिम्ह-वाशले । ष्ठयोस्टः ।। २९० ॥ द्विरुक्तस्य टस्य षकाराकान्तस्य च ठकारस्य मागध्यां सकाराक्रान्तः १. क्रम से :--नर । कर । २. क्रम :--हंस । श्रुत । शोभन । ३. क्रम से :--सारस । पुरुष । ४. रभसवश-नमनशल-सुर-शिरस-विगलित-मन्दार-राजित-अंधि-युगः । वीर-जिनः प्रक्षालयतु मम सकलं अवद्य-जम्बालम् ॥ ५. क्रम से :--प्रस्खलति हस्ती । बृहस्पति । मस्करिन् । विस्मय । ६. क्रम से :--शुष्क दारु। कष्ट । विष्णु । शष्प-कवल । ऊष्मा । निष्फल । धनुष्खण्ड । ७. ग्रीष्म-वासर। Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ चतुर्थः पादः टकारो भवति । दृ। 'पस्टे । भस्टालिका। भस्टिणी। ष्ठ। शुस्टु कदं । कोस्टागालं। मागधी भाषा में, द्विरुक्त ट ( = ट्ट) और षकार से युक्त ठकार (=ष्ठ) इनका सकार से युक्त टकार (=स्ट) होता है। उदा०--ट्ट (का स्ट):--पस्टे"भस्टिगी। 8 (कास्ट):-~-शुस्टु..'कोस्टागालं । स्थर्थयोस्तः ।। २९१ ॥ स्थ र्थ इत्येतयोः स्थाने मागध्यां सकाराकान्तः तो भवति । स्थ। उवस्तिदे । शुस्तिदे । र्थ । अस्तवदी। शस्तावाहे। मागधी भाषा में, स्थ और र्थ इनके स्थान पर सकार से युक्त त ( =स्त ) होता है । उदा०---स्थ (का स्त):--उबस्तिदे, शुस्तिदे र्थ (का स्त):---अस्तवदी,शस्तवाहे । जधयां यः ॥ २९२ ॥ मागध्यां जध्यां स्थाने यो भवति । ज। 'याणदि। यणवदे। अय्युणे । दुय्यणे । गय्य दि। गुणवय्यिदे । द्य। मय्यं । अय्य किल विय्याहले आगदे । य। "यादि । यधाशलवं । याणवत्तं । यदि । यस्य यत्वविधानं आदेर्योजः ( १.२४५ ) इति बाधनार्थम् । __ मागधी भाषा में, ज, द्य, और म इनके स्थान पर य होता है । उदा०--ज ( के स्थान पर):-याणदि..... 'वय्यिदे। द्य ( के स्थान पर ):-मम्यं..." आगदे । य (के स्थान पर):--मादि मदि । 'आयोजः' सूत्र का (यहाँ बाध हो, इसलिए य का य होता है, ऐसा विधान (प्रस्तुत सूत्र में) किया है । न्यण्यज्ञञ्जां ञः ॥२९३॥ मागध्यां न्य ण्य ज्ञ ख इत्येतेषां द्विरुक्तो जो भवति। न्य । 'अहिमञ्चु. कुमाले। अञ्जदिशं। शाम-गुणे। कञका-लणं । ण्य । पुजवन्ते । १. क्रमसे:--पट्ट । भट्टारिका । भट्टिनो। २ क्रमसे:--सुष्ठुकृतम् । कोष्ठागार । ३. क्रमसेः--उपस्थित । सुस्थित। ४. क्रमसे:--अर्थपति । अर्थवती । सार्थवाह । ५. क्रमसे --जानाति । जनपद । अर्जुन । दुर्जन । गति । गुणजित । ६. क्रमसे:--मद्य । अद्य किल विद्याधरः आगतः । ७. क्रमसे:--याति । यथास्वरूपम् । यानपात्तम् । यदि । ८. क्रमसे:--अभिमन्युकुमार । अन्यदिशम् । सामान्यगुण । कन्यका-वरण । ९. क्रमसे:--पुण्यवत् । अब्रह्मण्य । पुण्याह । पुण्य । Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरणे २४५ अबम्हनं । पुज्ञाहं । पुरं । ज्ञ। पाविशाले। शत्वने । अवम्ञा । ख। अञली । धणञए । पञले। मागधी भाषा में, न्य, ण्य, ज्ञ और अ इनका द्विरुक्त ब ( = ञ्ज) होता है। उदा०--न्य ( का ञ ):--अहिम .....'वलणं । ण्य ( का अ ):---पुञ्जवन्ते... पुझं । ज्ञ ( का ज ):--पाविशाले . . . . 'अवज्ञा । ञ्ज ( का ज):--अञ्जली ..... पञ्जले । व्रजो जः ।। २९४ ।। मागध्यां व्रजेजंकारस्थ यो भवति । बापवादः । वअदि । मागधी भाषा में, व्रज् (धातु ) में से जकार का होता है। ( जकार का ) य होता है ( सूत्र ४.२९२ देखिए ) इस नियम का अपवाद प्रस्तुत नियम है । उदा.--वआदि । छस्य चोनादौ ॥ २९५ ॥ मागध्यामनादौ वर्तमानस्य छस्य तालव्य-शकाराक्रान्तश्चो भवति । गश्च' गश्च । उश्चलदि पिश्चिले। पुश्वदि । लाक्षणिकस्यापि। आपन्न-वत्सल: आवन्नवश्चले । तिर्यक् प्रेक्षते तिरिच्छि पेच्छइ, तिरिश्चि पेस्क दि । अनादाविति किम् । 'छाले ... मागधी भाषा में, अनादि होने वाले छ का तालव्य शकार से युक्त च ( = श्च ) होता है। उदा.--गश्च । .."पुश्चदि । व्याकरण नियमानुसार आने वाले (छ) का भी ( श्च होता है । उदा०... ) आपन्नवत्सलः . . 'पेस्कदि । अनादि होने वाले (छ का ) ऐसा क्यों कहा है ? ( कारण छ आदि हो, तो श्च नहीं होता है । उदा०-- ) छाले। क्षस्य कः ॥ २९६ ॥ मागध्यामनादौ वर्तमानस्य क्षस्प को जिह्वामूलीयो भवति । “य के । ल-कशे । अनादावित्येव । खय-यलहला क्षय-जलधरा इत्यर्थः । १. क्रम से :--प्रज्ञाविशाल । सर्वज्ञ । अवज्ञा। २. क्रम से :--अञ्जलि । धनञ्जय । प्राञ्जलि | प्राञ्जल । ३. क्रम से :--गच्छ गच्छ । उच्छलति । पिच्छिल: । पृच्छति ॥ उच्छलति के लिए सूत्र ४.१७४ देखिए। ४. छाग । ५. क्रम से:--यक्ष । राक्षस । Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ चतुर्थः पादः मागधी भाषा में, अनादि होने वाले क्ष का क यानी जिह्वामूलीय क होता है। उदा०-य के, ल कशे । अनादि होने वाले (क्ष ) का ही ( क होता है; क्ष आदि होने पर, क नहीं होता है। उदा०-- ) खय-यलहला क्षम जलधराः, ऐसा अर्थ है। स्कः प्रेक्षाचक्षोः ॥ २९७ ॥ मागध्यां प्रेक्षेराचक्षेश्च क्षस्य सकाराक्रान्तः को भवति । जिह्वामूलीयापवादः । पेस्कदि । आचस्कदि।। ___मगधी भाषामें, प्रेक्ष् और आच स् इन धातुओं में से क्ष का सकार से युक्त क ( =स्क ) होता है । (क्ष का ) जिह्वामूलीय (क) होता है ( सूत्र ४.२९६ देखिए ) इस नियम का अपवाद प्रस्तुत नियम है । उदा०-पेस्कदि, आचस्कदि । तिष्ठश्चिष्ठः ।। १९८॥ मागध्या स्था-धातोर्यस्तिष्ठ इत्यादेशस्तस्य चिष्ठ इत्यादेशो भवति । चिष्ठदि। मागधी भाषा में, स्था (धातु) को जो तिष्ठ आदेश होता है, उस (तिष्ठ) को चिष्ठ. ऐसा आदेश होता है । उदा०-चिष्टदि । अवर्णाद् वा उसो डाहः ॥ २९९ ॥ मागध्यामवर्णात् परस्य ङसो डित् आह इत्यादेशो वा भवति । हगे 'न एलिशाह कम्माह काली। भगदत्त-शोणिदाह कुम्भे। पक्षे। भीमशेणस्स पश्चादो हिण्डी अदि । हिडिम्बाएं घडुक्कय-शोके ण उवशमदि । मागधी भाषा में (शब्द के अन्त्य) वर्ण के आगे आनेवाले ङस् ( प्रत्यय ) को डित् आह ऐसा आदेश विकल्प से होता है । उदा०-हगे..."कुम्भे । (विकल्प-)पक्षमें:भीमशेणस्स..... उपशमदि । आमो डाहँ वा ॥ ३०० ॥ मागध्यामवर्णात् परस्य आमोनुनासिकान्तो डित् आहादेशो वा भवति । "शयणाहँ सुहं । पक्षे। 'नलिन्दाणं । व्यत्ययात् प्राकृतेपि। ताहूँ। तुम्हाहैं। अम्हालै । "सरिआहे । कम्माहँ । १. अहं न ईदृशस्यकर्मणः मारी। २. भगदत्त-शोणितस्य कुम्भः । ३. भीमसेनस्य पश्चात् हिण्डयते । ४. हिडिम्बायाः घटोत्कच-शोकः न उपशाम्यति । ५. स्वजनानां सुखम् । ६. नरेन्द्राणाम् । ७. सरिताम् । ८. कर्मणाम् । Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरणे २४७ मगधो भाषा में, ( शब्द के अन्त्य ) ज वर्ण के आगे आने वाले आम् ( प्रत्यय ) को अनुनासिक से अन्त होनेवाला डित् आह (=आह) ऐसा आदेश विकल्प से होता है । उदा०-शयणाहं सुहं । (विकल्प--) पक्षमें:-नलिन्दाणं । व्यत्यय (सूत्र ४.४४७ देखिए) होने के कारण, प्राकृत में भी (आम् प्रत्यय को आह ऐसा आदेश दिखाई देता है । उदा.-) ताहूँ...."कम्माह। . अहंवयमोहगे ।। ३०१॥ __ मागघ्यामहं वयमोः स्थाने हगे इत्यादेशो भवति । हगे शिक्कावदालतिस्त-णि वाशी धीवले । हगे शंपत्ता। मगधो भाषा में, अहं और वयम् इन रूपों के स्थान पर हमें ऐसा आदेश होता है । उदा०-हगे"... संपत्ता।। शेषं शौरसेनीवत् ॥ ३०२॥ मागघ्यां यदुक्तं ततोन्यच्छौरसेनीवत् द्रष्टव्यम् । तत्र तो दोनादौ शौरमयुक्तस्य ( ४.२६०)। पविशदु आवुत्ते शामिपशादाय । अधः क्वचित् ( ४.२६१ )। अले कि एशेष महन्दे कलयले। वादेस्तावति । ४.२६२ )। मालेध' वा धलेध वा। अयं दाव शे आगमे। आ आमन्त्र्ये सौ वेनो नः ( ४.२६३ )। कञ्चुइआ । मो वा ( ४.२६४ ) । भो रायं/भवद् । भगवतोः (४.२६५)। "एद् भवं शमणे भयवं महावीले । भयवं कदन्ते ये अप्पणो पके उज्झिय पलस्स पकं पमाणीकलेशि । न वा र्यो य्यः ( ४.२६६ )। अय्य" एशे खु कुमाले मलयकेदू । थो धः ( ४.२६७ )। अले “कुम्भिला कधेहि । इह हचोर्हस्य ( ४.२६८)। ओशलध अय्या ओशलध । भुवो भः (४.२६६ )। भोदि । पूर्वस्य पुरवः ( ४.२० । अपुरवे । क्त्व इय दूणौ (४.२७१ )। किं खु शोभणे 'बम्हणे शित्ति कलिय लञा पलिग्गहे दिण्णे। कृगमो डड्डअः १. क्रमसे:-असं शक्रावतार-तीर्थ-निवासी धीवरः । वयं संप्राप्ताः । २. प्रविशतु आवुत्त स्वामि-प्रसादाय । ३. अरे किं एषः महान कलकलः । ४. भारयत या धरत वा । अयं तावन् अस्य आगमः । ५. ऐतु भवान् श्रमपः भगवान महावीरः। ६. भगवान कृतान्तः यः आत्मनः पक्षं उज्झित्वा परस्य पक्षं प्रमाणी करोपि । ७. आर्य एष. खलु कुमारः मलयकेतुः । ८. अरे कुम्भिल कयय । ९. अपसरत आर्याः अपसरत । १०. कि खलु शोभन: ब्राह्मपः असि इति कृत्वा राज्ञा परिग्रहः दत्तः । Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४८ चतुर्थः पादः ( ४.२७२ ) । कडुअ। गडुअ। दिरिचेचोः ( ४.२७३ । अमच्च'-ल-कशं पिक्खि, इदो य्येव आगश्चदि। अतो देश्च ( ४. ७४ ) । अले-कि राशे महन्दे कलयले शुणीअदे। भविप्पति स्सिः ( ४.. ७५ )। ता कहिं नु गदे लुहिलप्पिए भविस्सिदि । अतो उसे दोडादू ( ४.२७६ )। अहं पि "भागुलायणादो मुदं पावेमि। इदानीमो दाणिं ( ४.२७७ ) । शुणध दाणिं हगे शक्कावयाल-तिस्त-णिवाशी धीवले । तस्मात्ताः ( ४.५७८)। ता याव पविशामि । मोन्त्याण्णो वेदेतो:(४.७६) । युत्तं णिमं । शलिशं णिमं । एवार्थय्येव । [४२८.] मम य्येव ।हजे चेटयाह्वाने (४. ८१)। हजे' चदुलिके । हीमाणहे विस्मयनिवेंदे , ४.२८२ ) । विस्मये । यथा उदात्तराघवे । राक्षसः । हीमाणहे "जीवन्त-वश्चामे जणणी। निवेंदे । यथा विक्रान्लभीमे राक्षसः। हीमाणहे पलिस्सन्ताहगे एदेण नियविधिणो दुव्ववशिदेण । णं नन्वथें ( ४.२८३ )। णं अवशलोपशप्पणीया लायाणो। अम्महे हर्षे ( ४. ८४)। अम्महे एआए१३ शुम्मिलाए शुपलिगढिदे भवं । ही ही विदूषकस्य ( ४.२८५ ) । ही ही सम्पन्ना" मे मणोलधा पियवयस्सस्स । शेणं प्राकृतवत् ( ४.२८६ )। मागध्यामपि दीर्घ-ह्रस्वी मिथो वृत्तौ (१.४) इत्यारभ्य तो दोनादौ शौरसेन्यामयुक्तस्य ( ४.२६० ) इत्यस्मात् प्राग यानि सूत्राणि तेषु यान्युदाहरणानि सन्ति, तेषु मध्ये अमूनि तदवस्थान्येव मागघ्यायममूनि पुनरेवं विधानि भवन्तीति विभागः स्वयमभ्या दर्शनीयः । HTTA १. अमात्य-राक्षसं प्रेक्षितुं इतः एव आगच्छति । २. अरे कि एषः कलकलः श्रूयते । ३. तदा | तावत् कुत्र नु गतः रुधिरप्रियः भविष्यति । ४. अहं अपि भागुरायपात् मुद्रां प्राप्नोमि । ५. शृणत इदानी अहं शक्तावतार-तोर्थ-निवासी धीवरः । ६. तस्मात् यावत् प्रविशामि । ७. क्रम से :-युक्तं इदम् । सदृशं इदम् । ८. मम एव । ९. हल्ले चतुरिके । १०. ( हीमाणहे ) जीवद् वत्सा मे जननी। ११. (हीमाणहे ) परिश्रान्ताः वयं एतेन निजविधेः दुर्व्यवसितेन । १२. ननु अवसर-उपसर्पणीयाः राजानः । ५. अम्महे एतया सूमिलया सुपरिगृहीतः भवान् । १४. हो ही सम्पन्ना मे मनोरथा प्रियवयस्यस्य । Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरणे २४९ मागधी भाषा में, जो ( कार्य होता है ऐसा अब तक ) कहा है, उसके व्यतिरिक्त अन्य ( कार्य ) शौरसेनी भाषा के समान होता है ऐसा जाने । उदा.-'तो'... .... मयुक्तस्य' ( इस नियम के अनुसार :-) पविशदु.. .. 'पशादाय । 'अधः क्वचित्' ( नियमानुसार ):--अले कि... .. 'कलयले । वादेस्तावति' (नियम के अनुसार ) :--मालेध... . आगमे । 'आआमन्त्र्ये'.. ..." 'नः' (नियमानुसार ):भोकञ्चइआ। 'मो वा' ( सूत्र के अनुसार ) :-भो रायं । 'भवद् भगवतोः' ( सूत्र के अनुसार ):--एदु भवं." "माणकिलेशि । 'न वा रॉय्यः' (नियमानसार ):-अय्य एशे... ..'मलयकेदू । 'योधः' ( सूत्र के अनुसार ):---अले... ... कधेहि । 'इहहचोईस्य' ( नियम से ) :-~ोशलध - ""ओशलध। 'भुवो भः' ( सूत्रानुसार ) :-भोदि । 'पूर्वस्य पुरवः' ( नियम के अनुसार ) :-अपुरवे । 'क्त्व इयदूणो' ( नियमानुसार ):---कि खु... ..."दिण्णे । 'कृगमो डडुअः' (नियम के अनुसार ):--कड्डअ, गडुअ । 'दिरिचेचोः' ( सूत्रानुसार ):-अमच्च... .... आगश्चदि । 'अतो देश्च' ( नियमानुसार ) :--अले कि... "'शुणी अदे। 'भविष्यति स्सिः ( सूत्रानुसार ) :-ता कहि... ... भविस्सिदि । 'अतो.. ..."डादू' (नियमानुसार ) -अहं पि... ... 'पावेमि । 'इदानीयो दाणि' ( सूत्रानुसार ) :-शुणध ... .."धविले । 'तस्मात्ता:' ( नियमानुसार ) :-ता... .."पविशामि । 'भोन्त्योण्णो वेदेतोः' ( सूत्रानुसार ):--युत्तं .. णिमं । “एवार्थे य्येव' ( सूत्रानुसार ):मम य्येव । 'हले चेट्याह्वाने' (नियमानुसार ):-चलिके । 'हीमाणहे... ... निर्वेदे' ( सूत्र के अनुसार ):-विस्मय दिखाते समय, उदात्तराघव ( नाटक ) में राक्षस ( कहता है ):-हीमाण हे..."जणणी। निर्वेद ( दिखाते समय ), विक्रा. न्तमीम ( नाटक ) में राक्षस ( कहता है ):-हीमाणहे.' ."दुब्वशिदेण । 'णं नन्वर्थे' ( नियमानुसार ) :-णं अवश... 'लायाणो । 'अम्महे हर्षे' । सूत्रानुसार ) :- अम्महे ... ..'भव । 'हो ही विदूपकस्य' ( सूत्रानुसार ):-ही ही --. ..'वयस्सस्स । 'शेषं प्राकृतवत' ( सूत्रानुसार ), मागधी भाषा में भी, 'दीर्घ ... ."वृत्ती' इस सूत्र से आरम्भ करके 'तो'.. ''मयुक्तस्य' ( ४२६० ) सूत्र के पूर्व तक जो सूत्र ( और ) उन ( सूत्रों ) के जो उदाहरण दिए हैं, उनमें से अमुक सूत्र और उदाहरण जैसे के तैसे मागधी पर लागू पड़ते हैं, ( और ) अमुक सूत्र मात्र इस प्रकार से (मागधी भाषा पर)लागू पड़ते है, ऐसा स्वयं ही विचार करके दिखाए । झो नः पैशाच्याम् ।। ३०३ ।। पैशाच्यां भाषायां ज्ञस्य स्थाने जो भवति । पचा। सञ्जा। सव्वो । आनं । विज्ञानं । १. क्रम से :-प्रज्ञा । संशा । सर्वज्ञ । ज्ञान । विज्ञान । Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५० चतुर्थः पादः पैशाची भाषा में, ज्ञ ( इस संयुक्त व्यञ्जन ) के स्थान पर न होता है। उदा०-पञ्ञा.. ""विज्ञानं । राज्ञो वा चिळ ।। ३०४ ॥ पैशाच्यां राज्ञ इति शब्दे यो ज्ञकारस्तस्य चित्र आदेशो वा भवति । राचित्रा' लपितं, रा लपितं । राचित्रो धनं, रञो धनं । ज्ञ इत्येव । राजा। पैशाची भाषा में, राज्ञ शब्द में जो ज्ञकार है उसको चिञ् ऐसा आदेश विकल्प से होता है। उदा०-राचित्रा ''धनं । ( राजन् शब्द के रूपों में ) ज्ञ ( ऐसा संयुक्त व्यञ्जन होने पर ही ( ऐसा आदेश होता है; ज्ञ न होने पर, यह आदेश नहीं होता है। उदा.-) राजा। न्यण्योजः ॥ ३०५ ॥ पैशाच्यां न्यण्योः स्थाने ओ भवति । कञका। अभिमञ्च । पुत्रकम्मो । पुज्ञाहं । पैशाची भाषा में, न्य और प्य इनके स्थान पर न होता है। उदा०--कनका ... ..'पुजाहं । ___णो नः ।। ३०६ ॥ पैशाच्यां णकारस्य नो भवति । गुन-गन-युत्तो। गुनेन । पैशाची भाषा में, णकार का न होता है । उदा०-गुन... ..'गुनेन । तदोस्तः ॥ ३०७॥ पैशाच्या तकारदकारयोस्तो भवति । तस्य । भगवती । पव्यती। सतं । दस्य । मतन-परवसो। सतनं । तामोतरो । पतेसो । वतनकं । होत् । रमतु । तकारस्यापि तकारविधानमादेशान्तर-बाधनार्थम् । तेन पताका वेतिसो इत्याद्यपि सिद्धं भवति । १. क्रम से :--राज्ञा लपितम् । राज्ञः धनम् । २. क्रम से :-कन्यका । अभिमन्यु । पुण्यकर्मन् । पुण्याह । ३. क्रम से :-गुण-गण-युक्त । गुणेन । ४. क्रम से :--भगवती । पार्वती । शत । ५. क्रम से :-मदनपरवश । सदन । दामोदर । प्रदेश । वदन-क । भू । Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरणे पैशाची भाषा में, तकार और दकार इनका त होता है । उदा० -त त ) : - भगवतीसतं । होने वाले ) अन्य आदेशों का ऐसा विधान यहाँ किया है। द ( का त ) बाध करने के इसलिए पताका, होते हैं । :- मतन" लिए तकार का वेतिसो इत्यादि लो लः ।। ३०८ ॥ पैशाच्यां लकारस्य लकारो भवति । सीलं । कुलं । जलं । सलिलं । कमलं । का रमतु । ( तकार को भी तकार होता है, ( रूप ) भी सिद्ध पैशाची भाषा में, ककार का लकार होता है । उदा० शषोः सः ।। ३०९ ॥ पैशाच्यां शषोः सो भवति । श । सोभति । सोभनं । ससी । सक्को । सङ्घोष । विसमो । विसानो । 'न कगचजादिषट्शम्यन्तसूत्रोक्तम्' ( . ३२४ ) इत्यस्य बाधकस्य बाधनार्थोयं योगः । २५१ www. - सीलं . . कमलं । पेशाची भाषा में, श और ष इनका स होता है । उदा०श (कास) :सोभति मङ्खी । ष ( का स ) :- विसमो विसानो । 'न कगचजा.. सूत्रोक्तं इस बाधक सूत्र का बाध करने के लिए ( प्रस्तुत ) नियम कहा हुआ है। हृदये यस्य पः || ३१० ॥ पैशाच्या हृदयशब्दे यस्य पो भवति । हितपकं । किंपि किंपि हितपके अत्थं चिन्तयमानी । पैशाची भाषा में, हृदय शब्द में य का प होता है । उदा०-हितकं... चिन्तयमानी | टोस्तु ।। ३११ ॥ पैशाच्यां टोः स्थाने तुर्वा भवति । कुतुम्बकं 'कुटुम्बकं । १. क्रम से :- शील । कुल । जल । सलिल । कमल । V शुभ् । शोभन । शशिन् । शक्त । शङ्ख ।" २. क्रम से : ३. क्रम से :- विषम । विषाण । ४. क्रम से :- हृदय-क । कं अपि के अपि हृदय के अर्थं चिन्तयन्ती । ५. कुटुम्ब - क । 400 Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५२ चतुर्थः पादः पैशाची भाषा में, टु के स्थान पर तु विकल्प से आता है। उदा.-कुतुम्बकं, कुटुम्बकं । क्त्वस्तून:॥ ३१२ ।। पैशाच्यां क्त्वाप्रत्ययस्य स्थाने तून इत्यादेशो भवति । 'गन्तून । रन्तून । हसितून । पठितून । कधितून । पैशाची भाषा में, क्त्वा प्रत्यय के स्थान पर तून ऐसा आदेश होता है। उदा०—गन्तून.. 'कधितून । धून-त्थूनौ ष्ट्वः ।। ३१३ ।। पैशाच्यां ष्ट्वा इत्यस्य स्थाने धून त्थून इत्यादेशौ भवतः । पूर्वस्यापवादः । नद्धन' नत्थन । तद्धन तत्थून ।। पैशाची भाषा में, ष्ट्वा के स्थान पर धून और त्थून ऐसे आदेश होते हैं । पहले ( यानी सूत्र ४.३१२ में कहे हुए ) नियम का अपवाद प्रस्तुत नियम है। उदा०-नळून... ''तत्थून । र्यस्नष्टां रिय-सिन-सटाः क्वचित् ॥ ३१४ ॥ पैशाच्यां यस्तष्टां स्थाने यथासंख्यं रिय सिन सट इत्यादेशाः क्वचिद् भवन्ति । भार्या भारिया । स्नातम् सिनातं । कष्टं कसटं । क्वचिदिति किम् । सुज्जो। सूनुसा। तिट्रो।। पैशाची भाषा में, र्य, स्न, और ष्ट इन ( संयुक्त व्यञ्जनों ) के स्थान अनुक्रम से रिय, सिन मौर सट ऐसे आदेश क्वचित् होते हैं। उदा.-भार्या'.. ... ... .... कसटं। क्वचित् ऐसा क्यों कहा है ? ( कारण हमेशा ऐसे आदेश न होते, आगे कहे वर्णान्तर होते हैं । उदा०-) सुज्जो . निट्ठो । क्यस्येय्यः ॥ ३१५ ॥ पैशाच्या क्य-प्रत्ययस्य इय्य इत्यादेशो भवति । गिय्यते । दिय्यते। रमिय्यते । पठिय्यते। पैशाची भाषा में, क्य ( प्रत्यय ) को इय्य ऐसा आदेश होता है। उदा --- गिम्यते... .' पठिय्यते । १. क्रम से :--/गम् । / रम् । । हस् । पठ् । /कथ् । '. क्रम से :-भष्ट्वा ( / नश् ) । तष्ट्वा ( /तक्ष् ) | दृष्ट्वा ( V दृश् ) ३. क्रम से :-सूर्य । स्नुषा । दृष्ट । ४. क्रम से :-/गे। /दा । रभ् । पिठ् । Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरणे कगो डीरः ।। ३१६ ॥ पैशाच्यां कृगः परस्य क्यस्य स्थाने डीर इत्यादेशो भवति । 'पुधुंमतं सने सव्वरस य्येव समानं कीरते | पैशाची भाषा में, कृ ( धातु ) के आगे आने वाले क्य ( प्रत्यय ) के स्थान पर डरि ( डित् ईर ) ऐसा आदेश होता है । उदा०- -पुघु कीरते | = यादृशादेद् स्ति: ।। ३१७॥ पैशाच्यां यादृश इत्येवमादीनां दृ इत्यस्व स्थाने तिः इत्यादेशो भवति । 'यातिसो | तातिसो | केतिसो । एतिसो । भवातिसो । अञ्ञातिसो । युम्हातिसो | अम्हातिसो | पैशाची भाषा में, यादृश इत्यादि प्रकार के शब्दों में से ह (अक्षर) के स्थान पर, ति ऐसा आदेश होता है । उदा० - पातिसो.....अम्हातिसो | इचेचः ।। ३१८ ।। ₹ पैशाच्या मिचेचोः स्थाने तिरादेशो भवति । वसु आति । भोति । नेति । 1 तेति । पैशाची भाषा में, इच् और एच् इन ( प्रत्ययों) के स्थान पर ति ऐसा प्रादेश होता है । उदा - वसुआति तेति । २५३ 6 आत्तेश्च ।। ३१९ ॥ पैशाच्यामकारात् परयोः इचेचोः स्थाने तेश्र्वकारात् तिश्चादेशो भवति । लपते लपति | अच्छते अच्छति । गच्छते गच्छति । रमते रमति । अदिति किम् | होमि । नेति । पैशाची भाषा में ( धातु के अन्त्य ) अकार के आगे आने वाले इच् और एच् इनके स्थान पर ते, और ( सूत्र में से ) चकार के कारण ति, ऐसे आदेश होते हैं । उदा० - लपने रमति । अकार के आगे आने वाले ( इन्च् और एच् इनके स्थान पर) ऐसा क्यों कहा है ? ( कारण अन्य स्वरों के आगे ये आदेश नहीं होते हैं । उदा -} होति नेति । १. प्रथमदर्शने सर्वस्य एव सम्मानः क्रियते । २. क्रम से: : - यादृश । तादृश । कीदृश । ईदृश । भवादृश | अन्यादृश । युष्मादृश | अस्मादृश । ३. क्रम से: --- / वसुआ (उदा० - सूत्र ४९११ देखिए ) । मू । Vनी | Vदा | अच्छ (आस्-सून ४२१५ देखिए ) | √ गम-गच्छ । रम् । ४. क्रम सेः---'' 'लप् । ५. क्रम से : -- V हो - मू । नी । Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ चतुर्थः पादः भविष्यत्येय्य एव ॥ ३२० ॥ पैशाच्यां मिचेचोः स्थाने भविष्यति राय्य एव भवति, न तु स्सिः । तं 'तधून चिन्तितं रा का एसा हुवेय्य। पैशाची भाषा में, इच् और एच् इन ( प्रत्ययों ) के स्थान पर, भविष्यकाल में ऐय्य ऐसा ही आदेश होता है, परंतु स्सि ऐसा आदेश मात्र नहीं होता है। उदा०तं तळून...'हुवेय्य । अतो उसेर्डातोडातू ॥ ३२१ ॥ पैशाच्यामकारात् परस्य डसेडितौ आतो आतु इत्यादेशौ भवतः । ताव' च तीए तुरातो य्येव तिट्ठो। ( अ ) तुमातो तुमातु। ममातो ममातु। पैशाची भाषा में (शब्द के अन्त्य ) अकार के आगे आने वाले सि ( प्रत्यय ) को डित् आतो और डित् आतु एसे आदेश होते हैं । उदा.- ताव च...." ममातु । तदिदमोष्टा नेन स्त्रियां तु नाए ॥ ३२२ ॥ पैशाच्यां तदिदमोः स्थाने टाप्रत्ययेन सह नेन इत्यादेशो भवति । स्त्रीलिङ्ग तु नाए इत्यादेशो भवति । तत्थ च नेन कत-सिनानेन । स्त्रियाम् । “पूजितो च नाए पातम्गकुसुमपतानेन । टेति किम् । एवं 'चिन्तयन्तो गतो सो तारा समीपं । पैशाची भाषा में, तद् और इदम् इन ( सर्वनामों ) के स्थान पर टा प्रत्यय के सह नेन ऐसा आदेश होता है; परंतु स्त्रीलिंग में मात्र नाए ऐसा आदेश होता है। उदा०-तत्य च......सिनानेन । स्त्रीलिंग में:--पूजितो... — पतानेन । टा (प्रत्यय) के सह ऐसा क्यों कहा है ? ( कारण टा प्रत्यय मागे न होने पर, प्रस्तुत नियम मही लगता है । उदा०-) एवं... 'समीपं । १. तां दृष्ट्वा चिन्तितं राज्ञा का एषा भविष्यति । २. क्रम से :-तावत् च तया दूराद् एव दृष्टः दूरात् । २. ( अ ) युष्मद् के तुम आदेश के लिए सूत्र ३.९६ और अस्मद् के मम आदेश के लिए सूत्र ३.१११ देखिए। ३. तत्र च तेन | अनेन कृत-स्नानेन । ४. पूजितःची तया/ अनया प्रत्यग्र-कुसुम-प्रदानेन । ५. एवं चिन्तयन् गतः सः तस्याः समीपम् । Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरणे शेषं शौरसेनीवत् ॥ ३२३ ॥ पैशाच्या यदुक्तं ततोन्यच्छेषं पैशाच्यां शौरसेनीवद् भवति । अध स-सरीरो भगवं मकरधजो एत्थ परिब्भमन्तो हुवेथ्य | एवं विधाए भगवतीए कथं तापस वेसगहनं कतं । एतिसं अतिट्ठ पुरवं महाधनं तद्धून | भगवं यति मं वरं पयच्छसि राजं च दाव लोक । तावच तीए तूरातोय्येव तिट्ठो सो आगच्छमानो राजा । भाषा के बारे में ( अबतक ) जो कहा हुआ है, उसके अतिरिक्त शेष अन्य कार्य पैशाची भाषा में शौरसेनी भाषा के समान होता है । उदा - अध ससरोरो.. राजा । न कगचजादि - षट्ाम्यन्त-सूत्रोक्तम् ॥ ३२४ ॥ पैशाच्यां कगचजतदपयवां प्रायो लुक् (१.१७७ ) इत्यारभ्य षट् - शमीशाव-सुधा-सप्तपर्णेष्वादेश्छ: ( १.२६५ ) इति यावद् यानि सूत्राणि तैर्यदुक्तं कार्यं, तन्न भवति । मकरकेतू । 'सगरपुत्तवचनं । विजयसेनेन लपितं । मतनं । पापं । आयुधं । तेवरों । एवमन्यसूत्राणामप्युदाहरणानि द्रष्टव्यानि । 'कगचज' ''लुक्' इस सूत्र से आरंभ करके 'षट् जो सूत्र कहे गए हैं, (और) उन मूत्रों में में नहीं होता है । उदा० - मकरवे तू बारे में उदाहरण ले | २५५ ब्वादेश्छ: ' इस सूत्र तक जो कार्य कहा है, वह कार्य पैशाची भाषा तेवरो। इसी प्रकार हो, अन्य सूत्रों के चूलिका पैशाचिके तृतीयतुर्ययोराद्यद्वितीयौ || ३२५ ।। चूलिका पैशाचिके वर्गाणां तृतीयतुर्ययोः स्थाने यथासंख्यमाद्यद्वितीयौ भवतः । नगरम् नकरम् । मार्गणः मक्कनो । गिरितटम् किरितटं । मेघः मेखो । व्याघ्रः वक्खो । धर्मः खम्मो । राजा । राचा । जर्जरम् चच्चरं । जीमूतः चीमूतो । निर्झरः निच्छरो । झर्झरः छच्छरो । तडागम् तटाकम् । मण्डलम् मण्टलं । डमरुकः टमरुको । गाढं काढं । षण्ढः सण्ठो । ढक्का ठक्का । मदमः मतनो । कन्दर्पः कन्तप्पो । दामोदरः तामोतरो । मधुरम् मथुरं । बान्धवः १. क्रम से :- अथ सशरीरः भगवान् मकरध्वजः अत्र परिभ्रमन् भविष्यति । एवं विधया भगवत्या कथं तापसवेषग्रहणं कृतम् । ईदृशं अदृष्टपूर्वं महाधनं दृष्ट्वा । भगवन् यदि मां ( मह्यम् ) वरं प्रयच्छसि राजानं च तावत् लोकय । तावत् च तया दूरात् एव दृष्टः सः आगच्छन् राजा । २. सगरपुत्रवचन । ३. मदन । ४. देवर | Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ चतुर्थः पादः पन्थवो । धूली थूली । बालकः पालको । रभसः रफसो । रम्भा रम्फा । भगवती फक्वती । नियोजितम् नियोचितं क्वचिल्लाक्षणिकस्यापि । पडिमा इत्यस्य स्थाने पटिमा । दाढा इत्यस्य स्थाने ताठा । चूलिका पैशाचिक भाषा में ( व्यञ्जन के ) वर्गं में से तृतीय और चतुर्थं व्यजनों के स्थान पर ( उसी हो वर्ग में से ) आद्य और द्वितीय व्यञ्जन अनुक्रम से आते हैं । उदा० नगरम् - "नियोचितं । क्वचित् व्याकरण के नियमानुसार ( वर्णान्तरित शब्दों में ) आये हुए ( तृतीय और चतुर्थ ) व्यञ्जनों के बारे में भी ( ऐसा ही प्रकार होता है । उदा० ) ( प्रतिमा शब्द से बने हुए ) पडिमा शब्द के स्थान पर पटिमा ( और दंष्ट्र | शब्द से बने हुए ) दाढा शब्द के स्थान पर ताढा ( एसे रूप होते हैं ) । रस्य लो वा ॥ ३२६ ॥ चूलिकापैशाचिके रस्य स्थाने लो वा भवति । पनमथ' पनय - प्रकुपित-गोली चलनग्ग- लग्ग - पतिबिम्बं । तससु नख-तप्पनेसं एकातस-तनु-थलं लुद्दं ॥ १ ॥ नच्चन्त स य लीला - पातुक्खेदेन कम्पिता वसुथा । उच्छलन्ति समुद्दा सइला निपतन्ति तं हलं नमथ ॥ I चूलिका पैशाचिक भाषा में, र् के स्थान पर लू विकल्प से आता है । उदा०पनमथ लुछं नच्चन्तस्स नमथ । नादियुज्योरन्येषाम् || ३२७ ॥ चूलिका पैशाचिकेपि अन्येषामाचार्याणां मतेन तृतीयतुर्यय) रादौ वर्तमानयोर्युजि-धातौ च आद्यद्वितीयौ न भवतः । गतिः गती । धर्मः घम्मो | जीमूतः । जीमूतो । झर्झरः झच्छरो । डमरुकः । डमरुको । ढक्का ढक्का । दामोदरः दामोरो । बालकः बालको । भगवती भकवती । नियोजितम् नियोजितं । चूलिका पैशाचिक भाषा में भी, अन्य आचार्यों के मतानुसार, आदि होने वाले, ( व्यञ्जनों के वर्ग में से ) तृतीय और चनुर्थ व्यञ्जनों के स्थान पर, तथैव यज् धातु में, । उसी हो वर्ग में से ) आद्य और द्वितीय व्यञ्जन नहीं आते हैं । उदा० -- गतिः' नियोजितं । रुद्रम् ॥ १ ॥ १. प्रणमत प्रणय - प्रकुपित-गौरी- वरणाग्र लग्न- प्रतिविम्बनम् । दशसु नव-दर्पणेषु एकादश-तनु[धरं २. नृत्यतः च लोला- पादोत्क्षेपेण कम्पिता उच्छलन्ति समुद्राः शैलाः निपतन्ति तं हरं वसुधा । नमत ॥ २ ॥ Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरण २५७ शेष प्राग्वत् ॥ ३२८ ।। चूलिका पैशाचिके तृतीयतुर्ययोरित्यादि यदुक्तं ततोन्यच्छेष प्राक्तनपैशाचिकवत् भवति । 'नकरं। मक्कनो। अनयो नौ णत्वं न भवति । णस्य च नत्वं स्यात् । एवमन्यदपि । चूलिका पैशाचिक भाषा में, 'चूलिका... "तुर्मयोः' ( सूत्र ४.३२५ ) इत्यादि जो ( कार्य ) कहा है, उसके अतिरिक्ति शेष अन्य कार्य पहले कहे हुए (सूत्र ४.३०३३२४ ) पैशाचिक ( पैशाची ) भाषा के समान होता है । उदा०-नकरं, मक्कनो इन दोनों में न का ण नहीं होता है। तथैव ण का न मात्र होगा । इसी प्रकार अन्य भाग भी (जान लें)। स्वराणां स्वराः प्रायोपभ्रंशे ॥ ३२९ ।। अपभ्रंशे स्वराणां स्थाने प्रायः स्वरा भवन्ति । कच्चु काच्च । वेण वीण। बाह बाहा बाहु । पटिठ पिटिठ पुटिठ । तणु तिणु तृणु । सुकिदु सुकिओ सुकृदु। किन्नओ किलिन्नओ। लिह लीह लेह । गउरि गोरि । प्रायोग्रहणाद्यस्यापभ्रंशे विशेषो वक्ष्यते तस्यापि क्वचित् प्राकृतवन् शौरसेनीवच्च कार्य भवति । ___ अपभ्रंश भाषा में स्वरों के स्थान पर प्रायः (अन्य ) स्वर आते हैं। उदा० - कच्चु..... 'गोरि । (सुत्र में से) प्रायः शब्द के निर्देश से ऐसा दिखाया जाता है कि) जिन ( शब्द इत्यादि ) का ( कुछ ) विशेष अपभ्रंश भाषा में कहा हुआ है, उनका भी क्वचित् ( माहाराष्ट्री ) प्राकृत के समान तथा शौरसेनी ( भाषा ) के समान कार्य होता है। स्यादौ दीर्घहस्वौ ।। ३३० ॥ अपभ्रंशे नाम्नोत्यस्वरस्य दीर्घह्रस्वौ स्वादौ प्रायो भवतः । सौ। ढोल्ला' सामला धण चम्पावण्णी। नाइ सुवण्णरेह कसवट्टइ दिण्णी ॥१॥ १. क्रमसे:-नगर । मार्गण। २. क्रमसे -कछिसत् । वीणा । वेणी । बाहु । पृष्ठ । तृण । सुकृत । क्लिन्न । रेखा। गोरी। ३. विट: श्यामलः धन्या चम्पकवर्णा । इव सुवर्णरेखा कषपट्टके दत्ता ॥ १ ॥ १७ प्रा० व्या० Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ चतुर्थः पादः आमन्त्रये । ढोल्ला' मइँ तु वारिया मा कुरु दीहा माणु । निद्दए गमिही रत्तडी दडवड होइ विहाणु ॥ २ ॥ स्त्रियाम् । मा करु वङ्की दिट्ठि । बिट्टीए मइ भणिय तु पुत्ति सकण्णी भल्लि जिवें मारइ हिअइ पइट्ठि ॥ ॥ जसि । एइति घोडा एह थलि राइ निनिसिआ खग्ग । एत्थ मुणीसिम जाणि अइ जोन वालइ वग्ग ॥ ४ ॥ एवं विभक्त्यन्तरेष्वप्युदाहार्यम् । अपभ्रंश भाषा में, विभक्ति प्रत्यय आगे होने पर, संज्ञा के अन्त्य स्वर का दीर्घ और ह्रस्व स्वर प्रायः होता है । उदा०-पि ( प्रत्यय ) आगे होने पर :- ढोल्ला.. दिण्णी ॥ १ ॥ संबोधन में:- ढोल्ला मइँ विहाणु ॥ २ ॥ स्त्रीलिंग में :- बिट्टीए " पट्टि || ३ || जस (प्रत्यय) आगे होने पर : - एइति विभक्तियों के बारे में भी उदाहरण लेना है । वग्ग ||४|| इसी प्रकार अन्य स्यमोरस्योत् ।। ३३१ ॥ अपभ्रंशे अकारस्य स्यमोः परयोः उकारो भवति । दहमुहु भुवणभयंकरु तोसिअसंकरु णिग्गउ रहवरि चडिअउ । चहु छंमुह झावि एक्कहि लाइव णावइ दइवें घडिअउ ॥ १ ॥ अपभ्रंश भाषा में, सि और अम् ( प्रत्यय ) आगे होने पर, ( शब्द में से अन्त्य ) अकार का उकार होता है । उदा०-- - दहमुहु • वडिअउ ॥ १॥ सौ पुंस्योद्वा ॥ ३३२ ॥ अपभ्रंशे पुल्लिङ्गे वर्तमानस्य नाम्नोकारस्य सौ परे ओकारो वा भवति । १. विट मया त्वं वारितः मा कुरु दीर्घ मानम् । निद्रया गमिष्यति रात्रिः शीघ्रं ( दडवड ) भवति विभातम् ॥ २ ॥ २. पुत्रि (बिट्टीए) मया भणिता त्वं मा कुरु वक्र दृष्टिम् । पुत्रि सकर्णा भल्लिग्रंथा मारयति हृदये प्रविष्टा ॥ ३ ॥ ३. एते ते अश्वाः (घोडा) एषा स्थली एते ते निशिताः खड्गाः । अत्र मनुष्यत्वं (पौरुषं) ज्ञायते यः नापि वालयति वल्गाम् ॥ ४॥ ४. दशमुख : भुवनभयंकरः तोषितशंकरः निर्गतः रथवरे ( रथोपरि ) आरूढः । चतुर्मुखं षण्मुखं ध्यात्वा एकस्मिन् लगित्वा इव दैवेन घटितः ॥ १ ॥ Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरण अगलिअ ' - नेह - निवट्टाहं जोअण- लक्खु विजाउ । वरिस-सएण विजो मिलइ सहि सोक्खहँ सो ठाउ ॥ १ ॥ पंसीति किम् । समत्तु ॥ २ ॥ अङ्ग अङ्गु न मिलिउ हलि अहरे" अहरु न पत्त 1 पिअ जोअन्तिहे मुहकमलु एम्बइ सुरउ अपभ्रंश भाषा में, पुलिङ्ग में होने वाले संज्ञा के ( अन्त्य) अकार का, सि (प्रत्यय) आगे होने पर, विकल्प से ओकार होता है । उदा०- - अग लिअ ......ठाउ ॥ १ ॥ पुंलिङ्ग में होने वाले (संज्ञा ) के ऐसा क्यों कहा है ? ( कारण संज्ञा पुलिङ्गी न होने पर, कार का विकल्प से ओकार नहीं होता है । उदा० ) अङ्गहिं एट्टि | ३३३ ॥ 1 --- समत्तु ॥२॥ अपभ्रंशे अकारस्य टायामेकारो भवति । जे महु दिणा दिअहडा दइएँ पवसंतेण । ताण गणन्तिएँ अंगुलिउ जज्जरि आउ नहेण ॥ अपभ्रंश भाषा में, टा ( प्रत्यय ) आगे होने पर एकार होता है । उदा० - -जे महुTT 'नहेण ॥ १ ॥ डिनेच्च ॥ ३३४ ॥ अपभ्रंशे अकारस्य ङिना सह इकार एकारश्च भवतः । सायरु उप्पर तणु धरइ तल्लइ रयणाई | सामि सुभिच्चु वि परिहरइ संमाणेड़ खलाई ॥ १ ॥ तले" घल्लइ | तान् गणयन्त्याः ( मम ४. सागरः उपरि तृगानि सुभृत्यमपि स्वामी ५. तले क्षिपति । १ ॥ शब्द में से अन्त्य ) अकार का अपभ्रंश भाषा में, ( शब्द में से अन्त्य) अकार के ( आगे आने वाले) ङि (प्रत्यय) के सह इकार और एकार होते हैं । उदा० - सायरुखलाई ॥ १ ॥ तले धल्लइ योजनलक्षमपि १. अगलित-स्नेह-निर्वृत्तानां जायताम् । वर्षशतेनापि यः मिलति सखि सौख्यानां स स्थानम् ॥ १ ॥ २. अङ्ग अङ्गं न मिलितं सखि (हलि) अधरेण अधरः न प्राप्तः । प्रियस्य पश्यन्त्याः मुखकमलं एवं सुरतं समाप्तम् ॥ २ ॥ ३. ये मम दत्ता: दिवसाः दयितेन प्रवसता । २५९ अङ्गुल्यः जर्जरिताः नखेन ॥ १. धरति तले क्षिपति घल्लइ ) रत्नानि । परिहरति संमानयति खलान् ॥ १ ॥ Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० चतुर्थः पादः भिस्येद्वा ॥ ३३५॥ अपभ्रंशे अकारस्य भिसि परे एकारो वा भवति । गुणहि 'न संपइ कित्ति पर फल लिहिआ भुञ्जन्ति । केसरि न लहइ बोड्डिअ विगय लक्खे हिं घेप्पन्ति ॥ १॥ अपभ्रंश भाषा में, मिस् ( प्रत्यय ) आगे होने पर, ( शब्द में से अन्त्य ) अकार का एकार विकल्प से होता है। उदा--गुणहि... .. 'घेप्पन्ति ! १ ॥ ङसेहेंहू ॥ ३३६ ॥ अस्येति पञ्चम्यन्तं विपरिणम्यते । अपभ्रंशे अकारात् परस्य ङसेहूँ हु इत्यादेशौ भवतः। वच्छहे गृण्हइ फलई जणु कडपल्लव वज्जेई । तो वि महद्म सूअण जिव ते उच्छंगि धरेइ ॥१॥ वच्छह गृण्हइ। ( सूत्र ४.३३१ में से ) अस्य ( -- अकारस्य ) यह ( षष्ठयन्त पद अब इस प्रस्तुत सूत्र के बारे में ) पञ्चम्यन्त ( यानी अकारात ) ऐसा बदल करके लिया गया है । अपभ्रंश भाषा में, ( शब्द में से अन्त्य ) अकार के आगे आने वाले सि (प्रत्यय) को हे और ह ऐसे आदेश होते हैं। उदा.-वच्छहे... .."धरेइ ॥ ९॥; वच्छहु गृण्हइ। भ्यसो हुँ ॥ ३३७ !! अपभ्रंशे अकारात् परस्य भ्यसः पञ्चमीबहवचनस्य हु इत्यादेशो भवति। दूरुड्डाणे पडिउ खलु अप्पणु जण मारेड ।। जिह गिरि सिं गहुं पडिअ सिल अन्नु वि चरुकरे इ॥ १॥ १. गुणः न संपत् कीतिः परं (जनाः) फलानि लिखितानि मुञ्जन्ति । केसरी न लभते कपर्दिकामपि ( बोड्डिअ ) गजाः लक्षः गृह्यन्ते ॥१॥ २. वृक्षात् गृह्णाति फलानि जनः कटु पल्लवान् वर्जयति । ततः अपि महाद्रुमः सुजनः यथा तान् उत्सङ्गे धरति । ३. वृक्षात् गृह्णाति । ४. दूरोड्डाणेन पतितः खलः आत्मानं जनं ( च ) मारयति । यथा गिरिशृङ्गेभ्यः पतिता शिला अन्यदपि चूर्णीकरोति ॥ Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरणे २६१ अपभ्रंश भाषा में, ( शब्द में से अन्त्य ) अकार के आगे आने वाले भ्यस् (प्रत्यय) को यानी पञ्चमी बह ( = अनेक ) बचनो प्रत्यय को हुँ ऐसा आदेश होता है । उदा०-~-दूरुड्डाणे." " चूरुकरेइ ॥ १ ॥ ङसः सु-हो-स्सवः ॥३३८ ॥ अपभ्रंशे अकारात् परस्य ङसः स्थाने सु हो स्सु इति त्रय आदेशा भवन्ति । जो गुण गोवइ 'अप्पणा पयडा करइ पर स्सु ।। तसु हउँ कलिजुगि दुल्लहहो बलि किज्ज उं सुअणस्सु ॥ १ ॥ अपभ्रंश भाषा में, ( शब्द में से . अन्त्य : अकार के आगे आने वाले उस् (प्रत्यय ) के स्थान पर सु, हो, और स्सु ऐसे तीन आदेश होते हैं । उदा० -- जो गुण" सुअणस्सु ॥ १ ॥ आमो हं ।। ३३९ ॥ अपभ्रंशे अकारात् परस्यामो हमित्यादेशो भवति । तणहँ तइज्जी भङ्गि न वि ते अवड-यडि वसन्ति । अह जणु लग्गिवि उत्तरइ अह सह सई मज्जन्ति ॥ १॥ अपभ्रंश भाषा में, ( शब्द में से अन्त्य ) अकार के आगे आने वाले आम् ( प्रत्यय ) को हं ऐसा आदेश होता है। उदा०-तणह... - मज्जन्ति । १॥ हुं चेदुद्भ्याम् ॥ ३४० ॥ अपभ्रंशे इकारोकाराभ्यां परस्यामो हु हं चादेशौ भवतः । दइबू घडावइ वणि तरुह सउणिहँ पक्क फलाई। तो बरि सुक्ख पइट्ठण वि कण्णहिं खल वयणाई॥१॥ प्रायोधिकारात् क्वचित् सुपोपि ह। 'धवलु विसूरइ सामि अहो गरुआ भरु पिक्खेवि। हउँ कि न जुत्तउ दुहँ दिसिहि खण्डइँ दोण्णि करेवि ॥ २ ॥ १. यः गुणान् गोपयति आत्मीयान् प्रकटान् करोति परस्य । तस्य अहं कलियुगे दुर्लभस्य बलिं करोमि सुजनस्य ॥ २. तृणानां तृतीया भङ्गी नापि ( - नैव ) तानि अवटतटे वसन्ति । अथ जनः लगित्वा उत्तरति अथ सहस्वयं मज्जन्ति । ३. देवः घ'यति वने तरूणां शकुनीनां ( कृते ) पक्वफलानि । तद् वरं सौख्यं प्रविष्टानि नापि कर्णयोः खल वचनानि ॥ ४. धवल: खिद्यति ( घिसूरइ ) स्वामिनं गुरु' भारं प्रेक्ष्य । अहं कि न युक्तः द्वयोर्दिशो खण्डे वे कृत्वा ॥ Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ चतुर्थः पादः ___ अपभ्रंश भाषा में, ( शब्द में से अन्त्य ) कार और उकार इनके आगे आने वाले आम् ( प्रत्यय ) को हुँ और हं ऐसे आदेश होते हैं। उदा-दइबु... ... ... खलवयणाई॥ १ ॥ प्रायः ( शब्द ) का अधिकार होने से, क्वचित् सुप् ( प्रत्यय ) को भी हूँ ( ऐसा आदेश होता है । उदा०-- ) धवल'.. .. 'करेवि ॥ २ ॥ ङसि-भ्यस-ङीनां हेहुंहयः ॥ ३४१॥ अपभ्रंशे इदुद्भयां परेषां ङसि भ्यस् ङि इत्येतेषां यथासंख्यं हे हुं हि इत्येते त्रय आदेशा भवन्ति । डसे हैं। गिरिहें सिलायलु' तरुहे फलु धेप्पइ नीसावन्नु ।। घरु मेल्लेप्पिणु माणुसहं तो वि न रुच्चइ रन्नु ॥ १॥ भ्यसो हुँ । तरुहुँ वि वक्कलु फलु मुणि वि परिहणु असणु लहन्ति । सामिहुँ एत्ति उ अग्गलउं आयरु भिच्चु गृहन्ति ॥२॥ हि। अह विरलपहार जि कलिहि धम्मु ॥ ३॥ अपभ्रंश भाषा में ( शब्द में से भन्त्य ) इ और उ इनके आगे आने वाले सि, म्यस् और डि इन ( प्रत्ययों ) का अनुक्रम से हे, हुँ, हि ऐसे ये तीन आदेश होते हैं । उदा.-ङसि ( प्रत्यय ) को हे ( ऐसा आदेशः- ) गिरिहे..."रन्नु ॥ १ ॥ म्यस् (प्रत्यय) को हु ( ऐसा आदेशः-) तरुहुँ।..गृहन्ति ॥२. ङि ( प्रत्यय ) को हि (ऐसा आदेश):-अह विरल.... 'धम्मु ॥३॥ आट्टो णानुस्वारौ ॥ ३४२ ॥ अपभ्रंशे अकारात् परस्य टा-वचनस्य णानुस्वारावादेशौ भवतः । दइएं पवसन्तेग ( ४.३३३.१) । अपभ्रंश भाषा में : शब्द के अन्त्य ) अकार के आगे आने वाले टा-वचन को ण और अनुस्वार ऐसे आदेश होते हैं । उदा०-दइएं पवसन्तेण । एं चेदुतः ।। ३४३ ॥ अपभ्रंशे इकारोकाराभ्यां परस्य टा-वचनस्य ए चकारात् णानुस्वारी च भवन्ति । एं। १. गिरे : शिलातलं तरो: फलं गृह्यते नि सामान्यम् । गृहं मुक्त्वा मनुष्याणां तथापि न रोचते अरण्यम् ॥ २. तरुभ्यः अपि वल्कलं फलं मुनयः अपि परिधानं अशनं लभन्ते । स्वामिभ्यः इयत् अधिकं ( अग्गल ) आदरं भृत्या गृह्णन्ति ॥ ३. अथ विरल प्रभावः एव कलो धर्मः। Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरणे 'अग्गिएँ उन्हउ होइ जगु वाएँ सीअलु तेवँ । अरिंग सोअला तसु उत्तणु के जो पुणु स्वारौ। ॥ १ ॥ विष्पि - आरज जइ वि पिड तो वि तं आणहि अज्जु । अग्गिण दङ्ढाजइ विघरु तो तें अगिंग कज्जु ॥ २ ॥ एवमुकारादाप्युदाहार्याः । अपभ्रंश भाषा में (शब्द के अन्त्य) इकार और उकार इनके आगे आने वाले टावचन को एं और ( सूत्र में से ) चकार के कारण ण और अनुस्वार ( ऐसे ये आदेश ) होते हैं । उदा० -एं (आदेश) - अग्गिएँ वे वं ॥ १ ॥ ण और अनुस्वार (आदेश) :विष्पिअ आरउ कज्जु २ | इसी प्रकार उकार के आगे ( आने वाले टा-बचन को होने वाले आदेशों के) उदाहरण ले । 1. स्यम् - जस्-शसां लुक् ॥ ३४४ ॥ अपभ्रंशेसि अम् जस शस् इत्येतेषां लोपो भवति । एइ ति घोडा एह थलि ( ४.३३०.४ ) इत्यादि । अत्र स्यम्जसां लोपः । जिवँ जिवँ वंकिम 'लोअणहं णिरु सामलि सिक्खेइ । तिवँ तिवँ वम्महु निअय- सर खर- पत्थरि तिक्खेइ ॥ १ ॥ अत्र स्यम् शसां लोपः ॥ I अपभ्रंश भाषा में, सि, अम्, जस् और शस् इन ( प्रत्ययों ) का लोप होता उदा०- ए इ तिथलि, इत्यादि; यहाँ सि, अम् और जस् इन ( प्रत्ययों ) का लोप हुआ है । ( तथा ) जिवँ जिवँ तिक्खेइ ॥ १ ॥ ; यहाँ सि, अम् और शस् इन ( प्रत्ययों ) का लोप हुआ है । षष्ठ्याः || ३४५ ।। अपभ्रंशे षष्ट्या विभक्त्याः प्रायो लुग् भवति । संगर'- सराहिँ जु वणिज्जइ देक्खु अम्हारा कन्तु । अइमत्तहं चत्तं कुसहं गय कुम्भई दारन्तु ॥ १ ॥ पृथग्योगो लक्ष्यानुसारार्थः । २६३ १. अग्निना उष्णं भवति जगत् वातेन शीतलं तथा । यः पुनः अग्निना शीतलः तस्य उष्ण त्वं कथम् ॥ २. विप्रियकारकः यद्यपि प्रियः तदापि तं आनय अद्य । अग्निना दग्धं यद्यपि गृहं तदापि तेन अग्निना कार्यम् ॥ ३. यथा यथा वक्रिमाणं लोचनयोः नितरां श्यामला शिक्षते । तथा तथा मन्मथः निजक-शरान् खर- प्रस्तरे तीक्ष्णयति ॥ ४. सङ्गरतेयु यो वयं पश्य अस्माकं कान्तम् । अतिमत्तानां त्यक्ताङ्कुशानां गजानां कुम्भानु दारयन्तम् ॥ Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः पादः ____ अपभ्रंश भाषा में, षष्ठी विभक्ति ( प्रत्ययों ) का प्रायः लोप होता है । उदा.--- संगर-स एहिं... . 'दारन्तु ॥ १॥ उदाहरणों के अनुसार ( ऐसा लोप होता है ) यह दिखाने के लिए, ( सूत्र ४.३४४ से ) पृथक ऐसा ( सूत्र ४.३४५ में प्रस्तुत ) नियम कहा गया है। आमन्त्र्ये जसो होः ॥ ३४६॥ अपभ्रंशे आमन्त्र्येर्थे वर्तमानानाम्नः परस्य जसो हो इत्यादेशो भवति । लोपापवादः । तरुणहो 'तरुणिहो मुणि उ मइँ करहु म अप्पहों घाउ ॥ १॥ अपभ्रंश भाषा में, सम्धोधनार्थी होने वाली संज्ञा के आगे आने वाले जस् (प्रत्यय ) को हो ऐसा आदेश होता है । ( जस् प्रत्यय का ) लोप होता है ( सूत्र ४. ४४ देखिए ) इस नियम का अपवाद प्रस्तुत नियम है। उदा.-तरुणहो.... धाउ ॥ १ ॥ भिस्सुपोहि ॥ ३४७॥ अपभ्रंशे भिस्सुपोः स्थाने हिं इत्यादेशो भवति । गुणहि न सम्पइ कित्ति पर ( ४.३३५.१ )। सुप् । भाईरहि जिवं भारइ मग्गे हि तिहि वि पयट्टइ ॥ १॥ अपभ्रंश भाषा में, भिम और सुप इन ( प्रत्ययों के स्थान पर हिं ऐसा आदेश होता है। उदा.-( भिस् के स्थान पर हि आदेश ) :-गुणहि... .''पर । सुप् ( के स्थान पर हिं आदेश ) :-भाईरहि... .. 'पयट्टइ ॥ १ ॥ स्त्रियां जमशसोरुदोत् ॥ ३४८॥ अपभ्रंशे स्त्रियां वर्तमानानाम्नः परस्य जसः शसश्च प्रत्येक मुदोतावादेशी भवतः । लोपापवादौ । जसः। अंगुलिउ जज्जरिया उ नहेण ( ४.३३३.१ )। शसः । सुन्दर सव्वं गाउ विलालिणीओ पेच्छन्ताण ॥ १॥ वचनभेदान्न यथासंख्यम् । १. (हे ) तरुणाः तरुण्यः ( 2 ) ज्ञातं मया कुरुत मा आत्मनः घातम् । २. भागीरथी यथा भारते त्रिष मार्गेष अपि प्रवर्तते । ३. सुन्दरसर्वाङ्गीः विलासिनी प्रेक्षमाणानाम् । Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरण २६५ अपभ्रंश भाषा में, स्त्रीलिंग में होने वाली संज्ञा के आगे होने वाले जस् भोर शस् इन प्रत्ययों को प्रत्येक को उ और ओ ऐसे आदेश होते हैं। ( जस् और शस् प्रत्ययों का, लोप होता है ( सूत्र ४.३४४ देखिए ) इस नियम का अपवाद (ये दो आदेश होते हैं । उदा०-जस् को आदेश :-अंगुलिउ .. .."नहेण । शस ( को आदेश ) : -- सुन्दर'.. .. पेच्छन्ताप ॥ १॥ ( आदेश कहते समय सूत्र में ) भिन्न वचन प्रयुक्त किए जाने से ( ये आदेश ) अनुक्रम से नहीं होते हैं। टए ।। ३४९॥ अपभ्रंशे स्त्रिया वर्तमानान्नाम्नः परस्याष्टायाः स्थाने ए इत्यादेशो भवति। निअ-'मुह-करहि वि मुद्ध कर अन्धारइ पडिपेक्खइ । ससिमण्डलचन्दिमएँ पुणु काइँ न दूरे देक्खइ॥१॥ जहिं मरगयकन्तिएँ संवलिअं ॥ २॥ अपभ्रंश भाषा में, स्त्रीलिंग में होने वाली संज्ञा के आगे आने वाले टा ( प्रत्यय ) के स्थान पर ए ऐसा आदेश होता है। उदा०-निअमुह........."देक्खइ ॥१॥ जहिं..."संवलियं ॥२॥ ङस् ङस्योहे ॥ ३५० ॥ अपभ्रंशे स्त्रियां वर्तमानान्नाम्नः परयोर्डस् ङसि इत्येतयोर्हे इत्यादेशो भवति । डसः । तुच्छ मज्झहे तुच्छजम्पिरहे। तुच्छच्छरोमावलिहे सुच्छराय तुच्छ्यर-हासहे। पियवयणु अलहन्ति अहे तुच्छकाय-वम्मह-निवासहे। अन्नु जु तुच्छउँ तहे" धणहे तं अक्खणह न जाइ । कटरि थणंतरु मुद्धडहे जे मण विच्चि ण माइ॥ १॥ १. निजमुखकरैः अपि मुग्धा करं अन्धकारे प्रतिप्रेक्षते । शशिमण्डलचन्द्रिकया पुनः किं न दूरे पश्यति ।। २. यत्र ( यस्मिन् ) मरकतकान्त्या संबलितम् । ३. तुच्छमध्यायाः तुच्छजल्पनशीलायाः । तुच्छाच्छरोमावल्या: तुच्झरागाया: तुच्छतर-हासायाः । प्रियवचनमलभमानाया: तुच्छकाय-मन्मथ-निवासायाः । अन्यद् यद् तुच्छं तस्या धन्यायाः तदाख्यात न याति । आश्चयं स्वनान्तरं मुग्धायाः येन मनो बमंनि न भाति ॥ Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ चतुर्थः पादः इसे फोडेन्ति' जे हिय डउँ अप्पणउँ ताहँ पराई कवण घृण । रक्खे ज्जहु लोअहो अप्पणा बालहे जाया विसम थण ॥ २ ॥ अपभ्रंश भाषा में, स्त्रीलिंग में होने वालो संज्ञा के आगे आने वाले ङस् और इसि इन ( प्रत्ययों ) को हे ऐसा आदेश होता है । उदा० ङस् ( का आदेश ):तुच्छमज्झहे. •ण माइ ॥ ङसि ( का आदेश ) :- फोडेन्ति विसम थण ॥ २ ॥ भ्यसामोहुँः || ३५१ । अपभ्रंशे स्त्रियां वर्तमानान्नाम्नः परस्य भ्यस .. भवति । भल्ला हुआ जु मारिया बहिणि महारा कन्तु । लज्जेज्जन्तु वयंसिअहु जइ भग्गा घरु एन्तु ॥ १ ॥ वयस्याभ्यो वयस्यानां वेत्यर्थः । आमच हु इत्यादेशो अपभ्रंश भाषा में, स्त्रीलिंग में होने बाली संज्ञा के आगे आने वाले भ्यस् और आम् इन (प्रत्ययों) को हु ऐसा आदेश होता है । उदा० भल्ला':''''एन्तु ॥ १ ॥ ( इस उदाहरण में, वयंसिमहु यानी ) वयस्याभ्यः (सरवोओं से ऐसी पंचमी विभक्ति) अथवा वयस्थानाम् (सखमों के ऐसी षष्ठी विभक्ति), ऐसा अर्थ है । डेहिं ।। ३५२ ।। : अपभ्रंशे स्त्रियां वर्तमानान्नाम्नः परस्य ङः सप्तम्येकवचनस्य हि इत्यादेशो भबति । वासु उड्डावन्ति अए पिउ दिट्ठउ सहस ति । अद्धा वलया महिहि गय अद्धा फुट्ट तडत्ति ॥ १ ॥ अपन भाषा में, स्त्रीलिंग में होने वाली संज्ञा के आगे आने वाले ङि को यानी सप्तमी एकवचनी प्रत्यय को हि ऐसा आदेश होता है । उदा० - वायसु तडति ॥२॥ १. स्फोटमतः यौ हृदयं आत्मीयं तयोः परकीया (परविषये) का घृणा । रक्षत लोकाः आत्मानं बालायाः जातो विषमौ स्तनौ ॥ २. भव्यं (साधु) भूतं यन्मारितः भगिनि अस्मदीयः कान्तः । अलब्जिष्यत् वयस्याभ्यः यदि भग्नः गृहं ऐष्यत् ॥ ३. वायसं उमडापयन्त्या प्रियो दृष्टः सहसेति । अर्धानि वलयानि मह्यां गतानि अर्धोनि स्फुटितानि तटिति ॥ Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्लीवे जस्-शसोरिं ।। ३५३ ।। १ ॥ अपभ्रंशे क्लीबे वर्तमानान्नाम्नः परयोर्जस्शसोः इं इत्यादेशो भवति । 'कमलई मेल्लवि अलि उलई करिगण्डाइँ महन्ति । असुलहमेच्छण जाहँ भलि ते ण वि दूर गणन्ति ॥ अपभ्रंश भाषा में, नपुंसकलिंग में होने वाली संज्ञा के शसू इन ( प्रत्ययों ) को इं ऐसा आदेश होता है । उदा०कान्तस्यति उं स्यमोः ॥ ३५४ ॥ प्राकृतव्याकरणे - अपभ्रंशे क्लीबे वर्तमानस्य ककारान्तस्य नाम्नो योकारस्तस्य स्यमोः परयोः उ इत्यादेशो भवति । अन्नु जु तुच्छउँ तहें धणहे ( ४.३५०.१ ) । भगउँ देखिविनिअयबलु बलु पसरिअउँ परस्सु 1 उम्मिल्लइ ससिरेह जिवं करि करवालु पिस्सु ॥ १ ॥ अपभ्रंश भाषा में, नपुंसकलिंग में होने वाली ककारान्त संज्ञा का जो ( अन्त्य ) अकार, उसके आगे सि और अम् (प्रत्यय) होने पर उस (अकार) को उं ऐसा आदेश होता है । उदा० अम्नु ... धणहें; भग्गउँपियस्सु "१ ॥ सर्वादेङसेहीं ।। ३५५ ।। आगे आने वाले जस् और ग्रणन्ति ॥ १ ॥ - कमलई अपभ्रंशे सर्वादेरकारान्तात् परस्य ङसेह इत्यादेशो भवति । जहां होन्त' आगदो' । तहां होन्त' उ आगदो' । कहां होन्तउ" आगदो" । अपभ्रंश भाषा में, अकारान्त सर्वनामों (सर्वादि) के आगे आने वाले ङसि ( प्रत्यय ) को हां ऐसा आदेश होता है | उदा० -जहां • " आगदो । किमो डिहे वा ।। ३५६ ।। अपभ्रंशे किमोकारान्तात् परस्य ङसे डिहे इत्यादेशो वा भवति । ज' हे तुट्टर नेहडा मइँ सहुँ न वि तिल-तार | तं किहे" वं हि लोअणे हि जोइज्जउँ सय-वार ॥ १ ॥ १. कमलानि मुक्त्वा अलिकुलानि करिगण्डान् कांक्षन्ति । असुलभं एष्टं येषां निर्बन्ध : (भलि) ते नापि (नैव ) दूरं गणयन्ति ॥ २. भग्नकं दृष्ट्वा निजक- बलं बलं प्रसृतकं परस्य । उन्मीलति शशिलेखा यथा करे करबालः प्रियस्य ॥ २६७ ३. यस्मात् । ४. भवान् । ६. तस्मात् । ७. कस्मात् । ८. यदि तस्याः त्रुट्यतु स्नेहः मया सह नापि तिलतार : ( ? ) । तत् कस्माद् वक्ताभ्यां लोचनाभ्यां दृश्ये ( अहं ) शतवारम् ॥ ५. आगतः । Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ चतुर्थः पादः अपभ्रंश भाषा में, अकारान्त किम् ( यानी क ) इस सर्वनाम के आगे आने वाले असि (प्रत्यय) को डिहे ऐसा आदेश विकल्प से होता है । उदा.-जइ. सयबार॥१॥ डेहि ॥ ३५७ ॥ अपभ्रंशे सर्वादेरकारान्तात् परस्य डे: सप्तम्येकवचनस्य हिं इत्यादेशो भवति। जहि कप्पिज्जइ' सरिण सरु छिज्जइ खग्गिण खग्गू । तहि तेहइ भडघडनिवहि कन्तु पयासइ मग्गु ॥ १॥ एक्कहि अक्खिहिं सावण अन्नहिं भद्दवउ माहउ महिअल सत्थरि गण्डत्थले सरउ । अंगहिं गिम्ह सुहच्छी-तिलवणि मग्गसिरु तहें मुद्धहें मुहपंकइ आवासिउ सिसिउ ॥ २ ॥ हि अडा फुट्टि तड ति करि कालक्खेवें काई । देक्खउँ हयविहि कहि ठवइ पइँ विणु दुक्खसयाई ॥ ३॥ अपभ्रंश भाषा में, अकारान्त सर्वनाम के आगे आने वाले डि (प्रत्यय) को यानी सप्तमी एकवचनी प्रत्यय को हिं ऐसा आदेश होता है। उदा०---जहि "मग्गु ॥१॥ एक्कहि....."सिसिरु ॥२॥; हिसडा...."सयाई ॥३॥ यत्तत्किभ्यो उसी डासुर्नवा ॥ ३५८ ॥ अपभ्रंशे यत्तत् किम् इत्येतेभ्योकारान्तेभ्यः परस्य ङसो डासु इत्यादेशो वा भवति । कन्तु महारउ हलि सहिए निच्छई रूसइ जासु । अथिहिं सथिहिं हत्थि हिं वि ठाउ वि फेडइ तासु ॥१॥ १. यत्र ( यस्मिन् ) कल्प्यते शरेण शरः छिद्यते खड्गेन खड्गः । तस्मिन् तादृशे भट-घटा-निवहे कान्तः प्रकाशयति मार्गम् । २. एकस्मिन् अक्षिणश्रावणः अन्यस्मिन् भाद्रपद: माधवः ( माधकः ) महीतल-स्रस्तरे गण्डस्थले शरत् । अङ्गेष ग्रीष्मः सुरवासिका-तिलवने मार्गशीर्षः तस्याः मुग्धायाः मुखपंकजे आवासितः शिशिरः । ३. हृदयस्फुटतटिति ( शब्दं ) कृत्वा कालक्षेपेण किम् । पश्यामि हतविधिः क्व स्थापयति त्वया विना दुःखशतानि । ४. कान्तः अस्मदीयः हला सखिके निश्चयेनरुष्यति यस्य (यस्मै)। अस्त्र: शस्त्रः हस्तैरपि स्थानमपि स्फोटयति तस्य । Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत व्याकरणे जीविउ 'कासु न वल्लहउँ धणु पुणु कासु न इट्ठ । दोणि वि अवसर - निवडिअ तिण सम गणइ विसि अपभ्रंश भाषा में, अकारान्त होने वाले यद्, तद् और किम् (यानी जत और क) इन सर्वनामों के आगे आने वाले ङस् (प्रत्यय) को डासु ऐसा आदेश विकल्प से होता है । उदा० - किन्तु तासु ॥ १॥ ; जीविउ विसिट्टु ॥२॥ स्त्रियां डहे || ३५९ ।। ॥ २ ॥ अपभ्र ंशे स्त्रीलिंगे वर्तमानेभ्यो यत्तत्किभ्यः परस्य ङसो डहे इत्यादेशो वा भवति । 'अहे उ' । 'तहे केरउ' । 'कहे केउ । अपभ्रंश भाषा में, स्त्रीलिंग में होने वाले यद्, तद् और किम (सर्वनामों) के आगे आने वाले ङस् ( प्रत्यय ) को डहे ऐसा आदेश विकल्प से होता है । उदा०अहे केरउ | २६९ यत्तदः स्यमोधु" त्रं ॥ ३६० ।। अपभ्र ंशे यत्तदोः स्थाने स्यमोः परयोर्यथासंख्यं ध्रुवं इत्यादेशौ वा भवतः । गण' चिट्ठदि नाहु ध्रु त्रं रणि करदि न भ्रन्ति ॥ १ ॥ पक्षे । त बोल्लिअइ ज निव्वहइ । अपभ्रंश भाषा में सि और अम् ( प्रत्यय ) आगे होने पर, यद् और तद् इनके स्थान पर अनुक्रम से धुं जौर त्रं ऐसे आदेश विकलर से होते हैं । उदा० - प्रगणि भ्रंति ||१|| (विकल्प - ) पक्ष में :- तं वोल्लिअइ जु निव्वह । इदम इमु: क्लीवे || ३६१ ॥ अपभ्रंशे नपुंसकलिंगे वर्तमानस्येदमः स्यमोः परयोः इमु इत्यादेशो भवति । इमु' कुलु तुह तणउ । इमु 'कुलु देक्खु । अपभ्रंश आषा में, नपुंसकलिंग में होने वाले इदम् (सर्वनाम) को, आगे सि और अमू (प्रत्यय) होने पर इमु ऐसा आदेश होता है । उदा० -- इमु तृणसमे १. जीवितं कस्य न वल्लभकं धनं पुनः द्वे अपि अवसर - निपतिते ३. कृते । ६. प्राङ्गणे तिष्ठतिनाथ यद् तद् रणे करोति न भ्रान्तिम् । ७. तत् जल्प्यते यन्निर्वहति । ८. इटं कुलं तब तनय । ९. इदं कुलं पश्य । २. यस्याः । ४. तस्याः । कस्य न इष्टम् । गणयति विशिष्टः ॥ ५. कस्याः । Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः पादः एतदः स्त्री-पुं- क्लीवे एह एहो एहु || ३६२ || अपाशे स्त्रियां पुसि नपुंसके वर्तमानस्यैतदः स्थाने स्यमोः परयो यथा संख्यं एह एहो एहु इत्यादेशा भवन्ति । २७० एह 'कुमारी एहो नरु एहु मणोरह-ठाणु । एह वढ चिन्तन्ताहं पच्छइ होइ विहाणु ॥ १ ॥ अपभ्रंश भाषा में, स्त्रीलिंग, पुल्लिंग और नपुंसकलिंग में होने वाले एतद् ( इस सर्वनाम ) के स्थान पर, आगे सि और अम् (प्रत्यय) होने पर, अनुक्रम से एह, एहो, एहु ऐसे आदेश होते हैं । उदा०- -एह कुमारीविहाणु ॥ १॥ एइजंस - शसोः || ३६३ ॥ अपभ्रंशे एतदो जस्-शसोः परयोः एइ इत्यादेशो भवति । एइ ति घोडा एह थलि ( ४.३३०.४ ) । एइ पेच्छ । अपभ्रंश भाषा में, घस् और शस् (प्रत्यय) आगे होने पर, एतद् (सर्वनाम) को एइ ऐसा आदेश होता है । उदा०--- -- एइति थलि; एइ पेच्छ । अदस ओहू || ३६४ || अपभ्र ंशे अदसः स्थाने जस्-शसो- परयोः ओइ इत्यादेशो भवति । जइ' पुच्छह धर वड्डाईं तो बड्डा धर ओइ । विहलिअ - जण- अब्भुद्धरण कन्तु कुडीरइ जोइ ॥ १ ॥ अमूनि वर्तन्ते पृच्छ वा । अपभ्रंश भाषा में, जस् और शस् ( प्रत्यय ) आगे होने पर, अटुस् ( सर्वनाम ) के "जोइ ॥ १॥ ( यहाँ) अमूनि स्थान पर ओइ ऐसा आदेश होता है । उदा० - जइ बर्तन्ते पृच्छ वा (वे घर हैं अथवा उनके बारे में पूछो, ऐसा अर्थ है । इदम आयः || ३६५ ।। अपभ्रंशे इदम्-शब्दस्य स्यादौ आय इत्यादेशो भवति । १. एषाकुमारी एष (अहं) नरः एतद् मनोरथ स्थानम् । एतद् मूर्खाणां चिन्तभानानां पश्चाद् भवति विभातम् ॥ २. एतान् प्रेक्षस्य । ३. यदि पृच्छत गृहाणि महान्ति (वड्डाई) तद् (एतः ) महान्ति गृहाणि अमूनि । विह्वलित-जनाभ्युद्धरणं कान्तं कुटरिके पश्य ॥ Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरणे २७१ 'आयई लोअहो लोअणई जाई सरई न भन्ति ।। अप्पिए दिइ मउलिअहिं पिए दिट्ठइ विहसन्ति ॥ १॥ सोसउ म सोसउ चिअ उअही वडवानकस्स किं तेण । जं जलइ जले जलणो आएण वि किं न पज्जत्तं ॥ २ ॥ आयहो दढ कलेवरहो ज वाहिउ तं सारु । जइ उट्ठभइ तो कुहई अह डज्झइ तो छारु ॥ ३ ॥ अपभ्रंश भाषा में, विभक्ति प्रत्यय आगे होने पर, इदम् ( इस सर्वनाम ) शब्द को आय ऐसा आदेश होता है। उदा०-आयई....."विहसन्ति ॥ १ ॥; सोसउ"" पज्जत्तं ॥२॥; आयहो..'छारु ॥३॥ सर्वस्य साहो वा ॥ ३६६ ॥ अपभ्रशे सर्वशब्दस्य साह इत्यादेशौ वा भवति । साहु वि लोउ तडफडइ वडुत्तणहों तणेण । वड्डप्पणु परि पाविअइ हत्थि मोक्कल डेण ॥ १॥ पक्षे। "सव्व वि। अपभ्रंश भाषा में, सर्व ( इस सर्वनाम ) शब्द को साह ऐसा आदेश विकल्प से होता है । उदा०-साह..... 'मोक्कलडेण ॥१॥ (विकल्प-) पक्ष में:-सवृधि । किमः काई-कवणौ वा ।। ३६७ ।। अपभ्रशे किमः स्थाने काइं कवण इत्यादेशौ वा भवतः । जाइ न सु आवइ दइ घरु काई अहो मुहु तुज्झु । वयणु जु खण्डइ तउ सहिए सो पिउ होइ न मज्झु ॥१॥ १. इमानि लोकस्य लोचनानि जाति स्मरन्ति न भ्रान्तिः । अप्रिये दृष्टे मुकुलन्ति प्रिये दृष्टे विकसन्ति । २. शुष्यतु मा शुष्यतु एव (वा) उदधिः वडवानलस्य कि तेन । यद् ज्वलति जले ज्वलनः एतेनापि कि न पर्याप्तम् ।। ३. अस्य दग्धकलेवरस्य यद् वाहितं ( = लब्धं ) तत् सारम् । यदि आच्छाद्यते ततः कुथ्यति अथ (यदि) दह्यते ततः क्षारः ॥ ४. सर्वोऽपि लोकः प्रस्पन्दते (तडप्फडइ) महत्त्वस्य कृते । महत्त्वं पुनः प्राग्यते युक्तेन । ५. सर्वः अपि । ६. यदि न स आयाति दूति गृहं कि अघो मुखं तव । बचनं यः खण्डयति तव सखि के स प्रियो भवति न मम ॥ Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७२ चतुर्थः पादः काई न दूरे देक्खइ। ( ४.३३६.१ ) । 'फोडेन्ति जे हि अडउँ अप्पण: ताहँ पराई करण घृण । रक्खेज्जहु लोअहो अप्पणा बालहें जाया विसम थण ॥ २ ॥ सुपुरिस कंगुहे अणुहरहिं भण कज्जें कवणेण।। जिवं जिवं वड्डत्तणु लहहिं तिवँ तिवं नवहिं सिरेण ॥ ३ ॥ पक्षे। जइ ससणेही तो मुइअ अह जीवइ निन्नेह । बिहि वि पयारेहि गइअ धण किं गज्जहि खल मेंह ॥ ४॥ अपभ्रंश भाषा में, किम् ( सर्वनाम ) के स्थान पर काई और कवण ऐसे आदेश विकल्प से होते हैं । उदा०-जइ न. 'मझ ॥१५ काई. 'देक्ख इ. फोडेन्ति 'थण॥२॥; सुपुरिस सिरेण ॥३॥ (विकल्प-) पक्षमें:-जइ ससणेही 'मेह । ४॥ ____ युष्मदः सौ तुहुं ॥ ३६८ ॥ । अपभ्रंशे युष्मदः सौ परे तु इत्यादेशो भवति । भमर म रुण झुणि रणडइ सा दिसि जोइ म रोइ । सा मालइ देसं तरिअ जसु तुहुँ मरहि विओइ ॥ १॥ अपभ्रंश भाषा में, युष्मद् (सर्वनाम) को, सि (प्रत्यय! आगे होने पर, तुहु ऐसा आदेश होता है । उदा. भमर....."किओइ ॥ १: जस-शसो स्तुम्हे तुम्हइं ॥ ३६९ ॥ अपभ्रंशे युष्मदो जसि शसि च प्रत्येकं तुम्हे तुम्हई इत्यादेशौ भवतः । तुम्हे" जाणह । तुम्हे तम्हई पेच्छइ । वचनभेदो यथासंख्यनिवृत्त्यर्थः ।। अपभ्रंश भाषा में, युष्मद् (सर्वनाम) को जस् और शस् (प्रत्यय) आगे होने पर, प्रत्येक को तुम्हे और तुम्हई ऐसे आदेश होते हैं। उदा०-तुम्हे'' पेच्छइ । अनुक्रम की निवृत्ति करने के लिए (सत्र में) वचन का भेद (किया है। १. सूत्र ४.३५० के नीचे श्लोक २ देखिए । २. सत्पुरुषाः कङ्गो: अनुहरन्ति भण कार्येण केन । यथा यथा महत्त्वं लभन्ने तथा तथा नमन्ति शिरसा ॥ ३. यदि सस्नेहा तन्मृता अथ जीवित निःस्नेहा । द्वाभ्यामपि प्रकाराभ्याँ गत्तिका ( = गता) धन्या किं गर्जसि खल मेघ ॥ ४. भ्रमर मा रुणझुणशब्दं कुरु अरण्ये तां दिशं विलोकय मा रुदिहि । सा मालतो देशान्तरिता यस्याः त्वं म्रियसे पियोगे ॥ ५. क्रमस:--यूयं जानीथ । युष्मा० प्रेक्षते । Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरणे टायमा पई तई || ३७० ॥ अपशे युष्मदः टाङि अम् इत्येतैः सह पई तई इत्यादेशौ भवतः । टा । मुक्का विवरतरु फिट्टइ पत्तत्तणं न पत्ताणं । तुहु पुणु छाया जइ होज्ज कहवि ता तेहि पत्तेहि ॥ १ ॥ महु' हिउ त तारा तुहु स वि अन्नें विनडिज्जइ । पिम काई करउ हउ काईं तु मच्छे मच्छु गिलिज्जइ ॥ २ ॥ ङि । इँ मइँ बेहि वि रणगर्याह को जयसिरि तक्केइ । के सहि लेप्पणु जमधरिणि भण सुहु को थक्केइ ॥ ३ ॥ एवं तइ । अमा | पइँ मेल्लन्ति हे महु मरणु महँ मेल्लन्तहों तुज्झु । सारस जसु जो वेग्गला सो वि कृदन्तहों सज्झ ॥ ४ ॥ एवं तई । - अपभ्रंश भाषा में, युष्मद् को टा, ङि, और अम् इन (प्रत्ययों ) के साथ पई और तई ऐसे आदेश होते हैं । उदा० - टा (प्रत्यय) के गह: - पई मुक्काहँ पत्तेहि ॥ १ ॥ ; महु गिलिज्जइ ॥ २ तई ( आदेश भी होता है ) । इसी प्रकार तई ( ऐसा आदेश भी होता है ) । •••थक्केइ ॥ ३ ॥ इसी प्रकार मेल्लन्तिहें " सज्झ ॥४॥ ङि (प्रत्यय) के सहः - इँ अम् (प्रत्यय) के सह : - पइँ भिसा तुम्हेहिं ॥ ३७१ ।। अपशे युष्मदो भिसा सह तुम्हेहिं इत्यादेशो भवति । १. त्वया मुक्तानामपि वरतरो विनश्यति (फिट्टइ) पत्रत्वं न पत्राणाम् । तव पुनः छाया यदि भवेत् कथमपि तदा तैः पत्र (एव) ॥ २. मम हृदयं त्वया तया त्वं सापि अन्येन विनाट्यते । प्रिय किं करोम्यहं किं त्वं मत्स्येन मत्स्यः गिल्यते ॥ २७३ ३. त्वयि मयि द्वयोरपि रणगतयोः को जयश्रियं तर्कयति । गृहीत्वा यमगृहिणी भण सुखं कस्तिष्ठति । ४. स्वां मुञ्चन्त्याः मम मरणं मां मुञ्चतस्तव । सारस: (यथा ) यस्य दूरे (वेग्गला) सः अपि कृतान्तस्य साध्यः ॥ १८] प्रा० व्या० Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ चतुर्थः पादः 'तुम्हेंहि अम्हें हिं जं कि अउ दिट्ठउ बहुअजणेण । तं तेवड्डउ समरभरु निज्जिउ एक्क खणेण ॥ १॥ अपभ्रंश भाषा में, युष्मद् ( सर्वनाम ) को भिस् ( प्रत्यय ) के सह तुम्हेहि ऐसा आदेश होता है । उदा०—तुम्हे हि....''खणेण ॥१॥ ङसि-ङस्भ्यां तउ तुज्झ तुध्र ।। ३७२ ॥ अपभ्रंशे युष्मदो ङसिङस्भ्यां सह तउ तुज्झ तुध्र इत्येते त्रय आदेशा भवन्ति । त उ होस्त' उ आगदो । तुज्झ' होन्त उ आगदो । तुघ्र होन्त' उ आगदो। ङसा। तउ गुणसंपइ तुज्झ मदि तुध्र अणुत्तर खन्ति । जइ उप्पत्ति अन्न जण महिमंडलि सिक्खन्ति ॥ १ ॥ अपभ्रंश भाषा में, युष्मद् ( सर्वनाम ) को कमि और उस् (प्रत्ययों) के सह तउ, तुज्झ और तुध्र ऐसे ये तीन आदेश होते हैं । सदा०-( उसि प्रत्यय के सह ):तउ.... आगदो । उस् (प्रत्यय) के सहः-तउ गुण..."सिक्खन्ति ॥ १ ॥ ___भ्यसाम्भ्यां तुम्हहं ॥ ३७३ ॥ __ अपभ्रशे युष्मदो भ्यस् आम् इत्येताभ्यां सह तुम्हह इत्यादेशो भवति । तुम्हहं होन्तउ आगदो। तुम्हह" केरउधणु। अपभ्रंश भाषा में, युष्मद् (सर्वनाम) को भ्यस् और आम् ( इन प्रत्ययों ) के सह तुम्हहं ऐसा आदेश होता है । उदा०--तुम्हह...''धणु । तुम्हासु सुपा ॥ ३७४ ॥ अपभ्र शे युष्मदः सुपा सह तुम्हासु इत्यादेशो भवति। तुम्हासु ठिअं। अपभ्रंश भाषा में, युष्मद् ( सर्वनाम ) को सुप् प्रत्यय के सह तुम्हासु ऐसा आदेश होता है । उदा०-तुम्हासु ठिअं। १. युष्माभिः अस्माभिः यत् कृतं दृष्ट (क) बहुकजनेन । दत् तदा) तावन्मात्र: समरभरः निजितः एकक्षणेन ॥ २. त्वत् । ३. भवान् (भवन) । ४. आगतः । ५. तव गुणसम्पदं तव मति तव अनुत्तरां क्षान्तिम् । __ यदि उत्पद्य अन्यजनाः महीमण्डले शिक्षन्ते ॥ ६. युष्मद् भवान् (भवन्) आगतः। ७. युष्माकं कृते धनम् । ८. युष्मसु स्थितम् । Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरणे २७५ सावस्मदो हउं॥ ३७५ ॥ अपभ्रशे अस्मदः सौ परे हउ इत्यादेशो भवति । तसु हउँ कलिजुगि दुल्लहहो ( ४.३३८.१ )। ____ अपभ्रंश भाषा में, अस्मद् ( सर्वनाम ) को सि ( प्रत्यय ) आगे होने पर हर ऐसा आदेश होता है । उदा०-तसु..."दुल्लहहो । जस्-शसोर म्हे अम्हई ।। ३७६ ।। ___ अपभ्रंशे अस्मदो जसि शसि च परे प्रत्येक अम्हे अम्हई इत्यादेशौ भवतः। अम्हे थोआ' रिउ बहुअ कायर एम्व भणन्ति । मुद्धि निहालहि गयणयलु कइ जण जोण्ह करन्ति ॥१॥ अम्बणु' लाइवि जे गया पहिअ पराया के वि। अवस न सुअहिं सुहच्छिमहिं जिवं अम्हई तिवं ते वि ॥ २ ॥ अम्हे देक्खइ । अम्हइं देक्खइ । वचनभेदो यथासंख्यनिवृत्त्यर्थः । अपभ्रंय भाषा में, अस्मद् (सर्वनाम) को जस् और शस् (प्रत्यय) आगे होने पर, प्रत्येक को अम्हे और अम्हइं ऐसे आदेश होते हैं। उदा०-अम्हे.... " करन्ति : १॥; मम्वणुः ''ते वि ॥२॥; अम्हे''देक्खइ । अनुक्रम की निवृत्ति करने के लिए ( सूत्र में ) वचन-भेद (किया हुआ) है। ___टाङ्यमा मई ॥ ३७७ ॥ अपभ्रंशे अस्मदः टा डि अम् इत्येतैः सह मई इत्यादेशो भवति । टा। मई जाणिउ पिअ विरहि अहं कवि धर होइ विआलि । णवर मिअंकु वि तिह तवइ जिह दिणयरु खयगालि ॥ १ ॥ १. वयं स्तोकाः रिपथः बहषः कातराः एवं भणन्ति । मुग्धे निभालय गगनतलं कति जनाः ज्योत्स्ना कुर्वन्ति । २. अम्लत्वं लागयित्वा ये गताः पथिकाः परकीयाः केऽपि । अवश्यं न स्वपन्ति सुखासिकायां यथा वयं तथा तेऽपि ॥ ३. अस्मान् पश्यति । ४. मया ज्ञातं प्रिय विरहितानां कापि धरा भवति विकाले । केवलं (परं) मृगाङ्कोऽपि तथा तपरि यथा दिनकरः क्षयकाले ॥ Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ चतुर्थः पादः डिना । पइँ मई बेहि वि रणगयहिं ( ४.३७०.३ )। अमा। मई मेल्लन्तहो तुज्झु ( ४,३७०.४ )। __ अपभ्रंश भाषा में, अस्मद् (सर्वनाम) को टा, डि और अम् इन (प्रत्ययों) के सह मई ऐसा आदेश होता है। उदा०–टा (प्रत्यय) के सहः-म...'खयगालि ॥ १ ॥ ङि (प्रत्यय) के सह :-पइँ"रणगयहिं । अम् (प्रत्यय) के सह :-मई "तुज्झ । अम्हेहिं भिसा ॥ ३७८ ॥ अपभ्रशे अस्मदो भिसा सह अम्हे हिं इत्यादेशो भवति । तुम्हें हिं अम्हेहिं जं कि अउ ( ४.३७१.१ )। अपभ्रंश भाषा में, अस्मद् ( सर्वनाम ) को भिस् ( प्रत्यय ) के सह अम्हेहिं ऐसा आदेश होता है। उदा०-तुम्हे हिं....."किअउँ । महु मज्झ ङसिङस्भ्याम् ॥ ३७९ ॥ अपभ्रशे अस्मदो उसिना ङसा च सह प्रत्येक महु मज्झु इत्यादेशौ भवतः । महु' होन्तउ गदो। मज्झू होन्तउ गदो। ङसा । महु कन्तहों बे दोसडा हेल्लि म झंखहि आलु । देन्तहों हउ पर उव्वरिअ जुज्झन्तहो करवालु ॥ १॥ जइ भग्गा पारक्कडा तो सहि मज्झु पिएण । अह भग्गा अम्हहं तणा तो तें मारि अडेण ॥२॥ अपभ्रंश भाषा में, अस्मद् (सर्वनाम) को ङसि और ङस् (प्रत्ययों) के सह प्रत्येक को मह और मज्झ ऐसे आदेश होते हैं। उदा०-(ङसि प्रत्यय के सह):--महु..." गदो। ङस् (प्रत्यय) के सहः--महु..."करवालु ॥१॥; जइ भग्गा'मारिअडेण॥२॥ अम्हहं भ्यसाम्भ्याम् ॥ ३८० ॥ अपभ्रशे अस्मदो भ्यसा आमा च सह अम्हह इत्यादेशो भवति । 'अम्हहं होन्तउ आगदो । आमा । अह भग्गा अम्हहं तणा ( ४.३७६.२)। १. मत् (अथवा मत्तः) भवान् गतः । २. मम कान्तस्य द्वो दोषी हे सखि मा पिधेहि अलीकम् । __ ददत्तः अहं परं उर्वरिता युध्यमानस्य करवालः ॥ ३. यदि भग्नाः परकीयाः तदा (ततः) सखि मम प्रियेण । ___ अथ भग्ना अस्माकं संबंधिनः तदा तेन मारितेन ॥ ४. अस्मत् भवान् आगतः । Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरणे २७७ अपभ्रंश भाषा में, अस्मद् (सर्वनाम) को भ्यस् और आम् (प्रत्ययों) के सह अम्हहं ऐसा आदेश होता है । उदा० –(भ्यस् प्रत्यय के सह):--अम्हह"""आगदो । आम् (प्रत्यय) के सह :-मह तणा। सुपा अम्हासु ॥ ३८१ ।। अपभ्रशे अस्मदः सुपा सह अम्हासु इत्यादेशो भवति । अम्हासु ठिअं। ____ अपभ्रंश भाषा में, अस्मद् (सर्वनाम) को सुप् प्रत्यय के सह अम्हासु ऐसा आदेश होता है। उदा०-अम्हासु ठिअ । त्यादेराद्यत्रयस्य संबंधिनो हिं न वा ॥ ३८२ ।। त्यादीनामाद्यत्रयस्य सम्बन्धिनो बहुप्वर्थेषु वर्तमानस्य वचनस्यापभ्रशे हि इत्यादेशो भवति। मुहक बरिवंध तहे सोह धरहिं नं मल्लजुज्झु ससि-राहु करहिं तहे सहहि कुरल भमर-उल-तुलिअ नं तिमिर डिम्भ खेल्लन्ति मिलिअ ॥१॥ अपभ्रंश भाषा में, धातु को लगने वाले (प्रत्ययों) के आद्यत्रय से संबंधित (ऐसे) वहु ( = अनेक ) अर्थ में होने वाले वचन को ( यानी बहुवचन को ) हि ऐसा आदेश विकल्प से होता है । उदा०—-मुहकबरि - मिलिम ॥१॥ मध्यत्रयस्याद्यस्य हिः ।। ३८३ ।। त्यादीनां मध्यत्रयस्य यदाद्यं वचनं तस्यापभ्रंशे हि इत्यादेशो वा भवति। बप्पीहा' पिंउ पिउ भणवि कित्तउ रुमहि हयास । तुह जलि मुह पुणु वल्लहइ बिहुँ विन पूरिअ आस ॥१॥ आत्मनेपदे। बप्पीहा कई बोल्लिएण निग्धिण वार इ वार। सायरि भरिअइ विमलजलि लहहि न एक्कइ धार ॥२॥ १. अस्मासु स्थितम् । २. मुखकबरीबन्धौ तस्याः शोभा धरतः ननु मल्लयुद्धं शशि-राहू कुरुतः। तस्याः शोभन्ते कुरलाः भ्रमरकुलतुलिताः ननु तिमिरडिम्भाः क्रीडन्ति मिलिताः ॥ ३. चातक पिबामि पिबामि (तथा प्रियः प्रियः इति) भणित्वा कियद्रोदिषि हताश । तव जले मम पुनर्घल्लो द्वयोरपि न पूरिता आशा ॥ ४. चातक कि कथनेन निघूण वारंवारम् । सागरे भृते विमलजलेन लभसे न एकामपि धाराम् ॥ Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७८ चतुर्थः पादः सप्तम्याम् । 'आयाहि जम्महि अन्नहि वि गोरि सु दिज्जहि कन्तु । ___ गय मत्तह चत्तंकुसहं जो अभिडइ हसन्तु ॥ ३ ॥ पक्षे। रुअसि । इत्यादि। अपभ्रंश भाषा में, त्यादि (प्रत्ययों) में से मध्य-त्रय का जो आद्य वचन, उसको हि ऐसा आदेश विकल्प से होता है । उदा० ----बप्पीहा..... आस ॥ १ ॥; यात्मनेपद में (हि ऐसा आदेश ):-बप्पीहा कई..... 'घारा ॥ २ ॥; विध्यर्थ में ( हि ऐसा आदेश:-आयहि हसन्तु ॥३॥ (विकल्प-) पक्षमें:-असि, इत्यादि । बहुत्वे हुः ।। ३८४ ॥ त्यादौनां मध्यत्रयस्य सम्बन्धि बहुष्वर्थेषु वर्तमानं यद् वचनं तस्यापभ्रंशे ह इत्यादेशो वा भवति । बलि अब्भत्थणि महमहणु लहुईहूआ सोइ। जइ इच्छह वडहत्तणउंदेह म मग्गह को इ॥१॥ पक्षे । इच्छह । इत्यादि । अपभ्रंश भाषा में, त्यादि ( प्रत्ययों ) में से मध्य अब से संबंधित ( और ) बहु ( अनेक) अर्थ में होनेवाला जो ( बहु-) वचन, उसको हु ऐसा आदेश विकल्प से होता है । उदा०-बकि "कोइ ? (विकल्प-) पक्षमें:-- इच्छह, इत्यादि । अन्त्यत्रयस्याद्यस्य उं॥ ३८५ ॥ त्यादीनां अन्त्य त्रयस्य यदाद्यं वचनं तस्यापभ्रंशे उ इत्यादेशो वा भवति । विहि विणडउ पीडन्तु गह मं धणि करहि विसाउ।। संपइ कडढउँ वेस जिवं छुडू अग्घइ व वसाउ॥१॥ बलि किज्जउँ सुअणस्सु (४.३३८.१)। पक्षे । कड्ढामि । इत्यादि । अपभ्रंश भाषा में, त्यादि (प्रत्ययों) में से अन्त्य त्रय का जो आधबचन उसके उं ऐसा आदेश बिकल्प से होता है। उदा०--विहि...."बबसाउ ॥१॥; बलि..... सुअणस्सु । (विकल्प--) पक्षमें:-कढामि, इत्यादि । १. मस्मिन जन्मनि बन्यस्मिन्नपि गौरि तं दधाः कान्तम् । ___ गजानां मत्तानां त्यक्ताङकुशानां यः संगच्छते इसन् ॥ २. बले: अभ्यर्थने मधुमपनः लधुकोमतः सोऽपि । यदि इच्छष महत्त्वं (वड्ढत्तणठं) दत्तमा मागयत कमपि ।। ३. विधिविनाटयतुमहाः पीडयन्तु माधन्ये कुरु विषादम् । सम्पदं कर्षाभि वेषमिव यदि अर्धति (=स्यात्) व्यवसायः ॥ Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरणे २७९ बहुत्वे हुँ ॥ ३८६ ॥ त्यादीनामन्त्यत्रयस्य सम्बन्धि बहुष्वर्थेषु वर्तमानं यद् वचनं तस्य हुँ इत्यादेशो वा भवति । खग्गवि सा हि उ जहिं लहहु षिय तहि देहि जाहुँ। रणदुभिक्खें भग्गाइं विणु जुज्झें न वलाहुं ॥१॥ पक्षे। लहिमु । इत्यादि। अपभ्रंश भाषा में, त्यादि (प्रत्ययों) में से अन्त्य त्रय से संबंधित बहु (= अनेक) अर्थ में होने वाला जो (बहु/अनेक) वचन, उसको हुऐसा आदेअ विकल्प से होता है। उदा० -- खग्ग वलाई ॥१:: (विकल्प-) पक्षसे:-लहिमु, इत्यादि । हिस्वयोरिदुदेत् ॥ ३८७ ॥ पञ्चम्यां हि स्वयोरपभ्रंशे इ उ ए इत्येते त्रय आदेशा वा भवन्ति । इत्। कुञ्जर' सुमरि म सल्ल इ उ सरला सास म मेल्लि । __ कवल जि पाविय विहि वसिण ते चरि माण म मेल्लि ॥१॥ उत् । भमरा एत्थ वि लिम्बडइ के वि दियहडा विलम्बु । धणपत्तलु छायाबहुलु फुल्लइ जाम कयम्बु ॥ २॥ एत्। प्रिय' एम्वहि करे सेल्लु करि छड्डहि तुहुँ करवालु । __जं कावालिय बप्पुडा लेहि अभग्गु कवाल ॥ ३॥ पक्षे । सुमरहि । इत्यादि। अपभ्रंश भाषां में, आज्ञार्थ में हि और स्व इन (प्रत्ययों) को इ, उ और ए ऐसे ये तीन आदेश विकल्प से होते हैं। उदा.-इ ( इत् ऐसा आदेण ):-कुञ्जर...... १.खड्गविसाधितं यत्र लभामहे तत्र देशे यामः । रणदुभिक्षेण भग्नाः विना युधेन न वलामहे ॥ २. कुञ्जर स्मर मा सल्लकीः सरलान् श्वासान् मा मुञ्च । कवलाः ये प्राप्ताः विधिवशेन तांश्वर मानं मा मुञ्च ॥ ३. भ्रमर अत्रापि निम्बके कति (चित्) दिवसान विलम्बस्व । धनपत्रवान् छाया बहुलो फुल्लति यावत् कदम्बः ॥ ४. प्रिय इदानी कुरु भल्लं करे त्यज स्वं करवालम् । येन कापालिका बराकाः लान्ति अभग्नं कपालम् ॥ Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० चितुर्थः पादः मेल्लि ॥१॥ उ (उन ऐसा आदेश):-भमरा कयम्बु ॥२॥ ए (ए. ऐसा आदेश):प्रिय.... कवालु ॥३॥ (विकल्प-) पक्षमें:-सुमरहि, इत्यादि । वत्यति स्यस्य सः ॥ ३८८ ।। अपभ्रंशे भविष्यदर्थविषयस्य त्यादेः स्यस्य सो वा भवति । दिअहा' जन्ति झडप्पडहिं पडहि मनोरह पच्छि। जं अच्छइ तं माणि अइ होसइ करतु म अच्छि ॥ १॥ पक्षे। होहिइ। अपभ्रंश भाषा में, भविष्यार्थक त्यादि ( प्रत्ययों) में से स्य (प्रत्यय ) को स (ऐसा आदेश) विकल्प से होता है। उदा०-दिअहा अच्छि ॥१॥ (विकल्प-) पक्षमें:--होहिइ। क्रियेः कीसु ॥ ३८६ ।। क्रिये इत्येतस्य क्रियापदस्यापभ्रंशे की सु इत्यादेशो वा भवति । सन्ता' भोग लु परिहरइ तसु कंतहो बलि कीसु। तसु दइवेण वि मुण्डियउँ जसु खल्लिहडउँ सोसु ॥ १॥ पक्षे। साध्यमानावस्थात् क्रिये इति संस्कृतशब्दादेष प्रयोगः। बलि कि ज्जउँसुअणस्सु ( ४.३३८.१)। . अपनश भाषा में, क्रिये इस क्रियापद को कोसु ऐसा आदेश विकल्प से होता है। उदा.-सन्ताभोग....."सीसु ॥१॥ (विकल्प- ) पक्षमें:-साध्यमान अवस्था में से क्रिये इस संस्कृत शब्द से यह (यानी मागे दिया हुआ) प्रयोग होता है। उदा०बलि....""सुअणस्सु । भुवः पर्याप्तौ हुच्चः ॥ ३६० ॥ अपभ्रंशे भुवो धातोः पर्याप्तावर्थे वर्तमानस्य हुच्च इत्यादेशो भवति । अइतुंगत्तण जं थणहं सो छेयउ न हु लाहु। सहि जइ केवइ तुडिवसेण अहरि पहुच्चइ नाहु ॥१॥ १. दिवसा यान्ति वेगः (झडप्पडहिं) पतन्ति मनोरथाः पश्चात् । यदास्ते तन्मान्यते भविष्यति (इति) कुर्वन् मा आस्स्व ॥ २. सतो भोगान् यः परिहरति तस्व कान्तस्य बलिं क्रिये । बस्य देवेनैव मुण्डितं यस्य खल्वाट शीर्षम् ॥ ३. अपितुङ्गत्वं यत् स्तनयोः सच्छेदकः न खलु साभः । सखि यदि कथमपि त्रुटिवशेन अधरे प्रभवति नाथः ॥ Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरणे २८१ अपभ्रंश भाषा में, पर्याप्ति अर्थ में होने वाले भू ( यानी प्र+भू इस ) धातु को हुच्च ऐसा आदेश होता है। उदा०-अइतगत्तण ..."नाहु ॥१॥ बेगो ब्रुवो वा ॥ ३६१॥ अपभ्रंशे ब्रूगोर्धातोव इत्यादेशो वा भवति । ब्रुवह' सुहासिउ किं पि। पक्षे। इत्तउ ब्रोप्पिणु सउणि ठिउ पुणु दूसासणु ब्रोप्पि। तो हउँ जाणउं राहो हरि जइ महु अग्गइ ब्रोप्पि ।।१।। अपभ्रश भाषा में, ब धातु को अब ऐसा आदेश विकल्प से होता है। उदा.ब्रुवह "किपि । (विकल्प-) पक्षमें:-इत्तउँ..."व्रोप्पि ॥१॥ ब्रजेवुजः ।। ३९२ ॥ अपभ्रंशे व्रजतेर्धातोर्वत्र इत्यादेशो भवति । वनइ । कुप्पि । वुप्पिणु। अपभ्रंश भाषा में, व्रजमि (Vवज्) धातु को वृन ऐसा आदेश होता है। उदा०खुबइ..."वुने प्पिण । दृशेः प्रस्सः ॥ ३६३ ॥ अपभ्रंशे दृशेर्धातोः प्रस्स इत्यादेशो भवति । प्रस्सदि। अपम्रश भाषा में, दृश् धातु को ऐसा आदेश होता है। उदा०-प्रस्सदि । ग्रहेण्हः ।। ३६४॥ अपभ्रंशे बहेर्धातोह इत्यादेशो भवति । पढ' गृण्हेप्पिणु व्रतु । अपभ्रंण भाषा में, ग्रह धातु को गृह ऐसा बादेश होता है। उदा०पर 'वतु। तक्ष्यादीनां छोल्लादयः ॥ ३६५ ॥ अपभ्रंशे तक्षि प्रभतीनां धातूनां छोल्ल इत्यादय आदेशा भवन्ति । जिवं तिवं तिक्खा लेवि कर जइ ससि छोल्लि ज्जन्तु । तो जइ गोरिहें मुहकमलि सरिसिम का वि लहन्तु ॥१॥ १. ब्रूत सुभाषितं किमपि ।। २. इयत् उक्त्वा शकुनिः स्थितः पुनःशासन उक्त्वा । ___ तदा अहं जानामि एष हरिः यदि ममाग्रतः उक्त्वा ॥ ३. पठ गृहीत्वा व्रतम् । ४. यथा तथा तीक्ष्णान् लात्वा करान् यदि शशी अतक्षिष्यत । तदा जगति गौर्या मुखकमलेन सदृशतां कामपि मलप्स्यत ॥ Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ चतुर्थः पादः मादिग्रहणाद् देशीषु ये क्रियावचना उपलभ्यन्ते ते उदाहार्याः । चुड'ल्लउ चुण्णीहोइ सइ मुद्धि कवोलि निहित्तउ । सासानल-जाल-झलक्कि अउ बाह-सलिल-संसित्तउ ॥ २ ॥ अब्भडवंचिउ बे पयइं पेम्मु निमत्तइ जावं। सव्वासण-रिउ-सम्भवहो कर परिसत्ता तावें ॥३॥ हिअइ खुडुक्कइ गोरडी गयणि छुडक्कइ मेहु । वासारत्ति पवासुअहं विसमा संकडु एहु ॥ ४ ॥ अम्मि पओहर वज्जमा निच्चु जे सम्मुह थन्ति । महु कन्तहों समरंगणइ गयघड भज्जिउ जन्ति ॥ ५ ॥ पुत्तें जाएँ कवणु गुणु अवगुण कवणु मुएण । जा बप्पीकी भंहडी चंपिज्जइ अवरेण ॥ ६ ॥ तं तेत्तिउ जलु सायरहो' सो तेवड़ वित्थारु । तिसहें निवारणु पलु वि न वि पर धुछ अइ असारु ॥ ७॥ अपनश भाषा में, तक्ष् प्रभृति धातुओं को छोल्ल इत्यादि आदेश होते हैं । उदा.---जिवें... 'लहन्तु ।। ।। (सूत्र में तासि शब्द के आगे) आदि शब्द का निर्देश होने के कारण, देशी भाषाओं में जो क्रिया बाचक शब्द उपलब्ध होते हैं, वे उदाहरण स्वरूप में ( यहाँ ) लेते हैं। उदा०-चड्डल्लउ''असारु ॥२-७॥ तक । १. कङ्कणं चूर्णीभवति स्वयं मुग्धे कपाले निहितम् । ___ श्वासानल-ज्वाला-संतप्तं बाष्प-जल-संसिक्तम् ॥ २. अनुगम्य वे पदे प्रेम निवर्तते यावत् । सर्वाशनरिपुसंभवस्य करा: परिदृत्ताः तावत् ॥ ३. हृदये शल्यायते गोरी गगने गर्जति मेघः । ___ वर्षाराने प्रवासिकानां विषमं संकटमेतत् ।। ४. अम्ब पयोधरी बनमयो नित्यं यौ संमुखी तिष्ठत. । मम कान्तस्य समरांग गके गजघटाः भक्त यातः ॥ ५. पुत्रेण जातेन को गुणः अवगुणः कः मृतेन । __यत् पैतृकी (बप्पीकी) भूमिः आक्रम्यतेऽपरेण ॥ ६. तत् तावत् जलं सागरस्य स तावान् विस्तारः । तृषो निवारणं पलमपि नापि (नव) परं शब्दायते असारः ॥ Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरणे २८३ अनादौ स्वरादसंयुक्तानां कखतथपफां गघदधवभाः ॥३६६॥ अपभ्रंशे पदादौ वर्तमानानां स्वरात् परेषामसंयुक्तानां कखतथपफां स्थाने यथासंख्यं गघदधबभाः प्रायो भवन्ति । कस्य गः । जं दिठउं सोमग्गहणु' असइहिं हसिउँ निसंकु । पिअमाणुस विच्छोह-गरु गिलि गिलि राहु मयंकु ॥ १ ॥ खस्य घः । अम्मीए सत्थावत्थेहिं सुघि चिन्तिज्जइ माणु। पिए दिठे हल्लोहलेण को चेअइ अप्पाणु ॥ २॥ तथपफानां दधबभाः। सबधु' करेप्पिणु कधिदु मई तसु पर सभलउँ जम्मु । जासु न चाउ न चारहडि न य पम्हट्ठउ धम्मु ॥ ३ ॥ अनादाविति किम् । सबधु करेप्पिणु। अत्र कस्य गत्वं न भवति । स्वरादिति किम् । गिलि गिलि राह मयंक। असंयुक्तानामिति किम् । एक्कहि अक्खिहिं सावणु ( ४.३५७.२ ) । प्रायोधिकारात् क्वचिन्न भवति । जई केवइ पावीसु पिउ अकिआ कुड्ड करीसु। पणि उ नवइ सरावि जिवं सव्वंग पइसीसु ॥४॥ उअ कणि आरु पफुल्लिअउ कंचणकतिपयासु । गोरी वयणविणिज्जि अउ नं सेवइ वणवासु ॥ ५ ॥ अपभ्रंश भाषा में अपदादि (यानी पद के आरम्भ में न) होने वाले, स्वर के आगे होने वाले, ( और ) असंयुक्त ( ऐसे ) क ख त थ प और फ इनके स्थान पर अनुकम से ग ध द ध ब और भ (ये वर्ण) प्रायः आते हैं। उदा०-क के स्थान पर ग :-जं दि ट् ठ उँ... ."मयंकु ॥१॥ ख के स्थान पर घा-अम्मीए १. बद् दृष्टं सोमग्रहणमसतीभिः हसितं निःशंकम् । प्रियमनुष्यविक्षोभकरं गिल गिल राहो मृगांकम् ॥ २. अम्ब स्वस्थावस्थः सुखेन चिन्त्यते मानः । प्रिये दृष्टे व्याकुलत्वेन (हल्लोहलेण) कश्चेतयति मात्मानम् । ३. शपथं कृत्वा कथितं मया तस्य परं सफलं जन्म । यस्य न त्यागः न च आरभटी न च प्रमृष्टः धर्मः ॥ ४. यदि कथंचित् प्राप्स्यामि प्रियं अकृतं कौतुकं करिष्यामि । पानीयं नबके शरावे यथा सर्वाङ्गेण प्रवेक्ष्यामि ॥ ५. पश्य कणिकारः प्रफुल्लितक: काचनकान्तिप्रकाशः । गौरीवदनविनिजितकः ननु सेवते वनवासम् ।। Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ चतुर्थः पादः ............. अप्पाण ॥ २ ॥ त थ प और फ इनके स्थान पर द ध ब और भ:सबधु... .."धम्मु ॥ ३ ॥ ( सूत्र में ) अनादि होने वाले, ऐसा क्यों कहा है ? (कारण यदि क इत्यादि अनादि न हो, तो यह नियम नहीं लगता है। उदा०-) सबघु करेप्पिण; यहाँ ( क अनादि न होने के कारण ) क का ग नहीं हुआ है। स्वर के आगे होने वाले, ऐसा क्यों कहा है ? ( कारण क इत्यादि स्वर के आगे न हो, तो यह नियम नहीं लगता है । उदा०-) गिलि... .. 'मयंकु । असंयुक्त होने वाले, ऐसा क्यों कहा है ? ( कारण क इत्यादि संयुक्त हो, तो यह नियम नहीं लगता है। उदा०-) एक्काह.. ..'सावणु । प्राय: का अधिकार होने से, क्वचित् ( क इत्यादि के स्थान पर ग इत्यादि ) नहीं आते हैं। उदा.---जइ केवई... ... ... वणवासु ॥ ४ ॥ और ॥ ५ ॥ मोनुनासिको वो वा ॥ ३६७॥ अपभ्रंशेनादौ वर्तमानस्यासंयुक्तस्य मकारस्य अनुनासिको वकारो वा भवति । कवल! कमलु । भवँरु भमरु । लाक्षणिकस्यापि । जिवँ । तिवँ । जेवें। तेवें। अनादावित्येव । मियणु असंयुक्तस्येत्येव । तसु पर सलभउ जम्मु ( ४.३६६.३ )। अपभ्रंश भाषा में, अनादि होने वाले ( और ) असंयुक्त ( ऐसे ) मकार का अनुनासिक (-युक्त) वकार ( = =) विकल्प से होता है। उदा०-कवल ... .."भमरु । व्याकरण के नियमानुसार आने वाले (मकार ) का भी ( व ) होता है। उदा०—जिवं... ... .. .. 'ते । ( मकार ) अनादि होने पर ही ( ऐसा + होता है; मकार अनादि न हो, तो उसका व नहीं होता है। उदा०-) भयण । ( मकार ) असंयुक्त होने पर ही ( ऐसा व होता है; मकार संयुक्त होने पर, उसका व नहीं होता है। उदा०-) तसु.. .."जम्मु ।। वाधो रो लुक ॥ ३६८॥ अपभ्रंशे संयोगादधो वर्तमानो रेफो लुग वा भवति । जइ केवइ पावीसु पिउ ( ४.३६६.४ )। पक्षे । जइ भग्गा पारक्कडा तो सहि मज्झु प्रियेण (४.३७१.२)। ___ अपभ्रंशे भाषा में, संयुक्त व्यञ्जन में अनन्सर (यानी दुसरा अवयव ) होने वाला रेफ ( वैसा ही रहता है अथवा ) विकल्प से उसका लोप होता है। उदा.-जइ केवइ....."पिंउ । ( विकल्प- ) पक्ष में:-जइ भग्गा..... प्रियेण । १. क्रमसे:-कमल । भ्रमर । २. क्रमसेः-जिम (यथा) तिम (तथा)। जेम (यथा) । तेम (तपा)। (सूत्र ४.४०१ देखिए)। ३. मदन । Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरण २८५ अभूतोपि क्वचित् ।। ३६६ ॥ अपभ्रंशे क्वचिदविद्यमानोपि रेफो भवति । वासु' महारिसि एंड भणइ जइ सुइ सत्थु पमाणु । __ मायहँ चलण नवन्ताहं दिवि दिवि गंगाण्हाणु ॥ १ ॥ क्वचिदिति किम् । वासेण वि भारह खम्भि बद्ध । अपभ्रश माषा में, ( मूल शब्द में ) रेफ न होने पर भी क्वचित् रेफ आता है । उदा०-वासु......"गंगाण्हाणु ॥१॥ (सूत्र में) क्वचित् ऐसा क्यों कहा है ? ( कारण कभी-कभी ऐसा रेफ नहीं आता है । उदा०-- ) वासेण...... 'बद्ध । __आपद्-विपत्-संपदां द इः ॥ ४०॥ अपभ्रंशे आपद् विपद् सम्पद् इत्येतेषां दकारस्य इकारो भवति । अणउ करन्तहो पुरि सहो आवइ आवइ । विवइ । सम्पइ । प्रायोधिकारात् । गुणहि न सम्पय कित्ति पर ( ४.३३५.१ ) । अपभ्रंश भाषा में, आपद्, विपद् और संपद् इन ( शब्दों ) के (अन्त्य) दकार का इकार होता है। उदा.-अणउ....आवडविवइ; संपइ । प्रायः का अधिकार होने से (कभी-कभी इन शब्दों में अन्त्य दकार का इकार नहीं होता है । उदा०-) गुणहिँ..... पर। कथं यथातथां थादेरेमेहेधा डितः ॥ ४०१ ॥ अपभ्रंशे कथं यथा तथा इत्येतेषां थादेरवयवस्य प्रत्येक एम इम इह इध इत्येते डितश्चत्वार आदेशा भवन्ति । केम समप्पउ दुठ्ठ दिणु किध रयणी छुडु होइ । नव वहुदंसणलाल सउ वहइ मणोरह सोइ ॥१॥ ओ गोरीमुह निज्जि अउ वलि लुक्कु मियंकु । अन्नु वि जो परि हविय तणु सो किवें भवँइ निसंकु ॥ २ ॥ १. व्यासः महर्षिः एतद् भगति यदि श्रतिशास्त्रं प्रमाणम् । मातृणां चरणौ नमतां दिवसे दिवसे गंगास्नानम् ॥ २. व्यासेनापि भारतस्तम्भे बद्धम् । ३. क्रमसे:--अनयं कुर्वतः पुरुषस्य आपद् आयाति । विपद् । संपद् । ४. कथं समाप्यतां दुष्टं दिनं कथं रात्रिः शीघ्रं (छुड्ड) भवति । नववधूदर्शनलालसकः वहति मनोरथान् सोऽपि ॥ ५. ओ गौरीमुखनिजितक: वादले निलीनः मृगांकः । अन्योऽपि यः परिभूततनुः स कथं भ्रमति निःशंकम् ॥ Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८६ चतुर्थः पादः बिबाहर 'तणु रमवणु किह ठिउ सिरिभाणंद | निरुमर पिएं पिअवि जण सेसह दिण्णी मुद्द ॥ ३ ॥ 'सहि निहु अ तेवं मई जइ पिउ दिट्ठ सदोसु । जेवं न जाणइ मज्झ मणु पक्खावडिअ तासु ॥ ४ ॥ जिवँ जिवँ वं किम लोअहं । तिवँ तिवँ वम्महु निअयसर ( ४. ३४४. १ । । इँ जाणि प्रिय विरहिअहं क विधर होइ विभालि । नवर मिअंकु वितिह तवइ जिह दिणयरु खपगालि ॥ ५ ॥ एवं तिवजिधावुदाहायौं । अपभ्रंश भाषा में, कथं, यथा और तथा इन (शब्दों) के थादि अवयव को प्रत्येक को एम, इम, इह और इध ऐसे ये चार डित् आदेश होते हैं । उदा० - केम समप्पउ .....॥ १ से ४ ॥ तक । जिव जिव.. निअयसर; मई जाणिउ ... खयगालि ॥५॥ इसीप्रकार तिध और जिध ( आदेशों) के उदाहरण ले । याक - तारक- की गीदृशानां दादेर्डेहः ॥ ४०२ ॥ अपभ्रंशे यादृगादीनां दादेरवयवस्य डित् एह इत्यादेशो भवति । मई भणिअउ बलिराम तुहु केहउ मग्गण एहु । जेहु तेहु न वि होइ वड सरें नारायणु एहु ॥ १ ॥ अपभ्रंश भाषा में, यादृक् इत्यादि ( यानी याह, तादृक् कीदृक् और ईदृक् इन शब्दों ) के द-आदि ( यानी हक इस ) अवयव को डित् एह ऐसा आदेश होता है । उदा० -मई एहु ( ४.३७७.२ ) अतां डइसः ॥ ४०३ ॥ अपभ्रंशे यागादीनामदन्तानां यादृशतादृश कीदृशेदृशानां दादेरवयवस्य त् अइस इत्यादेशो भवति । जइसो । तइसो । कइसो । अइसो । अपभ्रंश भाषा में, अदन्त ( = अकारान्त ) यादृक् इत्यादि शब्दों के ( यानी ) १. बिम्बाधरे तन्व्याः रदनव्रणः कथं स्थितः श्रीआनन्द | निरुपमरसं प्रियेण पीत्वा इव शेषस्य दत्ता मुद्रा ॥ सदोषः । तस्य ॥ २. भण सखि निभृतकं तथा मयि यदि प्रियः दृष्टः यथा न जानाति मम मनः पक्षापति तं ३. मया भणित. बलिराजत्वं कीदृग् मार्गणः एषः । यादृक् तादृग् नापि भवति मूर्ख स्वयं नारायण एषः ॥ Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरणे २८७ यादृश, तादृश, कीदृश और ईदृश इन (शब्दों) के द-आदि (यानी दृश इस) अवयव को डित् अइस ऐसा आदेश होता है। उदा.---जइसो....'अइसो।। यत्रतत्रयोस्त्रस्य डिदेत्थ्यत्तु ।। ४०४ ।। अपभ्रंशे यत्र तत्र शब्दयोस्त्रस्य एत्थु अत्तु इत्येतौ डितौ भवतः । जइ' सो धडदि प्रयावदी केत्थु वि लेप्पिणु सिक्खु । जेत्थ वितेत्थु विएत्थु जगि भण तो तहि सारिक्खु ॥ १ ॥ जत्तु ठिदो । तत्तु ठिदो। अपभ्रंश भाषा में, यत्र और तत्र इम शब्दों में से त्र ( इस अवयव ) को डित् एत्थु और अत्त ऐसे ( आदेश ) होते हैं । उदा० जइसो.. .. सारिक्खु ॥ १ ॥; जत्तु" ""डिदो। एत्थु कुत्रात्रे ॥ ४०५ ॥ अपभ्रंशे कुत्र अत्र इत्येतयोस्त्र शब्दस्य डित् एत्थ इत्यादेशो भवति । केत्थ वि लेप्पिणु सिक्खु : जेत्थ वि तेत्थ वि एत्थ जगि ( ४.४०४.१ ) । अपभ्रंश भाषा में, कुत्र ओर अत्र इम शब्दों में से व शब्द को डित् एन्थु ऐसा आदेश होता है। उदा० --- केत्थु वि . . "एत्थु जगि । यावत्तावतोर्वादेर्म उं महिं ॥४०६ ॥ अपभ्रंशे यावत्तावदित्यव्ययोर्वकारादेरवयवस्य म उ महिं इत्येते त्रय आदेशा भवन्ति । जाम न निवडइ कुम्भयडि सहि चवेड चडक्क । ताम समत्तह मयगलहं पइ पइ वज्जइ ढक्क ॥ १॥ "तिलहँ लिलत्तणु ताउँ पर जाउँ न नेह गलन्ति । नेहि पणटठइ ते ज्जि तिल फिट वि खल होन्ति ॥ २॥ "जामहि विसमी कज्जगइ जीवह मज्झे एइ। तामहि अच्छउ इयरु जणु सुअणु वि अन्त: देइ ।। ३ ।। १. यदि स घटयति प्रजापतिः लात्वा शिक्षाम् । यत्रापि अत्र जगति भग तदा तस्याः सहक्षीम् ।। २. क्रम से :--यत्र स्थितः । तत्र स्थितः । ३. यावत् न निपतति कुम्भतटे सिंह चपेटा-चटात्कारः। __ तावत् समस्तानां मदकलानां ( गजानां ) पदे पदे ढक्का ॥ ४. तिलानां तिलत्वं तावत् परं यावत् न स्नेहा: गलन्ति । स्नेहे पनष्टे ते एव तिलाः तिला म्रष्ट्वा खलाः भवन्तिः ॥ ५. यावद् विषमा कायंगतिः जीवानां मध्ये आयाति । तावत् आस्तामितरः जनः सुजनोऽप्यन्तरं ददाति ।। Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८ चतुर्थः पादः अपभ्रंश भाषा में, यावत् और तावत् इन अव्ययों में से वकारादि (यानी वत् इत ) अवयव को म, उ, और महिं ऐसे ये तीन आदेश होते है। उदा०-जाम ....."णन्त रु देइ ॥ १। से ॥ ३ ॥ तक । वा यत्तदोतोबडः ॥ ४०७॥ अपभ्रंशे यद् तद् इत्येतयोरत्वन्तयोर्यावत्तावतोर्वकारादेरवयवस्य डित् एवड इत्यादेशो वा भवति । जेवड अन्तरु रावण रामहँ तेवड़ अन्तर पट्टणगामहँ । पक्षे । जेत्तुलो । तेत्तुलो। अपभ्रंश भाषा में, अतु प्रत्ययान्त यद् और तद् इनके ( यानी ) यावत् और तावत् इनके वकारादि ( यानी वत् इस ) अवयव को डित् एवड ऐसा आदेश विकल्प से होता है। उदा०--जेवडु... .. पट्टणगामह । ( विकल्प-) पक्षमें:-- जेत्तलो, तेत्तलो। वेदं किमोर्यादेः॥४०८ ॥ अपभ्रंशे इदम् किम् इत्येतयोरत्वन्तयोरियत् कियतोर्यकारादेरवयवस्य डित् एवड इत्यादेशो वा भवति । एवड़ अन्तरु। केवड़ अन्तरु । पक्षे। एत्तुलो । केत्तुलो। अपभ्रंश भाषा में, अत् प्रत्ययान्त इदम् और किम् इनके ( यानी) इयत् और कियत् इनके मकारादि ( यानी यत् इस ) अवयव को डित् एवड ऐसा आदेश विकल्प से होता है। उदा०- एवडु... ...अन्तरु । ( विकल्प-) पक्ष में :एत्तुलो केत्तलो। परस्परस्यादिरः ॥ ४०६॥ अपभ्रंशे परस्परस्यादिरकारो भवति । ते मुग्गडा हराविआ जे परिविट्ठा ताहं । अवरोप्पर जोहन्ताहं सामिउ गंजि उ जाहं ।। १॥ अपभ्रंश भाषा में, परस्पर ( इस शब्द ) के आदि ( = आरम्भ में ) अकार आता है । उदा०-ते मुग्गडा... .. 'जाहं ॥१॥ कादिस्थैदोतोरुच्चारलाधवम् ॥ ४१० ॥ अपभ्रंशे कादिषु व्यञ्जनेषु स्थितयोः रा ओ इत्येतयोरुच्चारणस्य लाघवं १. यावद् अन्तरं रावणरामयोः तावत् अन्तरं पट्टण ग्रामयोः । २. अन्तरम् । ३. ते मुद्गाः हारिताः ये परिविष्टाः तेषाम् । परस्परं युध्यमानानां स्वामी पीडितः येषाम् ।। Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरणे २८९ लाघवं प्रायो भवति । सूघे चिन्ति ज्जइ माणु ( ४.३९६.२)। तसु हउँ कलि जुगि दुल्लहों ( ४.३३८.१)। ___ अमनश भाषा में, इत्यादि व्यञ्जनों में स्थित रहने वाले ए और ओ इम ( स्वरों) का उच्चारण प्रायः लघु ( = ह्रस्व ) होता है। उदा०---सुधे... .. माण; तसु" "बुल्लहहो । पदान्ते उ-हु-हिं-हंकाराणाम् ॥ ४११ ॥ अपभ्रंशे पदान्ते वर्तमानानां उ हुं हिं हं इत्येतेषां उच्चारणस्य लाघवं प्रायो भवति । अन्नु जु तुच्छउँ तहें धणहे ( ४.३५०.१)। बलि किज्ज' सुअणस्सु ( ४.३२८.१ ) दइउ घडा वइ वणि तरु? ( ४.३४०.१ )। तरुहुँ वि वक्कलु ( ४.३४१.२ ) । खग्ग विसाहि उ जहिं लहह ( ४.३८६.१ )। तणहँ तइज्जी भंगि न वि ( ४.३३६.१ )। __ अपभ्रंश भाषा में, पद के अन्त में होने वाले उ, हु, हि और हं इनका उच्चारण प्रायः लघु होता है। उदा.--अन्नु... .. 'धणहे; बलि... .. "सअणस्म; द इ उ ... ... .."तरुहु; तरह वि वक्कल; खग्ग... ....... लहह तणहूँ " ... .. न वि। म्हो म्भो वा ॥ ४१२ ॥ अपभ्रंशे म्ह इत्यस्य स्थाने म्भ इति मकाराकान्तो मकारो वा भवति । म्ह इति पक्ष्मश्मष्मस्ममा म्हः ( २.:४ ) इति प्राकृतलक्षणविहितोत्र गृह्यते । संस्कृते तदसम्भवात् । गिम्भो। सिम्भा । बम्भ ते विरला के वि नर जे सव्वंगछइल्ल। जे वंका ते वश्चयर जे उज्जूअ ते बइल्ल ॥ १॥ अपभ्रंश भाषा में, म्ह के स्थान पर म्भ ऐसा मकार से युक्त भकार विकल्प से आता है। ( इस ) प्राकृत व्याकरण में 'पक्ष्म.' . म्हः' सूत्र से कहा हुआ म्ह यहाँ लिया है; कारण संस्कृत में ( ऐसा ) भह सम्भावना नहीं है। उदा०गिम्भो, सिम्भो; बम्भवे... ..'बल्ल ॥ १ ॥ १. क्रम से :- ग्रीष्म । श्लेष्मन् । २. ब्रह्मम् ते विरलाः केऽपि नराः ये सर्वाङ्गच्छेकाः । ये वक्ताः ते वञ्च ( क ) तरा: ये ऋजयः ते बलीवः ।। १९ प्रा व्या Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः पादः अन्यादृशोभाइसावराइसौ ॥ ४१३ ॥ अपभ्रंशे अन्यादृश-शब्दस्य अन्नाइस अवराइस इत्यादेशौ भवतः । अन्नाइसो । अवराइसो | I अपभ्रंश भाषा में, अन्याहश शब्द को अन्नाइस और अवराइस ऐसे आदेश होते हैं । उदा० - अन्नाइसो | अवराइसो । २९० प्रायसः प्राउ - प्राइव - प्राइम्व पग्गिम्वाः ॥ ४१४ ॥ अपभ्रंशे प्रायस् इत्येतस्य प्राउ प्राइव प्राइम्व पग्गिम्व इत्येते चत्वार आदेशा भवन्ति । 'अन्ने ते दीहर लोअण अन्नु तं भुअजुअलु अन्नु सु घण थण हारु तं अन्तु जि मुहकमलु । अन्नु जि केस लावु सु अन्तु जि प्राउ विहि जेण णि अम्बिणि घडिअ स गुण लायण्णणिहि ॥ १ ॥ प्राइव मुणिह वि भंतडी ते मणि अडा गणन्ति । अखइ निरामइ परमपई अज्ज वि लउ न लहन्ति ॥ २ ॥ अंजलें प्राइव गोरिअहे सहि उव्वत्ता नयणसर । ते संमुह संपेसिआ देति तिरिच्छी घत्त पर ॥ ३ ॥ एसी पिउ रूसे सुँ हउँ रुट्ठी मइँ अणुणेइ । पग्गिम्व ए इ मणोरहई दुक्करु दइउ करेइ ॥ ४ ॥ अपभ्रंश भाषा में, प्रायस् ( इस ) और परिगम्व ऐसे ये चार आदेश होते हैं । ॥ ४ ॥ तक । अव्यय को प्राउ, प्राइव, प्राइम्ब उदा० - अन्ने" 'करेइ ॥ १ ॥ से १. अन्ये ते दोघें लोचने अन्यत् तद् भुजयुगलम् अन्यः स घनस्तनभारः तद् अन्यदेव मुखकमलम् । अग्य एव केशकलापः सः अन्य एव प्रायो विधि: येन नितम्बिनी घटिता सा गुणलावण्यनिधिः ॥ २. प्रायो मुनीनामपि भ्रान्तिः ते मणीन् गणयन्ति । अक्षये निरामये परमपदे अद्यापि लयं न लभन्ते ॥ ३. अबुजलेन प्रायः गौर्याः सखि उद्वृत्ते नयनसरसी । ते सम्मुख सम्प्रेषिते दत्तः तिर्यग् घातं परम् ॥ ४. एष्यति प्रियः रोषिष्यामि अहं रुष्टां मां अनुनयति । प्रायः एतान् मनोरथान् दुष्करः दयितः कारयति । Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरणे वान्यथो नुः॥४१५॥ अपभ्रंशे अन्यथाशब्दस्य अनु इत्यादेशो वा भवति । विरहाणल' जालकरालिअउ पहिउ को वि बुडिवि ठिअउ। अनु सिसिरकालि सीअलजलहु धूमु कहन्तिउ उठ्ठि मउ ॥ १॥ पक्षे। अन्नह। अपभ्रंश भाषा में, अन्यथा शब्द को अनु ऐसा आदेश विकल्प से होता है। उदा०--विरहाणल.... ... .."उठ्ठि अउ ॥१॥ (विकल्प- ) पक्ष में :अन्नह । कुतसः कउ कहन्तिहु ॥ ४१६ ॥ अपभ्रंशे कुतः शब्दस्य कउ कहन्तिहु इत्यादेशौ भवतः । 'महु कन्तहो गुठ्ठि अहो कउ झम्पडा वलन्ति । अह रिउरुहिरें उल्हवइ अह अप्पणे न भन्ति ॥१॥ धूमु कहन्तिहु उठ्ठि अउ ( ४.४१५.१ )। अपभ्रंश भाषा में, कुतस् शब्द को क उ और कहन्ति हु ऐसे आदेश होते हैं। उदा०-महु.. ."'न भन्ति ॥ १॥ धूमु ''उट्ठिअउ । ततस्तदोस्तोः॥४१७॥ अपभ्रंशे ततस् तदा इत्येतयोस्तो इत्यादेशो भवति । जइ भग्गा पारक्कडा तो सहि मज्झु पिएण । अह भग्गा अम्हहं तणा तो तें मारि अडेण ॥ १॥ अपभ्रंश भाषा में, ततस् और तदा इन ( दो शब्दों ) को तो ऐसा आदेश होता है। उदा०-जइ भग्गा'.. .."मारिअडेण ॥१॥ एवं-परं-सम-ध्र वं-मा-मनाक एम्ब परसमाण ध्रवु मं मणाउं ॥ ४१८ ॥ अपभ्रशे एवमादोनां एम्वादय आदेशा भवन्ति । एवम एम्व। १. विरहानलज्वालाकरालितः पथिकः कोऽपि मक्त्वा स्थितः । अन्यथा शिशिरकाले शीतलजलात् धूमः कुतः उत्थितः ।। २. मम कान्तस्य गोष्ठस्थितस्य कुतः कुटीरकाणि ज्वलन्ति । ___ अप रिपुरुधिरेण माय ति ( विध्यापयति-टीका ' अथ आत्मना न भ्रान्तिः ।। ३. यह श्लोक पीछे आया हुआ ४.३७९.२ है । Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९२ चतुर्थः पादः पिय 'संगमि कउ निद्दडी पिअहो परो क्खहो केम्व । मई बिन्नि वि विनासिआ निद्दा न एम्ब न तेम्व ॥ १॥ परमः परः । गुणहि न संपइ कित्ति पर ( ४.३३५.१ ) । सममः समाणुः । कन्तु जु सोहहो' उवमि अइ तं मह खण्डिउ माण ! सीह निरक्खय गय हणइ पिउ पयरक्ख समाण ॥२॥ ध्र वमो ध्रुवुः । चञ्चलु जीविउ ध्रु वु मरण पिअ रूसिज्जइ काई। हो सहि दिअहा रूसणा दि व्वइँ वरिस-सयाई ॥३॥ मोमं । मं धणि करहि विसाउ ( ४.३८५.१ ) । प्रायोग्रहणात् । माणि पणठ्ठइ जइ न तण तो देसडा चइज्ज । मा दुज्जण करपल्लवे हिं दंसिज्जन्तु भमिज्ज ॥ ४ ॥ लोणु' विलिज्जइ पाणिएँण अरि खल मेह म गज्जु । वालिउ गलइ सु झंपडा गोरि तिम्मइ अज्ज ।। ५ ॥ मनाको मणाउं। विहवि पणइ वंकुडउ रिद्धिहि जण सामन्नु । किं पि मगाउ महु पिअहो ससि अणु हरइ न अग्नु ॥ ६॥ अपभ्रंश भाषा में, एवं इत्यादि ( यानी एवम्, परम् समम्, ध्रुवम्, मा और मनाक इन ) शब्दों को १म्ब इत्यादि (यानी एम्ब, पर, समाणु, ध्रुवु, मं और मणा) १. प्रियसंगमे कुतो निद्रा प्रियस्य परोक्षस्य कथम् । __ मया द्वे अपि विनाशिते निद्रा न एवं न तथा ।। २. कान्तः यत् सिंहेन उपमीयते तन्मम खण्डितः मानः । सिंहः नीरक्षकान् गजान हन्ति प्रियः पदरक्षः समम् ।। ३. चञ्चलं जीवितं ध्रुवं मरणं प्रिय रुष्यते किम् । भविष्यत्ति दिवसा रोषयुक्ताः ( रूसणा) दिव्यानि वर्षशतानि ।। ४. माने प्रनष्टे यदि न तनुः ततः देशं त्यजेः । मा दुर्जनकरपल्लवैः दश्यमानः भ्रमेः ॥ ५. लवणं विलीयते पानीयेन अरे खल मेध मा गर्ज । ज्वलितं गलति तत् कुटीरकं गौरी तिम्यति अद्य ।। ६. विभवे प्रनष्टे बकः ऋद्धौ जनसामान्यः । किमपि मनाक् मम प्रियस्य शशी अनुसरति मान्यः । Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरणे कन्तु "समाणु ॥ २ ॥ मा ( शब्द ) को मं ( आदेश ):- मं धणि ऐसे आदेश होते हैं । उदा० -- एवम् को एम्व ( आदेश ) - पियसंग मि परम् को पर ( आदेश ) : - गुगहिँ " .......पर | समम् को समाणु ( ध्रुवम् को ध्रुवु ( आदेश ) : - चञ्चलु "विमाउ । प्रायः का ग्रहण (अधिकार) अथवा मा वैसा ही रहता है अज्जु || ५ || मनाक् को मणाउं होने से, ( कभी मा उदा०- ) माणि... को म ऐसा आदेश होता है 'भमिज्ज || ४ || लोण ( आदेश ) : - विहविन अन्तु ॥ ६ ॥ किलाथवा दिवासहनहे: किराहवइ दिवे सहु नाहिं ।। ४१९ ।। अपभ्रंशे किलादीनां किरादय आदेशा भवन्ति । किलस्य किरः । किर' न खाइ न पिअइ न विद्दवइ धम्मि न वेच्चइ रूअडउ । इह किवणु न जाणइ जह जमहो खर्णेण पहुच्चइ दूअडउ ॥ १ ॥ अथवो हवइ | अहवइ' न सुवं सह एह खोडि । प्रायोधिकारात् । जाइ इ तर्हि देसडइ लब्भइ पियहों पमाणु । जइ आवइता आणि अइ अहवा तं जि निवाण ॥ २ ॥ दिवो दिवे । दिवि दिव गंगाहाणु ॥ ( ४.३६६.१ ) । सहस्य हुं । जउ 'पवसन्तें सहुं न गय ग मुअ विओएँ तस्सु । लज्ज ज्जइ सन्देसडा दिन्तंहि सुहयजणस्सु ॥ ३ ॥ नहेर्नाह । Q तेम्ब] ॥ १ ॥ आदेश ) :सयाई ॥ ३ ॥ २९३ मेह' प अंति जलु एत्तहे' वडवानल आवट्टइ । क्खु गहीरम सायरहो एक्क विकणि अ नाहि ओहट्टइ ॥ ४ ॥ १. किल न खादति न पिबति न विद्रवति धर्मे न व्ययति रूपकम् । इह कृपणो न जानाति यथा यमस्य क्षणेन प्रभवति दूतः ॥ २. = अथवा न सुवंशानां एष दोषः । ३. यायते ( गम्यते) तस्मिन् देशे लभ्यते प्रियस्य प्रमाणम् । यदि आगच्छति तदा आनीयते अथवा तत्रैव निर्वाणम् ॥ ४. यतः प्रवसना सहनगता न मृता वियोगेन तस्य । लज्ज्यते संदेशान् ददतीभि: ( अस्माभिः ) सुभगजनस्य || ५. इत: मेधाः पिबन्ति जलं इतः वडवानलः आवर्तते । प्रेक्षस्व गभीरिमाणं सागरस्य एकापि कणिका नहि अपभ्रश्यते ॥ Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९४ चतुर्थः पादः अपभ्रंश भाषा में, किल इत्यादि ( शब्दों ) को ( मानी किक अपवा दिवा, सह, और नहि इनको ) किर इत्यादि ( यामी किर, अहवइ, दिवे, सहुँ और नाहिं ऐसे ) आदेश होते हैं । उदा०-किल को किर ( आदेश ):-किर न .."अडउ ॥ १ ॥ अथवा को अहवइ (भादेश ):-अहवइ......'खोहि ॥ प्रायः का अधिकार होने से ( अथवा शब्द का कभी अहवा ऐसा भी वर्णान्तर होता है । उदा०-) जाइज्जइ... निवाण ॥ २ ॥ दिवा को दिवे ( आदेश ):-दिवि........ पहाण । सह को सहूँ ( आदेश ):-जउ पवसंत......'जणस्सु ॥३॥ नहि को नाहिं ( आदेश ):-एत्तहे... बोहट्टइ ॥ ४॥ एम्वहिं पच्चालिउ एत्तहे ॥ ४२० ॥ अपभ्रशे पश्चादादीनां पच्छइ इत्यादय आदेशा भवन्ति । पश्चातः पच्छइ। पच्छइ होइ विहाणु ( ४.३६२.१ ) । एवमेवस्य एम्वइ । एम्वइ सुरउ समत्तु ( ४.३३२.२)। एषस्य जिः। जाउ म जन्तउ पल्लवह देक्खउँ कइ पय देइ। हि अइ तिरच्छी हउँ जि पर पिउ डम्बरई करेइ ॥१॥ इदानीम एम्वहिं। हरि नच्चाविउ पंगणइ विम्हइ पाडिउ कोउ। एम्वहिं राहप ओहरहं जं भावइ तं होउ ॥ २ ॥ प्रत्युतस्य पञ्चलिउ। सावस लोणी गोरडी नवखी कवि विसगण्ठि । भडु पञ्चलिउ सोमरइ जासु न लग्गइ कण्ठि ॥ ३ ॥ इतस एत्तहे । एत्तहे मेह पिअन्ति जलु ( ४.४१६.४ )। अपभ्रंश भाषा में, प्रश्चात् इत्यादि ( यानी पश्चात्, एवमेव, एव, इदानीम्, प्रत्युत और इतस् इन मन्दों ) को पच्छइ इत्यादि ( यानी पच्छइ, एम्वइ, नि, एम्वहि, पञ्चलिउ और एतहे ऐसे ये) आदेश होते हैं । उदा०-पश्चात् को पच्छइ (आदेश):पच्छा ....."विहाण । एवमेव को एम्वइ ( आदेश ):-एम्बइ"...समत्त । एष को १. यातु मा मान्तं पल्लवत द्रक्ष्यामि कति पदानि ददाति । हृदये तिरश्चीना बहमेव परं प्रियः आडम्बराणि करोति ॥ २. हरिः नर्तितः प्राङ्गणे विस्मये पातितः लोकः । ___ इदानीं राधापयोधरयोः यत् (प्रति ) भाति तद् भवतु ॥ ३. सर्वसलावण्या गौरी नवा कापि विषग्रन्थिः । भटः प्रत्युत स म्रियते यस्य न लगति कण्ठे । Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरण २९५ नि ( आदेश ):--जाउ...' 'करेइ ॥ १ ॥ इदानीम् को एम्वहिं (नादेश):--हरि.. होउ ॥ २॥ प्रत्युत को पच्चलिउ (आदेश):-सावसलोपी...'कण्ठि ॥३॥ इतस् को एत्तहे (मादेश):-एत्तहे ... जलु । विषण्णोक्तवत्मनो बुन-वुत्त-विच्चं ॥ ४२१॥ अपभ्रंशे विषण्णादीनां वुन्नादय आदेशा भवन्ति । विषण्णस्य वुन्नः । मई वुत्तउँ तुहुधुरु धरहि कसरे हिं विगुत्ताई। पई विण धवल न चडइ भरु एम्वइ बुन्नउ काई॥१॥ उक्तस्य वुत्तः । मइँ वुत्तउ ( ४.४२१.१ )। वर्त्मनो विचः । जें मणु विच्चि न माइ ( ४.३५०.१) । अपभ्रंश भाषा में, विषण्ण इत्यादि ( यानी विषण्ण, उक्त और वर्मन् इन शब्दों) को बुन्न इत्यादि ( यानी वुन्न, वुत्त और विच्च ऐसे ) आदेश होते हैं। उदा.विषण्ण को वुन्न ( आदेश):-मई....'काइं ॥ १ ॥ उक्तको वुत्त ( आदेश ):-मई वुतउं । वमन को विच्च (आदेश):-जेमणु..."माइ । शीघ्रादीनां वहिल्लादयः॥ ४२२॥ अपभ्रशे शीघ्रादीनां वहिल्लादय आदेशा भवन्ति । ( शीघ्रस्य वहिल्लः । ) एक्कु कइअह वि न आवही अन्नु वहिल्लउ जाहि । मई मित्तडा प्रमाणि अउ पइँ जेहउ खलु नाहिं ॥१॥ झकटस्य घंघलः। जिवे सुपुरिस तिवं धंघलई जिवं नइ तिवं वलणाई। जिवं डोंगर तिवं कोट्टरई हिआ विसूरहि काई॥२॥ अस्पृश्य संसर्गस्य विट्टालः । १. मया उक्तं त्वं धुरं धरगलिवृषभः (कसरेहि) विनाटिताः । त्वया विना धवल नारोहति भरः इदानी विषण्णः किम् ॥ २. एक कदापि नागच्छसि अन्यत् शीघ्रं यासि । मया मित्रप्रमाणितः त्वया यादृशः (त्वं यथा) खलः नहि ॥ ३. यथा सत्पुरुषाः तथा कलहाः यथा नद्यः तथा वलनानि । यथा पर्वताः तथा कोटराणि हृदय खिद्यसे किम् ॥ Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९६ चतुर्थः पादः जे छड्डेविणु रयणनिहि अप्पर तडि धल्लन्ति । तह संखहं विद्वालु परु फुषिक ज्जन्त भमन्ति ॥ ३ ॥ भयस्य द्रवक्कः । दिवे हि विदत्त 'उ खाहि वढ संचि म एक्कु वि द्रम्मु । को विद्रवकउ उ सो पडइ जे जेण समप्पइ जम्मु ॥ ४ ॥ दृष्टे हिः । एकमेकर" जइ विजोएदि हरि सुट्ठ सव्वायरेण । तो वह जहिं कहिं वि राही । को सक्कइ संयवि दड्ढनयणा नेहि पलुट्टा || ५ ॥ गाढस्य निच्चट्टः । विहवे' कस्सु थिरत्तणउ जोव्वणि कस्स मरट्टु | सो लेखडड पठावि अइ जो लग्गइ निच्चट्टु ॥ ६ ॥ साधारणस्य सड्ढलः । कहि" ससहरु कहिँ मगरहरु कहि बरिडिणु कहिं मेहु । दूरठिआहँ विसज्जणहं होइ असड्ढलु हु ॥ ७ ॥ कौतुकस्य कोडुः । कुरु' अन्न तरु अरहं कुड्डेण धल्लइ हत्थु । एक् सलइहि जइ पुच्छह परमत्थु ॥ ८ ॥ १. ये मुक्तबा रत्ननिधि आत्मानं तटे क्षिपन्ति । तेषां शंखानां अस्पृश्य संसर्गः केवलं फुत्क्रियमाणाः भ्रमन्ति ॥ मूर्खसंचिनु मा एकमपि द्रम्मम् । पतति येन समाप्यते जन्म २. दिवसः अर्जितं खाद किमपि भयं तत् ३. एकैकं यद्यपि पश्यति हरि सुष्ठु सर्वादरेण । तदापि ( तथापि ) दृष्टिः यत्र कः शक्नोति संवतुं दग्धनयने ४. विभवे कस्य स्थिरत्वं यौवने कस्य गर्वः । स लेखः प्रस्थाप्यते यः लगति गाडम् ॥ क्वापि राधा | स्नेहेन पर्यस्ते ॥ ५. कुत्र शशधरः कुत्र मकरधरः कुत्र बहीं कुत्र दूरस्थितानामपि सज्जनानां भवति असाधारणः ६. कुकुर: भम्येषु तरुवरेषु कौतुकेन घर्षाति मनः पुनः एकस्यां सल्लक्यां यदि पृच्छथ मेघः । स्नेहः ॥ हस्तम् । परमार्थम् ॥ Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरणे २९७ क्रीडायाः खेड्डः । खेड्डयं कयम म्हेहिं निच्छयं कि पयम्पह । अणुरत्ताउ भत्ताउ अम्हे मा चय सामिअ ॥६॥ रम्यस्य खण्णः । सरिहि न सरे हि न सरवरें हि न वि उज्जाण वणेहि। . देस रचण्णा होन्ति वढ नि वसन्तेहि सुअणेहिं ॥ १० ॥ अद्भुतस्य ढक्करिः। हि अडा' पई ऍहु बोल्लि अउ महु अग्गइ सयंवार। फुट्टि सुं पिए पवसन्ति हउँ भण्डय ढक्करि सार ॥ ११॥ हे सखीत्यस्य हेल्लिः। हेल्लि म झंखहि आलु । ( ४.३७९.१ )। पृथक् पृथगित्यस्य जुनं जुः । एक्क कुडुल्ली पंचहि रुद्धी तहँ पंचहँ वि जुअं जुअ बुद्धी। बहिणुए तं धरु कहि किवं नंद उ जेत्थु कुडम्बउ अप्पण छन्द ॥१२॥ मूढस्य नालिअ-वढौ। जो पुणु" मणि जिखसफसिह अउ चितइ देइ न द्रम्मु न रूअउ । रइवसभमिरु करग्गुल्लालिउ धरहि जि कों तु गुणइ सो नालिउ ॥१३॥ १. क्रीडा कृता अस्माभिः निश्चयं कि प्रजल्पत । भनुरक्ताः भक्ताः अस्मान् मा त्यज स्वामिन् ॥ २. सरिद्भिः न सरोभिः न सरोवरैः नापि उद्यानवनः । देशाः रम्भाः भवन्ति मूर्ख निवसद्भिः सुजनः । ३. हृदय त्वया एतद् उक्तं मम अग्रतः शतवारम् । स्फुटिष्यामि प्रियेण प्रवसता ( सह ) अहं भण्ड अद्भुतसार ॥ ४. एका कुटी पञ्चभिः रुद्धा तेषां पञ्चानामपि पृथक-पृथक् बुद्धिः । भगिनि तद् गृहं कथय कथं नन्दतु यत्र कुटुम्ब आत्मच्छन्दकम् ॥ ५. यः पुनः मनस्येव व्याकुलीभूतः चिन्तयति ददाति न द्रम्मं न रूपकम् । रतिवशभ्रमणशीलः कराग्रोल्लालितं गृहे एव कुन्तं गणयति स मूढः ॥ Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः पादः दिजे हि वढत्तउ खाहि वढ ( ४.४२२.४ ) । नवस्य नवरवः । नवरवी कवि विसगढि ( ४.४२०.३ ) । अवस्कन्दस्य दडवडः । २९८ 'चलेहिं चलन्तेहि" लोअणे हि जे तई दिट्ठा बालि । तहि मयरद्धय दडवडउ पडइ अपूरइ कालि ॥ १४ ॥ यदेश्छुः । छ्ड अग्घइ ववसाउ ( ४.३८५.१ ) । सम्बन्धिनः केर-तणौ । गयउ सु के सरि पिअ जलु निच्चित्तइ हरिणाई | जसु केरऍ हुंकार डएं मुहहुँ पडन्ति तृणाई ॥ १५ ॥ अह भग्गा अम्ह हं तणा ( ४.३७६.२ ) । मा भैषीरित्यस्य मब्भीसेति स्त्रीलिङ्गम् । सत्यावत्थर्हं आलवणु साहु वि लोउ करेइ | आदन्नहँ मब्भीसडी जो सज्जणु सो देइ ॥ १६॥ यद् यद् दृष्टं तत्तदित्यस्य जाइट्ठिआ । जइ - रच्चसि जाइट्ठिअए हिअडा मुद्धसहाव । लोहें फुट्टणएण जिवँ घणा सहे सइ ताव ॥ १७ ॥ अपभ्रंश भाषा में, शीघ्र इत्यादि शब्दों को वल्लि' इत्यादि मादेश होते 1 उदा०. -( शीघ्र को वहिल्ल ऐसा आदेश ): - एक्कु माहि ॥१॥ झकटको घंघल ( आदेश ) :- जिवं.. ...काई ||२|| अस्पृश्य संसर्ग ( शब्द ) को विट्टाल ( आदेश ):जे छड्डेबिणु··· भमन्ति ॥ ३ ॥ भय को द्रबक्क ( आदेश ) :- दिवे हिँ जम्मु ॥४॥ आत्मीय को अपण ( मादेश ) : - फोडेन्ति अप्पणउँ । दृष्टि ( शब्द ) को देहिं ( आदेश ) : - एक्क मेक्कटं वलुट्टा ॥५॥ गाढ ( शब्द ) को निच्चट्ट ( आदेश ) : १. चलायां चलद्द्भ्यां लोचनाभ्यां ये त्वया दृष्टाः बाले । तेषु मकरध्वजावस्कन्दः पतति अपूर्ण काळे ॥ २. गतः स केसरी पिबत जलं निश्चिन्तं (निश्चितं ) हरिणाः । यस्य संबंधिना हुँकारेण मुखेभ्यः पतन्ति तृणानि ॥ ३. स्वस्थावस्थानां आलपनं सर्वोऽपि लोकः करोति । आर्तानां मा भैषी: ( इति ) यः सज्जनः स ददाति ॥ ४. यदि राज्यसे यद् यद् दृष्टं तस्मिन् हृदयभुग्धस्वभाव | लोहेन स्फुटता यथा घनः (= तापः ) सहिष्यते तावत् ॥ ये शब्द आगे दिए गए हैं । ५. Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरणे २९९ विहवे. निच्च? ॥६॥ साधारण (शब्द) को सड्ढल (आदेश):-कहि 'नेहु ।।७।। कौतुक (शब्द) को कोड्स (आदेश):-कुअरु ...."परमत्थु ॥८॥ क्रीडा ( शब्द ) को खेड (आदेश ):-खेड्डयं "सामि ॥९॥ रम्य ( शब्द ) को खण्ण ( आदेश ):सरिहिं . सुमहि ॥१०॥ अद्भुत (शब्द) को ढक्करि (आदेश):-हिअडा....... ढक्करिसार ॥११। हे सखि (इन शब्दों) को हेल्लि (आदेश):-हेल्लि....."आल । पृथक्-पृथक् (इन शब्दों) को जुअंजुअ (मादेश):-एक्क कुडुल्ली.....'छन्दउँ ॥१२॥ (बब्द ) को नालिअ और बड ( ऐसे दो आदेश ):-जो पुण.....'नालिउ ।। १३ ॥ दिवे हिं....."वढ ।। नव (शब्द) को नक्स ( आदेश ):--नवखी..... विसगण्ठि ॥ अवस्कंद (शब्द) को दडवड (आदेश):-घले हिँ...""कालि ॥ ४॥ यदि (शन्द को छडु ( आदेश ):-छुड्डु ...."ववसाउ ॥ संबंधिन् ( शब्द ) को केर और तण ( ऐसे दो आदेश ):-गयउ...' 'तृणाई ॥१५।। अह.... तणा ।। मा भैषीः ( इन शब्दों) को मन्मीसा ऐसा स्त्रीलिंगी शब्द ( आदेश होता है ):--मत्थावत्यह....."देइ ॥ १६ ॥ पद् यद् दृष्टं तद् तद् (इस शब्द समूह) को जाइट्ठिआ (आदेश):-जइ रच्चसि...." ताव ॥१७॥ हुहुरुधुग्धादयः शब्दचेष्टानुकरणयोः ॥ ४२३ ॥ अपभ्रंशे हुहुर्वादयः शब्दानुकरणे धुग्धादयश्चेष्टानुकरणे यथासंख्यं प्रयोक्तव्याः । मइँ जाणिउ बुड्डीसु हउँ-पेम्मद्रहि हहुरूत्ति । नवरि अचिन्तिय संपडिय विप्पियनाव झड त्ति ॥ १॥ आदि हयान् । खज्जइ नहि कसरक्के हिं पिज्जइ नउ घुण्टेहिं । एम्वइ होइ सुहच्छदी पिएँ दिठे नयणोहिं ॥ २ ॥ इत्यादि । अज्ज वि नाहु महु ज्जि घरे सिद्धत्था वंदेइ । ताउँजि विरहु गवक्खे हि मक्कड-घुग्घिउ देइ ॥३॥ आदि ग्रहणात्। १. मया ज्ञातं मझ्यामि अहं प्रेमहदे हुहुरुशब्दं कृत्वा । केवलं मचिन्तिता संपतिता विप्रय-नौः झटिति ।। २. स्वायते नहि कसरत्काबन्दं कृत्वा पीयते न तु घुट् शब्दं कृत्वा । एवमेव भवति सुखासिका प्रिये दृष्टे नयनाम्याम् ।। ३. मद्यापि मायः मम एव गहे सिदार्थान् वदन्ते । ताबदेष विरहः गवाक्षेषु मर्कटचेष्टां ददाति ॥ Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः पादः सिरि जर खण्डी लोअडी गलि मणियडा न वीस । तो वि गोठडा कराविआ मुद्धएँ उट्ठबईस ॥ ४ ॥ इत्यादि । अपभ्रंश भाषा में, हुहुरु इत्यादि । शब्द ) शब्दानुकरण दिखाने के लिए, और धुग्ध इत्यादि ( शब्द ) चेष्टानुकरण दिखाने के लिए अनुक्रम से प्रयुक्त करे । उदा०-- मई....."झडत्ति ।।१।। ( सूत्र में ) आदि शब्दों के निर्देश के कारण ( इस प्रकार के अन्य शब्दानुकारी शब्द जानना है । उदा०-- ) खज्जइ.....'नयणोहि ॥ २ ॥ इत्यादि । (धुग्ध का उदाहरण ):--अज्जवि .''देइ ।।३।। (सूत्र में) आदि शब्द के निर्देश के कारण ( इती प्रकार के अन्य चेष्टानुकरणी शब्द जानना है। उदा०-- ) सिरि...'' उट्ठबईस ॥४॥ इत्यादि । धइमादयोनर्थकाः ॥ ४२४ ॥ अपभ्रंशे घइमित्यादयो निपाता अनर्थकाः प्रयुज्यन्ते । अम्मडि पच्छायावडा पिउ कलहि अउ विआलि । घई विवरीरी बुद्धडी होइ विणासहो कालि ॥ १ ॥ आदिग्रहणात् खाई इत्यादयः । अपभ्रंश भाषा में, घई इत्यादि निपात निरर्थक ( विशेष अर्थ अभिप्रेत न होते) प्रयुक्त किए जाते हैं। उदा. --अम्महि... कालि ॥१॥ ( सूत्र में ) आदि शब्द के निर्देष के कारण खाई इत्यादि शब्द भी ( निरर्थक प्रयुक्त किए जाते हैं ऐसा जानना है)। तादर्ये केहि-तेहि-रेसि-रेसिं-तणेणाः॥ ४२५ ॥ अपभ्रंशे तादर्से द्योत्ये केहि तेहिं रेसि रेसिं तणेण इत्येते पञ्च निपाताः प्रयोक्तव्याः । ढोल्ला ऍह परिहासडी अइ भण कवणहि देसि । हउँ झिज्जङ तउ केहि पिअ तुहुँ पुणु अन्नहि रेसि ॥ १ ॥ एवं तेहि-रेसिभावुदाहायौं । वड्डत्तणहों तणेम (४.३६६.१) । १. शिरसि जराखण्डिता लोमपुटी (कम्बल) गले मणयः म विंशतिः । ततः अपि (तथापि) गोष्ठस्थाः कारिताः मुग्धया उत्थानोपवेशनम् ।। २. अम्ब पश्चात्तापः प्रियः कलहायितः विकाले । घई (नून) विपरीता बुद्धिः भवति विनाशस्य काले ।। ३. विट एष परिहास: अथि भण कस्मिन् देशे। अहं क्षीणा तव कृते प्रिय त्वं पुनः अन्यस्याः कृते ।। Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरण अपभ्रंश भाषा में, तादयं ( = उसके लिए ऐसा अर्थ ) दिखाने के समय केहि, तेहि, रेसि, रेसिं और तणेण ये पांच निपात प्रयुक्त करे । उदा०-ढोल्ला' रेसि ॥१॥ इसी प्रकार तेहिं और रेसिं इनके उदाहरण ले । ( तणेण का उदाहरण ):-- बड्डतण्हों तणेण। पुनर्विनः स्वार्थे डुः ॥ ४२६ ॥ अपभ्रशे पुनर्विना इत्येताभ्यां परः स्वार्थे डुः प्रत्ययो भवति । सुमरिज्जइ तं बल्लहउँ जं वीसरइ मणाउँ । जहि पुणु सुमरणु जाउ गउतहों नेहहो कई नाउँ ॥ १ ॥ विणु जुज्झें न वलाहु । ( ४.३८६.१ ) । अपभ्रंश भाषा में, पुनर् ( पुनः ) और बिना इनके आगे स्वार्थे डित् उ प्रत्यय आता है । उदा.---सुमरिज्जइ..."नाउँ ।।१।।, विणु... 'वलाहुँ ॥ अवश्यमो डें-डौ ।। ४२७ ॥ अपभ्रंशे वश्यमः स्वार्थे डें ड इत्येतौ प्रत्ययो भवतः । जिब्भिन्दिउ नायगु वसि करह जसू अधिन्नई अन्नई। मूलि विणलइ तंबिणिहे अवसे सुक्कहिं पण्णइं ॥१॥ अवस न सुअहिं सुहाच्छ अहिं ( ४.५७६.२ )। अपभ्रंश भाषा में, अवश्यम् ( शब्द ) को स्वार्थे डित् ए और डित् अ ऐसे प्रत्यय लगते हैं । उदा -जिब्भिन्दि उ...' पण्णई ॥१॥; अवस..सुहच्छि अहिं ।। एकशसो डिः ॥ ४२८ ।। अपभ्रंशे एकशश्शब्दात् स्वार्थे डिर्भवति । एक्कसि सोलकलं किअहं देज्जहि पच्छित्ताई। जो पुणु खण्डइ अणुदि अहु तसु पच्छित्ते काई ॥ १ ॥ अपभ्रंश भाषा में, एकशस् ( शब्द ) के आगे स्वार्थे डि ( = डित् इ) प्रत्यय आता है । उदा.--एक्कास...."काई ॥१॥ १. स्मर्यते तद् वल्लभं यद् विस्मयते मनाक् । यस्थ पुनः स्मरणं जातं गतं तस्य स्नेहस्य कि नाम ।। २. जिह्वन्द्रियं नायकं वशे कुरुत यस्य अधीमानि अन्यानि । मूले विनष्टे तुम्बिन्याः अवश्यं शुष्यन्ति पर्णानि ।। ३. एकशः शोलकलंकिनानां दीयन्ते प्रायश्चित्तानि । यः पुनः खण्डयति अनुदिवसं तस्य प्रायश्चित्तेन किम् ॥ Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०२ चतुर्थः पादः अडडडुल्लाः स्वाथिक-कलुक् च ।। ४२९ ॥ अपभ्रंशे नाम्नः परतः स्वार्थे अडड डुल्ल इत्येते त्रयः प्रत्ययाः भवन्ति तत्सन्नियोगे स्वाथें कप्रत्ययस्य लोपश्च । विरहाण' लजालकरालिअउ पहिउ पंथिज दिउ । तं मेलविसव्वहिं पंथिअहिं सो जि किअउ अग्गिट्ठउ ॥ १ ॥ डड। महु कन्तहो बेदोसडा ( ४.३७१.१ ) । डुल्ल । एक्क कुडुल्ली पञ्चहि. पद्धी ( ४.४२२.१२)। अपनी भाषा में, संज्ञा के आगे स्वार्थे अ, डह ( डिन् अड ) और डुल्ल ( हित् उल्ल) ऐसे ये तीन प्रत्यय आते हैं, और उनके सानिध्य मे स्वार्थ क (प्रत्यय ) का लोप होता है। उदा०-( अ प्रत्यय का उदाहरण ):-विरहाणल."अग्गिट्टर ॥१॥ डर (=अड) (प्रत्यय का उदाहरण):-महु..."दोसडा ।। डल्ल (= उल्ल) ( प्रत्यय का उदाहरण ):-एक्क...... "रुद्धौ । योगजाश्चैषाम् ॥ ४३० ॥ अपभ्रंशे अडडडुल्लानां योगभेदेभ्यो ये जायन्ते डडअ इत्यादयः प्रत्ययास्तेपि स्वार्थे प्रायो भवन्ति । डडअ। फोडेन्ति जे हिडउँ अप्पण' ( ४.३४०.२)। अत्र किसलय" ( १.२६६ ) इत्यादिना य-लुक । डल्लअ । चल्लउ चुन्नी होइसइ ( ४.३६५.२)। डुल्लडड। सामिप' सलज्जु पिउ सीमासन्धिहि वासु । पेक्खिवि वाहबलुल्लडा धण मेल्लइ नीसासु ॥१॥ अत्रामि स्यादौ दीर्घहस्वौ ( ४.३३० ) इति दीर्घः । एवं बाहुबुलडउ । अत्र त्रयाणां योगः। अपम्रश भाषा में, अ, डड ( डित् अड ) और उल्ल (हित् उल्ल ) इनके भिन्नभिन्न ( ऐसे परस्पर-) संयोग से बने हुए जे डित् अडअ (डडअ) इत्यादि प्रत्यय होते हैं, वे भी प्रायः स्वार्थ ( प्रत्यय ) होते हैं। उदाहरणार्थ:---डडम ( प्रत्यय ):फोडेन्ति..... अप्पणउँ, यहां ( = इस उदाहरण में ) "किसलय' इत्यादि सूत्रानुसार (हृदय शब्द में से) य का लोप हुआ है । डुल्लम (उल्लम):-चूडुल्लउ चुन्नीहोइसइ । १. विरहानलज्वालाकरालितः पथिकः पथि यद् दृष्टः । तद् मिलित्वा सर्वै. पथिकैः स एव कृतः अग्निष्ठः ।। २. स्वामिप्रसादं सलज्जं प्रियं सीमासन्धौ वासम् । प्रेक्ष्य बाहुबलकं धन्या मुञ्चति निश्वासम् ॥ Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरणे हुल्लडड (उल्लअड) - सामिपसाउ "नोसासु ॥ १ ॥ ; यहाँ ( = इस उदाहरण में), ( बाहुबलुल्ला शब्द में ), 'स्यादौ दीर्घ ह्रस्वो' सूत्र के अनुसार, द्वितीया एक वचन में ( अन्त्य ह्रस्व स्वर का ) दीर्घस्वर हुआ है । - बाहु-बलुल्लडड ( ऐसा भी होगा ); यहाँ ( = इस शब्द में ) ( उल्ल, अड और अ इन ) तीनों प्रत्ययों का संयोग है । इसी प्रकार स्त्रियां तदन्ताड्डीः || ४३१ ॥ अपभ्रंशे स्त्रियां वर्तमानेभ्यः प्राक्तन - सूत्र - द्वयोक्त-प्रत्ययान्तेभ्यो डीः प्रत्ययो भवति । पहिआ। दिट्ठी गोरडी दिट्ठी मग्गु निअंत | अंसूसासे हि कञ्चुआ तिन्तुव्वाण करन्त ॥ १ ॥ एक्क कुडल्ली पहि" रुद्धी ( ४.३७१.१ ) । अपभ्रंश भाषा में, पीछले दो सूत्रों में ( = ४२९-४३० में ) कहे हुए प्रत्ययों से अन्त होनेवाले ( और ) स्त्रीलिंग में होनेवाले शब्दों के आगे डित् ई प्रत्यक्ष आता है । उदा० - पहिआ ....करन्त ॥१॥; एक्क " रुद्धी । आन्तान्ताड्डाः ।। ४३२ ॥ ३०३ अपभ्रंशे स्त्रियां वर्तमानादप्रत्ययान्तप्रत्ययान्तात् हा प्रत्ययो भवति । ड्यपवादः । पिउ आइउ सुअ वत्तडी झुणि कन्नडइ पइट्ठ । तहो" विरहो नासन्तअहो धूलडिआ वि न दिट्ठ ॥ १ ॥ अपभ्रंश भाषा में, प्रत्ययों से अन्त होनेवाले अथवा प्रत्ययों से अन्त न होनेवाले (तथा) स्त्रीलिंग में होनेवाले शब्दों के आगे डित् आ (डा) प्रत्यय आता है । (स्त्रीलिंग में होनेवाली संज्ञाओं को ) डित् ई ( डी ) प्रत्यय लगता है ( सूत्र ४४३१ देखिए ) इस नियम का अपवाद प्रस्तुत नियम है । उदा० – पिउ आइउन दिट्ठ ॥१॥ अस्येदे ।। ४३३ ।। अपभ्रंशे स्त्रियां वर्तमानस्य नाम्नो यो कारस्तस्य आकारे प्रत्यये परे इकारो भवति । धूलडिआ वि न दिट्ठ ( ४.४३२.१ ) । स्त्रियामित्येव । झुणि कन्नडइ पइट्ठ ( ४.४३२.१ ) । १. पथिक दृष्टा गौरी EST मार्गमवलोकयन्ती । अश्रूच्छ्वासैः कञ्चुकं तिमितोद्वानं (= आर्द्रशुष्कं ) कुर्वती ॥ २. प्रियः मायातः श्रुतावार्ता ध्वनिः कर्णे प्रविष्टः । तस्य विरहस्य नश्यतः धूलिरपि न दृष्टा ॥ Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः पादः पाश भाषा में स्त्रीलिंग में होने वाली संज्ञा का जो उसका आकार प्रत्यय आगे होने पर, इकार होता है । ... दिट्ठ । त्रोलिंग में होने वाली ही ( संज्ञा के बारे में है; संज्ञा स्त्रीलिंग में न होने पर, यह नियम नहीं लगता है । पइट्ठ । ३०४ ( अन्त्य ) अकार, उदा० - धूलडिमा यह नियम लगता युष्मदादेरीयस्य डारः ॥ ४३४ ॥ अपभ्रंशे युष्मदादिभ्यः परस्य ईय-प्रत्ययस्य डार इत्यादेशो भवति । सन्देसें' काइँ तुम्हारेण जं संगहो " न मिलिज्जइ । सुइणन्तरि पिएँ पाणिण पिअ पिआस कि छिज्जइ ॥ १ ॥ देक्खु अम्हारा कन्तु ( ४.३४५.१ ) । बहिणि महारा कन्तु ( ४.३५१.१ ) । - झुणि अपभ्रंश भाषा में, युष्मद् इत्यादि । सर्वनामों ) के आगे आने वाले ईय ( प्रत्यय ) को डि आर ( डार ) ऐसा आदेश होता है । उदा० - सन्देलें... छज्जइ ॥ १ ॥ ; देवखु "कन्तु बहिणिकन्तु । अतोर्डेत्तुलः ॥ ४३५ | अपभ्रंशे इदं किं यत् तदे तद्भयः परस्य अतोः प्रत्ययस्य डेत्तुल इत्यादेशो भवति । एतुलो | केत्तुलो । जेत्तलो । तेत्तुलो । एत्तुलो । प्र 3 आगे आने वाले अत् उदा० - एत्तुलो अपभ्रंश भाषा में, इदम् किम् यद्, तद् जौर एतद् इन ( सर्वनामों ) के प्रत्यय को डेत्तुल ( डित् एत्तुल ) ऐसा आदेश होता है । एतलो । त्रस्य डेत || ४३६ ॥ १. सन्देशेन किं युष्मदीयेन यत् संगायन मिल्यते । स्वप्नान्तरे पीतेन पानीयेन प्रिय पिपासा कि छिद्यते ॥ २. अत्र तत्र द्वारे गृहे लक्ष्मो: विसंष्ठुला धावति । प्रिय प्रभ्रष्टा इव गौरो निश्चला क्वापि न तिष्ठति ।। उदा० -! अपभ्रंशे सर्वादेः सप्तम्यन्तात् परस्य त्त-प्रत्ययस्य डेस इत्यादेशो भवति । एतत्त वारि धरि लच्छि विसंठुल धाइ । पिअपव्ठ व गोरडी निञ्चल कहि वि न ठाइ ॥ १ ॥ -- अपभ्रंश भाषा में, सप्तम्यन्त ( होने वाले ) सर्वादि ( सर्वनामों ) के आगे आने वाले प्रत्यय को डित् एत्तहे ( डेत हे ) ऐसा आदेश होता है । उदा०एतहे" ठाइ ।। १ ।। Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतध्याकरणे ३०५ त्वतलोः प्पणः ॥ ४३७॥ अपभ्रंशे त्वतलोः प्रत्यययोः प्पण इत्यादेशो भवति । वड्डप्पणु परि विअइ ( ४.३६६.१ )। प्रायोधिकारात् । वड्डत्तणहो तणेण .४.३६६.१ )। अपभ्रंश भाषा में, त्व और तल् इन दो प्रत्ययों को पण ऐसा आदेश होता है । उदा०-वड्डप्पणु.. .."पाविअइ । प्रायः का अधिकार होने से, ( कभी कभी प्पण ऐसा आदेश न होते, तण आदेश होता है। उदा.-) वड्डत्तणहो तणेण । तव्यस्य इएव्व उं एव्वउँ एवा ॥ ४३८॥ अपभ्रंशे तव्य-प्रत्ययस्य इअव्व एव्वउएवा इत्येते त्रय आदेशा भवन्ति । एउ' गृण्हेप्पिणु 5 मई जइ प्रिउ उव्वारिज्जइ । महु करिएब्व किं पि ण वि मरिएव्वउँ पर देज्जइ ॥ १॥ देसु चाडणु सिहि कढणु धणकुट्टणु जं लोइ । मंजिट्ठएं अइरत्तिए सब्बु सहेव्वउ होइ ॥ २ ॥ सोएवा पर वारिआ पुप्फवईहि समाणु । जग्गेवा पुणु को धरइ जइ सो वेउ पमाणु ॥ ३॥ अपभ्रंश भाषा में, तव्य प्रत्यथ को इएव्वउ, एव्य उ', और एवा ऐसे ये तीन आदेश होते हैं। उदा०-एं उ... ..'देज्णइ॥ १॥ देसुच्चाडण" ""होइ ॥२॥; सोरावा... पमाण ॥ ३ ॥ १. एतद् गृहीत्वा यद् मया यदि प्रियः उद्वार्यते ( त्यज्यते )। मम कर्तव्यं किमपि नापि मर्तव्यं परं दीयते ।। २. देशोच्चाटनं शिखिक्वथनं धनकुट्टनं यद् लोके । मञ्जिष्ठया अतिरक्तया सर्ग सोढव्यं भवति ॥ ३. स्वपितव्यं परं वारितं पुष्पवतीभिः समानम् । जागरितव्यं पुनः कः धरति यदि स वेदः प्रमाणम् ॥ २० प्रा० व्या० Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः पादः क्त्व-इ-इउ-इवि-अवयः ॥ ४३९ ॥ अपभ्रंशे क्त्वा प्रत्ययस्य इ इउ इवि अवि इत्येते चत्वार आदेशा भवन्ति । हि अडा जइ वेरिअ घणा तो कि अभि चडाहुं । अम्हहं बे हत्थडा जइ पुणु मारि मराहुं ॥ १ ॥ गयघड भज्जिउ जन्ति ॥ (४.३६५.५) । इवि। रक्खइ' सा विसहारिणी बेकर चुम्बि वि जीउ । पडिविम्बिअमुंजालु जलु जेहिं अडोहिउ पीउ ॥२॥ अवि। बाह विच्छोडवि जाहि तुहुँ हउ तेवइ को दोसु । हि अयट्ठिउ जइ नीसरहि जाणउँ मुञ्ज सरोसु ॥ ३ ॥ अपभ्रंश भाषा में, क्त्वा-प्रत्यय को इ, इउ, इवि, और अवि ऐसे ये चार आदेश होते हैं। उदा०-इ ( आदेश ):-हिअडा... .. मराहु ॥१॥ इउ ( आदेश ):गयघड... ... ..'जन्ति ॥ इवि ( आदेश ):-रक्खइ... .. पीउ ॥ २ ॥ अवि ( आदेश ):-बाह""सरोसु ॥ ३ ॥ __एप्प्येप्पिण्वेव्येविणवः ॥ ४४० ॥ अपभ्रंशे क्त्वा-प्रत्ययस्य एधि एप्पिणु एवि एविणु इत्येते चत्वार आदेशा भवन्ति । जेप्पि असेसु कसायबलु देप्पिणु अभउ जयस्सु । लेवि महव्वय सिवु लहहिं झाएविणु तत्तस्सु ॥ १॥ १. हृदि यदि वैरिणो धनाः ततः किं अभ्रे ( आकाशे ) आरोहामः । अस्माकं वो हस्तौ यदि पुनः मारयित्वा म्रियामहे ॥ २. रक्षति सा विषहारिणी द्वौ करो चुम्बित्वा जीवम् । प्रतिबिम्बितमुजालं जलं याभ्यामनवगाहितं पीतम् ॥ ३. वाहू विच्छोट्य याहि त्वं भवतु तथापि को दोषः । हृदयस्थितः यदि निःसरसि जानामि मुञ्जः सरोषः । ४. जित्वा अशेषं कषायबलं दत्वा अभयं जगतः। लात्वा महावतं शिवं लभन्ते ध्यात्वा तत्त्वस्य ( तत्त्वम् ) ॥ Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरणे पृथग्योग उत्तरार्थः। अपभ्रंश भाषा में, क्त्वा प्रत्यय को एप्पि, एप्पिण, एवि और एविणु ऐसे ये चार आदेश होते हैं । उदा०-जेप्पि...."तत्तस्सु ॥१॥ ( सूत्र ४.४३९ से ) प्रस्तुत नियम पृथक् कहने का कारण यह है कि इसका उपयोग अगले (सूत्र ४.४४१ में) हो । तुम एवमणाणहमणहिं च ॥ ४४१ ॥ अपभ्रशे तुमः प्रत्ययस्य एवं अग अणहं अणहिं इत्येते चत्वारः, चकारात् एप्पि एप्पिण एवि एविण इत्येते, एवं चाष्टावादेशा भवन्ति । देवं दुक्करु' निअयधणु करण न तउ पडिहाइ। एम्वइ सुहु भुंजणहँ मणु पर भुंजणहि न जाइ ॥ १ ॥ जेप्पि' चएप्पिण सयल धर लेविण तवु पालेवि । विणु सन्ते तित्थेसरेण को सक्कई भुवणे वि ॥ २॥ अपभ्रंश भाषा में, तुम् प्रत्यय को एवं अण, अपहं और अगहिं ऐसे ये चार { आदेश ), ( और सूत्र में से ) चकार के कारण एप्पि, एप्पिणु एवि और एविणु ऐसे ये (चार आदेश), इसी प्रकार ( कुल ) आठ आदेश होते हैं । उदा-देव...... जाट ॥१॥; जेपि ......"भुवणे वि ॥२॥ गमेरेप्पिण्वेप्प्योरेलग वा ॥ ४४२ ।। अपभ्रंशे गमेर्धातोः परयोरेप्पिणु एप्पि इत्मादेशयोरेकारस्य लुग भवति वा। गम्पिणु 'वग्णारसिहि नर अरु उज्जेणिहि गम्पि । मुआ परावहिं परम पउ दिव्वन्तरई म जम्पि ॥१॥ पक्षे। १. दातुं दुष्करं निजकधनं कर्तुं न तपः प्रतिभाति । एवमेव सुखं भोक्तुं मनः परं भोक्तु न याति ॥ २. जेतुं त्यक्तुं सकलां धरां लात तपः पालयितुम् । विना शान्तिना तीर्थश्वरेण कः शक्नोति भुवनेऽपि ॥ ३. गत्वा वाराणसी नराः अथ उज्जयिनों गत्ता। मृता: प्राप्नुवन्ति परमपदं दिव्यान्तराणि मा जल्प !! Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थः पादः गंग 'गमेप्पिणु जो मुअइ जो सिवतित्थ गमेप्पि । कोलदि तिदसावागउ सो जमलोउ जिणेप्पि ॥२॥ अपभ्रंश भाषा में, गम् धातु के आगे आने वाले एप्पिणु और एप्पि इन (आदेशों में से) (आदि) एकार का लोप विकल्प से होता है । उदा०-गंपिण...''जम्पि ॥१॥ (विकल्प-) पक्षमें:-गंग....."जिणेप्पि ॥२॥ तृनोणः ॥ ४४३ ॥ अपभ्रंशे तृनः प्रत्ययस्य अणअ इत्यादेशो भवति । हत्थि 'मारणउ लोउ बोल्लणउ पडहु वज्जणउ सुणउ भसणउ ॥१॥ अपभ्रंश भाषा में, तृन् प्रत्यय को अणअ ( ऐसा ) आदेश होता है। उदा०हत्थि......'असणउ ॥१॥ इवार्थे नं-नउ-नाइ-नावइ-जणि-जणवः ॥ ४४४ ।। अपभ्रंशे इवशब्दस्यार्थे नं नउ नाइ नावइ जणि जणु इत्येते षट भवन्ति । नं। नं मल्लजुझु ससिराहु करहिं ( ४.३८२.१ ) । नउ। रविअत्थमणि समाउलेण कण्ठि विइण्णु न छिण्णु । चक्के खंड मुणालि-अहे नउ जीवग्गलु दिण्णु ॥ १॥ नाइ। वलया वलि निवडण भएँण धण उद्धब्भुअ जाइ। वल्लहविरहमहादहहो थाह गवे सइ नाइ॥ २ ॥ १. गंगां गत्वा यः म्रियते यः शिवतीर्थं गत्वा । क्रीडति त्रिदशावासगतः स यमलोकं जित्वा ॥ २. हस्तो मारयिता लोकः कथयिता पटहः वादयिता शुनकः भषिता । ३. रव्यस्तमने समाकुलेन कण्ठे वितीर्णः न छिन्नः । चक्रेण खण्डः मृणालिकायाः जीवागलः दत्तः ।। ४. वलयाबलीनिपतनभयेन धन्या ऊर्व भुजा याति । वल्लभविरहमहाह्रदस्य स्ता, गवेषतीव ॥ Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरणे नावइ। पेक्खे विणु मुहु जिणवरहो दाहरनयण सलोणु । __ नावइ गुरुमच्छरभरिउ जलणि पवीसइ लोणु ॥ ३ ॥ जणि। चम्पय'कुसुमहो मज्झि सहि भसलु पइट्ठउ । सोहइ इंदनीलु जणि कणइ वइट्ठउ ॥ ४॥ जणु । निरुवमरसु पिएं पिएवि जणु ( ४.४० १.३ ) । __ अपभ्रंश भाया में, इव शब्द के अर्थ में नं नउ, नाइ, नावइ, जणि और जणु ऐसे ये छः (शब्द) आते हैं। उदा०-नं (शब्द):-नं मल्लजुज्झ.."करहि ॥ नउ (शब्द):-रविअत्थमणि ..."दिण्णु ॥ १ ॥ नाइ (शब्द):-वलयावलि.''नाइ ॥२॥ नावइ (शब्द):--पेक्खे विण ...."लोण ॥३॥ जणि (शब्द):--- चम्पय'''बइट्टउ ॥४॥ जणु (शब्द):--निरुवम... जणु ॥ लिङ्गमतन्त्रम् ॥ ४४५॥ अपभ्रंशे लिङ्गमतन्त्रं व्यभिचारि प्रायो भवति । गय कुम्भई दारन्तु { ४.३४५.१ ) । अत्र पुल्लिङ्गस्य नपुंसकत्वम् । अब्भा लग्गा डुंगरिहिं पहिउ रडन्तउ जाइ । जो एहो गिरिगिलणमण सो किं धणहे धणाइ ॥ १ ॥ अत्र अल्भा इनि नपुंसकस्य पुंस्त्वम् । पाइ विलग्गी अन्त्रडी सिरु ल्हसिउ खन्धस्सु। तो वि कटारइ हत्थडउ बलि किज्जउँ कन्तस्सु ॥२॥ १. प्रेक्ष्य मुखं जिनवरस्य दीर्घनयनं सलावण्यम् । गुरुमत्सरभरितं ज्वलने प्रविशति लवणम् ॥ २. चम्पककुसुमस्य मध्ये सखि भ्रमरः प्रविष्टः । शोभते इन्द्रनीलः इव कनके उपवेशितः ॥ ३. अघ्राणि लग्नानि पर्वतेष पथिकः (आ) रटन् याति । यः एषः गिरिग्रसनमनाः स कि धन्यायाः धनानि (घृणायते ?) ॥ ४. पादे विलग्न अन्त्रं शिरः सस्तं स्कन्धात् । तथापि ( तदापि ) कटारिकायां हस्तः बलिः क्रियते कान्तस्य ॥ Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० पाइ चतुर्थ: पाद: अत्र अंडी इति नपुंसकस्य स्त्रीत्वम् । सिरि' चडिआ खन्ति फलई पुणु डालई मोडन्ति । तो वि महदुम सउणाहं अवराहिउ न करन्ति ॥ ३ ॥ अत्र ढीलई इत्यत्र स्त्रीलिंगस्य नपुंसकत्वम् । अपभ्रंश भाषा में, (शब्द के ) लिंग नियमरहित (अनिश्चित) और प्रायः व्यभिचारी ( यानी बदलने वाले, उदा० - स्त्रीलिंग का नपुंसकलिंग होना इत्यादि ) होते हैं । उदा०- गय --दारन्तु यहाँ ( कुम्भ शब्द के ) पुल्लिंग का नपुंसकलिंग हुआ है । अब्भा''''''घणाइ ॥ १ ॥ ; यहाँ अब्भा शब्द में, नपुंसकलिंग का पुल्लिंग हुआ है । "कन्तस्सु ॥ २॥ ; यहाँ पर अंडो (शब्द) में नपुंसकलिंग का स्त्रीलिंग हुआ है । सिरिकरन्ति ||३||; यहाँ डालई (शब्द) में स्त्रीलिंग का नपुंसकलिंग हुआ है । शौरसेनीवत् ॥ ४४६ ॥ अपभ्रंशे प्रायः शौरसेनीवत् कार्यं भवति । सीसि हरु' खणु विणिम्मविदुखणु कण्ठि पालंबु किदु रदिए । विहिदुखणु मुण्डमालिएँ जं पणएण तं नमहु कुसुमदामकोदण्डु काम हो ॥ १ ॥ अपभ्रंश भाषा में, प्रायः शौरसेनी ( भाषा) के समान कार्य होता है । उदा०सौसि कामही ॥१॥ व्यत्ययश्च ॥ ४४७ ॥ प्राकृतादि भाषालक्षणानां व्यत्ययश्च भवति । यथा मागध्यां तिष्ठश्चिष्ठः ( ४२६८ ) इत्युक्तं तथा प्राकृतपैशाची शौरसेनीष्वपि भवति । चिष्ठदि । अपभ्रंशे रेफस्याधो वा लुगुक्तो मागध्यामपि भवति । शद' - माणुश-मंश- भालके कुम्भ - शहश्र - वशा हे शंचिदे, इत्याद्यन्यदपि द्रष्टव्यम् । न केवलं भाषालक्षणानो त्याद्यादेशानामपि व्यत्ययो भवति । ये वर्तमाने काले प्रसिद्धास्ते भूतेपि भवन्ति । अह पेच्छइ रहुतणओ । अथ प्रेक्षांचक्र े इत्यर्थः । आभास इ १. शिरसि आरूढाः खादन्ति फलानि पुनः शाखा मोटयन्ति । तथापि ( तदापि ) महाद्रुमाः शकुनीनां अपराधितं न कुर्वन्ति " २. शीर्षे शेखरः क्षण विनिर्मार्पितं क्षणं कण्ठे प्रालम्ब कृतं रत्याः । विहितं क्षणं मुण्डमालिकीयां यत् प्रणयेन तत् नमत् कुसुमदामकोदण्डं कामस्य ॥ ३. शत- मानुष-मांस - भारकः कुम्भ-सहस्र-वसाभिः संचितः । ४. अथ प्रेक्षते रघुतनयः । ५. आभाषेत रजनीचरान् । Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरणे ३११ रयणीअरे । आबभाषे रजनीचरानित्यर्थः । भूते प्रसिद्धा वर्तमानेपि । सोही एस वण्ठो । शृणोत्येष वण्ठ इत्यर्थः । तथा प्राकृत इत्यादि भाषाओं के लक्षणों का व्यत्यय ( = परस्पर बदल ) होता है । उदा:--मागधी ( भाषा ) में 'तिष्ठनिष्ठ' ऐसा जो कहा हुआ है, उसके समान । माहाराष्ट्री---- ) प्राकृत, पैशाची और शौरसेनी ( इन भाषाओं) में भी होता है। उदा:--चिष्ठदि । अपभ्रंश भाषा में, ( संयोग में ) आगे रहने वाला रेफ वैसा ही रहता है अथवा उसका लोप होता है ( ऐसा कहा हुआ ) नियम मागधी भाषा में भी लागू होता है। उदा०-शद-माणुश..... 'शंचिदे; इत्यादि । इसी प्रकार अन्य उदाहरण देखे । केवल भाषाओं के लक्षणों में ही व्यत्यय होता है ऐसा नहीं तो,त्यादि (धातुओं को लगने वाले) प्रत्ययों के आदेशों का ही व्यत्यय होता है ( इसका अभिप्राय ऐसा है:--) जो आदेश वर्तमान काल के इस रूप में प्रसिद्ध हैं, वे ( आदेश ) भूतकाल में भी होता है। उदा०--अह पेच्छइ रहुतगओ ( यानी ) अथ प्रेक्षांचक्रे, ऐसा अर्थ है, आभासइ रयणी अरे ( यानी ) रजनी चरान् आबभाषे ऐसा अर्थ है । । जो आदेश ) भूतकाल के ( इस रूप में ) प्रसिद्ध हैं, ( वे आदेश ) वर्तमानकाल में भी होते हैं । उदा०--सोहीअ एस वण्ठो (यानी) शगोति एषः वण्ठः, ऐसा अर्थ है । शेष संस्कृतवत् सिद्धम् ॥ ४४८॥ शेषं यदत्र प्राकृतादिभाषासु अष्टमे नोक्तं तत् सप्ताघ्यायीनिबद्धसंस्कृतदेव सिद्धम् । हे ठिसूरनिवारणाय छत्तं अहो इव वहन्ती। जयइस-सेसा वराह-सास-दूरुक्खया पुवी ॥ १ ॥ अत्र चतुर्था आदेशो नोक्तः स च संस्कृतवदेव सिद्धः । उक्तमपि क्वचित् संस्कृतवदेव भवति । यथा प्राकृते उरस-शब्दस्य सप्तम्येकवचनान्तस्य उरे उरम्मि इति प्रयोगौ भवतस्तथा क्वचिदुरसीत्यपि भवति । एवम् । सिरे सिरम्मि सिरसि। सरे सरम्मि' सरसि । सिद्धग्रहणं मंगलार्थम् । ततो ह्यायुप्मच्छोतृकताभ्युदयश्चेति । १. अशृगोत् एष वण्ठ । २. अधः स्थितसूर्यनिवारणाय छत्रं अधः इव वहन्ती । जयति स-शेषा वराहश्वासदूरोत्क्षिप्ता पृथिवी । ३. V शिरस् । ४. सरस् । Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१२ चतुर्थः पादः (प्राकृत इत्यादि भाषालों के बारे में ) शेष ( कार्य ) यानी जो इस आठवें (अध्याय ) में प्राकृत इत्यादि भाषाओं के बारे में नहीं कहा हुआ है, वह ( पहले ) सात अध्यायों में ग्रथित हुए संस्कृत (भाषा) के समान सिद्ध होता है । ( इसका ज्ञभिप्राय ऐसा है ):-हे?....."पुहवी ॥१॥ यहाँ चतुर्थी (भिभक्ति) का आदेश नहीं कहा है; वह ( इस श्लोक में ) संस्कृत के समान ही सिद्ध होता है । ( प्राकृत इत्यादि भाषाओं के बारे में इस आठवें अध्याय में जो कुछ कार्य कहा भी है, वह (कार्य) भी क्वचित् संस्कृत के समान ही होता है । उदा०-जैसे ( महाराष्ट्री) प्राकृत में सप्तमी (विभक्ति) एकवचनी प्रत्यय से अन्त होने वाले उरस् शब्द के उरे और उरम्भि ऐसे प्रयोग होते हैं, वैसे ही क्वचित् उरसि ऐसा भी ( संस्कृत-समान ) प्रयोग होता है। इसी प्रकार ( अन्य कुछ शब्दों के बारे में भी होता है । उदा०-) सिरे सिरम्भि, सिरसि, सरे सरम्भि, सरसि । ( सूत्र में ) सिद्ध शब्द का निर्देश मंगलार्थ के लिए है । उस कारण से (निश्चित रूप में) आयु,श्रोतृकला और अभ्युदय (ये सब प्राप्त होते हैं ।) इत्याचार्य श्वीहेमचन्द्रविरचितायां सिद्धहेमचन्द्राभिघानस्वोपज्ञशब्दानुशासनवृत्तावष्टमस्याध्यायस्य चतुर्थः पादः समाप्तः । ( आठवे अध्याय का चतुर्थ पाद समाप्त हुआ।) Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हेमचन्द्रकृत प्राकृत व्याकरण प्रथम पाद टिप्पणियाँ १.१ अथ 'कारार्थश्च - संस्कृत में अथ अव्यय के अनेक उपयोग होते हैं । इस सूत्र में अनन्तर ( = बाद में, आनन्तर्य ) और ( नये विषय का ) आरंभ ( अधिकार ) इन दो अर्थों में अथ शब्द प्रयुक्त है । प्रकृतिः संस्कृतम् - हेमचंद्र के मतानुसार, प्राकृत शब्द प्रकृति शब्द से साधित है और प्रकृति (= मूल) शब्द से संस्कृत भाषा अभिप्रेत होती है । अभिप्राय यह कि प्राकृत भाषा का मूल संस्कृत भाषा है । तत्र भवं 'प्राकृतम् - - प्रकृति शब्द से प्राकृत शब्द कैसे बनता है यह बात यहाँ कही है । 'तत्र भवः' पाणिनि सूत्र ४.३.५३ ) अथवा 'तत आगत:' ( पाणिनि सूत्र ४३७४ ) इन सूत्रों के अनुसार, प्रकृति शब्द को प्रत्यय लगकर प्राकृत शब्द सिद्ध हुआ है । प्रकृति होने वाले संस्कृत से निर्माण हुआ अथवा प्रकृति होने वाले संस्कृत से निर्गत हुआ, वह प्राकृत । प्राकृतम् - प्रस्तुत व्याकरण में 'महाराष्ट्री प्राकृत' ऐसा शब्द हेमचंद्र ने नहीं प्रयुक्त किया है । तथापि प्राकृत शब्द से उसको महाराष्ट्री प्राकृत अभिप्रेत है । प्राकृत मंजरी, भूमिका, पृष्ठ ३ पर कहा है: - तत्र तु प्राकृतं नाम महाराष्ट्रोद्भवं विदुः । महाराष्ट्री प्राकृत के बारे में दंडिन् कहता है:महाराष्ट्राश्रयां भाषां प्रकृष्टं प्राकृतं विदुः । संस्कृतानन्तरं क्रियते--संस्कृत के अनंतर यानी संस्कृत व्याकरण के अनंतर प्राकृत ( व्याकरण ) का आरंभ किया जाता है । हेमचंद्र कृत सिद्धहेमशब्दानुशासन नामक व्याकरण के कुल आठ अध्याय हैं; पहले सात अध्यायों में संस्कृत भाषा का व्याकरण है; प्रस्तुत आठवें अध्याय में प्राकृत / महाराष्ट्री इत्यादि प्राकृत भाषाओं का व्याकरण है । संस्कृत के व्याकरण के अनंतर प्राकृत व्याकरण का प्रारंभ होने से, पाठक को संस्कृत व्याकरण का थोड़ा ज्ञापनार्थम् - संस्कृत के बहुत ) ज्ञान है, ऐसा यहाँ गृहीत है । संस्कृतानन्तरं अनंतर प्राकृत का प्रारंभ क्यों इस प्रश्न का उत्तर यहाँ दिया है । प्राकृत यानी प्राकृत का शब्द संग्रह तत्सम ( = संस्कृत-सम ) तद्भव ( -देश्य शब्द, ऐसा तीन प्रकार का है । तत्सम शब्दों का व्याकरण में होने के कारण, वह यहाँ फिर से इस सूत्र के अगले वृत्ति में = संस्कृत - भव ), और देशी / विचार पीछे दिये हुए संस्कृत करने का कारण नहीं है, ऐसा हेमचंद्र 'संस्कृत समं तु संस्कृतक्षणेनैव गतार्थम्' इन शब्दों में Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ टिप्पणियां कहता है । देश्य शब्दों का विचार हेमचंद्र यहाँ नहीं करता है। क्योंकि देशीनाममाला नामक अपने ग्रंथ में हेमचंद्र के कहने के अनुसार "जे लक्खणे ण सिद्धाण पसिद्धा सक्कयाहिहाणेसु, ण य ग उणलक्खणासत्तिसंभवा" ऐसे देशी शब्द होते हैं । देशी शब्द के बारे में मार्कंडेय कहता है:-लक्षणरसिद्ध नत्तद्देशप्रसिद्धं... ..॥ यदाह भोजदेवः-देशे देशे नरेन्द्राणां जनानां च स्वके स्वके। भझ्या प्रवर्तते यस्मात् तस्माद्देश्यं निगद्यते ॥ इसके विपरीत, सिद्ध और साध्यमान ऐसे संस्कृत शब्द ही प्राकृत के मूल हैं । स्वाभाविकतः प्राकृत का यह लक्षण देश्य शम्दों को लागू ही नहीं पड़ता है । इसलिए सिद्ध और साध्यमान ऐसे दो प्रकार के संस्कृत शब्दों से बने हुए प्राकृत का ही विचार हेमचंद्र प्रस्तुत व्याकरण में करता है। सिद्ध-साध्यमानसिद्ध यानी व्याकरण दृष्टि के अनुसार बना हुआ शब्द का पूर्ण रूप । उदा० -~-~शिरोवेदना । शब्द का ऐसा पूर्ण रूप बनने के पहले शब्द की जो स्थिति होती है वह साध्यमान अवस्था होती है। उदा०-शिरोवेदना यह संधि होने के पहले होने वाली शिरस-वेदना स्थिति । संस्कृतसम-संस्कृत के जो शब्द जैसे के तैसे प्राकृत में आते हैं, वे संस्कृतसम शब्द । उदा०-- चित्त, वित्त, देव इत्यादि । संस्कृतलक्षण-~~ संस्कृत व्याकरण । प्रकृतिः...... 'संज्ञादयः-प्रकृति यानी शब्द का मूल रूप । उदा०-राम, वे शव इत्यादि । प्रत्यय यानी विशिष्ट हेतु से शब्द के मूल रूप के आगे रखे जाने वाले वर्ण अथवा शब्द । उदा०-सु, औ इत्यादि । लिङ्ग यानी शब्द का लिंग । शब्द पुल्लिग में, स्त्रीलिंग में, किंवा नपुंसक लिंग में होते हैं । उदा०-देव (पुल्लिग ), देवी ( स्त्रीलिंग ), वन ( नपुंसकलिंग )। कारक यानी वाक्य में जो क्रिया से संबधित होता है वह । संस्कृत में कर्ता, कर्म, करण, संप्रदान, अपादान और अधिकरण ऐसे ये छः कारक हैं। समास यानी अनेक पद एकत्र आकर अर्थ के दृष्टि से होने वाला एक पद । उदा०-- राम का मंदिर पाब्द इकट्ठा करके राममंदिर समास वनता है। संज्ञा यानी शास्त्र के पारिभाषिक शब्द । एकाध शास्त्र में कुछ विशिष्ट शब्द विशिष्ट अर्थों में प्रयुक्त किए जाते हैं; वे सर्व संज्ञाएँ होती हैं। बहुतपुष्कल अर्थ संक्षेप से कहने के लिए संज्ञाओं का उपयोग होता है। उदा०--गुण; वृद्धि इत्यादि । लोकात्-प्राकृत के वर्ण प्रायः संस्कृत में से लिए हैं । संस्कृत के जो वर्ण प्राकृत में नहीं होते हैं ( और जो अधिक वर्ण प्राकृत में होते हैं ) उनकी जानकारी लोगों सेलोगों के भाषा में प्रयोग से--कर लेनी है। त्रिविक्रम भी ऐसा ही कहता है:--- ऋलवर्णाभ्यां ऐकारोकार भ्यां असंयुक्त-ङ त्र-काराभ्यां शषाम्यां द्विवचनादिना च रहितः शब्दोच्चारो लोकव्यवहाराद् एव उपलभ्यते ( १.१.१)। ऋ ऋ...... वर्णसमाम्नाय:--संस्कृत के जो वर्ग प्राकृत में नहीं होते हैं, वे वर्ण होने वाले संस्कृत शब्द योग्य विकार होकर प्राकृत में आते हैं । उदा०-को इ इत्यादि विकार होते हैं । देखिए ऋ के विकार के लिए १.१२६-१४४, ल के विकार के लिए ११४५, Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरण-प्रथमपाद ऐ के विकार के लिए १.१४८-१५५ और औ के विकार के लिए १.१५६-१६४ । ङ् और ञ् ये व्यञ्जन प्राकृत में संपूर्णतः नहीं ऐसा नहीं है; कारण हेमचन्द्र ही आगे कहता है:-ङो...''भवत एव । श और ष व्यञ्जनों का ( माहाराष्ट्रो ) प्राकृत में प्रायः स् होता है ( देखिए सूत्र १२६० )। ( मागधी भाषा में श् और ष् व्यञ्जनों का उपयोग दिखाई देता है ( सूत्र ४२८८,२९८ देखिए )। विसर्जनीय-विसर्ग। वस्तुतः विसर्ग स्वतन्त्र वर्ण नहीं है;अन्त्य र अथवा स् इन व्यञ्जनों का वह एक विकार है । प्लुत-उच्चारण करने के लिए लगने वाले काल के अनुसार स्वरों के ह्रस्व, दीर्घ और प्लुत ऐसे तीन प्रकार किए जाते हैं। जिसके उच्चारण के लिए एक मात्र ( = अक्षिस्पदन प्रमाणः कालः) काल लगता है, वह स्वर ह्रस्व । जिसके उच्चारण के लिए दो मात्रा-काल लगता है वह दीघ स्वर और जिसके उच्चारण के लिए तीन मात्राएँ लगती हैं, वह प्लुत स्वर होता है। वर्णसमाम्नाय--वर्णसमूह या वर्णमाला/प्राकृत के वर्ण आगे जैसे कहे जा सकते हैं:-स्वर -ह्रस्व:-अ, इ, उ, ए;ओ । दीर्घः--आ, ई, ऊ, ए, ओ। ( कुछ वैयाकरणों के मतानुसार प्राकृत में ऐ और औ ये स्वर भी होते हैं)। व्यञ्जन:-क् ख् ग् घ् (अ) (कवर्ग); च छ ज झ (अ) (चवर्ग); ट् ठ् ड् ढ् ण (ट-वर्ग); त् थ् द् ध् न् (त वर्ग); प फ् ब् भ् म् ( प वर्ग ); य र ल व ( अन्तस्थ ); स् (ऊष्म); ह. (महाप्राण) । ङौ . 'भवत एव-माहाराष्ट्री प्राकृत में ङ् और ञ् ये व्यञ्जन स्वतंत्र रूप में नहीं होते हैं। ( मागधी-पैशाची में ञ् का वापर दिखाई देता है। सूत्र ४.२९३-२९४, ३०४-३०५ देखिए ) । मात्र ये व्यञ्जन अपने वर्ग में से व्यञ्जन के साथ संयुक्त हो, तो वे प्राकृत में चलते हैं; तथापि ऐसे संयोगों में भी ङ् और ञ् प्रथम अवयव ही होने चाहिए। उदा०–अङ्क, चञ्चु । एदौतौ--ऐत् और औत् । यानी ऐ और औ स्वर। यहां ऐ और औ के आगे तकार जोड़ा है। जिस वणं के आगे ( या पीछे ) तकार जोड़ा जाता है, उस वर्ण का उच्चारण करने के लिए जितना काल लाता है उतना ही समय लगने वाले सवर्ण वर्णों का निर्देश उस वर्ण से होता है। व्यवहारतः तो ऐत् यानी ऐ और औत् यानी औ ऐसे समझने में कुछ हरकत नहीं है। इसी तरह आगे भी अत् ( १.१८ ), आत् ( १.६७), इत् ( १.८५ ), ईत् (१.९९), उत् (१.८२ ), ऊत् (१.७६), ऋत् (१.१२६), एत् और ओत् (१७) इत्यादि स्थलों पर जाने । कैतवम् "कोरवा-- यहाँ प्रथम संस्कृत शब्द और तुरन्त उसके बाद उसका प्राकृत में से वर्णान्तरित रूप दिया है । वर्णान्तर देते समय हेमचंद्र ने भिन्न पद्धतियां प्रयुक्त की हैं। कभी वह प्रथम संस्कृत शब्द और अनंतर उसका वन्तिरित रूप देता है। उदा०-सूत्र १.३७, ४३ इत्यादि । कभी वह प्रथम प्राकृत में से वर्णान्तरित रूप देता है और अनंतर क्रम से उसके संस्कृत प्रति शब्द देता है। उदा०--सूत्र १.२६, ४४ इत्यादि । कभी वह फकत प्राकृत में से वर्णान्तरित रूप देता है। उसका संस्कृत प्रतिशब्द नहीं देता है । Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१६ टिप्पणियां उदा०-सूत्र १.१७३,१७७, १८० इत्यादि । अस्वरं....'न भवति--संयुक्त व्यञ्जन में ( उदा.-अक्क, चित्त्, दुद्ध) पहले अवयव के रूप में अस्वर यानी स्वर-रहित व्यञ्जन होता है और वह प्राकृत में चलता है; परंतु स्वर-रहित केवल व्यञ्जम ( उदा०—सरित्, वाच् इनमें से त्, च के समान ) प्राकृत में अन्त्य स्थान में नहीं हो सकता है । संक्षेप में कहे तो प्राकृत में व्यञ्जन से अन्त होने वाले यानी व्यञ्जनान्त शब्द नहीं होते हैं । द्विवचन-संस्कृत में शब्द और धातु के रूप एक-, द्वि- और बह-ऐसे तीन वचनों में होते हैं। प्राकृत में द्विवचन नहीं होता है; इस लिए किसी भी शब्द के द्विवचनी रूप प्राकृत में नहीं होते हैं। द्विवचन का कार्य अनेक वचन से ( सूत्र ३.१३० देखिए ) किया जाता है। चतुर्थी बहुवचनप्राकृत में चतुर्थी विभक्ति प्रायः लुप्त हुई है। चतुर्थी विभक्ति का कार्य षष्ठी विभक्ति के द्वारा ( सूत्र ३.१३१ देखिए ) किया जाता है । तथापि यहाँ 'चतुर्थी बहुवचन प्राकृत में नहीं है' इस कहने का अभिप्राय यह है कि प्राकृत में क्वचित् चतुर्थी विभक्ति के एकवचन के रूप दिखाई देते हैं ( सूत्र ४°४४८.१ देखिए)। परंतु चतुर्थी बहुवचन के रूप तो नहीं पाए जाते हैं । १.२ बहुलम्--यानी बाहुलक । बहुलयानी तांत्रिक दृष्टि से:-क्वचित् प्रवृत्तिः क्वचिदप्रवृत्तिः क्वचिदविभाषा क्वचिदन्यदेव । शिष्टप्रयोगा-ननुसृत्य लोके विज्ञेयमेतद् बहुलग्रहेषु ॥ प्रवृत्ति यानी योग प्रकार से नियम की कार्यप्रवृत्ति; उसका अमाव यानी अप्रवृत्ति,विभाषा यानीविकल्प क्वचित् नियम में कहे हुए से कुछ भिन्न कार्य (अन्यत) होता है; ये सब बहुल शब्द से सूचित होते हैं । अब, प्राकृत बहुल है; इसलिए प्राकृत व्याकरण के नियमों को अनेक अपवाद,विकल्प इत्यादि होते हैं । अधिकृतं वेदितव्यम्'बहुलम्' सूत्र अधिकार-सूत्र है ऐसा जाने । जिस सूत्र में से ( एक या अनेक ) पद आगे आने वाले अनेक सूत्रों के पदों से संबंधित होते हैं, बह अधिकार सूत्र होता है । अधिकार एक प्रदीर्घ अनुवृत्ति है; किंतु अनुवृत्ति से उसका क्षेत्र अधिक व्यापक होता है । जिस शब्द का अधिकार होता है वह शब्द अगले सूत्रों में अनुवृत्ति से माता है, और उन सूत्रों का अर्थ करते समय वह शब्द आध्याहृत लिया जाता है। १.३ आर्षम् प्राकृतम्--आर्ष शब्द ऋषि शब्द से साधित है। आर्ष प्राकृत शब्द से हेमचंद्र को अर्धमागधी नामक प्राकृत भाषा अभिप्रेत है ( सूत्र ४.२८७ देखिए )। अर्धमागधी श्वेतांबर जैनों के आगम ग्रंथों की भाषा है । अर्धमागधी में (माहाराष्ट्री-) प्राकृत के सर्वनियम विकल्प से लागू पड़ते हैं । १४ वृत्तौ-वृत्ति में, यहां समास में, ऐसा अर्थ है। वृत्ति यानी मिश्र पद्धति से बना हुआ शब्द । वृत्ति का अर्थ स्पष्ट होने के लिए स्पष्टीकरण आवश्यक होता है । संस्कृत में पांच वृत्तियाँ हैं; उनमें से समास एक वत्ति है। समासे...... भवतः-- Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरण- प्रथमपाद समास में किमान दो पद होते हैं । समास में से पहले पद का अन्त्य दीर्घ किंवा ह्रस्व स्वर बहुलत्व से ह्रस्व अथवा दीर्घ होता है । उदा० - अन्तावेई समास में, अन्त इस पहले पद का अन्त्य स्वर दीर्घ हुआ है । सत्तावीसा इस समास में भी यही प्रकार है । वारीमई - वारिणि मतिः यस्य सः, अथवा वारि इति मतिः । ३१७ १५ संस्कृतोक्तः संधिः सर्वः - प्राकृत में विसर्ग नहीं है तथा व्यञ्जनान्त शब्द नही है । इसलिए उनकी संधियों का स्वतंत्र विचार प्राकृत में नहीं है । अतः केवल स्वर - संधि का विचार आवश्यक है । संधि -- जिनका परम निक्ट सांनिध्य हुआ है ऐसे वर्णों का संधान / मिलाप यानी संधि । पदयोः -- दो पदों में । विभक्ति प्रत्यय अथवा धातु को लगने वाले प्रत्यय लगकर बना हुआ शब्द यानी पद । उदा० - रामेण: करोति । वासेसी शब्द में वास में से अन्त्य अ और अगला इ, विसमायवों शन्द में विसम शब्द में से अन्त्य अ और अगला आ, दहीसरो शब्द में दहि शब्द में से अन्त्य इ और अगला ई, और साऊ अयं शब्द में सा उ शब्द में से अन्त्य उ और अगला उ, इनकी संधि हुई है । दहीसरो -- दधिप्रधान: ईश्वरः । व्यवस्थितविभाषया-विभाषा यानी विकल्प । अब, जिसके लिए विकल्प कहा है, उसके सर्व उदाहरणों को लागू न पड़ते केवल कुछ उदाहरणों को निश्चित रूप से लागू पड़ने वाला और कुछ उदाहरणों को अवश्य रूप से लागू न पड़ने वाला विकल्प यानी व्यवस्थित विभाषा । बहुलाधिकारात् - बहुल का अधिकार होने से काही — काहिइ शब्द में बहुल के लिए १०२ सूत्र के ऊपर की टिप्पणी देखिए । 'हि' में से इ और अगला इ इनकी संधि 'ही' ऐसी हुई । काहिइ रूप के लिए सूत्र ३१६६ देखिए । बीओ - बिइओ शब्द में से 'बि' में से इ और अगला इ इनकी 'बी' ऐसी संधि हुई है । = १.६ इवर्णस्य उ वर्णस्य – ये शब्द सूत्र में से युवर्णस्य शब्द का अनुवाद करते हैं । इवणं यानी इ और ई ये वर्णं । उवर्णं यानी उ और ऊ ये वर्ण । अस्वेवर्णे परेविजातीय ( अस्व ) वर्ण ( यहाँ स्वर ) आगे होने पर । अ आ इ ई और उ-ऊ ये सजातीय स्वरों के युगुल हैं और वे परस्पर में विजातीय होते हैं । उदा० अ और विजातीय होते हैं । अब दिए हुए उदाहरणों में:-वि अवपासो और वंदामि अज्जं यहाँ पिछले इ और अगले अ की संधि नहीं हुई है । श्लोक १ – दानव - श्रेष्ठ के खून से लिप्त हुआ और नाखुनों के प्रभा-समूह से अरुण हुआ विष्णु, संध्या ( -रूपी ) वधू से आलिगित और बिजली के निकट संबंध में होने वाले नूतन मेह जैसा, शोभा देता है । इस श्लोक में, सहइ और उइन्दो, ०प्पहावलि और अरुणो०, वहु और अव ऊढो शब्द समूह में पिछले और अगले विजातीय स्वरों की संधि नहीं हुई है श्लोक २- उदर में छिपे हुए रक्त कमल के पीछे लगे हुए भ्रमरों के पंक्ति-समान । इस श्लोक पंक्ति में, गूढ़ और उअर इनकी गूढोअर और तामरस तथा अणुसारिणी Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८ टिप्पणियां इनकी तामर साणुसारिणी, ऐसी संधि हुई है। पुहवीसो-यहां पुहवी में से ई और ईसमें से ई इन सजातीय स्वरों की संधि हुई है। १.७ एकार-ओकारयोः--ए और ओ इन स्वरों का । एकाध वर्ण का निर्देश करते समय, उसके आगे 'कार' शब्द जोड़ा जाता है। उदा.-एकार । स्वरस्वयं राजन्ते इति स्वराः। स्वरों का उच्चारण स्वयं पूर्ण होता है। श्लोक १नालन के क्षतों से युक्त ऐसे अंग पर कंचुक परिधान करने वाले वधू के संदर्भ में ( वे नखक्षतों मदनबाणों के संतत धाराओं से किये गये जख्मों के समान दिखाई देते हैं। इस श्लोक में ल्लिहणे शब्द में ये ए और अगला आ इनकी संधि नहीं हुई है। श्लोक २-गज के बच्चे के दांतों की कांति जिसको उपमा देने में अधुरी/ अपूर्ण ( अपज्जत्त ) पड़ती है, ऐसा यह । तेरा ) ऊरु-युगल अब कुचला हुआ कमल. दंठल के दंड के समान विरस, ऐसा हमें दिखाई देता है। इस श्लोक में, • लक्खिमो शब्द में से ओकार की अगले स्वर के साथ संधि नहीं हुई है। अहो अच्छरिअंयही हो में से ओकार की अगले स्वर के साथ संधि नहीं हुई है। श्लोक ३-अर्थ का विचार करने में तरल (बेचैन ) हुए, अन्य ( सामान्य ) कवियों को बुद्धियों को भ्रम होता है । ( परंतु ) कवि श्रेष्ठों के मन में । मात्र ) अर्थ बिना सायास आते हैं। इस श्लोक में, अत्थालाअण शब्द में अत्थ और आलोअण तथा कइन्दाणं शब्द में कइ और इन्द इनकी संधि हुई है। १.८ व्यञ्जन--स्वरेतर वर्ण । स्वर के साहाय्य के बिना व्यञ्जनों का पूर्ण उच्चारण नहीं होता है। व्यञ्जनों के उच्चारण के लिए अर्धमात्रा इतना काल लगता है ( व्यञ्जन चार्धमात्रिकम् ) 1 उद्वृत्त-व्यञ्जन का लोप हाने के बाद शेष/अवशिष्ट रहने वाला स्वर उद्धृत्त कहा जाता है। उदा०-गति शब्द में सूत्र १.१७७ के अनुसार त व्यञ्जन का लोप होने पर जो इ स्वर शेष रहता है वह उद्वत्त है। श्लोक १--यह श्लोक विन्ध्यवासिनी देवी को उद्देश्यकर है। उसका अर्थ अच्छी तरह स्पष्ट नहीं होता है। संभवत ऐसा अर्थ है:--बलि दिए जाने वाले महापशु ( == मनुष्य ) के दर्शन से निर्माण हुए संभ्रम ये एक दूसरे पर आरूढ, तेरे चित्र में से देवता आकाश में ही गंध-द्रव्य का गृह करते हैं । ( यह श्लोक गउडवह, ३१९ है । वहाँ टीकाकार कहता है:-महापशुः मनुष्यः, परस्परं आरूढा अन्योन्योत्कलितशरीराः, गन्ध कुटी गन्धद्रव्यगृहम; कौलनार्यः चित्र-न्यस्त देवता-विशेषाः । कोलनार्यः यानी शाक्तपंथी नारी ऐसा भी सर्थ होगा) । इस श्लोक में, गंध-उडि शब्द में, उ इस उद्वत्त स्वर की पिछले स्वर से संधि नहीं हुई है। अतएव..... मिन्नपदत्वम्समास में दूसरा पद कभी स्वतंत्र माना जाता है तो कभी संपूर्ण सामासिक शब्द एक ही पद माना जाता है । Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृत व्याकरण-प्रथमपाद ३१९ १.६ तिबादीनाम्-इस शब्द में सूत्र के त्यादेः शब्द का अनुवाद है । त्यादि किंवा तिबादि यानी धातु को लगने वाले काल और अर्थो के प्रत्यय । 'तिप तस् ... ..'महिङ्' (पाणिनि सूत्र ३.४.७८) ऐसे ये प्रत्यय हैं। उनमें से आदि ति अथवा तिप् शब्द से त्यादि किंवा तिबादि ( = तिप् +- आदि ) संज्ञा बनी है। होइ इह-यहाँ होइ इस धातु रूप में से इ और अगला इ इनकी सन्धि नहीं १.१० लुग (लक)-लोप । प्रसंगवशात् उच्चारण में प्राप्त हुए वर्ण इत्यादि के श्रवण का अभाव ( अदर्शन ) यानी लोप। ति असीसो--ति अस + ईस । ति अस में से अन्त्य अ का लोप हुआ है। नोसासू सासा-नीसास + ऊसासा । नीसास में से अन्त्य अ का लोप हुआ है। १.११ अन्त्य-~-अन्तिम । शब्द में वर्गों के स्थान निश्चित करते समय, पहले वर्गों का विच्छेद करके, उच्चारण के क्रम के अनुसार, उनके स्थान निश्चित किए जाते हैं । उदा.- केशव = क् + ए + श + अ + व + अ । यहाँ क आदि है, और अ अन्त्य है; शेष वर्ण अनादि अथवा मध्य होते हैं। मरुत् शब्द में त् अन्त्य व्यञ्जन है। समासे भवति--समास में पहले पद का अन्त्य व्यञ्जन कभी अन्त्य माना जाता है तो कभी वह अन्त्य नहीं माना जाता है; तब उस उस मानने के अनुसार योग्य वर्णान्तर होता है। उदा०-10-भिक्षु समास में, द् अन्त्य मानने पर, उसका प्रस्तुत सूत्र के अनुसार लोप होकर, स-भिक्खु ऐसा वर्णान्तर होगा। यदि द् अन्त्य माना नहीं, तो सूत्र २.७० के अनुसार, सद्-भिक्षु का सब्भिक्ख ऐसा वर्णान्तर होगा। सभिक्ख , एअगुणा-यहां पहले पद के अन्त्य व्यञ्जन का लोप हुआ है। सज्जणो तग्गुणा .... यहां पहले पद का अन्त्य न मान कर वर्णान्तर किया हुआ है। १.१२ श्रद्-यह एक अव्यय है; वह प्रायः धा धातु के पूर्व आता है। उद्धातु के पीछे आने वाला उद् शब्द एक उपसर्ग है । १.३ निर दुर-धातु के पूर्व आने वाले ये दो उपसर्ग हैं । वा-यह अध्यय विकल्प दिखाता है। दुक्खिओ-दुःखित शब्द में, दुर् में से र का विसर्ग हुआ है। १.१४ अन्तरो .. ... न भवति --अन्तर्, निर्, और दुर् के अन्त्य र के आगे आने वाला स्वर उस र् में संपृक्त होता है। अन्तर-यह एक अव्यय है और वह धातु अथवा संज्ञा से जुड़ कर आ सकता है : अन्तोवरि -( अन्तर + उपरि )-यहां अंतर शब्द के र के आगे स्वर होने भी र् का लोप हुआ है।) १.१५-२१ इन सूत्रों में कहा हुआ विचार आगे जैसा कहा जा सकता है: Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पणियाँ विद्यत् शब्द छोड़ कर, अन्य कुछ व्यञ्जनान्त स्त्रीलिंगी शब्दों में, अन्त में आ स्वर मिलाकर अनन्तर वर्णान्तर होता है । उदा० - सरित् + आ = सरिता = सरिआ (सूत्र १.१७७ के अनुसार ) । इसी प्रकार पाडिवआ, सम्पदा ( सूत्र १.१४ ) । यही प्रकार रेफान्त शब्दों के बारे में होता है । उदा० – गिरा, धुरा, पुरा ( सूत्र १.१६ ) । इसी तरह छुहा ( सूत्र १.१७ ), दिसा ( सूत्र १.१९ ), अच्छरसा ( सूत्र १.२० ), और क उहा ( सूत्र १-२१ ) ये वर्णान्तर होंगे । अब, जो व्यञ्जनान्त शब्द प्राकृत में पुलिंगी होते हैं, उनमें से कुछ के अन्त में अ स्वर मिला कर वर्णान्तर होता है । उदा० - शरद् + अ = शरद = सरअ । इसी प्रकार भिसओ (सूत्र १.