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प्राकृतव्याकरणे
दुर्गादेव्युदुम्बरपादपतनपादपीठान्तदः ॥ २७० ॥ एष सस्वरस्य दकारस्य अन्तर्मध्ये वर्तमानस्य लुग वा भवति । दुग्गा-वी दुग्गा-एवी। उम्बरो उउम्बरो। पावडणं पायवडणं। पावीढं पायवीढं । अन्तरिति किम् । दुर्गादेव्यामादौ मा भूत् ।।
दुर्गादेवी, उदुम्बर, पादपतन और पादपीठ शब्दों में, अन्तर्यानी मध्य में (बीच में) रहने वाले दकार का स्वर के साथ विकल्प से लोप होता है । उदा.-दुग्गावी.... पायवी ढं। मध्य में होने वाले ( दकार का ) ऐसा क्यों कहा है ? ( कारण दुर्गादेवी शब्द में पहले दकार को यह नियम लागू न पड़े, इसलिए )। यावत्तावज्जीवितावर्तमानावटपावारकदेवकुलैवमेवे वः ॥ २७१ ।।
यावदादिषु सस्वर-वकारस्यान्तर्वर्तमानस्य लुग् वा भवति । जा जाव । ता ताव। जीअं जीविअं। अत्तमाणो आवत्तमाणो। अडो अवडो। पारमो पावारओ। देउलं देवउलं । एमेव एवमेव । अन्तरित्येव । एवमेवेन्त्यस्य न भवति।
इत्याचार्यहेमचंद्रविरचितायां सिद्धहेमचन्द्राभिधानस्वोपज्ञ
शब्दानुशासनवृत्तौ अष्टमस्याध्यायस्य प्रथमः पादः । यावत्, तावत् जीवित, आवर्तमान, अवट, प्रावारक, देवकुल, और एवमेव शब्दों में, मध्य में/बीच में रहने वाले वकार का स्वर के साथ विकल्प से लोप होता है। उदा-जा........." एवमेव । मध्य में रहने वाले हो वकार का विकल्प से लोप होता है; इसलिए एवमेव शब्द से अन्त्य ( वकार ) का ( विकल्प से लोप ) नहीं होता है।
[ आठवें अध्याय का पहला पाद समाप्त हुआ। ]
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