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________________ प्राकृतव्याकरण-द्वितीयपाद ३४१ २७५ णकाराकान्तो हकारः-णकार से युक्त हकार यानी ह । विप्रकर्षसंयुक्त व्यञ्जन में बीच में स्वर डालकर संयुक्त व्यञ्जन दूर करने की पद्धति, स्वरभक्ति । सूत्र २.१००.११५ देखिए । कसणो कसिणो-इनमें से स्वरभक्ति के लिए सूत्र २.१०४, १ • देखिए । २.७६ लकाराक्रान्तोहकारः-लकार से युक्त हकार यानी ल्ह । ५.७७-७६ संयुक्त व्यञ्जन में से किस अवयव का लोप होता है, वह इन सूत्रों में कहा है। २.७७ ऊध्वं स्थितानाम्-संयुक्त व्यञ्जन में पहले यानी प्रथम अवयव होने वालों का । दुई--मराठी में दूध । मोग्गरो--मराठी में मोगर । णिच्चलो-- मराठी में निचल। -क, प--क और ख व्यञ्जनों के पूर्व जो वर्ण अधं विसर्ग के समान उच्चारा जाता है, उसको जिह्वामूलीय कहते हैं । और वहक और ख ऐसा दर्शाया जाता है। तथा और फ् व्यञ्जनों के पूर्व जो वर्ण अर्ध विसर्ग के समान उच्चारा जाता है उसे उपध्मानीय कहते हैं । और वह प फ ऐसा दर्शाया जाता है। सच कहे तो ये दोनों भी स्वतन्त्र वर्ण नहीं होते हैं; वे विसर्ग के उच्चारण के प्रकार होते हैं । ( मागधी भाषा में जिह्वामूलीय वर्ण है (सू ४.२९६ देखिए)। क का उदाहरण हेमचन्द्र ने नहीं दिया है । वह होगा:--अन्त करण= अन्तक्करण । ____२.७८ अधोवर्तमानानाम्--संयुक्त व्यञ्जन में बाद में, अनंतर, यानी द्वितीय अवयव होने वालों का । कुड्डं-मराठी में कूड । २७. ऊर्ध्वमधश्च स्थितानाम्--सूत्र २.७७-७८ के ऊपर की टिप्पणी देखिए । वक्कलं--मराठी में वाकल । सद्दो--मराठी में साद । पक्कं पिक्कं--मराठी में पक्का, पिका, पिक (ला)। चक्कं-मराठी में चाक । रत्ती--मराठी में रात. राती । अत्र द्वः'लोपः-द्व इत्यादि के समान ऐसे कुछ संयुक्त व्यञ्जनों में, भिन्न नियमों के अनुसार, एक ही समय पहले और दूसरे अवयव का लोप प्राप्त होता है । उदा०-द्व इस संयुक्त व्यञ्जन में, सूत्र २.७७ के अनुसार द् का लोप प्राप्त होता है, और सूत्र २७९ के अनुसार व् का भी लोप प्राप्त होता है। जब ऐसे दोनों भो अवयवों के लोप प्राप्त होते हैं ( उभय-प्राप्ती ) तब वाङ्मय में जैखा दिखाई देगा वैसा, किसी भी एक अवयव का लोप करे। उदा०--उद्विग्न णब्द में द् का लोप करके उब्विम्ग प्राप्त होता है, तो काव्य शब्द में य का लोपकरके कव्व ऐसा वर्णान्तर होता है मल्लं---मराठी में माल । दारं--मराठी में दार ।। २.८० द्रशव्दे.."भवति--प्राकृत मे क्रय: संयुक्त व्यञ्जन में से रेफ का लोप होता है ( सूत्र २.७२ देखिए ) । परन्तु द्र इस संयुक्त व्यञ्जन में रेफ का लोप विकल्प से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001871
Book TitlePrakrit Vyakarana
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorK V Apte
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1996
Total Pages462
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Grammar, P000, & P050
File Size22 MB
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