१८ ), पाउसो ( सूत्र १.१९ ), और दोहा उस ( सूत्र १.२० ) । १·१५ स्त्रियाम् — स्त्रीलिंग में । ईषत्स्पृष्टतरयश्रुति - सूत्र १.१८० देखिए । १·१६ रेफर वर्णं । आदेश - एकाध वर्णं अथवा शब्द के स्थान पर आने वाला अन्य वर्णं किंवा शब्द | १.२० दीहाऊ, अच्छरा - दीर्घायुस् और अप्सरस् शब्दों में अन्त्य स का लोप होकर ये रूप बने हुए हैं । ३२० १·२२ धणू – धनुस् शब्द के अन्त्य व्यञ्जन का लोप होकर यह शब्द बना है । १·२३ अनुस्वार—स्वर के पश्चात् | जिसका उच्चारण होता है वह अनुस्वार । उदा० - जलं शब्द में, अन्त्य अ स्वर के पश्चात् अनुस्वार का उच्चारण है । जलं ... पेच्छ- पिछला शब्द ( कर्म होने से ) द्वितीया विभक्ति में है, यह दिखाने के लिए पेच्छ ऐसा आज्ञार्थी रूप यहाँ प्रयुक्त किया है । । पेच्छ शब्द दृश् धातु का आदेश ( सूत्र ४.१८१ देखिए ) है । अनन्त्य - अन्त्य न होने बाला । १.२४ सक्खं, जं, तं, वीसुं, वीसुं, पिहं, सम्म - --- इन शब्दों में अन्त्य व्यञ्जनों का अनुस्वार हुआ है । इहं, इहयं - सच कहे तो यहाँ अन्त्य व्यञ्जन का अनुस्वार नहीं हुआ है ! इहं शब्द में ह ऊपर अनुस्वारागम हुआ है । इह शब्द के आगे स्वार्थे क ( य ) प्रत्यय आया, अनन्तर उसके हुआ है । आलेट्ठअं - - सूत्र २.१६४ देखिए । आश्लेष्टुम् के आगे आकर अनुस्वार का स्थान बदला हुआ हैं । इहयं शब्द में. पहले ऊपर अनुस्वारागम स्वार्थे क ( अ ) १.२६ आगमरूपोनुस्वारः---आगम स्वरूप में आने वाला व्यञ्जनों के सन्दर्भ में, अनुस्वारागम के बारे में ऐसा कहा जा व्यञ्जन में एक अवयव का लोप होने पर, उसके स्थान पर आता है । उदा० - क्रूर वक्क - - व० क ---वम् क-वं क । अणिउ तयं, अइ मुंतयं --सूत्र १.१७८ देखिए । क्वचिच्छन्दः पूरणेपि -- -- आवश्यक मात्रा ( अथवा गण ) पूर्ण करते समय । उदो०- देवं नाग सुवण्ण शब्द में छन्द के लिए 'व' अक्षर पर अनुस्वार आया है । ( अनुस्वार । संयुक्त सकता है :: -- संयुक्त कभी ) अनुस्वार Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरण- प्रथमपाद १२७ क्त्वायाः पण तु क्त्वा प्रत्यय पूर्वकाल वाचक धातुसाधित अव्यय साधने के लिए है । क्त्वा के सूत्र २०१४६ के अनुसार जो आदेश होते हैं, उनमें से तूण और तुआण आदेशों में होता है । स्यादि ( सि + आदि ) - यानी शब्दों को लगने वाले विभक्ति प्रत्यय । स्यादि संज्ञा के लिए सूत्र ३२ ऊपर की टिप्पणी देखिए । विभक्ति प्रत्ययों में तृतीया एकवचन और षष्ठो अनेक वचन इनमें ण होता है; और सप्तमी के अनेक वचनी प्रत्यय में सु होता है । का ऊणं काऊआणकर धातु के पूर्वकालवाचक धातु साधित अव्यय ( सूत्र २ १४६, ४२१४ देखिए ) । वच्छेणं वच्छेण- वच्छ शब्द के तृतीया ए० व० । करिअ -- कर धातु का पूर्वकाल वाचक धातुसाधित अव्यय ( सूत्र २०१४६, ३ १४७ देखिए ) । अग्गिणो-अग्गि शब्द का प्रथमा अनेक वचन ( सूत्र ३०२२ - २३ देखिए ) । दाणि - ये इदानीम् शब्द के वर्णान्तरित रूप है । ३२१ १.२९ इआणि १.३० अनुस्वारस्य वर्गे परे — अनुस्वार के आगे वर्गीय व्यञ्जन होने पर । यहाँ वर्ग का अर्थ वर्गीय व्यञ्जन है । व्यञ्जनों के वर्गों के लिए सूत्र ११ ऊपर की टिप्पणी देखिए । प्रत्यासत्ति - सांनिध्य, सामीप्य । वर्गस्यान्त्यः - ( उस उस ) वर्ग में से अन्त्य व्यञ्जन ( यानी ङ्, ञ्, नू, और म् 1 2 १०३१-३६ प्राकृत में शब्द का लिंग प्रायः संस्कृत समान हैं । तथापि कुछ शब्दों के लिंग प्राकृत में बदले हुए हैं। उनका विचार इन सूत्रों में है । १०३१ पुंसि - पुल्लिंग में । १९३२ सान्तम् नान्तम् - स् और न् इन व्यञ्जनों से अन्त होने वाले शब्दों के शब्दों के रूप | उदा०- - यशस्; जन्मन् । । १०३३ अच्छीइं - - यह नपुंसकलिंगी रूप है सूत्र ३ २६ देखिए । अञ्जल्यादि पाठात् -- अञ्जल्यादि यानी अञ्जलि शब्द आदि प्रथम होने वाला शब्दों का एक विशिष्ट समूह, वर्गं अथवा गण । इस गण में आने वाले शब्द सूत्र १.३५ ऊपर की वृत्ति में दिए गए हैं। एसा अच्छी-अच्छी रूप स्त्रीलिंगी है, यह दिखाने के लिए स्त्रीलिंगा सर्वनाम 'एसा ' प्रयुक्त किया है । चक्खूई; नयणाई, लोअणाई, वयणाई – ये सर्व नपुंसकलिंगी रूप हैं। विज्जूए - स्त्रीलिंगी रूप है । कुलं, छंद, माहप्पं, दुक्खाई, भामणाई -- ये नपुंसकलिंगी रूप हैं। सिद्धम्-हेमचन्द्र का मन ऐसा दिखाई देता है कि नेत्र और कमल ये शब्द संस्कृत में पुंल्लिगी और नपुंसकलिंगी हैं। नेत्ता १·३४ क्लीबे--नपुंसकलिंग में । गुणा, देवा, बिन्दुणो खग्गो, मण्डलग्गो, कररुहो, रुक्खा -- ये सब पुल्लिंगी रूप है । विहवेहि गुणाइँ मग्गन्ति -- विभवैः गुणान् मार्गयन्ति, ऐसो भी संस्कृत छाया दी गई है । २१ प्रा० व्या० Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२ टिप्पणियां १.३५ एसा गरिमा... .."एस अञ्जली--यहाँ शब्द का स्त्रीलिंग तथा पुल्लिग दिखाने के लिए अनुक्रम से एसा और एस ये सर्वनाम के स्त्रीलिंगी और पुल्लिगी रूप प्रयुक्त किए हैं । गड्डा, गड्डो--सूत्र २.३५ देखिए । इमेति तन्त्रेण--सूत्र में इमा ( इमन् ) ऐसा प्रत्यय कह कर नियम दिए जाने के कारण । त्वादेशस्य संग्रहः-- संस्कृत में भाव वाचक नाम साधने का 'त्व' प्रत्यय है। उदा.--बाल बालत्व । इस त्व प्रत्यय को प्राकृत में इमा (डिमा) और तण ऐसे आदेश होते हैं । ( सूत्र २.१५४ देखिए)। उदा०--पीणिमा, पीणत्तण । तथा, संस्कृत में पृथु इत्यादि कुछ शब्दों को इमन् प्रत्यय लगाकर भाववाचक नाम साधे जाते हैं। उदा०-पृथ प्रथिमन् । अब, प्रस्तुत सूत्र में जो इमा शब्द प्रयुक्त किया है, वह त्व का आदेश इस स्वरूप में आने वाला इमा (डिमा) और पृथु इत्यादि शब्दों को लगने वाला इमा ( इमन् ), इन दोनों का ही ग्रहण ( संग्रह ) करता है । १.३६ बाहु--यह शब्द संस्कृत में पुल्लिगी है। १.३७ संस्कृत लक्षण-संस्कृत व्याकरण । डो... ... भवति--डो ऐसा आदेश होता है । डो यानी डित् ओ। डित् शब्द का अभिप्रायः है जिसमें ड् इत् है वह । डो में ड् इन् इत् है। विशिष्ट प्रयोजन साधने के लिए शब्द के आगे या पीछे इत् वर्ण जोडे जाते हैं। इत् वर्ण वर्ण यानी जो वर्ण आता है और अपना कार्य करके जाता है; इस लिए शब्द के अन्तिम रूप में इत् वर्ण नहीं होता है । अब, जिसमें ड् इत् ऐसा डित् प्रत्यय ( अथवा आदेश ) जिस शब्द के आगे आता है, उस शब्द के भ' के 'टि' का लोप होता है। भ यानी प्रत्यय लगाने के पूर्व होने वाला शब्द का रूप ( अंग )। टि यानी शब्द में अन्त्य स्वर के साथ अगले सर्व वर्ण । संक्षेप में, डित् प्रत्यय अथवा आदेश लगते समय, शब्द के अंग में से अन्त्य स्वर के साथ अगले सवं वर्गों का लोप होता है । उदा०--सवंतः + डो = सव्वत् = ओ = सव्वदो = सवओ। सिद्धावस्था--सूत्र १.१ ऊपर की टिप्पणी देखिए। कुदो--ऐसा बर्णान्तर शौरसेनी भाषा में भी होता है। १.३८ यथासंख्यम्-अनुक्रम से । अभेदनिर्देशः सर्वादेशार्थः -'निष्प्रती ओत्परी ऐसा इस सत्र में अभेद से किया हुआ निर्देश यह दिखाने के लिए है कि आदेश संपूर्ण शब्द को होता है। १.३६ ह अधिकार सूत्र है । 'प्रावरणे अङ्ग्वाऊ' ( सूत्र १.१७५ ) इस सूत्र के अन्त तक उस का अधिकार है। १.४० त्यदादि--त्यत् इत्यादि सर्वनामों को त्यदादि संज्ञा है। उसमें त्यद्, सद्, यद् एतद इत्यादि सर्वनाम आते हैं । अव्यय-तीनों लिंगों, सब विभक्तियों और वचनों में जि का रूप विकार न पाकर वैसा ही रहता है वह अव्यय । अम्हे-अम्ह Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरण-प्रथमपाद ३२३ (/ अस्मद् ) सर्वनाम का प्रथमा अ० व० । इमा-इम (Vइदम् ) सर्वनाम का स्रोलिंगी प्रथमा ए० व० । अहं-अम्ह सर्वनाम का प्रथमा ए० व० । एत्थ-सूत्र २१६१, १५७ देखिए । १.४१ अपि-इस अव्यय के पि, वि, अवि ऐसे वर्णान्तर होते हैं। १.४२ इति-इस अव्यय के ति, ति, इअ ऐसे वर्णान्तर होते हैं। इअ-सूत्र १.९१ देखिए । १.४३ प्राकृतलक्षण-प्राकृतव्याकरण । याद्याः ! य् + आद्याः )-इत्यादि । यानी सूत्र में कहे हुए य र व् इत्यादि वर्ण । उपरि अधो वा-संयुक्त व्यञ्जन में प्रथम अवयव अथवा द्वितीय अवयव होना । इस सूत्र में, य इत्यादि व्यञ्जनों के आगे दिए हुए संयुक्त व्यञ्जन विचार में लिए हैं:-इय, श्र, श, श्व, श; ष्य, र्ष, व, ष्ष; स्य, स्र, स्व, स्स । तेषामादे..... भवति--संयुक्त व्यञ्जन में से एक अवयव का लोप होने पर, उसके निकट पूर्व ह्रस्व स्वर दीर्घ होता है। उस कारण से शब्द की मात्राएं कायम रहती हैं। उदा०-पश्यति-पस्सइ-पासइ । न दोर्घात.. द्वित्वाभावः'अनादौ द्वित्वम्' ( सूत्र २.८९ ) सूत्रानुसार, संयुक्त व्यञ्जन में से एक अवयव का लोप होने के बाद शेष बाकी अनादि व्यञ्जन का द्वित्व होता है। उदा०-अर्कअ० क् अ-अक्क्म -अक्क । परंतु संयुक्त व्यञ्जन के निकट पूर्व दीर्घ स्वर हो, तो यह द्वित्व नहीं होता है, ऐसा 'दोर्धानुस्वारात्' ( सत्र २.९२ ) सूत्र में कहा है। उदा० ---- ईश्वर = इसर । अब, प्रस्सुत स्थान पर, श्य इत्यादि संयुक व्यञ्जन में, एक अवयव का लोप होने पर, निकटपूर्व स्वर दीर्घ होता है; इसलिए यहां दिए हुए उदाहरणों में स्वभावतः द्वित्व का अभाव है। १.४४-१२५ प्राकृत में अ, आ, इ, ई, उ, ऊ वर्ण होते हैं । तथापि वे जिन शब्दों में होते हैं, उनमें से कुछ संस्कृत शब्दों का वर्णान्तर होते समय, इन स्वरों में भी कुछ विकार होते हैं। उनमें से अ के विकार सूत्र ४४-६६, आ के विकार सूत्र ६५-८३, इ के विकार सूत्र ८५-९८, ई के विकार सूत्र १९-१ ६, '3 के विकार सूत्र १०७.११७, और ऊ के छिकार मूत्र ११८-२.५ इन मंत्रों में कहे हुए हैं । १.४४ आकृतिगणो..... भवति-समान रूप होने वाले शब्द समूह का गण किया जाता है। उनमें से एक शब्द से उस गण को नाम दिया जता है । उदासमृदयादिगण : समुद्ध्यादि आकृतगण है। जिस गण के कुछ शब्द वाङ्मयीन प्रयोग से निश्चित किए जाते हैं यह आकृतिगण । इसलिए यहां समृद्ध्याग क शब्द कहते समय,न दिए हुए ऐसे अस्पर्श इत्यादि शब्द भी इस गण में अंतर्भूताते हैं, और उन्हें यहां दिया हआ नियम लगता है। Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पणियाँ १४५ दक्षिण- इस शब्द के वर्णान्तर में आने वाले ह में लिए सूत्र २७२ देखिए । १-४६ सिविण - स्वप्न शब्द के इस स्वर भक्ति के लिए सूत्र २०१०८ देखिए । सिमिण -- इसमें से म के लिए सूत्र १२५९ देखिए । दिण्ण-- इस रूप के लिए सूत्र । २·४३ देखिए । ३२४ १४७ पिक्क पक्क - - मराठी भाषा में : पक्का, पिका, पिक ( ला ) | इंगाल -- मराठी में : -- इंगल, इंगली । गिडाल - मराठी में : -- निढक । १·४९ छत्तिवण्ण--स के छ के लिए सूत्र १२६५ देखिए । १-५० मयट् प्रत्यय-- विकार, प्राचुर्य, इत्यादि दिखाने के लिए संस्कृत में मयट् ( मय ) प्रत्यय जोड़ा जाता है । उदा०--- विष विषमय । विसमइओ -- विसमइ के आगे स्वार्थे के ( अ ) प्रत्यय आया है । १·५२ कथं सुणओ - - सुणओ वर्णान्तर श्वन् शब्द में आदि अ बना हुआ दिखाई देता है । परन्तु श्वन् शब्द मात्र सूत्र में नहीं कहा है। रूप कैसे बनता है ऐसा प्रश्न यहाँ है । सा साणो -- सूत्र ३५६ देखिए । १-५३ अस्य णकारेण सहितस्य --शकार से सहित अ का । सूत्र में से खण्डित शब्द में णकार है, परन्तु सूत्र में से वन्द्र शब्द में णकार नही है । सूत्र में से अनेक शब्दों में से एक ही शब्द में से वर्णों का इसी प्रकार का निर्देश हेमचन्द्र सूत्र १.९२ ऊपर की वृत्ति में करना है। अब, णकार का सम्बन्ध सिर्फ खण्डित शब्द के साथ लेना नहीं ऐसा कहे, तो 'बुन्द्रं वुन्द्र' इस उदाहरण के बदले पाठ भेद से होने वाले 'वुद्रं वन्द्र' यह उदाहरण लेकर णकार में नकार अन्तर्भूत है, ऐसा मानना होगा | त्रिविक्रम मात्र कहता है : -- 'चण्डखण्डिते णा वा' (१९२०१९) : - - चण्डखण्डितशब्दयोर्णकारेण सहितस्यादेवर्णस्य उद् भवति । का उ होकर इसलिए यह १-५४ वकाराकारस्य से संपृक्त होने वाले का | १-५५ पकारथकारयोरकारस्य - - प् और य् व्यञ्जनों में से संपृक्त रहने वाले अकार का सुगयत् —— एकदम, एक समय । १-५६ ज्ञस्यणत्वे कृते-ज्ञकाण किए जाने पर । प्राकृत में ज्ञ के बर्णान्तर ण (सूत्र २४ और ज ( सूत्र २८३ ) होते हैं । ज्ञ का ण ऐसा वर्णान्तर किए जाने पर, इस सूत्र का नियम लगता है । १.५८ अच्छेरं .अच्छरीअं - आश्चर्य शब्द के प्राकृत में अनेक वर्णान्तर होते हैं | उदा० – सूत्र २०६६ नुसाद् र्य का र, और सूत्र २०६७ नुसार र्य के रिअ, अर, और रिज्ज होते हैं । Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरण-प्रथमपाद ३२५ १.६१ विश्लेष—(शब्दशः) वियोग संयुक्त व्यञ्जन में से दो अवयवों के बीच में स्वर डालकर व्वञ्जन पृथक् करना यानी संयुक्त व्यञ्जन दूर करना यानी विश्लेष । इसको ही स्वर भक्ति ऐसा भी कहा जाता है। स्वर भक्ति के लिए सूत्र २.१००११५ देखिए । १.६३ ओप्पेइ-मराठी में:-ओपणे । १.५५ नत्रः परेन के आगे । संस्कृत में नञ् (न) यह निषेधदर्शक अव्यय है । १.६७ तलवेण्टं... .."तालवोण्टं--सूत्र १.१३९, २.३१ देखिए । बाम्हणो, पुवाण्हो-यहाँ म्ह इस संयुक्त व्यञ्जन के पीछे आ दीर्घ स्वर ह्रस्व न होते, वह वैसा ही रहा हुआ दिखता है। उसका कारण प्राकृत में व्यवहारतः म्ह संयुक्त व्यञ्जन न होने, (ख; भ इत्यादि के समान) म् का हकार से युक्त रूप है । दवग्गी... सिद्धम्-दवगी और बडू शब्दों में प्रस्तुत सूत्र से आ का अ हुआ है। ऐसे कहने का कारण नहीं है । कारण दवाग्नि और चटु इन दो शब्दों से ही वे सिद्ध हुए हैं। १.६८ धन .... आकार:---धञ् प्रत्यय के निमित्त से ( मूल शब्द में ) वृद्धि होकर आया हुआ आकार । संस्कृत में धञ् एक कृत् प्रत्यय है; वह लगते समय, धातु में से स्तर में वृद्धि होती है । अ, इ-ई, उ-ऊ, ऋ ऋ और ल इनके अनुक्रम से आ, ऐ, औ, आर् और आल होना यानी वृद्धि होना । १.६६ मरहट्ठ-महाराष्ट्र शब्द में वर्ण व्यत्यय होकर यह शब्द बना है । सूत्र २.११९ देखिए। १.७४ संखायं.... "सिद्धम्-स्त्य धातु से बने हुए स्त्यान शब्द में आ का ई होता है। परन्तु सं-स्त्यै धातु से साधे हुए संखाय शब्द में आ का ई दिखाई नहीं देता है । कारण सूत्र ४.१५ नुसार संस्त्यै धातु को संखा ऐसा आदेश होने पर, संखाय रूप सिद्ध हुआ है। १.७५ सुण्हा—इसमें से 'हा' के लिए सूत्र २.७५ देखिए। थुवओ---इस में से थ के लिए सूत्र २.४५ देखिए । १७८ गेज्झ--ज्झ के लिऐ सूत्र २२६ देखिए । १.७६ दारं बार--द्वार में से व् के लोप के लिए सूत्र २७९ देखिए । द् का लोप और द् का ब् होकर बार रूप बना है। कथं नेरइओ नारइओ-नारकिक शब्द में, आ का विकल्प से ए होकर, नैरइओ और नारइओ रूप न बने हों; तो वे कैसे बने हैं, ऐसा प्रश्न यहाँ है। . १.८१ मावट-प्रत्यये--मात्रट ( = मात्र ) प्रत्यय में। मात्रच् ( मात्र ) एक Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२६ टिप्पणियाँ परिमाप वाचक तद्धित प्रत्यय है । एत्तिअ - इस रूप के लिए सूत्र २ १५७ देखिए । मात्र - शब्दे - केवल किंवा । सिर्फ अर्थ दिखाने वाला मात्र शब्द है । १९८२ अल्ल - - मराठी में:-ओल, ओला । १८४ दीर्घस्य वह दीर्घस्वर ह्रस्व होता है । अहरुट्ठ - ए और ओ स्वरों के वे ""ह्रस्वो भवति - दीर्घ स्वर के आगे संयुक्त व्यञ्जन होने पर, प्राकृत में यह एक महत्त्वपूर्ण नियम है । नरिन्दो, आगे संयुक्त व्यञ्जन आने पर, ह्रस्व ए और ओ के स्थान पर अनेकदा अनुक्रम से ह्रस्व इ और हैं । अतएव यहाँ नरिन्दो, अहरुट्ठ रूप दिए हैं। आयास ( आकाश ) - यहां संयुक्त व्यञ्जन न होने से, दीर्घस्वर ह्रस्व होने का प्रश्न निर्माण नहीं होता है । ईसर-ईश्वर शब्द में से संयुक्त व्यञ्जन के एक अवयव का लोप हुआ और पिछला दीर्घ स्वर वैसा ही रह गया । ऊसव - ( उत्सव - उस्सव - ऊसव ) यहाँ संयुक्त व्यञ्जन के एक अवयव का लोप होने पर, पिछला स्वर दीर्घ हुआ है । १.८८ हलद्दी -- मराठी में: - हवदी, हवद । बहेडओ - मराठी में बेहडा । पथिशब्द ' ...भविष्यति हेमचंद्र के मतानुसार पन्थ शब्द भी संस्कृत में है; वह पथिन् शब्द का समानार्थक है; और उस शब्द से 'पत्थं किर देसित्ता' में से पंथ शब्द द्वितीया एकवचन का रूप है । ह्रस्व होते हैं । इन ह्रस्त्र उ लिखे जाते १९८६ सदिल - - मराठी में सढक | निर्मित शब्दे" • सिद्धेः - निम्मिअ और निम्मा अ शब्द निर्मित शब्द में इ का विकल्प से आ होकर बने हुए हैं क्या इस प्रश्न का उत्तर यहाँ है । १९२ जीहा - सूत्र २५७ के अनुसार जिह्वा शब्द का वर्णान्तर जिब्भा हुआ; अनन्तर ब् का लोप होकर जीभा; बाद में सूत्र १९८७ नुसार भ का ह होकर जोहा शब्द बना, ऐसा भी कहा जा सकता है । १·६३ निर् उपसर्गस्य- निर् उपसर्ग का जिन अव्ययों का धातु से योग होता है उन्हें उपसर्ग कहते हैं । उपसर्ग धातु के पीछे जोड़े जाते हैं । प्र, परा, सम्, अनु, अव, निर्, दुर्, अभि, वि, अधि, अति इत्यादि उपसर्ग होते हैं । निस्सहाइँ - सूत्र ३°२६ देखिए । १९४ नावुपसर्गे - नि उपसर्ग में । णुमज्जइ - यह शब्द निमज्जति शब्द का वर्णान्तर है । (मज्ज ऐसा नि + सद् धातु का आदेश भी है। सूत्र ४°१२३ देखिए ) | १·३५ उच्छू – मराठी में ऊस । १९६ जहुट्ठलो जहिट्ठिलो - र् के लू के लिए सूत्र १*२५४ देखिए । १·९७ कृग् धातोः -- कृ धातु का । Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरण-प्रथमपाद ३२७ १.१०. कम्हारा-श्म के म्ह के लिए सूत्र २.७४ देखिए । १.१०२ जुण्ण ---मराठी में जुना । १.१०४ तीर्थ---इस शब्द में सूत्र २७२ के अनुसार ह आता है। १.१०८ अवरि उवरि-यहाँ अन्त्य रि के ऊपर अनुस्वारागम हुआ है । १.११४ ऊसूओ... .. ऊसरइ-इन उदाहरणौ में, संयुक्त व्यञ्जन में से एक अवयव का लोप होकर पिछला स्वर दीर्घ हुआ है, ऐसा भी कहा जा सकता है । १.११५ सदृश नियम सूत्र १.१३ में देखिए । १.११६ सदृश नियम सूत्र १.८५ में देखिए । १.१२१ भुमया--सूत्र २.१६७ देखिए । १.१२४ कोहण्डोकोहाली-इस वर्णान्तर के लिए सूत्र २.७३ देखिए । कोहली, कोप्परं, थोरं, मोल्लं-मराठी में-कोहका, कोपर; थोर, मोल । १.१२६-१४५ प्राकृत में ऋ, ऋ और ल स्वर नहीं होते हैं। प्राकृत में उन्हें कौन से विकार होते हैं, यह इन सूत्रों में कहा है। १.१२६ तणं -मराठी में तण । कृपादिपाठात्-कृपादि शब्दों के गण में समावेश होने के कारण कृपादिगण के शब्द सूत्र १.१२८ ऊपर की वृत्ति में दिए गए हैं । परन्तु वहां द्विधाकृतम् शब्द मात्र नहीं दिया गया है। १.१२८ दिट्ठी-मराठी में दिठी । विञ्चुओ-मराठी में विचू । १.१२६ पृष्ठशब्देनुत्तरपदे --पृष्ठ शब्द समास में उत्तर पद न होने पर ( यानो वह समास में प्रथम पद होने पर )। १.१३० सिंग-हिंदी में सींग; मराठी में शिंग । धिट्ठ-मराठी में धीट । १.१:१ पाउसो-मराठी में पाउस । १.१३३ ऋतो वेन सह-( वृषभ शब्द में ) व के सह ऋ का । वसहोसूत्र १.१२६ देखिए । १.१३४ गौणशब्दस्य-(समास में ) गौण शब्द का तत्पुरुष समास में पहला पद गौण होता है । माउसिआ पिउसिआ-इन शब्दों में से 'सिआ' वर्णान्तर के लिए सूत्र २.१४२ देखिए । १.१३५ मातृशब्दस्य गौणस्य-सूत्र ११३४ ऊपर की टिप्पणी देखिए । माईणं-माइ (/मातृ) शब्द का षष्ठी अनेक वचन । १.१.१ रिज्जू उज्जू-मराठो में उजु । द्वित्व के लिए सूत्र २९८ देखिए । Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२८ टिप्पणियाँ प्रत्यय होते हैं । सर्वनाम के अनन्तर अथवा प्रत्यय लगाकर, दृश्, दृश और दृक्ष इन शब्दों उदा० - ईदृश्, ईदृश, ईदृक्ष; सदृश्, सदृश, कौन सा क्विप् प्रत्यय अभिप्रेत है, वह यहाँ १-१४२ क्विप् टक् सक् —ये कृ 'स' के बाद आने वाले हण् धातु को ये से अन्त होने वाले शब्द सिद्ध होते हैं सदृक्ष । टक्....गृह्यते - इस सूत्र में कहा है । । १९१४६-४७ ए स्वर प्राकृत में हैं। ए स्वर होने वाले आते समय कभी उनमें विकार होते हैं । वे इन सूत्रों में कहे हुए हैं । १·१४६ वेदनादिषु — वेदनादि शब्द इसी सूत्र में दिए गए हैं । महमहिअ - यह शब्द महसह धातु का क० भू० धा० वि० है । महमह धातु प्रसृ धातु का आदेश है (सूत्र ४७८ देखिए ) । संस्कृत शब्द प्राकृत में १·१४८-१५५ प्राकृत में प्रायः ऐ स्वर नहीं है । इस ऐ को होने वाले विकार इन सूत्रों में कहें हुए हैं । १९४९ सिन्धवं सणिच्छरो— सैन्धव और शनैश्वर शब्दों में पहले ऐ का ए हुआ (सूत्र १९४८ देखिए ) ; यह ए सूत्र १९८४ के अनुसार ह्रस्व होता है; इस ह्रस्व ए के स्थान पर ह्रस्व इ आई है, ऐसा भी कहा जा सकता है । १·१५० सिन्नं --सूत्र १०१४९ ऊपर की टिप्पणी देखिए । १·१५३ देव्वं दइव्वं -- इन शब्दों में से द्वित्व के लिए सूत्र २९९ देखिए । १·१५४ उच्च" "सिद्धम् - उच्च और नीचः शब्दों के वर्गान्तर उच्च और नीच होते हैं । तो फिर उच्च और नीच शब्दों के वर्णान्तर कौन से होते हैं ? उत्तर है- उच्च शब्द का उच्च और नीच शब्द का नीच, नयि ऐसे वर्णान्तर होते हैं । १.१५६-५८ प्राकृत में ओ स्वर होता है । तथापि कुछ संस्कृत शब्द प्राकृत में आते समय उनके ओ में कभी विकार होते हैं । वे विकार इन सूत्रों में कहे हुए हैं । १·१५६ अग्नुन्नं, पउट्ठो, आउज्जं -- इन शब्दों में से ओ सूत्र अनुसार ह्रस्व होता है; अनन्तर ह्रस्वओ के स्थान पर हम्व उ लिखा पवट्ठो,आवज्जं-यहाँ क औरत का व हुआ है । १९८४ के जाता है । १·१५९*६४ औ स्वर प्राकृत में नहीं है । प्राकृत में "ओ से होने वाले वर्णान्तर इन सूत्रों में कहे हुए है । १९५६ जोव्वणं - यहाँ के द्वित्व के लिए सूत्र २०१८ देखिए । १·१६० सुंदेरं — सूत्र २०६३ देखिए । सुंदरिअं - - सूत्र २१०७ देखिए । सुन्दरं सुद्धोअणी - इन शब्दों में औ का ओ हुआ है ( सूत्र १-१५९ ! आगे Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरण-प्रथमपाद ३२९ संयुक्त व्यञ्जन होने से यह ओ ह्रस्व हो जाता है और इस ह्रस्व ओ के स्थान पर ह्रस्व उ लिखा गया है, ऐसा भी कहा जा सकता है। १.१६१ कुच्छेअयं--सूत्र १.१६० के ऊपर की 'सुंदेरं....."सुद्धोअणी' ऊपर की टिप्पणी देखिए। १.१६४ नावा--मराठी में नाव । १:१६५-७५ इन सूत्रों में संकीर्ण स्वर विकार कहे हुए हैं । १.१६६ थेरो--मराठी में थेर (डा)। वेइल्लं-द्वित्व के लिए सूत्र २.९८देखिए । मुद्धविअइल्लपसूण पुंजा---यहाँ विअइल्ल शब्द में ए नही हुआ है। १.१६७ केलं केली--मराठी में केल केली । हिंदी में केला । १.१७० पूतर--'अधम; जलजन्तुर्वा' ऐसा अर्थ त्रिविक्रम देता है । बोरं बोरी--मराठी में बोर, बोरी। पोप्फलं पोप्फली-मराठी के पोफल, पोफली। १.१७१ मोहो–यहाँ मऊह ( सूत्र १.१७७ ) में उद्धृत स्वर का पिछले स्वर से संधि होकर मो हआ, ऐसा भी कहा जा सकता है। लोणं-मराठी में लोण, लोणा । चोग्गुणो, चोत्थो, चोत्थी, चोदह, चौद्दसी, चोव्वारो-इन शब्दों में प्रथम त् का लोप ( सूत्र १.१७७ ) होकर फिर उ इस उद्वृत्त स्वर का पिछले स्वर से संधि होकर चो हुआ है, ऐसा भी कहा जा सकता है। सोमालो-इस शब्द में र के ल के लिए सूत्र १.२५४ देखिए । १.१७३ ऊज्झाओ--दीर्घ ऊ होता है ऐसा कहकर यह वर्णान्तर दिया गया है । (ऊ के आगे ज्झ संयुक्त व्यञ्जन होने से, उज्झाओ ऐसा भी वर्णान्तर कभी-कभी दिखाई देता है)। १.१७४ णुमण्णो-सूत्र १९४ के नीचे णुमण्णो (नो) शब्द निमग्न शब्द का वणन्तिर इस रूप में दिया था । पर यहां मात्र णुमण्णो शब्द निप्पण्ण का आदेश है ऐसा कहा है। १.१७५ पंगुरणं--मराठी में पांग (घ) रुण। १.१७६-२७१ इन सूत्रों में अनादि असंयुक्त व्यञ्जनों के विकार कहे हुए हैं। १.१७६ यह अधिकार सूत्र है। प्रस्तुत प्रयम पाद के अन्त तक इस सूत्र का अधिकार है। १.१७७ स्वर के अगले अनादि असंयुक्त क् ग् च ज त् द् प य व इन ब्यञ्जनों का लोप होता है। यह एक महत्त्वपूर्ण वर्णान्तर है।। Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पणियाँ प्रायो लुग् भवति - इस सन्दर्भ में मार्कंडेय का कथन लक्षणीय है : - 'प्रायोग्रहपतश्चात्र कैश्चित् प्राकृतकोविदैः । यत्र नश्यति सौभाग्यं तत्र लोपो न मन्यते ॥ " ( प्राकृत सर्वस्व २२ ) । ऐसा कुछ प्रकार प के बारे में हेमचन्द्र सूत्र १.२३१ ऊपर की वृत्ति में कहना है । विउहो - विबुध में से ब् का व् होकर, फिर व् का लोप हुआ, ऐसा यहाँ समझना है । समासे विवक्ष्यते —समास में दूसरा पद भिन्न है ऐसा विवक्षा हो सकती है । इसलिए सम्पूर्ण समास एक ही पद माना जाय, तो दूसरे पद का आदि व्यञ्जन अनादि होगा; परन्तु दूसरा पद भिन्न माना जाय, तो उसका आदि व्यञ्जन आदि ही माना जाएगा । इस मन्तव्य के अनुसार, उस व्यञ्जन के वर्णान्तर, साहित्य में जैसा दिखाई देगा वैसा, होंगे । उदा० - जलचर समास में च आदि माना जाय तो जलचर वर्णान्तर होगा; च अनादि माना जाय, तो जलयर ऐसा वर्णान्तर होगा । इन्धं - सूत्र २.५० देखिए । कस्य गत्वम् - ( माहाराष्ट्री ) प्राकृत में कभी क का ग होता है । उस सन्दर्भ में हेमचन्द्र सूत्र ४.४४७ का निर्देश करता है | अर्धमागधी प्राकृत में प्रायः क का ग होता है । ३३० १. १७८ अनुनासिक - मुख और नासिका के द्वारा जिसका उच्चारण होता है वह अनुनासिक | अब इस कथनानुसार, म् का अनुनासिक होने पर, उद्वृत्त स्वर का उच्चारण सानुनासिक ( अनुनासिक के साथ ) होगा; यह उच्चारण उस अक्षर के ऊपर चिह्न रख कर दिखाया जाता है । उदा० - यमुना - जउँणा । १-१७६ इस सूत्र के अनुसार प् का लोप न हो, तो सूत्र १२३१ के अनुसार का व् होता है । र्भवति — सूत्र १.१७७ १·१८० कगचजे. अनुसार, क् ग् इत्यादि व्यञ्जनों का लोप होने पर, उद् वृत्त स्वर अ और मा ( अवर्ण ) होने और यदि उनके पीछे अ और आ स्वर होंगे ( अवर्णात् परः ), तो उन उद्वृत्त अ और आ का होने वाला उच्चारण लघुतर प्रयत्न से उच्चारित य् व्यञ्जन के समान सुनाई देता है; इस श्रवण को य-श्रुति कहते हैं । और इसलिए इन अ और आ के स्थानों पर कभी-कभी य और या लिखे जाते हैं । अवर्णा पियइ अ और आ स्वर पीछे होने पर, उद् वृत्त होने वाले अ और आ की य-श्रुति होती है, इस नियम का अपवाद है, ऐसा हेमचन्द्र मान्य करते दिखाई देता है; इसलिए उसने 'पियई' उदाहरण दिया है । १-१८१ खुज्जो खप्परं खलिओ - मराठी में खुजा; खापर; खील, खिल । बासिअं - हिंदी में खांसी । १.१८२ गेंदुअं - हिंदी में गेंद । १९१८३ चिलाओ - र् के ल् के लिए सूत्र १२५४ देखिए । Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरण- प्रथमपाद १·१८६ फलिहो - ट् के लू के लिए सूत्र १.१९७ देखिए । १·१८७ वर के अगले अनादि असंयुक्त खु ध् थ् ध् म् इनका प्रायः ह होता है, यह वर्ण विकार का एक महत्त्वपूर्ण नियम है । मुहं - हिंदी में मुह । मिहुणं - मराठी में मेहुण | बहिरो - मराठी में बहिरा, बहिर (ट) | हिंदी में बहरा । ३३१. १-१८८ डॉ० प० ल० वैद्य जो के मतानुसार, यह सूत्र १०१०८ के बाद आना चाहिए था । ( कारण तब १२०४ २०८ सूत्रों में कहे गए न के विकारों के अनन्तर प्रस्तुत का थ विकार आया होता ) । परन्तु हेमचन्द्र ने ऐसा किया दिखाइ देता है:सूत्र १-१८७ में थ का एक विकार कहा, उससे भिन्न ऐसा थ का विकार तुरंत प्रस्तुत सूत्र में कहा । ऐसा ही प्रकार हेमचन्द्र ने ख के बारे में सूत्र १०१८९ में किया है । १·१८६ संकलं--शृङ्खल शब्द में ङ्ख संयुक्त व्यञ्जन होने से, सूत्र १९१८७ के अनुसार यहां ख का ह नहीं होता है । - १·१६० पुन्नामाइँ - इस रूप के लिए सूत्र ३० २६ देखिए । १·१९१ छालो - यह पुल्लिंगी रूप है । छाली - यह स्त्रीलिंगी रूप है । १-१२ दूहवो -- दुभंग शब्द में, सूत्र १ ११५ के अनुसार रेफ का लोप होकर, पिच्छला ह्रस्व उ स्वर दीर्घ ऊ होकर, दूभग शब्द बनता है । अब प्रस्तुत सूत्रानुसार, ग का व होकर दूहव वर्णान्तर होता हैं । दूहव शब्द के साम्याभास से, सुभग शब्द के बारे में भी ऐसा ही प्रकार होकर, सूहव वर्णान्तर होता है; ऐसा दिखाई देता है । ११६३ पिसल्लो --- मराठी में पिसाल । १·१६५ स्वर के अगले अनादि असंयुक्त ट का ड होता है, यह एक महत्त्वपूर्ण वर्णान्तर है | घडोघडइ - मराठी में धडा, धरण | ११९८ ण्यन्ते च पटिधातौ -- ये शब्द सूत्र में से पार्टी शब्द का अनुवाद करते हैं । धातु के प्रेरक / प्रयोजश रूप में, ऐसा उनका अर्थ है । यन्त--संस्कृत में णि ( णिच् ) प्रत्यय धातु को जोड़कर प्रेरक धातु का रूप साधा जाता है । इसलिए ण्यत्त यानी प्रेरक प्रत्ययान्त धातु ) । कालेइ फाडेइ-हेमचन्द्र के मतानुसार, ये शब्द पाटयति शब्द के वर्णान्तर हैं । तथापि डॉ० वैद्य जी के मतानुसार, ये वर्णान्तर स्फाल और स्फट् धातुओं के प्रेरक रूपों से साधे गए हैं । फाडे - मराठी में फाडणे | हिंदी में फाड़ना ।, १·११६ स्वर के अगले अनादि असंयुक्त ठ का ढ होता है । कुढारो - मराठी में कुण्हाउ । पढइ - हिंदी में पढना । मराठी में पढणे | चिट्ठइ ठाइ - चिट्ठ और ठा स्था धातु के आदेश है ( सूत्र ४१६ देखिए ) । १·२०२स्वर के अगले अगादि असंयुक्त ड का ल होता है । गुलो-मराठी में गूल Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३२ टिप्पणियाँ १·२०३ वेलू - - मराठी में वेकू । १·२०६ बहेडओ हरडई मडयं -- मराठी में बेहडा, हिरडा, मडे ( मटे ) | पइट्ठा - मराठी में पैठा, पैठ । १·२०७ इ: स्वप्नादौ "बलात्—वेतस त में से अ का इ होने पर हो, त का ड होता है, वेतस शब्द में अ का इ न हो, तो त का ड न होते, इसका अभिप्रायः - प्रस्तुत सूत्र में से ' इत्व होने पर ही' सामर्थ्य से वेतस शब्द में 'इ: स्वप्नादी' इस सूत्र के जब वैसा नहीं होता है तो वे अस वर्णान्तर हो जाता है " । शब्द ऐसा सूत्र १°४६ के अनुसार, प्रस्तुत सूत्र कहता है । यदि अस ऐसा वर्णान्तर होता है । इन शब्दों की व्यावृत्ति के अनुसार इकार नहीं होता है, १२०८ अणितयं -- सूत्र १९७८ देखिए । १·२०६ अत्र केचिद्नोच्यते - यहाँ हेमचन्द्र के पूर्ववर्ती एक वैयाकरण वररुचि के कहे हुए एक नियम का प्रतिवाद है, ऐसा दिखाई देता है । 'ऋत्वांदिष तो द; ( प्राकृत प्रकाश, २७ ) इस वररुचि के सूत्र में कहा है कि स्वर के अगले अनादि असंयुक्त त का द प्राकृत में होता है । हेमचन्द्र के मतानुसार, ऐसा न का द होना यह ( माहाराष्ट्री ) प्राकृत का वैशिष्ट्य नहीं हैं; वह शौरसेनी और मागधी भाषाओं का वैशिष्टय | इसलिए हेमचन्द्र यहाँ कहता है कि प्रस्तुत स्थल में प्राकृत के विवेचन में न का द होना यह वर्णान्तर नहीं कहा गया हैं । न पुन इत्यादि - ( माहाराष्ट्री ) ...... प्राकृत में अनादि असंपृक्त त का द न होने के कारण, ऋतु, रजन इत्यादि शब्दों के रिउ, रमय इत्यादि रूप होते हैं । परन्तु उदू, रयदं इत्यादि वर्णान्तर मात्र नहीं होते हैं । क्वचित् सिद्धम् - - मानो माहाराष्ट्री प्राकृत में क्वचित् कुछ शब्दों में तकाद हुआ है ऐसा दिखाई पड़ता हो ( भावेऽपि ), तो भी वह 'व्यत्ययश्च' (सूत्र ४०४४७) सूत्र से सिद्ध होगा । दिही " "वक्ष्यामः -- धृति शब्द से त का द होकर फिर वर्ण विपर्यय होकर दिही वर्णान्तर होता है क्या, इस प्रश्न का उत्तर नहीं है । धृति शब्द को दिही ऐसा आदेश होता है, ऐसा हम आगे (सूत्र २९१ : में) कहने वाले हैं, ऐसा हेमचन्द्र कहता है । डॉ० वैद्य जी धृतिका वर्णान्तर आगे दिए * पद्धतिनुसार सूचित करते हैं: - धृति = द् + ह् + ऋ + ति = द + ह् + इ ( क्क्का इ होकर ) + इ ( त् का लोप होने पर ) = द् + इ हि + इ = द् + हि ( वर्ण व्यत्यय होकर ) = दिहि | १-२१० सत्तरी - मराठी में, हिंदी में सत्तर । १·२११ अलसी – मराठी में अलशी । सालाहणी - सूत्र १.८ देखिए । Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरण- प्रथमपाद १२१३ स्वार्थलकारे परे - स्वार्थ अर्थ में आने वाला लकार आगे होने पर स्वार्थे लकार के लिए सूत्र २०१७३ देखिए । पीवलं - मराठी में पिवला । पीअलंहिंदी में पीला । १.२१४ काहलो —र के ल के लिए १*२५४ देखिए । माहुलिंगं - मराठी में महालुंग । १.२१५ मेढी - मराठी में मेढा । ३३३ १-२१७-२२५ सूत्र १-१७७ के अनुसार जब द् का लोप नहीं होता है तब होने वाले द् के विकार इन सूत्रों में कहे हुए है, ऐसा डॉ० वैद्य जी का कहना है । परन्तु उनका यह वचन सम्पूर्णतः सत्य नहीं है । कारण सूत्र १ १७८ अनादि द का विकार कहता है; परन्तु सूत्र १.२१७ में अनादि तथा आदि द के विकार कहे हैं; सूत्र १२१८ में और सूत्र १२२३ में भी आदि द के ही विकार कहे हुए हैं । १·२१७ डोला -- मराठी में डोला, डोला ( रा ) | हिन्दी में डोली । डण्ड-हिन्दी में डण्डा । डर -- हिन्दी में डर । डोहल -- मराठी में डोहला, डोहाला । डोहल में द के ल लिए सूत्र १-२२१ देखिए । १०२१८ डसइ - - मराठी में डसणे | हिंदी में डसना । १-२१९ संख्यावाचक शब्दों में मराठो में दन्का र होता है । उदा एकादश-अकरा, द्वादश-बारा, त्रयोदश- तेरा । हिन्दी में ग्यारह, बारह, तेरह | १०२२• कदलीशब्दे अद्र मवाचिनी -- वृक्ष-वाचक कदली शब्द न होने पर यानी कदली शब्द का अर्थ हस्ति-पताका ( हाथी के गण्डस्थल के ऊपर होने वाली पताका ) होने पर । १२२१ पलित्त --गराठी में पलिता | १२२२ कलम्ब --- मराठी में कलम्ब | १·२२४ कवट्टिओ--यहाँ ट्ट के लिए सूत्र २०२९ देखिए । १०२२८ स्वर के अगले अनादि असंयुक्त न का ण होना, यह एक महत्त्वपूर्ण वर्णान्तर है । १-२ ९ वररुचि के मतानुसार, न् कहीं भी हो, सर्वत्र उसका ण् हो जाता है ( नो णः सर्वत्र । प्राकृत प्रकाश, २.४२ ) । १२३० लिम्बो - - मराठी में लिंग । पहाविओो - मराठी में न्हावी । १·२३१ सूत्र १-१७७ के अनुसार अनादि असंयुक्त प् का लोप होता है । सूत्र १·१७९ के अनुसार, अ और आ इन स्वरों के आगे आने वाले प् का लोप नहीं Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३४ टिप्पणियां होता है । उस प् का व् होता है, ऐसा इस मूत्र में कहा हुआ है । अनादि असंयुक्त प् का व् होना एक महत्त्वपूर्ण वर्णान्तर है। महिवालो---हिंदी में महियाल । एतेन पकारस्य....."तत्र कार्य:-प् के बारे में लोप और व कार ये विकार प्राप्त होने पर, जो वर्णविकार श्रुतिसुखद ( कान को मधुर लगने वाला ) हो, वह कीजिए। १.२३२-३३ इन दो सूत्रों में आदि प् के विकार कहे हुए हैं । १.२३२ ण्यन्ते पटिधातौ-सूत्र १.१९८ ऊपर की टिप्पणी देखिए । फलिहौ फलिहा फालिहहो- यहाँ र के ल के लिए सूत्र १.२५४ देखिए । फणसोमराठी में फणस । १.२३५ पारद्धी--मराठी में, हिंदी में पारध । १.२३६ अनादि असंयुक्त फ और भ का ह होना यह एक महत्त्वपूर्ण वर्णान्तर है। १.२३७ अलाऊ--यहाँ अनादि व् का लोप हुआ है । १.२३८ बिसतन्तुं--यहाँ बिस शब्द नपुंसकलिंग में होने के कारण, ब का भ नहीं होता है। १.२४० अनादि असंयुक्त भ का ह होता है । सूत्र १.१८७ देखिए ) इस नियम का प्रस्तुत नियम अपवाद रूप में माना जा सकता है। १.२४२ यहां आदि असंयुक्त म् का विकार कहा हुआ है। १.२४४ भसलो--यहाँ र के ल के लिए सूत्र १.२५४ देखिए । १.२४५ आदि असंयुक्त य का ज होना यह एक महत्त्वपूर्ण वर्णान्तर है । जमहिंदी में जम। १२४६ युष्मक्छब्देर्यपरे-डू-तुम ऐसा द्वितीय पुरुषो अर्थ होने वाले युप्मद् (सर्वनाम ) शब्द में। जुम्हदम्हपयरणं-युष्मद् और अस्मद् (सर्वनामों) का विचार करने वाला प्रकरण । १२४७ लट्ठी--मराठी में लाठी : १२४८ अनीय-तीय-कृद्यःप्रत्येपु--अनीय एक कृत् प्रत्यय है। वह धातु को जोड़कर वि० क० धा० वि० सिद्ध किया जाता है। उदा-कृ+अनीय = करणीय । तीय--द्वि और वि इन संख्यावाचक शब्दों को पूरणार्थ में लगने वाला तीय प्रत्यय है । उदा०-द्वि + तीय = द्वितीच; तथा तृतीय। कृद्य-कृत् य यानी कृत् होने वाला य प्रत्यय । यह प्रत्यय धातु को लगाकर वि० क धा० वि० सिद्ध किया जाता है। Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरण-प्रथमपाद ३३५ उदा०-मा+य= मेय । अन्य 'य' प्रत्ययों से इस य का भिन्नत्व दिखाने के लिए यहां कृद् य ऐसा कहा गया है । बिइज्ज-मराठी में बीज । १.२५. डाह--डिन् आह । डित् के लिए सूत्र १.३७ ऊपर की टिप्पणी देखिए । १.२५४ अनादि असंयुक्त र का ल होना एक महत्त्वपूर्ण वर्णान्तर है। चरणशब्दस्य पदार्थवृत्तेः-पाव पाद अर्थ में चरण शब्द प्रयुक्त किए जाने पर, उसमें र का ल होता है। भ्रमरे स-सन्नियोगे एव-सत्र १.२४४ के अनुसार भ्रमर शब्द में म का स होता है; अब, इस 'स' के सानिध्य होने पर हो भ्रमर शब्द में र का ल होता है। आषं... .."द्यपि-आर्ष प्राकृत में द्वादशांग शब्द से दुवाल संग वर्णान्तर होता है । यहाँ र का ल नहीं हुआ है। द का ल हुआ है; इसलिए यह उदाहरण सच कहे तो तो सूत्र १.२२१ के नीचे आना आवश्यक था। १.२५५ थोर-मराठी में थोर । सूत्र १.१२४ के अनुसार स्थूल का पहले थोल वर्णान्तर होता है; अनन्तर प्रस्तुत सूत्रानुसार ल का र होकर थोर वर्णान्तर सिद्ध होता है । कथं थूल भदो-यदि स्थूल शब्द में ल का र होता है, तो थूल भद्द वर्णान्तर कैसे होता है, ऐसा प्रश्न यहाँ है। उसका उत्तर स्थूरस्य'.. .. भविष्यति' इस अगले वाक्य में है। १.२५८ शबर शब्द में, सूत्र १.२३७ के अनुसार व का थ होता है । अब इस व का म होता है, ऐसा प्रस्तुत सूत्र में कहता है । १२६० श औ ष का स होना एक महत्त्वपूर्ण वर्णान्तर है। सद्द-मराठी में साद । सुद्ध-ग्रामीय मराठी में सुद्द, सुद्ध । १.२६१ णकारान्तो ह :--णकार से युक्त ह यानी एह । सुहा-मराठी मे सून । १.२६२ दह-मराठी में दहा । १.२६३ छावो-मराठी में छावा । १२६७-२७१ इन सुत्रों में वर्ण लोप और सवर्ण लोप प्रक्रियाओं के उदाहरण दिए हैं। १.२६७ राउलं-मराठी में राउल । १.२६८ पारो-मराठी में पार । १..६९ सहिआ-सहृदयाः। 'हिअस्स --- हृदयस्य । इन दो भी शब्दों में स्वर के सह य का लोप हुआ है। Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३६ टिप्पणियां १.२७. उम्बरो-मराठी में उंम्बर । १.२७१ अडो-मराठी में आड । देउलं-मराठी में देऊल । पहले पाद के समाप्ति-सूचक वाक्य के अनन्तर कुछ पाण्डुलिपिथों में अगला श्लोक दिखाइ देता हैं : यद् दोमंडल-कुण्डलीकृत-धनुर्दण्डेन सिद्धाधिप क्रीतं वैरिकुलात् त्वया किल दलत्-कुन्दावदातं यथः । भ्रान्त्वा त्रीणि जगन्ति खेद विवशं तन्मालवीनां व्यधादापाण्डो स्तनमण्डले च धवले गण्डस्थले च स्थितम् । (पहला पाद समाप्त ) Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वितीय पाद इस पाद में सूत्र १-९७ और १००-११५ में संस्कृत में संयुक्त व्यञ्जन प्राकृत में आते समय जो वर्णविकार होते हैं वे कहे गए हैं। संयुक्त व्यञ्जनों के बारे में स्वरभक्ति, समानीकरण अथवा सुलभीकरण प्रक्रियाएं प्रयुक्त की जाती हैं। ___ जब दो या अधिक व्यञ्जन बीच में स्वर न आते एकत्र आते हैं, तब संयुक्त व्यञ्जन बन जाता है। उदा०-क्य, तं, स्व, स्न्यं इत्यादि । इन व्यञ्जनों के बीच में अधिक स्वर डालकर संयुक्त व्यञ्जन दूर करने की पद्धति को स्वरभक्ति कहते हैं। उदा०-रत्न-रतन, कृष्ण-किसन इत्यादि । सूत्र २.१००-११५ में स्वरभक्ति का विचार किया गया है। सभी संयुक्त व्यञ्जनों के संदर्भ में स्वरभक्ति नहीं प्रयुक्त की जाती है। कुछ संयुक्त व्यञ्जनों के बारे में अन्य कुछ पद्धतियां प्रयुक्त की जाती हैं। कारण संस्कृत में से सब प्रकार के संयुक्त व्यञ्जन प्राकृत में नहीं चलते हैं। इसका अभिप्राय ऐसा है:-(१) प्राकृत में केवल दोही अवयवों से बने संयुक्त व्यञ्जन चलते हैं। उदा०धम्म, कम्भ इत्यादि । (२) प्राकृत में शब्द के अनादि स्थान में ही संयुक्त व्यञ्जन चलता है । (३) प्राकृत में संयुक्त व्यञ्जन कुछ विशिष्ट पद्धति से ही बनते हैं :(अ) व्यञ्जनों का द्वित्व होकर :-उदा०-(१) क्क ग्ग च्च ज्ज ट्ट ड्ड त छप्प ब्ब ( यहां वर्ग में से पहले और तीसरे ब्यञ्जन का द्वित्व है )। ण्ण न्न म्म ( यहाँ वर्ग में से कुछ अनुनासिक द्वित्व है। ल्ल ब्व (यहाँ अंतस्थ का द्वित्व है)। स्स ( यहाँ ऊष्म का द्वित्व है । (अ) वर्ग में से दूसरे और चौथे व्यञ्जन के पूर्व वर्ग में से पहले और तीसरे व्यञ्जन आकर उसका द्वित्व होता है। उदा०-ख घच्छ ज्झ ट्ठ ड्ढ त्थ द्ध प्फ भ । (इ) वर्ग में से अनुनासिक प्रथम अवयव और दूसरा अवयव उसी वर्ग में से व्यञ्जन । उदा.--ङ्क ख ग घ च छ ज झ; ण्ट ण्ठ ण्ड ण्ड; न्त न्थ न्द न्ध; म्प म्फ म्ब म्भ । ( व्यवहारतः म्ह ह ल्ह संयुक्त व्यञ्जन होते, उस उस वर्ण के हकार युक्त रूप हैं। शौरसेनी इत्यादि भाषाओं में चलने वाले संयुक्त व्यञ्जनों के लिए सूत्र ४.२६६, २८९, २९२-२९३, २९५, ३९८, ३०३, ३१५, २९१, ३२३, ३९८, ४१४ देखिए ।) संस्कृत में से संयुक्त व्यञ्जन का प्राकृत में उपयोग करने के लिए, समानीकरण यह एक प्रधान पद्धति है । समानीकरण में संयुक्त व्यञ्जन में से एक अवयव का लोप होकर शेष व्यञ्जन का द्वित्व होता है । समानीकरण से आये हुए द्वित्व में से एक २२ प्रा. व्या० Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३३८ टिप्पणियाँ अवयव का लोप किया और पिछला हस्व होने वाला स्वर दीर्घ किया, तो सुलभीकरण होता है। उदा०-व्याघ्र वग्ध-वाध । सूत्र २.२-८८ में प्राधान्यतः समानीकरण की चर्चा है । तथापि सुलभीकरण की स्वतन्त्र चर्चा नहीं है। ( सुलभीकरण के संकीर्ण उदाहरण सूत्र २.२१, २२, ५७, ७२, ८८, ९२ के नीचे दिखाई देते हैं । संयुक्त व्यञ्जनों के विकार कहते समय हेमचन्द्र ने उनकी रचना क ख इत्यादि वर्णानुक्रम से की है। २.१ यह अधिकार सूत्र है। इसका अधिकार सूत्र २.११५ तक यानी सूत्र २.११४ के अन्त तक है । संयुक्तस्य-संयुक्त व्यञ्जन का। २.२ संयुक्तस्य को भवति-संयुक्त व्यञ्जन का क होता है। यानी संयुक्त व्यञ्जन में से एक अवयव का लोप होकर, क व्यञ्जन रहता है ( अथवा आता है)। यह क व्यञ्जन अनादि हो, तो सूत्र २.८९ के अनुसार उसका द्वित्व होता है । उदा०--शक्त-स क-सक्क । आगे आने वाले सूत्रों में ऐसा ही प्रकार जाने । २.३ खो भवति-ख होता है। सूत्र . २ ऊपर की टिप्पणी देखिए । यह ख अनादि हो, तो उसका द्वित्व सूत्र २.९० के अनुसार होता है। किन्तु यह ( शेष ) ख यदि प्राकत में शब्द के आरम्भ में हो, तो उसका द्वित्व न होते ख वैसा ही रहता है । उदा० --क्षय-खअ । आगे आने वाले उदाहरणों में भी ऐसा ही जाने । २.४ नाम्नि संज्ञायाम्-नामवाचक शब्द में। पोखरिणो-मराठी में पोखरण । २.८ खम्भो-मरीठी में खांन । २.५ भुक्न्वा , ज्ञात्वा, श्रुत्वा, बुद्ध वा-ये शब्द संस्कृत में, मुज, ज्ञा, श्रु और बुध धातुओं के पू० का० धा० अ० है। उनमें त्व और ध्व संयुक्त व्यञ्जन हैं। श्लोक १-सकल पृथ्वी का भोग लेकर, अन्यों को अशक्य ऐसा तप करके, विद्वान् शान्ति (-नाथ जिन तत्त्व) जानकर श्रेष्ठ मोक्षपद में (सिवं) पहुँच गया। २.१६ विञ्चुओ-मराठी में विंचू । २.१७ खीरं-मराठी में खीर । ३.१८ लाक्षणिकस्यापि..... भवति-प्राकृत ल्याकरण के अनुसार आमा शब्द को क्षमा ऐसा आदेश होता है (सूत्र २.१०१ देखिए) । उसमें से ख का छ होता है। २.२० घण-मराठी में सण । २.२४ य-य के द्वित्व से बनने वाला य्य ऐसा संयुक्त व्यञ्जन ( माहाराष्ट्री) प्राकृत में नहीं है, उसका ज्ज ऐसा वर्णान्तर होता है। चौर्यसमत्वात् भारिआ Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरण-द्वितीयपाद ३३९ भार्या शब्द चौर्य शब्द के समान होने से, उसमें स्वरभक्ति होकर भारिया ऐसा वर्णन्तिर होता है। चौर्यसम शब्दों में स्वरभक्ति होती है सूत्र २.१०७ देखिए )। कज्ज-मराठी में काज । __२.२६ मज्झं-मराठी में माज ( -धर ), माझ (-गाव ) । गुज्झं-मराठी में गूज । २.२९ मट्टिआ-हिन्दी में मिट्टी । पट्टण----मराठी में पाहण । २.३० वटुल-मराठी में वाटोला, वाटोले । रायवट्टयं-राजवातिक । उभा स्वाती के तत्त्वार्थाधिगम सूत्र के ऊपर के वार्तिक अन्थ का नाम राजवार्तिक है। वर्मन् शब्द का वर्णान्तर भी वट्ट होता है। इसीलिए यहाँ राज वर्मन् ऐसा भी संस्कृत प्रति शब्द होगा। कत्तरी-मराठी में कातरी। २.३३ च उत्थो-मराठी में, हिन्दी में चौथा । २.३४ लट्ठी मुट्ठी दिट्ठी-मराठी में लाठी, मूठ, दिठी । पुट्ठो-मराठी में पुट्ठा (घोड़े का )। २. ६ कबड्डो-मराठी में कवडी । हिन्दी में कोडी। २.४० वडढो-मराठी में बुड्ढा । हिन्दी में बूढा । २.४१ अन्ते वर्तमानस्य-अन्त में होने बाले का । ऐसा कहने का कारण श्रद्धा सब्द में से आदि श्र को यह नियम लागू न हो। अद्ध-हिन्दी में आधा । २.४५ हत्थो, पत्थरो, आत्यि-मराठी में हात; फत्तर । पत्थर, पाचर ( बट); आथी । हिन्दी में हाथ । २४७ पल्लट्टो-मराठी में पालट । पर्यस्त में से 2 के ल्ल के लिए सूत्र २.६८ देखिए । २.५० पक्षे सोपि-विकल्प-पक्ष में वह ग्रह भी होता है । इन्धं-सूत्र १.१७७ देखिए। २.५१ भप्पो भस्सो-इस पुल्लिग के लिए सूत्र १.३२ देखि , अप्पा अप्पाणो--इन रू0 के लिए सूत्र ३.६ देखिए । अत्ता--आत्मन् शब्द मे से त्म इस संयुक्त व्यञ्जन में सूत्र २.७८ के अनुसार म् का लोप और सत्र २.८६ क अनुसार शेष त् का द्वित्व होकर अर्ता वर्णान्तर हुआ है । Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४० टिप्पणियां २.५४ भिप्फो--आगे संयुक्त व्यञ्जन होने के कारण सूत्र १.८४ के अनुसार 'भी" में से दीर्घ ई ह्रस्व इ हुई है। २.५५ सिलिम्हो–श्लेष्मन् शब्द में अन्त्य न् का लोप (सूत्र १.९१ के अनुसार) फिर स्वर भक्ति से सिलि, बाद में सूत्र २.७४ के अनुसार ब्म का म्ह होकर, सिलिम्ह वर्णान्तर सिद्ध हुआ। २.५६ मयुक्तो बः--म् से युक्त ब यानी म्ब । २.५६ उभं उद्धं--आगे संयुक्त व्यञ्जन होने से सूत्र १८४ के अनुसार दीर्घ ऊ का ह्रस्व उ हुआ । उब्भ--मराठी में उभ ( ट ), उभा । २.६० कम्हारा-श्म के मह के लिए सूत्र ... ४ देखिए । २.६३ चौर्य समत्वात्--सूत्र २.२४ ऊपर की टिप्पणी देखिए । २.६४ धिज्ज--धर्य शब्द से घेज्ज ( सूत्र ६.१४८, २०२४ के अनुसार ) । फिर धेन में से ह्रस्व ए के स्थात पर ह्रस्व इ आकर धिन वर्णान्तर हुआ है। सूरो ... ... भेदात्--सूर्य शब्द से ही प्रस्तुत नियमानुसार सूर और सुज्ज वर्णान्तर नहीं होते क्या, इस प्रश्न का उत्तर इस वाक्य में है। २.६५ पर्यन्ते..... रो भवति--पर्यन्त शब्द में सूत्र ५.५८ के अनुसार, 'प' में से अ का ए होने पर उस एकार के अगले र्य कार होता है । पज्जन्तो--यहाँ सूत्र २२४ के अनुसार र्य का ज्ज हुआ है । २.६६ आश्चर्ये... ..'रो भवति---सूत्र २.६५ ऊपर की टिप्पणो देखिए । अच्छरि--सूत्र २.६७ देखिए । २.६७ यहां कहे हुए र्य के आदेशों का भिन्न स्पष्टीकरण ऐसा दिया जा सकता है :--रिअ, रोअ ( स्वर भक्ति से ); अर (स्कर भक्ति और वर्णव्यत्यय से ); रिज्ज (र्य का ज्ज होकर तत्पूर्व रिका आगम हुआ )। २.६८ पलिअंको--पल्यङ्क शब्द में स्वरक्ति हुई। २.६९ भयस्सई भय फई--यहाँ भय आदेश के लिए सूत्र २.१३७ देखिए । २०७१ कहावण--इ.। वर्गान्तर के लिए हेमचन्द्र 'कण पिण' ऐसा संस्कृत शब्द सूचित करता है । २७२ दक्खिो -सूत्र २.३ देखिए । २.७४ मकाराकान्तो हकारः-मकार से युक्त हकार यानी म्ह । रस्सीहिंदी में रस्सी । मराठी में रस्सी ( सेच )। Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरण-द्वितीयपाद ३४१ २७५ णकाराकान्तो हकारः-णकार से युक्त हकार यानी ह । विप्रकर्षसंयुक्त व्यञ्जन में बीच में स्वर डालकर संयुक्त व्यञ्जन दूर करने की पद्धति, स्वरभक्ति । सूत्र २.१००.११५ देखिए । कसणो कसिणो-इनमें से स्वरभक्ति के लिए सूत्र २.१०४, १ • देखिए । २.७६ लकाराक्रान्तोहकारः-लकार से युक्त हकार यानी ल्ह । ५.७७-७६ संयुक्त व्यञ्जन में से किस अवयव का लोप होता है, वह इन सूत्रों में कहा है। २.७७ ऊध्वं स्थितानाम्-संयुक्त व्यञ्जन में पहले यानी प्रथम अवयव होने वालों का । दुई--मराठी में दूध । मोग्गरो--मराठी में मोगर । णिच्चलो-- मराठी में निचल। -क, प--क और ख व्यञ्जनों के पूर्व जो वर्ण अधं विसर्ग के समान उच्चारा जाता है, उसको जिह्वामूलीय कहते हैं । और वहक और ख ऐसा दर्शाया जाता है। तथा और फ् व्यञ्जनों के पूर्व जो वर्ण अर्ध विसर्ग के समान उच्चारा जाता है उसे उपध्मानीय कहते हैं । और वह प फ ऐसा दर्शाया जाता है। सच कहे तो ये दोनों भी स्वतन्त्र वर्ण नहीं होते हैं; वे विसर्ग के उच्चारण के प्रकार होते हैं । ( मागधी भाषा में जिह्वामूलीय वर्ण है (सू ४.२९६ देखिए)। क का उदाहरण हेमचन्द्र ने नहीं दिया है । वह होगा:--अन्त करण= अन्तक्करण । ____२.७८ अधोवर्तमानानाम्--संयुक्त व्यञ्जन में बाद में, अनंतर, यानी द्वितीय अवयव होने वालों का । कुड्डं-मराठी में कूड । २७. ऊर्ध्वमधश्च स्थितानाम्--सूत्र २.७७-७८ के ऊपर की टिप्पणी देखिए । वक्कलं--मराठी में वाकल । सद्दो--मराठी में साद । पक्कं पिक्कं--मराठी में पक्का, पिका, पिक (ला)। चक्कं-मराठी में चाक । रत्ती--मराठी में रात. राती । अत्र द्वः'लोपः-द्व इत्यादि के समान ऐसे कुछ संयुक्त व्यञ्जनों में, भिन्न नियमों के अनुसार, एक ही समय पहले और दूसरे अवयव का लोप प्राप्त होता है । उदा०-द्व इस संयुक्त व्यञ्जन में, सूत्र २.७७ के अनुसार द् का लोप प्राप्त होता है, और सूत्र २७९ के अनुसार व् का भी लोप प्राप्त होता है। जब ऐसे दोनों भो अवयवों के लोप प्राप्त होते हैं ( उभय-प्राप्ती ) तब वाङ्मय में जैखा दिखाई देगा वैसा, किसी भी एक अवयव का लोप करे। उदा०--उद्विग्न णब्द में द् का लोप करके उब्विम्ग प्राप्त होता है, तो काव्य शब्द में य का लोपकरके कव्व ऐसा वर्णान्तर होता है मल्लं---मराठी में माल । दारं--मराठी में दार ।। २.८० द्रशव्दे.."भवति--प्राकृत मे क्रय: संयुक्त व्यञ्जन में से रेफ का लोप होता है ( सूत्र २.७२ देखिए ) । परन्तु द्र इस संयुक्त व्यञ्जन में रेफ का लोप विकल्प से Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४२ टिप्पणियां होता है। स्थितिपरिवृत्तौ--स्थितिपरिवृत्ति होने पर । स्थितिपरिवृत्ति यानी वर्ण व्यत्यास, वर्ण व्यत्यय अथवा शब्द में वर्गों के स्थानों की अदला-बदली। इस स्थितिपरिवृत्ति के लिए सूत्र २.११६.१२४ देखिए । वोद्रहीओ---वोद्रही ( देशीतरुणी ) शब्द का प्रथमा अनेकवचन । वोद्रह---(देशा) तरुण (तारुण्य) । २.८६ ह्रस्वात् 'धाई-धात्री शब्द से धार्थ वर्णान्तर कैसे होता है वह यहाँ कहाँ है। रेफ का लोप होने के पहले, (धत्रो में से ध इस ) ह्रस्व स्वर से (बा ऐसा दीर्घ स्वर होकर ) धाई शब्द बना है। इस सन्दर्भ से सूत्र २.७: देखिए । सच कहे तो यहाँ सूत्र २.८८ में से राई शब्द के समान प्रक्रिया होती है, ऐसा कहा जा सकता है। ___२.८२ निक्खं--मराठी में तिख (ट)। हिंदी में तीखा । तोक्ष्ण शब्द में से ण् का लोप होकर सूत्र २.