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द्वितीय पाद
इस पाद में सूत्र १-९७ और १००-११५ में संस्कृत में संयुक्त व्यञ्जन प्राकृत में आते समय जो वर्णविकार होते हैं वे कहे गए हैं। संयुक्त व्यञ्जनों के बारे में स्वरभक्ति, समानीकरण अथवा सुलभीकरण प्रक्रियाएं प्रयुक्त की जाती हैं। ___ जब दो या अधिक व्यञ्जन बीच में स्वर न आते एकत्र आते हैं, तब संयुक्त व्यञ्जन बन जाता है। उदा०-क्य, तं, स्व, स्न्यं इत्यादि । इन व्यञ्जनों के बीच में अधिक स्वर डालकर संयुक्त व्यञ्जन दूर करने की पद्धति को स्वरभक्ति कहते हैं। उदा०-रत्न-रतन, कृष्ण-किसन इत्यादि । सूत्र २.१००-११५ में स्वरभक्ति का विचार किया गया है।
सभी संयुक्त व्यञ्जनों के संदर्भ में स्वरभक्ति नहीं प्रयुक्त की जाती है। कुछ संयुक्त व्यञ्जनों के बारे में अन्य कुछ पद्धतियां प्रयुक्त की जाती हैं। कारण संस्कृत में से सब प्रकार के संयुक्त व्यञ्जन प्राकृत में नहीं चलते हैं। इसका अभिप्राय ऐसा है:-(१) प्राकृत में केवल दोही अवयवों से बने संयुक्त व्यञ्जन चलते हैं। उदा०धम्म, कम्भ इत्यादि । (२) प्राकृत में शब्द के अनादि स्थान में ही संयुक्त व्यञ्जन चलता है । (३) प्राकृत में संयुक्त व्यञ्जन कुछ विशिष्ट पद्धति से ही बनते हैं :(अ) व्यञ्जनों का द्वित्व होकर :-उदा०-(१) क्क ग्ग च्च ज्ज ट्ट ड्ड त छप्प ब्ब ( यहां वर्ग में से पहले और तीसरे ब्यञ्जन का द्वित्व है )। ण्ण न्न म्म ( यहाँ वर्ग में से कुछ अनुनासिक द्वित्व है। ल्ल ब्व (यहाँ अंतस्थ का द्वित्व है)। स्स ( यहाँ ऊष्म का द्वित्व है । (अ) वर्ग में से दूसरे और चौथे व्यञ्जन के पूर्व वर्ग में से पहले और तीसरे व्यञ्जन आकर उसका द्वित्व होता है। उदा०-ख घच्छ ज्झ ट्ठ ड्ढ त्थ द्ध प्फ भ । (इ) वर्ग में से अनुनासिक प्रथम अवयव और दूसरा अवयव उसी वर्ग में से व्यञ्जन । उदा.--ङ्क ख ग घ च छ ज झ; ण्ट ण्ठ ण्ड ण्ड; न्त न्थ न्द न्ध; म्प म्फ म्ब म्भ ।
( व्यवहारतः म्ह ह ल्ह संयुक्त व्यञ्जन होते, उस उस वर्ण के हकार युक्त रूप हैं। शौरसेनी इत्यादि भाषाओं में चलने वाले संयुक्त व्यञ्जनों के लिए सूत्र ४.२६६, २८९, २९२-२९३, २९५, ३९८, ३०३, ३१५, २९१, ३२३, ३९८, ४१४ देखिए ।)
संस्कृत में से संयुक्त व्यञ्जन का प्राकृत में उपयोग करने के लिए, समानीकरण यह एक प्रधान पद्धति है । समानीकरण में संयुक्त व्यञ्जन में से एक अवयव का लोप होकर शेष व्यञ्जन का द्वित्व होता है । समानीकरण से आये हुए द्वित्व में से एक
२२ प्रा. व्या०
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