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प्राकृतव्याकरणे
१८५ जुगुप्सेझुणदुगुच्छदुगुञ्छाः ॥ ४ ॥ जुगुप्सेरेते त्रय आदेशा वा भवन्ति । झुणइ । दुगुच्छइ । दुगुञ्छइ। पक्षे । जुगुच्छई । गलापे । दुउच्छई दुउञ्छई जुउच्छई।
जुगुप्स् (धातु ) को ये ( = झुण, दुगुच्छ और दुगुञ्छ ) तीन आदेश विकल्प से होते हैं। उदा.-झुणइ..."दुगुञ्छइ । ( विकल्प-) पक्ष में:-जुगुच्छह । (इन रूपों में) ग् का लोप होने पर, दुउच्छइ; दुःउञ्छइ, जुउच्छइ ( ऐसे रूप होते हैं )।
बुभुक्षिवीज्योीरव-वोजौ ॥ ५॥ बुभुक्षेराचारक्विबन्तस्य च वीजेर्यथासंख्यमेतावादेशौ वा भवतः । णीरवइ । बुहुक्खइ । वोज्जइ । वीजई।
बुभुक्ष मोर आचार ( अर्थ में लगनेवाले ) पिवप् ( प्रत्यय ) से अन्त होनेवाला बीज, इन धातुओं) को अनुक्रम से ( णीरव और वोज) ये आदेश विकल्प से होते हैं। उदा.-णीरवर; (विकल्प-पक्षमें:- ) बुहुक्खइ । बोज्जइ; (विकल्पपक्षमें:-) वीजइ।
ध्यागोागौ ॥ ६॥ अनयोर्यथासंख्यं झागा इत्यादेशौ भवतः । झाइ । झाअह। णिज्झाइ। णिज्झामइ। निपूर्वो दर्शनार्थः । गाइ मायइ । झाणं । गाणं ।
(ध्य और गे ) इन ( धातुओं ) को अनुक्रम से झा और गा ऐसे आदेश होते हैं । उदा०-साइ'..."णिज्झाअइ; नि ( यह उपसर्ग ) पूर्व में होनेवाला (ध्ये पातु ) देखना ( दर्शन ) अर्थ में है; गाइ...'गाणं ।
ज्ञो जाणमुणौ ॥७॥ जानातेणिमुण इत्यादेशौ भवतः । जाणइ मुणइ । बहुलाधिकारात् क्वचित् विकल्पः । जाणिों णायं । जाणिऊण नाऊण । जाणणं णाणं। मणइ इति तु मन्यतेः।
ज्ञा ( जानाति इस धातु ) को जाण और मुण ऐसे आदेश होते हैं। उवाजाणइ, मुणइ । बहुल का अधिकार होने से, क्वचित् विकल्प होता है। उदा.जाणिसं'. 'णाणं ; मणइ यह रूप मात्र मन् (मन्यते) (धातु) का हैं। १./नि-+-ध्य । २. क्रमसे:-/ध्यान । गान । ३. ज्ञात ।
४. V ज्ञान ।
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