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टिप्पणियां
इनकी तामर साणुसारिणी, ऐसी संधि हुई है। पुहवीसो-यहां पुहवी में से ई और ईसमें से ई इन सजातीय स्वरों की संधि हुई है।
१.७ एकार-ओकारयोः--ए और ओ इन स्वरों का । एकाध वर्ण का निर्देश करते समय, उसके आगे 'कार' शब्द जोड़ा जाता है। उदा.-एकार । स्वरस्वयं राजन्ते इति स्वराः। स्वरों का उच्चारण स्वयं पूर्ण होता है। श्लोक १नालन के क्षतों से युक्त ऐसे अंग पर कंचुक परिधान करने वाले वधू के संदर्भ में ( वे नखक्षतों मदनबाणों के संतत धाराओं से किये गये जख्मों के समान दिखाई देते हैं। इस श्लोक में ल्लिहणे शब्द में ये ए और अगला आ इनकी संधि नहीं हुई है। श्लोक २-गज के बच्चे के दांतों की कांति जिसको उपमा देने में अधुरी/ अपूर्ण ( अपज्जत्त ) पड़ती है, ऐसा यह । तेरा ) ऊरु-युगल अब कुचला हुआ कमल. दंठल के दंड के समान विरस, ऐसा हमें दिखाई देता है। इस श्लोक में, • लक्खिमो शब्द में से ओकार की अगले स्वर के साथ संधि नहीं हुई है। अहो अच्छरिअंयही हो में से ओकार की अगले स्वर के साथ संधि नहीं हुई है। श्लोक ३-अर्थ का विचार करने में तरल (बेचैन ) हुए, अन्य ( सामान्य ) कवियों को बुद्धियों को भ्रम होता है । ( परंतु ) कवि श्रेष्ठों के मन में । मात्र ) अर्थ बिना सायास आते हैं। इस श्लोक में, अत्थालाअण शब्द में अत्थ और आलोअण तथा कइन्दाणं शब्द में कइ और इन्द इनकी संधि हुई है।
१.८ व्यञ्जन--स्वरेतर वर्ण । स्वर के साहाय्य के बिना व्यञ्जनों का पूर्ण उच्चारण नहीं होता है। व्यञ्जनों के उच्चारण के लिए अर्धमात्रा इतना काल लगता है ( व्यञ्जन चार्धमात्रिकम् ) 1 उद्वृत्त-व्यञ्जन का लोप हाने के बाद शेष/अवशिष्ट रहने वाला स्वर उद्धृत्त कहा जाता है। उदा०-गति शब्द में सूत्र १.१७७ के अनुसार त व्यञ्जन का लोप होने पर जो इ स्वर शेष रहता है वह उद्वत्त है। श्लोक १--यह श्लोक विन्ध्यवासिनी देवी को उद्देश्यकर है। उसका अर्थ अच्छी तरह स्पष्ट नहीं होता है। संभवत ऐसा अर्थ है:--बलि दिए जाने वाले महापशु ( == मनुष्य ) के दर्शन से निर्माण हुए संभ्रम ये एक दूसरे पर आरूढ, तेरे चित्र में से देवता आकाश में ही गंध-द्रव्य का गृह करते हैं । ( यह श्लोक गउडवह, ३१९ है । वहाँ टीकाकार कहता है:-महापशुः मनुष्यः, परस्परं आरूढा अन्योन्योत्कलितशरीराः, गन्ध कुटी गन्धद्रव्यगृहम; कौलनार्यः चित्र-न्यस्त देवता-विशेषाः । कोलनार्यः यानी शाक्तपंथी नारी ऐसा भी सर्थ होगा) । इस श्लोक में, गंध-उडि शब्द में, उ इस उद्वत्त स्वर की पिछले स्वर से संधि नहीं हुई है। अतएव..... मिन्नपदत्वम्समास में दूसरा पद कभी स्वतंत्र माना जाता है तो कभी संपूर्ण सामासिक शब्द एक ही पद माना जाता है ।
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