३ के अनुसार क्ष का क्ख हुआ है। तिण्हं-तीक्ष्ण में से क् का लोप ( सूत्र २.७७ के अनुसार ) होने के बाद, सूत्र २०७५ के अनुसार पण का पह हुआ है। २.८३ ज्ञः संबंधिनो "लुग-~-ज्ञसे ( ज्ञ - ++अ ) संबंधित होने वाले न का लोप । सव्वण्ण-इस समान शब्दों में से ज्ञ के पण के लिए सूत्र १.१५५देखिए । २८४ मज्झण्हो--ह के लिए सूत्र २.७५ देखिए । २.८५ पृथग्योगाद्... ... निवृत्तम्--सुत्र २८० में विकल्प-बोचक 'वा' शब्द है। उसको अनुवृत्ति अगले २.८१-८४ सूत्रों में है। अब सच कहे तो इस २.८५ सूत्र में कहा हुआ दशाह शब्द सूत्र २.८४ में ही कहा जा सकता था; परन्तु वैसा न करके, दशाह शब्द के लिए सूत्र २.८५ यह स्वतन्त्र सूत्र कहा है। इसका कारण सत्र २.८४ में आने वाली 'वा' को अनुवृत्ति दशार्ह शब्द के लिए नहीं चाहिए । इसलिए सत्र २.८५ में नियम भिन्न अलग करके कहा जाने के कारण ( पृथगयोगात् ), सूत्र २८५ में 'वा' शब्द की निवृत्ति होती है । २.८६ मासू--मस्सू शब्द में से संयुक्त व्यञ्जन में पहले स् का लोप होकर, पिछला अ स्वर दोध हुआ है। २.८७ हरि अन्दो--हरिश्चन्द्र शब्द में श्च् का लोप होने के बाद केवल 'अ' स्वर मात्र शेष रहा है। __ २.८८ राई--इस वर्णान्तर का और एक स्पष्टीकरण ऐसा है:--रात्रि-रत्तिराति ( सुलभीकरण )-राइ ( सूत्र १.१७७ के अनुसार त् का लोप )। २.८९-९३ संयुक्त व्यञ्जनों के वर्णान्तर करते समय किस नियम का पालन हो, उसकी सूचना इन सूत्रों में दी गई है । Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरण- द्वितीयपाद २.८९ पदस्य अनादौ वर्तमानस्य - पद में अनादि स्थान पर होने वाला का प्राकृत में पद के आदि स्थान पर प्रायः संयुक्त व्यञ्जन नहीं होता है । शेष — संयुक्त व्यञ्जन में से एकाध अवयव का लोप होने पर जो व्यञ्जन रह जाता है वह शेष व्यञ्जन होता है । आदेश - - आदेश के स्वरूप में आने वाला व्यञ्जन यहाँ अभिप्रेत है । उदा० - कृत्ति शब्द में व्यञ्जन को 'च' आदेश होता है ( सूत्र २.१२ देखिए ) । नग्ग - मराठी में नागडा; हिन्दी में नंगा । जक्ख - मराठी में जाख । २.९० द्वितीयइत्यर्थः - वर्गीय व्यञ्जनों में से द्वितीय और चतुर्थ ( तुर्य ) व्यञ्जनों का द्वित्व करते समय, उनके पूर्व का व्यञ्जन आकर यानी द्वितीय व्यञ्जन के पूर्व पहला व्यञ्जन और चतुर्थ व्यञ्जन के पूर्व तृतीय व्यञ्जन आकर, उनका हित्व होता है । उदा०—क्ख, टूक, ग्ध, व्भ, इत्यादि । वग्घो - मराठी में वाघ | घस्य नास्ति -- - ऐसा आदेश ( कहीं भी कहा ) नहीं है; इसलिए आदेश रूप घ का द्वित्व नहीं होता है । ३४३ २०६२ दीर्घा परयोः - व्याकरण के नियमानुसार आए हुए और वैसे न आए हुए ( यानी मूलतः दीर्घ होने वाले ) जो दोघं ( स्वर ) और अनुस्वार, उनके आगे । कंसालो –— कंस + आल | यह आल मत्वर्थी प्रत्यय है ( सूत्र २०१५९ देखिए 1 ) २·६३ रेफः नास्ति - सूत्र २०७९ के अनुसार, रेफ का सर्वत्र लोप होने कारण, वह रेफ शेष व्यञ्जन के स्वरूप में कभी नही होता है । द्र इस संयुक्त व्यञ्जन में मात्र ( सूत्र २०७० देखिए ) वह संयुक्त व्यञ्जन का द्वितीय अवयव, इस स्वरूप में हो सकता है । २६४ आदेशस्य णस्य - धृष्टद्युम्न शब्द में मन कोण आदेश है ऐसा हेमचन्द्र कहता है । मन के ण्ण के लिए सूत्र २४२ देखिए । २०६७ समास में दूसरे पद के आदि व्यञ्जन विकल्प से आदि अथवा अनादि माना जाता है । इसलिए उसका द्वित्व विकल्प से होता है । उदा० - गाम, गाम | २·६८ मूल संस्कृत शब्दों में से संयुक्त व्यञ्जन न होते हुए भी, वे शब्द प्राकृत में आते समय, उनमें से कुछ अनादि व्यञ्जनों का द्वित्व हो जाता है । उदा०-- - तैलादि गण के शब्द | २·६६ सूत्र २९९८ ऊपर की टिप्पणी देखिए । सेवादि गण के शब्दों में यह द्वित्व विकल्प से होता है । २.१००-११५ इन सूत्रों में स्वरभक्ति विप्रकर्ष विश्लेष का विचार है । स्वरभक्ति से अ, इ, उ अथवा ई ये स्वर प्रायः आते हैं । २·१०० सारङ्गं– मराठी में सारंग । शारंगी - पाणि । Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४ टिप्पणियाँ २.१०१ रयणं-(रत्न)-हिन्दी में रतन । २.१.२ अग्गी-हिन्दी मराठी में आग। २.१०४ किया-आर्ष प्राकृत में क्रिया शब्द में स्वरभक्ति न होते, किया ऐसा वर्णान्तर होता है। २.१०५ व्यवस्थितविभाषया-सूत्र १५ ऊपर की टिप्पणी देखिए । २.१०६ अम्बिलं---मराठी में आंबील । २.११३ उकारान्ता डीप्रत्ययान्ताः --ई (ङी ।) इस (स्त्रीलिंगी) प्रत्यय से अन्त होने वाले उकारान्त शब्द । उदा०-तनु + ई = तन्वी । स्रुघ्नम्-यह एक प्राचीन गांव का नाम है। २.११६-१२४ इस सूत्रों में वर्णव्यत्यय । वर्णव्यत्यास स्थिति परिवृत्ति प्रक्रिया कही है। इस प्रक्रिया में शब्द में से वर्णों के स्थान की अदला-बदली होती है। उदा०-वाराणसी-वाणारसी । २.११६ एसो करेण-करेणू शब्द का पुल्लिग दिखाने के लिए एसो यह पुल्लिगी सर्वनाम का रूप प्रयुक्त किया है । २.११८ अलचपुरी-आधुनिक एलिचपूर नगर । २.१२० हरए-ह्रदह-रद ( स्वरभक्ति से )-हरय ( य-श्रुति से )। हरय शब्द का प्रथमा एकवचन हरए । २.१२२ लघुक....."भवति-लधुक शब्द में, पहले ही ध का ह ( सूत्र १-१८७ देखिए ) किए जाने पर, विकल्प से वर्णव्यत्यय होता है । हलुअं-मराठी में हलु । - २.१२३ स्थानी-जिसके स्थान पर ( यानी जिसके बदले ) आदेश कहा जाता है वह वर्ण अथवा शब्द । २.१२४ य्ह-यह य व्यञ्जन का हकारयुक्त रूप है । २.१२५-१४४ इन सूत्रों में कुछ संस्कृत शब्दों को प्राकृत में होने वाले आदेश कहे हैं। उनमें से कुछ शब्दों का भाषा शास्त्रीय स्पष्टीकरण देना संभव है। अन्य आदेश मात्र नये अथवा देश्य शब्द हैं । कुछ शब्दों का भाषाशास्त्रीय स्पष्टीकरण आगे दिया है। २.१२५ थोक्क-स्तोक ( सूत्र २.४५ के अनुसार ) थोक-क का द्वित्व होकर थोक्क । भोव-थोक शब्द में क् का व होकर थोव । थेव-थोव शब्द में ओ का ए होकर । Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरण-द्वितीयपाद ३४५ २.१२६ गौणस्य-सूत्र ११३४ ऊपर की टिप्पणी देखिए । २.१३० इत्थी-इ का आदि वर्णागम होकर यह शब्द बना है । २.१३१ दिही-सूत्र १२०९ ऊपर को टिप्पणी देखिए । २.१३२ मञ्जर-मराठी में मांजर। मार्जार-मज्जर-मञ्जर । मञ्जर में से म का व होकर वञ्जर। २.१३६ तह-त्रस्त शब्द में स्त का ठ्ठ होकर । २.१३८ अवहोआसं-उभयपार्श्व अथवा उभयावकाश ऐसा भी संस्कृत प्रतिशब्द हो सकता है । सिप्पी-मराठी में सिंप, शिंपी, शिपलो। २.१४२ माउसिआ-मराठी में मावशी । २.१४४ घरो-मराठी में, हिंदी में धर । २.१४५-१६३ इन सूत्रों में कुछ प्रत्ययों को होने वाले आदेश कहे हैं । २.१४५ शीलधर्म... भवन्ति--अमुक करने का शील (स्वभाव), अमुक करने का धर्म और अमुक के लिए साधु ( अच्छा ) इस अर्थ में कहे हुए प्रत्यय को इर ऐसा आदेश होता है । केचित् "न सिध्यन्ति--धातु से कर्तृवाचक शब्द साधने का तृन् प्रत्यय है। उस तृन् प्रत्यय को ही केवल इर ऐसा आदेश होता है, ऐसा कुछ प्राकृत वैयाकरण कहते हैं। परन्तु उनका मत मान्य किया तो शील इत्यादि दिखाने वाले नमिर (नमनशील), गमिर (गमनशील) इत्यादि शब्द नहीं सिव होंगे। २.१४६ क्त्वाप्रत्ययस्य... भवग्ति-धातु से पूर्वकाल वाचक धातु साधित अव्यय सिद्ध करने का क्त्वा प्रत्यय है । उसको तुम्. अत्, तूण और तुआण ऐसे आदेश होते हैं। ये प्रत्यय धातु को लगने से पहले धातु के अन्त्य अ का इ अथवा ए होता है ( सूत्र : १५७ देखिर)। दटुं-सूत्र ४. १३ के अनुसार क्त्वा प्रत्यय के पूर्व दृश् धातु का 'तुम्' में से त के सह दैट्ट होकर दलृ रूप बनता है। मोत्तुंसूत्र ४.२१२ के अनुसार क्त्वा प्रत्यय के पूर्व मुच् धातु को मोत् ऐसा आदेश होकर यह रूप सिद्ध होता है । भमिअ रमिअ—यहाँ अत् (अ) आदेश के पूर्व धातु के अन्त्य अ का इ हुआ है। घेत्त ण-सूत्र ४.२१० के अनुसार क्त्वा प्रत्यय के पूर्व प्रह, धातु को घेत आदेश होकर यह आदेश होकर यह रूप बनता है। का ऊण-सूत्र ४.२१४ के अनुसार, क्त्वा प्रत्यय के पूर्व कर (V ) धातु को का आदेश होकर यह रूप बनता है। भेत्तु आण-~~क्त्वा प्रत्यय के पूर्व भिद् धातु को भेत् ऐसा आदेश होता है, ऐसा हेमचन्द्र ने नहीं कहा है; तथापि ऐसा आदेश होता है, यह प्रस्तुत उदाहरण से दिखाई देता है । सो उ आण-सूत्र ४.२३७ के अनुसार, श्र धातु में से उ का गुण होकर सो होता है; उसको प्रत्यय लग कर सो Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पणियाँ उ आण रूप सिद्ध होता है । वन्दि त्त 1- क्वा प्रत्यय के पूर्व बन्द में से अन्त्य अ काइ हुआ; उसके आगे तुम में से अनुस्वार का लोप और त् का द्वित्व हुआ है । वन्दित्ता - वन्दित्वा इस सिद्ध संस्कृत रूप में सूत्र २.७९ के अनुसार, व् का लोप होकर यह रूप सिद्ध हुआ हैं । ३४६ २-१४७ इदमर्थस्य प्रत्ययस्य - तस्य इदम् ( उसका / अमुक का यह ) इस अर्थ में आने थाले प्रत्यय का | उदा०- - पाणिनेः इदं पाणिनीयम् । २०१४८ डित् इक्कः देखिए । ---- - डित् के लिए सूत्र १३७ के ऊपर की टिप्पणी २·१४ε अञ्–युष्मद् और अस्मद् सर्वनामों के आगे इदमर्थ में आने वाला प्रत्यय । २·१५० वते प्रत्ययस्य - वत् ( वति ) प्रत्यय का । ' तत्र तस्येव' ( पाणिनि सूत्र ४.१.११६ ) यह सूत्र और 'तेन तुल्यं क्रिया चेद् वति:' ( पाणिनि सूत्र ४.१.११५ ) यह सूत्र 'वत् प्रत्यय का विधान करते हैं । २·१५१ सव्वं गिओ - यहाँ इक आदेश में से क् का लोप हुआ है । २·१५२ इकट् — इकट् शब्द में ट् इत् है । सूत्र १३७ ऊपर की टिप्पणी देखिए । २-१५३ अप्पनयं -- आत्मन् शब्द के अप्प ( सूत्र २०५१ ) इस वर्णान्तर के आगे णय आदेश आया है । २·१५४ त्व-प्रत्ययस्य-त्व-प्रत्यय को । त्व यह भाववाचक संज्ञा साधने का प्रत्यय है | उदा० - -पीन- पीनत्व । डिमा- -डित् इमा । इम्न नियतत्वात्-सूत्र १०३५ ऊपर की टिप्पणी देखिए । पृथु इत्यादि शब्दों से भाववाचक संज्ञा सिद्ध करने का इमन ऐसा प्रत्यय है । पीनता इत्यस्य... न क्रियते - संस्कृत में भाववाचक संज्ञा साधने का ता ( तल ) ऐसा और एक प्रत्यय है । यह प्रत्यय पीन शब्द को लग कर प्राकृत में ( पीनता ) पोणया ऐसा रूप होता है । त का द होकर होने वाला पीणदा वर्णान्तर दूसरे यानी शौर सेनी भाषा में होता है, प्राकृत में नहीं । इसलिए यहाँ तल ( ता ) प्रत्यय का दा नहीं किया है । यहाँ यह ध्यान में रखिए:वररुचि ( प्राकृत प्रकाश, ४.२२ ) तल् प्रत्यय का दा कहता है । - २·१५५ डेल्ल -- डित् एल्ल | अर्थ में होने वाले २-१५६ डावादेरतोः परिमाणार्थस्य -- परिमाण । इस डावादि अतु प्रत्यय को । क्तवतु वतुप् ड्मतुत्, मतुप् प्रत्ययों को पाणिनि ने अतु संज्ञा दी है । इनमें से वत् ( वतु वतुप् ) यह प्रत्यय और वतुप् इन सर्व 1 Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकतव्याकरण-द्वितीयपाद ३४७ परिमाण इस अर्थ में यद्, तद्, एतद्, किम् और इदम् इन सर्वनामों को लगता है। उदा०--यावत्, तावत्. एतावत् किया और इयत् । २.१५७ अतोर्डावतो:--सूत्र २.१५६ ऊपर की टिप्पणी देखिए । डित' 'एद्दहये शब्द सूत्र में से डेत्तिअ, डेतिल और डेदह इन शब्दों का अनुवाद करते हैं । एत्तिअ इत्यादि डित् आदेश होते हैं । २.१५ - कृत्वस्--( अमुक ) बार यह अर्थ दिखाने के लिए संख्यावाचक शब्दों के आगे कृत्वस् प्रत्यय आता है । कथं.. " भविष्यति--कृत्वस् प्रत्यय को हुत्त आदेश होता है । अब, पियत्तं यह वर्णान्तर जैसे हुआ, इस प्रश्न का उत्तर ऐसा है:पियहुत्तं शब्द में हुत्तं शब्द कृत्वम् का आदेश नहीं है। अभिमुख इस अर्थ में जो हुत्त शब्द है वह प्रिय शब्द के आगे आकर पिवहुत्तं वर्णान्तर होगा । २.१५६ मतोः स्थाने--मतु ( = मत् ) प्रत्यय के स्थान पर। मत् ( मतु, मतुप् ) यह एक स्वामित्व बोधक प्रत्यय है। उदः०--श्रीमत् । आलु--मराठी में आलु । उदा०--दयाल । लज्जालुआ--लज्जालु शब्द के आगे स्त्रीलिंगी आ प्रत्यय आया है। सोहिल्लो छाइल्लो--सूत्र ११० के अनुसार शब्द में से अन्य स्वर का लोप हुआ है। आल-मराठो में आल । उदा०-केसाल; इत्यादि । वन्त मन्त-ये दोनों भी प्रत्यय मराठी में होते हैं । उदा०-धनवंत, श्रीमंत । २.१६. तसः प्रत्ययस्य स्थाने--तस् प्रत्यय के स्थान पर। पंचमी विभक्ति का अपादान अर्थ दिखाने के लिए सर्वनामों के आगे तस् प्रत्यय जोड़ा जाता है । २.१६: त्रप-प्रत्ययस्य--स्थल अथवा स्थान दिखाने के लिए सर्वनामों को त्र ( अप् प्रत्यय जोड़ा जाता है। उदा०-यद्-यत्र, तद्-तत्र । २.१६२ दा-प्रत्ययस्य--अनिश्चित काल दिखाने के लिए एक शब्द के आगे दा प्रत्यय जोड़ा जाता है । उदा०--एक-दा । २.१६३ भवेर्थे--भव इस अर्थ में । अमुक स्थान में हुआ। उत्पन्न हुआ (मव) इस अर्थ में : डितौ प्रत्ययौ-डित् होने वाले दो प्रत्यय । इल्ल और उल्ल ये दो डित् प्रत्यय हैं। २.१६४-१७३ इन सूत्रों में प्राकृत के स्वार्थे प्रत्यय कहे हुए हैं। २.१६४ स्वार्थे कः--एकाध शब्द का मूल का स्वतः का अर्थ ( स्व + अर्थ = स्वार्थ ) न बदलते, वही, वही स्व-अर्थ कहने वाला क-प्रत्यय है। प्राकृत में यह स्वार्थे के प्रत्यय नाम, विशेषण, अव्यय, तुमन्त इत्यादि विविध शब्दों को लगता है। इस क का प्राकृत में य अथवा अ ऐसा वर्णान्तर होता है। कप---कुत्सा दिखाने के लिए क ( कप् ) प्रत्यय लगाया जाता है। उदा०--अश्व-क । ( पाणिनि के व्याकरण में यह प्रत्यय कन ऐसा है )। Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४८ टिप्पणियाँ यावदादिलक्षणः कः - - यावादिभ्यः कन् ( पाणिनि सूत्र ४°२४९ ) यह - सूत्र भाव इत्यादि शब्दों के लिए क ( कन् ) प्रत्यय कहता है । उदा०- व्याव-क । २·१६५ संयुक्तो ल:- संयुक्त ल यानी ल्ल । सेवादित्वात् -- सेवादि शब्दों में अन्तर्भाव होने के कारण । सेवादि शब्दों के लिए सूत्र २०६६ देखिए । २·१६६ अवरिल्लो --सूत्र १०१०८ के - वर्णान्तर होता है; उसके आगे स्वार्थे ल्ल आया है । अनुसार उपरि शब्द का अवरि ऐसा २·१६७ डमया -- डित् अमया । डित् के लिए सूत्र १३७ ऊपर की टिप्पणी देखिए । २·१६८ डिअम्-- डित् इ अम् । २१६६ डयं डिअम् - - डित् अयं और डित् इअं । २०१७० डालिअ -- डित् आलिअ । २-१७२ भावे त्वतल् - - भाववाचक संज्ञा साधने के लिए त्व और तल ( वा ) - ऐसे प्रत्यय होते हैं । म उ अत्त याइ-- पहले मृदु क शब्द को त ( द ) प्रत्यय लग कर म उ अत्त रूप बना; फिर उसे ता ( आ ) प्रत्यय लगकर म उ अत्तया ऐसा शब्द बना ! आतिशायिकात्त्वातिशायिकः -- अतिशय का अतिशय दिखाने के लिए तम वाचक शब्द के आगे फिर 'तर' प्रत्यय रखा जाता है | उदा०-ज्येष्ठ- तर २१०३ विज्जुला -- मराठी में, हिन्दी में बिजली | पबिल – मराठी में पिबला | हिन्दी में पीला । अन्धल - - मराठी में अधला । कथं जमलं भविष्यति - जमल शब्द में स्वार्थे ल प्रत्यय है क्या, इस प्रश्न का उत्तर यहाँ है । २·१७४ निपात्यन्ते - निपात इस स्वरूप में आते हैं । ( निपातन - व्युत्पत्ति 'देने का प्रयत्न न करते, अधिकृत ग्रन्थों में जैसे शब्द दिखाई देते हैं वैसे ही वे देना ) । यहाँ दिए हुए निपातों में से अनेक शब्द देशी हैं; तथापि उनमें से कुछ का मूल संस्कृत तक लिया जा सकता है । उदा० -- विउस्सग्ग— संस्कृत व्युत्सर्गा शब्द में स्वरभक्ति होकर । मुव्वहइ - संस्कृत उद्वहति शब्द में म् का आदिवर्णागम हुआ । सक्खिण - सासिन् शब्द के अन्त में अ स्वर संयुक्त किया गया । जम्मण -- जन्मन् शब्द के अन्त में अ मिलाया गया । इत्यादि । अतएव अभिधेयः- प्राकृत में वर्णान्तरित शब्द कौन से और कैसे प्रयुक्त करे; इसकी सूचना इस वाक्य में दी है । २ १७५-२१८ इन सूत्रों में अव्यय और उनके उपयोग दिए हैं । Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरण- द्वितीयपाद २·१७५ यह अधिकार सूत्र है । सूत्र २०२१८ के अन्त तक उसका अधिकार है। २१७६ श्लोक १-- अयि, अशक्त अथवा भक्ति अवयवों से व्यभिचारिणी स्त्री बार-बार सोती है, अथवा-भक्ति अवयवों से व्यभिचारिणी स्त्री बार-बार अति सोती है । २·१८० श्लोक १ - अरेरे, वह मेरे चरणों में नन हुआ, मगर मैंने उसका माना नहीं, अब यह बात ) होगी अगर न होगी, ऐसे शब्द बोलने वाली यह ( स्त्री ) निश्चित रूप से तुम्हारे लिए पसीने से तर व्याकुल होती है । शब्दों में म् प् और व् इनका सकता है । व- इव शब्द में २ १७२ मिव पिव विव-- इन होकर ये शब्द बने, ऐसा भी कहा जा लोप होकर । व्व - व् का द्वित्व होकर । २·१८४ सेवादित्वात् - सूत्र २.९१ देखिए । २·१८६ इर-फिर शब्द में आदि क् का लोप होकर इर हुआ, ऐसा कहा जा सकता है । हिर- इर शब्द में आदि ह, आकर हिर शब्द बना, ऐसा कहा जा सकता है । २१८७ णिव्वडन्ति४.६२ देखिए ) । ३४९. आदि वर्णागम आदि वर्णं का --- - पृथक् स्पष्टं मू इसका णिव्वड शब्द आदेश है ( सूत्र २·१६० नओर्थे-नव् के अर्थ में । नञ् ( न ) यह नकारवाचक अव्यय है । अमुणन्ती - ज्ञा धातु को गुण आदेश होता है ( सूत्र ४७ देखिए ) ; उससे मुणन्ती यह शब्द स्त्रीलिंगी वर्तमान काल बाचक धातुसाधित विशेषण है; उसका नकारार्थी रूप है अन्ती । २०५ε१. काहीअ - इस रूप के लिए सूत्र ३ १६२ देखिए । २०१३ श्लोक १- - भय से वेव्वे, निवारण करते समय वेब्वे, खेद - विषाद करते समय वेव्वे, ऐसे बोलने वाली, वेरी, हे सुन्दर स्त्री, वेब्वे का अर्थ हम भला क्या जानें । उल्लविरी - उल्लाविर शब्द का स्त्रीलिंगी रूप । उल्लाविर के लिए सूत्र २ १४५ देखिए । श्लोक २- जोर से बड़-बड़ करने वाली तथा विषाद- खेद करने वाली और डरी हुई तथा उद्विग्न; ऐसे उस स्त्री ने जो कुछ वे ऐसा कहा, बह हम नही भुलेंगे। उल्लावेन्ती - उल्लावेन्त इस व० का० द० का ( सूत्र ३·१८१ देखिए ) । स्त्रीलिंगी रूप । विम्हरिमो - सूत्र ३१४४ देखिए । १·१७७ हु --- मराठी में हूँ । २·१६६ मुशिआ - मुण ( सूत्र ४७ देखिए ) धातु के क० भू० धा०वि० का स्त्रीलिंगी रूप । Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -३५० टिप्पणियां २२म्० थू-मराठी मे थू। २.२०१ रे हिअय मडहसरिआ-रे हृदय मृतक सदृश; अथवा:-रे हृदय मडह ( = अल्प )-सरित् । पहले वर्णान्तर के लिए 'मडव-सरिसा' ऐसे शब्द आवश्यक थे। सडह शब्द अल्प नर्थ में देशी शब्द है। २.२०२ हरे-अरे शब्द में ह का आदिवांगम होकर हरे शब्द बना, ऐसा कहा जा सकता है। २.२०३ ओ-मराठी में ओ । तत्तिल्ल-यह तत्पर के अर्थ मे देशी शब्द है । विकल्पे सिद्धम्-उत यह एक विकल्प दिखाने वाला अव्यय है; सूत्र १.७७२ के अनुसार उसका ओ होता है । इस लिए विकल्प दिखाने वाला ओ अव्यय उत को होने वाले आदेश से सिद्ध हुआ है । १.२०४ श्लोक १-धूर्त लोग तरुण स्त्रियों का हृदय चुराते हैं (हरण करते हैं), तथापि भी वे उनके द्वेष के पात्र नहीं होते हैं; यह आश्चर्य है। अन्य जनों से (कुछ) अधिक होने वाले ये धूर्तजन कुछ रहस्य जानते हैं। श्लोक २-( अच्छा!)। यह सुप्रभात हुई। आज हमारा जीवित सफल हुआ। तेरे जाने के बाद केवल यह ( स्त्री ) खिन्न नहीं होगी। सप्फलं—सूत्र २.७७ देखिए । जी-जीवित शब्द में सत्र १ २७१ के अनुसार 'वि' का लोप हुआ। जूरिहिई--सूत्र ३.१६६ देखिए । श्लोक ३-उसके ही वेही गुण अब; अरेरे, धीरज नष्ट करते हैं, रोमांच बढ़ाते हैं, और पीड़ा देते हैं । अहो, यह भला किस तरह होता है ? रणरणय-यह शब्द पीडा इत्यादि अर्थों में देशी शब्द है। श्लोक ४--अरेरे, उसने मुझे ऐसा कुछ किया कि में वह किसको । भला ) कैसे कहूँ ? साहेमि-साह शब्द कथ् धातु का आदेश हैं । ( सूत्र ४२ देखिए )। २.२०५ पेच्छसि-तेच्छ शब्द दृश् धातु का आदेश है ( सूत्र ४१८१ देखिए )। २.२०६ मुच्चइ-मुच्च शब्द मुंच (/मुच्) धातु का कर्मणि अंग है। २.२०८ पारिज्जइ-पारिज्ज शब्द पार धातु का कर्मणि अंग हैं । और पार धातु शक् धातु का आदेश है ( सूत्र ४.८६ देखिए )। २.२११ श्लोक १--निमल पाचू के पात्र में रखे हुए शंख शुक्ति के समान, कमलिनी के पत्र के ऊपर निश्चल और हलचल रहित बलाका शोभती है। रेहइरेह शब्द राज धातु का देश है ( सूत्र ४.१०० देखिए )। पक्षे पुलआदयः-पश्य (= देख) इश अर्थ का उअ व्यय न प्रयुक्त हो, तो पुलअ इत्यादि जो दृश् धातु के लादेश होते हैं ( सूत्र ४.१८१ देखिए ), उनके आज्ञार्थी रूप प्रयुक्त हो सकते हैं। Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरण-द्वितीयपाद ३५१ २.२६२ इहरा-इतरथा-इअरहा ( और वर्णव्यत्यय से ) इहरा ऐसा कहा जा सकता है। २.२१८ पिवि--सूत्र १.४१ देखिए । इस द्वितीय पाद के समाप्ति सूचक वाक्य के अनन्तर कुछ पाण्डुलिपियों में अगला श्लोक दिखाई देता है: द्विषत्धुरक्षोद विनोदहेतो भवादवामस्य भवद्-भुजस्य । अयं विशेषो भुवनैकवीर परं न यत्काममपाकरोति ॥ (द्वितीय पाद समाप्त) Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तृतीय पाद सि शस् भ्यस् ऋष्ठी ३.१ वीप्सार्थात् पदात्-ये शब्द सूत्र में से वोप्स्यात् शब्द का अनुवाद करते हैं । जिस पद की पुनरावृत्ति की जाती है उसे वोप्स्यपद कहते हैं। स्यादेः स्थानेविभक्ति प्रत्यय के स्थान पर । स्यादि (=सि-+-आदि) यानी सि जिनके आदि है, वे यानी विभक्ति प्रत्यय । विभक्ति प्रत्ययों की तान्त्रिक संज्ञाएं निम्न के अनुसार हैं,विभक्ति एकवचन बहु (अनेक) वचन प्रथमा जस् द्वितीया अम् तृतीया भिस् (चतुर्थी) (भ्यस्) पंचमी आम् सप्तमी ३.२ डी--डित् ओ । सूत्र १.३७ ऊपर की टिप्पणी देखिए । ३.३ एतत्तदोकारात्-एतद् और तद् के अकार के आगे। एय (अ) और त इन स्वरूपों मे ये सर्वनाम अकारान्त होते हैं। ३४ वच्छा एए-वच्छा यह प्रथमा अ० ब० है यह दिखाने के लिए एए यह एतद् सर्वनाम का प्रथमा अ० व० प्रयुक्त किया है। सूत्र ३.४, १२ के अनुसार वच्छा रूप होता है। वच्छे पेच्छा ---सत्र ३.४, १४ के अनुसार वच्छे रूप बनता है । वच्छे यह द्वितीया दिभक्त का रूप है, यह दिखाने के लिए पेच्छ इस क्रियापद का प्रयोग है। पिछले शब्द २ शब्दों की द्वितीया विभक्ति दिखाने के लिए पेच्छ क्रियापद का ऐसा उपयोग आगे पूत्र ३.५ १४, १६, १८, ३६, ५०, ५३, ५५, १०७-१०८; १२२, १२४ में किया गया है। ३.६ वच्छेण--सूत्र ३.६, १३ देखिए । वच्छण-सूत्र ३.६, १२ देखिए । ३.७ सानुनासिक--सूत्र ११७८ ऊपर की टिप्पणी देखिए । वच्छेहि-हि-हिंसूत्र ३.७, १५ देखिए । छाही-सूत्र १.२४९ देखिए । Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरण- तृतीयपाद ३.८ दो दु - इस स्वरूप में ये प्रत्यय शौरसेनी भाषा में प्रयुक्त किए जाते हैं । इसलिए 'दकार करणं भाषान्तरार्थम्' ऐसा हेमचन्द्र ने आगे कहा है । प्राकृत में मात्र ये प्रत्यय ओ और उ इन स्वरूपों में लगते हैं । वच्छत्तो— सूत्र ३·१२ के अनुसार होने वाले दीर्घ स्वर का ह्रस्व स्वर यहाँ सूत्र १.८४ के अनुसार होता है । वच्छाओ " "वच्छा - सूत्र ३·१२ देखिए । ३.९ भ्यसः - प्राकृत में चतुर्थी विभक्ति न होने से, यहाँ भ्यस् शब्द से पञ्चमी बहुवचन का भ्यस् प्रत्यय अभिप्रेत है । दो दु--सूत्र ३.८ ऊपर की टिप्पणी देखिए । वच्छाओ... वच्छे सुंतो - सूत्र ३.१३, १५ देखिए । ३.१० संयुक्तः सः —– संयुक्त स यानी स्स । ३.११ डित् सकारः - ये शब्द सूत्र में से डे शब्द का अनुवाद करते हैं । संयुक्तो मि:- संयुक्त मियानी म्मि । देवं ङिः – यहाँ देवे देवेम्मि, ਰੇ तमि ऐसे सप्तमो एकवचन के रूप न देते, देवं तम्मि ऐसे रूप दिए हैं । उनमें देवं और तं ये रूप द्वितोया एक वचन के हैं । इसलिए यहाँ सूत्र ३.१३५ के अनुसार; अम् के स्थान पर ङि है ऐसा समझना है । ३५३ ३.१२ ङसिर्नव एत्वबाधनार्थम् - प्रस्तुत सूत्र में ङसि ऐसा कहा है । ङसि शब्द से त्ता, दो और दु ये आदेश सूत्र ३.८ के अनुसार संगृहीत होते ही हैं । फिर पुनः इस सूत्र में तो, दो, और दु ये आदेश क्यों कहे हैं ? उतर - तो, दो और दु ये आदेश सूत्र ३.६ के अनुसार भ्यस् प्रत्यय को भी होते हैं । भ्यस् प्रत्यय के पूर्व शब्द के अन्त्य अ का ए होता है ( सूत्र ३.१५ देखिए ); इस ए का बाधत्ता, दो, और दु इन प्रत्ययों के पूर्व तो, यह बताने के लिए तो, दो और दु इनका निर्देश प्रस्तुत सूत्र में किया है । ३.१३ वा भवति - विकल्प पक्ष में सूत्र ३.१५ लगना है । ३. १४ वच्छेसु – 'सु' यह सप्तमी अनेक वचन का प्रत्यय है । ३.१६ गिरीहिं. "महूहि कथं – पिछले शब्द तृतीया विभक्ति में हैं, यह दिखाने के लिए कयं शब्द प्रयुक्त किया है । कयं का ऐसा उपयोग आगे सूत्र ३.२३, २४, २७, २९; ५१, ५२, ५५, १०९ – ११०, १२४ में है । गिरीओमहूहो आगओ - पिछले शब्द पञ्चमी विभक्ति में हैं, यह सूचित करने के लिए आगओ शब्द प्रयुक्त किया है । आगओ का ऐसा उपयोग आगे सूत्र ३.२९, ३०, ५०, ९७, १११, १२४ में है । गिरीसु महूसु ठिअं-पिछले शब्द सप्तमी विभक्तयन्त है २३ प्रा० व्या० Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ टिप्पणियाँ है, वह दिखाने के लिए ठिअंशब्द प्रयुक्त किया गया है । ठि अं का ऐसा उपयोग आगे सूत्र ३.२९, १०१, ११५-११६, १२९ में है । 'जलोल्लि आई-जल + उल्लियाई। ___३.१७ चतुर उदन्तस्य-उ ( उत् ) से अन्त होने वाले चतुर् शब्द का यानी चतुर् शब्द के च उ इस अंग का। १८ गिरिणो तरुणो-सूत्र ३.२२ देलिए । जस् शस्... .. निवृत्त्यर्थम्जस शस् ( सूत्र ३.१२) इस सूत्र से, शस् प्रत्यय के सन्दर्भ में वाङ्मयनि उदाहरणों के अनुसार दीर्घ होता है यह नियम कहने का है । 'जस् शसोर्गो वा' ( सूत्र ३.२२) यह सत्र शस् को णो आदेश कहता है । इसलिए णो के बारे में प्रतिप्रसव का अर्थ है, ऐसो शंका यदि हो, तो वह मिटाने के लिए 'लुप्ते शसि' यह प्रस्तुत सूत्र कहा है । प्रतिप्रसव–एकाध नियम के कहे हुए अपवाद का अपवाद (यानी मूल नियम की कार्यवाही ) यानी प्रतिप्रसव । ३.१९ अक्लीबे-नपुंसकलिंग न होने पर। ३.२० इदुत... ... सम्बध्यते--सूत्र ३.१६ में इदुतः ऐसा षष्ठयन्त पद है। वह अनुवृत्ति से प्रस्तुत ३.२० सूत्र में आता ही है। केवल यहां वह षष्ठयन्त न रहने, आवश्कता के अनुसार पञ्चम्यन्त भी होता है। इसलिए यहाँ इदुतः ऐसे पञ्चम्यन्त पद का सम्बन्ध प्रस्तुत सूत्र में है। पंसि-पुल्लिग में। अउ डितौ-सूत्र में से डउ और डओ पदों का अनुवाद; अर्थ है-डित् होने वाले अउ और अओ ये आदेश । अग्गउ... ... ...चिट्ठन्ति-पिछले शब्दों का प्रथमा अनेक वचन दिखाने के लिए चिट्ठन्ति शब्द प्रयुक्त किया है, और चिट्ठइ का ऐसा उपयोग ३.५९ में, और चिट्ठह का उपयोग सूत्र ३.९१ में है। पक्षे "वा उणो-सूत्र ३.२२ देखिए । शेषे... .."वाऊ-सूत्र ३.१२४ देखिए । बुद्धीओ घेणूओ-सूत्र ३.२७ देखिए । दहीइं महूई-सूत्र ३.२६ देखिए । ३.२१ डित् अवो-ये शब्द सूत्र में से डवो शब्द का अनुवाद् हैं। सहुणोसूत्र ३.२२ देखिए। ३.२२ गिरिणो.. .."'रेहन्ति पेच्छ--रेहन्ति और पेच्छ ये शब्द पिछले शब्द अनुक्रम से प्रथमान्त और द्वितीयान्त हैं यह दिखाते हैं। ३.२३ गिरिणो आगओ विआरो--पिछले शब्दों की पंचमी अथवा षष्ठी दिखाने के लिए आगओ और विआरो शब्द प्रयुक्त हैं। हिलुको निषेत्स्येते--इकारान्त और उकारान्त शब्दों के बारे में उसि प्रत्यय के लुक् और हि इन आदेशों का निषेध आगे सूत्र ३.१२६-१२७ में किया जाएगा। Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरण-तृतीयपाद ३५५ बुद्धीअ... ''समिद्धी-पिछले शब्दों की तृतीया और षष्ठी लद्ध और समिद्धी इन शब्दों से सूचित होती है। ३.२५ स्वरादिति .. .. निवृत्त्यर्थम्---सूत्र ३.१६ में से इदुतः पद की अनुवृत्ति चालू है ही; तथापि वह प्रस्तुत ३.२५ सूत्र में आवश्यक नहीं है; इसलिए इदुतः पद की निवृत्ति करने के लिए प्रस्तुत सूत्र में 'स्वरात्' ऐसा शब्द प्रयुक्त किया है। ३.२६ उन्मौलन्तिः .. .. जेम वा--पिछले शब्दों की प्रथमा अथवा द्वितीया दिखाने के लिए यहां के क्रियापद प्रयुक्त हैं । ३.२८ एसा हसन्तीआ--हसन्तीआ शब्द का प्रथमा एकवचन सूचित करने के लिए 'एसा' शब्द प्रयुक्त किया गया है। ३.२९ मुद्धाअ... .."ठिअं--कयं, मुहं और ठिअं ये शब्द अनुक्रम से तृतीया, षष्ठी और सप्तमी दिखाने के लिए प्रयुक्त हैं। मुद्धा आ ऐसा रूप न होने के कारण सूत्र ३.३० में दिया है। क--प्रत्यये... ... ..'कमलि आए--स्वार्थे क प्रत्यय लगाने के बाद मुद्धा शब्द का मुद्धिआ और कमला शब्द का कमलिआ ऐसा रूप होता है। बुद्घीअ .. .."ठिअंबा--यहाँ कयं शब्द तृतीया दिखाने के लिए, ठियं शब्द सप्तमी सूचित करने लिए और विहवो, धणं, दुद्धं तथा भवणं ये शब्द षष्ठी दिखाने के लिए प्रयुक्त हैं। ३.३० मालाअ... .. आ--कयं, मुहं, ठिअं और आगओ ये शब्द माला शब्द की अनुक्रम से तृतीया, सप्तमी और पंचमी दिखाते है। ३.३१ डी:--ई (डी) प्रत्यय । आप्--आ (आप) प्रत्यय । ई और आ प्रत्यय लगाकर स्त्रीलिंगी रूप सिद्ध किए जाते हैं। उदा०--साहण ( साधन )--साहणी; साहणा। ३.३३ किम् यद्, तद् इन सर्वनामों के स्त्रीलिंगी अंग प्रायः का; जा और ता ऐसे होते हैं। सि, अम्, आम् ये प्रत्यय छोड़कर, अन्य प्रत्ययों के पूर्व उनके स्त्रीलिंगी अंग की; जी, ती, ऐसे दीर्घ ईकारान्त होते हैं । ३.३५ डा-डित् आ। ससानणन्दा दुहिआ-प्राकृत में ऋ और ऋ स्वर नहीं है; इसलिए स्वसू, ननन्द, दुहित इन ऋकारान्त शब्दों को डा प्रत्यय जोडा जाता है। गउआ-गवय शब्द को डा प्रत्यय लगा है। ३.३८ चप्फलया-मिथ्या भाषी इस अर्थ में चप्फल/चष्फलय शब्द देशी है। ३.३६ हे पिअरं-सूत्र ३० देखिए । ३.४१ अम्मो-अम्मा यह देशी शब्द माता अर्थ में है । Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पणियां ३.४३ क्विबन्तस्य-क्विप् प्रत्यय से अन्त होने वाला का। क्विप यह एक कृत् प्रत्यय है । वह पहले लगता है फिर उसका लोप होता है। ३४४ ऋकारान्त शब्दों के उकारान्त अंग उकारान्त संज्ञा के समान चलते हैं। ३.४५ ऋकारान्त शब्दों के आर से अन्त होने वाले अंग अकारान्त शब्द के समान चलते हैं । लप्तस्याद्यपेक्षया-विभक्ति प्रत्ययों के पूर्व शब्द के अन्त्य ऋ का आर होता है । अब लागे आने वाले विभक्ति प्रत्ययों का लोप हुआ ( लुप्त-स्यादि ) और यह शब्द समास में गया, तथापि लुप्त हुए स्यादि की अपेक्षा से यह आर आदेश वैसा ही रहता है। उदा०-भत्तार-विहिअं। ३.४६ बाहुलकात्-बाहुलके बहुलत्व के कारण । मातुरिद्... वन्देमातृ शब्द के इकारान्त और उकारान्त अंग ये इकारान्त और उकारान्त स्त्रीलिंगी संज्ञा के समान चलते हैं। ३.४७ ऋकारान्त संज्ञा के अन्त में अर आदेश आने पर, वह संज्ञा अकारान्त शब्द के समान चलती है । ३.४६ राज० शब्द का रायाण अंग अकारान्त शब्द से समान चलता है। ३.५० राइणोधणं-पिछले शब्दों की षष्ठी दिखाने के लिए धणं शब्द प्रयुक्त है। धणं का ऐसा उपयोग आगे सूत्र ३.५३, ५५, ५६, ११३-११४,१२४ में है। ३.५२ राइणो...."धणं-राइणो यह प्रथमा, द्वितीया, पंचमी और षष्ठी है यह दिखाने के लिए चिट्ठन्ति....."धणं शब्द प्रयुक्त हैं। ३.५६ आत्मन् शब्द का अप्पण अंग अकारान्त संज्ञा के समान चलता है। उदा.----अप्पाणो... 'अप्पाणेसु । विकल्प से होने वाला अप्प अंग राजन शब्द के समान चलना है। उदा०-अप्पा..... अप्पेसु । रायाणो......"रायाणेसु-ये रूप राजन शब्द के रायाण अंग के हैं। विकल्प पक्ष में सूत्र ३.४९-५५ में कहे हुए राजन शब्द के रूप होते हैं । एवम्-इसी तरह अन्य नकारान्त संज्ञाओं के रूप होते हैं । उदा०-जुवाणो..."सुकम्माणे । अब तक कहा हुआ संज्ञाओं का रूप विचार निम्न के अनुसार कहा जा सकता है : ___ अकारान्त पुल्लिगी वच्छ शब्द . विर्भाक्त ए० ब. अ० व प्रथम वच्छो वच्छा द्वितीय वच्छं वच्छे; वच्छा तृतीय वच्छणणं वच्छेहि हि-हिँ पंचम वच्छत्तो, वच्छओ, वच्छाउ, वच्छत्तो, वच्छाको, वच्छाउ; वच्छाहि, वच्छाहि, वच्छाहितो; वच्छा वच्छेहि, वच्छाहितो, वच्छेहितो, वेच्छासुंतो, वच्छेसुंतो Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरण-तृतीयपाद ३५७ प. बच्छस्स वच्छाण-णं स० वच्छे, वच्छम्मि वच्छेसु-सुं सं० वच्छ, वच्छो, वच्छा थच्छा ( सूत्र ३.१-१५, १९, ३८ और सूत्र १२७ देखिए ) अकारान्त नपुंसकलिंगी वण शब्द प्र०, द्वि० वणं वणाणि, वणाई, वणाई सं० वण वणाणि, वणाई, वणाई ( सूत्र ३°५, २१-२६, ३७ देखिए )। अन्य रूप बच्छ के समाम । आकारान्त स्त्रीलिंगी माला शब्द प्र० माला मालाउ, मालाओ, माला द्वि० मालं मालाउ, मालाओ, माला तृ० मालाअ-इ-ए मालाहि-हि-हि पं. मालाअ-इ-ए, मालत्तो, मालाओ, मालत्तो, मालाओ, मालाउ, मालहितो, मालाउ मालासुंतो ष० मालाअ-इ-ए मालाण-णं स० मालाअ-इ.ए मालासु-स सं० माले, माला मालाउ, मालाओ, माला (सूत्र ३-४, ६-९, २७, २९-३०, ३६, ४१, १२४, १२६-१२७, १२७ देखिए) इकारान्त पुल्लिगी गिरि शब्द प्र० गिरी गिरी, गिरओ, गिरउ, गिरिणो द्वि० गिरि गिरी, गिरिणो तृ० गिरिणा गिरीहि-हि-हिं पं. गिरिणो, गिरितो, गिरीओ, गिरीउ, गिरित्तो, गिरीओ, गिरीउ, गिरीहितो, गिरीहितो गिरीसुतो ष० गिरिणो, गिरिस्स गिरीण-णं स० गिरिम्मि गिरीसुसुं सं० गिरि, गिरी गिरी, गिरओ, गिरउ, गिरिणो (सूत्र ३.५-१२, १६, १८-२०, २२, २४, १२४; १.२७ देखिए ) Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५८ प्र० दहि द्वि० दहि सं० दहि (सूत्र ३०५, २५-२६, ३७, अन्य रूप गिरि के समान । टिप्पणियाँ इकारान्त नपुंसकलिंगी दहि शब्द टिप्पणी : - प्र० ए० व० में दहि ऐसा रूप दिखाई देता है । कुछ के मतानुसार, प्र० ए० व० में दहिँ ऐसा रूप होता है । प्र० तरू द्वि० तरु १२४ देखिए ) प्र० बुद्धी द्वि० बुद्धि तृ० बुद्धीअ आ इ ए पं० दुद्धीअ आ इ ए, बुद्धित्तो, बुद्धीउ, बुद्धीहितो बुद्धीठ, बुद्धीओ, बुढी बुद्धीउ, बुद्धीओ, बुद्धी बुद्धीहि-हि-हिं बुद्धित्तो, बुद्धीओ, बुद्धीउ, बुद्धीहितो, बुद्धीस्तो ष० बुद्धील-आ-इ-ए बुद्धी - णं स० बुद्धीअ आ इ -ए . बुद्धीसु-सुं सं० बुद्धि, बुद्धी बुद्धीउ, बुद्धीओ, बुद्धी (सूत्र ३°४, ७-९, १६, १८-१९, २७, २९, ३६, ४९, १२४; १·२७ देखिए ) टिप्पणी :- दीर्घं ईकारान्त सही शब्द बुद्धि के समान चलता है । उकारान्त पुल्लिंगी तरु शब्द तरू, तरउ, तरओ, तरवो, तरुणो तरू, तरुणो प्र०, द्वि० महु सं• महु दहीणि, दही, दहीई दहीणि, दही, दही इँ दहीणि, दही, दही इँ इकारान्त स्त्रीलिंगी बुद्धि शब्द तृ० तरुणा पं० तरुणो, तरुत्तो, तरूओ, तरूउ, तहतो ब० तरुणो, तरुस्स स० तरुम्मि सं० तरु, तरू (सूत्र ३·५-१२, १६, १८-२४, ३८, १२४; १ • २७ देखिए ) उकारान्त नपुंसकलिंगी महु शब्द महूणि, महूई, महूइँ महूणि, महूई, महूइँ अन्य रूप तरु के समान । तरूहि-हि- हिं तरुतो, तरूओ, तसुंतो तरूण-णं तरूउ, तरुहितो, तरुसु-सुं तरू, तरउ, तरओ, तरवो, तरुणा Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरण-तृतीयपाद ३५९ टिप्पणी :-प्र० ए० व० में महु ऐसा रूप दिखाइ देता है । कुछ के मतानुसार प्र० ए० व• में महुँ ऐसा भी रूप होता है । ह्रस्व उकारान्त स्त्रीलिंगी घेणु शब्द इसके रूप बुद्धि के समान होते हैं । दीर्घ ऊकारान्त बहू शब्द इसके रूप बुद्धि के समान होते हैं। पिअरपिउ ( पितृ ) शब्द प्र. पिआ, पिअरो पिअरा, पिउणो, पिअवो, पिमओ, पिऊउ, पिऊ द्वि. पिअरं पिउणो, पिऊ, विअरे, पिअरा तृ• पिउणा, पिअरेण-णं पिऊहि-हि-हि, पिअरेहि-हि-हिं ५० (वच्छ और तरु इनके समान) ष पिउणो, पिउस्स, पिअरस्स पिऊण-णं, पिअराण-णं स. पिउम्मि, पिअरे, पिअरम्मि पिऊसु-सुं, पिअरेसु. पुं सं. पिस, पिअरं पिअरा, पिउणो, पिअवो, पिकओ, पिऊउ, पिऊ (सूत्र ३३९-४०, ४४, ४७-४८; १.२७ देखिए) दायार/दाउ (दातृ) शब्द प्र० दाया, दायारो दायारो, दाऊओ, दायवो, दायओ, दायऊ, दाऊ द्वि० दायारं दायारे, दायारा, दाउणो, दाऊ तृ० स० (वच्छ और तरु के समान) . सं० दाय, दायार (पथमा के समान) (सूत्र ३३९-४०, ४४-४५, ४७-४८ देखिए) माआ/माअरा (मातृ) शब्द । माआ और मायरा ये अंग माला के समान चलते हैं । माइ और माउ ये अंग अनुक्रम से बुद्धि और घेणु के समान चलते हैं । राय (राजद् शब्द प्र. राया राया, रायाणो, राइणो द्वि० रायं, राइणं राए, राया, रायाणो, राइणो तृ० रण्णा, राइणा, राएण-णं राएहि-हि-हि, राईहि-हि-हिँ Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० टिप्पणियां पं० रण्णो, राइणो रायत्तो, रायत्तो, रायाओ, रायाउ, राएहि, रायाओ, रायाउ, रायाहि, रायाहितो, राएहितो, रायासुंतो, राएसुतो, रायाहितो, राया राइत्तो, राईओ, राईउ, राईहितो, राईसुंतो। ष. राइणो, रणो रायस्स राईण-णं, रायाण-णं स. राइम्मि, रायम्मि, राए राईसु-सुं, राए-सं सं. राय, राया (प्रथमा के समान) (सूत्र ३.४९.५५ देखिए ) अप्प/अप्पाण ( आत्मन् ) शब्द अप्प अंग के रूप राजन् के समान होते हैं । अप्पाण अंग के रूप वच्छ के समान होते हैं ( सूत्र ३.५६ )। तृतीया एक वचन में अप्पणिआ और अप्पण इआ ऐसे अधिक रूप हैं ( सूत्र ३.५७ )। ___३.५८ सर्वादेरदन्तात् -अकारान्त ( अदन्त ) सर्वादिका। सर्वादि यानी सर्व, यद्, तद्, किम् इत्यादि सर्वनाम । यद्, तद्, किम्, और एतद् इनके ज, त. क और एअ/एय ऐसे अकारान्त अंग होते हैं। ३.५९ अमुम्मि-अदस् सर्वनाम का सप्तमी ए० व० ( सूत्र ३.८८ देखिए )। ३.६० काए... "ती-ये रूप स्त्रीलिंगी आकारान्त और ईकारान्त अंगों ३.६१ डेसि-डित् एसि । सव्वाण... .. काणये रूप अकारान्त संज्ञा के समान हैं। ३.६३ कित... .."भ्यामपि-आकारान्त किम् यानी का, और आकारान्त तद् यानी ता। ___३.६४ किमादिभ्यः ईदन्तेभ्यः-ईकरान्त किम् इत्यादि यानी को, जी, तो। कोअ... .. तीए-सूत्र ३.६ देखिए। ३.६५ श्लोक १-यदा सहृदयों से लिए जाते हैं तदा वे गुण होते हैं। पक्षे कहि... .. कत्थ सूत्र ३.५९-६० देखिए । ३.६८ डिणो डीस--डिन इणो और डित् ईस । ३.७० सलक्ष्यानुसारेण-व्याकरणीय नियमों के उदाहरणों के अनुसार । ३.७१ कत्तो कदो-सूत्र २.१६७ देखिए । ३ ७४ स्सि-मूत्र ३.५६ देखिए । स्स-सूत्र ३.१० देखिए । ३.७७ इमं . . 'इमेहि-इम अंग से बने हुए रूप हैं। Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरण-तृतीयपाद ३.८२ एत्तो एत्ताहे-तो और एत्ताहे प्रत्यय लगते समय, एत (द् ) सर्वनाम में से त का लोप होता ( सूत्र ३.८३ देखिए)। ___३.८३ एतदस्त्थे परे—एतद् के आगे स्थ होने पर । त्थ के लिए सूत्र ३.५६ देखिए । ३.८७ अदसो... ."न भवति-इसका भावार्थ यह है कि सब लिंगों में अदस् सर्वनाम का प्रथमा ए० व० अह ऐसा होता है । ___३.८८ अदस् सर्वनाम का अमु ऐसा अंग होता है और वह उकारान्त संज्ञा के समान चलता है। ३.८९ ङ्यादेशे म्मौ-सूत्र ३.५९ के अनुसार ङि प्रत्यय को म्मि ऐसा आदेश होता है। ३.६०-९१ दिट्ठो, चिट्ठह-ये शब्द पिछले शब्दों को प्रथमा विभक्ति दिखाते हैं। ३.६२-९३ वन्दामि पेच्छामि—ये शब्द पिछले शब्दों को द्वितीया विभक्ति दिखाते हैं। ३.६४-६५ जंपिअं भुत्तं-ये शब्द पिछले शब्दों को तृतीया विभक्ति दिखाने के लिए हैं। ३.१०४ पक्षे स एवास्ते--विकल्प पक्ष में ब्भ यह स्वयं होता ही है । ३.१० ६ भणामो-यह शब्द पिछले शब्दों की प्रथमा दिखाता है । अब सर्वनाम रूप विचार ( सूत्र ३.५८-१९७) निम्न के अनुसार एकत्र किया जा सकता है : पुल्लिगी सव्व ( सर्व ) सर्वनाम प्र० सव्वी सर्व द्वि० सव्वं सव्वे, सव्वा तृ० सव्वेण णं सम्वेहि-हि-हि पं० सव्वत्तो इत्यादि वच्छ की तरह ष० सम्वस्स सव्वेसि, सव्वाण-णं स० सवस्सि, सम्मि, सव्वेसु-सुं सव्वत्थ, सब्वहिं ( सूत्र ३.५८-६१, १२४; १.२७ ) यद्, तद्, किम्, एतद्; इदम् इन सर्वनामों के ज, त, क, एअ (एय ); इन ये अकारान्त अंग पुल्लिगी सव्व के तरह चलते हैं। उनके जो अधिक रूप होते हैं, वे निम्न के अनुसार : Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हि णेसु-सु प्र. GO सिं ३६९ टिप्पणियाँ पुल्लिगी त ( तद् ) सर्वनाम स, सो णे, णा तिणा, णेण तम्हा, तो तास, से तास, सि ताहे, ताला, तइआ पुल्लिगी इम ( इदम् ) सर्वनाम अयं द्वि० इणं, णं णे, णा इमिणा, णेण एहि, णेहि ष. अस्स, से स. अस्सि , इह पुल्लिगी ज ( यद् ) सर्वनाम एकवचन में:-तृ० जिणा, पं. जम्हा, ष० जास स० जाहे, जाला, जइआ पृल्लिगी एअ ( एय ) ( एतद् ) सर्वनाम एकवचन में :-प्र. एस, एसो, इणं, इणमो, तृ० एदिणा, एदेण पं० एत्तो, एत्ताहे ष• से स• अयम्भि, ईयम्भि, एत्थ । पुल्लिगी क ( किम् ) सर्वनाम किणा कम्हा, किणो कीस ष० कास स. काहे, काला, कइआ स्त्रीलिंग में सव्व का सव्वा, इदम् का इमा, ज का जा अथवा जी, त का ता अथवा ती, किम् का अथवा की ऐसे अंग होते हैं। इनमें से आकारान्त अंग माला के समान चलते हैं। प्रथमा ए. व०, द्वितीया ए० व० और अ० व० छोड़कर अन्यत्र जी, की, और ती इनके रूप ईकारान्त स्त्रीलिंगी संज्ञा के समान होते हैं। इनके जो अधिक रूप हैं वे ऐसे होते हैं :प्र. इमिआ; एस, एसा; सा द्वि० तृ णाए णाहिं तृ० कास Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प० स० प्राकृतव्याकरण- तृतीयपाद से; कास, किस्सा, कोसे; तिस्सा, तौसे; जिस्सा, जोसे तास, काहि; जाहि; ताहि नपुंसक लिंग में सव्व इत्यादि अकारान्त अंग प्रथमा और द्वितीया इनमें वण की तरह, और तृतीया से सप्तमी तक अपने-अपने पुल्लिंगी सर्वनामों के समान चलते हैं । कुछ के अधिक रूप ऐसे होते हैं : एकवचन :- प्रथमा :-- इदं, इणं, इणमो; एस; कि द्वितीया :-- इदं, इणं, इणभो; कि सन्वेसि सि सि } अदस् सर्वनाम तीनों भी लिंगों में अदस् का अमु ऐसा अंग होता है और वह उकारान्त संज्ञा के समान चलता है । उनके अधिक रूप ऐसे :-- तीनों भी लिंगों में : - प्र० ए० ब० : - अह । पुल्लिंगी सप्तमी ए० व० : - अयम्मि, इयम्मि युष्मद् और अस्मद् सर्वनाम इन दोनों भी सर्वनामों के रूप अनियमित हैं । वे ऐसे हैं : प्र. तं, तं, तुवं, तुह, तुमं द्वि. तं, तुं, तुमं, तुवं तुह, तुमे, तुए तृ० भे, दि, दे, ते, तइ, तए, तुमं तुमइ, तुमए, तुमे तुमाइ युष्मद् सर्वनाम भे, तुब्भे, तुज्झ, तुम्ह, तुम्हे, उन्हे तुम्हे तुज्झे ३६३० वो, तुज्झ, तुब्भे, तुम्हे, उम्हे, भे, तुम्हे तुझे भे, तुन्भेहि, उज्झेहि, उय्येहि, तुय्येहि, उय्येहि, तुम्हेहि, तुझेह पं० तइत्तो, तुवत्तो, तुमत्तो, तुहत्तो, तुब्भत्तो, तुम्भत्तो, तुम्हत्तो, उम्हत्तो, तुम्हत्तो, तुम्हत्तो, तुज्झत्तो; तइओ, इ; तइउ, इ; तुज्झत्तो, इ तई हि, इ; तहितो, इ, तुम्ह, सुब्भ, तुम्ह, तुज्झ, तहितो ष० तइ, तु, ते, तुम्हं, तुह, तुहं, तुव, तुम, तु, वो, भे, तुब्भ, तुब्भं, तुब्भाण, तुवाण, तुमे, तुमो, तुमाइ दि, दे, इ, ए, तुम्भ, नुमाण, तुहाण, उम्हाण, तुब्भाणं, उब्भ, उम्ह, तुम्ह, तुज्ज, उम्ह, उज्झ तुवाणं, तुमाणं तुहाणं, उम्हाणं, तुम्ह, तुज्झ, तुम्हं, तुझं, तुम्हाण, तुम्हाणं, तुज्भाण, तुज्झाणं Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६४ टिप्पणियां स० तुमे, तुमए, तुमाइ, तइ, तए, तुम्मि, तुसु, तुवेसु, तुमेसु, तुहेसु, तुब्भेसु, तुम्मि , तुमम्मि, तुहम्मि, तुब्भम्मि, तुम्हेसु, तुझेसु, तुवसु, तुमसु, तुहसु, तुज्झम्मि, तुम्हम्मि तुब्भसु, तुम्हसु, तुज्झसु, तुब्भासु, तुम्हासु, तुज्झासु अस्मद् सर्वनाम प्र० मि, अम्मि, अम्हि, हं, अलं, अहयं अम्ह, अम्हे, अहो, मो, वयं, भे द्वि० णे, णं, मि, अम्मि, अम्ह, मम्ह, में, मम, अम्हे, अम्हो, अम्ह, णे मिम, अहं तृ० मि, मे, ममं, ममए, ममाइ, मइ, मए, अम्हेहि, अम्हाहि, अम्ह, अम्हे, णे __ मयाइ, ण पं० मइत्तो, ममत्तो, महत्तो, मज्झत्तो, ; ममत्तो, अम्हत्तो, ममाहितो,अम्हाहितो, मत्तो ममासुंतो, अम्हासुंतो, ममेसुंतो,मम्हेसुंतो १० से, मइ, मम, मह, महं, मज्झ, मज्झं, णे, णो, मज्झ, अम्ह,अम्हं, अम्हे, अम्हो, अम्ह, अम्हं . अम्हाण, ममाण, महाण, मज्झाण, अम्हाणं, ममाणं, महाणं, मज्झाणं स० मि, मइ, ममाइ, मए, मे, अम्हम्मि, अम्हेसु, ममेसु, महेसु, मज्झेसु, अम्हसु, ममम्मि, महम्मि, भज्झम्मि ममसु. महसु, मज्झसु अम्हासु। ३.११८-१२३ इन सूत्रों में संख्यावाचक शब्दों का रूप विचार है । वह निम्न के अनुसार होता है : संख्यावाचक 'द्वि' दुवे, दोपिण, दुण्णि, वेण्णि, विणि (प्र०, द्वि.); दोहि, बोहिं (तृ०); दोहितो, वेहितो (पं०); दोण्हं, वेण्हं (ष); दोसु, वेसु (स) संख्यावाचक 'त्रि' तिण्णि (प्र०वि०); तीहि (तृ); तीहितो (पं०); तिण्हं (ष); तीसु (स) संख्यावाचक 'चतुर' चत्तारो, चउरो, चत्तारि (प्र०, द्वि० ); चउहि, चऊहि ( ४ ); च उहितो, च ऊहिंतो (पं); च ऊण्हं (ष ); च उसु, चऊसु ( स ) ३.१२४ यह अतिदेश सूत्र है। अब तक कहे हुए रूपों के अलावा होने वाले अन्य रूप अकारान्त शब्द के समान होते हैं। इस अतिदेश का अधिक स्पष्टीकरण वृत्ति में है। ३.१२५ जस् 'णो-णो आदेश के लिए सूत्र ३.२२-२३ देखिए । Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरण-तृतीयपाद ३६५९ ३.१२६ ङसेढुंग-सूत्र ३.८ देखिए । ३.१२७ भ्यसो ङसेश्च हिः-सूत्र ३८-९ देखिए । ३.१२८ उडें-सूत्र ३.११ देखिए । ३.१३० सर्वासां"त्यादीनाम्-विभक्ति यानी शब्दशः विभाग, या भिन्न करना । प्रथमा इत्यादि को प्रायः विभक्ति शब्द लगाया जाता है। तथैव धातुको लाये जाने वाले काल और अर्थ के प्रत्ययों के बारे में भी विभक्ति शब्द प्रयुक्त किया जाता है । (विभक्तिश्च/सुपतिङन्तौ विभक्तिसंज्ञो स्तः । पाणिनि सूत्र १.४.१०४ ऊपर सिद्धांत कौमदी)। द्विवचनस्य भवति-प्राकृत में द्विवचन ही न होने से, उसके बदले बहु (अनेक) वचन प्रयुक्त किया जाता है । ३.१३१ प्राकृत में चतुर्थी विभक्ति न होने से, उसके बदले षष्ठी विभक्ति प्रयुक्त की जाती है। अपवाद के लिए सूत्र ३.१३२-१३३ देखिए । ३.१३२ तादर्थ्य...... वचनस्य-डे यह चतुर्थी एकवचन का प्रत्यय हैं । प्रायः तादर्थ्य दिखाने के लिए चतुर्थी प्रयुक्त की जाती है। ३.१३४ द्वितीया, तृतीया, पंचमी और सप्तमी इन विभक्तियों के बदले ही क्वचित् षष्ठी प्रयुक्त की जाती हैं । ३.१३५ तृतीया विभक्ति के बदले सप्तमी विभक्ति का उपयोग विमल सूरिकृत पउमचरिय नामक ग्रन्थ में बहुत है। ३.१३८ क्यङन्तस्य......"लंग भवति-संज्ञाओं से धातु सिद्ध करने के लिए क्या और क्यक्ष ऐसे दो प्रत्यय हैं। उन प्रत्ययों से संबंधित होने वाले 'य' का विकल्प से लोप होता है। लोहित इत्यादि कुछ शब्दों को क्यक्ष प्रत्यय लगता है । उदा०-लोहित-लोहितायति-ते । सदृश आचार दिखाने के विए क्यङ् प्रत्यय जोड़ा जाता है । उदा०-( काकः ) श्येनायते (Vश्येन ) ( श्येन के समान आचार करता है)। दमदमा-एक प्रकार का बाद्य है । ३.१३६-१८० इन सूत्रों में धातु रूप विचार है। इस संदर्भ में अगली बातें भाद में रखे:-(१) प्राकृत में व्यञ्जनान्त धातु नहीं हैं; सब सातु स्वरान्त होते हैं; बहुसंख्य धातु अकारान्त होते हैं। (२) धातु का गण भेद और परस्मैपद-आत्मने पद ऐसा प्रत्यय भेद नहीं है । (३) वर्तमान; भूत और भविष्य ये तीन काल हैं; उनके संस्कृत के समान अन्य प्रकार नही हैं। भूतकालीन धातु रूपों का उपयोग अत्यन्त कम है, प्रायः कर्मणि भूतकाल वाचक धातु साधित विशेषण के उपयोग से भूतकाल का कार्य किया जाता है। (४) आज्ञार्थ, विध्यर्थं और संकेतार्थ होते हैं। विध्यर्थ के बदले विध्यर्थी कर्मणि धातु साधित विशेषण का उपयोग अधिक दिखाई देता है। Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ टिप्पणियां ३.१३६ त्यादीनां विभक्तीनाम्-त्यादि के लिए सूत्र १.९ के ऊपर की टिप्पणी तथा विभक्ति के लिए सूत्र ३.१३० के ऊपर की टिप्पणी देखिए । परस्मैपदानामात्मनेपदानां च–संस्कृत में परस्मैपद और आत्मनेपद ऐसे धातु के दो पद हैं और उनके लिए प्रत्यय भी भिन्न होते हैं। ऐसा पद-प्रत्यय-भेद प्राकृत में नहीं है। धातु को लगने वाले प्रत्यय एक ही प्रकार के हैं। प्रथमत्रयस्य-पहले तोनों के यानी तृतीय पुरुष तीन वचनों के । आद्य वचनम्--एकवच, द्विवचन और बहुवचन ऐसे तीन वचन हैं, उनमें से पहला वचन यानी एकवचन ! इच् एच--इनमें च वणं इत् है । धातु के अन्तिम रूप में यह च नहीं आता है। चकारौ विशेषणाथौं—सि, से, मि, न्ति, न्ते और इरे इन् प्रत्ययों की तरह, इ और ए ये प्रत्यय इत्-रहित क्यों नहीं कहे, इस प्रश्न का उत्तर यहाँ है। पैशाची भाषा के सन्दर्भ में सूत्र ४.३१८ में इन इत्-सहित प्रत्ययों का उपयोग होने वाला है । ३.१४० द्वितोयस्य त्रयस्य--प्रथम पुरुष के तीन वचनों का । आद्यवचनस्यएकवचन का। ३.१४१ तृतीयस्य त्रयस्य--प्रथम पुरुष के तीन वचनों का। आद्यस्य वचनस्य--एकवचन का। मिवेः स्थानीयस्य मे:--मिप ( प्रथमपुरुपी एकवचनी प्रत्यय ) के स्थान पर आने वाले मि प्रत्यय का । ६.१४२ आद्यत्रयं--यानी प्रथमत्रय ( सूत्र ३.१३९ देखिए ) यानी तृतीय पुरुष के तीन वचन । बहष......'वचनस्य--बहु में होने वाले वचन का यानी बहवचन का । हसिज्जन्ति रमिज्जान्त--ये कर्मणि रूप हैं (सूत्र ३.१६० देखिए)। क्वचिद् ...."एकत्वेपि--क्वचित् एकवचन में भी इरे प्रत्यय लगता है। ३.१४३ मध्यमस्य त्रयस्य-यानी द्वितीयस्य त्रयस्य ( सूत्र ३.१४० देखिए ) यानी द्वितीय पुरुष के तीन वचनों का । बहुष वर्तमानस्य-बहुवचन का । हचइस शब्द में च वर्ण इत् है। जं....."रोइत्था--यहाँ तृतीय पुरुष एकवचन में रोइत्था प्रयुक्त है। हच् इति......."विशेषणार्थः-सूत्र ३.१३९ ऊपर की टिप्पणी देखिए । ४-२६८ के अनुसार ह, का ध् होता है। १३.१४५ यौ'वुक्तौ--एच् ओर से ये आदेश सूत्र २.१३९-१४० में कहे सूत्र ३.१३९-१४४ में कहे हुए वर्तमान काल के प्रत्यय निम्न के अनुसार होते हैं: Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुरुष प्र० पु० पुरुष प्रथम द्वितीय तृतीय इ, ए हैं: - ( सूत्र ३.१४१-१४३, पूर्व धातु के अन्त्य अ का अन्त्य अका केवल अकारान्त धातु को पूर्व धातु के ये प्रत्यय धातु को लगते समय होने वाले बदल ऐसे १४५, १५४, १५५, १५८ देखिए ) : – (१) मि प्रत्यय के आ विकल्प से होता है । (२) मो, मु, म इन प्रत्ययों के आ ओर इ विकल्प से होते हैं । ( ३ ) से और ए ये प्रत्यय लगते हैं । ( ४ ) सब प्रत्ययों के पूर्व धातु के अन्त्य अ का ए विकल्प से होता है । (टिप्पणी : - ( १ ) क्वचित् मि प्रत्यय में से इ का लोप होकर है । उदा०-हस + मि हसं । (२) इरे प्रत्यय कभी तृतीय पुरुष लगता है । (३) इत्या प्रत्यय क्वचित् अन्य पुरुषों में भी लगता है । ऊपर के प्रत्यय लगकर होने बाले धातु केरूप ऐसे केवल म् रहता एकवचन में भी 1 ) वर्तमानकाल : हस धात् तृ० पु० प्राकृतव्याकरण- तृतीयपाद वर्तमानकाल- प्रत्यय एकवचन होमि एकवचन हसमि, हसामि, हसेमि पुरुष प्र० पु० द्वि० पु० होसि तृ० पु० होइ एकवचन मि द्वि० पु० हससि, हसे सि, इससे, इसे से हसइ, हसेइ, हसए, हसेए FE, से अनेकवचन वर्तमानकाल : हो धातु मो, मु, म इत्था, ह न्ति, न्ते, इरे अ० वचन हसमो, हसामो, हसिमो, हसेमो, इस मु, हसामु, हसिम, हसेमु, हसम, इसाम, हसिम, हसेम हश इत्या, हसित्था, हसेइत्या, हसेत्था, हसह, हसेह सन्ति, हसेन्ति, हसन्ते, हसेन्ते, हस इरे, _ सिरे, हसेइरे ३६७ अ० वचन होमो, होमु, होम होइत्था, होह होन्ति (हुन्ति) होते, होइरे ३·१४६ सिना भवति -- द्वितीय पुरुषी तीन वचनों में से एकवचन के सि इस आदेश के सह अस् धातु को सि आदेश होता है । ३ १४७ मिमोम -- मि के लिए सूत्र ३०३४१ और मो तथा म के लिए सूत्र Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६८ ३१४४ देखिए | पक्षे ऐसा आदेश होता है । ३.१४८ अस्ते.. ऐसा आदेश होता है | प्रथम प्रथम द्वितीय तृतीय एकवचन म्ह, अस्थि सि, अतिथ अस्थि टिप्पणियाँ "अम्हो -- विकल्प पक्ष में सूत्र ३ १४८ के अनुसार अस्थि * भवति - सर्वं पुरुषों में और वचनों में अस् धातु को अस्थि वर्तमानकाल : अस धातु अ० वचन अस्थि म्हो, म्ह अत्थि अत्थि २·१४६-१५३ इन सूत्रों में प्रेरक ( प्रयोजक ) धातु सिद्ध करने की प्रक्रिया कही हुई हैं। ३-१४९ णैः स्थाने - णि के स्थानपर | प्रेरक धातु साधने के लिए धातु को लगाए जाने वाले प्रत्यय को णि ऐसी संज्ञा है । ३·१५० गुर्वादेः -- जिसमें आदि स्वर गुरु यानी दीघं है उसका । ३·१५१ भ्रमेः—√ भ्रमि-भ्रम् । एकाध धातु का निर्देश करते समय, उसको इ ( इक् ) लोड़ा जाता है ( इश्तिपो धातुनिर्देशे । पाणिनि सूत्र ३०३ १०८ ) । भामेइ.....भमावेइ – ये रूप सूत्र ३०१४९ के अनुसार होते हैं । कर्मणि प्रत्यय आगे होने पर, उदा० - कर + आवि + अ : कराविज्ज । णि ३·१५२ णे: स्थाने परत :- क्त प्रत्यय और णि प्रत्यय का लोप अथवा आदि ऐसा आदेश होता है । ( क्त प्रत्यय ) = कराविअ । कर + आवि + ज्ज ( कर्मणि प्रत्यय = के अ और ए इन आदेशों का लोप होता है, तबः -कर + + अ ( क्त प्रत्यय ) = कार + ० + अ = कारिअ । कर + + ज्ज ( कर्मणि प्रत्यय ) = कार + ० + ज्ज = कारिज्ज । क्त-धातु से कर्मणि भूतकाल वोचक धातुसाधित विशेषण सिद्ध करने वाले प्रत्यय को क्त यह तान्त्रिक संज्ञा है । उदा०—गम्-गत | भावकर्मविहित प्रत्यय -- धातु से कर्मणि और भावे अंग सिद्ध करने के लिए कहा हुआ क्य यह प्रत्यय । कारीअइहसाविज्जइ ये प्रयोजक धातुओं के कर्मणि रूप हैं । • ३-१५- आदेरकारस्य - धातु में से आदि लकारका | प्रेरक धातु निम्न के अनुसार सिद्ध किए जाते हैं :- ( १ ) अ, ए, आव और आवे वे प्रेरक धातु सिद्ध करने के प्रत्यय हैं । (२) अ और ए ये प्रत्यय लगते समय अथवा उनका लोप हो तो. धातु में से आदि अकार का आ होता है । उदा० – कर-कार (३) धातु का आदि स्वर दीर्घ हो, तो अवि ऐसा प्रत्यय विकल्प से लगता है । उदा० -- सोस - कोसिअ, सोसविक । ( ४ ) आगे क्त प्रत्यय अथवा कर्मणि प्रत्यय हो, तो णि प्रत्यव का लोप अथवा आवि ऐसा आदेश होता है | Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरण- तृतीयपाद ३.६९ ३·१५६ क्त-सूत्र ३.१५२ ऊपर की टिप्पणी देखिए । यह प्रत्यय प्राकृत में अ/य ऐसा होता है । उसके पूर्वं धातु के अन्त्य का इ हो जाता है । उदा०-हंस + अ = इसिन | ३·१५७ क्त्वा"" • प्रत्यये- क्त्वा प्रत्यय के लिए सूत्र १२७ ऊपर की टिप्पणी देखिए । तुम्— धातु से हेत्वर्थक अव्यय सिद्ध करने का तुम् प्रत्यय है । यह प्रत्यय प्राकृत में प्रायः उं ऐसा होता है । तव्य-धातु से विध्यर्थी कर्मणि धातुसाधित विशेषण साधने का तव्य प्रत्यय है । यह प्रत्यय प्राकृत में अव्य / यव्व ऐसा हो जाता है । भविष्यत्कालविहितप्रत्यय - 'भविष्य काल का' इस स्वरूप में कहा हुआ प्रत्यय | इस प्रत्यय के लिए सूत्र ३.१६६ इत्यादि देखिए | ३.१५८ वर्तमाना - वर्तमानकाल | पञ्चमी – आज्ञार्थं । शतृ-धातु से वर्तमान काल का वाचक धातुसाधित विशेषण सिद्ध करने का शतृ प्रत्यय है । उसके लिए सूत्र = .१८१ देखिए । ३·१५६ ज्जाज्जे -ज्जा और ज्ज । ये आदेश प्राकृत भाषा में बहुत व्यापक किए गए हैं ( सूत्र ३१७७ देखिए ) । ३.१६० चिजि वक्ष्यामः — इसके लिए सूत्र ४०२४१ देखिए । क्यस्य स्थाने—क्य प्रत्यय के स्थान पर । धातु से कर्मणि और भावे अंग सिद्ध करने का क्य प्रत्यय है । हसोअन्तो हसिज्जमाणो -- यहाँ सूत्र ३ १८१ के अनुसार अन्त और माण प्रत्यय लगे हैं । बहुला विकल्पेन भवति -- क्वचित् क्य प्रत्यय ही लगता है यानी ज्ज (य) प्रत्यय लगता है; उसके पूर्व सूत्र ३०१५९ के अनुसार धातु के अन्त्य अ का ए होता है । उदा० नव + ज्ज - नवेज्ज । नविज्जेज्ज, लहिज्जेज्ज, अच्छिज्जेज्ज – सूत्र ३१७७ और १९५९ देखिए । अच्छ— सूत्र ४*२१५ देखिए । ---- ३-१६१ यथासंख्यम् - अनुक्रम से । डीस हुच्च - डित् ईस और डित् उच्च | दीसइ और वुच्चइ ये रूप संस्कृत के दृश्यते ( दिस्सइ - दोसइ ) और उच्यते ( उच्चइ, फिर व् का आदि वर्णागम होकर, सकते हैं। वुच्चइ ) इनसे भी साध्य हो W ३-१६२ भूतेर्थे... 'भूतार्थ: - भूतकाल का अर्थ दिखाने के लिए संस्कृत में जो अद्यतनी इत्यादि प्रत्यय संस्कृत व्याकरण में कहे हुए हैं, वे भूतार्थ प्रत्यय | संस्कृत में भूतकाल के लिए अद्यतन, अनद्यतन और परोक्ष ऐसे प्रत्ययों के तीन वर्ग हैं | सीहीहीअ - ये तृतीय पुरुष एकवचन के प्रत्यय दिखाई देते हैं । साहित्य में इंसु और २४ प्रा० व्या० Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७० टिप्पणियां अंसु ऐसे भूतकाल में तृतीय पुरुष अनेक वचन के प्रत्यय प्रयुक्त किए दिखाई देते हैं। तर्थव, अबवी के समान भूतकाल में तृतीय पुरुष एकवचन के रूप भी वाङ्मय में दिखाई देते हैं । स्वरान्ताः ..... विधिः-सी, ही, हीअ ये प्रत्यय लगाने का नियम केवल स्वरान्त धातुओं के बारे में ही हैं। अकार्षीत्....."जकार-ये कृ धातु के संस्कृत में होने वाले अद्यतन; अनद्यतन और परोक्ष भूतकाल के,रूप हैं। ह्यस्तन्याः प्रयोगः-शस्तनी का उपयोग । ह्यस्तनी यानी अनद्यतन भूतकाल । ३२६३ व्यखनान्ताः ......"भवति-व्यञ्जनान्त धातु को. भूतकाल में ईस प्रत्यय लगता है। यहाँ व्यञ्जनान्त का अर्थ है संस्कृत में ब्यञ्जनान्त होने वाला धातु, कारण प्राकृत में व्यञ्जनान्त शब्द ही नहीं होते हैं। अभूत् 'बभूव, आसिष्ट:..... आसांचके, अग्रहीत् 'जग्राह-भू, आस् और ग्रह धातुओं के रूप । सूत्र ३.१६२ के नीचे अकार्षीत्..."चकार इस ऊपर को टिप्पणी देखिए । ३.१६४ आसि और अहेसि ये अस धातु के मूतकालोन रूप सर्व पुरुषों में और सर्व वचनों में प्रयुक्त किए जाते हैं। ३.१६५ सप्तमी-विध्यर्थ । विध्यर्थ का चिह्न इस स्वरूप में धातु के आगे ज्ज आता है और उसके आगे थिकल्प से वर्तमान काल के प्रत्यय जोड़े जाते हैं । ३.१६६-१७२ इन सूत्रो में भविष्यकाल का बिचार है । हि अथवा स्स भविष्य काल का चिह्न है। भविष्यकाल के प्रत्यय निम्न के अनुसार दिए जा सकते हैं : भविष्यकाल के प्रन्यय पुरुष ए० व० अ. ब. प्र०पु० स्सं, स्सामि, हामि; हिमि स्सामो, स्साम, स्सामु; हामो, हाम, समु; हिमो, हिम, हिम हिस्सा, हित्था द्वि०पु० हिसि, हिसे हित्या, हिह तृपु० हिइ, हिए हिन्ति, हिन्ते, हिंइरे ये प्रत्यय लगने के पूर्व सूत्र ३.१५७ के अनुसार, धातु के अन्त्य अ के इ और ए होते हैं । धातु के उदाहरण : भविष्यकाल भण धातु पुरुष ए० व० अ.व. प्र.पु. भणिस्सं, भणेस्स; भणिदसामि, भणिस्सामो, भणेस्सामो; भणिस्साम, भणेस्सामिभणिहामि, मणेहामि; भणेस्सामु भणिस्सामु,भ॥स्सासु; भणिहामो, भणिहिमि, भणेहिमि भणेहामो; भणिहाम, महाम; भणिहिम, भणेहिम; भणिहिसु, भणेहिसु; भणिहिस्सा; भणेहिस्सा, भणिहित्था, भणेहित्था Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरण-तृतीयपाद ३०१ अ०व० पुरुष ए. व. द्वि० पु. भणिहिसि. भणेहिसि; भणिहित्या, भणेहित्था; भणिहिसे, भणेहिसे भणिहिह, मणेहिह तृ• पु० भणिहिइ, भणेहिइ; भणिहिन्ति, भणेहिन्ति; भाणिहिन्ते, भणेभणिहिए, भणेहिए हिन्ते, भणिहि इरे, भणेहि इरे __ भविष्यकाल : हो धातु पुरुष ए० व. अ०व० प्र. पु० होस्सं होस्सामि, होस्सामो, होस्साम, होस्सामु; होहामो, होहामि, होहिमि होहाम, होहामु; होहिमो, होहिम, होहिम होहिस्सा, होहित्था द्वि० पु. होहिसि होहित्था, होहिह तृ• पु० हो हिइ होहिन्ति, होहिन्ते, होहिइरे ३.१६६ भविष्यति भविता-- संस्कृत में भविष्य काल में भू धातु के स्थ और ता भविष्य काल के रूप हैं । हसिहिइ-भविष्य कालीन प्रत्यय के पूर्व धातु के अन्त्य अ के इ और ए होते हैं । उदा--हसिहिइ, हसेहिइ । ३.१६७ मविष्यत्यर्थे... ..'प्रयोक्तव्यो-मि, मो, मु और म इन प्रत्ययों के पूर्व विकल्प से स्सा और हा आते हैं । तृतीय त्रिक-तृतीय त्रय ( सूत्र ३.१४२ देखिए ), प्रथम पुरुष के तीन वचन । ३.१७० कर : कृ) और दा धातुओं के भविष्यकाल प्रथम पुरुष एक वचन में काहं और दाहं ऐसे दो रूप अधिक होते हैं । करोते:- करोति (कृ)। काहं-भविष्य कालीन प्रत्ययों के पूर्व, सूत्र ४२१४ के अनुसार, कृ धातु का होता है। ३१७१ श्रु इत्यादि धातुओं के सोच्छं इत्यादि रूप भविष्यकाल प्रथम पुरुष एक वचन के हैं। ३.१७२ श्रु इत्यादि धातुओं के भविष्य काल में सोच्छ इत्यादि अंग होते हैं। उनको केवल वर्तमान काल के प्रत्यय लगा कर ही उनका भविष्य काल सिद्ध होता है। उदा०-सोच्छिइ । उनको भविष्यकाल के प्रत्यय भी लगते हैं। उदा०-सोच्छिहिइ । ___३.१७३-१७६ इन सूत्रों में आज्ञार्थ ( विध्यर्थ ) का विचार है। उसके प्रत्यय Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .३७२ टिप्पणियां आज्ञार्थ के प्रत्यय पुरुष ए.व० अ० २० प्रथम द्वितीय सु,इज्जसु,इज्जहि,इज्जे, हि, ह तृतीय उ ___ आज्ञार्थ के प्रत्यय लगते समय:-(१) मु और मो प्रत्ययों के पूर्व धातु के अन्त्य म के इ और आ होते हैं ( सूत्र ३.१५५)। (२) सर्व प्रत्ययों के पूर्व धातु के अन्त्य अ का ए होता है ( सूत्र ३.१५८)। (३) इज्जसु, इज्जहि, इज्जे और लोप (0) प्रत्यय केवल अकारान्त धातुओं के बारे में ही होते हैं । आज्ञार्थः हस धात पुरुष ए. व० अ०व० प्र०पु० हसमु, हसामु, हसिमु, हसेमु हसमो, हसामो; हसिमो, हसेमो द्वि०पु० हससु, हसेज्जसु, हसेज्जहि, हसह, हसेह हसेज्जे, हसहि, हसेहि, हस । तृपु० हसउ, हसेउ हसन्तु, हसेन्तु आज्ञार्थ : हो धातु पुरुष ए. व० अ० व० प्र०पु० होम होमो द्वि०पु. होसु, होहि होह तृपु. होउ होन्तु ३.१७३ विध्यादिष्वर्थेषु-विधि इत्यादि अर्थों में । प्राकृत में आज्ञाथं और विध्यर्थ इनमें विशेष फर्क नहीं माना जाता, ऐसा दिखाई देता है। एकत्वे... .... स्थाने-एक वचन में होने वाले तीन पुरुषों के ( त्रयाणां ) तीनों भी एक वचनो के (त्रिकाणां) स्थान पर । दकारो'.. .""न्तरार्थम्-दु में से द् का उच्चारण दूसरे ( यानी शौरसेनी ) भाषा के लिए है। ३.१७४ सोः स्थाने-सु के स्थान पर । सु के लिए सुत्र ३.१७३ देखिए । ३.१७५ लुक-लोप; यहाँ प्रत्ययों का लोप । अकारान्त धातुओं के आज्ञार्थ द्वितीय पुरुष एक वचन में एक रूप प्रत्यय रहित होता है । उदा--हस । ३.१७६ बहष्व... .."स्थाने-बहवचन में होने वाले, तीन पुरुषों के, तीनों में बहुवचनों के स्थान पर । हसन्तु हसेयुः हसत, हसत हसाम हसेम-हस् धातु वे अनुक्रम से तृ• पु०, द्वि० पु० और प्र० पु० इनके बहुवचनों के क्रम से आज्ञार्थी और विध्यर्थी रूप Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरण-तृतीयपाद ३.१७७ वर्तमानायाः... .."भवतः-वर्तमान काल, भविष्य काल, विध्वर्थ और आज्ञार्थ इनमें कहे हुए प्रत्ययों के स्थान पर जन और ज्जा ये आदेश विकल्प से आते हैं; वे सर्व पुरुषों में और बचनों में प्रयुक्त किए जाते हैं ( सूत्र ३१७८ भविष्यन्ती-भविष्य काल । हसत हसेत् -हेस् धातु के संस्कृत में से आज्ञार्थ और विष्यर्थ तृतीय पुरुष एक वचन । अन्ये... .."पीच्छन्नि-कुछ वैयाकरणों के मतानुसार, सर्व काल और अर्थ इनमें ज्ज और ज्जा प्रयुक्त किए जाते हैं। भवति ... ."अभविष्यत् – ये रूप भू धातु के तृतीय पुरष एक वचन के क्रम से वर्तमान काल, विध्यर्थ, आज्ञार्थ, अनद्यतन भूतकाल, अद्यतन भूतकाल, परोक्ष भूतकाल, आशीलिङ्. ता और स्य भविष्यकाल और संकेतार्थ इनके हैं । ३.१७८ भवतु भवेत्-सूत्र ३.१७७ ऊपर की टिप्पणी देखिए । ३.१७६ क्रियातिपत्ति-संकेतार्थ । ३.१८० धातुओं को न्त और माण प्रत्यय जोड़ कर ही संकेतार्थ साधा जाता है । श्लोक १-अरिचंद्र, हिरन के स्थान पर यदि तू सिंह को ( अपने स्थान पर ) रखा होता, तो विजयी ऐसे उनके कारण तुझको राहु का नास सहन करना न पड़ता। ३.१८१ शतृ आनश्-धातु से वर्तमान काल वाचक धातुसाधित विशेषण साधने के लिए ये दो प्रत्यय हैं। उन्हें प्राकृत में न्त और माण ऐसे आदेश होते हैं । शतृ प्रत्यय के पूर्व के अन्त्य अ का विकल्प से ए होता है ( सूत्र ३.१५८ देखिए)। उदा०-हसेन्त । ३.१८२ धातु को ई, न्ती और माणी जोढ़कर स्त्रीलिंगी वर्तमानकाल वाचक धातुसाधित विशेषण सिद्ध होते हैं । इस पाद के समाप्ति सूचक के अनन्तर कुछ पांडुलिपियों में अगला श्लोक है : ऊध्वं स्वर्गनिकेतनादपि तले पातालमूलादपि त्वत्कोतिभ्रंमति क्षितीश्वरमणे पारे पयोधेरपि । तेनास्याः प्रमदास्वभावसुलभैरुच्चावचैश्चापलैस्ते वाचंयमवृत्तमोऽपि मुनयो मौनव्रतं त्याजिताः । ( तृतीय पाद समाप्त ) Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चतुर्थ पाद टिप्पणियाँ इस पाद में प्रारम्भ में धात्वादेश कहे हैं । अनन्तर शौरसेनी इत्यादि भाषाओं के वैशिष्टय कहे हैं । . धात्वादेशों में मूल धातु तथा प्रेरक धातु के आदेश दिए हैं। इन धात्वादेशों में से कुछ सम्पूर्ण देशी हैं, तो झा, गा ( सूत्र ४.६ ), ठा ( ४.१६ ), अल्ली ( ४.५४ ), इत्यादि कुछ का संस्कृत से सम्बन्ध जोड़ा जा सकता है । ४.१ इदितः-जिनमें से 5 इत् है। उदा.-कथि ( कथ+इ) में (= इत्) इत् है । प्रायः सर्व धात्वादेश वैकल्पिक हैं। ४.२ बोल्ल—मराठी में बोल, बोलणे । एतेचान्य....."प्रतिष्ठन्तामितिअन्य वैयाकरणों ने धात्वादेशों को देशी शब्द माना है । तथापि वे धात्वादेश के स्वरूप में यहां देने का कारण हेमचन्द्र ऐसा देता है—अन्य धातुओं के समान इन धात्वादेशों को भी भिन्न-भिन्न प्रत्यय लगकर उनके भिन्न-भिन्न रूप सिद्ध हो । और वैसे वे होते ही हैं । उदा०-वज्जर धात्वादेश से वज्जरिओ (क भू धा०वि०), वज्जरिऊण (पू०काधा०अ० ), वज्जरणं ( संज्ञा ), वज्जरन्त (व०का धा०वि०), बज्जरिअव्वं (वि.कधा०वि० ) इत्यादि इत्यादि । ४.४ गलोपे-धात्वादेश में से ग का लोप सूत्र ११७७ के अनुसार होगा। ४.५ बुभुक्षे...... क्विबन्तस्य-आचार अर्थ में होने वाले विप् प्रत्यय से अन्त होनेवाले बुभुक्ष धातु को। आचार अर्थ में क्विप् प्रत्यय संज्ञाओं को जोड़कर नाम धातु सिद्ध किए जाते हैं । उदा०-अश्वति । ४.६ णिज्झाइ-/निर् + ध्यं । झाणं गाणं-झागा से साधित संज्ञाएँ। ४७ जाण (धातु) से जाणिअ यह क भूधा०वि०, जाणि ऊम यह पू०का० धा०अ०, और जाणणं यह संज्ञा सिद्ध हुए हैं। णाऊण--यह सूत्र २.४२ के अनुसार, ज्ञा धातु से बने हुए णा के पू०का धा० अ० है।। ४.९ सद्दहमाणो-सद्दह धातु का व०का०धा०वि० (सूत्र ३.१८१ देखिए )। ४१० घोट्ट-मराठी में घोट । ४.१६ ठाअइ-सूत्र ४.२४० के अनुसार ठा धातु के आगे 'अ' आया है। पठिओ"उट्ठाविओ-ये सर्व क०मू धा०वि० चिट्ठिऊण-यह चिट्ट धातु का पू०का धा० अ० है। Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरण-चतुर्थपाद ३७५ ४२७ उट्ठइ-मराठी में उठणे । ४.२० झिज्जइ-मराठी में झिजणे । ४२१-५५ इन सूत्रों में प्रेरक धातुओं के धात्वादेश कहे हैं । ४.२१ ण्यन्त–'णि' इस प्रेरक प्रत्यय से अन्त होनेवाला, प्रेरक प्रत्ययान्त । णत्वेणूमइ-सूत्र १.२२८ के अनुसार नूमइ में से न का ण होता है। ४.२२ पाडेइ-मराठी में पाडणे । ४.२७ ताडेइ-मराठी में ताउणे, ताउन । ४.३० भामेइ. "भभावेइ-सूत्र ३.१५१ देखिए । ४.३१ नासवइ, नासइ-मराठी में नासवणे, नास । ४.३२ दावइ दक्खइ-मराठी में दावणे, दाखवण । ४.३३ उग्घाडइ-मराठी में उघडणे । ४.३७ पट्ठवइ, पठ्ठावइ-मराठी में पाठवणे । ४.३८ विण्णवइ--मराठी में विनवणे। ४.४३ ओग्गालइ--मराठी में उगालणे । ४.५३ भाइअ, बीहिअ--भा और बहि धातु के क०भ०धा०वि० । ४.५६ विरा-मराठी में विरणे । ४.५७ रुजई--मराठी में रंजन, रुंजी। ४.६० हो--मराठी में होणे । हिंदी में होना । पक्षे भवइ-विकल्प पक्ष में भू धातु का भव होकर भवइ रूप होता है। विहवो--वि+भूधातु से विहव यह संज्ञा । भविउं--भव धातु से साधा हुआ हेत्वर्थक धातुसाधित तुमन्त अव्यय । ४.६१ हुन्तो--हु धातु का व९का०धा०वि० । ४.६३च्चिअ-सूत्र २.१८४ देखिए। ४.६९ मन्युनाकरणेन--करण होने बाले मन्युसे। करण वह है जो क्रिया के सिद्धि के बारे में अत्यन्त उपकारक होता है । ४७६ ह्रस्वत्वे--सूत्र १.८४ के अनुसार, ह्रस्व होने पर । ४.८६ त्वजनेरपि चयइ--त्यज शब्द में सूत्र २.१३ के अनुसार, 'त्य' का 'च' और सूत्र ४२३९ के अनुसार अन्त मे -अ' आकर चय वर्णान्तर होता है । तरतेरपि तरइ-सूत्र ४२३४ के अनुसार, तु धातु का वर्णान्तर तर होता है। ४.६६ सिम्पइ-मराठी में शिपणे । ४.१०१ बुडडइ--मराठी में बुडणे, बुडी। ४.१०४ तेअणं--तिज् धातु से सिद्ध की गई संज्ञा। ४.१०५ फुस, पुस-मराठी में फुसणे, पुसणे । Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७६ टिप्पणियाँ 'अणु + बच्च । सूत्र ४ २५ के अनुसार व्रज् धातु का ४·१०७ अणुवच्चइवच्च वर्णान्तर होता है । ४·१०ε जुप्प -- मराठी में जुपणे, जुपणी, जुंपणे । ४·१११ उवहुंजइ-- उ + भुंज | यहाँ भ का ह हुआ है । ४.११६ तोडइ, तट्टइ, खुट्टइ - - मराठी में में तोडणे, तुटणे, खुटणे, खुंटणे । ४*११७ घुलइ – मराठी में घुलणे । घोलइ - मराठी में घोलणे, घोल । धुम्मइहिन्दी में घूमना । -- ४.११६ अट्ट - मराठी में आटणे । कढइ - मराठी में कढणे । ४·१२० गण्ठी - यह संज्ञा है । मराठी में गाठ । हिन्दी में गठि । ४·१२१ धुसाल - मराठी में घुसकणे । ४·१२२ इकारो "ग्रहार्थ - सूत्र में ह्लाद शब्द को इकार ऐसा शब्द प्रयुक्त किया है । यह इकार इस शब्द में सूत्र ४१ के स्वरूप में प्रयुक्त नहीं है । किन्तु प्रेरक प्रत्ययान्त ह्लाद् धातु का भी है, ऐसा दिखाने के लिए इकार प्रयुक्त किया गया है । ४.१२५ अच्छिन्दइ—– सूत्र ४०२१६ के अनुसार, आच्छिद् शब्द का वर्णान्तर संयुक्त व्यञ्जन के पिछले आ का ह्रस्व लाच्छिन्द होता है, सूत्र १९८४ के अनुसार, होकर अच्छिन्द होता है । ४·१२६ मलइ – मराठी में मलणे । ४१२७ चुलुचुल— मराठी में चुरुचुरु ( बोलणे ) । ४·१३० झडइ – मराडो में झडणे । यहाँ शद् (१५०) शीयति धातु है । ४·१२६ जाअइ – सूत्र ४ २४० के अनुसार जा के आगे अ आया है । जोड़कर ह्लादि अनुसार इत् के यहाँ ग्रहण होता ४-१३७ विरल्लइ -- मराठी में विरल (होणे ) । ४९१३६ कृतगुणस्य-- जिसमें गुण किया है उसका इ ई उ ऊ ऋ ॠ ऌ इनके अनुक्रम से ए, ओ, अर्, अल् होना यानी गुण होना । ४·१४३ ह्रस्वत्वे – सूत्र १८४ के अनुसार ह्रस्व होने पर । ४·१४५ अक्खिवइ — सूत्र ४२३९ के अनुसार, आक्षिप् धातु के अन्त में 'अ' आकर हुए आक्खिव वर्णान्तर में सूत्र १९८४ के अनुसार, आ का ह्रस्व होकर अक्खिय वर्णान्तर हुआ है । ४·१४६ लोट्टइ – हिन्दी में लेटना । ४·१४८ वडवड – मराठी में बडबड, बडबडणे । हिन्दी में बडबडाना । ४१४६ लिम्प -- मराठी में लिपणे । ४·१५२ पलीवइ — सूत्र १२२१ के अनुसार प्रदीप शब्द में द का ल होता है । Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरण-चतुर्थवाद ४.१५७ चम्भाअइ-सूत्र ४२४० के अनुसार जम्मा धातु के आगे 'अ' आया हैं। ४.१६० अक्कमई-सूत्र ४२३९ और १.८४ के अनुसार यह वर्णान्तर होता है। ४.१६२ हम्मइ... ."भविष्यन्ति-'हम्म गतौ' इस धातु पाठ के अनुसार, 'जाना' इस अर्थ में हम्म धातु है; उससे हम्मइ इत्यादि रूप होंगे। ४.१७० तवरन्तो अअडन्तो-ये शब्द तुवर और ज अ उ इन धातुओं के व० का० धा० वि० हैं। ४१७१ त्यादौ शतरि-धातु को लगने वाले प्रत्यय (त्यादि ) और शतृ प्रत्यय आगे होने पर । शतृ प्रत्यय के लिए सूत्र ३.१८१ देखिए। तुरन्तो-तूर धातु का व० का० धा० वि० । ४.१७२ अत्यादौ-( शब्द में से ) आदि अ ( अत् ) आगे होने पर । उदा०स्वर् + अन्त = तु + अन्त = तुरन्त । तुरिओ-तुर धातु का क. भू. धा० वि० । ४.१७३ खिरइ झरइ पज्झरइ-मराठी में खिरणे, झरणे, पाझरणे । ४.१७७ फिट्टइ चुक्कइ भुल्लइ-मराठी में फिटणे, चुकणे, भुलणे। ४.१८१ देक्खइमराठी में देखण । निज्झाअइ... .. भविष्यति-निध्य धातु से होने वाले निज्झा इस वर्णान्तर के आगे सूत्र ४.२४. के अनुसार अन्त में अ (मत् ) आकर, निज्झाम ऐसा शब्द होता है। उससे निज्झाअइ रूप होगा। ४.१८२ छिबइ-मराठी में शिवणे। ४.१८४ पीसइ-मराठी में पिसणे । ४.१८६ भुक्क-मराठो में भुकणे। ४.१८७ कड्ढइ-मराठी में काढणे । ४.१८६ ढुण्ढुल्ल ढण्ढोल्लइ-मराठी में धांडोकणे । ४१६१ चोप्पउ-मराठी में चोपउणे । मक्खइ-मराठी में माखणे । ४.१६४ तच्छइ-मराठी में तासणे । ४.१६७ परिल्हसइ-यहाँ ल्हस के पीछे परि उपसर्ग आया है । ४१९८ डरइ-हिन्दी में डरना। ४२०२ ह्रस्वत्वे--सूत्र १.८४ के अनुसार, ह्रस्व होने पर । ४.२०६ चडइ-मराठी में चढणे । ४.२०७गुम्मइ-मराठी में धुम्म (होणे)। ४.२०८ डहइ-सूत्र १.२१८ देलिए । ४.२१० गोण्हिअ-सूत्र २.१४६ के अनुसार, अ प्रत्यय आता है, और उसके पूर्व सूत्र ३.१५० के अनुसार अन्त्य अ का ऐ होता है । धेत्तूण घेत्तुआणसूत्र २.१४६ देखिए। Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७८ टिप्पणियां - ४२११ वोत्त ण-सूत्र २.१४६ देखिए । ४२१४ अकार्षीत्..."चकार--सूत्र ३.१६२ ऊपर की टिप्पणी देखिए। करिष्यति कर्ता- धातु के स्य और ता भविष्यकाल के रूप । ४.२१६ सडइ--मराठी में सडणे । पडइ--मराठी में पउणे । ४.२२० कढइ--मराठी में कढणे । बडढइ--मराठी में वाढणे । परिअडढइयहां कड्ड के पूर्व परि उपसर्ग आया है। लायण्णं-सूत्र ११७७,१८० के अनुसार। वृधेः कृतगुणस्य--जिसमें गुण किया है ऐसे वृध धातु का। ४.२२१ वेष्ट वेष्टने--यह धातुपाठ है। वेष्टन अर्थ में वेष्ट धातु है । वेढइ-- मराठी मे वेढणे । वेढिज्जइ-बेढ धातु का कर्मणि रूप । ४.२२४ बहवचन.. सरणार्थम्-स्विद् इस प्रकार के धातु साहित्यिक प्रयोग के अनुसार करके निश्चित करना है, यह दिखाने के लिए 'स्विदाम् यह (स्विद् शब्द का ) बहुवचन प्रयुक्त है। ४२२६ रोवइ-यहां रुद् धातु में से उ का गुण हुआ है। सूत्र ४.२३७ देखिए । ४२२८ खाइ-मराठी में खाण, हिन्दी में खाना । खाइ-सूत्र ४.२४० के अनुसार खा धातु के आगे अ आया है। खाहिइ खाउ-खा धातु के भविष्यकाल और आज्ञार्थ के रूप । धाइ धाहिइ धाउ-धा धातु के क्रम से वर्तमानकाल, भविष्यकाल और आज्ञार्थ इनके रूप । ४२३० परिअट्टइ–यहां अट्ट के पीछे परि उपसर्ग आया है। पलोट्टइ–यहाँ प (प्र) उपसर्ग है ! ४२३१ फुट्टइ-मराठी में कुटणे । ४२३२ पमिब्लइ....."उम्मीलइ–यहाँ प्र, ति, सम् और उद् ये उपसर्ग होते हैं। ४.२३३ निण्हवइ निहवइ-यहां नि उपसर्ग है। पसवइ-यहाँ प (प्र) उपसर्ग है। ४.२३४ ऋवर्ण-ऋ और ऋ ये वर्ण स्वर । ४.२३७ मुवर्ण-सूत्र १.६ ऊपर की टिप्पणी देखिए । क्डित्यपि...."भवतिविङत् यानी कित् और डित् प्रत्यय यानी जिनमें से क और ङ् इत् हैं ऐसे प्रत्यय । संस्कृत में इन प्रत्यर्यो के पीछे होने वाले इ और उ इन स्वरों का गुण अथवा वृद्धि नहीं होती है। परन्तु प्राकृत में मात्र ये प्रत्यय आगे होने पर भी पिछले इ और उ इन स्वरों का गुण होता है । ४२३८ हवइ-सूत्र ४.६० देखिए । चिणइ-सूत्र ४.२४१ देखिए । रुवइ रोवइ -सूत्र ४२२६ देखिए । Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरण-चतुर्थपाद ४२३६ संस्कृत में से व्यञ्जनान्त धातुओं के अन्त में अ स्वर आकर वे अकारान्त होते हैं । कुणइ-कुण यह कृ धातु का धात्वादेश इस स्वरूप में सूत्र ४.६५ में कहा हुआ है । तथाही,कृ धातु व्यञ्जनान्त नही है। इसलिए कुण यह उदाहरण यहाँ योग्य दिखाई नहीं देता है। हरइ करइ-ह और कृ धातुओं से हर और कर होते हैं ( सूत्र ४२३४ देखिए) । ह और कृ धातु व्यञ्जनान्त नहीं हैं। इसलिए ये उदाहरण यहाँ योग्य नहीं हैं । शबादीनाम्-शप-+आदीनाम् ।। ४.२४० चिइच्छइ-सूत्र २.२१ देखिए । दुगुच्छइ-सूत्र ४.४ देखिए । ४.२४१ एषां.."हस्वो भवति-आगे 'ण' आने पर, पिछला स्वर दीर्घ हो, तो वह ह्रस्व हो जाता है। उदा०-लु+ =लुग । उच्चिणइ उच्चेइ-यहाँ उद् उपसर्ग है। ४२४२ द्विरुक्त वकारागम-द्विरुक्त वकःर का आगम यानी 'व्व' का आगम . क्यस्य लक-क्य प्रत्यय का लोप । क्य प्रत्यय के लिए सूत्र ३.१६० देखिए । ४२४३ संयुत्तो मः-संयुक्त म यानी म्म । ४.२४४ द्विरुक्तो मः--यानी म्म । हन्ति--यह हन् धातु का कर्तरि रूप है। हन्तब्वं हन्तूण हओ--ये हन धातु के अनुक्रम से वि० क. धा० वि०, पू० का धा० अ० और भू० धा० के रूप हैं । ४.२४५ द्विरुक्तो भ:--द्विरुक्त भ यानी ब्भ । ४.२४६ द्विरुक्तः झः-ज्झ ऐसा द्वित्व । ४.२५१ विढविज्जइ--विढव धातु अज् धातु का आदेश है ( सूत्र' ४.१०८)। ४२५२ जाणमुण--ये ज्ञा धातु के आदेश हैं ( सूत्र ४.७ )। ४२५४ आङ-आ उपसर्ग। आढवीअइ-आढव इस धत्वादेश को ( सूत्र ४.१५५) सूत्र ३.१६० के अनुसार, ई अ प्रत्यय लगा कर बना हुआ कर्मणि रूप है। ४.२५५ स्निह्यते सिच्यते--स्निह , सिच् धातु के कर्मणि रूप हैं। ४२५७ छिविज्जइ--छिव धात्वादेश का ( सूत्र ४.१८२ ) कर्मणि रूप । ४२५८ निपात्यन्ते--सूत्र २.१७४ ऊपर की टिप्पणी देखिए । इस सूत्र के नीचे वृत्ति में कहे हुए क. भू० धा• वि० के निपात प्रायः देशी शब्द हैं। ___ ४२५६ संस्कृत में से कुछ धातुओं को प्राकृत में कौन से भिन्न अर्थ प्राप्त हुए: हैं, वह यहां कहा है। ४२६०-२८६ इन सूत्रों में शौरसेनी भाषा के वैशिष्टय कहे हैं । Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८० टिप्पणियां ४.२६० अनादि असंयुक्त त का द का होना वह शौरमनी का प्रमुख वैशिष्टय है। करेध-सूत्र ४२६८ देखिए । तधा नधा-सूत्र ४.२६७ देखिए । भोमि-सूत्र ४.६९ देखिए । अय्य उत्तो-र्य का य्य होना इसलिए सूत्र ४२६६ देखिए । ४.२६३ इनो नकारस्य-इन में से नकार को। यह इन् इन् से अन्त होने वाले ( इन्नन्त ) शब्दों में से है। उदा०-कञ्चुकिन् । ४२६४ नकारस्य-यह नकार शब्द में से अन्त्य नकार है। उदा०-राजन् । भयवं-संस्कृत में भवन् ऐसा सम्बोधन का रूप है। भयव-यहाँ अन्त्य नकार का लोप हुआ है। ४.२६५ अनयोः सौ... "भवति-भवत और भगवत् के प्रयमा ए० व० में थवान और भगवान ऐसें रूप संस्कृत में होते हैं। समणे महावीरे, पागमासणेये प्रथमा एक वचन के रूप सूत्र ४०२८७ के अनुसार होते हैं। संपाइ अवं कयवंसंपादितवान्, कृतवान् । ये क. भू० धा० वि० को वत् प्रत्यय जोड़ कर बने हुए कर्तरि रूप हैं। ४.२६६ पक्षे-य का य्य न होने पर, विकल्प पक्ष में ( माहाराष्ट्री) प्राकृत के के समान र्य का ज्ज होता है। ४१२६७ अनादि असंयुक्त थ का ध होना, यह शौरसेनी का वैशिष्टय है । ४.२७० पक्ष-विकल्प पक्ष में ( माहाराष्ट्री ) प्राकृत के समान अपृत्व ऐसा वर्णान्तर होता है। ४.२७१ इय दूण-( माहाराष्ट्री) प्राकृत में क्त्वा प्रत्यय का अ आदेश है ( सूत्र २.१४६ ); उसके पूर्व सूत्र ३१५७ के अनुसार धातु के अन्त्य का इ होता है। इन दोनों के संयोग से इय ( इअ ) बना हुआ ऐसा दिखाई देता है । ( महाराष्ट्री) प्राकृत में से क्त्वा के तूण आदेश को दूण होता है ऐसा कहा जा सकता है। भोत्ता... ..."रन्ता--इन रूपों में होने वाला क्त्वा का ता आदेश हेमचन्द्र ने स्वतंत्र रूप से नहीं कहा है। .४.२७३-२७४ वर्तमानकाल में तृतीय पुरुष एकवचन के दि और दे प्रत्यय हैं। ४२७३ त्यादीनां...."द्यस्य-सूत्र ३.१३९ ऊपर की टिप्पणी देखिए । ..४.२७५ स्सि-यह शौरसेनो में भविष्यकाल का चिह्न है। ४१२७६ य्येव--सूत्र ४२८० देखिए । ४२७७ दाणि-इदानीम् शब्द में से आध इ का लोप हुआ। ४२७६ यहाँ कहा हुआ णकार का आगम यह शौरसेनी का एक वैशिष्टय है। नवीन रूप में आने वाले इस 'ण' में अगले इ अथवा ए मिश्र हो जाते हैं। उदा० जुत्तं-ण-इमं = जुत्तं णिमं । Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरण-चतुर्थपाद ३८१. ४.२८१ निपात-यहाँ निपात शब्द का अर्थ अव्यय है । ४२८२ हगे-सूत्र ४-३०१ देखिए । ४०२८४ भवं--सूत्र ४.२६५ देखिए । ४.२८६ अन्दावेदी जुवदिजणो-सूत्र १.४ देखिए । मणसिला-सूत्र १.२६, ४३ देखिए । ४०२८७-३०२ इन सूत्रों में मागधी भाषा के वैशिष्टय कहे हैं। ४२८७ अकारान्त पुल्लिगी संज्ञा का प्रथमा एकवचन एकारान्त होना, यह मागधी का एक प्रमुख विशेष है । एशे मेशे, पुलिशे-स ( और ष ) का श और र का ल होना, इनके लिए सूत्र ४.२८८ देखिए । यदपि....."लक्षपस्य-जैनों के प्राचीन सूत्र'ग्रन्थ अर्धमागव भाषा में हैं, ऐसा वृद्ध और विद्वान लोगों ने कह रखा है। इस अर्ध मागध से मागधी का सम्बन्ध बहुत कम है। मागधी के बारे में कहा हुआ सूत्र ४.२८७ इतना ही नियम अर्धमागध को लगता है; बाद के सूत्रों में कहे हुए मागधी के विशेष अर्धमागध में नहीं होते हैं। ४.२८८ र का ल और स ( प ) का श होना, यह मागधी का एक प्रमुख विशेष है। दन्त्य सकार-दन्त इस उच्चारण स्थान से उच्चारण किया जाने वाला सकार तालव्य शकार-तालु इस उच्चारण स्थान से उच्चारित होनेवाला शकार। श्लोक १-जल्दी में नमन करने वाले देवों के मस्तकों से गिरे हुए मन्दार फुलों से जिसका पद युगुल सुशोभित हुआ है, ऐसा ( वह ) जिन ( महा-) वीर मेरे सर्व पाप जंआल क्षालन करे । इस श्लोक में लहश, नमिल, शुल, शिल, मंदाल, लामिद, वलि, शयल इन शब्दों में यथासम्भव र और स क्रम से ल और श हुआ है। वीलयिण-जिन वीर यानी महावीर । जैन धर्म प्रकट करने वाले चौबीस जिन तीर्थकर होते हैं। राग इत्यादि विकार जितने वाला 'जिन' होता है। बीर शब्द यहाँ महावीर शब्द का संक्षेप है। महावीर जैनों का २४वाँ तीर्थकर माना जाता है । यिये, यम्बालं-ज का य होना, इसलिए सूत्र ४२९२ देखिए। अवय्य--सूत्र ४२९२ देखिए । ४२८६-२६८ इन सूत्रों में मागधी में से संयुक्त व्यञ्जनों का विचार है। उससे यह स्पष्ट होता है कि ( माहाराष्ट्री) प्राकृत में न चलने वाले ऐसे स्ख, स्न, स्प, स्ट, स्त, श्च, स्क, 8 और ज ये संयुक्त व्यञ्जन मागधी में चलते हैं । ४.२९२ अय्युणे....."गय्यदि, वय्यिदे-यहाँ प्रथम र्य का ज्ज हुआ, फिर ज्ज का य्य हो गया है। ४.२६३ द्विरुक्तो अः-द्वित्वयुक्त न यानी । Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८१ टिप्पणियाँ ४.२६५ तिरिच्छि--सूत्र २.१४३ देखिए । पेस्कदि-सूत्र ४२९७ देखिए । ४.२६६ जिह वामूलीयः-सूत्र २.७७ ऊपर की टिप्पणी देखिए। ४.२६८ स्थाधातोः....."त्यादेश:--सच कहे तो स्था धातु को तिष्ठ ऐसा आदेश हेमचन्द्र ने नहीं कहा है। ४२६६ हगे--सूत्र ४३०१ देखिए । एलिश-सूत्र ११०५, १४२ और ४.२८८ देखिए। ४.३०० अनुनासिकान्तः डिद् आहादेशः-अनुनासिक से अन्त होने वाला डित आह आदेश यानी डित् आह ऐसा आदेश । ४.३०२ अभ्यूह्य-विचार करकर । ४.३०३-३२४ इन सूत्रों में पैशाची भाग का विचार है। ४.३०३ पैशाची में मागधी के समान ज्ञ का न होता है। ४३०५ पैशाची में मागधी के समान न्य और ण्य का न होता है। ४.३०६ ग्रामीण मराठी में ण का न होता है। हिंदी में तो न का ही उपयोग है। ४.३०७ तकारस्यापि..... बाधनार्थम् -पैशाची में प्रायः शौरसेनी के समान कार्य होता है ( सूत्र ४.३२३ देखिए )। तथापि शौरसेनी के समान पैशाची में त का द न होते, त वैसा ही रहता । (माहाराष्ट्री ) प्राकृत में त् को अनेक आदेश होते हैं ( उदा०-१.१७७, २०४-२१४ देखिए )। ये कोई भी आदेश पैशाची में नहीं होते हैं। इसलिए तकार से त के बिना अन्य सर्व आदेशों का बाध करने के लिए, प्रस्तुत सूत्र में तकार का तकार होता है, ऐसा विधान किया है। ४.३०८ मराठी में प्रायः ल का ल होता है। ४.३०६ न कगच..."योगः-प्राकृत में श् और ष का स् होता है, वैसा पैशाची में वह होता है, ऐसा इस सूत्र में क्यों कहा है, इस प्रश्न का उत्तर इस वाक्य में दिया है। सूत्र ४३२४ कहता है कि माहाराष्ट्री प्राकृत को लागू पड़ने वाले सत्र १.१७७-९६५ ये पैशाची को लागू नहीं पड़ते । इन निषिद्ध किए सूत्रों में ही श और ष का स होता है, यह कहने वाला सूत्र १२६० है। इसलिए यह १२६० सूत्र पैशाची को नहीं लागू होगा। परन्तु पैशाची में तो श और ष का स होता है। इसलिए सूत्र ४.३२४ में से बाधक नियम का बाध करने के लिए प्रस्तुत सूत्र में नियम ( भोग) कहा है। ४.३११ टोः स्थाने तः-टु और तु ये उदित् ( जिनमें उ-उत्-इत् है ) अक्षर हैं। उ के पिछले वर्ण से सूचित होने वाला व्यञ्जनों का वर्ग ये उदित् अक्षर दिखाते हैं। उदा.--टु-ट वर्षीय व्यञ्जन तुम्न वर्गीय व्यञ्जन । . ४.३१२ नून-प्राकृत में तूण में सूत्र ४.३०६ के अनुसार ण का न हुआ। Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरण-चतुर्थपाद ३८५ ४.३१३ ष्ट्वा-संस्कृत में कुछ धातुओं को क्त्वा प्रत्यय लगने पर ष्ट्वा होता है । उदा०-दृष्ट्वा , इत्यादि । ४.३१४ रिय सिन सट-यं, स्न और ष्ट इन संयुक्त व्यञ्जनों में स्वरभक्ति होकर ये आदेश बने हुए हैं । ४.३१५ क्य-प्रत्यय-सूत्र ३.१६. ऊपर की टिप्पणी देखिए । ४.३१६ डीर-डित् ईर । य्येव-सत्र ४.२८० देखिए । ४.३१७ अञआतिसो--अन्यादृश शब्द में सूत्र ४.३०५ के अनुसार न्य का न हुआ है। ४.३१८-३११--पैशाची में वर्तमान काल के तृतीय पुरुष एकवचन में और ते ऐसे प्रत्यय हैं। ४.३२० एय्य....."स्सिः--शोरसेनी के समान पैशाची में भविष्यकाल में स्त्रि (सूत्र ४२७५ ) न आते, एय्य आता है। ४.३२२ पैशाची में तद् और इदम् सर्वनामों के पुल्लिगी तृतीया एकवचन 'तेन' और स्त्रीलिंगी तृतीया एकवचन 'नाए' ऐसा होता है। ४.३२३ अध....."हवेय्य--अध शब्द में थ का ध ( सूत्र ४.२६७ ) और भयवं (सूत्र ४२६५ ) में शौरसेनी के समान हैं। एवं विधाए“कतं--कधं शब्द में शौरसेनी के समान थ का ध है । एतिसं...."दळून-यहां पूर्व शब्द का पुरव वर्णान्तर शौरसेनी के समान है ( सूत्र ४२७०)। भगवं.... 'लोक-भगवं ( सूत्र ४२६४) और दाव (सूत्र ४२६२ ) शौरसेनी के समान हैं। ताव च..'राजाम्येव शब्द शौरसेनी के समान (सूत्र ४२८०) है। ४३२४ मकरशतू, सगर पुत्तवचनं-यहां क ग च त प और व इनका लोप सूत्र १.१७७ के अनुसार नहीं हुआ हैं । विजयसेनेन लपितं-यहां सूत्र १.१७७ के अनुसार ज, त और य का लोप नहीं हुआ, तथा सूत्र १.२२८ के अनुसार न का नहीं हुआ, और सूत्र १.२३१ के अनुसार ५ का व नहीं हुआ है। मतनं-द् का लोप ( सूत्र ११७७ ) और न का ण ( सूत्र १.२८८) नहीं हुआ है। पापं--प् का लोप ( सूत्र १.१७७ ) अथवा प का व (सूत्र १.२३१ ) नहीं हुआ है । आयुधं-य् का लोप (सूत्र ११७७ ) और ध का ह (मूत्र ११८७ ) नहीं हुआ है । तेवरोव का लोप (सूत्र १३७७ ) नहीं हुआ है। ४३२५-३२८ इन सूत्रों में चूलिका पैशाचिक भाषा का विचार है । ( यह पैशाची को उपभाषा है)। ... ४.३२५ वर्गाणाम्--वर्ग में से व्यञ्जनों का । तुर्य--चौथा, चतुर्थ । क्वचिल्लाक्षणि.." ताठा-व्याकरण के नियमानुसार आने वाले व्यञ्जनों के बारे में भी इस Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८४ टिप्पणियां सुत्र से नियम क्वचित् लागू पड़ता है। उदा०-प्रतिभा-पडिमा ( सूत्र १.२०६ के अनुसार ) पटिमा; दंष्ट्रा-दाढा ( सूत्र १.१३९ के अनुसार ) ताठा । ४३२६ श्लोक १-प्रेम में क्रूद्ध हुए पार्वती के पांवों के ( दस ) नखों में जिसका प्रतिबिम्ब पड़ा है ( इसलिए ) दस नखरूपी आयने में ( पड़े हुए दस और मूल का एक ऐसे ) ग्यारह रूप ( शरीर ) धारण करने वाले शंकर को नमस्कार करो । इस श्लोक में, गोली, चलण, लुछ इन शब्दों में र का ल हुआ है। श्लोक २--वाचते समय, महजतया रखे गये जिसके पांव के आधात से पृथ्वी थर्रा उठी, समुद्र उफान उठे और पर्वत गिर पड़े, उस शंकर को नमस्कार करो । इस श्लोक में हल शब्द में र का ल हुआ है। ४.३२८ प्राक्तनपशाचिकवत्-पहले ( सत्र ४.३०३-३२४ में कहे हुए पैशाची के समान । ४.३२९४४६ इन सूत्रों में अपभ्रंश भाषा का विचार है। शौरसेनी इत्यादि भाषाओं की अपेक्षा यह विचार विस्तृत है। तथा यहाँ प्राधान्यतः पद्य उदाहरण बहुत बड़े प्रमाण में दिए गए हैं । ४.३२६ संस्कृत में से शब्द अपभ्रंश में आते समय, उनमें स्वरों के स्थान पर मन्य स्वर प्रायः आते है । उदा०-पृष्ठ-पछि, पिट्ठ, पुट्ठि इत्यादि । ४.३३० श्लोक १-प्रियकर श्यामल (वर्णी) है; प्रिया चम्पक वर्णी है। कसौटी के ( काले ) पत्थर पर खिचो हुई सुवर्ण रेखा के समान वह दिखाई देती है। यहाँ प्रथमा ए० व० में ढोल्ला और सामला में अ का आ यानी दीर्घ स्वर हुआ है, और धण तथा 'रेह शब्दों में आ का अ यानी ह्रस्व स्वर हुआ है। ढोल्ल ( देशी )-विट, नायक, प्रियकर । धण-धन्या, प्रिया ( प्रियाया धण आदेशः । टीकाकार) नोइ-सूत्र ४.४४४ देखिए । कसवट्टइ--सूत्र ४.३३४ देखिए। __श्लोक २- हे प्रिय, मैंने तुझे कहा था ( शब्दशः--निवारण किया था) कि दीर्घकाल मान मत कर; ( कारण ) नीद में रात बीत जायेगी और झटपट प्रभात (-काल ) होगा। यहां सम्बोधन में, ढोला में अ का आ यानी दीर्घ स्वर हुआ है। मई-सूत्र ४.३७७ देखिए । अपभ्रश में अनेक अनुस्वार सानुनासिक उच्चारित होते हैं। वे अक्षर के ऊपर के इस चिह्न से बताए जाते हैं। तुहुँ-सूत्र ४.३६८ देखिए । करु--सूत्र ४.३८७ देखिए । निद्दए--सूत्र ४.३४९ देखिए । रत्तडो-- सूत्र ४.४२६, ४३१ देखिए । दडवड--( देशी )--शीघ्र, झटपट । माणु विहाणु-- सूत्र ४.३३१ देखिए। Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरण-चतुर्थपाद ३८५ श्लोक ३--हे बिटिया, मैंने तुझसे कहा था कि बाँकी दृष्टि मत कर। ( कारण ) हे बिटिया, (यह बांकी दृष्टि ) नोकदार भाले के समान (दूसरों के ) हृदय में प्रविष्ट होकर ( उन्हें ) मारती है। यहाँ स्त्रीलिंग में दिट्टि, पइट्ठि, भणिय शब्दों में दीर्घ का ह्रस्व स्वर हुआ है। बिट्टीए-मराठी में । हिन्दी में बेटा, बेटी । जिव-सूत्र ४.४०१, ३९७ देखिए । हि अइ---सूत्र ४.३३४ देखिए । श्लोक ४--ये वे घोड़े हैं; यह वह ( युद्ध-) भूमि है; ये वे तीक्ष्ण तलवार हैं; जो घोड़े को बाग लगाम ( पीछे ) नहीं खिचता है ( और रणक्षेत्र पर युद्ध करते रहता है, उसके ) पौरुष की परीक्षा यहां होती है। यहाँ प्रथमा अ० व० में घोडा, णिक्षिा शब्दों में ह्रस्व स्वर का दीर्घ स्वर हुमा है, और ति, खग्ग, वग्ग शब्दों में दीर्घ स्वर का ह्रस्व हुआ है। ए इ-सूत्र ४.३६३ देखिए । ति--ते शब्द में ए ह्रस्व होकर इ हुआ है । ए ह–सूत्र ४ ३६२ देखिए । एत्थु--सूत्र ४.४०५ देखिए । ४.३३१ भुवन-भयंकर ऐसा रावण शंकर को सन्तुष्ट करके रथ पर आरूढ होकर निकला। ( ऐसा लग रहा था ) मानों देवों ने ब्रह्मदेव और कार्तिकेय का ध्यान करके और उन दोनों को एकत्र करके उस ( रावण ) को बनाया था। यहाँ दहमुहु, भयंकरु, संकरु, गिग्गउ, चडिअउ, धडिअउ, इन प्रथमा एकवचनों में अ का उ हुआ है। चउभुहु और छम्मुहु में द्वितीया एकवचन में अकाउ हुआ है। रहवरि-सूत्र ४.३३४ देखिए । चडिअउ-चडशब्द आरुह, धातु का आदेश है ( सूत्र ४.२०६)। झाइवि-सूत्र ४.४३९ देखिए । एक्कहि---सूत्र ४.३५० देखिए । णावइ-सूत्र ४.४४४ देखिए । दइवें—सूत्र ४.३३३, ३४२ देखिए। ४३३२ श्लोक १-जिनका स्नेह नष्ट नही हुआ है ऐसे स्नेह से परिपूर्ण व्यक्तियों के बीच लाख योजनों का अन्तर होने दो; हे सखि, ( स्नेह नष्ट न होते ) जो शत वर्षों के बाद भी मिलता है, वह सौख्य का स्थान है। यहाँ जो और सो इन प्रथमा एकवचनों में अ का ओ हुआ है। लक्ख, ठाउ-सूत्र ४.३३१ देखिए । °सएण-सूत्र ४.३३३, ३४२ देखिए । सोक्खह, "निवट्टाह-सूत्र ४.३३९ देखिए । श्लोक २-हे सखि, ( प्रियकर के ) अंग से ( मेरा ) अंग मिला नहीं ( और ) अधर से अधर मिला नहीं; ( मेरे ) प्रियकर के मुख-कमल देखते-देखते ही ( हमारी) सुरत-क्रीडा समाप्त हो गई। २५ प्रा० व्या० Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८६ टिप्पणियां यहाँ अंगु, मिलिउ, सुरउ शब्दों में अ का ओ नहीं हुआ है। अंगहिं-सूत्र ४.३३५ देखिए । हलि--हले ( सूत्र २.१९५ देखिए ) शब्द में ए का ह्रस्व स्वर दया है। अहरें--सत्र ४३३३, ३४२ देखिए । पिअ--सूत्र ४.३४५ देखिए । जोअन्ति--सत्र ४ ३५० देखिए । जो अ शब्द का अर्थ देखना है। एम्बइ--सूत्र ४.४२० देखिए । ४.३३३ श्लोक १--प्रवास को निकलने वाले प्रियकर ने ( अवधि के रूप में ) जो दिन दिए थे ( = कहे थे ), उन्हें गिनते-गि मते नखों से ( मेरी ) अंगुलियाँ जर्जरित हो गई हैं। यहां दइएँ में अ का ए हुआ है। मह -सूत्र ४.३७९ देखिए । दिअहडा-- सत्र ४.४२५ देखिए । दइएँ पवसंतेण नहेण--सूत्र ४ ३४२ देखिए । गगन्तिएँ-- सत्र ३.२९ देखिए । अंगुलिउ जज्जरिआउ-सूत्र ३४८ देखिए । ताण--यह रूप ( माहाराष्ट्री ) प्राकृत में षष्ठी अनेकवचन का है। यहां उसका उपयोग द्वितीया के बदले ( सूत्र ३.१३४ देखिए) किया है । ४.३३४ श्लोक १-सागर तृणों को ऊपर ( उठाकर ) धरता है और रत्नों को तल में ढकेलता है। ( उसी तरह ) स्वामी अच्छे सेवक को छोड़ देता है और खलों का ( दुष्टों का ) सन्मान करता है। यहाँ तलि इस सप्तमी एकवचन में अकार का इकार हुआ है। तले धल्लइ-- गाडी तले इस सप्तमी एकवचन में अकार का एकार हुआ है । उपरि-उपरि शब्द में ५ का द्वित्व हुआ है । खलाई-सूत्र ४.४४५ देखिए। ४.३३५ श्लोक १--गुणों से ( गुणों के द्वारा) कीर्ति मिलती है परन्तु सम्पत्ति नहीं मिलती; (दैव ने भाल पर ) लिखे हुए फल ही ( लोग ) भोगते हैं । सिंह को एक कौडी भी नहीं मिलती; तथापि हाथिओं को लाखों रुपये पड़ते हैं ( शब्दश:-- हाथी लाखों ( रुपयों ) से खरीदे जाते हैं । यहां लक्खे हि इस तृतीया अनेकवचन में अकार का एकार हुआ है । गुण हि में अकार का एकार नहीं हुआ है । गुणहि, लक्खेहि--यहाँ हिं और हि ये प्राकृत में से तृतीया अ० व० के प्रत्यय हैं ( सूत्र ३.७ देखिए )। अपभ्रंश के तृतीया अ० व० प्रत्ययों के लिए सूत्र ४.३४७ देखिए । पर परम् । बोड्डिओ ( देशी )--कौडी। धेप्पन्ति -सूत्र ४२५६ देखिए। ४.३३६ अस्येति... ...णभ्यते--सूत्र ३.२० ऊपर की 'इदुत... ."सम्बध्यते' इस वाक्य के ऊपर की टिप्पणी देखिए । श्लोक १-मानव वृक्षों से फल लेता है और कटु पल्लवों को छोड़ देता है । तथापि सुजन के समान महान् वृक्ष उन्हें ( अपने ) गोद में धारण करता है। Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरण-चतुर्थपाद यहाँ वच्छहे इस पंचमी एकवचन में हे आदेश है। वच्छुह गृण्हइ-वच्छहु में हु आदेश है। गृण्हइ-सूत्र ४.३९४ देखिए । फलई-सत्र ४.३५३ देखिए । तो--सूत्र ४०४१७ देखिए । जिव--सूत्र ४०४०१, ३९७ देखिए। ___४३३७ श्लोक १ --ऊँचा उडान करके ( बाद में नीचे ) गिरा हुआ खल ( दृष्ट ) पुरुष अपने को ( तथा अन्य ) जनों को मारता है। जैसे, गिरि-शिखरों से गिरी हुई शिला ( अपने साथ ) अन्यों को भी चूर-चूर कर देती है। ___ यहाँ 'सिंग इस पंचमी अ० व० में हुँ आदेश है। दूरुड्डाणे-सूत्र ४.३३३, ३४२ देखिए । जिह-सूत्र ४.४०१ देखिए। ४.३३८ श्लोक १--जो अपने गुणों को छिपाता है और दूसरों के गुणों को प्रकट करता है, ऐसे ( इस ) कलियुग में दुर्लभ होने वाले उस सज्जन को में पूजा करता हूँ। यहाँ परस्सु, तसु, दुल्लहहो, सुअणस्सु इन षष्ठी एकवचनों में सु, हो और स्सु ये आदेश हैं । ह'-सूत्र ४.३७५ देखिए । ___ किज्जउँ--सूत्र ४.३८५ देखिए । ४.३३९ श्लोक १-तृणों को तीसरा मार्ग ( अथवा तीसरी दशा) नहीं होती; वे अवट के कुएं के किनारे पर उगते हैं (शब्दशः-रहते हैं ); उन्हें पकड़ कर लोग (अवट ) पार करते हैं; अथवा उनके साथ वे स्वतः ( अवट में ) डूब जाते हैं। इस श्लोक के बारे में टीकाकार कहता है-अन्योऽपि यः प्रकार-द्वयं कर्तुकामो भवति स विषमस्थाने वसति । प्रकारद्वयं किम् । म्रियते वा शत्रून् जयति वा इति भावार्थः । __यहाँ तण, इस षष्ठी अनेकवचन में हं आदेश है। लग्गिवि-सूत्र ४.४३९ देखिए। ४.३४० श्लोक १-पक्षियों के लिए वन में वृक्षों पर पक्व फल देव निर्माण करता है; ( उनके उपभोग का ) वह सुख अच्छा है। परन्तु खलों के वचन कानों में प्रविष्ट होना ( अच्छा ) नहीं। यहाँ तरुहुँ और सउणिहें इन षष्ठी अनेकवचनों में हैं और हं आदेश हैं । सो सुक्ख-यहाँ सुक्ख शब्द पुल्लिग में प्रयुक्त किया है ( सूत्र ४°४४५ देखिए )। कण्णाहि-सूत्र ४.३४७ देखिए । प्रायो.. ..-प्रायः का अधिकार होने से, क्वचित् सुप् प्रत्यय को भी हुँ आदेश होता है। सुप् के नियमित आदेश सूत्र ४.३४७ में दिए हैं। Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८८ टिप्पणियां श्लोक २-( अपने ) स्वामी के गुरु भार को देखकर, धवल ( बैल ) खिन्न होता है ( = खेद करता है, और अपने को कहता है ) कि मेरे दो टुकड़े करके ( जोते की ) दो बाजुओं को मुझे क्यों नहीं जोता गया है ? यहाँ दुहुँ इस सप्तमी अनेकवचन में हैं आदेश है। विसूरइ- विसूर धातु खिद् धातु का आदेश है ( सूत्र ४.१३२ देखिए)। पिक्खे वि, करेवि-सूत्र ४.४४० देखिए । दुह-प्राकृत में द्विवचन न होने के कारण यह अनेकवचन प्रयुक्त है। दिसिहि-सूत्र ४.३४७ देखिए । खण्ड-सुत्र ४३५३ देखिए । ४.४५ श्लोक १-किसी भी भेदभाव के बिना ( अरण्य में ) पर्वत की शिला और वृक्षों के फल मिलते हैं ( शब्दशः–लिए जाते हैं ); तथापि घर का त्याग करके अरण्य ( वास ) मनुष्यों को रुचता नहीं। यहाँ गिरिहे और तरुहें इस पञ्चमी एकवचन में हे आदेश है । नीसावन्नुसूत्र ४.३९७ देखिए । मेल्लेप्पिणु-सूत्र ४४४० देखिए । माणुसहं-सूत्र ४ ३३९ देखिए। श्लोक २-तरुओं से वल्कल परिधान के रूप में और फल भोजन के स्वरूप में मुनि भी प्राप्त कर लेते हैं। ( वस्त्र और भोजन के साथ ही) सेवकजन स्वामियों से आदर ( यह ज्यादा बात ) प्राप्त कर लेते हैं । यहाँ तरुहुँ और सामिहु इन पञ्चमी अनेकवचनों में हु आदेश है । एत्तिउसत्र २.१५७;४.३३१ देखिए । अग्गलउ-मराठी में आगला । सूत्र ४.४५४ देखिए । श्लोक ३-अब कलियुग में धर्म (सचमुच ) कम प्रभावी हो गया है । यहाँ कलिहि इस सप्तमी एकवचन में हि आदेश है। जि-सूत्र ४४२० देखिए। ४.३४ टा-वचनस्य....."भवतः-सूत्र ४.३३३ के अनुसार टा प्रत्यय के पूर्व शब्द के अन्त्य अकार का ए होता है। उदा०-दइअ-दइए। अब, प्रस्तुत सूत्र के अनुसार, टा प्रत्यय को ण अथवा अनुस्वार आदेश होते हैं। इसलिए दइएं पवसन्तेण, इत्यादि रूप होते हैं। ४.३४३ श्लोक १–जग अग्नि से उष्ण और वायु से शीतल होता है। परन्तु जो अग्नि से भी शीतल होता है, उसकी उष्णता कैसे ? ( अर्थात् वह गम नहीं होता है)। यहाँ अग्गिएँ इस तृतीया एकवचन में एं है, और अग्गि में अनुस्वार है। तेवं केव--सूत्र ४०४०१, ३९७ देखिए। उण्हत्तणु-सूत्र २.१५४ के अनुसार तण प्रत्यय लगकर भाववाचक संज्ञा बनी है। Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरण-चतुर्थपाद २८९ श्लोक २-यद्यपि प्रियकर अप्रिय करने वाला है, तथापि आज उसे ला। यद्यपि अग्नि से घर जल जाता है तथापि उस अग्नि से ( अपना ) कार्य होता ही है। ___ यहाँ अग्गिण में ण और अग्गि में अनुस्वार है । तें-त ( तद् ) सर्वनाम का तृतीया एकवचन । ४३४४ एइ... ..."थलि-यहाँ 'एह थलि' शब्दों में सि प्रत्यय का, वग्ग में अम् प्रत्यय का, और ‘एइ घोडा' शब्दों में जस् प्रत्यय का लोप हुआ है । श्लोक १-जैसे जैसे श्यामा स्त्री आँखों के बांकापन ( वक्र, कटाक्ष, फेंकना) सीखती है, वैसे वैसे मदन कठिन पत्थर पर अपने बाणों को तीक्ष्ण करता है ( = ज्यादा धार लगाता है)। यहाँ सापलि में सि प्रत्यय का, वंकिम में अम् प्रत्यय का, और सर में शस् प्रत्यय का लोप हुआ है। जिव जि तिवं तिव--सूत्र ४०४०१, ३९७ देखिए। वम्महु--सूत्र १.२४२ देखिए । ४.३४५ श्लोक १--सैकड़ों युद्धों में, अत्यन्त मत्त, और अंकुशों की भी पर्वाह न करने वाले ऐसे हाथियों के गण्डस्थलों को फोड़ने वाला इस स्वरूप में जिसका वर्णन किया जाता है, उसे हमारे ( मेरे ) प्रिय करको देखो। यहाँ गय शब्द के आगे षष्ठी अनेकवचनी प्रत्यय का लोप हुआ है। जु--ज ( यद् ) सर्वनाम का प्रथमा एकवचन । देक्खु--सूत्र ४.३८७ देखिए । अम्हारा-- सूत्र ४४३४ देखिए। पृथग्योगो... .."सारार्थः--सूत्र ४३४४ में ही आम् प्रत्यय कहा होता, तो प्रस्तुत सूत्र स्वतन्त्र रूप से कहना जरूरी नहीं था। फिर वैसा क्यों नहीं किया ? इस प्रश्न का उत्तर यहाँ है :-व्याकरणीय नियमों के उदाहरणों के अनुसार उचित विभक्ति का लोप है यह जाना जाय, यह सूचित करने के लिए प्रस्तुत सूत्र का नियम सूत्र ४.३४४ के पृथक रूप से कहा है। ४.३४६ आमन्त्र्ये... .. जसः--सम्बोधन स्वतन्त्र विभक्ति नहीं है। प्रथमा विभक्ति के प्रत्यय ही सम्बोधन विभक्ति में लगते हैं। किन्तु वे लगते समय उनमें थोड़े फर्क हो जाते हैं। श्लोक १-हे तरुणो और हे तरुणियों, मैंने समझ लिया; अपना घात मत करो। यहाँ तरुणहो और तरुणिहो इन सम्बोधन अनेकवचनों में हो आदेश है। करह-सूत्र ४.३८४ देखिए । म-सूत्र ४.३२९ के अनुसार स्वर में बदल हुआ है। Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पणियाँ ४.३४७ गुणहि पर यहाँ गुणहिँ इस तृतीया अनेकवचन में हि आदेश है । ३९० - श्लोक १ – जिस प्रकार भागीरथी ( गंगा नदी ) भारत में तीन मार्गों से ( = प्रवाहों से ) प्रवृत्त होती है । यहाँ मग्गेहि और तिहि इन सप्तमी अनेकवचनों में हि आदेश है । भारइसूत्र ४३३४ देखिए । ४°३४८ - ३५२ इन सूत्रों में स्त्रीलिंगी शब्दों को लगने वाले आदेश कहे हैं । उनका अन्त्य स्वर कोई भी हो, प्रत्यय अथवा आदेश वे ही हैं । ४ ३४८ अंगुलिउनहेण - अंगुलिउ और जज्जरियाउ इन प्रथमा अनेकबचनों में उ आदेश है । श्लोक १ -- सर्वांगसुन्दर विलासिनियों को देखने वालों का । यहाँ सव्वंगा में उ और विलासिणीओ में ओ आदेश है । वचन··· ··‘यथासंख्यम् - सूत्र में 'जस्शसो: ' ऐसा द्विवचन है और 'उदोत्' शब्द एकवचन में है । इसका अभिप्राय यह है कि भिन्न वचन प्रयुक्त करके यहाँ आदेश कहा है । यह दिखाने के लिए ऐसा वचनभेद किया है कि यहाँ कहे हुए आदेश अनुक्रम से नहीं होते हैं । ( ऐसे ही शब्द आगे भी जहां आएंगे वहाँ भी इसी प्रकार का अर्थ मानना है ) । ४ ३४६ श्लोक १ – सुन्दर स्त्री ( मुग्धा ) अन्धकार में भी अपने मुख के किरणों से हाथ देखती है। तो फिर पूर्ण चन्द्र की चांदनी में वह दूर के पदार्थ क्यों न देखती हो ? , यहाँ चंदिभएँ इस तृतीया एकवचन में ए आदेश है । करहि -- सूत्र ४.३४७ देखिए । पुणु - सूत्र ४४२६ देखिए । काइँ — सूत्र ४३६७ देखिए । श्लोक २ - जहाँ मरकत मणि के प्रकाश से वेष्टित है । यहाँ कंतिएँ इस तृतीया ए० व० में ए आदेश है । जहिं – सूत्र ४३५७ देखिए । ४.३५० श्लोक १ - तुच्छ कटिभाग होने वाली, तुच्छ बोलने वाली, तुच्छ और सुन्दर रोमावली ( उदर पर ) होने वाली, तुच्छ प्रेम होने वाली ( = दिखाने वाली ), तुच्छ हँसने वाली, प्रियकर की वार्ता के न पाने के कारण जिसका शरीर तुच्छ हुआ है ऐसी, ( और मानो ) सदन का निवास होने वाली ( अथवा - जिसे प्रियकर का समाचार नहीं प्राप्त हुआ है और जिसके कृश शरीर में मदन का निवास है, ऐसी ऐसे वह सुन्दरी ( मुग्धा ) का अन्य जो कुछ भी तुच्छ है वह " Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतध्याकरण-चतुर्थपाद नहीं कहा जा सकता; आश्चर्य यह है कि उसके दो स्तनों के बीच का अन्तर इतना तुच्छ है कि उस ( दो स्तनों के ) बीच के मार्ग पर मन भी नहीं समाता है ( = नहीं पहुँचता है ) । यहाँ पतला ( बारीक ), नाजुक, सूक्ष्म, कम, कृश, सुन्दर इत्यादि अनेक अर्थों में तुच्छ शब्द प्रयुक्त किया गया है। इस श्लोक में, तुच्छराय शब्द उस सुन्दरी के प्रियकर का सम्बोधन है ऐसा टीकाकार कहता है । इस श्लोक में, 'मज्झहे, 'जम्पिरहे, 'रोमावलिहे, हासहे, अलहन्ति अहे, 'निवासहे, धणहे, मुद्धडहे इन षष्ठी एकवचनी रूपों में हे आदेश है। तुच्छ्य र --- तुच्छ शब्द का तर-वाचक रूप है। तुच्छउँ-सूत्र ४.३५४ देखिए। अक्खणहं-सूत्र ४.४४१ देखिए । कटरि—आश्चर्यसूचक अव्यय है। विच्चि -सूत्र ४°४२१, ३३४ देखिए। श्लोक २-जो अपना हृदय फोड़ते हैं उन ( स्तनों ) को दूसरों पर क्या दया आयेगी ? हे तरुण लोगों, उस तरुणी से अपनी रक्षा करो। ( उसके ) स्तन अभी सम्पूर्ण विषम ( हृदय फोड़ने वाले ) हो गए हैं । यहाँ बालहे, इस पञ्चमी एकवचन में हे आदेश है। हिय डउँअप्पणउँ-सूत्र ४'३५४ देखिए । हियड-सूत्र ४.४२६-४३० देखिए । कवण---सत्र ४.३६७ देखिए। मराठी में कवण, कोग । रक्खज्जहु-सूत्र ३.१७८; ४.३८४ देखिए । लोअहो-सूत्र ४.३४६ देखिए । ४.३५१ श्लोक १-हे बहिनि, भला हुआ जो मेरा प्रियकर | पति ( युद्ध में ) मारा गया । ( कारण) पराभूत होकर या भाग कर वह घर वापस आता तो ( मेरे ) सखियों के सामने मैं लज्जित होती ( अथवा वह लज्जित होता )। यहाँ वयंसिअह में पञ्चमी और षष्ठी अनेकवचन में ह आदेश है। भल्ला-- मराठी में भला ! महारा--सूत्र ४०४३४ देखिए। . वयस्याभ्यो वयस्यानाम्---वयस्या शब्द का अनुक्रम से पञ्चमी बहुवचन और षष्ठी बहुवचन । ___ ४.३५२ श्लोक १--कौए को उड़ाती हुई ( विरहिणी ) स्त्री ने सहसा प्रियकर को देखा। ( तो उसके हाथ से ) आधी चूड़ियाँ जमीन पर गिर पड़ी और अवशिष्ट आधौ ( चूड़ियां ) तटकर टूट गईं। इस श्लोक में कल्पना ऐसी है--हमारे देश में एक धारणा ऐसी है कि घर पर बैठ कर कोत्रा यदि काव-काव करता हो, तो घर में मेहमान आयेगा। इस Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९२ टिप्पणियां श्लोक में एक विरहिणी का वर्णन है। वह कौवे की आवाज सुनती है पर आता हुमा प्रियकर उसे नहीं दिखाई देता। इसलिए वह निराश होकर कौवे को हकालती थी। पर इतने में प्रियकर उसके दृष्टिपथ में आ गया। परिणाम यह हुआ--कौवे को हकालने की क्रिया में, विरहावस्था में कृशता के कारण ढीली हुई उसकी आधी चूड़ियाँ जमीन पर गिर पडी; परन्तु प्रियकर को देखने से जो आनन्द प्राप्त हुआ, उससे उसका शरीर-अर्थात हाथ भी-बढ गया; उस कारण से उसकी शेष आधी चूड़ियाँ ( हाथों पर छोटी होने के कारण ) तड-तड टूट गई। ____ इस श्लोक में, महिहि इस सप्तमी एकवचन में हि आदेश है। दिट्ठ उ--सूत्र ४°४२९ के अनुसार दिट्ठ के आगे स्वार्थे अकार आया है । ४.३५३ यहाँ कहे हुए इं प्रत्यय के पूर्व संज्ञा का अन्त्य ह्रस्व स्वर विकल्प से दीर्घ होता है ( सूत्र ४.३३० देखिए )। श्लोक १-कमलों को छोड़ कर भ्रमर-समूह हाथियों के गण्डस्थलों की इच्छा करते हैं। दुर्लभ ( वस्तु ) प्राप्त करने का जिनका आग्रह है वे दूरी का विवार नहीं करते। __ यहाँ उलई इस प्रथमा अनेकवचन में और कमलई तथा गण्डाई इन द्वितीया अनेकवचनों में इं आदेश है । मेल्लवि-सूत्र ४.४३६ देखिए । मेल्ल मुच् धातु का आदेश है (सूत्र ४.९१ देखिए )। मह-यह कांक्ष धातु का आदेश है ( सूत्र ४१६२ )। एच्छण-सूत्र ४४४१ देखिए । अलि ( देशी )-निबंध, हठ, आग्रह । ४.३५४ ककारान्तस्य नाम्नः--ककारान्त संज्ञा का | ककार से यानी क से अन्त होने वाली संज्ञा । संज्ञा के अन्त में आने वाला यह क स्थाथै है ( सूत्र ४.४२६ देखिए । । अन्नु....."धणहे-यहाँ तुच्छउ में उ आदेश है । श्लोक १ --अपनी सेना भागती हुई या पराभूत हुई देख कर और शत्रु की सेना फैलती हुई देखकर, ( मेरे ) प्रियकर के हाथ में चन्द्रलेखा की समान तलवार चमचमाने लगती है। यहाँ भग्गउँ और पसरिअ' इन द्वितीया एकवचनों में उ आदेश है। सत्र ३३१-३५४ सूत्रों में आया हुआ अपभ्रंश में से संज्ञाओं का रूपविचार निम्नानुसार इकट्ठा करके कहा जा सकता है : ___अकारान्तपुल्लिगी देव शब्द विभक्ति ए०व० अ० व० प्र० देव, देवा, देवु, देवो देव, देवा द्वि. देव, देवा, देवु देव, देवा Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९३ देवहुँ प्राकृतव्याकरण-चतुर्थपाद तृ० देवे, देवें देवेण ( देंविण ) ( देवि ) देवहि, देवेहि पं० देवहे, देवहु 'प० देव, देवसु, देवस्सु, देवहो, देवह देव, देवह स० देवे, देवि देवहिं सं० देव, देवा, देवु, देवो देव, देवा, देवहो इकारान्त पुल्लिगी गिरि शब्द विभक्ति ए० व० अ० व प्र० गिरि, गिरी . गिरि, गिरी द्वि० गिरि, गिरी गिरि, गिरी तृ० गिरिएं, गिरिण, गिरि गिरिहिं पं० गिरिहे गिरि ब. गिरि, गिरिहे गिरि; गिरिह; गिरि स० गिरिहि गिरि सं० गिरि गिरि, गिरी, गिरिहो उकारान्त पुल्लिगी शब्दों के रूप गिरि के समान होते हैं । अकारान्त नपुंसकलिंगो कमल शब्द विभक्ति अ० व प्र० कमल, कमला, द्वि० कमल, कमला कमलइ', कमलाई __अन्य रूप अकारान्त पुल्लिगी शब्द के समान होते हैं। अकारान्त नपुंसकलिंगी तुच्छअ शब्द विभक्ति ए० व. प्र०, द्वि० तुच्छउँ __अन्य रूप कमल के समान होते हैं । इकारान्त नपंसकलिंगी वारि शब्द विभक्ति ए० व अ० व० वारि, वारी प वारि, वारी वारिइ वारी अन्य रूप इकारान्त पुल्लिगी शब्द के समान होते हैं । उकारान्त नपंसकलिंगी मह शब्द विभक्ति ए० व० अ० व० प्र० महु, महू, दि. मह, महू महुइ, महूइ अन्य रूप उकारान्त पुल्लिगो नाम के समान होते हैं । ए० थ. अ० ब० Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पणियां द्वि०१ मुहि सं० आकारान्त स्त्रीलिंगी मुद्धा शब्द विभक्ति ए०व० अ०व० प्र० मुद्ध, मुद्धा मुद्धाउ, मुद्धाओ मुद्ध, मुद्धा मुद्धाउ, मुद्धाओ मुद्धए ( मुद्धइ) मुद्धहे ( मुद्धहि ) मुद्धहे ( मुद्धहि ) मुद्धहि मुद्ध हिं मुद्ध, मुद्धा मुद्ध, मुद्धा, मुद्रहो, मुद्धाहो इकारान्त, ईकारान्त, उकारान्त और ऊकारान्त स्त्रीलिंगी शब्द मुद्धा के समान चलते हैं। ४.३५५-३६७ इन सूत्रों में अस्मद् और युष्मद् सर्वनामों को छोड़कर, अन्य सर्वनामों के जो विशिष्ट रूप अपभ्रश में होते हैं, वे कहे गए हैं । उन्हें छोड़कर उनके अन्य रूप उस-उस स्वरान्त संज्ञा के समान होते हैं । ४.३५५ सर्वादेः अकारान्तात्-सूत्र:५८ ऊपर की टिप्पणी देखिए । जहां तहां कहां--इन पञ्चमी एकवचनों में हां आदेश है। होन्तउ-हो धातु के होन्त इस व० का• धा० बि० के आगे ( सूत्र ३.१८१) स्वार्थे अ ( सूत्र ४.४२६) आया है । होन्तउ की भवान ऐसी भी संस्कृत छाया दी जाती है। ४.३५६ श्लोक १–यदि मेरे ऊपर का अत्यन्त दृढ (तिलतार ) स्नेह टूट गया हो, तो सैकड़ों बार बाँकी दृष्टियों में क्यों भला देखा जा रहा हूँ ( या देखी जा रही हूँ)? ___ यहां कि इस पंचमी ए० व० में इहे आदेश है। तहे-सूत्र ४.३५९ देखिए । तट्टउ--सूत्र ४४२६ । नेहडा--सूत्र ४.४२६ । म -सूत्र ४३७७ । सह-सूत्र ४०४१६ । जोइज्जउँ--जोअ धातु के कर्मणि अंग से बना हुआ रूप है ( सूत्र ४.३८५ )। ४.३५७ श्लोक १-जहां बाण से बाण और खड्ग से खड्ग छिन्न किए जाते हैं, ( वहां ) उसी प्रकार के योद्धाओं के समुदाय में ( मेरा ) प्रियकर ( योद्धाओं के लिए ) मार्ग प्रकाशित करता है। यहां, जहि और तहि इन सप्तमी एकवचनों में हिं आदेश है। सरिण खग्गिण-ये तृतीया ए० व० के रूप हैं । तेहइ-तेह के (सूत्र ४.४००) आगे स्वार्थे अ (सूत्र ४४२९) आकर बने तेह शब्द का सप्तमी एकवचन (सूत्र ४.३३४) । Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरण-चतुर्थपाद ३९५ श्लोक २-उस सुन्दरी ( मुग्धा ) के एक आँख में श्रावण ( मास ), दूसरी आंख में भाद्रपद मास है; जमीन पर स्थित बिस्तर पर माधव अथवा माघ ( मास ) है; गालों पर शरद् ( ऋतु ) अंग पर ग्रीष्म (ऋतु ) है; सुखासिका ( = सुख से बैठना ) रूपी तिल के वन में मार्गशीर्ष मास है; और मुखकमल पर शिशिर ( ऋतु) रही है। इस श्लोक में एक विरहिणी के स्थिति का वर्णन है। उसका भावार्थ ऐसा :-श्रावण-भाद्रपद मास की बरसात की झड़ी के जैसे उसकी आँखों से अश्रुधारा बहती थी। वसन्त ऋतु के समान उसका बिस्तर पल्लवों से बना था। शरद् ऋतु में से बादलों के समान ( अथवा काश-कुसुम के समान ) उसके गाल सफेद | फीके पड़े थे । ग्रीष्म के समान उसका अंग तप्त / गर्म था। शिशिर ऋतु में से कमल के समान उसका मुखकमल म्लान हुआ था। इस श्लोक में एक्कहिं और अन्नहिं इन सप्तमी एकवचनों में हिं आदेश है। माहउ-माधव, वसन्त ऋतु; अथवा माधक । अंगहि --सूत्र ४३४७ देखिए । तहे -- सूत्र ४.३५६ देखिए । मुद्धहे-सूत्र ४.३५० देखिए । श्लोक ३ --हे हृदय तट तट करके फट जा; विलम्ब करके क्या उपयोग ? मैं देगी कि तेरे बिना सैकड़ों दुःखों को देव कहाँ रखता है ? यहाँ कहिँ इस सप्तमी ए० व० में हि आदेश है। हिअडा--सूत्र ४.४२९ । फुट्टि-सूत्र ४.३८७ देखिए । फुट्ट धातु भ्रंश् धातु का आदेश है ( सूत्र ४.१७७ देखिए ); अथवा-स्फुट धातु म ट् का द्वित्व होकर और अन्त में अकार आकर यह धातु बना है। करि-सूत्र ४°४३६ देखिए । देक्खउँ --सूत्र ४.३८५ देखिए । पइँ–सूत्र ४.३७० देखिए । विणु-सूत्र ४४२६ देखिए। ४.३५८ श्लोक १-हला सखि, ( मेरा ) प्रियकर जिससे निश्चित रूप से रुष्ट. होता है उसका स्थान वह अस्त्रों से शस्त्रों से अथवा हाथों से फोड़ता है । यहां जासु और तासु इन षष्ठी एकवचनों में आसु आदेश है। महारउमहार (सूत्र ४०४३४ ) के आगे स्वार्थे अप्रत्यय ( सूत्र ४४२९ ) आया है। निच्छइ-निच्छएं ( सूत्र ४.३४२ देखिए )। श्लोक २-जीवित किसे प्रिय नहीं है। धन की इच्छा किसे नहीं है ? पर समय आने पर विशिष्ट ( श्रेष्ठ ) व्यक्ति ( इन ) दोनों को भी तृण के समान समझते हैं। यहां कासु इस षष्ठी एकवचन में आसु आदेश है। वल्लहउँ'-सूत्र ४.४२९,, ३५४ देखिए। Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९६ टिप्पणियाँ ४·३५६ जहे तहे कहे - इन षष्ठी एकवचनों में अहे आदेश है । केरउ-सम्बन्धिन् शब्द को केर ऐसा आदेश होता है ( सूत्र ४४२२ ); उसके आगे स्वार्थे अ ( सूत्र ४४२९ ) आकर यह रूप बनता है । ४.३६० श्लोक १ – जबकि मेरा नाथ आँगन में खड़ा है, इसी कारण वह रणक्षेत्र में भ्रमण नहीं करता है । द्वितीया के एकवचन बोल्लिअइ — बोल्ल यहाँ धुं और ये यद् और तद् सर्वनामों के प्रथमा और के वैकल्पिक रूप हैं । चिट्ठदि करदि – मूत्र ४२७३ देखिए । धातु के कर्मणि अंग से बना हुआ रूप । बोल्ल धातु कथ् धातु का आदेश है ( सूत्र ४.२ ) । ४३६१ तुह — सूत्र ३०९ देखिए । ४०३६२ श्लोक १ – यह कुमारी, यह ( मैं ) पुरुष, है । ( जब ) मूर्ख ( केवल ) ऐसा ही विचार करते ( सहसा ) प्रभात ( सवेरा ) हो जाता है । यहाँ एह यह स्त्रीलिंगी, एहो यह पुल्लिंगी और एहु यह नपुंसकलिंगी एतद् सर्वनाम के प्रथमा एकवचन हैं । एहउँ - एह के आगे स्वार्थे अ ( सूत्र ४. ४२६ ) आया है । वढ - सूत्र ४२२२ ऊपर की वृत्ति देखिए । पच्छइ — सूत्र ४४२० देखिए । यह मनोरथों का स्थान रहते हैं ( तब बाद में ) ४ ३६३ एइ भलि - एइ यह एतद् का प्रथमा अनेकवचन है । एइ पेच्छ - यहाँ एइ यह एतद् का द्वितीया एकवचन है । ४ ३६४ श्लोक १ – यदि बड़े घर तुम पूछते हो, तो वे ( देखो ) बड़े घर | ( परन्तु ) दुःखी लोगों का उद्धार करने वाला ( मेरा ) प्रियकर झोंपड़ी में है ( उसको ) देखो । यहाँ ओइ यह अदस् के प्रथमा और द्वितीया अनेकवचन है । ४°३६५ इदम्॰॰॰ ॰॰॰भवति - विभक्ति प्रत्यय के पूर्व इदं सर्वनाम का आय - -- ऐसा अंग होता है । श्लोक १- लोगों के इन नयनों को ( पूर्व ) जन्म का स्मरण होता है, इसमें कोई शंका नहीं ( कारण ) अप्रिय ( वस्तु ) को देखकर वे संकुचित होते हैं और प्रिय ( पदार्थ ) को देखकर विकसित होते हैं । यहाँ आय इस प्रथमा अनेकवचन में आय ऐसा आदेश है । इस श्लोक में जाई - सरई ऐसा एक ही शब्द लेकर, जाति स्मराणि ऐसी संस्कृत छाया लेना अधिक योग्य लगता है । मउलि अहिं – सूत्र ४० ३८२ देखिए । --- Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरण-चतुर्थपाद श्लोक २-समुद्र सूखे या न सूखे; उससे बडवानल को क्या ? अग्नि पानी में जलता रहता है, यही ( उसका पराक्रम दिखाने के लिए) पर्याप्त नही क्या ? यहाँ आएण इस तृतीया एकवचन में आय आदेश है। च्चिअ-सूत्र २०१८४ देखिए । श्लोक ३-इस तुच्छ ( दग्ध ) शरीर से जो प्राप्त होता है वही अच्छा है; यदि वह ढंका जाय तो वह सड़ता है; ( और यदि ) जलाय जाय तो उसकी राख हो जाती है। यहाँ आयहों इस षष्ठी एकवचन में आय आदेश है । ४.३६६ श्लोक १-बड़प्पन के लिए सब लोग तड़फड़ाते हैं । परन्तु बड़प्पन तो मुक्त हस्त से ( = दान देने पर ही ) प्राप्त होता है। ___ यहाँ साहु इस प्रथमा ए० ब० में साह आदेश है। तडप्फडइ-मराठी में तडफडणें । तणेण-सत्र ४.४२२ देखिए। ४.३६७ श्लोक १-हे दुति, यदि वह ( मेरा प्रियकर ) घर न आता हो, तो तेरा अधोमख क्यों ? हे सखि, जो तेरा वचन तोड़ता ( = नहीं मानता ) है, वह मुझे प्रिय नहीं ( होगा)। यहां किम् के स्थान पर काइँ ऐसा आदेश है। तुज्झ-अपभ्रंश में युष्मद् का षष्ठी एकवचन हेमचन्द्र तुज्झ ( सूत्र ४.३७२ ) देता है । तुज्झु के लिए सूत्र ४.३७२ ऊपर की टिप्पणी देखिए । तउ-सूत्र ४.३७२ देखिए। मज्झ-सूत्र ४.३७६ देखिए । काइँ..... देवखइ--यहाँ किम् का काई आदेश है। ___ श्लोक २- श्लोक ४.३५०.२ देखिए। वहाँ किम् के स्थान पर कवण ऐसा आदेश है। श्लोक ३-बताओ किस कारण से सत्पुरुष कंगु (नामक धान ) का अनुकरण करते हैं । जैसा जसा ( उन्हें ) बडप्पन | महत्त्व प्राप्त होता है, वैसे वैसे वे सर नीचे झुकाते हैं ( यानी नम्र होते हैं )। यहाँ कवणेण शब्द में किम् को कवण आदेश है। अणुहरहिं लहहिं नवहिंसूत्र ४.३८२ देखिए। श्लोक ४--(यह श्लोक एक विरही प्रियकर उच्चारता है :-- ) यदि उसका ( मुझ पर ) स्नेह / प्रेम हो, तो वह मर गई होगी; यदि वह जीती हो, तो उसका ( मुझ पर ) प्रेम नहीं है; एवं च दोनों प्रकारों से प्रिया (मझको, मेरे बारे में ) नष्ट हो गई है। इसलिए हे दुष्ट मेह, तू व्यर्थ क्यों गरज रहे हो ? Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९८ टिप्पणियां यहाँ किम् सर्वनाम का ही प्रयोग है । गज्जहि-सूत्र ४३८३ । ४३६८ श्लोक १- हे भ्रमर, अरण्य में गुनगुन ( गुञ्जन की ध्वनि ) मत कर; उस दिशा को ( = दिशा की तरफ ) देख; रो मत । जिसके वियोग से तू मर रहा है वह मालती अन्य देश में है। यहां तुहुँ यह प्रथमा एकवचन है। रुणझुणि--मराठी में रुणझुण । रणडई--अरण्य शब्द में आद्य अ का लोप (सूत्र १.६६ ) होकर रण होता है; बाद में सूत्र ४.४३० के अनुसार स्वार्थे प्रत्यय आकर रणडअ होता है; उसका सूत्र ४३३४ के अनुसार सप्तमी एकवचन । जोइ रोइ--सूत्र ४'३८७ देखिये । मरहि-- सूत्र ४.३८३ देखिये । ४.३७० श्लोक १-हे सुन्दर वृक्ष, तुझ से मुक्त हुए तो भी पत्तों का पत्तापन ( पत्रत्व ) नष्ट नहीं होता है; परन्तु तेरी किसी भी प्रकार की छाया हो, वह तो उन्हीं पत्तों से ही है। यहाँ युष्मद् के तृतीया ए० व० में प इं आदेश है। पत्तत्तणं -- सूत्र २.१५४ देखिए । होज्ज-सूत्र ३.१७६ देखिए । __श्लोक २-( अन्य स्त्री पर आसक्त हुए नायक को उद्देश्य कर नायिका यह श्लोक उच्चारती है :-) मेरा हृदय तूने जीता है; उसने तुझे जीता है; और वह ( स्त्री भी अन्य ( पुरुष ) के द्वारा पीडी जा रही है। हे प्रियकर; मैं क्या करूँ ? तुम क्या करोगे ? ( एक ) मछली से ( दूसरी) मछली निगली जा रही है । यहां युष्मद् के तृतीया ए. व० में तइं आदेश है। मह --- --सूत्र ४.३७६ देखिए । कर--सूत्र ४१३८५ देखिए । __ श्लोक ३-तू और मैं दोनों भी रणांगण में चले जाने पर. ( अन्य ) कोन भला विजयश्री की इच्छा करेगा ? यम की पत्नी को केशों के द्वारा पकड़ने पर, बता कौन सुख से रहेगा ? यहाँ युष्मद् के सप्तमी ए. व. में पई आदेश है। मई-सूत्र ४.३७७ देखिए । बेहि, रण गहि, केसहि-सूत्र ४.३४७ देखिए । लेप्पिणु-सूत्र ४°४४० देखिए । थक्के इ--थक्क यह स्था धातु का आदेश है ( सूत्र ४.१६ ) । एवं तइं-उदा०उदा० --- तई कल्लाण ( कुमारपाल चरित, ८३४) ___ श्लोक ४---( सारस पक्षी के समान ) तुम्हें छोड़ते तुम्हारा मेरा मरण होगा; मुझे छोड़ते तुम्हारा मरण होगा; ( कारण सारस पक्षियों में से ) जो सारस ( दूसरे सारस से ) दूर होगा, वह कृतान्त का साध्य ( यानी मृत्यु को वश ) हो जाता है । Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरण-चतुर्थपाद ३९९ यहां युष्मद् के द्वितीया ए० व० में पई आदेश है । वेग्गला-मराठी में वेगला । एवं तई-उदा०-तई नेउ अक्ख ठाणु ( कुमारपालचरित, ८.३२ )। ४.३७१ श्लोक १-~-तुमने हमने ( रणांगण में ) जो किया, उसे बहुत लोगों ने देखा; उस समय उतना बड़ा युद्ध ( हमने ) एक क्षण में जीता। यहां युष्मद् के तृतोया अनेकवचन में तुम्हेहि आदेश है। अम्हेहिं -सूत्र ४.३७८ देखिए । तेवड्ड 3 --- सूत्र ४.४०५ के अनुसार तेवड, फिर ड् का द्वित्व होकर तेवड्ड, बाद में सूत्र ४.४२९ के अनुसार स्वार्थे अ प्रत्यय आ गया। ४.३७२ श्लोक १- भूमंडल पर जन्म लेकर, अन्य लोग तेरी गुणसंपदा, तेरी मति और तेरी सर्वोतम ( अनुपम ) क्षमा को सीखे ( शब्दश:-सोखते हैं )। यहां तउ, तुज्झ और तुध्र ये तीन युष्मद् के षष्ठी एकवचन में आदेश हैं। हेमचन्द्र ने षष्ठी एकवचन का तुज्झ आदेश दिया है। इस ४.३७२.१ श्लोक में तुज्झ का पाठभेद बुज्झु ऐसा है। ४.३७०.४ श्लोक में तुज्झु है और वहाँ उसका पाठभेद तुज्झ है । ४.३६७.१ श्लोक में तुज्झु ऐसा ही रूप है; वहाँ पाठभेद नहीं है । इसलिए युष्मद् के षष्ठी एकवचन में तुज्झु ऐसा भी रूप होता है ऐसा दिखाई देता है । मदसूत्र ४.२६०, ४४६ देखिए । ४.३७५ तसू दुल्लहहो-यहाँ अस्मद् के प्रथमा एकवचन में हलं आदेश है। ४. ७६ श्लोक १-( रणांगण पर जाते समय एक योद्धा अपनी प्रिया को उद्देश्य कर यह श्लोक उच्चारता है :-) हम थोड़े हैं, शत्रु बहुत हैं, ऐसा कायर (लोग ) कहते हैं। हे संदरि ( मुग्धे ), गगन में देव । ( वहाँ ) कितने लोग (यानी तारे) चाँदनी/ज्योत्स्ना देते हैं ? ( उत्तर-केवल चन्द्र ही)। यहाँ प्रथमा अन्यवचन में अस्मद् को अम्हे आदेश है। एम्व--सूत्र ४.४९० देखिए । निहालहि-मराठी में न्याहालणे । श्लोक २-(एक विरहिणी प्रवास पर गए हुए अपने प्रियकर के बारे में कहत है :-) प्रेम स्नेह ( अम्लत्व ) लगाकर जो कोई परकीय पथिक ( प्रवास पर) चले गए हैं, ये अवश्य हमारे समान ही सुख से नहीं सो सकते होंगे । यहाँ अस्मद् के प्रथमा अ० व० में अम्हई आदेश है। लाइबि-सूत्र ४.४३० देखिए । अवस--सूत्र ४.४२७ देखिए । अम्हे....."देवखइ---यहाँ अस्मद् वे द्वितीया अनेकवचग में अम्हे और अम्हई आदेश हैं। ४.३७७ श्लोक १-हे प्रियकर, मैंने समझाया कि विरहीजनों को संध्य समय में कुछ आधार ( अवलम्बन, दुःखनिवृत्ति, धरा) मिलता है; परन्तु प्रलयका में जैसा सूर्य, वैसा ही चन्द्र ( इस समय ) ताप दे रहा है। Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०० टिप्पणियां यहाँ अस्मद् के तृतीया ए० व० में मई आदेश है । णवर-सूत्र २.१८७ देखिए। तिह, जिह-सूत्र ४.४०१ देखिए । पई.."गयहि-यहाँ अस्मद् के सप्तमी एकवचन में मई आदेश है। मई....."तुज्झु-यहाँ अस्मद् के द्वितीया एकवचन में मई आदेश है। ४३७८ तुम्हें हिं....."किअउँ–यहाँ अस्मद् के तृतीया अनेकवचन में अम्हेहि ऐसा आदेश है। ४.३८६ श्लोक १–मेरे प्रियकर के दो दोष हैं, हे सखि, झूठ मत छिपाव । जब वह दान देता है तब केवल से अवशिष्ट बच रहती हूँ, और जब वह युद्ध करता है तब केवल तलवार अवशिष्ट/बच रहती है। ___ यहाँ अस्मद् के षष्ठी एकवचन में महु आदेश है । हेल्लि-सूत्र ४.४२२ देखिए । झंखहि-यहाँ झंख धातु बिलप् (सूत्र ४.१४८) धातु का आदेश लेकर, 'झूठ मत बोल' ऐसा ही अर्थ ले जा सकता है । आलु-मराठी में माल । श्लोक २-हे सखि, यदि शत्रुओं का पराभव हो गया होगा, तो वह मेरे प्रियकर से ही; यदि हमारे पक्षवाले पराभूत हो गए होंगे. तो उसके ( =मेरे प्रियकर के ) मारे जाने पर ही। ___ यहाँ अस्मद् के षष्ठी एकवचन में मज्झ आदेश है। पारक्कडा-परकीय शब्द को सूत्र २.१४८ के अनुसार पारक्क आदेश; उसके आगे सूत्र ४०४२६ के अनुसार स्वार्थे अड प्रत्यय आकर पारक्कड शब्द बनता है। मारिअडेण-मारिअ शब्द के आगे सूत्र ४४२९ के अनुसार स्वार्थे अड प्रत्यय आया है। ४.३८० अम्हह... .. आगदा-यहां पञ्चमी अ० व० में अम्हहं आदेश है। अह" "तणा-अहाँ अस्मद् के षष्ठी अ० व० में अम्हहं आदेश है । __सूत्र ४.३६८-३८१ में आया हुआ युष्मद् और अस्मद् सर्वनामों का रूप-विचार एकत्र करके आगे दिया है : युष्मद् सर्वनाम ए. व. अ० व० प्र० तुहुँ तुम्हे, तुम्हई द्वि० पई, तई तुम्है, तुम्हई पई, तई तुम्हेहि तउ, तुज्झ, तुघ्र तुम्हहं तउ, तुज्झ, तुध्र पई, तई तुम्हासु विभक्ति तुम्हह Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४.१ मई मई प्राकृतव्याकरण-चतुर्थपाद अस्मद् सर्वनाम विभक्ति अ० ० प्र० अम्हे, अम्हई अम्हे, अम्हई अम्है हिं महु, मज्झ अम्हहं महु, मज्झ अम्हहं मई अम्हासु ४.३८२-३८८ इन सूत्रों में अपभ्रंश का धातुरूप विचार है। यहाँ ( माहाराष्ट्री ) प्राकृत से जो कुछ भिन्न है, उतना ही बताया गया है । ४.३८२ त्यादि--सूत्र १.९ ऊपर की टिप्पणी देखिए । आधत्रयस्य... ... वचनस्य-सत्र ३.१४२ ऊपरकी टिप्पणी देखिए । S _श्लोक १-उस ( सुन्दरी ) के मुख और केशबन्ध ( ऐसी ) शोभा धारण करते हैं कि मानो चन्द्र और राहु मल्ल युद्ध कर रहे हैं । भ्रमरों के समुदाय से तुल्य ऐसे उसके धुंघराले केशों की लटें ( ऐसी ) शोभती हैं कि मानो अन्धकार के बच्चे एकत्र क्रीडा कर रहे हैं। यहाँ धरहि, करहिं, सहहिं इन तृतीय पुरुष अनेक वचनों में हिं आदेश है। नं-सूत्र ४°४४४ देखिए । सहहि-सह धातु राज् धातु का आदेश है (सत्र ४१०० देखिए )। इसलिए यहाँ राजन्ते ऐसा ही संस्कृत प्रतिशब्द होगा। कुरलमराठी में कुरला । खेल्ल-मराठी में खेलण । ४.३८३ मध्य.. ..'वचनम्-सूत्र ३.१४० के ऊपर की टिप्पणी देखिए । श्लोक १--( इस श्लोक में "पिउ' शब्द श्लिष्ट है। स्त्री के बारे में प्रियः ( = प्रियकर ) और चातक के सन्दर्भ में पिबाभि ( पीता हूँ ) इन अर्थों में वह प्रयुक्त किया है :--) हे चातक, 'पीऊंगा पीऊँगा' ऐसा कहते, अरे हताश, तू कितना रोएगा ( शब्दशः रोता है)? (हम) दोनों की भी तेरी जल-विषयक और मेरी वल्लभ-विषयक--आशा पूरी नहीं हुई है। यहाँ रुमहि इस द्वितीय पुरुष ए० व० में हि आदेश है। बप्पहि--चातक पक्षी। यह पक्षी केवल मेघ से गिरने वाला जल पीता है, भूमि परका नहीं पीता है, ऐसा कवि-संकेत है। भणिवि--सूत्र ४.४३६ देखिए । कित्तिउ--सूत्र २.१५७ के २६ प्रा० व्या० Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०२ टिप्पणियां अनुसार कियत् शब्दको केत्तिअ आदेश होता है; सूत्र १.८४ के अनुसार 'के' में से ए ह्रस्व होता है, इसलिए उसके स्थान पर इकार आके कित्तिअ शब्द होता है। श्लोक २-हे निघृण चातक, बार-बार तुझे कहकर क्या उपयोग है कि विमल जल से भरे हुए सागरमें से तुझको एक बूद ( शब्दशः-धारा ) भी जल नही प्राप्त हो सकता है। यहां कहहि इस द्वितीय पुरुष एकवचन में हि आदेश है । कई-किम् सर्वनाम को सूत्र ४.३६७ के अनुसार प्रथम काई आदेश हुआ, और सूत्र ४.३२९ के अनुसार स्वर में बदल होकर कई ऐसा शब्द बन गया। बोल्लिअ-बोल्ल (कथ का आदेशसूत्र ४.२) का क० भू० धा० वि० । इ–यह पादपूरणार्थी अव्यय है ( सूत्र २.२१७ देखिए)। भरिअइ-भरिअ इस क० भू० धा० वि० के आगे सूत्र ४°४२९ के अनुसार स्वार्थे अ प्रत्यय आया है । एक्क इ-एकां अपि । यहाँ 'अपि' शब्द में से आध भ और प् इनका लोप हुआ है । सप्तम्याम्-विध्यर्थ में । श्लोक ३-हे गौरि, इस जन्म में तथा अन्य जन्मों में ( मुझे ) वही प्रियकर देना कि जो हंसते-हंसते मदमत्त और अंकुश को पर्वाह न करने वाले हाथियों से भिड़ता है। यहाँ दिज्जहि इस विध्यर्थी द्वितीय पुरुष एकवचन में हि आदेश है । आयहिँइदम् सर्वनाम के आय अंग से ( सूत्र ४.३६५ ) सप्तमी एकवचन (सत्र ४.३५७)। अन्नहिं-सूत्र ४.३५७ देखिए । जम्माहि-सूत्र ४०:४७ देखिए । गम-सूत्र ४.३४५ देखिए । अभिड-यह संगम् धातु का आदेश है ( सूत्र ४१६४ )। ४.३८४ मध्यम..... 'वचनम् -सूत्र ३.१४३ ऊपर की टिप्पणी देखिए । श्लोक १-बलिके पास याचना करते समय, वह विष्णु ( मधुमथन ) भी लघु हो गया । ( इसलिए ) यदि महत्ता/बड़प्पन चाहते हो, तो ( दान ) दो; (परन्तु) किसी से भी ( कुछ भी ) मत मांगो। यहाँ इच्छहु इस द्वितीय पुरुष अ० व० में हु आदेश है। ४.३८५ अन्त्य... . 'वचनम्-सूत्र ३.१४१ ऊपर की टिप्पणी देखिए। लोक १-दैव विन्मुख हो; ग्रह पीडा दें, हे सुंदरि, विपाद मत कर । यदि ( मैं ) व्यवसाय प्रयास करूंगा तो वेश के समान ( मैं ) संपदा को खीचकर लाउँगा। यहाँ कड्ढउँ इस प्रथम पुरुष एकवचन में उ आदेश है। करहि-सूत्र ३.१७४ देखिए । संपई-सूत्र ४०४०० देखिए । छुड्ड–यदि (सूत्र ४.४२२ देखिए )। ४.३८६ श्लोक १-हे प्रियकर, जहाँ तलवार को काम मिलेगा उस देश में । Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरण- चतुर्थपाद (हम) जाएंगे । रणरूपी दुर्भिक्ष के कारण ( युद्ध न होने के कारण ) हम पीड़ित हैं; युद्ध के बिना हम सुखसे नहीं रह सकेंगे । यहाँ लहहुँ, जाहुँ और बलाहुँ इन प्रथम पुरुष अनेक वचनों में हुँ आदेश है । सूत्र ४*३८२-३८६ में कहे हुए अपभ्रंश के वर्तमानकाल के प्रत्यय ऐसे हैं:पुरुष ए० व० अ० य० उं हि प्रथम द्वितीय तृतीय हि ४-३८७ पञ्चम्याम् — आज्ञार्थ में | श्लोक १ – हे हाथि, मल्लकी ( नामक वृक्ष ) का स्मरण मत कर, लंबी (दीर्घ) साँस मत छोड़; दैववश प्राप्त हुए कवल खा, (पर) मान को मत छोड़ । ४०३ यहाँ सुमरि मेंल्लि और चरि इन द्वितीय पुरुष एकवचनों में इ आदेश है । म - मा (सूत्र ४०३२९ देखिए ) । जि - - सूत्र ४.४२० देखिए । श्लोक २ - हे भ्रमर घने पत्ते और बहल ( बहुत ) छाया होने वाला कदंब ( नामक वृक्ष ) फूलने तक, यहाँ नीम (के) वृक्ष पर कुछ दिन व्यतीत कर । यहाँ बिलम्बु इस द्वितीय पुरुष एकवचन में उ आदेश है । एत्थु – सूत्र ४°४०४ देखिए । लिम्बडइ – लिंब शब्द को सूत्र ४४२९-४३० के अनुसार स्वार्थे प्रत्यय लगे हुए हैं । दियहडा - सूत्र ४४२९ के अनुसार दियह शब्द को स्वार्थे अड प्रत्यय लगा है । जाम – सूत्र ४४०६ देखिए । श्लोक ३ -- हे प्रियकर, अब हाथ में (ऐसे ही ) भाला रख, तलवार छोड़ दे, जिससे (गरीब) वेचारे का मालिक (कम से कम ) न फूटा हुआ कपाल ( भिक्षा पात्र के रूप में) लेंगे । यहाँ करे इस द्वितीय पुरुष एकवचन में ए आदेश है | एम्बहिँ — सूत्र ४४२० देखिए । सेल्ल - (देशी) - - भाला | बप्पुडा -- मराठी में बापुडा बापडा । ४ ३८८ स्यस्य---स्य का । स्य यह संस्कृत में भविष्यकाल का चिन्ह है । श्लोक १ - - दिवस झटपट जाते हैं, मनोरथ ( मात्र ) पीछे पड़ जाते हैं । ( इसलिए ) जो है उसे माने ( = स्वीकार करे ); 'होगा होगा' ऐसा कहते हुए मत ( स्वस्थ ) ठहरिए । यहाँ होसई इस रूप में स आया है । झडप्पडहिं - मराठो में झटपट । पच्छि - - सूत्र २०२१ के अनुसार, पश्चात् शब्द का पच्छा हुआ, फिर सूत्र ४०३२९ के अनुसार पछि हुआ । करनु -- पूत्र ३०१८१ के अनुसार करंतु, फिर अनुस्वार का लोप होकर करतु रूप बना । Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४.४ टिप्पणियां ४.८६ क्रिये--कृ धातु के कमणि अंग में वर्तमानकाल प्रथम पुरुष एकवचन । श्लोक १--विद्यमान भोगों का जो त्याग करता है उस प्रियकर की मैं पूजा करती हूँ। जिसका मस्तक गंजा है उसका मुंडन तो देव ने ही किया है। ___ यहां क्रिये शब्द को कोसु आदेश है। साध्यमानावस्था-सूत्र ११ ऊपर को टिप्पणी देखिए। ४.६९० श्लोक १-स्तनों का जो आतंतुंगत्व ( = अत्यन्त ऊँचाई ) है, वह लाभ न होने से हानि ही है । ( कारण ) हे सखि, प्रियकर बहुत कष्ट से और देर से ( मेरे ) अधर तक पहुँचता है। यहाँ पहुच्चइ शब्द में भू धातु को हुच्च आदेश है । हु-सूत्र २.१९८ देखिए । ४३६१ ब्रुवह .. किंपि-यहाँ ब्रुवह रूप में ब्रुव आदेश है । श्लोक १-( श्री कृष्णकी उपस्थिति से दुर्योधन कितना असमंजस में पड़ा था ( = भौंचक्का हो गया था ) उसका वर्णन इस श्लोकमें है। दुर्योधन कहता है :-) इतना कहकर शकुनि चुप रहा; फिर ( उतना ही वोलकर दुःशासन चुप हो गया; तब मैंने समझा कि (जो बोलना था वह ) बोलकर यह हरि ( श्रीकृष्ण ) मेरे आगे ( खड़ा हो गया )। यहाँ ब्रू धातु के ब्रोप्पिण और ब्रोप्पि ऐसे रूप हैं। इत्तउ-इयत् शब्द को सूत्र २.१५७ के अनुसार एत्तिअ आदेश हुआ; सूत्र १.८४ के अनुसार ए ह्रस्व हो गया; फिर ह्रस्व ए के बदले इ आकर इत्तिा रूप हुआ; अनन्तर सूत्र ४.३२६ के अनुसार इत्तउ हो गया । ब्रोप्पिणु, ब्रोप्पि--सूत्र ४°४४० देखिए । ४.३९२ वुप्पि ; वुप्पिणु--सूत्र ४१४४० देखिए । ४ ३९४ गृण्हेप्पिणु--सूत्र ४०४४० देखिए । ४.३६५ श्लोक १--कुछ भी ( शब्दश:--जैसे तैसे ) करके यदि तीक्षण किरण बाहर निकालकर चन्द्रको छोला जाता, तो इस जगमें गौरोके ( सुन्दरीके ) मुखकमलसे थोड़ासा सादृश्य उसे मिल जाता । यहाँ छोल्लिज्जन्तु में छोल्ल धातु तक्ष धातु का आदेश है। छोल्लिज्जन्तुछोल्ल ( मराठी में सोलणे) के कर्मणि अंगसे बना हुआ व. का. धा० वि० । सरिसिम--सूत्र २.१५७ के अनुसार बना भाववाचक नाम है। श्लोक २- हे सुन्दरि, गाल पर रखा हुआ, ( गर्म ) सांसरूपी अग्नि की ज्वालाओं से तप्त हुआ और अश्रुजल से भीगा हुआ कंगन ( कंकण ) अपने आप ही (स्वयं ही , चूर-चूर होता है । Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरण- चतुर्थपाद यहाँ "झलक्किम में से झलक्क धातु तापय् धातु का आदेश है । चडल्लउ --सूत्र ४४२९-४३० देखिए । झलक्क -- मराठी में झलकणे । प्रिया ) दो पग चल कर लौट आए, तब सर्वं खाने -वाले ( अग्नि ) का जो शत्रु ( यानो पानी, समुद्र ), उससे उत्पन्न हुआ जो चन्द्र, उसके किरण परावृत्त होने लगे ( चन्द्र का अस्त होने लगा ) । श्लोक ३ -- जब प्रेम ( आदेश है । अभडवंअनुसार यावत् शब्द का यहाँ अब्भडवंचिउ में अब्भडवंच धातु अनुगम् धातु का चिउ--सूत्र ४ ४३९ देखिए | जावं - - सूत्र ४४०६ के जाम ऐसा वर्णान्तर होता है; फिर सूत्र ४ ३९७ के अनुसार जावँ होता है । सव्वासरिउ सम्भव -- सर्वाशन यानी सर्वभक्षक अग्नि, यहाँ वडवानल; उसका शत्रु पानी यहाँ समुद्र; उस समुद्र से उत्पन्न हुआ चन्द्र । तावं - - सूत्र ४४०६, ३९७ देखिए । श्लोक ४ - - हृदय में सुन्दरी शल्य के समान चुभती है; गगन में मेघ गरज रहा है; वर्षा ( ऋतु ) की रात में प्रवासियों के लिए यह महान् संकट है । ४०५ यहाँ खुसुक्क धातु झल्यायते का और घुडुक्कर धातु गर्जति का आदेश है । गोरडी--सूत्र ४'४२९, ४३१ देखिए । खुडुक्कइ - - मराठी में खुडुक होऊन बसणे । "पवासुअ - - सूत्र १४४ देखिए । एहु - सूत्र ४०३६२ देखिए । श्लोक ५ - हे अम्मा, ( ये मेरे ) स्तन वज्रमय हैं; ( कारण ) वे नित्य मेरे प्रियकर के सामने होते हैं, और समरांगण में गजसमूह नष्ट करनेके लिए जाते हैं । आदेश है । भज्जिउ-- सूत्र ४·४३९ के यहाँ हेत्वर्थक धातुसाधित अव्यय के रूप यहाँ यन्ति में थ धातु स्था धातु का अनुसार होने बाला यह पू० का० ध० अ० प्रयुक्त किया है । में श्लोक ६--- यदि बापकी भूमि ( संपत्ति ) दूसरेके द्वारा छीन ली जाय, तो पुत्र के जन्म से क्या लाभ / उपयोग ? और उसके मरने से क्या हानि ? यहाँ चंपिज्जइ में चंप धातु आक्तम् धातु का आदेश है । बप्पीकी - बप्प - ( देशी शब्द ) - बाप । चंप - मराठी में चापणे । श्लोक ७ – सागरका वह उतना जल और वह उतना विस्तार । परंतु थोडी भी तृषा दूर नहीं होती । पर वह व्यर्थ गर्जना करता है । यहाँ घुट्टुअइ धातु शब्दायते धातु का आदेश है | ( यहाँ धुधुअइ ऐसा भो पाठभेद है ) । तेत्तिउ - सूत्र २०१५७ देखिए । तेवडु – सूत्र ४४०७ देखिए । Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टिप्पणियाँ ४*३९६ क्ष्लोक १. (- जब कुलटाओं ने/असतियों ने चंद्रग्रहणको देखा तब वे निःशंक रूप से हँस पड़ी ( और बोली ) प्रिय मानुष को विक्षुब्ध करने वाले चन्द्रको, हे राहु, निगल ( रे ) निगल । ४०६ यहाँ विच्छाहरु शब्द में क का ग हुआ है । गिलि - सूत्र ४९३८७ देखिए । श्लोक २ - हे अम्मा, आराम में रहने वाले ( मनुष्यों ) से मान का विचार किया जाता है | परन्तु जब प्रियकर दृष्टिगोचर होता है, तब व्याकुलत्व के कारण अपना विचार कौन करता है ? यहाँ सुधि में ख का ध हुआ है । सुधि - सूत्र ४३४२ के अनुसार होने वाले सुधें वर्णान्तर में सूत्र ४४५० के अनुसार उच्चार लाघव होकर सुधि रूप हुआ है । हल्लोहल ( देशी ) -- व्याकुलता । श्लोक ३ --- शपथ लेके मैंने कहा - जिसका त्याग ( = दानशूरता ), पराक्रम ( आरभटी ) और धर्म नष्ट नहीं हुए हैं उसका जन्म संपूर्णतः सफल हुआ है । यहाँ सबघु में पका व और थ का ध, कधिदु में थ का ध और त का द, और सभलउँ में फ का भ हुए हैं । करेप्पिणु – सूत्र ४ ४४० देखिए । पम्हट्ठउ--सूत्र ४ २५८ देखिए । श्लोक ४ -- यदि कथंचित् मैं प्रियकर को प्राप्त कर लूं, तो पहले ( कभी भी) न किया हुआ ऐसा ( कुछ ) कौतुक मैं कर लूं, नये कसोरे में जैसे पानी सर्वत्र प्रविष्ट होता है वैसे मैं सर्वाग से ( उस प्रियकर में ) प्रविष्ट होऊँगी | यहाँ अकिआ, नवइ शब्दों में क का ग नहीं हुआ है । ४°४-२ ) में से ओ ह्रस्व होकर कुड्ड वना है । करीसु देशिए । श्लोक ५ – देख, सुवर्ण कान्तिके समान चमकने वाला कणिकार वृक्ष प्रफुल्लित हुआ है । मानो सुंदरी के मुख से जीते जाने के कारण बह वन में रहता है (शब्दशः - वनवास सेवन कर रहा है ) । - कुड्ड —कोड़उ ( सूत्र पइसीसु — सूत्र ४३८८ यहाँ पफुल्लिअर में फ का भ, 'पयासु में क का ग, और विणिज्जिमउ में त का द नहीं हुए हैं । उअ - सूत्र २२११ देखिए । ४-३१७ मराठी में भी म का व होता है । उदा० -ग्राम-गाव, नाम-नाय इत्यादि । भवरु-हिंदी में भँवर । जिवँ तिवँ जेवँ तेवँ - जिम, तिम, जेम, तेम ( सूत्र ४४० १ देखिए ) | ४·३६८ जइ· ···पिउ - यहाँ पिउ में रेफ का लोप हुआ है । जइ भग्गा... प्रियेण - यहां प्रियेग में रेफ का लोप नहीं हुआ है । Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरण- चतुर्थपाद - ४३६६ श्लोक १ - व्यास महर्षि ऐसा कहते हैं—-यदि वेद और शास्त्र प्रमाण हैं तो माताओं के चरणों में नमन करने वालों को हररोज गंगास्नान होता है । यहाँ व्यास शब्द में रेफ जा आगम होकर वासु शब्द बना है । दिविदिवि - सूत्र ४*४१९, ४१० देखिए । वासेण बदुध - इसके स्थान पर 'बासेण बि भारहं अपि भारतं स्तम्भे बद्धम् - व्यास ने भी भारत स्तम्भ में पाठभेद है | यहाँ बासेण में रेफ नहीं आया है । ४४०० श्लोक १ – बुरा (कर्म) करने वाले पुरुषपर आपत्ति आती है । ४०७ यहाँ आवइ शब्द में, दकार कां इकार हुआ है । आवइ – आपद् । आवइआयाति । गुणहिँ पर - यहा संपय में द का इकार नहीं हुआ है । खंभि बद्ध' ( व्यासेन ग्रथित किया ) ऐसा ४४० : श्लोक १ - दुष्ट दिवस कैसे समाप्त हो ? रात कैसे शीघ्र आए ? ( अपनी ) नववधू को देखने के लिए उत्सुक हुआ वह भी (ऐसे ) मनोरथ करता है । यहाँ कथम् को केय और किव आदेश हुए हैं । समप्पठ - सूत्र ३ १७३ देखिए । छुड (देशी, शीघ्र, झटपट । श्लोक २- मुझे लगता है (ओ) - सुंदरी के सुख से जीत गया चंद्र बादलों के पीछे छिपता है । जिसका शरीर पराभूत हुआ है ऐसा दूसरा कोई भी निःशंक भाव से कैसे घूमेगा ? यहाँ कथम् को किम ( किवें ) आदेश है । अ - सूत्र २ २०३ देखिए । भवँइ - भ्रमति में सूत्र ४९३९७ के अनुसार म का व हुआ है । श्लोक ३ - हे श्रीआनंद, सुंदरी के बिबाधर पर दंत व्रण कैसे ( स्थित ) है ? ( उत्तर - ) मानो उत्कृष्ट रस पीकर प्रियकर ने अवशिष्टपर मुद्रा (मुहर) देवी है । यहाँ कथम् को किह आदेश हुआ है । पिअवि--सूत्र ४४३९ देखिए । जणु -- सूत्र ४४४२ देखिए । श्लोक ४ - हे सखि, यदि मेरा प्रियकर मुझसे सदोष है, तो वह (तू) छिपकर ( चुराकर ) इसी प्रकार ( मुझे ) बता कि ( जिससे ) उसमें पक्षपाती होने वाला मेरा मन न समझें । यहाँ तथा को तेम ( तेवं ) और यथा को जेभ ( जेब ) आदेश हुए हैं । श्लोक ५ - श्लोक ४३७७ १ देखिए | एवं हाथ - जिध-तिध के उदा०जिध तिध तीsहि कम्मु ( कुमारपालचरित, ८.४९ ) । ४·४०२ श्लोक १ - - ( शुक्राचार्य कहता है- ) हे राजा बलि, मैंने तुझे कहा था कि किस प्रकार का याचक यह है । अरे मूर्ख, यह जैसा तैसा ( कोई ) नहीं है, वह ऐसा स्वयं नारायण है । Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०८ टिप्पणियां __यहाँ केहउ, जेहु और तेहु में एह आदेश है । ( पहले पंक्तिमें से-)एहु--एहो (सूत्र ४३६२ ) में से ओ ह्रस्व हुआ है। ४०४०४ श्लोक १--यदि वह प्रजापति कहीं से शिक्षा प्राप्त कर (प्रजा को) निर्माण करता है, तो इस जगत में जहाँ वहीं (यानी कहीं भी) उस सुन्दरी के समान कोम है, बताओ। यहाँ जेत्थु, तेत्थु में त्र को एत्थु आदेश हुआ है । तहि--तहे ( सूत्र ४.३५९ ) में से ए ह्रस्व हुआ है । सारिक्ख-साक्ष्यं ( सूत्र २.१७ )। . ४४०५ केत्थु... .''जगि--यहाँ केत्थु, जेत्थु, वेत्थु में त्र को एत्थु आदेश हुआ है। ४.४०६ अपभ्रंशे... ..."भवन्ति-इस नियम के अनुसार, जाम-ताम, जाउंजालं, जाहि-ताहिं ऐसे वर्णान्तर होते हैं । पश्चात् सूत्र ४३९७ के अनुसार म का व होकर जाव:ता इत्यादि वर्णान्तर होते हैं। __ श्लोक १-जब तक सिंह के चपेटे का प्रहार गण्डस्थल पर नहीं पड़ा है, तब तक ही सर्व मदोन्मत्त हाथियों का ढोल नगारा पग-पग पर बजता है । यहां जाम-ताम में म आदेश है। श्लोक २-जब तक तेल निकाला नहीं है तब तक तिलों का तिलत्व ( रहता ) है; तेल निकल जाने पर तिल तिल न रहके खल (खली, दुष्ट ) हो जाते हैं। यहाँ जाउं-ताउं में उ आदेश है। पणठ्ठइ--पणट्ठ के आगे सत्र ४.४२९ के अनुसार स्वार्थे अ आया है। ज्जि--जि ( सून्न ४.४२० ) का द्वित्व हुआ है । फिट्टवि-सूत्र ४.४३९ देखिए । फिट्ट धातु भ्रंश् धातु का आदेश है ( सूत्र ४.१७७ देखिए )। श्लोक ३-जब जीवों पर विषम कायंगति आती है, तब अन्य जन रहने दो ( परन्त ) सुजन भी अन्तर देता है। यहाँ जामहि-तामहिं में हिं आदेश है । ४०४०७ अत्वन्तयो :-सूत्र २.१५६-१५७ ऊपर की टिप्पणी देखिए । जेवडु ... ..'गामह-जितना अन्तर राम-रावण में है उतना अन्तर नगर और गांव में हैं। यहाँ जेवडु-तेवडु में एवड आदेश है। जेवड तेवड-मराठी में जेवढा-तेवढा; गुजराती में-जेवढं तेवडं। जेत्तलो तेत्तलो--जेत्तिल-तेत्तिल में ( सूत्र २.१५७) स्वरभेद होकर ( सत्र ४.३२९ ) जेतल-तेत्तुल वर्णान्तर हो गया है। ४.४०८ एवड केवडु--मराठी में एवढा-केवढा । एत्तुलो केत्तुलो-एत्तिल Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरण-चतुर्थपाद ४०९ केत्तिल में ( सूत्र २.१५७ ) भिन्न स्वर आकर ( सूत्र ४.३२९ ) एतुल केत्तल वर्णान्तर हुआ है। ४.४०९ श्लोक १--परस्पर युद्ध करने वालों में से जिनका स्वामी पीड़ित हुआ, उन्हें जो अन्न ( शब्दश:--मूंग ) परोसा गया वह व्यर्थ हो गया। यहाँ अवरोप्पर में आदि अकार आया है। मुग्गडा--सूत्र ४४२९ देखिए । जोहन्ताहं--इस पाठ के बदले जो अन्ताहं पाठ डां० १० ल० वैद्य जी ने स्वीकृत किया है । गजिउ -मराठी में गांजणे, गांजलेला । ४°४१. उच्चारणस्य लाघवस्-ए और ओ का ह्रस्व उच्चारण उनके स्थान पर इ और उ लिखकर अथवा उनके शीर्ष पर यह चिह्न रखकर (एँ, ओ ) दिखाया जाता है । उदा०-सुधे का हस्व उच्चारण सुधिं ऐसा ४ ३९६२ में दिखाया गया है । तो, दुल्लहहों में ओ का ह्रस्व उच्चारण इस चिह्न से दिखाया है । ४.४११ उंहु...'लाघवम्--इन अनुस्वारान्तों का उच्चारण-लाघव होकर, उसका होनेपाला सानुनासिक उच्चारण इस चिन्ह से दिखाया जाता है । उदा०उं, हूँ इत्यादि । यहाँ आगे दिये उदाहरणों में तुच्छउँ, किज्जर में उं का, तरुहुँ में हुँ का, जहिं में हिं का और तणहँ में हं का उच्चार-लाघव है। ४°४१२ मकाराकान्तो भकार :-मकार से युक्त भकार यानी म्भ । श्लोक १-हे बाह्मण, जो सर्व अंगों मैं ( प्रकारों में ) निपुण हैं ऐसे जो कोई नर होते हैं, वे दुर्लम/बिरला होते है। जो वक्र (बाँके) हैं वे वंचक होते हैं; जो सीधे होते हैं, वे बैल होते हैं । यहाँ बम्भ में म्ह का म्भ हुआ है। छइल्ल--हिंदी में छला। उज्जुअ--ऋजु शब्द में से ऋ का उ ( सूत्र १.१३१ ) और ज् का द्वित्व ( सूत्र २९८ ) होकर हुए उज्जु शब्द के आगे स्वार्थे अ आया है । बइल्ल--हिंदी मराठी में बैल । '४१४ श्लोक १--वे दीर्घ लोचन अन्यही (= कुछ औरही) हैं; वह भुजयुगल अन्यही है; वह घन स्तनों का भार अन्य ही है, वह मुखकमल अन्य ही है; केशकलाप अन्यही है; और गुण और लावण्य का निधि ऐसे उस संदरी को (नितम्बिनी) जिसवे बनाया, वह विधि (ब्रह्मदेव) भी प्रायः अन्यही है। यहाँ प्रायस् शब्द को प्राउ आदेश हुआ है। श्लोक २--प्रायः मुनियों को भी भ्रांति है, वे केवल मणि गिनते हैं, ( परन्तु ) वे अब भी/अद्यापि अक्षर और निरामय ऐसे परमपद में नहीं लीन हुए हैं। ___ यहाँ प्रायस् को प्राइव आदेश हैं । भन्तडी--भन्ति शब्द के आगे सूत्र ४१४२९ के अनुसार स्वार्थे अड प्रत्यय आया और वाद में सूत्र ४.४३१ के अनुसार स्त्रीलिंग का Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१० टिप्पणियाँ ई प्रत्यय लगा है । मणिअडा--सूत्र ४१४३० के अनुसार मणि शब्द के आगे स्वार्थे प्रत्यय आये हैं। श्लोक ३--हे सखि, ( मुझे लगता है कि ) सुंदरी के नयनरूपी सरोवर प्रायः अश्रुजल से भर-भरकर बहते हैं, इसलिए वे ( नयन ) जब ( किसी की ओर देखने के लिए ) सामने मुड़ते हैं, तब वे तिरछी चोट करते हैं । यहाँ प्रायस् को प्राइम्व आदेश हुआ है। घत्त-घात शब्द में से त का द्वित्व होकर ( सूत्र २.९८-५९ ) यह वर्णान्तर हुआ है । श्लोक ४-प्रियकर आयेगा; मैं रूठ जाऊँगी; रूठी हुई मुझे वह मनाएगा (मेरा अनुनय करेगा । प्रायः दुष्ट ( दुष्कर ) प्रियकर ऐसे मनोरथ करवाता है । यहाँ प्रायस् को पग्गिम्ब आदेश है। रू से सं-सत्र ४३८८,३८५, ४१० देखिए। सूत्र ३.१५७ के अनुसार धातु के अन्त्य अ का ए हुआ है। मणोरहई--यहां मणोरह शब्द नपुंसकलिंग में प्रयुक्त है। ४.४१५ श्लोक १--विरहाग्नि की ज्वाला से प्रदीप्त ( जला ) कोई पथिक ( यहाँ ) डूर कर स्थित है; अन्यथा ( इस ) शिशिरकाल में शीतल जल से भाप/धुंआ कैसे उठा हो। ___ यहाँ अन्यथा को अनु आदेश है। बुडिडवि--मत्र ४.४३९ देखिए । बुड्ड धातु मसज धातु का आदेश है ( सूत्र ४१०१ )। ठिअउ उटिठ अउ--ठिअ और उठ्ठिअ के आगे सत्र ४४२९ के अनुसार स्वार्थे अ प्रत्यय आया है । कहंतिहु--सूत्र ४०४१६ देखिए। ४१६ श्लोक १--मेरा कान्त / प्रियकर घर में स्थित होने पर, झोंपडे कहाँ से ( = कैसे ) जल रहे है ( जलेंगे ) ? शत्रु के रक्त से अथवा अपने रक्त से वह उन्हें बुझायेगा, इसमें शंका नहीं है । यहाँ कुतस् को क उ आदेश है । झंपडा--मराठी में झाप, झोपडी । धूमु...." उठ्ठिअउ-- यहां कुतस् को कहन्तिहु आदेश है । ४.४१५७ श्लोक १-श्लोक ४.३७९.२ देखिए । ४.४१८ श्लोक १-प्रिय-संगम के काल में निद्रा कहाँ से आयेगी ? प्रियकरके सन्निध न होने पर कहाँ से निद्रा ? मेरी दोनों भी ( प्रकार की ) निद्राएं नष्ट हुई हैं। मुझे यों ही ( ऐसे भी) न नींद आती है न त्यों भी ( वैसे भी ) नोंद आती है। यहाँ एवम् को एम्व आदेश है । कउ--सूत्र ४.४१६ देखिए । निद्दढी-सूत्र ४°४२९,४३१ देखिए । केम्व तेम्व-कथम् और तथा इनके ये आदेश हेमचन्द्र ने नहीं कहे हैं। Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरण-चतुर्थपाद श्लोक -( मेरे ) प्रियकरकी सिंह से जो तुलना की जाती है, उससे मेरा अभिमान खण्डित होता है ( = मुझे लाज आती है)। कारण सिंह रक्षकरहित हाथियों को मारता है; ( पर मेरा ) प्रियकर (तो) रक्षकों के साथ ( उन्हें ) मारता है। श्लोक ३-जीवित चञ्चल है; मरण निश्चित है; हे प्रियकर, क्यों रूठा जाय ? जिन दिनों में क्रोध है वे दिन सैकड़ों दिव्य वर्षों के समान होते हैं। होसहि-सूत्र ४३८८, ३८२ देखिए । श्लोक ४-( अपना ) मान नष्ट हो जाने पर, यदि शरीर नहीं तो भी देश को छोड़ दे। (परन्तु ) दुष्टों के करपल्लवों से दिखाए जाने, ( वहाँ ) मत घूमो। - यहाँ का वैसा ही रहा है। देसडा--सूत्र ४"४२९-४३० देखिए । भमिज्जसत्र ३.१७, १५९ देखिए ! यहाँ सूत्र १.८४ के अनुसार, 'मे' में से ए ह्रस्व हुआ; उसके स्थान पर इकार आके भमिज्ज रूप बना है। श्लोक ५-नमक ( लवण ) पानी में धुलता है; अरे दुष्टमेघ, मत गरज । कारण वह जलाई हुई झोपड़ी में पानी टपक रहा है; ( अन्दर ) सुन्दरी आज भीगेगी। __ यहाँ मा का म हआ है। अरि--सूत्र २२१७ देखिए । गज्जु--सूत्र ४.३८७ देखिए । अज्जु---अध के समान अव्यय भी अपभ्रंश भाषा में उकारान्त होते हैं। श्लोक ६--वैभव नष्ट होने पर बाँका ( और ) वैभव में मात्र नित्य जैसा ( जनसामान्य ) ऐसा चन्द्र---अन्य कोई भी नहीं--मेरे प्रियकर का किचित् अनुकरण करता है। ५.४११ श्लोक १-सच कहे तो कृपण मनुष्य न खाता भी है और न पीता भी है, न ( मन में ) गीला भी होता (पिघलता ) है और धर्म के लिए एक रुपया भी नहीं खर्च करता है; वह जानता भी नहीं कि यम का दूत एक क्षण में प्रभावी होगा। वेच्चइ-मराठी में वेचणे । रूअडउ, दूअडउ-सूत्र ४.४२९-४३० देखिए । पहुच्चइ-सूत्र ४३९० देखिए । अहवइ... ... खोडि-अथवा अच्छे वंश में जन्म लेने वालों का यह दोष ( खोडि ) नहीं । खोडि-मराठी में खोड, खोडी । श्लोक २-उस देश में जाए जहाँ प्रियकर का पता ( प्रमाण ) मिलेगा । यदि वह आएगा तो उसे लाया जाएगा। अन्यथा वहीं पर ( मेरा ) मरण होगा। Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ “४१२ टिप्पणिय । यहाँ अथवा का अहवा वर्णान्तर हुआ है। देसडइ-सूत्र ४.४२९ के अनुसार देस के आगे स्वार्थे प्रत्यय बाया। जाइज्जइ, लब्भइ, आणिअइ-ये सब कर्मणि श्लोक ३--प्रवास पर गए हुए प्रियकर के साथ (मैं) न गई और उसके वियोग से न मरीभी; इस कारण से उस प्रियकर को संदेश देने में हम लजाती हैं । संदेसडा-सूत्र ४.४२९ देखिए। __ श्लोक ४-इधर मेघ पानी पीते हैं; उधर बड़वानल क्षब्ध हुआ है । (तथापि ) सागर की गंभीरता को देखो; (जल का) एक कण भी कम नहीं हुआ है। एत्तहे-सूत्र ४.४२० देखिए । गहीरिम-सूत्र २.१५४ देखिए । ४.४२० श्लोक १--जाने दो (उसे); जाने बाले ( उस ) को पीछे मत बुलाओ, (मैं) देखती हूँ कितने पैर ( वह आगे ) डालता है। उसके हृदय में मैं टेढी बैठी हूँ; (परंतु मेरा ) प्रियकर जाने का केवल आडंबर करता है । जाउ--सूत्र ३.१७३ देखिए । पल्लवह-सूत्र ३.१७६ देखिए । श्लोक २--हरि को आंगन में नचाया गया; लोगों को आश्चर्य में डाला गया, अब राधा के स्तनों का जो होता है वह होने दो। श्लोक ३--सर्वांगसुंदर गौरी ( संदरी ) कोई अद्भुत ) नवीन विषग्रन्थि के समान है। परन्तु जिसके कंठ से वह षही चिपकती, वह ( तरुण ) वीर (मात्र) मरता है ( पीड़ित होता है)। नवखी--मराठी में नबसी । सूत्र ४.४२२ देखिए । ४.४२१ श्लोक १--मेंने कहा-हे धवल बैल, तू धुरा को धारण कर, दुरे बैलों ने हमें पीड़ा दे दी है; तेरे बिना यह बोझ नहीं वहा जा सकेगा, ( परंतु ) तू अब 'विषण्ण क्यों ? कसर (देशी)-बुरा वैल। ४°४२२ श्लोक १-एक तो तू कदापि नहीं आता; दूसरे, (आये तो भी दू) शीघ्र जाता है । हे मित्र, मैंने जाना है कि तेरे समान दुष्ट कोई भी नहीं है । यहां शीघ्र को बहिल्ल आदेश है कइअह 'कदापि' का यह आदेश हेमचन्द्र ने नहीं दिया है। आवहो-आवहि ( सूत्र ४.३८३ ) में सूत्र ४४२९ के अनुसार स्वर बदल हो गया है । वहिल्लउ-वहिल्ल के आगे सूत्र ४४२९ के अनुसार स्वार्थ अ प्रत्यय आया है। जाहि-सूत्र ४.३८३ देखिए । मित्तडा-सूत्र ४०४२९ देखिए । जेहउ-जेह ( सूत्र ४४०२ ) के आगे सूत्र ४.४२९ के अनुसार स्वार्थे अ प्रत्यय आया है। Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरण-चतुर्थपाद ४१३ श्लोक २-जैसे सत्पुरुष हैं वैसे कलह हैं, जैसी नदियां हैं वैसे धुमाव मोड हैं। जैसे पर्वत हैं वैसे कंदराएं हैं। हे हृदय, तू क्यों खिन्न होता है ? ___ डोंगर-मराठी में डोंगर । विसूरहि-सूत्र ४.३८३ देलिए । विसूर धातु खिद् धातु का आदेश है (सूम ४१३२)। श्लोक ३—सागर को छोड़कर जो अपने को तट पर फेंकते हैं, उन शंखों का अस्पृश्य-संसर्ग है; केवल ( दूसरों के द्वारा ) फूंके जाते हुए वे ( इधर-उधर ) भ्रमण करते है। छड्डेविणु-सूत्र ४.४४० देखिए । छड्ड धातु मुच् धातु का आदेश है (सूत्र ४.९१ ) । घल्ल (देशो)-मराठी में घालणे । विट्टाल-मराठी में विटाल । श्लोक ४–हे मूर्ख, (अनेक) दिनों में जो अजित/संचित किया है, उसे खा; एक दाम (पसा ) भी मत संचित कर । कारण ऐसा कोई भय आता है कि जिससे जन्म का ही अंत होता है। वढ-श्लोक ४.४२२.१२ के बाद देखिए । द्रवक्कउ-द्रवक्क को सूत्र ४.४२९ के अनुसार स्वार्थे अ प्रत्यय लगा है ! ___ श्लोक ५-यद्यपि अच्छे प्रकार से, सर्व आदरपूर्वक, हरि ( =श्रीकृष्ण ) एकेक ' (गोपी) को देखता है, तथापि जहाँ कहाँ राधा है वहां उसको नजर पड़ती है। स्नेह से भरे हुए नयनों को रोकने के लिए कौन समर्थ है ? राही-राधा । सूत्र ४३२९ के अनुस्वार राधा शब्द में से स्वर में बदल हुआ। संवरेबि-थुत्र ४°४४१ देखिए । पलुट्टा-पलोट्ट (सूत्र ४०२५८) शब्द में ओ का उ हुआ है। लोक ६-वैभव में स्थिरता किसकी ? यौवन में गवं किसका? इसलिए गाढे रूप से बिबित होगा (शब्दश:-लगेगा) ऐसा लेख भेजा जा रहा है। थिरत्तणउँ-थिर (स्थिर) शब्द को सूत्र २.१५४ के अनुसार तण प्रत्यय लगा; बाद में उसके आगे सूत्र ४.४२९ के अनुसार स्वार्थे अ प्रत्यय आया। मरट्र (देशी)-गर्व । लेखडउ-सूत्र ४.४३० के अनुसार लेख के आगे स्वार्थ प्रत्यय आया है। श्लोक ७-कहां चंद्रमा और कहां णमुद्र ? कहाँ मयूर, कहाँ मेघ ? यद्यपि सज्जन दूर ( रहते ) हो, तो भी उनका स्नेह असाधारण होता है । असड्ढल-असाधारण । श्लोक ८---अन्य अच्छे वृक्षों पर हाथी अपनी सूंढ कौतुक से ( क्रीडा के स्वरूप Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१४ टिप्पणियाँ में ) घिसता रगड़ता है; परंतु सच बात पूछो तो उसका मन मात्र केवल सल्लकी (नामक वृक्ष ) पर ही है। कुड्डेण-सूत्र १.८४ के अनुसार कोड्ड शब्द में से ओ स्वर ह्रस्व होकर उसके -स्थान पर उ आया है । श्लोक ९-हे स्वामिन्, हमने खेल किया; तुम ऐसे क्यों बोलते हो ? (अथवातुम क्या निश्चय बोलते हो ? ) अनुरक्त ऐसे हम भक्तों का त्याग मत कीजिए। खेड्डयं-खेड्ड शब्द को स्वार्थ य ( क ) प्रत्यय लगा है । श्लोक १०-अरे मूर्ख, नदीयों से अथवा तडागों से किंवा सरोवरों से या उद्यानों से किंवा बनों से देश रमणीय नहीं होते हैं, परंतु सुजनों के निवास से ( देश रम्भ होते हैं )। सरिहि, सरेहि, सरवरेंहि-वणेह, निवसन्तेहि, सुअणेहिं--सूत्र ४.३४७ देखिए । श्लोक ११-हे अद्भुत शक्तियुक्त शठ हृदय, तूने सैकड़ों वार मेरे आगे कहा था कि यदि प्रियकर प्रवास पर जाएगा तो मैं फूट जाऊँगा। हिअडा--सूत्र ४.४२९ देखिए । भंडय ( देशी)--विट, शठ, स्तुतिपाठक । कुट्टिसु--सूत्र ४°३८८, ३८५ देखिए । श्लोक १२ ( इस श्लोक में मानव शरीर का रूपकात्मक वर्णन है। यहां पंच यानी पांच ज्ञानेन्द्रियाँ। अर्थ- ) एक ( शरीररूपी) कुटी झोंपड़ी है; उस पर पांचों का अधिकार है ( रुद्ध ); पांचों की बुद्धि पृथक-पृथक् है । हे बहिनि, यह बता जहाँ परिवार अपनी-अपनी इच्छा से चलता है. वह घर कैसे आनंदी रहेगा? कुडल्ली--कुडी शब्द को सूत्र ४०४२९ के अनुसार स्वार्थे उल्ल प्रत्यय लगकर, फिर सूत्र ४४३१ के अनुसार स्त्रीलिंगी ई प्रत्यय लगा। श्लोक १३-जो मन में ही व्याकुल होकर चिता करता है परंतु एक दाम/पैसा किंवा रुपया देता नहीं वह एक मूर्ख । रतिवश होकर घूमनेवाला और घर में ही अंगुलियों से भाला नचानेवाला वह एक मूर्ख । भमिरु-सूत्र २.१४५ देखिए । श्लोक १४-हे बाले, तेरे चंचल और अस्थिर कटाक्षों से ( शब्दश:-नयनों से) जो देखे गये हैं उन पर अपूर्ण काल में ही मदन का आक्रमण हल्ला होता है। 'दडवडउ-दडवड के आगे सूत्र ४.४२९ के अनुसार स्वार्थे प्रत्यय आया। श्लोक १५-हे हरिणो, जिसके हुँकार से ( तुम्हारे ) मुखों से तृण गिर पड़ते थे, वह सिंह (अब) चला गया, (इसलिए अब तुम) निश्चित रूप से जल पीओ। Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरण-चतुर्थपाद ४१५ ... पिअहु-सूत्र ४३८४ देखिए । केरएं-केर शब्द के आगे सूत्र ४०४२९ के अनुसार स्वार्थे अ प्रत्यय आया; फिर सूत्र ४.३४२ के अनुसार केरएँ यह तृतीया एकवचन हुआ। हुंकारडएं-हुँकारड शब्द का तृतीया ए०व० ( सूत्र ४.३४२)। हुँकारड शब्द में हुँकार के आगे सूत्र ४.४२९ के अनुसार स्वार्थ प्रत्यय आया है। तृणाई-यहाँ तणाई ऐसा भी पाठभेद है । श्लोक १६-~-स्वस्थ अवस्था में रहने वालों से सभी लोग बोलते हैं। परंतु पीडित/दुःखित लोगों से 'डरो मत' ऐसा वचन जो सज्जन है वही कहता है। साह-सूत्र ४.३६६ देखिए । आदन-(देशी)-आर्त । मब्भोसडो-मन्भीसा शब्द को सूत्र ४.४२९ के अनुसार स्वार्थे अड प्रत्यय लगकर, फिर सूत्र ४.४३१ के के अनुसार स्त्रोलिंगी ई प्रत्यय लगा है। श्लोक १७-अरे मुग्ध हृदय, जिसे-जिसे तुम देखते हो, उस-उस पर (यदि तुम) अनुरक्त असक्त हो जाते, तो फटने वाले लोहको जैसे धन के प्रहार सहन करने पड़ते हैं वैसे ताप तुम्हें सहन करना पड़ेगा। फुट्टणएण-सूत्र ४.४४३ देखिए । घण-मराठी में धण । ४४२३ श्लोक १ ---मैंने समझा था कि हुहरु शब्द करके मैं प्रेमरूपी सरोवर में डूब जाऊँगी। परंतु अकस्मात् कल्पना न होते ही विरहरूपी नौका (मुझे) मिल गई। यहाँ हुहुरु शब्द ध्वनि-अनुकारी है । नवरि-सूत्र २.१८८ देखिए । श्लोक २-जब आँखों से प्रियकर देखा जाता है तब कस-कस् शब्द करके नहीं खाया जाता है अथवा धुट घुट शब्द करते नहीं पीया जाता है। तथापि योंही (एवमपि) सुखस्थिति होती है । यहाँ कसरक्क और धुंट शब्द ध्वनि-अनुकारो हैं। खज्जइ-खा धातु का कर्मणि रूप हैं । नउ-यहाँ 'न' शब्द को स्वार्थे प्रत्यय लगा है। श्लोक ३--मेरा नाथ जैन प्रतिमाओं को वंदन करते हुए अद्यापि घर में ही है ( यानी प्रवास को नहीं गया है ); तब तकही गवा में विरह मर्कट-चेष्टा करने लगा है। यहाँ धुग्ध चेष्टानुकरणी शब्द है । ताउँ-सूत्र ४.४०६ देखिए । श्लोक ४- यद्यपि उसके माथे पर जीणं कमली थी और गले में (पूरे) बीसकी मणियाँ नहीं थी, तो भी सुंदरी ने सभागृह में सभासदों से उठक-बैठक ( ऊठ-बैस ) करवायी। यहाँ उट्ठ वईस चेष्टानुकरणी शब्द है । लोअडी-लोमपूटी। मणियडा-मणि शब्द को सूत्र ४४२९ के अनुसार स्वार्थे अड प्रत्यय लगा है। उट्ठबईस- मराठी में ऊठ बैस, उठा बशा । Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१६ टिप्पणियां ४.४२४ श्लोक १-अरीमा, मुझे पश्चात्ताप हो रहा है कि सायंकाल में मैंने प्रियकरके साथ कलह किया। सचमुच विनाशकाल में बुद्धि विपरीत होती है । यहाँ घई यह निपात निरर्थक ( विशेष अर्थ न होते ) प्रयुक्त किया गया है । अम्मडि, बुद्धडी-यहाँ सूत्र ४.४२९ के अनुसार पहले स्वार्थे अह प्रत्यय आया और बाद में सूत्र ४१४३१ के अनुसार स्त्रीलिंगी ई प्रत्यय लगा है पच्छायाबडा-सूत्र ४°४२९ देखिए। ४°४२५ श्लोक १-अरे प्रिय, बताओ कि यह ( ऐसा ) परिहास किस देश में किया जाता है । हे प्रिय, तुम्हारे लिए मैं क्षीण होती हूँ और तुम तो किसी दूसरी के लिए ( क्षीण होते हो )। ___ यहां केहि और रेसि ये तादर्थी निपात हैं। परिहासडी-सूत्र ४°४२९-४३१ देखिए । एवं..."हायौं-तेहिं और रेसिं के उदा०--कहि कसु रेसि तुहुँ अवर कम्भारंभ करेसि । कसु तेहिं परिगहु ( कुमार-पालचरित, ८७०-७१ ) । वड्ड तणेण–यहाँ तणेण तादी निपात है । ४°४२६ श्लोक १-जो थोड़ा भूला जाता है फिर भी स्मरण किया जाता है वह प्रिय (कहा जाता है); परंतु जिसका स्मरण होता है और जो नष्ट होता है उस स्नेह का नाम क्या ? यहाँ पुणु में स्वार्थे डु है । मणा-सूत्र ४.४१८ देखिए । कई--काई ( सूत्र ४.३६७ ) में से आ का ह्रस्व ( सूत्र ४ ३२९ ) स्वर हुआ है। विणु..."वलाहुं-यहां विणु में स्वार्थे डु है । ४.४२७ श्लोक १-जिसके अधीन में अन्य इंद्रियां हैं (ऐसे ) मुख्य जिव्हेंद्रिय को वश में करो । तुम्बिनी के मूल नष्ट हो जाने पर (उसके) पत्ते अवश्य सूख जाते हैं । यहां अबसें में स्वाथें हैं है । सुक्कहि-सूत्र ४.३८२ देखिए । अवस...."अहिं यहाँ अवस शब्द में स्वार्थे ड (अ) है । ४°४२८ श्लोक १-एक ही बार जिनका शील खंडित हुआ है उन्हें प्रायश्चित्त दिये आते है; परंतु जो हररोज ( शील ) खंडित करता है, उसे प्रायश्चित्त का क्या उपयोग ? यहाँ एक्कसि में स्वार्थे डि है । देज्जाहि-दे धातु के कर्मणि अंग के वर्तमानकाल तृ. पु. अ०व० । ४.४२६ श्लोक १--जब विरहाग्नि की ज्वालाओं से जला हुआ पथिक रास्ते पे दिखाई पड़ा तब सब पथिकों ने मिलके उसको अग्नि पर रखा ( कारण वह मर गया था)। Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरण-चतुर्थपाद ४१७ यहाँ करालिअउ, दिट्ठउ, किमउ, अग्गिट्ठउ इन शब्दों में स्वार्थे अ प्रत्यय है।। मह... "दोसडा–यहाँ दोसडा में स्वार्थे अह प्रत्यय है । एक्क..."रुद्धी-यहाँ कुडुल्ली में स्वार्थे उल्ल प्रत्यय है । ४.४३० फोडेन्ति..... 'अप्पण-यहां हि अडउं में स्वार्थे अडम प्रत्यय है । चडुल्लउ...' सइ-यहां चूडल्लऊ में स्वाथें उल्लअ प्रत्यय है। श्लोक १- ( अपने प्रियकर पर ) स्वामी का प्रसाद, सलज्जप्रियकर, सीमासंधि पर वास और ( प्रियकरका ) बाहुबल देखकर ( आनंदित हुई ) सुंदरी निःश्वास छोड़ती है। यहाँ बलुल्लडा में उल्लअड यह स्वार्थे प्रत्यय है। पेक्खिवि-सूत्र ४.४३९ देखिए । वाहुबलुल्लडउ-यहाँ उल्ल, अड और अ ऐसे स्वार्थे प्रत्यय हैं। ४.४३१ श्लोक १---( एक पयिक अपनी प्रिया के बारे में दूसरे पथिक से पूछता है-) हे पथिक, (तुमने मेरो ) प्रिया देखी क्या ? ( दूसरा उत्तर देता है- ) 'तेरा मार्ग देखने वाली और अश्रु और श्वासों से (अपने) कंचुकको गीला करती और सूखा करतो (ऐसी) मुझसे देखी गई। यहाँ गोरडी में ई (डी) प्रत्यय है । निअन्त-सूत्र ३.१८१ देखिए । निअ धातु दृश् धातु का आदेश है ( सूत्र ४१८१ )। करन्त-सूत्र ३.१८१ देखिए । एक्क" रुद्धी-यहाँ कुड्डल्ली में ई प्रत्पय है। ४.४३२ श्लोक १-प्रियकर आया (यह) वार्ता सुनी; ( उसकी शब्द- ध्वनि कानों में प्रविष्ट हुई; नष्ट होने वाले उस बिरह की धूल भी न देखी गई। यहाँ धूलडिआ में आ प्रत्यय है। वत्तडौ--वत्ता (वार्ता) शब्द को सूत्र ४१४२९ के अनुसार स्वार्थे अड प्रत्यय लगा; फिर सत्र ४०४३१ के अनुसार स्त्रीलिंगी ई प्रत्यय लगा। कन्नडइ---कन्न ( /कणं ) को स्वार्थे अड प्रत्यय सूत्र ४४२९ के अनुसार लगा है । नासन्तअहो-नासन्त (सूत्र ३.१८१) शब्द के आगे स्वार्थे अ प्रत्यय आया। थलडिआ--सूत्र ४०४३३ देखिए । ४.४३३ धूलडिआ--यहाँ धूलड शब्द के आगे आ प्रत्यय होने पर, ड में से अकार का इकार हुआ है । ४.४६४ ईय-प्रत्ययस्य--ईय यह एक मत्वर्थी प्रत्यय है । श्लोक १-हे प्रियकर, (तेरा) संग सहवास नहीं मिलता; (फिर) तेरे संदेश का क्या उपयोग है ? सपने में पिए जल से (सच्ची) प्यास क्या मिटती है ? २७ प्रा. व्या० Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१८ टिप्पणियाँ यहां तुम्हारेण में आर आदेश है । देवखु....'कन्तु--यहां अम्हारा में आर आदेश है। बहिणि......'कन्तु--यहाँ महारा में आर आदेश है। ४.४३५ अतोःप्रत्ययस्य-सूत्र २.१५६ ऊपर की टिप्पणी देखिए । ४४३६ त्र-प्रत्ययस्य--सूत्र २.१६१ ऊपर की टिप्पणी देखिए । श्लोक १--यहाँ पर, वहाँ पर, दरवाजे पर, घर में (इसी प्रकार) चंचल लक्ष्मी दौड़ती/घमती है; प्रियकर से वियुक्त हुए सुंदरी के समान वह निश्चलरूप से कहीं भी नहीं ठहरती। यहाँ एत्तहे, तेत्तहे में एत्तहे (डेतहे) आदेश है । कहिँ-सूत्र३.६० देखिए । ४.४३७ त्वतलोः प्रत्यययोः--त्व और तल् ( ता ) ये भाववाचक संज्ञा सिद्ध करने के प्रत्यय हैं । उदा-बालत्व, पीनता, वड्डप्पणु पाविअइ-यहाँ बड्डप्पण में पण आदेश है । वड्डत्तणहो तणेण---यहाँ वड्डतणहों में सूत्र २.१५४ के अनुसार त्तण प्रत्यय लगा है। ४.४३८ तव्य-प्रत्ययस्य--तव्य यह वि० क• धा० वि० सिद्ध करने का प्रत्यय है। श्लोक १-( टीकाकार के मतानुसार, विद्यासिद्धि के लिए, कोई सिद्ध पुरुष ने नायिका को धन इत्यादि देकर, उसका पति मांगा; तब वह स्त्री कहती है: - ) इस (धन इत्यादि) को लेकर यदि मुझे प्रियकरका त्याग करना हो, तो मुझे मर जाना ही कर्तव्य (रहता) है, और कुछ भी नहीं। यहाँ करिएव्वउ, मरिएव्वउं में इएव्वउ आदेश है। ध्रु-सूत्र ४.३६० देखिए । श्लोक २-जग में अतिरिक्त (ऐसे) मंजिष्ठा (नामक) वनस्पति को किसी देश से उच्चाटन उखाड़ा जाना ), अग्नि में औटना और धन से कूटा जाना ये सब सहन करना लगता है। यहां सहेन्वउँ में एव्वउ आदेश है। श्लोक ३–यद्यपि वह वेद प्रमाण है तो भी रजस्वला स्त्री के साथ सोना मना है, परंतु जागृत रहने को कौन रोकेगा ? यहां सोएवा, जग्गेवा में एवा आदेश है। ४.४३६ क्त्वा-प्रत्ययस्य-सूत्र १.२७ ऊपर की टिप्पणी देखिए । श्लोक १-हे हृदय, यद्यपि मेच अपने वैरी/शत्रु हैं तो भी हम आकाश पर चरेंगे क्या ? हमारे दो हाथ हैं; यदि मरनाही हो तो उन्हें मारकर ही (हम) मरेंगे। Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरण-चतुर्थपाद ४१९ यहाँ मारि में क्त्वा प्रत्यय को ई आदेश है। अम्हहं-सूत्र ४३८० देखिए । हत्थडा--त्र ४४२९ के अनुसार स्वार्थे प्रत्यय हत्थ के आगे आया है। गय....... जन्ति-यहाँ भञ्जिउ में क्त्वा-प्रत्यय को इउ आदेश है। श्लोक २-1 इस श्लोक में, मुंज शब्द से मुंज नाम का मालव देश का राजा अथवा मुंज नाम का चालुक्य राजाओं का एक मंत्री अभिप्रेत है, ऐसा कुछ लोग कहते हैं ) , जिसमें मुंजका प्रतिबिंब पड़ा था ऐसा जल, पानी में प्रविष्ट न होकर, जिन हाथों से पिया गया है,उन दो हाथों का चुंबन लेकर,वह जलवाहक(पनिहारिनि) (बाला अपने) जीव को रक्षा करती है। यहाँ चुम्बिवि में क्त्वा-प्रत्यय को इवि आदेश है। श्लोक ३--हाथों को छोड़कर तू जा, ऐसा ही होने दो, उसमें क्या दोष है ? (परतु) वदि तू मेरे हृदय से बाहर निकल जाएगा, तो मैं समझूगी कि ( सचमुच ) मुंज क्रुद्ध हुआ है। यहाँ विछोडवि में क्त्वा प्रत्यय को अवि आदेश है । नीसरहि--सूत्र ४५८३ देखिए । ४.४४० श्लोक १ –संपूर्ण कषायरूपी सैन्य को जीतकर, संसार को ( जगको) अभय देकर, महाव्रत लेकर, ( और ) तत्त्वका ध्यान करके, ( ऋषिमुनि ) आनंद (शिव को प्राप्त करते हैं । यहाँ जप्पि, देप्पिणु, लेवि, झाएविणु में क्रम से एप्पि, एप्पिणु, एवि, एविण ये क्त्वा-प्रत्यय के आदेश हैं : कसाय-क्रोध, मान, माया और लोभ इनको जैनधर्म में कसाय (कषाय) कहते हैं । ४.४४१ तुमः प्रत्ययस्य-हेत्वर्थक धातुसाधित अव्यय साधने का तुम् प्रत्यय है। श्लोक १---अपना धन देना दुष्कर है; तप करना (किसी को भी) अच्छा नहीं लगता । योही सुख भोगा जाय ऐसा मन को लगता है,परंतु भोगना मात्र नहीं आता। यहाँ देवं, करण, भुंजणह, भुंजणहिं इनमें क्रम से एवं, अण, अणहं, अहिं ये तुम्-प्रत्यय के आदेश है। श्लोक २-संपूर्ण पृथ्वी को जीतना और (जीतकर) उसका त्याग करना, ब्रत (तप) लेना और (लेकर) उसका पालन करना, यह (सब) जग में शांति ( -नाथ ) तीर्थकर-श्रेष्ठ के बिना अन्य कौन कर सकता है ? यहाँ जेप्पि में एप्पि, चए प्पिणु में एप्पिणु, लेविण में एविण और पालेवि में एवि Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२० टिप्पणियां ऐसे तुम्-प्रत्यय के आदेश हैं। सन्तें तित्थेसरेण-जैनधर्म में २४ तीर्थकर माने जाते हैं। उनमें शान्तिनाथ एक तीर्थकर हैं । ४.४४२ श्लोक १-वाराणसी जाकर ( बाद में ) उज्जयिनी जाकर, जो लोग मरण प्राप्त करते हैं वे परम पद जाते हैं। अन्य तीर्थों का नाम भी मत लो । यही गम्पिण और गम्पि में एप्पिणु और एप्पि में आदि एकार का लोप हो गया है । परावहि- सूत्र ४.३८२ देखिए । प्रलोक : -जो गंगा जाकर और काशी (शिवतीर्थ) जाकर मरता है, वह यमलोक को जीतकर, देवलोक में जाके क्रीडा करता है। यहां गमे प्पिण और गमेप्पि में एप्पिणु और एप्पि में से आदि एकार का लोप नहीं हुआ है। सिवतित्थ-काशी। कीलदि-यहां कील ( सूत्र १२०२ ) के आगे दि प्रत्यय ( सूत्र ४२६०) आया है। जिणेप्पि--सूत्र ४.४४० देखिए । जिणेप्पिसूत्र ४.४४० देखिए । जिण शब्द के लिए सूत्र ४२४१ देखिए । ४.४४३ तनः प्रत्ययस्य-धातु से कर्तृवाचक संज्ञा सिद्ध करने का तन् प्रत्यय है। श्लोक १-मारनेवाला हाथी, कहनेवाला मनुष्य, बजनेवाला पटह, ( और) भोंकनेवाला कुत्ता । यहाँ मारणउ, बोल्लणउ, वज्जणउ, भसणउ इनमें अणअ यह तन् प्रत्यय का आदेश है । पाहु-पटह, वाद्यविशेष, नौबत, नगारा । ४.४४४ नं मल्ल.... 'करहिं--यहाँ नं शब्द इव के अर्थ में आदेश है। श्लोक १.-सूर्यास्त के समय व्याकुल चक्रवाक ( नामक पक्षि) ने मृणालिका का (= कमल के डंठल का) टुकड़ा कंठ में डाला ( परंतु ) उसे छिन्न (यानी खाया) मात्र नहीं किया; मानो जीव को बाहर न निकलने देने के लिए अर्गला डाली है। श्लोक २--कंकणसमूह गिर पड़ेगा इस डरसे सुंदरी हाथ ऊपर करके जाती है; मानो वल्लभके विरहरूपी महासरोवरकी थाह ढूंढती है। श्लोक ३-दीर्घ नयन होनेवाले और लावण्युक्त ऐसा जिन वरका मुख देखकर, अतिमत्सरसे भरा हुआ लवण मानो अग्निमें प्रवेश करता है। पवीसइ–पविस में से इ सूत्र ४.३२९ के अनुसार दोघं ई हुई है। जिणवर--- श्रेष्ठ जिन । सत्र ४.८८ ऊपर की टिप्पणी देखिए । श्लोक ४-हे सखि, चंपक फूलके मध्य में भ्रमर प्रविष्ट हुआ है; मानो सुवर्ण में जड़ा हुआ इंद्रनीलमणि जैसा वह शोभित हो रहा है । Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरण- चतुर्थपाद भसलु – सूत्र १ २४४ देखिए । पइट्ठउ, बइट्ठउ – पइट्ट और बइट्ट के आगे सूत्र ४४२९ के अनुसार स्वार्थे अ प्रत्यय आया है । ४*४४५ श्लोक १ -- डूंगरोंसे मेघ लगे हैं; पथिक रोता हुआ जा रहा है; पर्वतको निगलने की इच्छा करनेवाला यह मेह सुंदरीके प्राणोंपर क्या दया करेंगा ? रडन्तउ -- रडन्त ( सूत्र ३०१८१ ) शब्द को स्वार्थे अ प्रत्यय ( सूत्र ४४२९ ) लगा है । ४२१ श्लोक १ – पैरपर अंतड़ी चिपटी है; शिर कंधे से गिर पड़ा है; तथापि ( जिसका ) हाथ ( अद्यापि अपने ) कटारी पर है (ऐसे उस) प्रियकरकी पूजा की जाती है (किवा - मैं पूजा करती हूँ ) | खंधस्सु - यह षष्ठी पंचमी के बदले प्रयुक्त की गई है । अन्त्रडी- अन्त्र के आगे स्वार्थे अड (सूत्र ४४२९), फिर स्त्रीलिंगी ई ( सूत्र ४४३१ ) प्रत्यय आकर यह शब्द -स्त्रीलिंगी बना है । हत्थडउ – सूत्र ४४३० देखिए । श्लोक ३ - पक्षी शिरपर आरूढ होकर फल खाते हैं हैं; तथापि महान् वृक्ष पक्षिओं को पीड़ा नहीं पहुँचाते हैं अपना अपमान हुआ है । डाल (देशी) - शाखा | हिंदी में डाल ; ४ ४४६ श्लोक १ – मजे में क्षणभर में शिर पर शेखरके ( गजरा ) स्वरूपमें रखा, क्षणभर में रतिके कंठपर लटकते रखा, क्षणभर में ( अपने ) गले में डाला हुआ, ऐसे उस काम के पुष्प ( दाम ) धनुष्यको नमस्कार करो । और शाखाओं को तोड़ते अथवा न समझते हैं कि यहाँ शौरसेनी भाषाके समान किद, रदि, विणिम्मविदु, विहिदु इन शब्दों में त का द हो गया है | ४४४७ प्राकृत इत्यादि भाषाओंके लक्षणोंका होनेवाला व्यत्यय यहाँ कहा है । ४-४४८ अष्टमे – अष्टम अध्याय में । प्रस्तुत प्राकृत व्याकरण हेमचंद्र के व्याकरण का आठवाँ अध्याय है । सप्ताध्यायी निबद्ध संस्कृतवत् - हेमचंद के व्याकरण के पहले - सात अध्यायों में संस्कृत व्याकरणका विवेचन है । श्लोक १ – नीचे स्थित सूर्यके तापका निवारण करनेके लिए मानो छत्र मौचे धारण करती है ऐसी, ( और ) वराह के श्वाससे दूर फेकी गई, ( ऐसी ) शेषसहित Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२२ टिप्पणियां पृथ्वी विजयी है । (विष्णने वराह अवतार लेकर पृथ्वीको समुद्रसे बाहर निकाला, यह पौराणिक कथा इस श्लोक में अभिप्रेत है)। अत्र चतुर्थ्या... ... सिद्धः-इस प्राकृत व्याकरणमें चतुर्थीका आदेश नहीं कहा है; वह संस्कृतके समानही सिद्ध होता है । उदा०--हेट्ठट्ठिय इत्यादि श्लोक में निवारणाय ( यह चतुर्थी एकवचन है)। सिद्धग्रहणं मङ्गलार्थम्—यह प्राकृत व्याकरण सूत्र-निबद्ध है। सूत्रका लक्षण ऐसा है:-अल्पाक्षरमसंदिग्धं सारवद् विश्वतोमुखम् । अस्तोभमनवधं च सत्रं सुत्रविदो विदुः ॥ इसलिए सूत्र में अनावश्यक शब्द नहीं होते हैं। तथापि प्रस्तुत सूत्र में "सिद्धम्' शब्द आपाततः अनावश्यक दिखता है। परंतु उसका प्रयोजन है। हेमचंद्र उसके बारे में कहता है:- ग्रंथके अंतमें मंगल हो, इस प्रयोजनसे सिद्ध शब्द इस सूत्र में प्रयुक्त किया है। इस पादके समाप्तिसचकके अनन्तर कुछ पांडुलिपियों में ग्रंथकृत्-प्रशस्ति के स्वरूपमें अगले श्लोक दिए गए दिखाई देते हैं :---- आसीद् विशां पतिरमुद्रचतुः समुद्र मुद्राङ्कितक्षितिभरक्षम बाहुदण्डः । श्रीमूलराज इति दुर्धर वैरि कुम्भि कण्ठीरवः शुचि चुलुक्यकुलावतंसः ॥ १ ॥ तस्याम्पये समजनि प्रबल प्रताप तिग्मधुतिः क्षितिपतिजयसिंहदेवः । येन स्ववंश-सवितर्यपरं सुधांशी श्रीसिद्धराज इति नाम निजं व्यलेखि ॥ २॥ सम्यग् निषेव्य चतुरश्चतुरोप्युपायान् जित्वोपभुज्य च भुवं चतुरब्धिकाञ्चीम् । विद्याचतुष्टयविनीतमतिजितात्मा काष्ठामवाप पुरुषार्थचतुष्टये यः ॥ ३ ॥ Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतिकव्याकरण-चसुथंपाद ४२३ तेनातिविस्तृतदुरागमविप्रकीर्ण शब्दानुशासनसमूह-कर्षितेन अम्पथितो निरवमं विधिवद् व्यवत्त शब्दानुशासनमिदं मुनिहेमचंद्रः ॥ ४ ॥ राजहंसौ न भोम्भोजे क्रीडतो यावदन्यहम् । बाच्यमानं बुधस्तावत् पुस्तकं जयतादिदम् ॥ ५ ॥ ( चतुर्थपाद समाप्त ) (हेमचंद्रकृत प्राकृत व्याकरण समाप्त ) Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अ० व० ३० उदा० ए० व० क० भू० धा० वि० तृ० वृ ० पु० द्वि० द्वि० पु० नपुं० पं० पू० का० धा० अ० प्र० प्र० पु० ब० य० व० का० धा० वि० व० वर्त० वि० क० धा० वि० श० ष० स० सं० सू० हेत्व • धा० अ० संक्षेप अनेकवचन इत्यादि उदाहरण एकवचन कर्मणि भूतकालवाचक धातुसाधित विशेषण .तृतीया (विभक्ति) तृतीय पुरुष द्वितीया (विभक्ति) द्वितीय पुरुष नपुंसकलिंग, नपुंसकलिंगी पंचमी (विभक्ति) पूर्वकालवाचक धातुसाधित अव्यय प्रथमा ( विभक्ति) प्रथम पुरुष बहुवचन वर्तमानकालबाचक धातुसाधित विशेषण वर्तमानकाल विध्यर्थी कर्मणि धातुसाधित विशेषण शब्दश: षष्ठी (विभक्ति) सप्तमी (विभक्ति) संबोधन (विभक्ति) सूत्र हेत्वर्थक धातुसाधित अव्यय Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अइत्यादी च अइ संभावने अउ : पीरादी अक्लोबे सो अकोठे ल्ल: - अचलपुरे अजातेः पुंसः अडडडुल्ला. अण णाई अत इज्जस्वि - अस अत एवैच् अतसीसात अतः समृद्ध्यादी अतः सर्वादे अत: सेड: अतां डइसः अतो इसेर्डातो अतो इसेर्डादो अतो डो विसर्गस्य अतो देश्व अतो रिआर अतोडेंत्तुलः अस्थिस्त्यादिना अथ प्राकृतम् अदस ओइ अदूतः सूक्ष्मे अदेल्लुक्यादे प्राकृतव्याकरण सूत्र सूची अधः क्वचित् असो हेट्ठ अधो मनयाम् १-१५१ ४१ २.२.५ १२० १.१६२ ४३ ३.१९ १२९ १.२०० ५४ २.११८ ९७ ३.३२ १३५ ४*४२९ ३०२ २.१९० ११५ ३.१७५ १८० ४.२८७ २४२ ३.१४५ १७० १२११ ५७ १-४४ १८ . ४३६४ २७० अनकोठा अनादी शेषा अनादी स्वरा ३.५८ १४४ अमेणम् ३.२ १२४ अमोस्य ४४०३ २८६ अम्महे ह ४.३२१ २५४ अम्मो आश्चर्ये ४.२७६ २३९ १०३७ १६ ४°२७४ २३८ २०६७ ८३. ४४३५ ३०४ ३.१४८ १७२ १.१ १ १.११८ ३५ ३·१५३ १७३ अनुत्साहोत्सन्ने अनुव्रजे: अन्त्यत्रयस्या अन्त्यव्यञ्जनस्स अन्यादृशोना अभिमन्य अभूनोपि अभ्याङोम्मत्थ | अम्ह अम्हे अम्ह मम अम्हहं म्यसा अम्हे अम्हो अम्हेहि अम्हाहि अम्हेहि भिसा अयो चैत् अरि अर्जेढिप्पः अर्जेविढव ४.२६१ २३५ २.१४१ १०२ २.७८ ८६ २.१५५ १०५ २.८९ ८९ ४°३९६ २८३ १·११४ ३४ ४१०७ २०४ ४३८५ २७८ १.११ ८ ४०४१३ २९० २.२५ ७५ ४.३९९ २८५ ४.१६५ २१४ ३.७८ १५० ३.५ १२५ ४२८४ २४१ २२०८ १२१ ३.१०६ १५९ ३.११६ १६१ ४-३८० २७६ ३.१०८ १५९ ३.११० १५९ ४·३७८ २७६ १·१६९ ४५ १९१४४ ४० ४:५१ २३० ४.१०८ २०४ Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२६ अर्पेरल्लिवअलाहि निवारणे अवतरे रोह अवर्णावा अवर्णो यश्रुतिः अवश्यमो अवकाशो बाद्गाहे अवापोठे अविति हु अम्भो अव्ययम् अव्यो सूचना असावक्खोड: अस्मदो म्मि अस्येदे अहं वयमो आा अरा आ आमन्त्र्ये आ कृगो माक्रन्देर्णीहर: आक्रमेरोहा आक्षिपेर्णीख: आध्र राइग्घः आङा अहि आङा ओम आडो रभे आचायें आच्च गौरवे आजस्य आ सूत्रसूची ४.३९ १९१ आट्टो जानुआकश्मीरे २.१८९ ११५ ४.८५ २०० ४°२९६ २४६ १.१८० ४९ ४·४२७ ३०१ ४१.९ २१६ ४°२०५ २२१ १-१७२ ४५ ४.६१ १९५ २-१५७ २१२ २.१७५ ११२ २२०४ ११९ ४.१८८ २१८ ३.१०५ १५८ ४°४३३३०३ ४३०१ २४७ ३.४६ १४० ४.२६३ २३५ ४.२१४ २२३ ४.१३१ २०८ ४.१६० २१३ ४१४५ २१० ४.१३ १८६ ४.१६३ २१४ ४.१२५ २०६ ४१५५ २१२ १·७३ २५ १.१६३ ૪૪ ३.५५ १४३ अत्कृशा आत्तेश्व आत्मनष्टो आहडे: संनाम: आहते ढि आदेः आदेर्यो आदेः श्मश्रु आनन्त में आन्तान्ताड्डाः आपद्विपत् आम अभ्युपगमे आमन्त्र्ये आमो डाह आमो डेसि आमोहं आयुरप्सर आरभेराढप्प; आरः स्यादी आरुहेश्वड आरोपेवल: आर्यायां यः ओम् आलाने आलीङल्ली आल्बिल्लोल्ला आश्चर्ये आश्लिष्टे आ सौन इचेच: इ ४.३४२ २६२ TM १.१०० ३१ १.१२७ ३६ ४.३१९ २५३ ३.५७ १४४ ४°८३ १९९ १·१४३ ४०. १·३९ १७ १.२४५ ६३. २८६ ८९. २-१८८ ११५ ४·४३२ ३०३ ४४०० २८५ २·१७३ ११२ ४.३४६ २६४ ४०३०० २४६ ३.६१ १४६ ४°३३९ २६१ १.० १०. ४.२५४ २३२ ३.४५ १० ४°२०६ २२१ ४°४७ १९३ १-७७ २५ १.३ ४ २-११७ ९७ ४०५४ १९४ २१५९ १०६ २·६६ ८३ २·४९ ८० ३.४८ १४१ ४°३१८२५३ Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरण-सूत्रसूची ४२७ इञ्च मोमुइजेराः पादइणममाइत एद्वा इतेः स्वरात् ३.१८२ १८३ ३.२८ १३३ ३.४२ १३८ १.१५५ ४२ ३.५४ १४२ ३.६४ १४७ २.१५३ १०४ १.९२ २९ १.१२० ३५. १.०४ २५. १.५१ २० इतो तो इत्कृपादी इत्वे देतसे इत्सैन्धवइदम मायः इदम इयः इदम इमुः इदमर्थस्य इदमेतत् ईजिह्वा-- इदं किमश्च इदानीमो इदितो बा इदुतो दीर्घः इदुती वृष्टइदेती नूपुरे इदेदोद्इन्धी झा इर्जस्य णोइबृकुटी इवाथ नंइः सदादी इ: स्वप्मादी इहरा इतरथा इहहचो ३.१५५ १७४ ई च स्त्रियाम् २.२१७ १२३ ईतः सेश्चा। ३.५३ १४२ ई दूतोह्रस्व: १.८५ २७ ईद्धये १४२ १७ ईद्भिस्भ्य१.९१ २९ ईद्भ्यः स्सा १.१२८ ३६ ईयस्यात्मनो १.२०७ ५६ १.१४९ ४१ ईर्बोद्व्यूढे ४.३६५ २७० ईः स्त्यान३.७२ १४९ ई हरे वा ४.३६१ २६९ २.१४७ १०३ उअ पश्य ३.६९ १४८ उच्चाहंति २.१५७ १०५ उच्चर्नीच४.२७७ २३९ उच्छल ४.१ १८४ उज्जीणे ३१६ १२७ उतो मुकुला१.१३७ ३९ उत्क्षिपेर्गुल१.१२३ ३६ उत्सौन्दर्यादी १.१३९ ३९ उदष्ठकु२.२८ ७६ उदूदोन्मृषि ३.५२ १४२ उहत्वादी १.११० ३३ उदोद्वा४.४४४ ३०८ उदो मो १७२ २५ उद्घटेरुग्गः १.४६ १९ उधूलेगु ण्ठः २.२१२ १२२ उद्वातेरो४.२६८ २३७ उद्विजः उन्नमेरु३.१६० १७६ उपरेःसंव्याने १.११२ ३३ उपसर २.२११ १२१ २.१११ ९६ १.१५४ ४२ ४.१७४ २१६ १.१०२ ३२ १.१०७ ३३ ४.१४४ २१० १.१६० ४३ ४.१७ १८७ १.१३६ ३९. १.१३१ ३७ १.८२ २६ ४.८ १८६ ४.३३ १९० ४.२९ १८९ ४.११ १८६ ४.२२७ २२४ ई अइज्जी क्षुतेः ४.१३९ २०९ Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४२८ उपालम्भे उमो निषण्णे हनुमत् उल्लसे रूस उवर्णस्याव: उ: सास्ना क गर्हाक्षेपऊच्चोपे ऊत्वे दुभंग "ऊत्सुभग ऊत्सोच्छ्वासे ऊद्वासारे वही ऊः स्तेने ऋक्षे वा ऋणर्वृषभ ऋतामुदस्य ऋतोत् ऋतोवा ऋवर्णस्यारः “लत इलि: ए इस् एकशसो "एकस्वरे एक्क सरि एच्च क्त्त्वातुम् एकच देवे एच्छय्यादी ऊ ऋ ल ए सूत्रसूची ४.१५६ २१२ १. १७४ ४६ १.१२१ ३५ ४.२०२ २२० ४.२३३ २२६ १.७५ २५ २.१९६ ११८ १.१७३ ४६ १.१९२ ५२ १.११३ ३४ १.१५७ ४२ १.७६ २५ १.१०३ ३२ १.१४७ ४१ २.१९ ७४ १. १४१ ३९ ३.४४ १३९ १.१२६ ३६ ३.३९ १३७ ४.२३४ २२६ १. १४५ ४० ४.३६३ २७० ४.४२८ ३०१ २.११४ ९७ २.२१३ १२२ ३.१५७ १७५ १.१५३ ४२ १.५७ एट्टि एहि एताहे एत इद्वा एतद : स्त्री एतः पर्यन्ते एव एत् त्रयोदशादी एत्थु कुत्रा एल्पीयूषा - एदोतो एद्ग्राह्य एप्येपिण्ये - एं चेदुतः एम्बहि एरदीती एवं परं - एवार्थेय्येव ऐत एव ओच्च दिवधा ओतोद् वान्यो ओस्कूष्माण्डी ओप ओत्पूतर - ओत्संयोगे ओदाल्यां पङ्क्तौ ओ सूचना औत ओत् २१ ककुदे हः ऐ ओ औ क ४.३३३ २५९ २.१३४ १०० १. १४६ ४० ४.३६२ २७० २.६५ ८३ ३.१२९ १६५ १.१६५ ૪૪ ४.४०५ २८७ १. १०५ ३२ १.७ १.७८ २६ ४.४४० ३०६ ४.३४३ २६२ ४.४२० २९४ ३.८४ १५२ ४.४१८ २९१ ४.२८० २४० १. १४८ ४१ १.९७ ३० १.१५६ ४२ १.१२४ ३६ १.६१ २२ १.१७० ४५ १.११६ ३४ १.८३ २७ २.२०३ ११९ १.१५९ ४३ १.२२५ ५९ Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरण-सूत्रसूची ४२९ ककुभो हः क ग च जक गट डकथंयथाकथेर्वज्जरकदम्बे वा कथिते कदल्यामकन्दरिकाकबन्धे मयो कगि हुवः कम्पेविच्छोलः करवीरे करेणूवाराकणिकारे कश्मीरे काङ्क्षराहाकाणेक्षिते कादिस्थदोकान्तस्यात कार्षापणे किणो प्रश्ने किमः कस्त्र किमः काईकिमः कि किमो डिपो किमो डिहे कितद्भ्यां कियत्तदो-~कियत्तद्भ्यो किंशुके वा किराते चः किरिभेरे किरेर हिर क्ते १.२१ १. किलाथवा१.१७७ ४७ किसलय२.७७ ८६ कुतस: कट ४.४०१ २८५ कुतूहले ४.२ १८४ कुब्जकपर१.२२२ ५९ कूष्माण्डयां १.२२४ ५९ कृगमो १.२२० ५९ कृगेः कुणः २.३८ ७८ कृगो डीरः १.२३९ ६३ कृत्तिचत्वरे ४.४४ १९२ कृत्वसो हुत्तं ४.४६ १९२ कुदो हं १.२५३ ६५ कृषेः कड्ढ२.११६ ९७ कृष्ण वर्णे २.९५ ९२ कैटभे भो २.६० ८२ कौक्षेयके ४.१९२ २१९ ४.६६ १९६ क्तेनाप्फुण्या४.४१० २८८ क्ते हूः ४.३५४ २६७ क्त्व दूउइवि२.७१ ८४ क्त्वईयदूणी २.२१६ १२२ क्त्वस्तुमत्तूण३.७१ १४९ क्त्वस्तून: ४.३६७ २७१ क्त्वातुम्तव्येषु ३.८० १५१ क्त्वास्यादे३.६८ १४८ क्यङोयलुक् ४.३५६ २६७ क्यस्येय्यः ३.६२ १४६ क्रपोवहो क्रियः किणो ३.६३ १४६ क्रियातिपत्तः १.८६ २८ क्रियेः कौसु . १.१८३ ५० क्रुधेर्जूरः । १.२५१ ६५ क्लीबे जस्शसो २.१८६ ११४ क्लीबे स्यमे ४.४१९ २९३ १.२६९ ६८. ४.४१६ २९१ १.११७ ३५. १.१८१ ४९. २७३ ८५ ४०२७२ २३८. ४.६५ १९६ ४.३१६ २५३ २.१२ ७२ २.१५८ १०६ ६.१७० १७८. ४.१८७ २१८ २.११० ९६ १.२४० ६३ १.१५१ ४३ ३.१५६ १७४. ४°२५८ २३३ ४°४३९ ३०६. ४.२७१ २३८ २.१४६ १०३. ४.३१२ २५२ ४.२१० २२२ १.२७ १२ ३.१३८ १६८. ४.३१५ २५२ ४.१५१ २११ ४.५२ १९३ ३.१७९ १८२ ४.३८९ २८. ४.१३५ २०८ ४.३५३ २६७. ३.७९ १५१ Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३० सूत्रसूत्री ४.१८९ २१८ १.१५८ ४३ क्लीवे स्वराक्वचिद् द्वितीयादेः क्वथवर्धा क्वथेरट्टः क्विपः क्षः खः क्वचित्त क्षण उत्सवे क्षमायां को क्षरः खिरक्षस्यक: क्षिपेगलक्षुदो हा क्षभे खतरक्षुरे कम्मः क्षेणिज्झरो क्ष्माश्लाघाश्वेटकादी ३.२५ १३२ गवेषेढुण्डुल्ल३.१३४ १६७ गव्य उआमः। ४२२० २२४ गुणाद्याः क्लीबे ४.११९ २०६ गुप्येविर३.४३ १३९ गुरी के वा २.३ ७० गुर्वादेरविर्वा २.२०७४ गृहस्य घरो२.१८ ७३ गोणादयः ४.१७३ २१५ गौणस्येषत ४.२९६ २४५ गौणान्त्यस्य ४.१४३ २१० ग्मो वा ग्रन्थेगण्ठः ४.१५४ २११ ग्रसेघिसः ४.७२ १९७ ग्रहेगृहः ४.२० १८८ आहेर्धेप्पः २.१०१ ९३ ग्रहो वल ४.१५० २११ १.१०९ ३३ ३.१५० १५२ २.१४४ १०२ २.१७४ ११० २.१२९ ९९ १.१३४ २८ २.६२ ८२ ४.१२० २०६ ४२०४ २२१ ४.३९४ २८१ ४.२५६ २३२ ४.२०९२२२ १.१८७ ५१ खघषधखचितपिशाखचे अडः खादधावोखिदेर्जूर घइमादयोघन वृद्धघटेगढः घटेः परिवाडः घूर्णों घुल ४'४२४ ३०० १.६८ २४ ४.११२ २०४ ४.५० १९३ ४.११७ २०५ ४.८९ २०० ४.२२८ २२५ ४.१३२ २०८ गमादीनां गमिष्वमासां गमेरईगमेरेप्पिगर्जेर्बुक्कः गत डः गर्दभे वा गभितातिमुक्तके गवये वः अणनो ४.२४९ २३१ ङसः सुहो४२१५ २२३ उसः स्सः ४.१६२ २१३ सिड-सोः ४.४४२ ३०७ सिडस्भ्यां ४.९८ २०२ सिम्यस्२.३५ ७८ ङसेस्तोदो२.३७ ७८ डसेम्ही १.२०८ ५६ ङसेलुक् १.५४ २१ सेहेंहू १.३५ ११ ४.३३८ २६१ ३.१० १२६ ३.२३ १३१ ४.३७२ २७४ ४३४१ २६२ ३.८ १२५ ३.६६ १४७ ३.१२६ १६५ ४.३३६ २६० Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरण ४३१ उस्ङस्योहे डिनेच्च डोहे हेमेंम .: स्सिम्मिडेहि हिं ३.२२ १३० ३.४ १२४ ४.३६९ २७२ ३.५० १४१ ३.१२ १२६ ४.८० १९९ ४.४ १८५ २.१८३ ११३ ३.१५९ १६५ ३.१६५ १७७ ४.७ १८५ २.८३ ८८ ४.३.३ २४९ चतुरश्चत्तारो चतुरो वा चतुर्थ्याः षष्ठी चन्द्रिकायां चपेटापाटी चाटौ गुललः चिजिश्रुहुचिह्न न्धो वा चूलिकापैशाचिके ४.२५२ २३१ २.११५ ९७ ४.३५० २६५ जस्शसोर्णो ४.३३४ २५९ जसशसोलुक ३.६५ १४७ जस्शसोस्तुम्हे ३.१२८ १६५ जस्शस्ङसिङसां ३.७५ १५० जसशस्ङसित्तो३.५९ १४५ जाग्रेजग्गः ३.३५२ २६६ जुगुप्सेझण४.६५७ २६८ जेण तेण ज्जा जे ३.१२२ १६२ ज्जात्सप्तम्या ३.१७ १२८ ज्ञो जाणमुणो ज्ञो नः १.१८५ ५० ज्ञो नः पैशाच्याम् १.१९८ ५३ ज्ञो णत्वे भिज्ञादौ ४.७३ १९८ ज्ञो णवणज्जी ४.२४१ २२८ ज्यायामोत् २.५० ८० ४.३२५ २५५ टा आमोर्णः ४.२१ १८८ टाङ-स्डे४०२९५ २४५ टाङ्यमा पई १.१९१ ५२ टाङ्यमा मई १.२४९ ६४ टाणशस्येत् ३.३४ १३६ टो डः ४२१६ २२३ टो णा ४.१२४ २०६ टो णा २.१७ ७३ टोस्तु, पृष्ठयोस्ट: ११९४ ५२ ४२९२ ४४ ठो ढः ४.१३६ २०८ ठोस्थिविसंस्थुले ३.२६ १३२ ४.३७६ २७५ डाहयौ कतिपये टए छदेणणुमअस्य श्चोनादी छागे ल: छायायां होकान्ती छायाहरिद्रयोः छिदिभिदो छिदेदुंहावछोक्ष्यादी ४.३४९ २६५ ३.६ १२५ ३.२९ १३४ ४.३७० २७३ ४.३७७ २७५ ३.१४ १२७ १.१९५ ५३ ३.३४ १३१ ३.५१ १४२ ४.३११ २५१ ४.२९० २४३ जटिले जो जधयां यः जनोजाजम्भी जस्शस इजस्शसोरम्हे २.३२ ७७ १.२५० ६५ Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रसूची डिल्ल डुल्ली डे म्मि : डो दी? वा डोल: ड्मक्मोः णइ चेअ णं नन्वर्थ णवर केवले णवि वैपरीत्ये णे णं मि णे णो मज्झ णेरदेदावावे णो नः णोम्शस्टा तइतुतेतइतुवतक्षेस्तच्छतक्ष्यादीनां तगरत्रसरतडेराहोडततस्तदोस्तोः तदश्च तः तदिदमोष्टा तदो डोः तदो णः तदोस्तः तनेस्तडतन्वीतुल्येषु तं तुं तुम तं वाक्योपतव्यस्य इएव्व २.१६३ १०७ तस्मात्ताः ३.११ १२६ तादर्थ्या ३.३८ १३७ तादर्थ्य केहि१.२०२ ५४ ताम्राने म्बः २.५२ ८० तिजेरो सुक्कः तित्तिरी रः २.१८४ ११४ तियंचस्ति४.२८३ २४१ तिष्टश्चिष्ठः २.१८७ ११५ तीक्ष्णे णः २.१७८ ११२ तीर्थे हे ३.१०७ १५९ तुच्छे तश्चछी ३.११४ १६० तुडेस्तोड३.१४९ १७२ तु तु वतुम४३०६ २५० तुब्भतुय्हो३.७७ १५० तुम ए वभ तुमे तुमए ३.९९ १५७ तुम्हासु सुपा तुम्ह तुब्भ ४.१९४ २१९ तुरोत्यादी ४.३९५ २८१ तुले रो हामः १२०५ ५५ तु वो भे। ५.२१ १८९ तृतीयस्य मिः ४.११७ २०५ तृतीयस्य भो३.८६ १५३ तृनोण अः ४.३२२ २५४ तृपस्थिप्पः ३-६७ १४८ तेनास्तेरा३.७० १४८ तैलादी ४.३०७ २५० तो दोनादौ ४.१३७ २०९ तो न्तरि २११३ ९६ तो दो तसो ३.९२ १५५ त्थे च तस्य २.१७६ ११२ त्यदाद्य व्ययात ४४३८ ३०५ त्यादिशत्रो ४.२७८ २३९ ३.१३२ १६६ ४.४२५ ३०० २०५६ ८१ ४.१०४ २०३ १.९० २९. २.१४३ १०२ ४.२९८ २४६ २.८२ ८८ १.१०४ ३२ १.२०४ ५५. ४११६ २०५. ३.१०२ १५८. ३.९८ १५६. ४.४४१ ३०७ ३.१०१ १५७ ४.३७४२७४ ३९७ १५६ ४.१७२ २१५ ४.२५ १८६ ३.१०० १५७ ३.१४१ १६९ ३.१४४ १७० ४.४४३ ३०८ ४.१३८ २०९ ३.१६४ १७७. २.९८ ९२ ४२६. २३४ १.६० २२ २१६० १०७ ३८३ १५२ १४. १७ ४१७१ २१५ Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरण-सूत्रसूची १२६३ ६७ १.२२३ ५९ १. ४४ २.९१ ९१ त्यादीनामात्यादेः त्यादेराद्यत्योचंत्ये अपी हिहत्याः असेडरत्रस्तस्य हिस्थत्रस्य उत्तहे स्तिणिः त्रेस्ती तृतीयादौ क्तलोः स्वथ्वद्वध्यां त्वरस्तुवरस्वस्थ हिमात्वादेः सः थ ३.१३९ १६८ दिवसे सः १.९ ७ दीपो धो वा ४.३८२ २७७ दोघंह्रस्वी २.१३ ७२ दीर्घ वा २.१६१ १०७ दुकूले बा ४.१९८ २२० दुःखदक्षिण२.१३६ १०० दुःखे णिब्बरः दुःखे णिव्बलः ३.१२१ १६२ दुर्गादेव्युदु३.११८ १६१ दुरे दोणि ४.४३७ ३०५ दु सु मु २.१५ ७२ दुहित४.१७० २१५ २.१५४ १०५ दूडो दूमः दृप्ते २.१७२ १०९ दृशः विप् दृशस्तेन २.९ ७१ हशिवचे२.२०० ११८ दृशेः प्रस्सः ४.२६७ २३७ दृशेव दृशो निअच्छा१.४५ १९ २.४० ७८ दे संमुखी१.२१८ ५८ दोले रखोल: २.१३९ १०१ धूनत्थूनी २२१५ १२२ घय्यर्यां जः ४.१०६ २१६ द्रे रो न वा १.२१७ ५८ द्वारे वा १.२६२ ६७ द्वितीयतुर्य२८५ ८९ द्वितीयस्य ४.२०८ २२१ द्वितीया४.२४६ २३० दिवन्योरुत् १.१९ ९ द्विवचनस्य ४.२७३ २३८ द्वैर्दोवे २७२ ८४ ४.३ १८४ ४.९२ २०१ १.२७० ६९ ३.१२. १६२ ३.१७३ १८० २.१२६ ९९ ४२३ १८८ २.९६ ९२ १.१४२ ४. ४२१३ २२२ ३.१६१ १७६ ४३९३ २८१ ४.३२ १९० ४१८१ २१७ २.१९६ ११७ ४.४८ १९३ ४.३१३ २५२ २.२४ ७५ २८. ८८ थठावस्पन्दे थू कुत्सायाम् थो धः दक्षिणे हे दन्धविदग्धदंशदहोः दंष्ट्रायादाढा दरार्धाल्पे दलिवल्योदशनदष्टदशपाषाणे दशाह दहेरहिऊलादहो ज्झः दिक्षावृषोः दिरिचेचोः २८ प्रा. व्या. २.९० ३१४. १६९ ३.१३५ १६७ १.९४ ३० ३.१३० १६६ ३.११९ १६२ Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३४ सूचसूची धनुषो वा पवलेईंमः धातवोधाश्याम् घूगे—धः धृतेदिहिः धृष्टद्युम्ने धयें वा ध्यागो-ि ध्वजे वा ध्वनिविष्व १.१८६ ५. ४.१२ १८६ १.२३. ६. ४.१२८ २०७ १.१३८ ४.१९ १८७ ४.५५ १९४ १.१३२ ३८ ४.२२ १८८ न कगचन त्थः न दीर्घानुन दौों णो नमस्कारन युवर्णस्यास्वे म वा कर्मन वानिदन वा मयूखन वा र्यो य्यः नशेणिरणासमशेविउडन श्रदुदोः नात आत् मात्पुनर्यानादियुज्योनामन्त्र्यात् नाम्न्यरं घा नाम्न्यरः नावात्पः नाव्यावः निकषस्फटिक१.२२ १० निद्रातेरो ४.२४ १८८ निम्बनापिते ४.२५९ २३३ निरः पदे २.८१ ८८ निर्दुरोर्वा ४५९ १९ निर्मो निम्माण २.१३१ १०० निलीडे२.९४ निवृत्त२.६४ ८२ निविपत्यो४.६ १८५ निशीथ२२७ निःश्वसे१.५२ २० निषधे धो निषेधेहक्कः ४.३२४ २५५ निष्टम्भाव७६ १५० निष्पाताच्छोटे २.९२ ९१ ३.१२५ १६४ निष्प्रती ओत् १.६२ २२ निस्सरेणीहरनींडपीठे नौपापोडे ४.२४२ २२९ नेः सदो मज्जः ३.६० १४५ १.१७१ ४५ नो णः ४२६६ २३६ न्त माणी र्मों मः ४.१७८ २१६ ४.३१ १९० न्यण्यज्ञर्जा न्यण्योञ्जः ५.१२ ८ ३.३० १३५ न्यसो णिम१.६५ २३ ४.३२७ २५६ पक्वाङ्गार३.३७ १३० पक्ष्मश्मष्म३.४० १३८ पचे सोब्ल ३°४७ १४१ पञ्चम्यास्तृतीया १.१७९ ४९ पञ्चाशत्१.१६४ ४४ पथिपृथिवी ४.२०१ २२० १.२२६ ६० ४.१३४ २०८ ४.६७ १९६ ४.७१ १९७ १.३८ १६ ४.७९ १९९ ११०६ ३२ १.२३४ ६१ ४१२३ २०६ १.२२८ ६० ३.१८० १८२ २.६१ ८२ ४२९३ २४४ ४.३०५ २५० ४.१९९ २२० १४७ १९ २०७४ ४.९० २०१ ३.१३६ १६७ २.४३ ७९ १.८८ २८ Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पथोण्यस्येपदयोः संधिर्वा पदादपेर्वा पदान्ते जं पद्मछद्म परराजभ्यां परस्परस्यादिर: पसः पलोट्ट पर्यस्तपर्याण पर्यस्ते थटो पर्याण डा पलिते वा पश्चादेव पाटिपरुष पानीयादि पापद्धौं रः पारापते पिठरे हो पिबेः पिज्ज - विषेण वह : पीठे वो ले पुजे रोल पुणरुत्तं पुनर्विन: पुन्नाग पुंसि जसो पुंस्त्रियोर्न पुंस्यन आणो पुरुष रो पूरेग्वाडा पूर्वस्य पुरवः पूर्वस्थ पुरिम: पृथक धो पृथक् स्पष्टे प्राकृतव्याकरण- सूत्रसूची २.१५२ १०४ १५ ५ *४१ १७ ४*४११ २८९ २·११२ ९६ २ १४८ १०३ ४०४०९ २८८ ४.२०० २२० २.६८ ८३ २.४७ ७९ १-२५२ ६५ १२१२ ५७ ४·४२० २९४ १२३२ ६. १ १-१०१ ३१ १२३५ ६१ १.८० २६ १·२०१ ५४ ४१० १८६ ४·१८५ २१८ १·२१३ ५७ ४१०२ २०३ २.१७९ ११९ ४४२६ ३०१ १-१९० ५२ ३-२० १९९ ३७३ १४९ ३.५६ १४३ १·१११ ३३ ४.१६९ २१५ ४.२७० २३७ २१३५ १०० १.१८८ ५२ ४.६२ १९५ पृष्ठे वानुत्तर पो वः प्यादयः प्रकाशेंतः प्रच्छः पृच्छः प्रतीक्षः सामय प्रत्यये ङीनं प्रत्याङा पलोट्टः प्रत्यादी डः प्रत्यूषे प्रत्येकम: प्रथमे पथोव प्रदीपिदोहदे प्रदीपेस्तेअव प्रभूते वः प्रभो हुप्पो प्रवासौक्षी प्रविशे रिभः प्रसरे: पयल्लोप्रस्थापेः पट्ठव प्रहृगेः सारः प्रादेर्मीले प्रान्मृशनुषो: प्रायसः प्राउ प्रावरणे प्रावृट्शरप्लक्षे लात् प्लावेरोम्वाल फक्कस्थक्कः फो भही बन्धो न्धः फ ब ४३५ १.१२९ १०२३१ ६० २.२१८ १२३ ४.४५ १९२ ४९७ २०२ ४.१९३२१९ ३.३१ १३५ ४·१६६ २१४ १.२०६ ५५ २·१४ ७२ २.२१० १२१ १-५५ २१ १.२२१ ५९ ४.१५२ २११ १·२३३ ६१ ४.६३ १९५ १*२५ ३० ४·१८३ २१७ ४७ १९८ ४.३७ १९१ ४.८४ २०० ४२३२ २२६ ४.१८४ २१७ ४-४१४२९० १-१७५ १·३१ ४६ १३ २०१०३ ९४ ४°४१ १९२ ४८७ २०० १·२३६ ६२ ४°२४७ २३० Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३६ बले निर्धारण - हि सो बाहि बहुबेहु बहुत्वे हु: बहुलम् बहुषु बहुष्वाद्यस्य बाष्पे होण बाहोरात् बिसिन्यां भः बुभुक्षि वीज्यो वृहस्पति बृहस्पती बो वः भो दुहलिह भो म्ह ज्झौ ब्रह्मचर्य - ब्रह्मचर्ये ब्रूगो ब्रुवो भजे मयभवद्भगवतो: भविष्यति स्सि: भविष्यति हिरादिः भविष्यत्येय्य भवेमुक्क: भस्मात्मनोः भाराक्रान्ते भावेभिसः fभयो भाबीहौ भिसा तुम्हहि भिसो हि भिस्म्यस्सुपि भ सूत्रसूची २.१८५११४ २१४० १०१ ४*३८६ २७९ ४.३८४ २७८ १.२ ४ ३.१७६ १८१ ३.१४२ १६९ २.७० ८४ १·३६ १६ १-२३८ ६२ ४.५ १८५ २.६९ ८४ २.१३७ १०१ १·२३७ ६२ ४:४५ २३७ ३.१०४ १५८ २०६३ ८२ १-५९ २२ ४.३९१ २८१ ४.१०६ २०३ ४.२६५ २३६ ४.२७५ २३९ ३.१६६ १७७ ४.३२० २५४ ४*१८६ २१८ २.५१ ८० ४·१५८ २१२ ४·२०३२३१ ४°५३ १९४ ४.३७१ २७३ ३७ १२५ ३.१५ १२७ भिस्येद्वा भिस्सुपोहिं भीष्मे ष्मः भुजो मुञ्ज भुवः पर्याप्तौ भुवेर्हो - भुवो भः भे तुन्भे भेतुभे भेतुभेहि भेदि दे म्यसश्च हि: भ्यसस्तोदो म्यसामोहु म्य साम्भ्यां भ्यसि वा यसो हु भ्रमरे सो भ्रमे राढो मेष्टिरि प्रस्तालि भ्रंशे: फिड - भ्रुवो मया स मइमम मणे विमर्शे मण्डेविश्व मधूके वा मध्यत्रय मध्यमकत मे मध्यमस्ये मध्याह्नेहः मध्ये च स्वरान्ता--- ४·३३५ २६० ३ ३४७ २६४ २.५४ ८१ ४१६० २०४ ४०३९० २८० ४.६० १९५ ४.६९ २३७ ३९१ १५४ ३.९१ १५४ ३.९५ १५५ ३.९४ १५५ ३·१२७ १६५ ३.९ १२५ ४.३५१ २६६ ४०३७३ २७४ ३.१३ १२६ ४-३३७ २६० १२४४ ६३ ३.१५१ १७३ ४* १६१ २१३ ४.३० १८९ ४१७७ २१६ २.१६७ १०९ ३१११ १६० २२०७ १२१ ४.११५ २०५ १.१२२ ३५ ४३८३ २७७ १.४८ २० ३.१४३ १७० २.८४ ८९ ३.१७८ १८२ Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरण-सूत्रसूची ४३७ ममाको न मन्येधुंसलमन्मथे वः मन्युनौष्ठमन्योन्तो वा ममाम्ही भ्यसि मयट्यइर्वा मरकतमदमलिनोभयमसृणमृगाकमस्जेराउङ्डमहमहो महाराष्ट्र महाराष्ट्रहरोः महु मज्म भाई मार्थे मातुरिद्वा मातृपितुः मात्रटि वा मामिहला मांसादिष्वमांसादे मार्जारस्य मि मइ ममाइ मि मे मम मि मो मु मे मिमो मैम्हिमिरायाम् मिव पिव मिश्राड्डालिमः मिश्रेर्वीसालमुछड्डामुः स्यादी २.१६९ १०९ मुहेगुम्म४.१२१ २०६ मृजेरुग्धुस१.२४२ १३ मृदो मल४.६९ १९७ मेथिशिथिर२.४४ ७९ मे मइ मम ३.११२ १६० मेः स्सं १५० २० मोनुनासिको १.१८२ ५० मोनुस्वारः २.१३८ १०१ मोन्त्याण्णो १.१३० ३७ मोमुमानां ४.१०१ २०३ मोरउल्ला ४.७८ १९८ मो वा १.६९ २४ मी वा २.११९ ९८ म्नज्ञोणः ४:३७९ २७६ म्मश्चेः २.१६१ ११५ म्मावयेऔ १.१३५ ३८ म्रक्षेश्वोप्पडः २.१४२ १०२ ब्लेपिव्या१.८१ २६ म्हो म्भो वा २.१९५ ११६ यत्तत्किम्भ्यो १.२९ १२ यत्तदः स्यमो२.१३२ १०. यत्तदेतदो३.११५ १६१ यत्रतत्र३१.९ १५९ यमुनाचामुण्डा३.१६७ १७८ यष्ट्यां खः ३.१४७ १०१ यादृक्ताह१.८७ २८ याहशादे२.१८२ ११३ यापेजवः । २.१७० १०९ यावत्ताव४२८ १८९ यावत्तावतो४.९१ २०१ युजोजुञ्ज३.८८ १५३ युधबुध ४.२०७ २२१ ४.१०५ २०३ ४.१२६ २०७ १.२१५ ५८ ३.११३ १६० ३१६९ १७८ ४.३९७ २८४ १२३ १० ४.२७९ २३९ ३.१६८ १७८ २.२१४ १२२ है.२६४ २३६ ३.१५४ १७४ २.४२ ७९ ४२४३ २२९ ३.८९ १५४ ४.१९१ २१९ ४.१८ १८७ ४.४१२ २८९ य ४.३५८ २६८ ४.३६. २६९ २.१५६ १०५ ४४०४ २८७ १.१७८ ४८ १२४७ ६३ ४४०२ २८६ ४३१७ २५३ ४.४० १९१ १.२७१ ६९ ४०४०६ २८७ ४.१०९ २०४ ४२१७ २२३ Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३८ युधिष्ठिरे युवर्णस्य युष्मदस्तं युष्मदस्मयुष्मदः सौ युष्मदादे युष्मद्यर्थ योगजाश्चषाम् रक्ते गो वा रचेहग्ग रजे रावः रमेः संखुड्ड सोलंशो रस्य लो वा रहो: राजेरग्ध राज्ञः राज्ञो वा चिव् रात्री वा रि: केवलस्य रुते रुख रुदनमो रुदभुज रुदिते दिना धेरुत्थंधः रुधो न्धम्भो रूपादीनां रे अरे रो दीर्घात् रोमन्थेरो रोरा सूत्रसूची १९६ ४२३७ २२७ ३.९० १५४ २.१४९ १०४ ४ ३६८ २७२ ४*४३४ ३०४ १·२४६ ६४ ४.४३० ५०२ २.१० ७२ ४९४ २०१ ४°४९ १९३ ४.१६८२१५ ४.२८८ २४२ ४.३२६ २५६ २ ९३ ९१ ४१०० २०२ ३.४९ १४१ ४°३०४ २५० २८८ ८९ १·१४० ३९ ४.५७ १९४ ४.२२६ २२५ ४.२१२ २२२ १२०९ ५६ ४.१३३ २०८ ४.२१८ २२३ ४.२३६ २२७ २.२०१ ११८ २·१७१ १०९ तस्यार्ता - नष्ट लुकि दुरो लुकि निर: शर्षतप्त - श्रीही लघुके लहोः ललाटे च ललाटे लडो : लस्जेर्जीह: लात् लाहल - लिंगमतन्त्रम् लिपो लिम्प: लूक् लुगावी क्त लुग् भाजन लुप्तयरबलुप्तेश सि लुभेः संभाव: लोष्ठः ल्लो नवैका वक्रादावन्तः वचो बोत् वर्वेहब - वणे निश्चय - वतेब्वंः वधाड्डाइ ४४३ १९२ वनिताया १-१६ ९ वन्द्रखण्डिते ल व २.३० ७५ ४.३१४२५२ १.११५ ३४ १९३ २९ २.१०५ ९४ २·१०४ ९४ २.१२२ ९८ १·२५७ ६६ २*१२३ ९८ ४.१०३ २०३ २.१०६ ९५ १·२५६ ६६ ४०४४५ ३०९ ४*१४९ _२११ ११० ३.१५२ १७३ १·२६७ ६८ १°४३ १८ ३.१८ १२८ 6) ४.१५३ २११ ४०३०८ २५१ २.१६५ १०८ १.२६ ११ ४.२११ २२२ ४·९३ २०१ २.२०६ १२० २·१५० १०४ ३.१३३ १६६ २·१२८ ९९ १·५३ २० Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतव्याकरण-सूत्रसूची ४११८ २०५ ४१५९ २१३ ४४२१ २९५ १.२४१ ६३ ४.१२९ २०७ ४.७५ १९८ ३.१ १२४ २.१२७ ९९ २.२९ ७६ २.१५ ७३ वर्गेन्त्यो वा पर्तमानापञ्चमीवर्तमानाभविबत्स्वतिस्यस्य वल्लयुत्करवा कदले वाक्ष्यर्थवचवादसोदस्य वादेस्तावति वादी वाधो रो लुक वा निर्झरे वान्ययोनुः वाप ए वा बृहस्पती वाभिमन्यो वा यत्तदोबापों बालाब्वरण्ये वा विह्वले वाव्ययोत्खाबा स्वरेमश्च विकसे: बिकोशेः विगलेस्थिप्पविज्ञपेर्वोक्कावितस्तिवसतिविद्युत्पत्रविशत्यादेविरिचेरोविलपेझंङ्ख विलीविरा १.३० १३ विवृतेढसः ३.१५८ १७५ विधमेणिव्वा ३.१७७ १८१ बिषण्णोक्त४.१८८ २८. विषमे मो १५८ २२ विसंवदे१.१६७ ४४ विस्मुः पम्हुस वीप्स्यात्स्यादे३.८७ १५३ वृक्षक्षिप्त४२६२ २३५ वृत्तप्रवृत्त१.२२९ ६० ४.३९८ २८४ वृश्चिकेश्चे१.९८ ३१ वृषभे वा ४.४१५ २९१ वृषादीना३.४१ १३८ वृषे ढिक्कः १.१३८ १३९ वेणी णो वा १ २४३ ६३ वेत्तः कणिकारे ४.४०७ २८८ वेदंकिमो १.६३ २२ वेदंतदे१.६६ २३ वेपेराय२.५८ ८१ वेभाञ्जल्याद्याः १.६७ वेव्ध च १.२४ १. वेव्वे भय वेष्ट: ४.४२ १८२ वेष्टे: परि४.१७५ २१६ बैकादः सि ४.३८ १९१ वैडूर्यस्य १.२१४ ५७ वैतत्तदः २.१७३ ११० वैतदो ङसे१.२८ १२ वैरादी वा ४.२६ १८९ बसेणमि-. ४.१४८ २१० वो नुज्झ ४.५६ १९४ वोतो डवो ४०२३५ २२७ ४.९९ २०२ १.२०॥ ५५ १.१६८ ४४ ४.४०८ २८८ ३.८१ १५१ ४१४७ २१० . . २.१९३ ११६ ४.२२१ २२४ ४.५१ १९३ २.१६२ १०७ २.१३३ १०० ३.३ १२४ ३.८२ १५२ १.१५२ ४२ ३.८५ १५२ ३.९३ १५५ ३.२१ १३० Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४. सूत्रसूची बोत्तरीबावोत्साहे थो वोदः वोपरी वोपेन कम्मव वो वोषधे व्यखनादव्यञ्जनादीव्यत्ययश्च व्याकरण व्यापेरो अग्गः व्याप्रेरा अड्डः व्याहृगे: कोक्कव्याहगेर्वा व्रजनृतव्रजेवुनः ब्रजो जः १२६६ ६८ १.१८४ ५० ४.४२२ २९५ २.१४५ १०२ २.११ ७२ २.५ ७१ १.१८९ ५२ ४२८६ २४१ ४.३२८ २५७ १.२४८ ६४ शिरायां वा २.४८ ८० शीकरे भही ४२२३ २२४ शीघ्रादीनां १.१०८ ३३ शीलाधर्थ४.१११ २०४ शुल्के ङ्गो वा २.५९ ८२ शुष्कस्कन्दे १.२२७ ६० शृङ्खले खः ४२३९ २२८ शेष प्राकृतवत् ३.१६३ १७७ शेषं प्राग्वत् ४.४४७ ३१० शेषं शौरसेनीवत् १.२६८ ६८ शेषं शौरसेनीवत् ४.१४१ २०९ शेषं संस्कृतवत् ४.८१ १९९ शेषेदन्तवत् ४.७६ १९८ शैथिल्यलम्बने ४.२५३ २३२ शौरसेनीवत् ४.२२५ २२५ श्चो हरिश्चन्द्र ४.३६२ २८१ श्यामाके मः ४२९४ २४५ श्रदो धो दहः श्रद्धधिमूर्धा ४२३. २२६ श्रमेवावम्फः ४.८६ २०० श्रुगमिरुदि२.२ ७. श्रुटेहणः ३.१८१ १८३ श्लाघः सलहः ४.१३० २०८ श्लिषेः सामग्गा२.१६८ १०९ श्लेष्मणि वा १.२५८ ६६ ४.१६७ २१४ १.१८ ९ षट्शमी१.२६० ६७ षष्ठ्याः ४.३०९ २५१ कस्कयो२.१०० ९३ ष्टस्यानुष्ट्र१.८९ २८ पस्पयोः फः ४.३२३ २५५ ४.४४८ ३११ ३.१२४ १६३ ४.७० १९७ ४४४६ १० २.८७ ८९ १.७१ २५ २.४१ ७८ ४.६८ १९७ ३१७१ १७८ ४५८ ११४ .८८ १०० ४.१९० २१८ १.५५ ८१ शकादीनां शकेश्चयशक्तमुक्तशत्रानशः शदो झडशनैसो डिवं शबरे बो शमेः पडिसाशरदादेरत शषोः सः शषोः सः शार्गे ङात् शिथिलेङगुदे १.१६५ ६८ ४.३४५ २६३ २. ४ ७० २.३४ ७७ २.५३ Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सङ्ख्या गद्गदे सङ्ख्याया आमो सटाशकट सदपतोर्डः सन्तपेङ्खः सन्दिशेर पाहः सप्ततौरः सप्तपर्णे बा सप्तभ्या द्वितीया समनूपा - समः स्त्यः खाः समा अग्भिः समापेः समारचे समासे बा समो गलः समाणः समोल्लः सम्भाबेरा सम्मर्दविर्तादि संयुक्तस्य संबृगेः साहर समंत्र लब सर्वस्थ साहो सर्वाङ्गादी सर्वादिङसे - सषोः संयोगे साध्वसध्य सामन्यत्सुको साबस्मदो सिचेः सिश्व सिनास्ते: सिः सी ही हीअ स प्राकृतिक व्याकरण - सूत्र सूची १·२१६ ५८ ३.१२३ १६२ १.१९६ ५३ ४२१९ २२४ ४*१४० २०९ ४१८० २१७ १.२१० ५७ १४९. २० ३.१३७ १६८ ४°२४८ २३० ४.१५ १८७ ४१६४ २१४ ४°१४२ २०९ ४९५ २०२ २.९७ ९२ ४.११३ २०५ ४.२२२ २३४ ४°३५ १९० २·३६ २.१ ४.८२ २.७९ ४ ३६६ २७१ २.१५१ १०४ ४.३५५ ६७ ४.२८९ २४३ २.२६ ७६ २.२२ ७५ ४.३७५ २७५ ४°९६ २०२ ३.१४६ १७१ ३.१६२ १७६ ७८ ७० १९९ ८७ सुपा अम्हासु सुपि सुपि सूक्ष्मश्नष्ण सृजोर: सेवादी वा सैन्ये वा सोच्छादय सोहि सौ पुंस्योदवा स्कः प्रेक्षाचक्षोः स्तब्धे ठडौ स्तम्भे तो वा स्तवे वा स्तस्यथो स्तोकस्य स्त्यानचतुर्था स्त्रिया इत्थी स्त्रियामाद स्त्रियामुदोतो त्रियां जस् स्त्रियां डहे स्त्रियां तदन्ता स्थर्थयोस्त: स्थविरविच स्थष्ठाथक्क स्थाणावहरे स्थूणातू स्थूले लोर: स्नमदाम- स्नातेरब्भुत्तः स्निग्धे बादिती ४.३८१ २७७ ३.१०३ १५८ ३.११७ १६१ २.७५ ८५ ४२२६ २२५ २९९ ९३ १.१५० ४ १ ३.१७२ १७९ ३.१७४ १८० ४३३२ २५८ ४.२९७ २४६ २.३९ ७८ २.८ ७१ २.४६ ७९ २·४५ १७९ २.१२५ १९ २.३३ ७७ २.१३० १०० १.१५ ९ ३२७ १३३ ४४१ '४'३४८ २६४ ४·३५९ २६९ '४'४३१ ३०३ ४२९१ २४४ १-१६६ ४४ * १६ १८७ ७१ २.७ १.१२५ ३६ २५५ ६६ १.३२ १४ ४.१४ १८७ २.१०९ ९६ Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सूत्रसूची ४ २८१ २४० २.१९२ ११६ ४.२४४ २२९ २.१८१ ११३ २.८० ११३ २.१२१ ९८ १.२५४ ६५ १.१९६ ५३ स्निहसिचोः स्नुषायां हो स्नेहाग्यो| स्पन्देश्चुलुस्पृशः फासस्पृशेरिछप्पः स्पृहः सिहः स्पृहायाम् स्फटिके लः स्फूटिचले: स्मरेझरस्यमोरस्योत् स्यम्जस्स्यादौ दीर्घस्याद् भव्यस्रंसेल्हंसस्वपावुच्च स्वपे: कमवसस्वप्ननीयो स्वप्ने नात् स्वयमोर्थे स्वरस्योवृत्ते स्वराणां स्वराः स्वराणां स्वराः प्रायोस्वरादनतो स्वरादसंयुक्त स्वरेरन्तस्वस्रादेहीं स्वार्थे कश्च स्विदां ज्जः स्सिस्सयोरत् ४.२५५ २३२ १.२६१ ६७ हजे चेट्याहवाने २.१०२ ९४ ४.१२७ २०७ हद्धी निदे ४१८२ २१७ हन्खनो हन्द च ४.२५७ २३३ ४३४ १९० हन्दि विषाद - २.२३ ७५ हरिताले हरिद्रादौ ४२३१ २२६ हरीतक्यामी--- ४.७४ १९८ हरे क्षेपे ४.३३१ २५८ हसेगुञ्जः ४३४४ २६३ हासेन स्फुटे४.३३० २५७ हिस्वयोरि२.१०७ ९५ हीमाणहे ४.१९७ २२० हीही विदूषकस्य १.६४ २३ हु खु निश्चय४.१४६ २१० हुँ चेदुद्भ्याम् १.२५२ ६७ हुँ दानपृच्छा - २.१०८ ९५ हुहरु धुग्धा२.२०९ १२१ ह कृ तवाभीरः १. ८ ७ हृदये यस्य ४२३८ २२७ हो धोनुस्वारात ४.३२९ २५७ ह्य ह्योः ४.२४० २२८ हदे ह्रदोः १.१७६ ४६ ह्रस्वः संयोगे १.१४ ८ ह्रस्वात् ज्यश्च --- ३.३५ १३६ ह्रस्वोमि २.१६४ १०८ लादेरनमच्छः ४.२४ २२४ ह्रो ल्हः ३.७४ १४९ हो भो वा सूत्रसूची समाप्त ॥ २.२०२ ११८ ४.१९६ २१९ ४.११४ २०५ ४.३८७ २७९ ४.२८२ २४० ४.२८५ २४१ २ १९८ ११७ ४३४० २६१ २. ९७ ११७ ४४२३ २९९ ४२५० २३१ ४३१० २५१ १२६४ ६७ २१२४ ९९ २.१२० ९८ १.८४ २७ २.२१ ७४ ४.१२२ २०६ २.७६ ८६ २५७ ८१ Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धातु-रूप कौमुदी / धातु रूपों का बृहद् संकलन / सम्पादक डॉ० राजू (राजेश्वर) शास्त्री मुसलगांवकर (चौ.सं.भ.५७) परिभाषेन्दुशेखरः / नागेशभट्ट कृत / भैरवमिश्र कृत 'भैरवी' टीका तथा लक्ष्मण त्रिपाठी कृत 'तत्वप्रकाशिका' टीका / सदाशिव शर्मा कृत नोट्स / (का. 31) प्राकृतप्रकाशः / वररूचि कृत भामह कृत 'मनोरमा' संस्कृत टीका तथा मथुराप्रसाद कृत हिन्दी टीका उदयराम शास्त्री डबराल कृत नोट्स भूमिका। सं० जगन्नाथ शास्त्री होशिंग (का. 38) प्रौढ़मनोरमा / भट्टोजिदीक्षित कृत। हरिदीक्षित कृत 'लघुशब्द रत्न' भैरवमिश्र कृत 'भैरवी' वैद्यनाथ पायगुंडे 'भाव प्रकाश' तथा गोपाल शास्त्री नेने कृत 'सरला' टीका। अव्ययी-भावान्त (का. 125) रूपचन्द्रिका / शब्द-धातुरुपाणां संग्रहः। सम्पादक- डॉ० राजू (राजेश्वर) शास्त्री मुसलगांवकर (चौ.सं.भ. 56) लघुसिद्धान्तकौमुदी / वरदराज कृत / ‘ललिता' संस्कृत हिन्दी टीका सहित / डॉ० दीनानाथ तिवारी एवम् डॉ० कौशलकिशोर पाण्डेय। (का. 284) वाक्यपदीयम् ब्रह्मकाण्ड / भर्तृहरि कृत। सूर्यनारायण शुक्ल कृत 'भावप्रदीप' टीका तथा नोट्स एवं रामगोविन्द शुक्ल कृत हिन्दी टीका तथा रुद्रप्रसाद अवस्थीकृत परिशिष्ट (का. 124) वार्त्तिकप्रकाशः / अष्टाध्यायी की वृत्ति काशिका के वार्त्तिकों की व्याख्या, आनन्द प्रकाश मेधार्थी। (का. 246) शब्द-रूप कौमुदी। शब्द रूपों का बृहद् संकलन। सं० डॉ० राजू (राजेश्वर) शास्त्री मुसलगांवकर (चौ.सं.भ. 48) चौखम्भा संस्कृत भवन, वाराणसी For Private & Personal use only